Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, १, २. सक्कीसाणा पढमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा।। तच्च तु बम्ह-लंतय सुक्क-सहस्सारया चोत्थं ॥ १० ॥ आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा । . पस्संति पंचमखिदि छट्टि गेवज्जया जे दु॥ ११ ॥ सव्वं च लोयणालिं पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा ।
सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागो दु॥ १२ ॥ एदाहि गाहाहि उत्तासेसोहिखेत्ताणमेसो अत्थो जहासंभवं परूवेदव्वो, अण्णहा पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो । एवं जहण्णोहिक्खेत्तपरूवणा कदा ।
संपहि जहण्णोहिकालपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा - आवलियाए असंखेज्जदि
__ सौधर्म और ईशान स्वर्गके देव प्रथम पृथिवी तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके देव द्वितीय पृथिवी तक, ब्रह्म और लान्तव कल्पोंके देव तृतीय पृथिवी तक, तथा शुक्र और सहस्रार स्वर्गौके देव चतुर्थ पृथिवी तक देखते हैं ॥ १० ॥
आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पोंमें रहनेवाले जो देव हैं वे पंचम पृथिवी तक, तथा ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुए देव छठी पृथिवी तक देखते हैं ॥ ११ ॥
नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरोंमें जो देव हैं वे सब लोकनाली अर्थात् कुछ कम चौदह राजु लम्बी और एक राजु विस्तृत लोकनालीको देखते हैं । स्वक्षेत्र अर्थात् अपने क्षेत्रके प्रदेशसमूहमें से एक प्रदेश कम करके अपने अपने अवधिज्ञानावरणकर्म द्रव्यमें एक वार अनन्त अर्थात् ध्रुवहारका भाग देना चाहिये । इस प्रकार एक एक प्रदेश कम करते हुए ध्रुवहारका भाग तब तक देना चाहिये जब तक उक्त प्रदेश समूह समाप्त न हो जावे। ऐसा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह विवक्षित अवधिका विषयभूत द्रव्य जानना चाहिये ॥ १२॥
इन गाथाओं द्वारा कहे गये समस्त अवधिक्षेत्रोंका यह अर्थ यथासम्भव कहना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आवेगा। इस प्रकार जघन्य अवधिके क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है।
अब जघन्य अवधिके कालकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- आवलीके
१ म. बं. १, पृ. २२. गो. जी. ४३०. विशे. भा. ६९८ (नि. ४८.). २ म. बं. १, पृ. २३. गो. जी. ४३१.
३ म. बं. १, पृ. २३. गो. जी. ४३२. आणय-पाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पुढवि । तं चेत्र आरणच्चुय ओहिण्णाणण पासंति ॥ छढि हेछिम-मज्झिमविज्जा सतमि च उवरिल्ला। संमिण्णलोगणालिं पासंति अणुचरा देवा ॥ विश. भा. ६९९-७०० (नि. ४९-५०).
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org