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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
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शतक १८.-उद्देशक ७.
महुए समणोवासए समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव-निसम्म हट्ठ-तुढे पसिणाई पुच्छति, प० २ पुच्छित्ता अट्ठाई परियातिइ, अ० २ परियादित्ता उट्ठाए उट्टेइ, उ० २ उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वदति नमसति, बदित्ता नमंसित्ता जाव-पडिगए।
१७. [प्र०] 'भंतेत्ति भगवं गोयमे समणे भगवं महावीरं वंदति नमसति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-पभू पं भंते ! महुए समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं जाव-पच्चइत्तए ? [उ०] णो तिणटे समटे, एवं जहेव संखे तहेव अरुणाभे जाव-अंतं काहिति ।
१८. [प्र०] देवे णं भंते ! महडिए जाव-महेसक्खे रूवसहस्सं विउवित्ता पभू अन्नमनेणं सद्धि संगाम संगामित्तए ? [उ०] हंता पभू।
१९. [प्र०] ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफुडाओ अणेगजीवफुडाओ ? [उ०] गोयमा ! एगजीवफुडाओ, णो अणेगजीवफुडाओ।
२०. [प्र०] ते णं भंते ! तासि णं बोंदीण अंतरा किं एगजीवफुडा अणेगजीवफुडा ?, [उ०] गोयमा ! एगजीवफुडा, नो अणेगजीवफुडा।
२१. [प्र०] पुरिसे णं भंते ! अंतरे थे हत्थेण वा० एवं जहा अट्ठमसए तइए उद्देसए जाव-नो खलु तत्थ सत्थं कमति । २२. [प्र०] अस्थि णं भंते ! देवासुराणं संगामे दे० २१ [उ०] हंता अस्थि ।
२३. [प्र०] देवासुरेसु णं भंते ! संगामेसु वट्टमाणेसु किन्नं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ? [उ०] गोयमा ! जन्नं ते देवा तणं वा कटुं वा पत्तं वा सक्करं वा परामुसंति तं गं तेसिं देवाणं पहरणरयणत्ताए परिणमति ।
२४. [प्र०] जहेव देवाणं तहेव असुरकुमाराणं ? [उ०] णो तिणटे समढे, असुरकुमाराणं देवाणं निचं विउधिया पहरणरयणा पन्नत्ता।
देवोर्नु वैक्रिय रूप करवानुं सामर्थ्य.
वैक्रिय शरीरोनो जीन साथे संबन्ध.
देना परस्पर अंतरनो बीव साये संबन्ध,
यावत्-ते पर्षदा पाछी गई. पछी ते मद्रुक श्रमणोपासके श्रमण भगवंत महावीर पासेथी यावत्-धर्मोपदेश सांभळी हृष्ट अने संतुष्ट थई प्रश्नो पूछया, अर्थो जाण्या, अने. त्यार बाद उभा थई श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी यावत्-ते पाछो गयो.
१७. प्र०] 'हे भगवन् । एम कही भगवान् गौतमे श्रमण भगवंत महावीरने वांदी नमी आ प्रमाणे कयुं के हे भगवन् ! मद्रुक श्रमणोपासक आप देवानुप्रियनी पासे यावत्-प्रव्रज्या लेवा समर्थ छे ? [उ०] हे गौतम ! ए अर्थ समर्थ नथी-इत्यादि जेम "शंख श्रमणोपासक संबन्धे कह्यु हतुं तेम यावत्-अरुणाभविमानमां देव तरीके उत्पन्न थई यावत्-सर्व दुःखोनो अन्त करशे.
१८. [प्र०] हे भगवन् ! महर्द्धिक यावत्-मोटा सुखवाळो देव हजार रूपो विकुर्वी, परस्पर संग्राम करवा समर्थ छे ! [उ०] हा गौतम ! समर्थ छे.
१९. [प्र०] हे भगवन् ! ते विकुर्वेलां शरीरो एक जीवनी साथे संबंधवा होय छे के अनेक जीव साथे संबंधवाळा होय छे ! [उ०] हे गौतम ! ते बधां शरीरो एक जीव साथे संबन्धवाळा होय छे, पण अनेक जीव साथे संबंधवाळां होता नथी.
२०. [प्र०] हे भगवन् ! ते शरीरोना परस्पर अंतरो-वच्चेना भागो एक जीव वडे संबद्ध छे के अनेक जीव वडे संबद्ध छे ! [उ०] हे गौतम ! ते शरीरो वच्चेनां अंतरो एक जीव वडे संबद्ध छे पण अनेक जीव वडे संबद्ध नथी.
२१. प्र०] हे भगवन् ! कोइ पुरुष ते शरीरो वच्चेना आंतराओने पोताना हाथवडे, पगवडे स्पर्श करतो यावत्-तीक्ष्ण शस्त्र वडे छेदतो कांइ पण पीडा उत्पन्न करी शके ! इत्यादि आठमा शतकना त्रीजा उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-त्या शस्त्र असर करी शके नहि त्यां सुधी कहे.
२२. [प्र०] हे भगवन् ! देव अने असुरोनो संग्राम थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! हा, थाय छे.
२३. [प्र०] हे भगवन् ! ज्यारे देव अने असुरोनो संग्राम थतो होय त्यारे ते देवोने कई वस्तु शस्त्ररूपे परिणत थाय ! [उ०] हे गौतम | तणखलं, लाकडु, पांदई के कांकरो वगेरे जे कोइ वस्तुनो स्पर्श करे ते वस्तु ते देवोने शस्त्ररूपे परिणत थाय छे.
२४. [प्र०] जेम देवोने कोई पण वस्तु स्पर्शमात्रथी शस्त्ररूपे परिणत थाय छे तेम असुरोने पण थाय ! [उ०] हे गौतम ! ९ अर्थ समर्थ नथी, पण असुरकुमार देवोने तो हमेशा विकुर्वेला शस्त्ररत्नो होय छे.
तेना परस्पर अंतरनो शखादिथी छेद थाय के नहि !
देवासुर संग्राम.
१७ * जुओ भग० श० १२ उ० १ पृ. २५६. २१ जुओ भग० सं०३ पृ. ७८ सू० ७.
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