Book Title: Shatkhandagama Pustak 09
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धवला-टीका-समन्वितः षटखंडागमः वेदनाखण्ड-कृतिअनुयोगद्वार खंड ४ भाग १ पुस्तक ९ ३ सम्पादक हीरालाल जैन For Private Personal use only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री-भगवत्-पुष्पदन्त-भूतबलि-प्रणीतः षटूखंडागमः श्रीवीरसेनाचार्य-विरचित-धवला-टीका-समन्वितः । तस्य चतुर्थखंडे वेदनानामधेये हिन्दीभाषानुवाद-तुलनात्मकटिप्पण-प्रस्तावनानेकपरिशिष्टैः सम्पादितं कृतिअनुयोगद्वारम् सम्पादकः मागपुरस्थ-नागपुरमहाविद्यालय-संस्कृताध्यापकः एम्. ए., एल्. एल्. बी., डी. लिट. इत्युपधिधारी . हीरालालो जैन: सहसम्पादको पं. फूलचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री * पं. बालचन्द्रः सिद्धान्तशास्त्री संशोधने सहायको व्या. वा., सा. सू., पं. देवकीनन्दनः * डा. नेमिनाथ-तनय-आदिनाथः सिद्धान्तशास्त्री उपाध्यायः एम्. ए., डी. लिट. प्रकाशकः श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैम-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालयः अमरावती ( बरार ) वि. सं. २००६] [ ई. स. १९४९ धीर-निर्वाण-संवत् २४७६ मूल्यं रूप्यक-दशकम् Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन-साहित्योद्धारक-फंड-कार्यालय अमरावती ( बरार) मुद्रक टी. एम्. पाटील, मॅनेजर सरस्वती प्रिंटिंग प्रेस, अमरावती (बरार) Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE ȘAȚKHAŅDĀGAMA OF PUSPADANTA AND BHŪTABALI WITH THE COMMENTARY DHAVALA OF VIRASENA VOL. IX KRTI-ANUYOGADWĀRA Edited with introduction, translation, notes and indexes, BY Dr. HIRALAL JAIN, M. A.. LL. B., D. Litt. Nagpur-Mahavidyalaya. Nagpur. Assisted by Pandit Phoolchandra, Siddhanta Shāstrī. Pandit Balchandra, Siddhanta Shastri. With the cooperation of Pandit Devakinandan Siddhānta Sbāstrī Dr. A. N. Upadhye, M. A., D, Litt. Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra, Jaina Sahitya Uddharak Fund Karyalaya, AMRAOTI ( Berar ). 1949 Price rupees ten only. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Shrimant Seth Shitabrai Laxmichandra Jain Sahitya Uddharak Fund Karyalaya, AMRAOTI ( Berar ). Printed by T. M. Patil, Manager, Saraswati Printing Press, AMRAOTI ( Berar ) Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ प्राक् कथन १ प्रस्तावना Introduction १ विषय-परिचय २ कृतिअनुयोगद्वारकी विषय-सूची ३ शुद्धि-पत्र कृतिअनुयोगद्वार मूल, अनुवाद और टिप्पण १-४५२ परिशिष्ट १ कृतिअनुयोगद्वार-सूत्रपाठ २ अक्तरण-गाथा-सूची ३ न्यायोक्तियां ४ ग्रन्थोल्लेख ५ ऐतिहासिक नाम-सूची ६ मौगोलिक शब्द-सूची ७ पारिभाषिक शब्द-सूची Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक कथन षट्वंडागम आठवें भागके प्रकाशित होनेके दो वर्षसे कुछ अधिक काल पश्चात् यह नौवा भाग पाठकोंके हाथों में पहुंच रहा है । इस समय मुद्रण संबंधी कार्यमें सुविधा उत्पन्न न होकर कठिनाइयां उत्तरोत्तर बढ़ती ही गई हैं, जिनके कारण हम जितने वेगसे प्रकाशन कार्य चलाना चाहते हैं वह संभव नहीं हो पाता । किन्तु हम यही अपना बड़ा सौभाग्य समझते हैं कि कठिनाइयोंके होते हुए भी कार्यको कभी स्थगित करनेकी आवश्यकता नहीं पड़ी, भले ही वह मंदगतिसे चला हो। इस निरन्तर कार्यप्रगतिका श्रेय हमारी इस ग्रंथमालाके संस्थापक श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचंदजी तथा हमारी पंचकमेटीके अन्य सदस्यों एवं मेरे सहयोगी पं. बालचन्द्र जी शास्त्री तथा सरस्वती प्रेसके मैनेजर श्री टी. एम्. पाटीलको है। इस भागके संशोधनमें पूर्ववत् अमरावतीकी हस्तलिखित प्रतिके अतिरिक्त कारंजा महावीराश्रम तथा जैन सिद्धान्त-भवन आराकी प्रतियोंका उपयोग किया गया है। अतएव हम उक्त संस्थानोंके अधिकारियों के बहुत कृतज्ञ हैं। हमें यह प्रकट करते हर्ष होता है कि इस भागके ११३ फार्मसे संशोधन कार्यमें हमें पं. फूलचन्द्रजी शास्त्रीका सहयोग पुनः प्राप्त हो गया है। उन्होंने ४१ वें फार्मसे पूर्वके मुद्रित अंशमें भी अनेक संशोधन सुझाये हैं जिनका समावेश शुद्धि-पत्रमें कर लिया गया है। इस कार्यमें पंडित फूलचन्द्रजीको वीर-सेवा-मंदिर सरसावाकी हस्तलिखित प्रतिका सदुपयोग भी प्राप्त हो गया है। अतएव हम पंडितजी एवं वीर-सेवामंदिरके अधिकारियोंके आभारी हैं । श्री पं. रतनचंदजी मुख्तारने जैनसन्देश भाग ११ संख्या ३७-३८ में पुस्तक ८ के मुद्रित पाठोंमें गंभीर अध्ययन पूर्वक अनेक उपयोगी संशोधन प्रस्तुत किये हैं जिनको हम साभार शुद्धि-पत्रमें सम्मिलित कर रहे हैं । कागज आदिकी व्यवस्थामें हमें सदैव ही श्रद्धेय पं. नाथूरामजी प्रेमीसे बहुमूल्य साहाय्य प्राप्त होता रहा है, अतएव हम उनके बहुत कृतम हैं। मागपुर महाविद्यालय, नागपुर. 1.-११-१९४९ हीरालाल जैन Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INTRODUCTION. The present volume contains the first section, namely Kriti Anuyo. gadvåra, out of the twenty four sections included in the last three Khandas, namely, Vedanā, Vargınā and Mahābandha of Bhutabali as well as the Culikā of Virasena, as has already been shown in the introduction to part 1 of this series. The Kriti and Vedana Anuyogadvāras constitute the Vedanā Khanda which is so named because of the importance of the second Anuyogadvāra as shown by the long space devoted to its treatment The word Kriti means action, and the present section which goes by that name deals with the formation and dissolution of the corporeal matter in the five kinds of bodies, namely, Audărika, Vaikriyika, Ahäraka, Taijasa and Kärmana possessed by the living beings, under the usual eight categories i. e. Sat, Sankhya, Kshetra, Sparshana, Kåla, Antara, Bhăva and Alpa-bahutva. One noteworthy feature of this part of Şatkhandāgama is that it contains forty-four benedictory Sūtras, the authorship of which is attributed by the commentator Vírasena to Gautama the chief disciple of Tirtham kara Mahāvīra himself. The sime Sūtras are also found included in the Yoniprābhrita, a work of Mantra Vidyā, traditionally attributed to Dharasena the teacher of Pushpadanta and Bhūtabali. The Sūtras, thus, lend support to the tradition regarding the authorship of Yoni.prābhrita. Inspite of the presence of the benedictory Sūtras at the beginning of the work, the Vedanā Khanda has been called by Vīrasena as 'AnibaddhaMangala' because the author Bhūtabali has not himself composed the Mangala. But the Jivatthana Khanda has been called Nibaddha Mangala', which shows that, according to Virasena, the Namokāra formula which forms the Mangala of Jivaţthāņa was originally composed by Pushpadanta himself. This was fully discussed by me in the introduction to Vol. II and the position taken by me there remains so far unaltered. The historical survey of the Jaina Sangha and its scriptures found in this section is for the most part a repetition of what had already been said in the introductory part of Vol. I. There are, however, a few more interesting details regarding the life of Lord Mahāvira. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय । षट्खण्डागमके चतुर्थ खण्डका नाम वेदना है। इस खण्डकी उत्पत्तिका कुछ परिचय पुस्तक १ की प्रस्तावनाके पृ. ६५ व ७२ पर कराया जा चुका है व इसकी खण्डव्यवस्थाके सम्बन्धमें जो शंकायें उत्पन्न हुई थीं उनका निराकरण पुस्तक २ की प्रस्तावना पृ. १५ आदि पर किया जा चुका है । इस खण्डमें अग्रायणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तु चयनलब्धिके चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृतिके चौबीस अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम दो अर्थात् कृति और वेदना अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा की गई है, एवं वेदना अधिकारका अधिक विस्तार होनेके कारण सम्पूर्ण खण्डका नाम ही वेदना रखा गया है। प्रस्तुत पुस्तकमें कृतिअनुयोगद्वारकी प्ररूपणा है। इसके प्रारम्भमें सूत्रकार भगवन्त भूतबलि द्वारा ' णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं' इत्यादि ४४ सूत्रोंसे मंगल किया गया है। ठीक यही मंगल · योनिप्राभृत ' ग्रन्थमें गणधरवलय मंत्रके रूपमें पाया जाता है । यह प्रन्थ धरसेनाचार्य द्वारा उनके शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलिके निमित्त रचा गया माना जाता है । इसका विशेष परिचय प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनाके पृ. २९ आदि पर कराया गया है । ( देखिये Comparative and Critical Study of Mantrashastra by M. B. Jhaveri Appendix A.) । इन मंगलसूत्रोंकी टीकामें आचार्य वीरसेन स्वामीने देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमति व विपुलमति मनःपर्यय, केवलज्ञान एवं मतिज्ञानके अन्तर्गत कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिणी और संमिन्नश्रोतबुद्धिकी विशद प्ररूपणा की है। उक्त बुद्धि ऋद्धिके साथ ही यहां अन्य सभी ऋद्धियोंका मननीय विवेचन किया गया है । इन मंगलसूत्रोंमें अन्तिम सूत्र ' णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स ' है। इसकी टीकामें धवळाकारने विस्तारसे विवेचन करके उक्त मंगलको अनिबद्ध मंगल सिद्ध किया है, क्योंकि, वह प्रस्तुत ग्रन्थकारकी रचना न होकर गौतम स्वामी द्वारा रचित है । धवलाकार जीवस्थान खण्डके आदिमें किये गये पंचणमोकार मंत्र रूप मंगलको निबद्ध मंगल कह आये हैं । इस भेदके आधारसे धवलाकारका यह स्पष्ट अभिप्राय जाना जाता है कि वे भगवान् पुष्पदन्ताचार्यको ही गमोकारमंत्रके आदिकर्ता स्वीकार करते हैं। इसका सविस्तर विवेचन पुस्तक २ की प्रस्तावनाके पृ. ३३ आदि पर किया जा चुका है। उस समय पत्र-पत्रिकाओंमें इस विषयकी चर्चा भी चली और णमोकारमंत्रके अनादित्वपर जोर दिया गया। किन्तु विद्वानोंने धवलाकारके अभिप्रायको समझने व उसपर गम्भीरतासे विचार करनेका प्रयत्न नहीं किया । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना टीकाकारने इस मंगलदण्डकको देशामर्शक मानकर निमित्त, हेतु, परिमाण व नामका भी निर्देश कर द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी अपेक्षा कर्ताका विस्तृत वर्णन किया है, जो जीवस्थानके व विशेषकर जयधवला ( कषायप्राभृत ) के प्रारम्भिक कथनके ही समान है । सूत्र ४५ में बतलाया है कि अग्रायणीय पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कमप्रकृति है । उसमें कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति आदि २४ अनुयोगद्वार हैं । इनमें प्रथम कृतिअनुयोगद्वार प्रकृत । इस सूत्र की टीका करते हुए वीरसेन स्वामीने उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नयकी उसी प्रकार पुनः विस्तारपूर्वक प्ररूपणा की है जैसे कि जीवस्थान के प्रारम्भ में एक वार की जा चुकी है । सूत्र ४६ में नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति, ये कृतिके सात भेद बतलाये हैं । इनकी संक्षिप्त प्ररूपणा इस प्रकार है १ एक व अनेक जीव एवं अजीवमेंसे किसीका ' कृति ' ऐसा नाम रखना नामकृति है । २ काष्ठकर्म, चित्रकर्म, पोत्तकर्म, लेप्यकर्म, लयनकर्म, शैलकर्म, गृहकर्म, मित्तिकर्म, 'दन्तकर्म व भेंडकर्ममें सद्भावस्थापना रूप तथा अक्ष एवं वराटक आदिमें असद्भावस्थापना रूप 4 यह कृति है ' ऐसा अभेदात्मक आरोप करना स्थापनाकृति कहलाती है । 1 ३ द्रव्यकृति आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । इनमें आगमद्रव्यकृतिके स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्यसम, नामसम और घोषसम, ये नौ अधिकार हैं । यहां वाचनोपगत अधिकारकी प्ररूपणा में व्याख्याताओं एवं श्रोताओंको द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप शुद्धि करनेका विधान बतलाया गया है । आगे चलकर स्थित व जित आदि उपर्युक्त अधिकारों विषयक वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति ब धमकथा आदि रूप उपयोगोंकी प्ररूपणा है । नोआगमद्रव्यकृति ज्ञायकशरीर, भावी और तदूव्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है । इनमें से ज्ञायकशरीरन आगमद्रव्यकृतिके भी आगमद्रव्यकृतिके ही समान स्थित जित आदि उपर्युक्त नौ अधिकार कहे गये हैं। कृतिप्राभृतके जानकार जीवका च्युत, च्यावित एवं त्यक्त शरीर ज्ञायकशरीरद्रव्यकृति कहा गया है । जो जीव भविष्यत् काल में कृतिअनुयोगद्वारोंके उपादान कारण स्वरूप से स्थित हैं, परन्तु उसे करता नहीं है; वह भावी नोआगमद्रव्यकृति है । तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकृति ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम, संघातिम, अहोदिम, निक्खोदिम, ओवेल्लिम, उद्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण और गन्धविलेपन आदिके मेदसे अनेक प्रकार है । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-परिचय ४ गणनकृति नोकृति, अवक्तव्यकृति और कृतिके भेदसे तीन भेद रूप अथवा कृतिगत संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेदोसे अनेक प्रकार भी है । इनमेंसे 'एक' संख्या नोकृति, • दो ' संख्या अवक्तव्यकृति और तीन ' को आदि लेकर संख्यात असंख्यात व अनन्त तक संख्या कृति कहलाती है । संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, धन व धनाधन राशियों की उत्पत्तिमें निमित्तभूत गुणकार, कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां, त्रैराशिक व पंचराशिक इत्यादि सब धनगणित है । व्युत्कलना व भागहार आदि ऋणगणित कहलाते हैं । गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टिकार आदि धन-ऋणगणितके अन्तर्गत हैं। यहां कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृतिके उदाहरणार्थ ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम, ये चार अनुयोगद्वार कहे गये हैं। इनमें संचयानुगमकी प्ररूपणा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है। ५ लोक, वेद अथवा समयमें शब्दसन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यादिकोंके द्वारा जो ग्रन्थरचना की जाती है वह ग्रन्थकृति कहलाती है। इसके नाम, स्थापना, द्रव्य व भावके भेदसे चार भेद करके उनकी पृथक् पृथक् प्ररूपणा की गई है । ६ करणकृति मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृतिके भेदसे दो प्रकार है । इनमें औदारिकादि शरीर रूप मूल करणके पांच भेद होनेसे उसकी कृति रूप म्हकरणकृति भी पांच प्रकार निर्दिष्ट की गई है । औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति और आहारकशरीरमूलकरणकृति, इनमेंसे प्रत्येक संघातन, परिशातन और संघातन-परिशातन स्वरूपसे तीन तीन प्रकार हैं। किन्तु तैजस और कार्मणशरीरमूलकरणकृतिमें से प्रत्येक संघातनसे रहित शेष दो भेद रूप ही हैं । विवक्षित शरीरके परमाणुओंका निर्जराके विना जो एक मात्र संचय होता है वह संघातनकृति है । यह यथासम्भव देव व मनुष्यादिकोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें होती है, क्योंकि, उस समय विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका केवल आगमन ही होता है, निर्जरा नहीं होती। विवक्षित शरीर सम्बन्धी पुद्गलस्कन्धोंकी आगमनपूर्वक होनेवाली निर्जरा संघातन-परिशातनकृति कहलाती है । वह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकोंके उत्पन्न होनेके द्वितीयादिक समयोंमें होती है, क्योंकि, उस समय अभव्य राशिसे अनन्तगुणे और सिद्ध राशिसे अनन्तगुणे हीन औदारिकादि शरीर रूप पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों ही पाये जाते हैं। उक्त विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धों की संचयके विना होनेवाली एक मात्र निर्जराका नाम परिशातनकृति है । यह यथासम्भव देव-मनुष्यादिकोंके उत्तर शरीरके उत्पन्न करनेपर होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन नहीं होता। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तैजस और कार्मण इन दोनों शरीरोंकी अयोगकेक्लीके परिशातन कृति होती है, कारण कि उनके योगोंका अभाव हो जानेसे बन्धका भी अभाव हो चुका है । अयोगकेवलीको छोड़ शेष सभी संसारी जीवोंके इन दोनों शरीरोंकी एक संघातन-परिशातनकृति ही है, क्योंकि, सर्वत्र उनके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जरी दोनों ही पाये जाते हैं । उक्त दोनों शरीरोंकीसंघातनकृति सम्भव नहीं है। कारण इसका यह है कि वह संसारी प्राणियोंके तो हो नहीं सकती, क्योंकि, उनके उक्त दोनों शरीरोंके पुद्गलस्कन्धोंका जैसे आगमन होता है वैसे ही उसीके साथ निर्जरा भी होती है । अब रहे सिद्ध जीव सो उनके भी वह सम्भव नहीं है, क्योंकि, उनके बन्धकारणोंका पूर्णतया अभाव हो चुका है। आगे जाकर उपर्युक्त पांचों मूलकरणकृतियों की प्ररूपणा पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, इन तीन अधिकारों द्वारा तथा सत्-संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों के भी द्वारा विस्तारपूर्वक की गई है। असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम व नालिका आदि उत्तर करण अनेक मोन जाते हैं । अत एव उत्तर करणों के अनेक होनेसे उनकी कृति रूप उत्तरकरणकृति भी अनेक प्रकार कही गई है। ७ कृतिप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव भावकृति कहा जाता है । उपर्युक्त सातों कृतियोंमें यहां गणनकृतिको प्रकृत बतलाया है, कारण कि गणनाके विना अन्य अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा असम्भव हो जाती है । - Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची क्रम न... विषय पृष्ठ | क्रम नं. विषय १ धवलाकारका मंगलाचरण १४ अवधिजिनोंका स्वरूप वेदना खण्डके प्रारम्भमें भगवान् भूतबलि | १५ परमावधिजिन-नमस्कारमें परमावधिजिनोंका स्वरूप द्वारा किया गया मंगल २-१०३ | १६ परमावधिके विषयभूत द्रव्य, २ मंगलका स्वरूप व उसका क्षेत्र, काल व भावकी प्ररूपणा प्रयोजन 9 सर्वावधिजिन-नमस्कारमें नामादिकके भेदसे चार सर्वावधिजिनोंका स्वरूप प्रकारके जिनोंका स्वरूप : - १८ सर्वावधिके विषयभूत 'द्रव्य, ५ उक्त चार भेदोंमें विभक्त क्षेत्र, काल, व भावकी प्ररूपणा जिनोंमेंसे यहां कौनसे जिनके १९ अनन्तावधिजिन-नमस्कारमें लिये नमस्कार किया गया है. ___ अनन्तावधिजिनका स्वरूप ५ देश व सकल जिनों का स्वरूप १० २० कोष्ठबुद्धि ऋद्धि धारकोंका ६ अवधिजिन-नमस्कारमें अवधि स्वरूप व उनको नमस्कार शब्दके अर्थपर विचार ... १२ | २१ बीजबुद्धि ऋद्धि धारकोंका ७ जघन्य अवधिके विषयभूत. स्वरूप व्यकी प्ररूपणा २२ पदानुसारी ऋद्धिका स्वरूप २३ सम्भिन्नश्रोतृ ऋद्धिका स्वरूप ८ जघन्य अवधिज्ञानके विषय २४ ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानका भूत क्षेत्रकी प्ररूपणामें अव . स्वरूप व उसके विषयका गाहनाविषयक अल्पबहुत्व प्रमाण ९ सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य २५ विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानका अवगाहना प्रमाण जघन्य स्वरूप व उसके विषयका अवधिका क्षेत्र प्रमाण १० जघन्य अवधिशानके विषय २६ दशपूर्व ऋद्धि धारकोंके भेद व ___ भूत कालकी प्ररूपणा उनका स्वरूप ११ जघन्य अवधिक विषयभूत २७ चतुर्दशपूर्व ऋद्धि धारकोंका भावकी प्ररूपणा - स्वरूप १२ अवधिके विषयभूत द्रव्य, २८ आठ महानिमित्तोंका स्वरूप . क्षेत्र, काल व भावके द्विती. २९ विक्रिया ऋद्धिके आठ भेद व यादि विकल्प ૨૮ उनका स्वरूप १३ देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्य, | ३० विद्याधरजिन-नमस्कारमें जाति, क्षेत्र, काल व भावफा प्रमाण , . : ३५। कुल व तप विधाओका स्वरूप १७ २७ . .. Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ १०९ ११३ षट्वंगगमकी प्रस्तावना कम नं. विषय पृष्ठ | क्रम.नं. विषय ३१ चारण ऋद्धि धारकोंके आठ २७ भूतबलि भट्टारकद्वारा किया भेद व उनका स्वरूप गया मंगल निबद्ध है या ३२ अभ्य चारण ऋद्धि धारकोंका अनिबद्ध, इस शंकाका समाधान १०३ उक्त आठोंमें यथासम्भव ५८ यह मंगल वेदना, वर्गणा और अन्तर्भाव ३३ प्रज्ञाश्रवणनमस्कारमें प्रक्षाके महाबंध, इन तीनों खण्डोंका मंगल है; इसकी सिद्धि चार भेद व उनका स्वरूप ५९ निमित्त,हेतु, नाम व प्रमाणकी ३४ आकाशगामित्व ऋद्धिका प्ररूपणा स्वरूप कर्तृप्ररूपणा १०७.१३० ३५ आशीविष ऋद्धि धारकोंका द्रव्यसे अर्थकर्ताको प्ररूपणामें १६ दृष्टिविष व दृष्टि-अमृत भगवान महावीरके शरीरका वर्णन ९०७ ___ऋद्धि धारकोंका स्वरूप ६१ क्षेत्रप्ररूपणामें समवसरण३७ उग्रतप ऋद्धि धारकोंके भेद मण्डलका वर्णन व उनका स्वरूप | ६२ वर्धमान भगवान्की सर्वज्ञता ३८ महातप ऋद्धि धारकोंका स्वरूप ६३ भावप्ररूपणामें जीवकी सचे. ३९ घोरतप ऋद्धि धारकोंका स्वरूप ९२ तनतासिद्धि ४. घोरपराक्रम और घोरगुण ६४ जीवकी शान-दर्शनस्वभावता। ऋद्धि धारकोंको नमस्कार ६५ कर्मों की अनित्यता ४१ अघोरगुणब्रह्मवारियोंका स्वरूप ६६ तीर्थोत्पत्तिकाल ४२ आम@षधि ऋद्धि ६७ भगवान् महावीरका गर्भा४३ खेलौषधि ऋद्धि वतरणकाल ४४ जल्लोषधि ऋद्धि ६८ केवलशान प्राप्त हो जानेपर ४५ विष्ठौषधि ऋद्धि भी दिव्यध्वानि न खिरनेका ४६ सर्वोषधि ऋद्धि कारण ४७ मनोबल ऋद्धि ६९ वर्धमान भगवान्की आयुपर ४८ वचनबल ऋद्धि मतभेद व तदनुसार गर्भस्थ४९ कायबल ऋद्धि कालादिकी प्ररूपणा ५० क्षीरनवी ऋद्धि ७० ग्रन्थकर्ताकी प्ररूपणाम गण ५१ सर्पिस्रवी ऋद्धि धरका स्वरूप ५२ मधुम्रवी ऋद्धि ७१ वर्धमान भगवान्के तीर्थमें ५३ अमृतम्रवी ऋद्धि प्रन्थकर्ता इन्द्रभूति गण५४ अक्षीणमहानस ऋद्धि न धरका वर्णन ५५ सर्व सिद्धायतनोंको नमस्कार १०२ | ७२ उत्तरोत्तरतंत्रकर्ताकी प्ररू. ५६ वर्धमान बुद्धर्षिको नमस्कार . १०३/ पणामें केवली व श्रुतकेवली Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत १३४ १४० २०५ २०७ २०८ विषय-सूची म नं. विषय पृष्ठ | क्रम नं. विषय मादिकी परम्परा और ९१ श्रुतज्ञानके चतुर्विध अवउनका काल तारमें सामायिक भादि ७३ शक राजाका समय चौदह भेद रूप मनंगभुतकी ७४ भूतबलि भट्टारक द्वारा प्ररूपणा षटखण्डागमकी रचना ९२ अंगश्रुतके चतुर्विध अवतारमें ७५ कृति वेदना आदि चौबीस __ आचारांगादि बारह अंगोंकी ___ अनुयोगद्वारोंका निर्देश विषयप्ररूपणा ७६ उपक्रमका स्वरूप व उसके ९३ दृष्टिवादके चतुर्विध भवभेद-प्रभेदादि तारमें चन्द्रप्राप्ति आदि ७७ निक्षेपस्वरूप पांच अधिकारोंका विषय ७८ अनुगमप्ररूपणामें प्रमाणका ९४ सूत्रका पदप्रमाण व विषय स्वरूप व उसके भेद ९५ प्रथमानुयोगका पदप्रमाण . प्रभेदोंका विस्तृत वर्णन व विषय नयप्ररूपणा १६२-१८३ ९६ पूर्वकृतका पदप्रमाण व विषय ७९ नयस्वरूपका विचार ९७ पांच प्रकार चूलिकाओंका ८० द्रव्यार्थिकनयकी प्ररूपणामें पदप्रमाण व विषय . द्रव्यके सदादि विकल्पोंका ९८ पूर्वगतके चतुर्विध अवतार में दिग्दर्शन चौदह पूर्वोका पदप्रमाण ८१ पर्यायार्थिकनयके भेदों में व विषय ऋजुसूत्र नयका स्वरूप ९९ अग्रायणी पूर्वका चतुर्विध ८२ शब्दनयका स्वरूप अवतार ८३ समभिरूदनयका स्वरूप १०० चयनलब्धिका चतुर्विध ८४ एवम्भूतनयका स्वरूप अवतार ८५ अर्थनय शब्दनयका १०१ कर्मप्रकृतिप्राभृतका चतुर्विध स्वरूप अवतार ८६ नैगमनयके तीन भेद व १०२ चयनलब्धिके कृति व वेदना उनका स्वरूप आदि चौबीस अनुयोग८७ नयोंकी समीचीनता व द्वारोंका निर्देश व उनकी असमीचीनता . विषयप्ररूपणा ८८ उपनयका स्वरूप १०३ कृतिके सात भेदोका निर्देश ८९ सात सुनयवाक्य १०४ कृतियोंकी नयविषयता ___ अग्रायणी पूर्वका उद्गम १८४-२२५ १०५ नामकृतिकी प्ररूपणामें ९. बानका उपक्रमादि रूप क्षणिकैकान्तवादादिका निरा. चतुर्विध अवतार २१. १७१ १७६ १८० २२७ २६९ २३१ २३८ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ २५२ २६२ / ३२५ षट्खंडागमकी प्रस्तावना क्रम. विषय पृष्ठ | क्रम नं. विषय - पृष्ठ १०६ स्थापनाकृतिकी प्ररूपणामें २२० द्रव्यप्ररूपणानुगम काष्ठकर्म आदिका स्वरूपं २४८ | १२१ क्षेत्रानुगम २८५ १०७ आगमद्राव्यकृतिकी प्ररू १२२ स्पर्शनानुगम २८७ पणामें स्थित-जित आदि नौ १२३ कालानुगम - २९१ अधिकारोंका स्वरूप २५१ १२४ अन्तरानुगम ३०४ १०८ वाचनाका स्वरूप व उसके १२५ आवानुगम ३१५ चार भेद २५२.१२६ अल्पबहुत्वानुगम ३१८ १०१ व्याख्याताओं व श्रोताओंके १२७ प्रन्थकृतिका प्ररूपणा . ३२१ लिये द्रव्य, क्षेत्र, काल · व करणकृतिप्ररूपणा ३२४-४५१ भावसे शुद्धिकरणका विधान २५३ | १२८ मूलकरणकृतिके भेद ११० सूत्रसम आदिका स्वरूप ३२४ १११ उक्त स्थित-जित आदि नौ १२९ औदारिक, वैक्रियिक ष अधिकारविषयक उपयोग व आहारकशरीरमूलकरणउसके भेद कृतिके संघातनादि तीन भेदोंकी प्ररूपणा ११२ कृतिके विषयमें आठ प्रकारके उपयोगकी प्ररूपणा १३० तैजस व कार्मणशरीर २६३ ११३ नैगमादिक नयोंकी अपेक्षा सम्बन्धी परिशातन व संघातनपरिशातन कृतियों की अनुपयुक्तकी प्ररूपणा २६४ प्ररूपणा ३२८ ११४ नोआगमद्रव्यकृतिके तीन भेदोंमें शायकशरीरद्रव्य १३१ मूलकरणकृतियों की प्रककृतिके स्थित आदि नौ अनु. पणामें पदमीमांसा ३२९ १३२ स्वामित्व योगोंका स्वरूप १३३ अल्पबहुत्व ११५ शायकशरीरद्रव्यकृतिका १३४ सत्प्ररूपणा ३५४ स्वरूप ११६ भावी नोआगमद्रव्यकृतिका १३५ द्रव्यप्रमाण १३६ क्षेत्रानुगम स्वरूप ११७ तदव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य ३७० १३७ स्पर्शनानुगम १३८ कालानुगम कृतिके ग्रन्थिम-वाइम आदि १३९ अन्तरानुगम अनेक भेद व उनका स्वरूप १४० भावानुगम ४२८ गणनकृतिप्ररूपणा २७४-३२१ १४१ स्वस्थान अल्पबहुत्व ४२९ ११८ गणनकृतिका स्वरूप व १४२ परस्थान अल्पवहुत्व ४३८ उसके भेद २७४ १४३ उत्तरकरणकृतिका स्वरूप ११९ कृति, नोकृति व अवक्तव्य व भेद ४५० . कृतिकी प्ररूपणामें प्रथमानु १४४ भावकृतिका स्वरूप ४५१ गम आदि चार अनुयोगद्वार २७७ / १४५ गणनकृतिकी प्रधानता.. ४५२ ३५८ ४०२ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धि-पत्र [पुस्तक ८] . अशुद्ध ११३ १२ चदुदंसणावरणीय वेउब्धिय- चदुदंसणावरणीय-तेजा- [ प्रतियों में बेउब्धिय तेजा __ पद है, पर वह होना नहीं चाहिये ] , २६ चार दर्शनावरण, वैक्रियिक, चार दर्शनावरण, तेजस तैजस ९ सुभ-सुस्सर सुभग-सुस्सर [ प्रतियों में सुभके स्थानमें सुभम होना चाहिये] २७ शुभ, सुस्वर भग, सुस्वर १३१ . ५ देवगइसंजुत्तं मणुसगइ. देवाइसंजुत्तं च [ मणुसगइसंजुत्तं पद प्रतियोंमें संजुत्तं च है, पर होना नहीं चाहिये ] २१ मनुष्यगतिसे संयुक्त xxx १३२ . १० मणुसगइपाओग्गाणुपुन्वी [मणुसगइ ] मणुसगइपाओग्गाणुपुब्धी २. मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी [ मनुष्यगति ] मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी " ९ जसकित्ति-उच्चागोदाणं " जसकित्ति-[अजसकित्ति] उच्चागोदाणं , २१ यशकीर्ति और उच्चगोत्र यशकीर्ति, [ अयशकीर्ति ] और उच्चगोत्र ४ पज्जत्तापज्जताणं च पज्जत्तापज्जत्ताणं [तसअपज्जत्ताणं] . १६ अपर्याप्त जीवोंकी अपर्याप्त [व त्रस अपर्याप्त ] जीवोंकी ९ पंचणाणावरणीय-मिच्छत्त पंचणाणावरणीय- [णवदसणावरणीय.] मिच्छत्त " २५ पांच ज्ञानावरणीय, मिथ्यात्व पांच ज्ञानावरणीय, [नौ दर्शनावरणीय ] मिथ्यात्व . २०४ १० [ओरालियसरीरंगोवंग-] [ ओरालियसरीरंगोवंग-मणुसगह-] , २७ [ औदारिकशरीरांगोपांग ] [औदारिकशरीरांगोपांग, मनुष्यगति ] '२०६४ जसकित्ति-णिमिण जसकित्ति- [अजसकित्ति-] णिमिण २०६ १६ यशकीर्ति, निर्माण यशकीर्ति, [ अयशकीर्ति ], निर्माण २०९ २१ तिर्यग्गति, तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्वी, • Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २३१ षट्वंगगमको प्रस्तावना पंक्ति अशुद्ध शुद्ध ९ दुस्सराणं सुस्सराणं [प्रतियोंमें दुस्सराणं पदही, पर सुस्सराणं होना चाहिये २३ टुस्वरका सुस्वरका ५ णीयागोदाणं णीचुच्चागोदाणं [ प्रतियोंमें णीचागोदाण पाठ , १७ नीच गोत्रका नीच व ऊंच गोत्रका ७ धुवोदयत्तादो' अब्रुवोदयत्तादो २२ ध्रुवोदयी मध्रुवोदयी ५ देवगइपाओग्गाणुपुब्बी [देवगड-] देवगइपाओग्गाणुपुष्वी १८ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी [ देवगति ], देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी ६ भत्थि, ण,सय अस्थि, इथि-णQसय१७ नपुंसकवेद स्त्री व नपुंसक वेद ५ णिरंतरो सांतर-णिरंतरो १६ निरन्तर सान्तर-निरन्तर २३१ ४ वेउब्धियमिस्स-कम्मश्य वेउब्वियमिस्स [ओरालियमिस्स-कम्माय , १६ वैक्रियिकमिश्र और कार्मण वैक्रियिकमिश्र, [ औदारिकमिश्र] और कर्मिण १३. ३. देवगति, देवगतिद्विक, ३३५ ४ तिरिक्खसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु [प्रतियोंमें तिमिखेसु ही पाठ है] ३३५ ५ बंधाभावादो । पुरिसवेदस्त बंधाभावादो। [समचउरससंठाण पसत्थविहायगदि-सुभग-सुस्सर-आदेजाणं मिच्छाइटि-सासणसम्माइट्ठीसु सांतरणिरंतरो; तिरिक्ख मणुस्सेसु निरंतरबंधुवलंभादो । उवरि णिरंतरो, पडियक्त पयडीणं बंधाभाषादो।] पुरिसवेदस्स " १९ तियों और तियचों, मनुष्यों और १३५ २० बन्धका अभाव है। पुरुषवेदका बन्धका अभाव है। [ समचतुरस्त्रसंस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, मुस्वर और भादेयका मिथ्यादृष्टि व सासादन गुणस्थानमें सान्तर-निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि, तियेच व मनुष्योंमें उनका निरन्तर बन्ध पाया जाता है। ऊपर निरन्तर बन्ध होता , क्योंकि, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ १३७ २६ स्वोदय-परोदय ३३८ १ सोदय-परोदओ " ३५७ ३५७ " " ३६० "9 39 K 13 19 १६६ २२. बन्धका ३८८ ५ ४ 39 ८ " ११ १६ पंक्ति अशुद्ध ७ सुक्कलेस्साए पदासिं १४ जाता है । इन सब २१ शुक्ललेश्या में इन २९ XXX ७ वेउब्धियसरीरंगोवगाणं २२ नरकगल्यानुपूर्वी और १० सोदओ २६ स्वोदय २ तह वलं भादो । पदासि सम्वासि तहोवलंभादो । [ थीणगिद्धितिय २ तिरिक्खगईणं १२ पंचिदियजादि १६ अन्तराय और ३० पंचेन्द्रिय जाति ३ कज्जुप्यायणे २० विघ्नोंसे उत्पन्न २१ २१ स्थापनाकी अपेक्षा ७ - मुप्पण्णं समाणसुव २ परमाणूण खंधा १९ परमाणुओं के स्कन्ध 29 शुद्धि-पत्र शुद्ध वह प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका अभाव है ।] पुरुषवेदका परोदय परोदओ [ प्रतियों में सोदय पद है, पर वह होना नहीं चाहिये ] परोदभ [ प्रतियोंमें सोदओ ही पाठ है ] परोदव अणताणुबंधिचक्काणं बंधो सोदयपरोदओ ।] सेसाणं सव्वासिं' सुक्कले हसाए तिरिक्ख माणुस्से पदासि जाता है । [ स्स्यानगृद्धि आदि तीन और अनन्तानुबन्धि चतुष्कका स्वोदय - परोदय और ] शेष सब शुक्ललेश्या में तिथंच व मनुष्यों के इन १ प्रतिषु एदासि ' सव्वासि इति पाठः । [वेडावयसरीर ] वेडब्विय सरीरंगो वंगाणं नरकस्यानुपूर्वी, बैक्रियिकशरीर और उदयका [तिरिक्खाउ- ]तिरिक्तगणं पंचजादि [ प्रतियों में पंचिदियजादि ही पाठ है ] अन्तराय, [ तिथंच आयु ] और पांच जातियां [पुस्तक ९] ११ कज्जुप्पाय विघ्नोंके कारणभूत 39 स्थापनाको मुप्पण्णसमाणनुखपरमाणूणखंधा परमाणुओं से न्यून स्कन्ध Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमको प्रस्तावना पंक्ति अशुख शुभ . ५ पज्जत्तसस्स ८ पोग्गक्खंध . पुण हत्थो ९ एक हाथ २७ । ९ क्खम, तहो. . २४ क्योंकि, वैमे . २८ २१ भावका जिन २९. ३ ॥१२॥ ३६ १२. -मणुप्पप्ति । ३४ १० मूलसेत्ता ३५.१९ तप्पाओग्गसंखेज्ज " .. २७ संख्यात. ३६ . . ६. कम्मपदेसु ६ वियप्पादो , ९ -पदुप्पणेण , १० खेत्तपरूवणा २६: क्षेत्रकी प्ररूपणा ५३ २० अर्धधारण . . ४ किदियकम्म १ गोमद .५ मग्गगूजा १० उप्पण, यथार्थ४ णाणस्स १४ मनःपर्ययज्ञानका ३ सण्णहत्तादो १ दोण्णि , ९ दो भवग्रहणोंको । ६७ २१ एक आकाशश्रेणीमें ६८ ५ खओवसमाभावादी " ९ पडिघाडा" ११ पणदालीसलक्ख... पज्जत्तयस्स पोग्गलक्खंध घणहत्थो एक घनहाथ क्खमं, आगमे तहोक्योंकि, आगममें वैसे भावका द्वितीय विकल्प लानेके लिये जिन ॥ १३ ॥ -मणुप्पत्ति मूलमेत्ता तप्पाओग्गासंखेज्ज : .. असंख्यात कम्मपदेसेसु वियप्पत्तादो पदुप्पण्णेण खेत्तपमाणपरूवणा क्षेत्र के प्रमाणको प्ररूपणा अर्थधारण किदियम्म गोदम मग्गपूजा उप्पण्ण यथार्थ णाणिस्स मनःपर्ययज्ञानीका सण्हत्तादो दो-तिण्णि दो तीन भवग्रहणोंको आकाशकी एक श्रेणी के क्रमसे खओवसमाभावो । पडियादा. . पणदालीसजोयणलक्ख . . Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ शुद्धि-पत्र पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २० क्षयोपशमका अभाव होनेसे क्षयोपशमका अभाष कारण हो उसकी उत्पत्ति न हो ८ सत्तसय अंगुट्ठपणादिसत्तसय. १९ होनेपर सात होनेपर अंगुष्ठप्रसेनादि सात २ -मट्ठअंगाणि -मट्ठ अंगाणि ५ य राहणिज्जा यराहणिज्जा १५ तियचोंके वात १६ शुक्र सत्व स्वभाव रूप, तथा २८ 'तिलयाणग.' इति पाठः ६ सायराणंतो ६ गमिणो ८ -स्सुप्पण्णा वेणाया ४ परिसी १८ ऐसी ८ वग्गम्मदे ,, तवाणं मण २३ ऋद्धिधारकों १ तप्ततपः । जोर्स तिर्यंचोंके सत्त्व, स्वभाव, वात शुक्र, तथा 'तिलयाणंग-', मप्रतौ स्वीकृतपाठः सायरामंतो गामिणो ॥ २२॥ इदि -स्सुप्पण्णा पण्णा वेणया तवोबलेण परिसी तपके बल से ऐसी वगम्मदे तवाणं जिणाणं मण ऋद्धिधारक जिनोंको तप्ततपः। तप्तं तपो येषां ते तप्ततपसः । जोर्स सहियाणं तत्ततवाणं जिणाणं है। तप्त तप जिनके पाया जाता है वे तप्ततपवाले ऋषि हैं। जिनके सहित तप्ततपवाले जिनोंको जुदोयण बारसविहतउ घोरगुणबंभ अघोरगुणबंभ अघोरगुणब्रह्म ३ सहियाणं जिणाणं ११ है। जिनके १३ सहित जिनोंको जुदायण ९ बारसव्विहत्तउ ६ घोरबंभ ७ अघोरबंभ १९ अघोरब्रह्म , ९५ ५ छच्चे Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रष्ठ ०६ १०८ षट्वंगगमकी प्रस्तावना पंक्ति मशुद्ध २ विहाणमो विहाणमामो१० प्रकारके औषधि प्रकारके बाम!षधि २० जिसके जिसको , स्वयं परोस लेनेके परोस देनेके ५ दुहाभावादो तण्हाभावादो' १८ अत्यन्त दुखका अभाव होनेसे अत्यन्त तृष्णाका सद्भाव होनेसे ५ कम्मामावं कम्माभावं ७ भावं। अधवा भावं । णिरामिसत्तेण सगपुट्ठीए च जाणा विदभुक्खा-तिसाभावं । अधवा २१ ज्ञापक है | अथवा ज्ञापक है । भोजन रहित होनेसे और अपनी पुष्टि होनेसे जिनके भूख व प्यासका अभाव जाना जाता है । अथवा १११ १२ चन्द्र-अब्ज-मयूर चन्द्र-मयूर , २१ संयुक्त संयुक्त , २२ सिद्धप्रतिमाओंसे दीप्त सिद्धार्थ जहाँ सिद्धप्रतिमायें स्थित हैं और जो अपनी वृद्धिसे समृद्ध हैं ऐसे सिद्धार्थ २ फलिहघडिय फलिहसिलाघडिय १३ स्फटिकसे स्फटिकमणिसे . ६ ण जीवो ण ताव जीवो ५ पसंगादो । तदो प्पसंगादो । ण च दव्वस्स अभावो, तिहु वणाभावप्पसंगादो । तदो। " ११ ॥ २२ ॥ ॥ २६ ॥ [ इससे आगेके गायांकोंमें इसी प्रकार चार अंकोंकी वृद्धि कर लेना चाहिये] , १९ आवेगा । इस आवेगा । और द्रव्यका अभाव तो माना नहीं जा सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर त्रिभुवनके अभावका प्रसंग आवेगा । इस २२१ ९ तेरसीए उत्तरा तेरसीए रत्तीए उत्तरा, २४ दिन उत्तरा दिन रात्रिमें उत्तरा१२९ १० दिट्टिवादाणं सामाइय. दिट्टिवादाणं बारहंगाणं सामाइय २५४ ५-९ पयडी णाम ॥४५॥ पयडीणाम । तत्थ इमाणि xxx तत्थ इमाणि x x x अप्पा- अप्पाबहगं च सव्वत्थ ॥४६॥ पागं च सव्वस्थ ११२ ११४ ११८ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " १९ छत्री १४१ १५२ शुद्धि-पत्र पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध १३४ १७-२१ है ॥ ४६ ॥ उसमें ये xxx है। उसमें xxx और सर्वत्र अल्पऔर अल्पबदुख बहुत्व ॥ ४५ ॥ १३५ ८ छत्ती रंडी छत्ती दण्डी, छत्री १३७ २ -चिदणिबंध -चिदअवयवणिबंध . ऐरावओ महरावओ ९ -नुगमः। नुगमः प्रमाणम् । २२ अनुगम कहलाता अनुगम अर्थात् प्रमाण कहलाता १४२ ९ युगपद्विभासम् युगपदवभासम् ३० xxx २ प्रतिषु 'युगपदविभासम् ' इति पाठः । ७ कठिनोष्म कठिनोष्ण २० ऊष्म उष्ण २० गायके समान गवय होता है! xxx १५५ ५ अनिसृत अनिःसृत १६१ ४ -भेदाय आध. भेदाचक्षुरादिविषयाच आय, १५ जब वर्ण, पद xxx स्कन्धसे जब बाद्य श्रुतविषयताको प्राप्त हुए अविनासंकेत युक्त भावी वर्ण, पद, वाक्य आदि भेदोंको धारण करनेवाले शब्दपरिणत पुद्गलस्कन्धसे और चक्षु आदिके विषयसे संकेत युक्त १३२ १६ तादात्यसे तादात्म्यसे २६७ ५ सभन्तमद्र समन्तभद्र २६८ ७ बुध्यवसितः बुधध्यवसितः २२ क्योंकि, इनकी क्योंकि, बन्धकारणत्वकी अपेक्षा इनकी १७५ ५ प्रथमलक्षण प्रथमक्षण ४ दैविध्ये दैविध्ये २ पर्यायार्थिनय पर्यायार्थिकनय , ३ पर्यार्थिक पर्यायार्थिक ४ इंदजः वंद्वजः ५ बंदज २० ५ पुन्वमिति पुन्वमिदि २८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति অযু शुद्ध १८५ १ दव्यत्तस्स ९ अत्यहि २७ अर्थका उसके द्वारा ग्रहण २८ अप्रतौ ' अतन्हि', ३ जादं आभोगिय ६ छक्क४ द्विदिवादो ६ विधानं च १८८ २०४ २०६ १७ प्रच्छादकविधि, इस २०९ दव्वरस अतम्हि जो वस्तु अतद्रूप है उसका तद्रूपसे ग्रहण xxx जादं च आभोगिय छक्कादिट्टिवादो विधानं तद्गतिविशेष-ग्रह-छाया-कालराश्युदयविधानं च प्रच्छादकविधि, उनकी गतिविशेष, ग्रहोंकी छाया, कालमान और उदयविधि, इस अ इक्खुवाणं रूपाकाशगतभेदेन सहस्रका आकाशगताके तंत्र-तपोविशेषा मंत्र, तंत्र व तपविशेषोंका छद्मस्थानां कल्याणादिघटरूपेण सुवर्णादिघट रूपसे रूपघट घटानामपि मृषाभिधानं निर्दिश्यन्ते तीदाणागय -पढम-चरिमाचरिमम्मि अप्रथम, चरम और अचरम अधटिदि' अधःस्थिति २ प्रतिषु ' अवहिदि ' इति पाठः। -करणादो अणवगय? २१० ७ अइक्खुवाणं १० रूपाकाशभेदेन ११ सहस्रेका २१ आकाशके १ तंत्रविशेषा ११ मंत्र व तंत्रविशेषोंका ९ छद्मस्थनां ७ कल्याणादिरूपेण १९ सुवर्णादि रूपसे १ रूपघट ५ घटनामपि ७ मृषामिधानं ४ निर्दिश्यन्त तीदाणगय -पढम-चरिमम्मि १३ अप्रथम और चरम ८ अद्धहिदि २३ कालस्थिति २९ xxx ४ कारणादो २ अणवगट्टे २१२ २१३ २१३ २१४ २१६ २२२ २२६ २३२ २३४ २३९ २४० Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध २४५ १५ इस नयकी अपेक्षा संकल्पके १६ कारण कि सादृश्य 99 २४६ ९-११ अजीवाणं च ॥