Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 1
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
दृष्टिका दोष है कि हम उस देशके तारतम्यको दूरदेशसे जान नहीं सकते हैं। हर एक पुरुषको अनेक सूर्योकी पंक्तिका न दीखना ही सूर्योकी अनेकताका बाधक प्रमाण विद्यमान है, अतः बाधकप्रमाणसे रहित होकर जो अनेक देशों में निधनान जीखेगा, यह अनेक अवश्य है, सूर्यका अनेक देशोमें दीखना बाधित होनेसे मिथ्याज्ञान है, इसी प्रकार उक्त दो स्थलोंका व्यभिचार भी निवृत्त हो जाता है।
पर्वतादिनैकेन व्यभिचारीदमनुमानमिति चेत् न, तस्य नानावयवात्मकस्य सतो बाधकामाचे सति युगपङ्गिन्नदेशतयोयलम्यमानत्वं व्यवतिष्ठते, निरवयवत्वे तथाभावविरोधादेकपरमाणुवत् ।
प्रतिवादी कह रहा है कि एक हिमालय पहाडको किसी व्यक्तिने शिमलामें देखा दूसरेने उसी समय मंसूरीमें देखा तो क्या वे पहाड अनेक हैं ? इस प्रकार शब्दको नाना सिद्ध करनेवाला आप जैनोंके अनुमानका हेतु एक माने जा रहे पर्वत, नदी, देश आदिसे व्यभिचारी हो जावेगा, आचार्य कहते हैं कि, मीमांसकोंका यह दोष भी देना ठीक नहीं है, क्योंकि वे पर्वत, नदी, आदि अवयवी अपने अपने अनेक अंशोंसे तदात्मक-युक्त होकर ही एक समयमें भिन्न भिन्न देशोंमें स्थित चाधारहित होते सन्ते दीखते हैं, यह निर्दोष सिद्धान्त व्यवस्थित हो रहा है । अतः अपने अवयवोंकी अपेक्षासे पर्वतादि अनेक ही हैं, हेतु और साध्य इन दोनोके रहनेपर व्यभिचार नहीं हो सकता है। यदि पहाडों नदिओंको एक परमाणुके समान अवयवरहित मानोगे तो जिस प्रकार अनेक देशाम दीख रहे हैं उतने लम्बे चौडे एक अवयवीपनाका विरोध हो नावेगा । आप मीमांसक लोग बौद्धोंके समान अवयवीपदार्थका वण्डन नहीं करते हैं किंतु अवयत्रीको मानते हैं, अतः पर्वतादिकसे व्यभिचार दोष नहीं आता है।
व्योमादिना वदनैकान्तिकत्वमनेन प्रत्युक्तं,तस्याप्यनेकप्रदेशत्वसिद्धेः। खादेरनेकप्रदेशत्वादेकद्रव्यविरोध इति चेत् , न नानादेशस्यापि घटादेरेकद्रव्यत्वप्रतीतेः, न खेकप्रदेशत्वेनैवैकद्रव्यत्वं व्याप्तं येन परमाणोरेवैकद्रव्यता, नापि नानाप्रदेशत्वेनैव यतो घटादेरेवेति व्यवतिष्ठते एकद्रव्यत्वपरिणतस्यैकद्रव्यता, नानाद्रव्यत्वपरिणतानामर्थानां नानाद्रव्यतावत् ।
पुनः मीमांसकों का कहना है कि आप जैनोंका अनेकत्रको सिद्ध करनेवाला वह हेतु तो आकाश और दिशा आदिसे ज्यभिचारी है, क्योंकि वे एक होकर भी अनेकदेशी नानापुरुषों के द्वारा जाने जाते हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह मीमांसकोंकी मोरसे उठाया हुआ दोष भी पूर्वोक्त प्रकारसे ही निराकृत होजाता है, क्योंकि आकाश आदि द्रव्यों को अनेकप्रदेशीपना सिद्ध है । भरतक्षेत्र सम्बन्धी आकाशके प्रदेशोंसे विदेहक्षेत्रके आकाशके प्रदेश भिन्न हैं । ऊर्ध्वलोकके प्रदेशोंसे