Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
३०२ छक्खंडागमे वैयणाखंड
[१, १, १. हाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, उवरिल्लहिदिवाणेहि णिसेयस्स जहण्णपदं, तदो उव्वाट्टदो तिरिक्खेसुववण्णो, अंतोमुहुत्तं जीविदूण उव्वट्टिदो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववण्णो, सबलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्ठवस्साउओ संजमं पडिवण्णो, सव्वलहुं केवल] णाणमुप्पादेदि, उप्पण्णणाण-दसणहरो जिणो केवली देसूणं पुव्वकोडिं विहरिदो, अंतोमुहुत्ते जीवियावससे सेलेर्सि पडिवण्णा, तरू चरिमसमयभवसिद्धियस्स खविदकम्मंसियस्स जहणिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगमं ।
- तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी कस्स? [ जो ] जीवो छावहिसागरोवमाणि सुहुमेसु अच्छिदो । एवं णीदं जाव' उवरिल्लट्ठिदिवाणेहि णिसयस्स जहण्णपदं त्ति । तदो सुहुमेहि पज्जत्तएहि उववण्णो, तस्स तम्हि पज्जत्तीहि.पज्जत्तापज्जत्तीहि एयंतवड्डमाणस्स अभिक्खवड्डीए अपज्जत्तयस्स जम्हि समए बहुओ बंधो णिज्जरा च ण तम्हि समयम्हि ट्ठिदो, तस्स तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । एयंताणुवड्डीए
जो अधस्तन स्थितिस्थानोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है और उपरिम स्थितिस्थानोंके निषेकका जघन्य पद करता है, पश्चात् सूक्ष्म पर्यायसे निकलकर जो तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ
और अन्तर्मत काल तक जीवित रहकर वहांसे निकल पूर्वकोटि प्रमाण आयवाले मनुष्योंमें आकर अति शीघ्र योनिमिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हुआ है, जिसने आत शीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त किया है, जो आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हो अति शीघ्र केवल. सानको उत्पन्न करता है, फिर उत्पन्न हुए केवलज्ञान व केवलदर्शनसे साहित होकर केवली जिन होता हुआ कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करता है, तथा ' अन्तमुहूर्त मात्र आयुके शेष रहनेपर शैलेशी भावको प्राप्त होता है, ऐसे उस चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक और क्षपितकौशिक जीवके जघन्य -परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति है । यह कथन सुगम है।
तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव छयासठ सागरोपम काल तक सूक्ष्म जीवोंमें रहा है । इस प्रकार उपरिम स्थितिस्थानोंके निषेकके जघन्य पदके प्राप्त होने तक आलाप ले जाना चाहिये । पश्चात् जो सूक्ष्म पर्याप्तकोसे उत्पन्न हुआ है उसके उस भवमें पर्याप्तियों पर्याप्ति-अपर्याप्तियोंसे भाभीण्य वृद्धि द्वारा एकान्तवृद्धिसे बढ़ते हुए अपर्याप्तक जीवके जिस समयमें बन्ध बहुत होता है, पर निर्जरा नहीं देखी जाती है, उस समयमें जो स्थित है, उसके तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य संघातन-परिशांतनकृति होती है।
१ प्रविच्छिदो एदेणेदं जान' इति पाठः।
२ प्रतिबु 'दिशा' इति पाउः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org