५१॥ जस्स णाम × × × णामकदी णाम । 33 २४८ २४९ २५१ 39 "1 २५२ „ 39 २६४ ७ एतस्स ९ ( द्रव्य व भाव ) ९ घोससमं । एवं णव अहियारा आगमस्स होंति ॥ ५४ ॥ कृतिकी १७ २० S अजीवाणं च जस्स णाम xxx णामकदी णाम ॥ ५१ ॥ बहुत अजीवोंमें जिसका xxx है ॥ ५१ ॥ २१-२२ बहुत अजीवोंके होती है ॥५१॥ जिसका x x x है । २ नैसर्ग ६ १२ 35 २५३ २ विट् २५५ ४ दावाग्नि २५६ १७ मनुष २५९ ६ - मिच्युते २६२ ४ था वा घोषसम । इस प्रकार आगमके नौ अधिकार हैं ॥ ५४ ॥ नन्दा | स्वाभाविक प्रवृत्तिका ११ नये ४ - गमादो । अणुव शुद्धि-पत्र १७ अनुपयुक्त 99 २७५ ३ गणिज्जणाणे २७८ ११ चक्खुदंसणी-तेज २७ क्षुदर्शन एक तो संकल्प के दूसरे सादृश्य पदस्स ( पश्चादानुपूर्वी और यथा तथानुपूर्वी ) घोससमं ॥ ५४ ॥ एवं अहियारा आगमस्स होंति । नन्दा । तत्र नैसंग्य वृत्तिका विण् दवाग्नि शुद्ध द्रव्यकृति की घोससम || ५४ || इस प्रकार आगमके नौ अधिकार हैं । नैसंग्य धनुष - मित्युच्यते वा गये गमादो णयमस्सिदूण अणुव नयकी अपेक्षा अनुपयुक्त १७ , णव गणिज्जमाणे चक्खुदंसणी- ओहिदंसणी - केवलदंसणीतेज क्षदर्शनी अवधिदर्शनी, केवलदर्शनी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खंडागमकी प्रस्तावना पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध शुद्ध २८३ ५ संचए आणिदे संचए च आणिदे २८३ २१ कालमें पूर्वके कालको और पूर्वके २९२ १५ जघन्यसे क्षुदभवग्रहण प्रमाण जघन्यसे पंचेन्द्रिय तिथंच क्षुद्रमवग्रहण प्रमाण अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे तथा पंचेन्द्रिय तियच पर्याप्त व योनिमती तिर्यच अन्तर्मुहूर्त काल रहते हैं । उत्कर्षसे २ पुढवीणं अट्ठ पुढवीणं होदि अट्ठः २० यह है। २१ सागरोपम] सागरोपम ] । ३४८ चव चेव २ [संघादण ] xxx १४ [ संघातन व] xxx ३८३ १२ एजजीवं एगजीवं ३९३ ३ ओरालियसंघादण गरिसावण- ओरालियसंघादण- [ संघावण- ] परिकदी सादणकदी यह है " Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ So सिरि-भगवंत पुष्पदंत भूदयलि-पणीदो छक्खंडागमो सिरि-वीर सेणाइरिय- विरइय-धवला टीका-समणिदो तस्स चउत्थे खंडे वेयणाए कदिअणियोगद्दारं 11 सिद्धा मला विसुद्धबुद्धी य लद्धसव्वत्था । तिहुवणसिरसेहरया पसियंतु भडारया सव्वे ॥ तिहुवणभवणप्पसरियपच्चक्खव बोह किरणपरिवेढो । ओ व अत्थवणो अरहंत-दिवायरो जयऊ ॥ २ ॥ आठ कर्मरूपी मलको जला देनेवाले, विशुद्ध बुद्धिसे संयुक्त, समस्त पदार्थोंको जाननेवाले, तथा तीन लोकके शिखरपर स्थित ऐसे सब सिद्ध भट्टारक प्रसन्न होवें ॥ १॥ जिसका प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी किरणोंका मण्डल त्रिभुवनरूप भवन में फैला हुआ है, तथा जो उदित होता हुआ भी अस्त होनेसे रहित है, ऐसा अरहन्तरूपी सूर्य जयवन्त होवे ॥ २ ॥ . क. १. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १. तिरयण-खग्गणिहाएणुत्तारियमोहसेण्णसिरणिवहो । आइरियराउ पसियउ परिवालियभवियजियलोओ ॥ ३ ॥ अण्णाण-यधयारे अणोरपार भमंतभवियाणं । उज्जोओ जेहि कओ पसियंतु सया उवज्झाया ॥४॥ दुह-तिव्वतिसा-विणडिय-तिहुवणभवियाण सुट्ठराएण । परिठविया धम्म-पवा सुअ-जलवाण-प्पयाणेण ॥ ५ ॥ संधारियसीलहरा उत्तारियचिरपमाददुस्सीलभरा । साहू जयंतु सव्वे सिव-सुह-पह-संठिया हु णिग्गलियभया ॥६॥ । णमो जिणाणं ॥१॥ किमट्ठमिदं वुच्चदे ? मगलहूं । किं मंगलं ? पुव्वसंचियकम्मविणासो । जदि एवं तो रत्नत्रयरूप खड्गके आघातसे मोहकी सैन्यके शिरसमूहको उतारकर भव्य जीवलोकका पालन करनेवाला आचार्यरूपी राजा प्रसन्न होवे ॥३॥ वे उपाध्याय परमेष्ठी सदा प्रसन्न होवें जिन्होंने आर-पार रहित अज्ञानरूप अन्धकारमें भटकनेवाले भव्य-जीवोंको प्रकाश दिया है, तथा जिन्होंने दुखरूपी तीव्र तृषासे व्याकुल हुए तीन लोकके भव्य जीवोंको थुतरूपी जलपान प्रदान करनेके हेतुसे अतिशय राग अर्थात् अनुकम्पासे धर्मरूपी प्याऊको स्थापित किया है ॥ ४-५॥ जिन्होंने चिरकालीन प्रमादरूपी कुशीलके भारको उतारकर शीलके भारको धारण किया है, जो शिवसुखके मार्गमें स्थित हैं, एवं भयसे रहित हैं ऐसे सर्व साधु जयवन्त होवे ॥ ६॥ जिनोंको नमस्कार हो ॥१॥ शंका-यह सूत्र किस लिये कहा जाता है ? समाधान-यह मंगलके लिये कहा जाता है। शंका-मंगल किसे कहते हैं ? समाधान-पूर्व संचित कर्मोंके विनाशको मंगल कहते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो 'जिन सूत्रोंका अर्थ जिन भगवान्के मुखसे निकला Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १.] कदिअणियोगद्दारे मंगलायरणं जिणवयणविणिग्गयत्थादो अविसंवादेण केवलणाणसमाणादो उसहसेणादिगणहरदेवेहि विरइयसदरयणादो दव्वसुत्तादो तप्पढण-गुणणकिरियावावदाणं सव्वजीवाणं पडिसमयमसंखेजगुणसेढीए पुव्वसंचिदकम्मणिज्जरा होदि त्ति णिप्फलमिदं सुत्तमिदि । अह सफलमिदं, णिप्फलं सुत्तज्झयणं; तत्तो समुवजायमाणकम्मक्खयस्स एत्थेवोवलंभो त्ति ? ण एस दोसो, सुत्तज्झयणेण सामण्णकम्मणिज्जरा कीरदे; एदेण पुण सुत्तज्झयणविग्धफलकम्मविणासो कीरदि ति भिण्णविसयत्तादो । सुत्तज्झयणविग्धफलकम्मविणासो सामण्णकम्मविरोहिसुत्तब्भासादो चेव होदि त्ति मंगलसुत्तारंभो अणत्थओ किण्ण जायदे ? ण, सुत्तत्थावगमब्भासविग्धफलकम्मे अविणढे संते तदवगमब्भासाणमसंभवादो। ण च कारणपुव्वकालभावि कज्जमत्थि, अणुवलंभादो। जदि जिणिंदणमोक्कारो सुत्तज्झयणविग्घफलकम्ममेत्तविणासओ तो ण सो जीविदावसाणे कायव्वो, ................. हुआ है, जो विसंवाद रहित होने के कारण केवलज्ञानके समान हैं, तथा वृषभसेनादि गणधर देवों द्वारा जिनकी शब्दरचना की गई है, ऐसे द्रव्य सूत्रोंसे उनके पढ़ने और मनन करने रूप क्रियामै प्रवृत्त हुए सब जीवोंके प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणीसे पूर्व संचित कौकी निर्जरा होती है ' इस प्रकार विधान होनेसे यह जिननमस्कारात्मक सूत्र व्यर्थ पटना है। अथवा. यदि यह सत्र सफल है तो सूत्रोंका अध्ययन व्यर्थ होगा, क्योंकि. उससे होनेवाला कर्मक्षय इस जिननमस्कारात्मक सूत्रमें ही पाया जाता है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्राध्ययनसे तो सामान्य कर्मोंकी निर्जरा की जाती है; और मंगलसे सूत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मोंका विनाश किया जाता है; इस प्रकार दोनोंका विषय भिन्न है। शंका - चूंकि सूत्राध्ययनमें विघ्न उत्पन्न करनेवाले काँका विनाश सामान्य कर्मों के विरोधी सूत्राभ्याससे ही हो जाता है, अतएव मंगलसूत्रका आरम्भ करना व्यर्थ • क्यों न होगा? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, सूत्रार्थके ज्ञान और अभ्यासमें विघ्न उत्पन्न करनेवाले कर्मोका जब तक विनाश न होगा तब तक उसका ज्ञान और अभ्यास दोनों असम्भव हैं। और कारणसे पूर्व कालमें कार्य होता नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। शंका-यदि जिनेंद्रनमस्कार केवल सूत्राध्ययनमें विघ्न करनेवाले कर्मों मात्रका विनाशक है तो उसे मरण समयमें नहीं करना चाहिये, क्योंकि, उसका उस समयमें प्रतिषु सव्वमुत्तादो तप्पडण.' इति पाठः। २ प्रतिषु · विरोह-' इति पाठः। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १. तस्स तत्थ फलाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, एत्तियमेत्तं चेव विणासेदि त्ति णियमाभावादो। कधं पुण एसो जिणिंदणमोक्कारो एक्को चेव संतो अणेयकज्जकारओ १ ण, अणेयविहणाणचरणसहेज्जस्स अणेयकज्जुप्यायणे विरोहाभावादो (उत्तं च एसो पंचणमोक्कारो सव्वपावप्पणासओ। मंगलेसु अ सव्वेसु पढम होदि मंगलं' ॥ १॥इदि ण च एसो एक्कल्लओ चेव सव्वकम्मक्खयकरणसमत्थो, णाण-चरणम्भासाणं विहलत्तप्पसंगादो । तदो सव्वकज्जारंभेसु जिणिंदणमोक्कारो कायव्वो, अण्णहा पारद्धकज्जणिप्पत्तीए अणुववत्तीदो । उत्तं च (आदी मंगलकरणं सिस्सा लहु पारवा हवंतु त्ति । __ मज्झे अयोच्छित्ती विज्जा विज्जाफलं चरिमे ॥ २ ॥ कोई फल नहीं है ? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह केवल सूत्राध्यायवमें विघ्न करने. थाले कर्मोंका ही विनाश करता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। शंका-तो फिर यह जिनेन्द्रनमस्कार एक ही होकर अनेक कार्योंका करनेवाला कैसे होगा? . समाधान-नहीं, क्योंकि अनेक प्रकार ज्ञान व चारित्रकी सहायता युक्त होते हुए उसके अनेक कार्योंके उत्पादनमें कोई विरोध नहीं है । कहा भी है यह पंचनमस्कार मंत्र सर्व पापोंका नाश करनेवाला और सब मंगलों में प्रथम मंगल है ॥१॥ और यह अकेला ही सब कोका क्षय करने में समर्थ है नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर शान और चारित्रके अभ्यासकी विफलताका प्रसंग आवेगा । इस कारण सब कार्योंके आरम्भमें जिनेन्द्रनमस्कार करना चाहिये, क्योंकि, ऐसा करनेके विना प्रारम्भ किये हुए कार्यकी सिद्धि घटित नहीं होती। कहा भी है शास्त्रके आदिमें मंगल इसलिये किया जाता है कि शिष्य शीघ्र ही शास्त्रके पार. गामी हो। मध्यमें मंगल करनेसे निर्विघ्न कार्यपरिसमाप्ति और अन्तमें उसके करनेसे विद्या व विद्याके फल की प्राप्ति होती है ॥२॥ १मूला. ७, १३. २.ख.पु. १ पृ.४०,२०; पढमे मंगलवयणे सिरसा सत्थस्स पारगा होति । मजिझम्मे णीविग्धं विज्जा विम्बाफलं चरिमे ॥ ति. प. १, २९. . Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १.] कदिअणियोगद्दारे मंगलायरणं मंगलं काऊण पारद्धकज्जाणं कहिं पि विग्घुवलंभादो तमकाऊण पारद्धकज्जाणं पि कत्थ वि विग्घाभावदंसणादो जिणिंदणमोक्कारो ण विग्धविणासओ त्ति ? ण एस दोसो, कयाकयभेसयाणं वाहीणमविणास-विणासदसणेणावगयवियहिचारस्स वि मारिचादिगणस्स भेसयत्तुवलंभादो । ओसहाणमोसहत्तं ण विणस्सदि', असज्झवाहिवदिरित्तसज्झवाहिविसए चेव तेसिं वावारब्भुवगमादो त्ति चे जदि एवं तो जिणिंदणमोक्कारो वि विग्धविणासओ, असज्झविग्धफलकम्ममुज्झिदूण सज्झविग्धफलकम्मविणासे वावारदसणादो। ण च ओसहेण समाणो जिणिदणमोक्कारो, णाण-झाणसहायस्स संतस्स णिविग्यग्गिस्स अदझिंधणाण व असज्झविग्धफलकम्माणमभावादो । णाणज्झाणप्पओ णमोक्कारो संपुगणो, जहण्णो मंदसद्दहणाणुविद्धो बोद्धव्यो; सेसअसंखेज्जलोगभेयभिण्णा मज्झिमा । ण च ते सव्वे समाणफला, अइप्पसंगादो । शंका-मंगल करके प्रारम्भ किये गये कार्योंके कहींपर विप्न पाये जानेसे, और उसे न करके भी प्रारम्भ किये गये कार्योंके कहींपर विनोंका अभाव देखे जानेसे जिनेन्द्रनमस्कार विनविनाशक नहीं है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जिन व्याधियोंकी औषध की गई है उनका अविनाश, और जिनकी औषध नहीं की गई है उनका विनाश देखे जानेसे व्यभिचार ज्ञात होनेपर भी मारिच [काली मिरच] आदि औषधि द्रव्यों में औषधित्व गुण पाया जाता है। यदि कहा जाय कि औषधियोंका औषधित्व [उनके सर्वत्र अचूक न होनेपर भी] इस कारण नष्ट नहीं होता क्योंकि असाध्य व्याधियोंको छोड़ करके केवल साध्य व्याधियों के विषयमें ही उनका व्यापार माना गया है, तो जिनेन्द्र-नमस्कार भी [ उसी प्रकार] विघ्न विनाशक माना जा सकता है, क्योंकि, उसका भी व्यापार असाध्य विघ्नोंसे उत्पन्न कर्मोको छोड़कर साध्य विनोंसे उत्पन्न कर्मों के विनाशमें देखा जाता है । दूसरी बात यह कि सर्वथा 1 औषधके समान जिनेन्द्र-नमस्कार नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार निर्विघ्न अग्निके होते हुए न जल सकने योग्य इन्धनोंका अभाव रहता है, उसी प्रकार उक्त नमस्कारके ज्ञान व ध्यानकी सहायता युक्त होनेपर असाध्य विघ्नोत्पादक कौका भी अभाव होता है। ज्ञान-ध्यानात्मक नमस्कारको सम्पूर्ण अर्थात् उत्कृष्ट, एवं मन्द श्रद्धान युक्त नमस्कारको जघन्य जानना चाहिये । शेष असंख्यात लोक प्रमाण भेदोंसे भिन्न नमस्कार मध्यम हैं । और वे सब समान फलवाले नहीं होते, क्योंकि, ................. १ अ-आप्रयोः · सारिचादि ', काप्रती · सारिवादि ' इति पाठः । २ प्रतिषु · विस्सदि ' इति पाठः। ३ प्रतिषु · अदझिदणाणि व ' इति पाठः। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १. तम्हा ण पुवुत्तदोसाणमेत्थ संभवो त्ति सिद्धं । अहवा मोक्खलु सुत्तब्भासो कीरदे । मोक्खो वि कम्मणिज्जरादो, सा वि णाणाविणाभाविझाणचिंताहिंतो, ताओ वि सम्मत्तादो । ण च सम्मत्तेण विरहियाणं णाण-झाणाणमसंखेज्जगुणसेडीकम्माणिज्जराए अणिमित्ताणं णाण-झाणववएसो पारमत्थिओ अत्थि, अवगयट्ठसद्दहणणाणे अमोक्खढुज्झमे च तव्ववएसब्भुवगमे संते अइप्पसंगादो । तम्हा सम्माइट्ठिणा सम्माइट्ठीणं चेव वक्खाणेयव्वं सुत्तमिदि जाणावणटुं जिणणमोक्कारो को । अवगयणिवारणमुहेण पयदत्थपरूवणटुं णिक्खेवो कीरदे । तं जहा- णाम-ढवणादव्व-भावभेएण चउबिहा जिणा । जिणसद्दो णामजिणो । ठवणजिणो सब्भावासब्भावट्ठवणभेएण दुविहो । जिणायारसंठियं दव्वं सब्भावट्ठवणजिणो । [जिणायारविरहियं पि जिणरूपेण कप्पियं दव्वं असब्भावट्ठवणजिणो। ] दव्वजिणो आगम-णोआगमभेएण दुविहो । जिणवाहुडजाणओ अणुवजुत्तो अविणट्ठसंसकारो आगमदव्वजिणो। णोआगमदव्वजिणो जाणुयसंरीर-भविय-तव्वदिरित्तभेएण तिविहो । तत्थ जाणुयसरीरणोआगमदव्वजिणो भविय-वट्टमाण ............ ऐसा माननेपर अतिप्रसंग दोष आता है। इस कारण यहां पूर्वोक्त दोषोंकी सम्भावना नहीं है, यह सिद्ध हुआ। ___ अथवा मोक्षके निमित्त सूत्रोंका अभ्यास किया जाता है। मोक्ष भी कर्मोकी निर्जरासे होता है। वह कर्मनिर्जरा भी ज्ञानके अविनाभावी ध्यान और चिन्तनसे होती है । ज्ञानके अविनाभावी ध्यान और चिन्तन भी सम्यक्त्वसे होते हैं। सम्यक्त्वसे राहत ज्ञान-ध्यानके असंख्यात गुणी श्रेणीरूप कर्मनिर्जराके कारण न होनेसे 'शान-ध्यान' यह संज्ञा वास्तविक नहीं है, क्योंकि, अर्थश्रद्धानसे रहित ज्ञान और मोक्षार्थ न किये जानेवाले उद्यममें वह संशा स्वीकार करनेपर अतिप्रसंग होता है । इसीलिये सम्यग्दृष्टि द्वारा सम्यग्दृष्टियोंको ही सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये, इस बातके ज्ञापनार्थ जिननमस्कार किया गया है । ___ अप्रकृतका निवारण करते हुए प्रकृत अर्थके प्ररूपणार्थ निक्षेप किया जाता है। वह इस प्रकार है- नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे जिन चार प्रकार हैं । 'जिन' शब्द नाम जिन है । स्थापना जिन सद्भावस्थापना और असद्भावस्थापनाके भेदसे दो प्रकार हैं । जिन भगवान्के आकार रूपसे स्थित द्रव्य सद्भावस्थापना जिन है । [जिनाकारसे रहित जिस द्रव्यमें जिन भगवान्की कल्पना की जाय वह द्रव्य असद्भावस्थापना जिन है। ] द्रव्य जिन आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है। जिनप्राभृतका जानकार, अनुपयुक्त और संस्कारके विनाशसे रहित जीव आगमद्रव्य जिन है। नोआगमद्रव्य जिन शायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है । उनमें Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १.] कदिअणियोगद्दारे मंगलायरणं समुज्झादभेएण तिविहो । कधमेदेसिं तिणं सरीराणं णिच्चेयणाणं जिणव्ववएसो ? ण, धणुहसहचारपज्जाएण तीदाणागय-वट्टमाणमणुआणं धणुहववएसो व्व जिणाहारपज्जाएण तीदाणागय-वट्टमाणसरीराणं दव्वजिणत्तं पडि विरोहाभावादो। आगमसण्णा अणुवजुत्तजीवदव्वस्सेव एत्थ किण्ण कदा, उवजोगाभावं पडि विसेसाभावादो ? ण, एत्थ आगमसंसकाराभावेण तदभावादो । भविस्सकाले जिणपज्जाएण परिणमंतओ भवियदव्वजिणो। भविस्सकाले जिणपाहुडजाणयस्स भूदकाले णादूण विस्सरिदस्स य णोआगमभवियदव्वजिणत्तं किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, आगमदव्वस्स आगमसंसकारपज्जायस्स आहारत्तणेण तीदाणागद-वट्टमाणस्स णोआगमदव्वत्तविरोहादो। तवदिरित्तदव्वजिणो सच्चित्ताचित्त-तदुभयभेएण तिविहो । करह-हयहत्थीणं जेदारो सचित्तदव्वजिणा। हिरण्ण-सुवण्ण-मणि-मोत्तियादीणं जेदारो अचित्तदव्वजिणा । ससुवण्णकण्णादीणं जेदारो सचित्ताचित्तदव्वजिणा। आगम-णोआगममेएण दुविहो भावजिणो। .......................................... शायकशरीरनोआगमद्रव्य जिन भव्य, वर्तमान और समुज्झितके भेदसे तीन प्रकार है। शंका-इन अचेतन तीन शरीरोंके 'जिन' संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - नहीं, क्योंकि जिस प्रकार धनुषसहचाररूपपर्यायसे अतीत, अनागत और वर्तमान मनुष्योंकी 'धनुष' संज्ञा होती है, उसी प्रकार जिनाधाररूप पर्यायसे अतीत, अनागत और वर्तमान शरीरोंके द्रव्य जिनत्वके प्रति कोई विरोध नहीं है शंका-अनुपयुक्त जीवद्रव्यके समान यहां आगम संज्ञा क्यों नहीं की, क्योंकि, दोनों में उपयोगाभावकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है ? । समाधान -नहीं की, क्योंकि, यहां आगमसंस्कारका अभाव होनेसे उक्त संशाका अभाव है। भविष्य काल में जिन पर्यायसे परिणमन करनेवाला भावी द्रव्य जिन है। - शंका-भविष्य कालमें जिनप्राभृतको जाननेवाले व भूत कालमें जानकर विस्मरणको प्राप्त हुए जीवके नोआगमभाविद्रव्यजिनत्व क्यों नहीं स्वीकार करते ? । ___समाधान-नहीं, क्योंकि, आगमसंस्कार पर्यायका आधार होनेसे अतीत, अनागत व वर्तमान आगमद्रव्यके नोआगमद्रव्यत्वका विरोध है। __ तद्व्यतिरिक्तद्रव्य जिन सचित्त, अचित्त और तदुभयके भेदसे तीन प्रकार है। ऊंट, घोड़ा और हाथियोंके विजेता सचित्तद्रव्य जिन हैं। हिरण्य, सुवर्ण, मणि और मोती आदिकोंके विजेता अचित्तद्रव्य जिन हैं। सुवर्ण सहित कन्यादिकोंके विजेता सचित्ताचित्त द्रव्य जिन हैं । आगम और नोआगमके भेदसे भाव जिन दो प्रकार है। जिनप्राभृतका जानकार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १. जिणपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावजिणो। णोआगमभावजिणी उवजुत्तो तप्परिणदो त्ति दुविहो । जिणसरूक्परिछेदिणाणपरिणदो उवजुत्तभावजिणो । जिणपज्जायपरिणदो तप्परिणयभावजिणो। एदेसु जिणेसु कस्स एसो कओ णमोक्कारो ? तप्परिणयभावजिणस्स ठवणाजिणस्स य । अणतणाण-दंसण-वीरिय-विरइ-खइयसम्मत्तादिगुणपरिणयजिणस्स णमोक्कारो कीरउ णाम, तत्थ देवत्तुवलंभादो। ण ठवणाए जिणगुणविरहियाए, तत्थ विग्यफलकम्मविणासणसत्तीए अभावादो त्ति ? तत्थेदं ताव संपहारेमो- ण ताव जिणो सगवंदणाए परिणयाणं चेव जीवाणं पावस्स