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२५० श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २५.-उद्देशक ६. ७४. [प्र०] पुलाए गंभंते ! बउसस्स परढाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अन्भहिए! [उ.] गोयमा ! हीणे. नो तल्ले, नो अब्भहिए, अणंतगुणहीणे । एवं पडिसेवणाकुसीलस्स वि। कसायकुसीलेणं समं छटाणवडिए जडेव सट्ठाणे । नियंठस्स जहा बउसस्स; एवं सिणायस्स वि।
७५. [प्र०] बउसे णं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे, तुले, अब्भहिए ? [उ.] गोयमा! णो हीणे, णो तुल्ले, अन्भहिए, अणंतगुणमब्भहिए।
७६. [प्र०] बउसे णं भंते ! बउसस्स सट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! सिय हीणे, सिय तुल्ले, सिय अभहिए । जइ हीणे छट्ठाणवडिए।।
७७. [प्र०] बउसे णं भंते ! पडिसेवणाकुसीलस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहिं किं हीणे० १ [उ०] छट्ठाणवडिए; एवं कसायकुसीलस्स वि ।
७८. [प्र०] बउसे णं भंते ! नियंठस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेटिं-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! हीणे, णो तुल्ले, जो अब्भहिए; अणंतगुणहीणे; एवं सिणायस्स वि। पडिसेवणाकुसीलस्स एवं चेव बउसवत्तचया भाणियचा । कसायकुसीलस्स एस चेव बउसवत्तवया । नवरं पुलाएण वि समं छट्ठाणवडिए । ___७९. [प्र०] णियंठे गं भंते ! पुलागस्स परट्ठाणसन्निगासेणं चरित्तपजवेहि-पुच्छा । [उ०] गोयमा ! णो होणे, णो तुल्ले, अभहिए; अणंतगुणमन्भहिए; एवं जाव-कसायकुसीलस्स ।
पुलाकनो बकुशनी ७४. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक (पोताना चारित्रपर्यायोवडे) बकुशना परस्थानसंनिकर्ष-विजातीय चारित्रपर्यायोनी अपेक्षाए शं अपेक्षाए परस्थान- हीन छे, तुल्य छे के अधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! हीन छे, पण तुल्य के अधिक नथी, अने ते अनंतगुण हीन छे. ए प्रमाणे प्रतिसंनिकर्ष.
सेवनाकुशीलना चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए *पुलाक अनन्तगुण हीन छे. पुलाक जेम खस्थान-सजातीय पर्यायनी अपेक्षाए छ स्थानपतित कह्यो
छे तेम कषायकुशीलनी साथे पण छ स्थानपतित जाणवो. बकुशनी पेठे निम्रन्थनी साथे जाणवू. एम स्नातकनी साथे पण समजवू. बकुशना पुलाकनी ७५. [प्र०] हे भगवन् । 'बकुश पुलाकना परस्थान-विजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन छे, तुल्य छे के अधिक छे ? अपेक्षाए चारित्र
" [उ०] हे गौतम ! हीन नथी, तुल्य नथी, पण अधिक छे, अने ते अनंतगुण अधिक छे. बकुशना स्वस्थाननी ७६. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश बकुशना सजातीय चारित्रपर्यायने आश्रयी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! कदाच अपेक्षाए चारित्र
न हीन होय, कदाच तुल्य होय, अने कदाच अधिक होय. जो हीन होय तो ते छस्थानक पतित होय. बकुशना प्रतिसेवना- ७७. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश प्रतिसेवनाकुशीलना विजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे? [उ०] हे गौतम ! छस्थानकपतित कुशीलनी अपेक्षाए
चारित्र पर्यायो होय. ए प्रमाणे कषायकुशीलनी अपेक्षाए पण जाणवू. बकुशना निग्रन्थनी ७८. [प्र०] हे भगवन् ! बकुश निर्ग्रथना विजातीय चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन होय-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम !
- हीन छे, तुल्य नथी अने अधिक पण नथी. अने ते अनंतगुण हीन छे. ए प्रमाणे स्नातकनी अपेक्षाए पण समजवू. तथा प्रतिसेवनाकु
शीलने एज प्रमाणे बिकुशनी वक्तव्यता (सू० ७६-७९) कहेवी. कषायकुशीलने एज प्रमाणे जाणवू. परन्तु पुलाकनी अपेक्षाए अने कषायकुशी
• कषायकुशील छस्थानपतित होय छे. लना चारित्रपर्यायो..
७९. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथ पुलाकना परस्थानसंनिकर्ष-विजातीय चारित्रपर्यवोथी शुं हीन छे-इत्यादि पृच्छा. [उ०] हे गौतम ! पुलाकनी अपेक्षाए निग्रन्थना चारित्र. ते हीन नथी, तुल्य नथी पण अधिक छे, अने ते अनंतगुण अधिक छे. ए प्रमाणे यावत्-कषायकुशीलना संबंधनी अपेक्षाए
पण जाणवू.
. पर्यायो.
७४ * पुलाक खस्थाननी अपेक्षाए जेम षट्स्थानपतित कह्यो तेम कषायकुशीलनी अपेक्षाए पण षट्स्थानपतित कहेवो. पुलाक अने कषायकुशीलना सर्व जघन्य संयमस्थान सोथी नीचे छे. त्यांथी ते बन्ने साथे असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. कारण के त्यां सुधी बच्नेना तुल्य अध्यवसायो होय छे. त्याथी पुलाक हीन परिणाम होवाथी संयमस्थानमा वधतो अटकी जाय छे, अने त्यार पछी कषायकुशील एकाकी असंख्य संयमस्थान सुधी थाय छे. त्याथी कषायकुशील प्रतिसेवनाकुशील अने बकुश साथे असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. त्यां बकुश अटके छे. पछी प्रतिसेवनाकुशील अने कषायकुशील बन्ने असंख्य संयमस्थान सुधी जाय छे. त्या प्रतिसेवनाकुशील अटके छे. पछी कषायकुशील असंख्य संयमस्थान सुधी जीय छे, अने ते त्या अटके छे. त्यार पछी आगळ निम्रन्थ अने स्नातक एकज संयम स्थानने प्राप्त करे छे. माटे पुलाक निर्ग्रथना चारित्रपर्यायोथी अनन्तगुणहीन छे.
७५ + बकुश पुलाकथी अनन्तगुण अधिक छे, अने पुलाक बकुशथी हीन, तुल्य के अधिक छे. बकुश प्रतिसेवाकुशील अने कषायकुशीलथी पण हीनादि छे, निम्रन्थ अने स्नातकथी तो हीन ज छे.
७८ प्रतिसेवाकुशील अने कषायकुशील बकुशनी पेठे जाणवा. परन्तु त्या पुलाकथी बकुश अधिक कह्यो छे अने अहीं पुलाकथी कषायफुशील षट्स्थान पतित जाणवो. केमके तेना परिणाम पुलाकनी अपेक्षाए हीन, सम अने अधिक छे.-टीका.
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