Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, २, ७, १४.1 वेयणमहाहियारे वेयणभावविहाणे सामित्तं ण केवलमेसो चेव उक्कस्साणुभागसामी होदि, किंतु जस्स तं संतकम्ममत्थि सो वि सामी होदि ।
तं संतकम्मं कस्स होदि त्ति वुत्ते एदेसु होदि त्ति जाणावणटुं उत्तरसुत्तं भणदि
तं खीणकसायवीदरागछदुमत्थस्स वा सजोगिकेवलिस्स वा तस्स वेयणा भावदो उक्कस्सा ॥ १४॥
सादावेदणीयउकस्साणुभागं बंधिय खीणकसाय-सजोगि-अजोगिगुणहाणाणि उवगयस्स वेयणीय उकस्साणुभागो एदेसु गुणट्ठाणेसु लब्भदि । सुत्तम्हि अजोगिणिदेसेण विणा कधमजोगिम्हि उक्कस्साणुभागो होदि त्ति लब्भदे ?ण विदिय'वा'सद्देण तदुवलद्धी, 'पंचिंदियस्स वा' इच्चेवमाईसु द्विद 'वा'सद्दो व्व वृत्तसमुच्चए तस्स पवुत्तीदो त्ति ?' होदु' तत्थतण'वा'सद्दाणं समुच्चए पवुत्ती, तत्थ अण्णत्थाभावादो। एत्थतणो पुण विदिय'वा' सदो अवुत्तसमुच्चए वट्टदे, पढम'वा'सद्देणेव वुत्तसमुच्चयत्थसिद्धीदो । तदो विदिय'वा'सद्दो अजोगिग्गहणणिमित्तो त्ति घेत्तव्यो । अधवा, होदु णाम बिदिय वा सद्दो वि वुत्तसमुच्चयहो। अजोगिस्स कथं पुण गहणं होदि ? अत्थावत्तीदो।तं जहा-खीणकसाय-सजोगिप्रगट किया गया है। केवल यही जीव उत्कृष्ट अनुभागका स्वामी होता है, यह बात नहीं है; किन्तु जिस जीवके उसका सत्त्व रहता है वह भी उसका स्वामी होता है।
उसका सत्त्व किसके होता है, ऐसा पूछनेपर इन जीवोंके उसका सत्त्व होता है; यह बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
उसका सत्त्व क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थके होता है अथवा सयोगिकेवलीके होता है, अतएव उनके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ १४ ॥
सातावेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर क्षीणकषाय, सयोगी और अयोगी गुणस्थानको प्राप्त हुए जीवके इन गुणस्थानोंमें वेदनीयका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है।
शङ्का-सूत्रमें अयोगी पदका निर्देश किये बिना अयोगिकेवली गुणस्थानमें उत्कृष्ट अनुभाग होता है, यह कैसे जाना जाता है ? द्वितीय वा शब्दसे उसका परिज्ञान होता है, यह भी यहाँ नहीं कहा जा सकता है, कारण कि 'पंचिंदियस्स वा' इत्यादिर्को में स्थित वा शब्दके समान द्वितीय वा शब्द उक्त अर्थके समुच्चयमें प्रवृत्त है ?
समाधान -पंचिंदियस्स वा' इत्यादिकोंमें स्थित वा शब्दोंकी प्रवृत्ति उक्त अर्थके समुच्चयमें भले ही हो, क्योंकि, वहाँ उनका दूसरा अर्थ नहीं है। किन्तु यहाँ स्थित द्वितीय 'वा' शब्द अनुक्त अर्थके समुच्चयमें प्रवृत्त है, क्योंकि, उक्त समुच्चयरूप अर्थकी सिद्धि प्रथम वा शब्दसे ही हो जाती है। अतएव द्वितीय वा शब्दको अयोगिकेवलीका ग्रहण करनेके निमित्त समझना चाहिये।
__ अथवा, द्वितीय वा शब्द भी उक्त अर्थका समुच्चय करनेके लिये है। तो फिर अयोगिकेबलीका ग्रहण कैसे होता है ऐसा पूछनेपर कहते हैं कि उसका ग्रहण अर्थपत्तिसे होता है ।
१. प्रतिषु 'होदि' इति पाठः। छ. १२-३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org