पणासओ, वीयरायत्तस्साभावप्पसंगादो। ण सव्वेसिं पावमवहरइ, जिणणमोक्कारस्स विहलत्तप्पसंगादो । परिसेसत्तणेण जिणपरिणयभावो जिणगुणपरिणामो च पावपणास ति इच्छियव्वो, अण्णहा कम्मक्खयाणुववत्तीदो । सो वि जिणगुणपरिणामभावो जिणिदादो व्व अज्झारोवियाणतणाण-दसण-वीरिय-विरइ-सम्मत्तादिगुणाए अज्झाहारोवबलेणेव जिणेण सह एयत्तमुवगयाए ठवणाए वि समुप्पज्जइ त्ति जिणिंदणमोक्कारो व्व जिणट्ठवण उपयुक्त जीव आगमभाव जिन है। नोआगमभाव जिन उपयुक्त और तत्परिणतके भेदसे दो प्रकार है। जिनस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे परिणत जीव उपयुक्तभावजिन है । जिनपर्यायसे परिणत जीव तत्परिणतभावजिन है। शंका-इन जिनोंमें किस जिनको यह नमस्कार किया गया है ? समाधान-तत्परिणतभाव जिन और स्थापना जिनको यह नमस्कार किया गया है। शंका-अनन्त शान, दर्शन, वीर्य, विरति और क्षायिक सम्यक्त्वादि गुणोंसे परिणत जिनको भले ही नमस्कार किया जाय, क्योंकि, उसमें देवत्व पाया जाता है । किन्तु जिणगुणसे रहित स्थापनाकी अपेक्षा नमस्कार करना ठीक नहीं है, क्योंकि, उसमें विनोत्पादक कर्मोंके विनाश करनेकी शक्तिका अभाव है ? समाधान- उक्त शंका होने पर यह परिहार करते हैं- जिन देव अपनी वन्दनामें परिणत जीवोंके ही पापके विनाशक नहीं हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर उनमें वीतरागताके अभावका प्रसंग आवेगा। न वे सब जीवोंके पापको नष्ट करते हैं, क्योंकि, ऐसा होनेपर जिननमस्कारकी विफलताका प्रसंग आता है । तब पारिशेषरूपसे जिनपरिणत भाव और जिनगुणपरिणामको पापका विनाशक स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि, इसके विना कर्मीका क्षय घटित नहीं होता। वह भी जिणगुणपरिणाम भाव जिनेन्द्रके समान अनन्त शान, दर्शन, वीर्य, विरति और सम्यक्त्वादि गुणों के अध्यारोपसे युक्त और अध्याहारके बलसे ही जिनके साथ एकताको प्राप्त हुई स्थापनासे भी उत्पन्न होता है। इसी कारण For Private & Personal use only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १. ] कदिअणियो गद्दारे मंगलायरणं [ ९ णमोक्कारो वि पावपणासओ त्ति किण्ण इच्छिज्जदि, विसेसाभावाद । णाम दव्व णोआगमउवत्तभावजिणाणं णमोक्कारो किण्ण कीरदे ? ण, तेसिं जिणत्त - जिणट्ठवणत्ताभावादो । कुदो ? ण तात्र जिणत्तं, अनंतणाणादिजिणेणिबन्धणगुणविरहियाणं जिणत्तविरोहादो | ण तेर्सि ठवणभाववि, तत्थ जिणत्तारोवाभावादो । भावे वा ण ते णामादओ, ठवणाए तेसिमंत - भावाद । ण चोभयवज्जिएसु णमोक्कारो पावपणासओ, अइप्पसंगादो । जदि एवं तो तिकालविसेसियमुणि-जिणसरी रुज्जंत-चंपा - पावाणयरादिणमोक्कारो णिष्फलो होदि ति ण संकणिज्जं, तेर्सि सब्भावासम्भावद्ववर्णतन्भूदाणं णमोक्कारस्स णिष्फलत्तविरोहादो । सन्भावासब्भाव वणण मोक्कारे फलवंते संते सव्वेसिं जिणट्ठवणत्तमावण्णाणं णमोक्कारो फलवंतो जायदे | उत्तं च जिनेन्द्र नमस्कार के समान जिनस्थापना नमस्कार भी पापका विनाशक है, ऐसा क्यों नहीं स्वीकार करते, क्योंकि, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । - शंका- - नाम जिन, द्रव्य जिन और नोआगमउपयुक्तभाव जिनको नमस्कार क्यों नहीं करते ? समाधान - नहीं करते, क्योंकि, उनमें जिनत्व और जिनस्थापनात्वका अभाव है । कारण कि उन तीनों जिनोंके जिनत्व तो बनता नहीं है, क्योंकि, जिनत्वके कारणभूत अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे रहित होनेसे उनके जिनत्वका विरोध है । स्थापनापना भी उनके नहीं है, क्योंकि, उनमें जिनत्वके आरोपका अभाव है । और यदि आरोप है तो वे नामादिक जिन नहीं हो सकते, क्योंकि, ऐसी अवस्थामें उनका स्थापनामै अन्तर्भाव होता है । और जिनत्व व जिनस्थापनासे रहित अन्य जिनोंमें किया गया नमस्कार पापप्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है । शंका- यदि ऐसा है तो तीन कालोंसे विशेषित मुनि व जिनका शरीर, एवं ऊर्जयन्त, चम्पापुर और पावानगर आदिको किया जानेवाला नमस्कार निष्फल होगा ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, उनके सद्भावस्थापना या असद्भावस्थापनाके अन्तर्भूत होने से नमस्कारकी निष्फलताका विरोध है । सद्भावस्थापना नमस्कार और असद्भावस्थापनानमस्कार के फलवान् होनेपर जिनस्थापनात्वको प्राप्त सबको किया गया नमस्कार फलवान् होता है । कहा भी है १ प्रतिषु ' जिणत्तमर्णतणाणा जिण' ' इति पाठः । छ. क. २० Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, १. आलंबणेहि भरिओ लोगो झाइ दुमणस्स खवयस्स । जं जं मणसा पस्सइ तं तं आलंबणं होई ॥ ३ ॥ बुद्धीए जले थले आयासे वा संकप्पिओ जिणो चउबिहेसुणिक्खेवेसु कत्थ णिवददे ? णोआगमभावणिक्खेवे, उवजुत्तसरूवादो। ण च एसा ठवणा होदि, अण्णम्हि दवे जिणगुणारोवाभावादो । तम्हा एदस्स वि णमोकारो फलवंतो त्ति सिद्धं । एदेण पंचगुरूणं तवणाणं च णमोक्कारो कदो, सव्वेसिमेत्थ संभवादो । तं जहा - जिणा दुविहा सयल-देसजिणभेएण । खवियघाइकम्मा सयलजिणा । के ते ? अरहंत-सिद्धा । अवरे आइरिय-उवझाय-साहू देसजिणा . ध्यानमें मन लगानेवाले क्षपकके लिये यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे परिपूर्ण है। ध्यानमें ध्याता जो जो मनसे देखता है वह वह आलम्बन हो जाता है ॥ ३॥ शंका-बुद्धिसे जलमें, स्थलमें अथवा आकाशमें संकल्पित जिन चार प्रकार निक्षेपोंमेंसे किसमें अन्तर्भूत है ? समाधान-नोआगमभावनिक्षेपमें, क्योंकि, वह उपयुक्त स्वरूप है । यह स्थापना नहीं है, क्योंकि, अन्य द्रव्यमें जिनगुणोंके आरोपणका अभाव है। इस कारण इसको भी किया गया नमस्कार सफल है, यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-काष्ठ व वस्त्रादि रूप तदाकार या अतदाकार वस्तुमें जो किसी अन्य पदार्थकी कल्पना की जाती है वह स्थापना निक्षेप कहा जाता है। इस प्रकार स्थापनामें दो पदार्थोका होना आवश्यक है। परन्तु यहां चूंकि बुद्धिसे जल-थलादिमें की जानेवाली जिनकी कल्पनामें दो पदार्थोंका अस्तित्व है नहीं, अतः वह स्थापना नहीं कहला सकती। किन्तु जिनस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे परिणत होनेके कारण उसे उपयुक्त नोआगमभाव जिन कहना ही उचित है । (देखो पीछे पृ. ८)। ___ इस सूत्रके द्वारा पांच गुरुओं व उनकी स्थापनाओंको भी नमस्कार किया गया है, क्योंकि, यहां सबोंकी सम्भावना है । वह इस प्रकारसेसकल जिन और देश जिनके भेदसे जिन दो प्रकार हैं। जो घातिया कर्मोका क्षय कर चुके हैं, वे सकल जिन हैं। वे कौन हैं ? अरहन्त और सिद्ध । इतर आचार्य, उपाध्याय और २ काप्रतीचउविहो एसु' इति पाठः। १ भ. आ. १८७६. ३ अ-काप्रयोः । एसो' इति पाठः। . Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १. ] कदिअणियोगद्दारे मंगलायरणं [११ तिव्वकसाइंदिय- मोहविजयादो । होदु णाम सयलजिणणमोक्कारो पावप्पणासओ, तत्थ सव्वगुणाणमुवलंभादो | ण देसजिणागमेदेसु तदणुवलंभादो ति ? ण, सयलजिणेसु व देसजिसु तिन्हं रयणाणमुवलंभादो । ण च तिरयणवदिरित्ता देवत्तणिबंधणा सयलजिणे के वि गुणा संति, अणुवलंभादो । तदा सयलजिणणमोक्कारो व्व देसजिणणमोक्कारो वि सयलकम्मक्खयकारओ त्ति दट्ठव्वो । सयलासयलजिणट्ठियतिरयणाणं ण समाणत्तं, संपुण्णासं पुण्णाणं समाणत्तविरोहादो | संपुण्णतिरयणकज्जम संपुण्णतिरयणाणि ण करेंति, असमाणत्तादो त्तिण, णाण- दंसण-चरणाणमुप्पणसमाणत्तुवलंभादो । ण च असमाणाणं कज्जं असमाणमेव त्ति नियमो अस्थि, संपुण्णग्गणा कीरमाणदाहकज्जस्स तदवयवे वि उवलंभादो, अमियघडसएण कीरमाणणिव्विसीकरणादिकज्जस्स अभियस्स चुलुवे वि उवलंभादो वा । ण च तिरयणाणं देसजिणट्ठियाणं सयलजिणट्ठिएहि भेओ, बज्झतरंगा से सत्यपडिबद्धत्तणेण समाणवलंभादो । साधु तीव्र कषाय, इन्द्रिय एवं मोहके जीत लेनेके कारण देश जिन हैं । शंका - सकलजिननमस्कार पापका नाशक भले ही हो, क्योंकि, उनमें सब गुण पाये जाते हैं । किन्तु देशजिनोंको किया गया नमस्कार पापप्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि, इनमें वे सब गुण नहीं पाये जाते ? समाधान- नहीं, क्योंकि सकल जिनोंके समान देश जिनोंमें भी तीन रत्न पाये जाते हैं । और तीन रत्नोंके सिवाय सकल जिनमें देवत्वके कारणभूत अन्य कोई भी गुण हैं नहीं, क्योंकि, वे पाये नहीं जाते । इसलिये सकल जिन के नमस्कारके समान देश जिनोंका नमस्कार भी सब कर्मोंका क्षयकारक है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । शंका - सकल जिनों और देश जिनोंमें स्थित तीन रत्नोंके समानता नहीं हो सकती, क्योंकि, सम्पूर्ण और असम्पूर्णकी समानताका विरोध है । सम्पूर्ण रत्नत्रयका कार्य असम्पूर्ण रत्नत्रय नहीं करते, क्योंकि, वे असमान हैं ? समाधान – नहीं, क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्रके सम्बन्धमें उत्पन्न हुई समानता उनमें पायी जाती है । और असमानों का कार्य असमान ही हो ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि, सम्पूर्ण अग्निके द्वारा किया जानेवाला दाह कार्य उसके अवयव में भी पाया जाता है, अथवा अमृतके सैकडों घड़ोंसे किया जानेवाला निर्विषीकरणादि कार्य चुल्लू भर अमृतमें भी पाया जाता है । इसके अतिरिक्त देश जिनोंमें स्थित तीन रत्नोंका सकल जिनोंमें स्थित रत्नत्रय से कोई भेद भी नहीं है, क्योंकि, बाह्य और अभ्यन्तर समस्त पदार्थोंसे संबद्ध होनेकी अपेक्षा समानता पायी जाती है । और आविर्भाव Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. च आविभावाणाविभावकओ विसेसो तेसिं सरूवेण समाणत्तस्स विणासओ, आविब्भूदसूरमंडलस्स अणाविन्भूदसूरमंडलस्स सूरमंडलत्तणेण समाणत्तुवलंभादो। ८एवं दव्वट्टियजणाणुग्गहढ णमोक्कारं गोदमभडारओ महाकम्मपयडिपाहुडस्स आदिम्हि काऊण पज्जवट्ठियणयाणुग्गहट्टमुत्तरसुत्ताणि भणदि णमो ओहिजिणाणं ॥२॥ ओहिसदो अप्पाणम्मि वट्टदे, 'ओहि त्ति आह' इदि एत्थ अप्पाणभिम पउत्तिदसणादो । सब्भावासब्भावट्ठवणासु वि वट्टदे, 'एसो सो ओहि' त्ति आरोवबलेण ओहिणा एगतं गयदव्वाणमुवलंभादो । कत्थ वि मज्जाए वट्टदे, जहा 'माणुसखेत्तोही माणुसुत्तरसेलो', 'लोगोही तणुवायपरंतो' ति। कत्थ वि णाणे वट्टदे 'ओहिणा जाणदि' त्ति । एत्थ णाणे वट्टमाणो ओहिसद्दो घेत्तव्यो । मज्जाए रूढो ओहिसदो कथं णाणे वट्टदे ? ण, उवयारेण असिसहिचरियस्स वं अनाविर्भावसे किया गया भेद स्वरूपसे उनकी समानताका विनाशक नहीं है, क्योंकि, आविर्भूत सूर्यमण्डल और अनाविर्भूत सूर्यमण्डलके सूर्यमण्डलस्वकी अपेक्षा समानता पायी जाती है। इस प्रकार द्रव्यार्थिक जनोंके अनुग्रहार्थ गौतम भट्टारक महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आदिमें नमस्कार करके पर्यायार्थिकनय युक्त शिष्योंके अनुग्रहार्थ उत्तर सूत्रोंको कहते हैं अवधि जिनोंको नमस्कार हो ॥ २ ॥ अवधि शब्द आत्माके अर्थ में होता है, क्योंकि, ' अवधि इस प्रकार आत्मा कहा जाता है' (?) इस प्रकार यहां आत्मा अर्थमें अवधि शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है। सद्भाव और असद्भाव रूप स्थापनामें भी यह अवधि शब्द रहता है, क्योंकि, 'यह वह अवधि है' इस प्रकार आरोपके बलसे अवधिके साथ एकताको प्राप्त द्रव्य पाये जाते हैं । कहींपर मर्यादाके अर्थमें भी इस शब्दका प्रयोग होता है; जैसे, मानुषक्षेत्रकी अवधि ( मर्यादा) मानुषोत्तर पर्वत है; लोककी अवधि तनुवात पर्यन्त है । कहींपर ज्ञान अर्थमें भी यह शब्द आता है; जैसे अवधि (शान ) से जानता है। यहांपर अवधि शब्दको ज्ञानके अर्यमें ग्रहण करना चाहिये। शंका-मर्यादा अर्थमें रूढ़ अवधि शब्द शानके अर्थमें कैसे रहता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकार असिसे सहचरित पुरुषके लिये उपचारसे Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा पुरिसस्स असित्तमिव ओहिसहचरियस्स णाणस्स ओहित्ताविरोहादो। अथवा अवाग्धानादवधिरिति व्युत्पतेर्ज्ञानस्य अवधित्वं घटते। एदेण वक्खाणेण मदि-सुदणाणाणमोहित्तमोसारिदं । पुग्विल्लवक्खाणेण मदि-सुद-मणपज्जवणाणाणमोहिसहचरिदाणमोहिववएसो किण्ण पसज्जदे ? ण, तेसु तहाविहरूढीर णिमित्ताभावादो। ओहिणाणे ओहिववहारो किण्णिमित्तो ? ओहिणाणादो हेट्ठिमसव्वणाणाणि सावहियाणि, उवरिमकेवलणाणं णिरवहियमिदि जाणावणट्ठमोहि असि कहने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार अवधिसे सहचरित ज्ञानको अवधि कहनेमें भी कोई विरोध नहीं आता। ___ अथवा, 'अवाग्धानात् अवधिः ' अर्थात् जो अधोगत पुद्गलको अधिकतासे ग्रहण करे वह अवधि है, इस व्युत्पत्तिसे ज्ञानको अवधिपना घटित होता है । इस व्याख्यानसे मति और श्रुत ज्ञानको अवधित्वका निराकरण किया गया है। शंका-पूर्वोक्त व्याख्यानसे मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानको अवधिसे सहचरित होने के कारण अवधि संज्ञाका प्रसंग क्यों न आवेगा? समाधान नहीं आवेगा, क्योंकि, उन ज्ञानोंमें उस प्रकार रूढ़िका कोई निमित्त नहीं है। शंका-अवधि शानमें · अवधि' शब्दके व्यवहारका क्या निमित्त है ? समाधान – अवधिज्ञानसे नीचेके सब ज्ञान अवधि सहित और उपरिम केवलज्ञान अवधिसे रहित है, यह बतलानेके लिये ' अवधि' शब्दका व्यवहार किया गया है । विशेषार्थ-यहां शंका उत्पन्न होती है कि मनःपर्यय ज्ञान भी तो सावधि है। परन्तु वह अवधिज्ञानसे नीचेका ज्ञान नहीं है, किन्तु उससे ऊपरका है । अतः “ अवधिज्ञानसे नीचेके सब ज्ञान अवधि सहित और उपरिम केवलज्ञान अवधिसे रहित है, यह बतलानेके लिये अवधि शब्दका व्यवहार किया गया है।" यह समाधान ठीक नहीं मालूम होता? इस शंकाका समाधान यह है कि मनःपर्ययज्ञानका विषय चूंकि अवधिज्ञानकी अपेक्षा कम है अतः वह भी विषयकी अपेक्षा अवधिज्ञानसे नीचेका हो ज्ञान है । इसलिये उपर्युक्त समाधान संगत ही है। 'मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् ' इस प्रकार तत्वार्थसूत्रादिमें जो मनःपर्ययज्ञानका अवधिशानसे ऊपर निर्देश किया गया है उसका कारण संयमका सहचारित्व है। (देखो कसायपाहुड भा. १ पृ. १७) १ अवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः। स. सि. १, ९. अवधिशब्दोऽधःपर्यायवचनः, यथाध:क्षेपणमवक्षेपणम्, इत्यधोगतभूयोद्रव्यविषयो अवधिः । त. रा. वा. १, ९, ३. अधस्तादबहुतरविषयग्रहणादवधिरुच्यते। देवाः खलु अवधिज्ञानेन सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति, उपरि स्तोकं पश्यन्ति निजविमानध्वजदण्डपर्यन्त. मित्यर्थः । श्रुतसागरी १, ९. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. ववहारो कदो। एसो दवट्ठियणयणिदेसो ण होदि, पज्जवट्ठियणयाहियारादो । परमसव्वाणंतोहीणं पि गहणं ण होदि, उवरि तेसिं पुधसुत्तदंसणादो। तदो देसोहीए एसो णिदेसो त्ति दट्ठव्वो। कधमोहि त्ति णामेगदेसेण देसोही अवगम्मदे ? ण, सत्यहामा भामा, भीमसेणो सेणो, बलदेवो देवो इच्चाईसु णामेगदेसादो वि णामिल्लविसयणाणुप्पत्तिदसणादो । सा च देसोही तिविहा- जहण्णा उक्कस्सा अजहण्णाणुक्कस्सा चेदि । तत्थ जहण्णदेसोहीए अण्णहापमाणपरूवणोवायाभावादो जहण्णविसयपरूवणामुहेण जहण्णाहीए पमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा-- विसओ चउविहो दब-खेत्त-काल-भावभेएण। तत्थ जहण्णदव्वपमाणे भण्णमाणे सगविस्ससोवचयसहिदकम्मविरहिद-ओरालियसरीरदव्वे सविस्ससोवचए घणलोगेण भागे हिदे तत्थ एगभागो जहण्णोहिदव्वं होदि। ओरालियसरीरं सोवचयं भज्जमाणं घणलोगो चेव यह द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा निर्देश नहीं है, क्योंकि, पर्यायार्थिक नयका अधिकार है । यहां परमावधि, सर्वावधि और अनन्तावधिका भी ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, आगे इनके पृथक् सूत्र देखे जाते हैं। इसी कारण यह देशावधिका निर्देश है ऐसा समझना चाहिये? शंका-'अवधि' इस नामके एक देशसे देशावधि कैसे जाना जाता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि भामासे सत्यभामा, सेनसे भीमसेन और देवसे बलदेव, इत्यादिकोंमें नामके एक देशसे भी नामवालोंको विषय करनेवाले ज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है। वह देशावधि तीन प्रकार है- जघन्य, उत्कृष्ट और अजघन्यानुत्कृष्ट । उनमें चूंकि जघन्य अवधिविषयकी प्रमाणप्ररूपणाके विना जघन्य देशावधिकी प्रमाणप्ररूपणाका कोई उपाय है नहीं, अतः जघन्य विषयकी प्ररूपणा करते हुए जघन्य अवधिके प्रमाणकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे विषय चार प्रकार है। उनमें जघन्य द्रव्यका प्रमाण कहनेपर अपने विनसोपचय सहित कर्मसे रहित व अपने विनसोपचय सहित औदारिकशरीर (नोकर्म) द्रव्यमें घनलोकका भाग देनेपर उसमें एक भाग प्रमाण जघन्य अवधि द्रव्य होता है। शंका-विनसोपचय सहित औदारिकशरीर भाज्य राशि और घनलोक ही १ क. पा. मा. १ पृ. १७. २ णोकम्मुरालसंच मज्झिमजोगज्जयं सविस्सचयं । लोयविभस जाणदि अवरोही दबदो णियमा ।। गो. जी. ३७७. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [१५ भागहारो होदि त्ति कुदो णबदे ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। ओरालियसरीरं सविस्ससोवचयं जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तभेएण तिविहं । तत्थ किं' घणलोगेण छिज्जदि ? ण जहण्णं ण उक्कस्सदव्वं, किंतु तव्वदिरित्तदव्वं जिणदिट्ठभावं घणलोगेण छिज्जदि । कुदो ? खविदगुणिदविसेसणविसिट्ठदव्वणिद्देसाभावादो । ण च संखाए चेव एस णियमो त्ति पच्चवट्ठाणं काहुँ जुत्तं, एत्थ वि संखाहियारादो । जहण्णोहिणाणं किमेदमेव दव्वं जागदि अह अण्णं पि ? जदि एदमेव जाणदि तो अप्पण्णो ओहिखेत्तभंतरे ट्ठियाणं जहण्णदबक्खंधादो परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तरादिकमेण ट्ठियखंधाणमपरिच्छेदयं होज्ज । ण च एवं, सगखेत्तभंतरे ट्ठियाणमणतभेदभिण्णखंधाणमपरिच्छित्तिविरोहादों। अह परमाणुत्तरे वि खंधे जइ जाणइ णेदमेव जहण्णोहिदव्वमण्णेसि पि जहण्णोहिदव्वाणं दंसणादो त्ति ? को एवं भणदि जहण्णोहिदव्व भागहार होता है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-- यह आचार्यपरम्परागत उपदेशसे जाना जाता है । शंका- औदारिकशरीर विनसोपचय सहित जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमें किसे घनलोकसे भाजित किया जाता है ? समाधान-न तो जघन्य द्रव्यको और न उत्कृष्ट द्रव्यको घनलोकसे भाजित किया जाता है, किन्तु जिन भगवान्से देखा गया है स्वरूप जिसका ऐसा तद्व्यतिरिक्त द्रव्य घनलोकसे भाजित किया जाता है । कारण कि क्षपित व गुणित विशेषणसे विशिष्ट द्रव्यके निर्देशका अभाव है। संख्यामें ही यह नियम है ऐसा प्रत्यवस्थान (समाधान) करना भी उचित नहीं है, क्योंकि, यहां भी संख्याका अधिकार है। शंका-जघन्य अवधिज्ञान क्या इसी द्रव्यको जानता है अथवा अन्यको भी ? यदि इसे ही जानता है तो अपने अवधिक्षेत्रके भीतर स्थित जघन्य द्रव्यस्कन्धसे एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक इत्यादि क्रमसे स्थित स्कन्धोंका ग्राहक न हो सकेगा। और ऐसा है नहीं, क्योंकि, अपने क्षेत्रके भीतर स्थित अनन्त भेदोंसे भिन्न स्कन्धोंके ग्रहण न होनेका विरोध है । यदि परमाणु अधिक स्कन्धोंको भी वह जानता है तो यही जघन्य अवधिद्रव्य न होगा, क्योंकि, अन्य भी जघन्य अवधिद्रव्य देखे जाते हैं ? समाधान -ऐसा कौन कहता है कि जघन्य अवधिद्रव्य एक प्रकार है। किन्तु १ प्रतिषु 'तं ' इति पाठः । २ तज्जघन्यपुद्गलस्कंधस्योपरि एक-द्वयादिप्रदेशोत्तरपुद्गलस्कंधान् न जानातीति न वाच्यम्, सूक्ष्मविषयज्ञानस्य स्थूलावबोधने सुघटत्वात् । गो. जी. ३८२,जी.