________________
२१८) खंडागमे वैयणाखंड
[ ४, १, ६२ः तिष्ण गोआममदव्वकदीण सरूवं भणिय तासि विसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्त भणदि
जा सा जाणुगसरीरदव्वकदी णाम तिस्से इमे अत्थाहियारा भवंति-ट्ठिदं जिद परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अस्थसमं गंथसम णामसमं घोससमं ॥ ६२॥
तत्थ सणि सणिं सगविसए वट्टमाणो कदिअणियोगो द्विदं णाम । पडिक्खलणेण विणा मंथरगईए सगविसए संचरमाणो कदिअणियोगो जिदं णाम । अइतुरियाए गईए पडिक्खलणेण विणा आइद्धकुलालचक्कं व सगविसए परिब्भमणक्खमो कदिअणियोगो परिजिदं णाम । पत्तणंदादिसरूवं कदिसुदणाणं वायणोवगयं णाम । जिणवयणविणिग्गयबीजपदादो भणंतत्थावगहणेण अपक्खरणिदेसत्तणेण य पत्तसुत्तणामादो गणहरदेवेसुप्पण्णकदिअणिओगो सुत्तेण सह वुत्तीदो सुत्तसमं । गंथ-बीजपदेहि विणा संजमवलेण केवलणाणं व सयंबुद्धसुप्पण्णकदिअणियोगो अत्थेण सह वुत्तीदो अत्थसमं णाम । अरहंतवुत्तत्थो गणहरदेवगंथिओ सद्दकलावो गंथो णाम । तत्तो समुप्पणो भद्दबाहुआदिथेरेसु वट्टमाणो कदिअणियोगो गंधेण सह
वह तद्व्यतिरिक्तकृति है। अब तीन नोआगमकृतियोंका स्वरूप कहकर उनकी विशेष प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं
___ जो वह ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति है उसके ये अधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ॥ ६२ ।।
उनमें से धीरे धीरे अपने विषयमें वर्तमान कृतिअनुयोग स्थित कहलाता है । बिना रुकावटके मन्द गतिसे अपने विषयमें संचार करनेवाला कृतिअनुयोग जित कहलाता है। रुकावटके विना अति शीघ्र गतिसे घुमाए हुए कुम्हारके चक्रके समान अपने विषयमें जो संचार करने में समर्थ है वह कृतिअनुयोग परिजित है। नन्दा आदिके स्वरूपको प्राप्त कृतिश्रुतशान का नाम घाचनोपगत है। अनन्त पदार्थों का ग्रहण करने और अक्षरनिर्देशसे राहत होने के कारण सूत्र नामको प्राप्त हुए जिन भगवान के मुखसे निकले पीजपदसे गणधर देवोंमें उत्पन्न हुआ कृतिअनुयोग सूत्रके साथ रहनेसे सूत्रसम कहा जाता है। प्रस्थ और बीजपदोंके विना संयमके प्रभावसे केवलज्ञानके समान स्वयंबुद्धों में उत्पन्न कृतिअनुयोग अर्थके साथ रहनेसे अर्थसम कहलाता है। अरहन्त देवके द्वारा जिसका अर्थ कहा गया है तथा जो गणधरोंसे गूंथित है ऐसे शब्दकलापको ग्रन्थ करते हैं। उससे उत्पन्न हुआ भद्रबाहु आदि स्थघिरोंमें रहनेवाला कृतिअनुयोग प्रत्यके
१ प्रतिषु · वायगोवकदं' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org