प्र. टीका. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. मेयवियप्पमिदि, किंतु अणंतवियप्पं । तेसु अणंतवियप्पजहण्णोहिखंधेसु अइजहण्णो एसो खंधो वरूविदो। एदम्हादो एग-दो-तिण्णिआदिपरमाणूण खंधा देसोहीए जहणियाए अविसया, जहणोहिविसयदव्वक्खंधब्बाहिरे अवठ्ठाणादो । जहण्णोहिविसयउक्कस्सक्खंधपमाणं किं ? जहण्णोहिखेतब्भंतरे जो सम्माइ पोग्गलक्खंधो सो तस्स उक्कस्सदव्यं । तत्तो एग-दोतिण्णिआदि जाव अणतपरमाणू सगुक्कस्सदव्वसंबद्धा वि संता ण जहण्णोहिणाणपरिच्छेज्जा, ओहिणाणुज्जोवबज्झखेत्ते अवट्ठाणादो । एवं जहण्णोहिदव्वपरूवणा कदा । संपहि तस्स खेत्तपरूवणा कीरदे- पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभाएण उस्सेहघणंगुले भागे हिदे एगभागो देसोहिजघण्णखेत्तं । कुदो एदं णव्वदे ? ओगाहणा जहण्णा णियमा दु सुहमणिगोदजीवस्स । जदेही तदेही जहणिया खेत्तदो ओही' ॥ ४ ॥) वह अनन्त विकल्परूप है। उन अनन्त विकल्परूप जघन्य अवधिस्कन्धोंमें यह स्कन्ध अति जघन्य कहा गया है । इस स्कन्धसे एक, दो, तीन आदि परमाणुओंके स्कन्ध जघन्य देशावधिके विषय नहीं हैं, क्योंकि, वे जघन्य अवधिके विषयभूत द्रव्यस्कन्धके बाहिर अवस्थित हैं। शंका-जघन्य अवधिके विषयभूत उत्कृष्ट स्कन्धका प्रमाण क्या है ? समाधान-जघन्य अवधिक्षेत्रके भीतर जो पुद्गल स्कन्ध समाता है वह उसका उत्कृष्ट द्रव्य है। उससे एक, दो, तीन आदि अनन्त परमाणु तक अपने उत्कृष्ट द्रब्यसे सम्बद्ध होते हुए भी जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा जानने योग्य नहीं हैं, क्योंकि, वे अवधिशानके उद्योतसे बाह्य क्षेत्रमें स्थित हैं। इस प्रकार जघन्य अवधिद्रव्यकी प्ररूपणा की गई है। _ अब देशावधिज्ञानकी क्षेत्रप्ररूपणा की जाती है- उत्सेध घनाङ्गलमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर एक भाग प्रमाण देशावधिका जघन्य क्षेत्र होता है । शंका- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान - नियमसे सूक्ष्म निगोद जीवकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है उतना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य अवधि है ॥ ४॥ १ सहमणिगोदअपजत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्हि । अवरोगाहणमाणं जहण्णयं ओहिखेतं तु ॥ गो. जी. ३७८. जावइया तिसमयाहारगस्स मुहुमस्स पणगजीवस्स । ओगाहणा जहण्णा ओहीखेतं जहण्णं तु ॥ विशे. मा. ५९१. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा त्ति वग्गणासुत्तादो णव्वदे । सुहमणिगोदजहण्णोगाहणा उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो त्ति क, णव्वदे ? वेयणाए उवरिमभण्णमाणओगाहणप्पाबहुगादो णव्वदे । तं जहा " सव्वत्थावा सुहुमणिगोदजीवअपज्जत्तसस्स जहणिया ओगाहणा। सुहुमवाउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुहमलेउकाइयअपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुहुमआउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुहुमपुढविकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादरवाउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादरतेउकाइयअपज्जत्तयस्स जहाण्णया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादरआउकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादरपुढविकाइयअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बादरणिगोदजीवअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा। [णिगोदपदिहिदअपजत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । ] बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरअपज्जत्तयस्स इस वर्गणासूत्रसे जाना जाता है। शंका-सूक्ष्म निगोदजीवकी जघन्य अवगाहना उत्सेध घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण है, यह कैसे जाना जाता है ? " समाधान-वेदना अनुयोगद्वारमें आगे कहे जानेवाले अवगाहनाके अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । वह इस प्रकार है " सूक्ष्म निगोदजीव अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना सबसे स्तोक है । सूक्ष्म वाउकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। बादर वायुकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। बादर तेजकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। बादर अकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। बादर निगोदजीव अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। [निगोदप्रतिष्ठित अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। ] बादर वनस्पतिक. क. ३. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, २. जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बेइंदियअपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तेइंदिय अपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । चउरिंदिय अपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । पंचिंदियअपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । सुमणिगोदजीव [ णिव्वत्ति ] पज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुमवाउकाइयपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुमंतेउकाइयणिव्वत्तिपत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव [णिव्वत्ति-] अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव [णिव्वत्ति-] पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । सुहुम आउकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया | सुहुमपुढविकाइयवित्तिपज्जत्तयस्स जहण्णिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव [णिव्वत्ति ] अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव [णिव्वत्ति ] पज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरवा उकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्ति - कायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। त्रीन्द्रिय अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। सूक्ष्म निगोद जीव निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । उसके ही अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । उसके ही पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही अपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है | उसके ही पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । सूक्ष्म तेजकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्ऋत्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । सूक्ष्म अष्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है । उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । सूक्ष्म पृथिवीकायिक निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्वृत्त्य पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । बादर वायुकायिक निर्वृत्ति पर्याप्तकी जघन्य अवनाहना असंख्यातगुणी है । उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तकी 1 Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दोरे देसेहिणाणपरूवा अपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरतेउकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरआउकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहाणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरपुढविकाइयणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । बादरणिगोदणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । [णिगोदपदिहिदपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तस्सेव णिव्वत्तिअज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । तस्सेव णिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा विसेसाहिया । ] बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीर [णिव्वत्ति- ] पज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । बीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा असंखेज्जगुणा । तीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिंदियणिव्वत्तिपज्जतयस्स जहणिया उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। बादर तेजकायिक निवृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । बादर अप्कायिक निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। उसके ही निवृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। बादर प्रथिवीकायिक निवृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्वत्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। बादर निगोद निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निवृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । [निगोद-प्रतिष्ठित पर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। उसके ही निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है । उसके ही निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना विशेष अधिक है। ] बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यात. गुणी है। द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी है। त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है । चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, २. ओगाहणा संखेज्जगुणा । पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जहणिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । तीइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेनगुणा । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिव्वत्तिअपञ्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । पंचिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । तीइंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । चउरिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । बीइंदियणिव्यत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । पंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सिया ओगाहणा संखेज्जगुणा । सुहुमादो सुहुमस्स ओगाहणगुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो । सुहमादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। बादरादो सुहुमस्स ओगाहणगुणगारो आवलियाए असंखेज्जदिभागो। बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । बादरादो बादरस्स ओगाहणगुणगारो संखेज्जसमया त्ति ।" जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है.। पंचेन्द्रिय निवृत्तिपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना संख्यातगुणी है। त्रीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। चतुरिन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। द्वीन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। पंचेन्द्रिय निवृत्त्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट 3 संख्यातगुणी है। त्रीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। चतुरिन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। द्वीन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहना संख्यातगुणी है। __एक सूक्ष्म जीवसे दूसरे सूक्ष्म जीवकी अवगाहनाका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है । सूक्ष्मसे बादरकी अवगाहनाका गुणकार पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। बादरसे सूक्ष्मकी अवगाहनाका गुणकार आवलीका असंख्यातवां भाग है। एक बादर जीवसे दूसरे बादर जीवकी अवगाहनाका गुणकार पल्योपमका. असंख्यातवां भाग है।[किन्तु द्वीन्द्रिय आदि निर्वृत्त्यपर्याप्त और उन्हींके पर्याप्तकोंमें ] बादरसे बादरकी अवगाहनाका गणकार संख्यात समय है।" १ वेदना क्षेत्रविधान सूत्र २९-९९ ( अ-प्रति पत्र ८९२-८९५). प. खं. पु. ४ पृ. ९४-९८. ति. प. पृ. ६१८-६४०. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगदारे देसोहिणाणपरूवणा सुहुमणिगोदलद्धिअपज्जत्तजहण्णोगाहणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण गुणिदे संखेज्जघणंगुलमेत्ता महामच्छुक्कस्सोगाहणा होदि, एत्थ पविट्ठसव्वगुणगाररासीणमण्णोण्णब्भासे कदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तरासिसमुप्पत्तीदो । तेण णव्वदि उस्सेहघणंगुले पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण भागे हिदे सुहमणिगोदलद्धिअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणा होदि त्ति । एदेसिं सव्वगुणगाराणमण्णोण्णब्भासो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चेव, सूचिअंगुलमेत्तो सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्तो वा ण होदि त्ति कधं णव्वदे १ सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणा पदरंगुलमत्ता वा होदि त्ति अभणिय घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता त्ति सुत्तवयणादो णव्वदे। ण च सुहमणिगोदजहण्णोगाहणा घणंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्ता आवलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदघणंगुलमेत्ता वा होदि, महामच्छोगाहणाए असंखेज्जघणंगुलत्तप्पसंगादो । खेत्ताणिओगद्दारे बादरेइंदियपज्जत्तयस्स वेउन्वियखेत्तं माणुसखेत्तस्स संखेज्जदिभागो असंखेज्जदिभागो संखेज्जगुणमसंखेज्जगुणं वा होदि ति ण णव्वदे इदि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकी जघन्य अवगाहनाको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर संख्यात घनांगुल मात्र महामत्स्यकी उत्कृष्ट अवगाहना होती है, क्योंकि, इसमें प्रविष्ट सब गुणकार राशियोंका परस्परमें गुणा करनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र राशि उत्पन्न होती है। इससे जाना जाता है कि उत्सेध घनांगुलमें पल्योपमके असंख्यातवें भागका भाग देनेपर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना होती है। शंका-इन सब गुणकारोंके परस्परका गुणनफल पल्योपमका असंख्यातवां भाग ही होता है, सूच्यंगुल मात्र अथवा सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग मात्र नहीं होता; यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना प्रतरांगुल मात्र भी होती है, ऐसा न कहकर — घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है । इस सूत्रवचनसे जाना जाता है कि उक्त गुणकारोंका अन्योन्य गुणनफल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र ही है। और सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना घनांगुलके संख्यातवें भाग मात्र अथवा आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित घनांगुल मात्र नहीं हो सकती, क्योंकि, ऐसा होनेसे महामत्स्यकी अवगाहनाके असंख्यात घनांगुल प्रमाण होनेका प्रसंग होगा। अथवा, क्षेत्रानुयोगद्वारमें 'बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तका वैक्रियिकक्षेत्र मनुष्यलोकके संख्यातवें भाग, असंख्यातवें भाग, अथवा उससे संख्यातगुणा या असं १ पुस्तक ४, पृ. ८२-८३. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ] छक्खंडागमे वैयणाखंडं [ ४, १, २. एम्हादो वक्खाणादो वा जाणिज्जदि गुणगाराणमण्णोष्ण भासो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो चैव होदिति । एदेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण घणंगुले भागे हिदे घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो सूचिअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुस्सेहविक्खभायामो आगच्छदि । एदं जहण्णोहिक्खेत्तं जहण्णोहिणाणेण विसईकदासेसखेत्तमिदि उत्तं होदि । ण च घणपदरागारेणेत्र सव्वाणि ओहिखेत्ताणि अवट्ठिदाणि त्ति नियमो; किंतु सुहुमणिगोदोगाहणखेत्तं व अणियदसंठाणाणि ओहिखेत्ताणि संपिंडिय घणपदरागारेण काऊण पमाणपरूवणा करदे, अण्णा तदुवायाभावादो । सुहुमणिगोदजहण्णो गाहणमेत्तमेदं सव्वं हि जहण्णोहिक्खेतमोहिणाणिजीवस्स तेण परिच्छिज्जमाणदव्वस्स य अंतरमिदि के वि आइरिया भणति । णेदं घडदे, सुहुमणिगोदजहण्णागाहणादो जहण्णो हिक्खेत्तस्स असंखेज्जगुणत्तप्पसंगादो । कधमसंखेज्जगुणत्तं ? जहण्णोहिणाणविसयवित्थारुस्सेहेहि आयामे गुणिज्जमाणे तत्तो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीदो । ण चासंखेज्जगुणत्तं संभवदि, जदेही सुहुमणिगोदस्स जहण्णोगाहणा तदेहिं चैव जहण्णोहि ख्यातगुणा है; यह जाना नहीं जाता ' इस व्याख्यानसे जाना जाता है कि गुणकारोंका अन्योन्य गुणनफल पल्योपमके असंख्यातवें भाग ही है । इस पल्योपमके असंख्यातवें भागका घनांगुलमें भाग देनेपर घनांगुलके असंख्यातवें भाग सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र उत्सेध, विष्कम्भ व आयाम रूप क्षेत्र आता है । यह जघन्य अवधिक्षेत्र अर्थात् जघन्य अवधिज्ञानसे विषय किया गया सम्पूर्ण क्षेत्र है । और घनप्रतराकारसे ही सब अवधिक्षेत्र अवस्थित हैं, ऐसा नियम नहीं है; किन्तु सूक्ष्म निगोद जीवके अवगाहनाक्षेत्र के समान अनियत आकारवाले अवधिक्षेत्रोंका समीकरण कर घनप्रतराकारसे करके प्रमाणप्ररूपणा की जाती है, क्योंकि, ऐसा करने के विना उसका कोई उपाय नहीं है । सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना मात्र यह सब ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र अवधिज्ञानी जीव और उसके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले द्रव्यका अन्तर है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेसे सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनासे जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रके असंख्यात - गुणे होनेका प्रसंग आवेगा । शंका-असंख्यातगुणा कैसे होगा ? समाधान - क्योंकि, जघन्य अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रके विस्तार और उत्सेधसे आयामको गुणा करनेपर उससे असंख्यातगुणत्व सिद्ध होता है । और असंख्यातगुणत्व सम्भव है नहीं, क्योंकि, ' जितनी सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना है उतना ही Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २. ] कदिअणियोगद्वारे देसोहिणाणपरूवणा [ २३ खेत्तमिद भणतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो । जेणोहिणाणी एगोलीए चैव जाणदि तेण ण सुत्तविरोहो त्ति के वि भणति । गेंद पि घडदे, चक्खिदियणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो । कुदो ? चक्खिदियणाणेण संखेज्जसूचिअंगुलवित्था रुस्सेहायामखेत्तव्यंतरष्ट्ठिदवत्थुपरिच्छेददंसणादो, एदस जहण्णोहिखेत्तायामस्स असंखेज्जजोयणत्तुवलंभादो च । होदु णाम असंखेज्जजोयणायामत्तमिच्छिज्ञमाणत्ताद। ? ण, एदस्स कालादो असंखेज्जगुण अद्धमासकालेण अणुमिदअसंखेज्जगुणभरोहिखे वि असंखेज्जजोयणायामाणुवलंभादो । किं च उक्कस्संदेसोहिणाणी संजदो सगुक्कस्सदव्वमादिं काऊण परमाणुत्तरादिकमेण ट्ठिदसव्वपोग्गलक्खंधे घणलोग अंतरट्ठिदे किमक्कमेण जाणदि ण जाणदि त्ति । जदि ण जाणदि, ण तस्स ओहिक्खेत्तं लोगो होदि, एगागासोलीए ठिदपोग्गलक्खंधपरिच्छेदकरणादो | ण च एसा एगागासपती घणलोगपमाणं, तदसंखेज्जदिभागाए घणलोगपमाणत्तव्विरोहादो । ण च सो जघन्य अवधिका क्षेत्र है ' ऐसा कहनेवाले गाथासूत्र के साथ विरोध होगा । चूंकि अवधिज्ञानी एक श्रेणी में ही जानता है, अतएव सूत्रविरोध नहीं होगा, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर चक्षु इन्द्रिय जन्य ज्ञानकी अपेक्षा भी उसके जघन्यताका प्रसंग आवेगा । कारण कि चक्षु इन्द्रिय जन्य ज्ञानसे संख्यात सूच्यंगुल विस्तार, उत्सेध और आयाम रूप क्षेत्र के भीतर स्थित वस्तुका ग्रहण देखा जाता है। तथा वैसा माननेपर इस जघन्य - अवधिज्ञान के क्षेत्रका आयाम असंख्यात योजन प्रमाण प्राप्त होगा । शंका- यदि उक्त अवधिक्षेत्रका आयाम असंख्यातगुणा प्राप्त होता है तो होने दीजिये, क्योंकि, वह इष्ट ही है ? समाधान - ऐसा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, इसके काल से असंख्यातगुणे अर्ध मास कालसे अनुमित असंख्यातगुणे भरत रूप अवधिक्षेत्र में भी असंख्यात योजन प्रमाण आयाम नहीं पाया जाता। दूसरे, उत्कृष्ट देशावधिज्ञानी संयत अपने उत्कृष्ट द्रव्यको आदि करके एक परमाणु आदि अधिक क्रमसे स्थित घनलोकके भीतर रहनेवाले सब पुद्गलस्कन्धों को क्या युगपत् जानता है या नहीं जानता ? यदि नहीं जानता है तो उसका अवधिक्षेत्र लोक नहीं हो सकता, क्योंकि, वह एक आकाशश्रेणी में स्थित पुद्गलस्कन्धोंको ग्रहण करता है । और यह एक आकाशपंक्ति घनलोक प्रमाण हो नहीं सकती, क्योंकि, धनलोकके असंख्यातवें भाग रूप उसमें घनलोकप्रमाणत्वका विरोध है । इसके अतिरिक्त वह १ अ आप्रत्योः ' किं चुक्कस्स ' इति पाठः । २ अती 'घणलोग मंतरद्विद किमक्कमेण जाणदि चि', आप्रती ' घणलोग मंतरट्टिय ण किमक्कमेण जाणदि चि', काप्रतौ ' घणलोग मंतरद्दिदे ण किमक्कमेण जाणदि त्ति, मप्रतौहिद जाणदिन जाणदि चि' इति पाठः । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, २. कुलसेल-मेरुमहीयर-भवणविमाणट्ठपुढवी-देव-विज्जाहर-सरड-सरिसवादीणि वि पेच्छइ, एदेसिमेगागासे अवट्ठाणाभावादो। ण च तेसिमवयवं पि. जाणदि, अविण्णादे अवयविम्हि एदस्स एसो अवयवो ति णादुमसत्तीदो। जदि अक्कमेण सव्वं घणलोग जाणदि तो सिद्धो णो पक्खो, णिप्पडिवक्खत्तादो। सुहमणिगोदोगाहगाए घणपदरागारेण ठइदाए एगागासवित्थाराणेगोलिं चेव जाणदि त्ति के वि भणंति । णेदं पि घडदे, जद्देहं सुहमणिगोदजहण्णोगाहणा तदेहं जहण्णोहिक्खेत्तमिदि भणतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ण चाणेगोलीपरिच्छेदो छदुमत्थाणं विरुद्धो, चक्खिदियणाणेणाणेगोलिंठियपोग्गक्खंधपरिच्छेदुवलंभादो । अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्ज दो वि संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥५॥ कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनविमान, आठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीसृपादिकोंको भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि, इनका एक आकाशमें अवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयवको भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवीके अज्ञात होनेपर “ यह इसका अवयव है' इस प्रकार जाननेकी शक्ति नहीं हो सकती । यदि वह युगपत् सब घनलोकको जानता है तो हमारा पक्ष सिद्ध है, क्योंकि, वह प्रतिपक्षसे रहित है। सूक्ष्म निगोद जीवकी अवगाहनाको घनप्रतराकारसे स्थापित करनेपर एक आकाश विस्तार रूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते । हैं । परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेपर 'जितनी सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है', ऐसा कहनेवाले गाथासूत्रके साथ विरोध होगा। और छद्मस्थोंके अनेक श्रेणियोंका ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रिय जन्य ज्ञानसे अनेक श्रेणियों में स्थित पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण पाया जाता है। देशावधिके उन्नीस काण्डकों से प्रथम काण्डकमें जघन्य क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण और जघन्य काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी काण्डकमें उत्कृष्ट क्षेत्र घनांगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण और उत्कृष्ट काल आवलीके संख्यातवें भाग प्रमाण है। द्वितीय काण्डकमें क्षेत्र घनांगुल प्रमाण और काल कुछ कम आवली प्रमाण है। तृतीय काण्डकमें क्षेत्र घनांगुलपृथक्त्व और काल पूर्ण ‘आवली प्रमाण है॥५॥ .................... १ प्रतिषु 'हि' इति पाठः । . २ गो. जी. ४०४, अंगुलमावलियाणं भागमसंखिज्ज दोपु संखिज्जा। अंगुलमावलियतो आवलिया अंगुलपुहुत्तं ॥ विशे. भा. ६११ (नि. ३२). नं. सू. गा. ५०, Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २. ] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा आलियधत्तं पुण हत्थो तह गाउअं मुहुत्तो | जोयण मण्णमुत्तं दिवसंतो पण्णुवीसं तु' ॥ ६ ॥ भरहम्मि अद्धमासो साहियमासो वि जंबुदीवम्मि | वासं च मणुअलोए वासपुधत्तं च रुजगम्मि ॥ ७ ॥ पणुवीस जोयणाणि ओही वेंतर- कुमारवग्गाणं । संखेज्जजोयणाणि जोइसियाणं जहण्णोही ॥ ८ ॥ असुराणामसंखेज्जा कोडीओ सेसजोदिसंताणं । संखाती दसहस्सा उक्कस्सो ओहिविसओ दु ॥ ९ ॥ चतुर्थ काण्डकमें काल आवलिपृथक्त्व और क्षेत्र एक हाथ प्रमाण है। पंचम काण्डक क्षेत्र गव्यूति अर्थात् एक कोश तथा काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । छठे काण्डकमें क्षेत्र एक योजन और काल भिन्न मुहूर्त अर्थात् एक समय कम मुहूर्त प्रमाण है । सप्तम काण्डकमें काल कुछ कम एक दिवस और क्षेत्र पच्चीस योजन प्रमाण है ॥ ६ ॥ अष्टम काण्डक क्षेत्र भरतक्षेत्र और काल अर्ध मास प्रमाण है । नवम काण्डकमें क्षेत्र जम्बूद्वीप और काल एक माससे कुछ अधिक है । दशवें काण्डकमें क्षेत्र मनुष्यलोक और एक वर्ष प्रमाण है । ग्यारहवें काण्डकमें क्षेत्र रुचकद्वीप और काल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है ॥ ७ ॥ [ २५ व्यन्तर और भवनवासी देवोंका जघन्य अवधिक्षेत्र पच्चीस योजन और ज्योतिषी देवोंका जघन्य अधिक्षेत्र संख्यात योजन प्रमाण है ॥ ८ ॥ असुरकुमार देवोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र असंख्यात करोड़ योजन है । शेष नौ प्रकारके भवनवासी, व्यन्तर एवं ज्योतिषी देवका उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र असंख्यात हजार योजन प्रमाण है ॥ ९ ॥ १ म. बं. १, पृ. २१. गो. जी. ४०५. हत्थम्मि मुहुत्तों दिवसंतो गाउयम्मि बोद्धव्वो । जोयणदिवसहुत्तं पक्खतो पणवीसाओ । विशे. भा. ६१२ ( नि. ३३ ). नं. सू. गा. ५१. छ. कृ. ४. २ म. बं. १, पृ. २१. गो. जी. ४०६. भरहम्मि अद्धमासो जंबुद्दीवम्मि साहिओ मासो । वासं च मणुयलोए वासपुहुत्तं च स्यगम्मि ॥ विशे. भा. ६१३ (नि. ३४ ). नं. सू. गा. ५२. ३ म. बं. १, पृ. २२. पणुवीसजोयणारं दिवसंतं च य कुमार- भोम्माणं । संखेज्जगुणं खेचं बहुगं कालं तु जोइसि ॥ गो. जी ४२६. ४ म. बं. १, पृ. २२. गो. जी. ४२७. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. सक्कीसाणा पढमं दोच्चं तु सणक्कुमार-माहिंदा।। तच्च तु बम्ह-लंतय सुक्क-सहस्सारया चोत्थं ॥ १० ॥ आणद-पाणदवासी तह आरण-अच्चुदा य जे देवा । . पस्संति पंचमखिदि छट्टि गेवज्जया जे दु॥ ११ ॥ सव्वं च लोयणालिं पस्संति अणुत्तरेसु जे देवा । सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागो दु॥ १२ ॥ एदाहि गाहाहि उत्तासेसोहिखेत्ताणमेसो अत्थो जहासंभवं परूवेदव्वो, अण्णहा पुव्वुत्तदोसप्पसंगादो । एवं जहण्णोहिक्खेत्तपरूवणा कदा । संपहि जहण्णोहिकालपमाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा - आवलियाए असंखेज्जदि __ सौधर्म और ईशान स्वर्गके देव प्रथम पृथिवी तक, सनत्कुमार और माहेन्द्र कल्पके देव द्वितीय पृथिवी तक, ब्रह्म और लान्तव कल्पोंके देव तृतीय पृथिवी तक, तथा शुक्र और सहस्रार स्वर्गौके देव चतुर्थ पृथिवी तक देखते हैं ॥ १० ॥ आनत-प्राणत और आरण-अच्युत कल्पोंमें रहनेवाले जो देव हैं वे पंचम पृथिवी तक, तथा ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुए देव छठी पृथिवी तक देखते हैं ॥ ११ ॥ नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरोंमें जो देव हैं वे सब लोकनाली अर्थात् कुछ कम चौदह राजु लम्बी और एक राजु विस्तृत लोकनालीको देखते हैं । स्वक्षेत्र अर्थात् अपने क्षेत्रके प्रदेशसमूहमें से एक प्रदेश कम करके अपने अपने अवधिज्ञानावरणकर्म द्रव्यमें एक वार अनन्त अर्थात् ध्रुवहारका भाग देना चाहिये । इस प्रकार एक एक प्रदेश कम करते हुए ध्रुवहारका भाग तब तक देना चाहिये जब तक उक्त प्रदेश समूह समाप्त न हो जावे। ऐसा करनेपर जो द्रव्य प्राप्त हो वह विवक्षित अवधिका विषयभूत द्रव्य जानना चाहिये ॥ १२॥ इन गाथाओं द्वारा कहे गये समस्त अवधिक्षेत्रोंका यह अर्थ यथासम्भव कहना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आवेगा। इस प्रकार जघन्य अवधिके क्षेत्रकी प्ररूपणा की गई है। अब जघन्य अवधिके कालकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- आवलीके १ म. बं. १, पृ. २२. गो. जी. ४३०. विशे. भा. ६९८ (नि. ४८.). २ म. बं. १, पृ. २३. गो. जी. ४३१. ३ म. बं. १, पृ. २३. गो. जी. ४३२. आणय-पाणयकप्पे देवा पासंति पंचमि पुढवि । तं चेत्र आरणच्चुय ओहिण्णाणण पासंति ॥ छढि हेछिम-मज्झिमविज्जा सतमि च उवरिल्ला। संमिण्णलोगणालिं पासंति अणुचरा देवा ॥ विश. भा. ६९९-७०० (नि. ४९-५०). - Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा भाएण आवलियाए ओवट्टिदाए जहण्णोहिकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो होदि । एत्तिएण कालेण जं भूदं जं च भविस्सदि कज्जं तं जहण्णोहिणाणी जाणदि त्ति वुत्तं होदि । एदस्स कालो एत्तिओ चेव होदि ति कधं णव्वदे ? 'अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जे त्ति' गाहासुत्तवयणादो णव्वदे । एवं जहण्णोहिकालपरूवणा कदा । ___ संपहि जहण्णोहिभावपरूवणं कस्सामो । तं जहा-- जमप्पणो जाणिददव्वं तस्स अणतेसु वट्टमाणपज्जाएसु तत्थ आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपज्जाया जहण्णोहिणाणेण विसईकया जहण्णभावो । के वि आइरिया जहण्णदव्वस्सुवरिट्टिदरूव-रस-गंध-फासादिसव्वपज्जाए जाणदि त्ति भणंति । तण्ण घडदे, तेसिमाणंतियादो । ण च ओहिणाणमुक्कस्सं पि अणतसंखावगमक्खम, तहोवदेसाभावादो। दवट्ठियाणंतपज्जाए पच्चक्खेण अपरिच्छिदंतो ओही कधं पच्चक्खेण दव्वं परिछिंदेज्ज ? ण, तस्स पज्जायावयवगयाणंतसंखं मोत्तूण असंखेज्जपज्जायावयवविसिट्ठदव्वपरिच्छेदयत्तादो। तीदाणागयपज्जायाणं किण्ण भावववएसो? असंख्यातवें भागका आवलीमें भाग देनेपर जघन्य अवधिका काल आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । इतने मात्र कालमें जो कार्य हो चुका हो और जो होनेवाला हो उसे • जघन्य अवधिज्ञानी जानता है, यह उक्त कथनका अभिप्राय है। शंका-इसका काल इतना मात्र ही है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-'प्रथम काण्डकमें जघन्य क्षेत्र व काल क्रमशः घनांगुल और आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ' इस गाथासूत्रके कथनसे जाना जाता है। इस प्रकार जघन्य अवधिके कालकी प्ररूपणा की गई है। अब जघन्य अवधिके बिषयभूत भावकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैअपना जो जाना हुआ द्रव्य है उसकी अनन्त वर्तमान पर्यायोंमेंसे जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयीकृत आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पर्यायें जघन्य भाव हैं। कितने ही आचार्य जघन्य द्रव्यके ऊपर स्थित रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायोंको उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वे अनन्त हैं। और उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में समर्थ नहीं है, क्योंकि, वैसे उपदेशका अभाव है। शंका-द्रव्यमें स्थित अनन्त पर्यायोंको प्रत्यक्षसे न जानता हुआ अवधिशान प्रत्यक्षसे द्रव्यको कैसे जानेगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, उक्त अवधिज्ञान पर्यायोंके अवयवों में रहनेवाली अनन्त संख्याको छोड़कर असंख्यात पर्यायावयवासे विशिष्ट द्रव्यका ग्राहक है । शंका-अतीत व अनागत पर्यायोंकी 'भाव' संज्ञा क्यों नहीं है ? Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ छक्खंडागमें वेयणाखंड [४, १, २. ण, तेसिं कालत्तन्भुवगमादो । एवं जहण्णभावपरूवणा कदा । संपधि जहण्णदव्व-खेत्त-काल-भावपरिवाडीए ठविय बिदियमोहिणाणवियप्पं भणिस्सामो । तं जहा- मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं देस-सव्व-परमोहिदव्वपरूवणासु मेरुमहीहरं व अवट्टिदं विरलेदूण जपणदव्वं समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगरूवधरिदं दव्वस्स बिदियंवियप्पो होदि', पुव्विल्लजहण्णदव्वं पेक्खिदूण एग-दोपरमाणुआदीहि परिहीणपोग्गलखंधपरिच्छेयणक्खमणाणणिमित्ताहिणाणावरणक्खओवसमाभावादो । कधमेदं णव्वदे ? 'ओहिणाणावरणस्स असंखेज्जलोगमेतीओ चेव पयडीओ ' त्ति वग्गणसुत्तादो । भावस्स जिणदिट्ठभावो असंखेज्जगुणगारो दादव्यो। खेत्त-काला जहण्णा चेव, तेसिमेत्थ वुड्डीए अभावादो । समाधान- नहीं है, क्योंकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है । इस प्रकार जघन्य भावकी प्ररूपणा की गई है। अब जघन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको परिपाटीसे स्थापित कर द्वितीय अवधिज्ञानके विकल्पको कहते हैं। वह इस प्रकार है- देशावधि, सर्वावधि और परमाघधिके द्रव्यकी प्ररूपणाओंमें मेरु पर्वतके समान अवस्थित मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विरलन करके उसके ऊपर जघन्य द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर उसमें एक रूपधरित खण्ड द्रव्यका द्वितीय विकल्प होता है, क्योंकि, पूर्वोक्त जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा करके एक दो परमाणु आदिकोंसे.हीन पुद्गलस्कन्धके ग्रहण करने में समर्थ ऐसे ज्ञानके निमित्तभूत अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमका अभाव है। शंका-यह कैसे जाना जाता है ? समाधान-वह ' अवधिज्ञानावरणकी असंख्यात लोक प्रमाण प्रकृतियां हैं ' इस वर्गणासत्रसे जाना जाता है। भावका जिन भगवान्से देखा गया है स्वरूप जिसका ऐसा असंख्यात गुणकार देना चाहिये, अर्थात् भावका द्वितीय विकल्प प्रथम विकल्पसे असंख्यातगुणा है । क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं, क्योंकि यहां उनकी वृद्धिका अभाव है। १मणदबवग्गणाण वियप्पाणंतिमसमं खु धुवहारो। अवरुक्कस्सविसेसा रूवाहिया तब्वियप्पा है ।। गो. जी. ३८६. . २ देसोहिअवरदव्वं धुवहारेणवहिदे हवे बिदियं । तदियादिवियप्पेसु वि असंखवारो ति एस कमो ॥ गो. नी. ३९५. Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा तोसमेत्थ वुड्डीए अभावो कधं णव्वदे ? कालो चउण्ण वुडी कालो भजियव्यो खेत्तवुडीए । उडीए दव्य पज्जय भजिदव्या खेत्त-काला य' ॥ १२ ॥ एदम्हादो वग्गणासुत्तादो णव्वदे । पुणो बहुरूवधरिदखंडाणि छोडिय एगरूवधरिदबिदियवियप्पदव्वमवविदभागहारस्स एवं पडि समखंडं करिय दिण्णे तत्थेगखंडं तदियवियप्पदव्वं होदि । विदियभाववियप्पं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे तदियभाववियप्पो होदि। खेत्त-काला जहण्णा चेव । सेसखंडाणि अवणेदूण एगरूवधरिदं तदियवियप्पदव्वमवट्ठिदविरलणाए समखंडं कादूण दिण्णे चउत्थवियप्पदव्वं होदि । तदियभावम्हि तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे चउत्थो भाववियप्पो होदि । एवमव्वामोहेण पंचम-छट्ठ-सत्तमवियप्पप्पहुडि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता दव्व-भाववियप्पा उप्पाएयव्वा । तदो जहण्णखेत्तस्सुवरि एगो आगासपदेसो वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डाविदे खेत्तस्स बिदियवियप्पो होदि । कालो पुण शंका-यहां उनकी वृद्धिका अभाव है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान--- कालकी वृद्धि होनेपर द्रव्यादि चारोंकी वृद्धि होती है। क्षेत्रकी वृद्धिहोनेपर कालवृद्धि भजनीय है, अर्थात् वह होती भी है और नहीं भी होती है । द्रब्य और भावकी वृद्धि होने पर क्षेत्र और कालकी वृद्धि भजनीय है ॥ १३ ॥ इस वर्गणासूत्रसे जाना जाता है । पश्चात् बहुरूपधरित खण्डोंको छोड़कर एक रूपधरित द्वितीय विकल्प रूप द्रव्यको अवस्थित भागहारके प्रत्येक रूपके ऊपर समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। द्वितीय भावविकल्पको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर तृतीय भावविकल्प होता है । क्षेत्र और काल जघन्य ही रहते हैं। शेष खण्डोंको छोड़ करके एक रूपधरित तृतीय विकल्प रूप द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर चतुर्थ विकल्प रूप द्रव्य होता है । तृतीय भावविकल्पको तत्यायोग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर चतुर्थ भावविकल्प होता है। इस प्रकार अभ्रान्त होकर पंचम, छठा, सातवां आदि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भावके विकल्पोंको उत्पन्न करना चाहिये । तत्पश्चात् जघन्य क्षेत्रके ऊपर एक आकाशप्रदेश बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ानेपर क्षेत्रका द्वितीय विकल्प होता है । परन्तु काल जघन्य ही रहता है। ................ म. बं. १, पृ. २२. गो. जी. ४१२. काले चउण्ड वुड्डी कालो भइयब्यु खेत्तवुडीए। वुडीए दबपन्जव भइयव्वा खित्त काला उ ॥ विशे. मा. ६२० (नि. ३६ ). नं. सू. गा. ५४. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. जहण्णो चेव । पुणो तदियदव्ववियप्पमवट्ठिदभागहारस्स समखंड करिय दिण्णे तत्थ एगखंडमुवरिमदव्ववियप्पो होदि । तदियभावम्हि तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे उवरिमोहिभाववियप्पो होदि । एवं पुणो पुणो कादूण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता दव्व-भाववियप्पा उप्पाएयव्वा । एवमुप्पादिदे बिदियखेत्तवियप्पस्सुवरि एगो हि आगासपदेसो वड्डावेदव्यो । तदा खेत्तस्स तदियवियप्पो हेदि । कालो जहणणो चेव । सणि सण्णिमव्वामोहो अणाउलो समचित्तो सोदारे संबोहेंतो अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तदव्व-भाववियप्पे उप्पाइय वक्खाणाइरिओ खेत्तस्स चउत्थ-पंचम-छ?-सत्तमपहुडि जाव अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते ओहिखेत्तवियप्पे उप्पाइय तदो जहण्णकालस्सुवरि एगो समओ वड्ढावेदव्यो । एवं बड्डाविदे कालस्स बिदियवियप्पो हेोदि । पुणो वि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तदव्व-भाववियप्पेसु गदेसु खेत्तम्हि एगो आगासपदेसो वड्ढावेदव्यो । एदेण कमेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु कालम्मि एगसमयं वड्डाविय कालस्स तदियवियप्पो उप्पाएदव्यो । एत्थ चोदगो भणदि- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वड्ढदि त्ति ण घडदे, एवं वड्डाविज्जमाणे देसोहीए उक्कस्सखेत्ताणुप्पत्तीदो, पश्चात् तृतीय द्रव्यविकल्पको अवस्थित भागहारके ऊपर समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड उपरिम द्रव्यविकल्प होता है। तृतीय भावविकल्पको तत्प्रायोग्य असंख्यात रूपोंसे गुणा करनेपर अवधिका उपरिम भावविकल्प होता है। इस प्रकार पुनः पुनः करके अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भावके विकल्प उत्पन्न कराना चाहिये। इस प्रकार उक्त विकल्पोंको उत्पन्न करानेपर द्वितीय क्षेत्रविकल्पके ऊपर एक आकाशप्रदेशको बढ़ाना चाहिये। तब क्षेत्रका तृतीय विकल्प होता है। काल जघन्य ही रहता है। धीरे धीरे भ्रान्तिसे रहित, निराकुल, समचित्त व श्रोताओंको सम्बोधित करनेवाला व्याख्यानाचार्य अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्य और भावके विकल्पोंको उत्पन्न कराके क्षेत्रके चतुर्थ, पंचम, छठे एवं सातवें आदि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र तक अवधिके क्षेत्रविकल्पोंको उत्पन्न कराके पश्चात् जघन्य कालके ऊपर एक समय बढ़ावें। इस प्रकार बढ़ानेपर कालका द्वितीय विकल्प होता है । फिरसे भी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य और भावके विकल्पोंके वीत जानेपर क्षेत्र में एक आकाशप्रदेश बढ़ाना चाहिये। इस क्रमसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ाकर कालका तृतीय विकल्प उत्पन्न कराना चाहिये । शंका-यहां शंकाकार कहता है कि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता है, यह घटित नहीं होता; क्योंकि, इस प्रकार बढ़ानेपर देशावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र नहीं उत्पन्न हो सकता, व अपने उत्कृष्ट • Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २. ] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा ( ३१ सगुक्कस्सकालादो असंखेज्जगुणकालुष्पत्तीए च । तं जहा - देसोहीए उक्कस्सखेत्तं लोगो । उक्कस्सकालो समऊणपल्लं । तत्थ एक्कस्स समयस्स जदि अंगुलरस असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवियप्पा लब्भंति तो आवलियाए असंखेज्जदिभागूणपल्लम्मि केवडिखेत्तवियप्पे लभामो त्ति पमाणेण इच्छा गुणिदफलम्मि भागे हिंदे असंखेज्जाणि घणंगुलाणि चेव वुप्पज्जंति, ण उक्कस्सदसोहिक्खेत्तं लोगो । अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियप्पे गदेसु जदि कालस्स एगो समओ वड्डदि तो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागेणूणलोगम्मि केवडियसमयवुद्धिं पेच्छामो ति फलगुणिदिच्छा पमाणेण जदि ओवट्टिज्जदि तो लोगस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि, ण देसो हिउक्कस्सकालो समऊणपल्लं । तम्हा आवलियाए असंखेज्जदिभागेणूणसमऊणपल्लेण जहण्णोहिखेत्तेणूणलोगे भागे हिदे लोगस्स असंखेज्जदिभागो आगच्छदि । एत्तिसु खेत्तवियप्पे गदेसु कालम्मि एगसमयवुड्डीए होदव्वमण्णहा पुव्वुत्तदोपसंगादोत्ति ? दं घडदे, एयंतेवमिच्छिज्जमाणे वग्गणाए गाहासुत्त उत्तखेत्ताणमणुप्पप्तिप्पसंगादो । तं जहा - कालेण आवलियाए संखेज्जदिभागं जाणंतो खेत्तेण अंगुलस्स संखेज्जदिभागं कालसे असंख्यातगुणा काल उत्पन्न होगा । वह इस प्रकारसे - देशावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र लोक है । उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य है। ऐसी स्थिति में एक समयके यदि अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्प प्राप्त होते हैं तो आवलीके: असंख्यातवें भागसे कम पल्य में कितने क्षेत्र विकल्प प्राप्त होंगे, इस प्रकार इच्छा राशिसे गुणित फल राशिमें प्रमाण राशिका भाग देने पर असंख्यात घनांगुल ही उत्पन्न होते हैं, न कि उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र लोक। अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर यदि कालका एक समय बढ़ता है तो अंगुलके असंख्यातवें भागसे हीन लोक में कितनी समयवृद्धि होगी, इस प्रकार फल राशिले गुणित इच्छा राशिको यदि प्रमाण राशिसे अपवर्तित किया जाय तो लोकका असंख्यातवां भाग आता है, न कि देशावधिका उत्कृष्ट काल समय कम पल्य । इसलिये आवलीके असंख्यातवें भागसे हीन समय कम पल्यका जघन्य अवधिक्षेत्र से रहित लोक भाग देनेपर लोकका असंख्यातवां भाग आता है । इतने क्षेत्र विकल्पोंके वीतनेपर कालमें एक समय वृद्धि होना चाहिये, क्योंकि, अन्यथा पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आवेगा ? समाधान - यह घटित नहीं होता, क्योंकि, एकान्ततः ऐसा स्वीकार करनेपर वर्गणाके गाथासूत्रोंमें कहे हुए क्षेत्रोंकी अनुत्पत्तिका प्रसंग आवेगा । वह इस प्रकार सेकालकी अपेक्षा आवलीके संख्यातवें भागको जाननेवाला क्षेत्रसे अंगुलके संख्यातवें - Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. जाणदि त्ति सुत्ते उत्तं । आवलियं किंचूर्ण कालदो जाणतो खेतदो घणंगुलं जाणदि । कालदो आवलियं जाणतो खेत्तदो अंगुलपुधत्तं जाणदि । कालदो अद्धमासं जाणतो खेत्तदो भरहं जाणदि । कालदो साहियमासं जाणंतो खेत्तदो जंबूदीवं जाणदि। कालदो वस्सं जाणतो खेत्तदो माणुसखेत्तं जाणदि त्ति एवमादियाणि ओहिखेत्ताणि ण उप्पज्जंति, लोगस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवुड्डीए कालम्मि एगसमयउड्डीए अब्भुवगमादो । ण च सुत्तविरुद्धा जुत्ती होदि, तिस्से जुत्तियाभासत्तादो। ___ मा घडदु णाम एदं; कधमुक्कस्स-खेत्त-कालाणमुप्पत्ती ? वड्डिणियमाभावादो तेसिमुप्पत्ती घडदे । पढमं ताव अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु कालम्मि एगसमओ वड्ढदि । तं जहा- जहण्णकालं आवलियाए संखेज्जदिभागम्मि सोहिदे अवसेसा आवलियाए संखेज्जदिभागमेत्ता कालउड्डी होदि । इमं विरलिय जहण्णोहिखेत्तेणूणअंगुलस्स संखेज्जदिभागमोहिखेत्तउड्डूि समखंडं करिय दिण्णे समयं पडि अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो पावदि । एत्थ जदि अवहिदा खेत्तउड्डी तो एगेगरूवधरिदखेत्तेसु भागको जानता है, इस प्रकार सूत्र में कहा गया है। कालसे कुछ कम आवलीको जाननेवाला क्षेत्रसे घनांगुलको जानता है। कालकी अपेक्षा आवलीको जाननेवाला क्षेत्रसे अंगुलपृथक्त्वको जानता है। कालकी अपेक्षा अर्ध मासको जाननेवाला क्षेत्रकी अपेक्षा भरत क्षेत्रको जानता है । कालकी अपेक्षा साधिक एक मासको जाननेवाला क्षेत्रसे जम्बू. द्वीपको जानता है। कालकी अपेक्षा एक वर्षको जाननेवाला क्षेत्रसे मनुष्यलोकको जानता है, इस प्रकार इत्यादि क्षेत्र नहीं उत्पन्न होंगे, क्योंकि, लोकके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रकी वृद्धि होनेपर कालमें एक समयकी वृद्धि स्वीकार की है। और सूत्रविरुद्ध युक्ति होती नहीं है, क्योंकि, वह युक्त्याभास रूप होगी। शंका-यदि यह नहीं घटित होता है तो न हो। परन्तु फिर उत्कृष्ट क्षेत्र और कालकी उत्पत्ति कैसे सम्भव है ? समाधान-वृद्धिके नियमका अभाव होनेसे उनकी उत्पत्ति घटित होती है । प्रथमतः अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता है। वह इस प्रकार है-आवलीके संख्यातवें भागमेंसे जघन्य कालको कम कर देनेपर शेष आवलीके संख्यातवें भाग मात्र कालवृद्धि होती है । इसे विरलित कर जघन्य अवधि क्षेत्रसे कम अंगुलके संख्यातवें भाग मात्र अवधिको क्षेत्रवृद्धिको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक समयमें अंगुलका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है। यहां यदि अवस्थित क्षेत्रवृद्धि Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २. ] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [ ३३ वड्डिदेसु कालम्मि वि तस्स चेव खेत्तस्स हेट्ठिमसमओ ऐगेगो वड्डावेयव्वो । अह उड्डी अणवट्ठिदा तो वि पढमवियप्पप्पहुडि' अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवुड्डीए असंखेज्जा वियप्पा यव्वा, पढमंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियपेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वहृदि ति गुरुवदेसादो । पुणो उवरिमंगुलस्स असंखेज्जदिभागेसु वा तस्सेव संखेज्जदिभागेसु वा खेत्तवियष्पेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वढदि त्ति वत्तव्वं, दोहि वि पयारेहि उड्डी विरोहाभावादो । जहण्णकालं किंचूणावलियाए सोहिय सेस विरलिय जहण्णखेत्तूणघणंगुलं समखंड करिय समयं पडि दादूण अवट्ठिदाणवदिवड्डिवियप्पेसु अंगुलस्स असंखेज्जदिभाग-संखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवियपेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वड्डदि त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं । एवं गंतूण अणुत्तरविमाणवासियदेवा कालदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं खेत्तदो सव्वलोगणालिं जाणंति त्ति जहण्णकालूणपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं विरलिय जहण्णखेत्तूणजहण्णादिअद्धाणं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जजगपदरमेत्तो पावेदि । एत्थ एगरूवधरिदमेत्तखेत्तवियप्पेसु गदेसु कालम्मि एगो है तो एक एक रूपधरित क्षेत्रोंके बढ़नेपर कालमें भी उस ही क्षेत्रका अधस्तन समय एक एक बढ़ाना चाहिये । अथवा, यदि अनवस्थित वृद्धि है तो भी प्रथम विकल्पसे लेकर अंगुलके असंख्यातवें भाग वृद्धिके असंख्यात विकल्प ले जाना चाहिये, क्योंकि, प्रथम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। पुनः उपरिम अंगुलके असंख्यातवें भाग अथवा उसके ही संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र विकल्पोंके वीतनेपर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, दोनों ही प्रकारोंसे वृद्धि होने का कोई विरोध नहीं है । जघन्य कालको कुछ कम आवलीमेंसे कम करके शेषका विरलन कर जघन्य क्षेत्र से हीन घनांगुलको समखण्ड करके प्रत्येक समयके ऊपर देकर अवस्थित व अनवस्थित वृद्धि के विकल्पोंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग व संख्यातवें भाग मात्र क्षे त्रविकल्पोंके वीतने पर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसी पूर्वके समान प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार जाकर अनुत्तर विमानवासी देव कालकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग और क्षेत्रकी अपेक्षा समस्त लोकनालीको जानते हैं, अतएव जघन्य कालसे रहित पल्योपमके असंख्यातवें भागका विरलन कर जघन्य क्षेत्रसे हीन जघन्य आदि अध्यानको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक रूपके प्रति असंख्यात जगप्रतर मात्र लोकका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । यहां एक रूपधरित मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता इ. क. ५. १ अ-काप्रत्योः ' प्पभुडि ' इति पाठः । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. समओ वड्ढदि त्ति ण वत्तव्वं, हेट्ठिमखेत्त-कालाणमभावप्पसंगादो । तेण घणंगुलस्स असंखेज्जदिमागे कत्थ वि घणंगुलस्स संखेज्जदिभागे कत्थ वि घणंगुले कत्थ वि घणंगुलवग्गे एवं गंतूण कत्थ वि सेडीए कत्थ वि जगपदरे कत्थ वि असंखेज्जेसु जगपदरेसु अदिक्कतेसु एगो समओ वड्ढदि त्ति वत्तव्वं । तेणुक्कस्सखेत्त-कालाणमुप्पत्ती ण विरुज्झदि त्ति सिद्धं । संपदि एवं ताव णेदव्वं जाव दव-खेत्त-काल-भावाणं दुचरिमसमाणवडि' त्ति । दुचरिभसमाणवड्डी णाम का ? जम्हि ठाणे चदुण्णमक्कमेण वुड्डी होदि तिस्से समाणवड्डि त्ति सण्णा । तत्थ चरिमसमाणवड्डिं मोत्तूण हेट्ठिमा दुचरिमसमाण उड्डी णाम । तेत्तियमद्धाणे गंतूण तत्थ को वि भेदो अत्थि तं भणिस्सामो- तत्थ दुचरिमसमाणवड्डीदो उवरि केत्तिया कालवियप्पा ? एक्को समओ। खेत्तवियप्पा पुण असंखेज्जसेडीमेत्ता वा संखेज्जसेडीमेत्ता वा जगसेडीमेत्ता वा सेढीपढमवग्गमूलमेत्ता वा बिदियवग्गमूलसेत्ता वा घणंगुलमत्ता वा घणंगुलस्स [संखेज्जदिभागमेत्ता वा घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा किं भवंति आहो ण भवंति त्ति है, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, इस प्रकार अधस्तन क्षेत्र और कालके अभावका प्रसंग आवेगा। इसलिये घनांगुलके असंख्यातवें भाग, कहींपर घनांगुलके संख्यातवें भाग, कहीं घनांगुल, कहीं घनांगुलके वर्ग, इस प्रकार जाकर कहींपर जगश्रेणी, कहीं जगप्रतर और कहींपर असंख्यात जगप्रतरोंके वीतनेपर एक समय बढ़ता है। ऐसा कहना चाहिये। इसलिये उत्कृष्ट क्षेत्र और कालकी उत्पत्तिमें कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध हुआ। अब इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिये जब तक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी द्विचरम समान वृद्धि नहीं प्राप्त होती। शंका-द्विचरम समानवृद्धि किसे कहते हैं ? समाधान-जिस स्थानमें चारोंकी युगपत् वृद्धि होती है उसकी समानवृद्धि ऐसी संशा है। उसमें चरम समान वृद्धिको छोड़कर उससे नीचेकी वृद्धि द्विचरम समानवृद्धि है। __उतना अध्वान जाकर वहां जो कुछ भी भेद है उसे कहते हैं-वहां द्विचरम समानवृद्धिसे ऊपर कितने कालविकल्प हैं ? एक समय रूप एक विकल्प। किन्तु क्षेत्रविकल्प असं. ख्यात श्रेणी मात्र, अथवा संख्यात श्रेणी मात्र, अथवा जगश्रेणी मात्र, अथवा श्रेणीके प्रथम वर्गमूल मात्र, अथवा द्वितीय वर्गमूल मात्र, अथवा घनांगुल मात्र, अथवा घनांगुलके [संख्यातवें भाग मात्र, अथवा घनांगुलके ] असंख्यातवें भाग मात्र क्या होते हैं या नहीं १ अंगुलअसंखभाग संखं वा अंगुलं च तस्सेव । संखमसंखं एवं सेढी-पदरस्स अद्धवगे ॥ गो. जी. ४०९. २ प्रतिषु — समऊणवति' इति पाठः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [३५ पुच्छिदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता चेव होति.। कुदो ? आइरियपरंपरागदुवदेसादो। अहवा ण णव्वदे, जुत्ति-सुत्ताणमणुवलंभादो । खेत्तवियप्पेहिंतो दव्य-भाववियप्पा पुण असंखेज्जगुणा । गुणगारो अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, अंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तदव्व-भाववियप्पेसु गदेसु खेत्तम्मि एगागासपदेसवड्डीदो । एवं दुचरिमसमाणवड्डिपरूवणा कदा । पुणो दुचरिमसमाणवड्डीए ओरालियदव्वमवट्ठिदविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे तदणंतरदव्ववियप्पो होदि । दुचरिमसमाणवड्डीए भावे तप्पाओग्गासंखेज्जरूवेहि गुणिदे तदणंतरभाववियप्पो होदि । एवमंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु दव्व-भाववियप्पेसु गदेसु खेत्तम्मि एगो आगासपदेसो वड्वदि । एवमेदेण कमेण णेदव्वं जाव दव्व-भावाणं दुचरिमवियप्पो त्ति । पुणो चरिमदेसोहि उक्कस्सदवे उप्पाइज्जमाणे दुचरिमओरालियदव्वमवणेदूण एगसमयबंधपाओग्गकम्मइयवग्गणदव्यमवद्विदविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे देसोहिउक्कस्सदव्वं होदि। देसोहिदुचरिमभावं तप्पाओग्गसंखेज्जरूवेहि गुणिदे देसोहिउक्कस्सभावो होदि । खेत्तस्सुवरि एगागासपदेसे वड्डिदे लोगो देसोहीए उक्कस्सखेत्तं होदि । कुदो ? होते, ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि वे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र ही होते हैं; कारण कि ऐसा आचार्यपरम्परागत उपदेश है। अथवा, उक्त क्षेत्रविकल्पोंके विषयमें ज्ञान नहीं है, क्योंकि, तत्सम्बन्धी युक्ति व सूत्रका अभाव है। क्षेत्रविकल्पोंसे द्रव्य और भावके विकल्प असंख्यातगुणे हैं। गुणकार अंगुलका असंख्यातवां भाग है, क्योंकि, अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य औरभावके विकल्पोंके वीत जानेपर क्षेत्रमें एक आकाशप्रदेशकी वृद्धि होती है । इस प्रकार द्विचरम समानवृद्धिकी प्ररूपणा की गई है। पुनः द्विचरम समानवृद्धिके औदारिक द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर उससे आगेका द्रव्यविकल्प होता है। द्विचरम समान वृद्धिके भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर तदनन्तर भावविकल्प होता है। इस प्रकार अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्य व भावके विकल्पोंके वीत जानेपर क्षेत्रमें एक आक प्रदेश बढ़ता है। इस प्रकार इस क्रमसे द्रव्य और भावके द्विचरम विकल्प तक ले जाना चाहिये। पुनः अन्तिम देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्यको उत्पन्न करते समय द्विचरम औदारिक द्रव्यको छोड़कर एक समय बन्धके योग्य कार्मण वर्गणा द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर देशावधिका उत्कृष्ट द्रव्य होता है । देशावधिके द्विचरम भावको तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर देशावधिका उत्कृष्ट भाव होता है। क्षेत्रके ऊपर एक आकाशप्रदेश बढ़नेपर देशावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र लोक होता है, क्योंकि, . १ (दाहि विभज्जते दुचरिमदेसावहिम्मि वग्गणयं । चरिमे कम्मइयस्सिगिवग्गणमिगिवारमजिदं तु ॥ गो. नी. ३९८, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, २. वग्गणाए 'जाव लोगो ताव पडिवादी, उवरि अप्पडिवादि"त्ति वयणादो' । दुचरिमकालस्सुवरि एगसमए पक्खित्ते देसोहीए उक्कस्सकालो समऊणपल्लं होदि । जो एसो अण्णाइरियाणं वक्खाणकमो परूविदो सो जुत्तीए ण घडदे । कुदो ? सव्वट्ठसिद्धिदेवाणमुक्कस्सोहिदव्वादो उक्कस्सदेसोहिदव्वस्स अणतगुणत्तप्पसंगादो । तं जहा- लोगस्स संखेज्जदिभागं सलागभूदं ठवेदण मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभाएण सगोहिणाणावरणकम्मपदेसु णिव्विस्सासोवचएसु समयाविरोहेण खडिदेसु चरिमेगखंडं सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवो जाणदि, उक्कस्सेदसोहिणाणी पुण एगसमयपबद्धमेगवारखंडिदं । ण चेगणाणासमयपबद्धकओ विसेसो, एत्थ तग्गुणगारस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तस्स पहाणत्ताभावादो । एसा देवाणमुक्कस्सदव्वुप्पायणविही णासिद्धा, 'सखेत्ते य सकम्मे रूवयदमणंतभागो' त्ति सुत्तसिद्धत्तादो त्ति । तेण जहण्णदव्वादो तप्पाओग्गवियप्पेसु गदेसु ओरालियदव्वं सविस्ससोवचयमवणेदृण कम्मइयसमयपबद्धो णिविस्सासोवचओ दायव्वो, ओरालिय वर्गणामें 'जब तक लोक है तब तक प्रतिपाती है, ऊपर अप्रतिपाती है। ऐसा कथन है, अर्थात् क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कर्षसे लोकको विषय करनेवाला देशावधि प्रतिपाती और इससे आगेके परमावाधे व सर्वावधि अप्रतिपाती हैं । द्विचरम कालके ऊपर एक समयका प्रक्षेप करनेपर देशावधिका उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य होता है। ऐसी जो अन्य आचार्योंके व्याख्यानक्रमकी प्ररूपणा है वह युक्तिसे घटित नहीं होती, क्योंकि, वैसा माननेपर सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देवोंके उत्कृष्ट अवधिद्रव्यसे उत्कृष्ट देशावधिद्रव्यके अनन्तगुणत्वका प्रसंग आवेगा। वह इस प्रकारसे- लोकके संख्यातवे भागको शलाका रूपसे स्थापित करके मनोद्रव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विनसोपचय रहित अपने अवधिज्ञानावरणकर्मप्रदेशों में आगमानुसार भाग देनेपर अन्तिम 'एक खण्डको सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव जानता है, परन्तु उत्कृष्ट देशावधिशानी एक वार खण्डित एक समयप्रबद्धको जानता है। और एक समयप्रबद्ध और नाना समयप्रबद्ध कृत भेद भी नहीं है, क्योंकि, यहां पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उसके गुणकारकी प्रधानताका अभाव है । यह देवोंके उत्कृष्ट द्रव्यकी उत्पादनविधि असिद्ध नहीं है, क्योंकि, वह ' अपने क्षेत्रमेंसे एक प्रदेश उत्तरोत्तर कम करते हुए अपने अवधिज्ञानावरणकर्मका अनन्तवां भाग है' इस सूत्रसे सिद्ध है। इस कारण जघन्य द्रव्यसे आगे उसके योग्य विकल्पोंके वीत जानेपर विनसोपचय सहित औदारिक द्रव्यको छोड़कर विस्रसोपचय रहित कार्मण समयप्रबद्ध देना चाहिये, क्योंकि, औदारिक १ प्रतिषु 'पडिवादि' इति पाठः। २ उक्कस्स माणुसेसु य माणुस-तेरिच्छए जहण्णोही । उक्कस्स लोगमेतं पडिवादी तेण परमपडिवादी॥ ध.अ.प्र.पत्र ११९२. महाबंध १, पृ.२३.पडिवादी देसोही अप्पडिवादी हवंति सेसाओ। मिग्छ अविरमणं ण य परिवज्जति चरिमदुगे । गो. जी. ३७५. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, २.] कदिअणियोगदारे देसोहिणाणपरूवणा [३७ विस्सासोवचएहिंतो कम्मइयविस्सासोवनयाणमणंतगुणत्तादो । ण चेदमसिद्धं, 'सव्वत्थावो ओरालियसरीरस्स विस्सासोवचयओ, वेउब्वियसरीरस्स विस्सासोवचओ अणंतगुणो, आहारसरीरस्स विस्सासोवचओ अणंतगुणो, तेयासरीरस्स विस्सासोवचओ अणतगुणो, कम्मइयसरीरस्स विस्सासोवचओ अणंतगुणो' ति वग्गणाए सुत्तम्मि अणंतगुणत्तसिद्धीदो त्ति । विस्सासोवचए अवणेदूण ओरालियपरमाणू चेव अवहिदविरलणाए किण्ण दिज्जति ? ण, विरलणरासीदो ते अणतगुणहीणा इदि गुरूवदेसादो । विरलणादो कम्मइयदव्वमणंतगुणमिदि कधं णव्वदे ? आहारवग्गणाए दव्वा थोवा, तेयावग्गणाए दव्वा अणंतगुणा, भासावग्गणाए दव्वा अणंतगुणा, मणवग्गणाए दव्वा अणंतगुणा, कम्मइयवग्गणाए दव्वा अणतगुणा त्ति वग्गणासुत्तादो णव्वदे । जदि एवं तो आदिप्पहुडि कम्मइयदव्वं चेव किमिदि मणदव्ववग्गणाए ण खंडिज्जदि ? ण, विनसोपचयोंसे कार्मण विनसोपचय अनन्तगुणे हैं। और यह बात असिद्ध भी नहीं हैं, क्योंकि, “ औदारिक शरीरका विस्रसोपचय सबसे स्तोक है, उससे वैक्रियिक शरीरका विस्रसोपचय अनन्तगुणा है, उससे आहार शरीरका विनसोपचय अनन्तगुणा है, उससे तैजस शरीरका विनसोपचय अनन्तगुणा है, उससे कार्मण शरीरका विनसोपचय अनन्तगुणा है," इस प्रकार वर्गणासूत्रसे उसे अनन्तगुणत्व सिद्ध है। शंका-विनसोपचयोंको छोड़कर औदारिक परमाणुओंको ही अवस्थित विरलनासे क्यों नहीं देते? समाधान नहीं देते, क्योंकि, वे विरलन राशिसे अनन्तगुणे हीन है, ऐसा गुरुका उपदेश है। शंका-विरलन राशिसे कार्मण द्रव्य अनन्तगुणा है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- 'आहार वर्गणाके द्रव्य स्तोक हैं, तैजस वर्गणाके द्रव्य उससे अनन्तगुणे हैं, भाषा वर्गणाके द्रव्य उससे अनन्तगुणे हैं, मनो वर्गणाके द्रव्य अनन्तगुणे हैं, कार्मण वर्गणाके द्रव्य अनन्तगुणे हैं, ' इस वर्गणासूत्रसे वह जाना जाता है। शंका-यदि ऐसा है तो आदिसे लेकर कार्मण द्रव्यको ही मनोद्रव्यवर्गणा द्वारा - क्यों खण्डित नहीं करते? Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. तेया-कम्मइयसरीरं तेयादव्वं च भासदव्वं च । बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य वासा य' ॥ १४ ॥) इच्चेदीए सुत्तगाहाए सह विरोहादो । तेण कत्थ वि ओरालियसरीरं, कत्थ वि तेयासरीरं, कत्थ वि कम्मइयसरीरं, कत्थ वि तेयादव्, कत्थ वि भासादव्वं, कत्थ वि मणदव्वं कत्थ वि कम्मइयदव्वं दादव्वमिदि । सेसं पुव्वं व वत्तव्वं । असंखेज्जेसु दव्व-भाववियप्पेसु पुत्वं व अदिक्कतेसु जहण्णोहिखेत्तमावलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिज्जदि, तदो खेत्तस्स बिदियवियप्पो होदि । एवमसंखेज्जेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु जहण्णकालो आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिज्जदि, तदो कालस्स बिदियवियप्पो होदि । एवं णेदव्वं जाव देसोहीए उक्कस्संते । एवं के वि आइरिया देसोहीए परूवणं कुणंति । तण्ण घडदे । कुदो ? पुव्ववक्खाणभणिदद्धाणसमाणमेव किमेदस्स समाधान- नहीं, क्योंकि, ऐसा होनेपर [ देशावधिके मध्य विकल्पोंमें जहां अवधिज्ञान ] तैजस शरीर, उसके आगे कार्मण शरीर, उसके आगे तेजोद्रव्य अर्थात् विनसोपचय रहित तैजस वर्गणा, उसके आगे भाषा द्रव्य अर्थात् विस्रसोपचय रहित भाषा वर्गणा [ और उससे आगे मनोवर्गणाको ] जानता है, वहां क्षेत्र असंख्यातं द्वीपसमुद्र और काल असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है ॥ १४ ॥ इस सूत्र रूप गाथाके साथ विरोध होगा। इसलिये कहीं औदारिक शरीर, कहीं तैजस शरीर, कहीं कार्मण शरीर, कहीं तैजस द्रव्य, कहीं भाषा द्रव्य, कहीं मन द्रव्य और कहीं कार्मण द्रव्य देना चाहिये। शेष पूर्वके समान कहना चाहिये । पूर्वके समान असंख्यात द्रव्य और भावके विकल्पोंके वीत जानेपर जब जघन्य अवधिक्षेत्रको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा किया जाता है तब क्षेत्रका द्वितीय विकल्प होता है। इसी प्रकार असंख्यात क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर जब जघन्य कालको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित किया जाता है तब कालका द्वितीय विकल्प होता है । इस प्रकार देशावधिके उत्कृष्ट विकल्प तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार कितने ही आचार्य देशावधिका प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता है, क्योंकि, यहां हम पूछते हैं कि पूर्व व्याख्यानमें कहे हुए अध्वानके सदृश महाबंध १, पृ. २२. देसोहिमउझभेदे सविस्ससोवचयतेज-कम्मंगे। तेजोभास-मणाणं वग्गणयं केवलं जत्था पस्सदि ओही तत्थ असंखेज्जाओ हवंति दीउवही । वासाणि असंखेज्जा हेति असंखेज्जगुणिदकमा ॥ गो. जी. ३९५-३९६. तेया-कम्मसरीरे तेयादव्वे य भासदव्वे य। बोद्धव्वमसंखेज्जा दीव-समुद्दा य कालो य ।। विशे. भा. ६७६ (नि. ४३). Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [ ३९ वक्खाणस्सद्धाणमाहो विसरिसमिदि ? ण ताव समाणपक्खो जुज्जदे, खेत्त-कालाणमसंखेज्जलोगत्तप्पसंगादो । तं जहा - आवलियाए असंखेज्जदिभागछेदणएहि लोगछेदणए ओवट्टिय लद्धं विरलेदूण रूवं पडि गुणगारभूदआवलियाए असंखेज्जदिभागो दादव्वो । विरलणमेत्तेसु खेत्तवियप्पेसु गदेसु ओहिखेत्तमसंखेज्जलोगमेत्तं होदि, विरलणमत्तेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागेसु अण्णोण्णगुणिदेसु लोगुप्पत्तीदो । एत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागद्धाणे चेव ओहिखेत्तमसंखेज्जलोगमेत्तं जादभेदम्हादो उवरि गच्छमाणे सुतरामेव खेत्तस्स असंखेज्ज. लोगत्तं पसज्जदे । एदं च णेच्छिज्जदि, लोगमेत्तमुक्कस्सदेसोहिखेत्तमिदि अब्भुवगमाद।। एवं कालस्स वि असंखेज्जलोगप्पसंगो परूवेदव्यो । ण च कालो उक्कस्सओ असंखेज्जलोगो त्ति देसोहीए इच्छिज्जदि, आइरियपरंपरागदुवदेसेण देसोहिउक्कस्सकालस्स समऊणपल्लपमाणत्तसिद्धीदो। ण विदियपक्खो वि, पुग्विल्लद्धाणादो अहियद्धाणे अब्भुवगम्ममाणे पुग्विल्लदोसप्पसंगादो। ण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवियप्पभुवगमो वि, देसोहीए असंखेजलोगमेत्तखओवसमवियप्पाणमभावप्पसंगादो, कालस्सावलियाए असंखेज्जदिभागत्तप्पसंगादो च । .................................... ही इस व्याख्यानका अध्वान है अथवा विसदृश? उक्त दो पक्षोंमें समान पक्ष तो युक्त है नहीं, क्योंकि ऐसा होनेपर क्षेत्र और कालको असंख्यात लोकपनेका प्रसंग होगा। वह इस प्रकारसे- आवलीके असंख्यातवें भाग अर्धच्छेदोंसे लोकके अर्धच्छेदोंको अपवर्तित करके प्राप्त राशिका विरलनकर प्रत्येक रूपके प्रति गुणकारभूत आवलीका असंख्यातवां भाग देना चाहिये। विरलन मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर अवधिका क्षेत्र असंख्यात लोकप्रमाण होता है, क्योंकि, विरलन मात्र आवलीके असंख्यात भागोंको परस्पर गुणित करनेपर लोककी उत्पत्ति होती है । यहां पल्योपमके असंख्यातवें भाग अध्वानमें ही अवधिक्षेत्र असंख्यात लोक मात्र हो गया है। इससे ऊपर जानेपर स्वयमेव क्षेत्रको असंख्यात लोकपनेका प्रसंग आवेगा । और यह इष्ट नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट देशावधिका क्षेत्र लोक मात्र है, ऐसा स्वीकार किया गया है। इसी प्रकार कालके भी असंख्यात लोकपनेके प्रसंगकी प्ररूपणा करना चाहिये । और देशावधिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, ऐसा अभीष्ट नहीं है, क्योंकि, आचार्य परम्परागत उपदेशसे देशावधिका उत्कृष्ट काल एक समय कम पल्य प्रमाण सिद्ध है। द्वितीय (असमान) पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, पूर्वोक्त अध्वानसे अधिक अध्वान स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आवेगा। यदि पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंको स्वीकार करें तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर देशावधिके असंख्यात लोक मात्र क्षयोपशमविकल्पोंके अभावका प्रसंग होगा, तथा कालके आवलीके असंख्यातवें भागत्वका प्रसंग भी होगा। दूसरी बात यह है कि क्षेत्र और Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] छक्खंडागमे यणाखंड [४, १, २. किं च खेत्त-कालाणं खओवसमा णांसखेज्जगुणक्कमेण देसोहिम्हि अवडिदा, अंगुलमावलियाए भागमसंखेन्ज दो वि संखेज्जा । अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥ १५॥ इच्चादिगाहावग्गणसुत्तेहि सह विरोहादो । एवमोही परूविदा । अवधयश्च ते जिनाश्च अवधिजिनाः। कधमोहिणाणस्स गुणस्स गुणितं जुज्जदे ? ण, गुणिव्वदिरेगेण गुणाणमभावादो। किमट्ठमोहिणा जिणा विसेसिज्जते ? अण्णोहिजिणपडिसेहढे । के ओहिजिणा ? तिरयणसहिदोहिणाणिणो । तेसिं णमो णमोक्कारो होदि त्ति कालके क्षयोपशम असंख्यातगुणित क्रमसे देशावधिमें अवस्थित नहीं हैं, क्योंकि, . प्रथम काण्डको जघन्य देशावधिका क्षेत्र अंगुलका असंख्यातवां भाग और जघन्य काल आवलीका असंख्यातवां भाग है। इसी काण्डकमें उत्कृष्ट क्षेत्र और काल क्रमशः अंगुल व आवलीके संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। द्वितीय काण्डको क्षेत्र घनांगुल और काल कुछ कम आवली प्रमाण है। तृतीय काण्डकमें क्षेत्र अंगुलपृथक्त्व और काल आवली प्रमाण है ॥ १५ ॥ इत्यादि वर्गणा खण्डके गाथासूत्रोंके साथ विरोध होगा। इस प्रकार अवधिज्ञानकी प्ररूपणा की गई है। अवधिशान स्वरूप जो जिन वे अवधिजिन हैं। शंका-गुण स्वरूप अवधिज्ञानके गुणीपना कैसे युक्त है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, गुणीको छोड़कर गुणोंका अभाव है। अर्थात् गुण और गुणीमें भेद न होनेसे अवधिज्ञान स्वरूप जिनके कहने में कोई विरोध नहीं है। • शंका-जिनोंको अवधिसे विशेषित किसलिये किया जाता है ? समाधान- अन्य अवधिजिनोंके प्रतिषेधार्थ जिनोंको अवधिसे विशेषित किया गया है। शंका-अवधिजिन कौन हैं ? समाधान-रत्नत्रय सहित अवधिशानी अवधिजिन हैं। ऐसे अवधिजिनोंको नमः अर्थात् नमस्कार हो यह अभिप्राय है। ................... १ कापतौ ' खत्रसमेणा-' इति पाठः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३.] कदिअणियोगद्दारे परमोहिणाणपरूवणा [११ वुत्तं होदि । महव्वयविरहिददोरयणहराणं ओहिणाणीणमणोहिणाणीणं च किमढें णमोक्कारो ण कीरदे ? गारवगरुवेसु जीवेसु चरणाचारपयट्टावणढे उत्तिमग्गविसयभत्तिपयासणटुं च ण कीरदे । एवं देसोहिजिणाणं णमोक्कारं काऊण परमोहिजिणाणं णमोक्कारकरणमुत्तरसुत्तं भणदि( णमो परमोहिजिणाणं ॥३॥ परमो ज्येष्ठः, परमश्वासौ अवधिश्च परमावधिः । कधमेदस्स ओहिणाणस्स जेट्टदा ? देसोहिं पेक्खिदूण महाविसयत्तादो, मणपज्जवणाणं व संजदेसु चेव समुप्पत्तीदो, सगुप्पण्णभवे चेव केवलणाणुप्पत्तिकारणत्तादो, अप्पडिवादित्तादो वा जेट्टदा । परमावधयश्च ते जिनाश्च परमावधिजिनाः, तेभ्यो नमः । जदि देसोहिणाणादो परमोहिणाणं जेट्ट होदि तो एदस्सेव पुव्वं शंका-महावतोंसे रहित दो रत्नों अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके धारक अवधिज्ञानी तथा अवधिज्ञानसे रहित जीवोंको भी क्यों नहीं नमस्कार किया जाता? समाधान - अहंकारसे महान् जीवोंमें चरणाचार अर्थात् सम्यक् चारित्र रूपप्रवृत्ति करानेके लिये तथा प्रवृत्तिमार्गविषयक भक्तिके प्रकाशनार्थ उन्हें नमस्कार नहीं किया जाता है। इस प्रकार देशावधिजिनोंको नमस्कार करके परमावधिजिनोंको नमस्कार करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं परमावधिजिनोंको नमस्कार हो ॥३॥ परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है । परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है। शंका-इस अवधिज्ञानके ज्येष्ठपना कैसे है ? समाधान-चूंकि यह परमावधि ज्ञान देशावधिकी अपेक्षा महा विषयवाला है, मनःपर्ययज्ञानके समान संयत मनुष्यों में ही उत्पन्न होता है, अपने उत्पन्न होनेके भवमें ही केवलज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है, और अप्रतिपाती है अर्थात् सम्यक्त्व व चारित्रसे च्युत होकर मिथ्यात्व एवं असंयमको प्राप्त होनेवाला नहीं है। इसीलिये उसके ज्येष्ठपना सम्भव है। परमावधि रूप ऐसे वे जिन परमावाध जिन हैं। उनके लिये नमस्कार है। शंका-यदि देशावधि ज्ञानसे परमावधि ज्ञान ज्येष्ठ है तो इसको ही पहिले क.क.६. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ३. णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, देसोहीदो चेव परमोहिसरूवावगमो, ण अण्णहा त्ति जाणावणटुं देसोहीए पुव्वं णमोक्कारकरणादो, परमोहिसरूवावगमणिमित्तत्तणेण परमोहिं पेक्खिय महल्लसादो वा । कथं देसोहीदो परमोहिसरूवमवगम्मदे ? उच्चदे एत्थ सुत्तगाहा परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु । वगद लहइ दव्वं खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ १६ ॥ एदीए गाहाए परमोहिदव्व-खेत्त-काल-भावाणं परूवणा कदा । तं जहा- परमावधिरसंख्येयानि लोकमात्राणि लोकप्रमाणानि लभते जानातीत्यर्थः । एदेण खेत्तपमाण परूविदं । नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, देशावधिसे ही परमावधिके स्वरूपका ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं होता; इस बातके ज्ञापनार्थ देशावधिको पूर्वमें नमस्कार किया है । अथवा परमावधिके स्वरूपके जाननेका निमित्त होनेसे परमावधिकी अपेक्षा चूंकि देशावधि महान् है, अतः उसे पहिले नमस्कार किया है। शंका-देशावधिसे परमावधिके स्वरूपका शान कैसे होता है ? समाधान-यहां सूत्र गाथा कहते हैं परमावधि उत्कर्षसे क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात लोकमात्रों और कालकी अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र समय रूप कालको जानता है। वही [ शलाकाभूत ] क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवोंसे परिच्छिन्न रूपगत द्रव्यको उत्कर्षसे विषय करता है ॥ १६ ॥ विशेषार्थ-परमावधिका विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण है और उत्कृष्ट काल भी असंख्यात लोक मात्र ही है। उसीके विषयभूत उत्कृष्ट द्रव्यको जाननेके लिये निम्न प्रक्रिया है-तेजकायिक जीवकी जघन्य अवगाहनाको उसकी ही उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे घटाकर शेषमें एक रूप मिला देनेपर जो प्राप्त हो उसे तेजकायिक राशिसे गुणा करनेपर शलाका राशि उत्पन्न होती है। अब देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्यमें मनोवर्गणाके अनन्तवें भाग रूप ध्रुवहारका वार वार भाग देकर शलाका राशिमेंसे एक एक कम करते जाना चाहिये । इस प्रकार शलाका राशिके समाप्त होनेपर अन्तमें जो द्रव्यविकल्प प्राप्त होता है वह रूपगत है, और वही परमावधिका उत्कृष्ट विषय है। यही शलाका राशि परमावधिके विषयभूत क्षेत्र, काल एवं भावके विकल्पोंके जानने में भी निमित्त है। इस गाथा द्वारा परमावधिके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी प्ररूपणा की गई है। वह इस प्रकारसे- परमावधि असंख्यात लोक मात्र अर्थात् लोक प्रमाणोंको प्राप्त करता है, जानता है। इससे क्षेत्रप्रमाणकी प्ररूपणा की है। समय ऐसा जो काल वह समय १ महाबंध १, पृ. २२. परमोहि असंखेज्जा लोगमित्ता समा असंखिज्जा। रूवगयं लहइ सव्वं खेचोवमियं बगनिजीवा ॥ विशे. मा. ६८८ (नि. ४५). Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३. कदिअणियोगद्दारे परमोहिणाणपरूवणा [ ४१ समयकालो दु ' समयश्चासौ कालश्च समयकालः । समयविसेसणं किमहं ? दव्वकालपडिसेह । किमहं दव्वकालपडिसेहो कीरदे ? तेणेत्थ पओजणाभावादो । दुसद्द। अविसद्दत्थे' दट्ठव्वो । अवधेः समयकालोऽपि असंख्येयलोकमात्रः । एद्रेण परमोहीए उक्कस्सकाल-भात्राणं परूवणा कदा | होदु कालपरूवणा एसा, ण भावपरूवणा; काल - भावाणमेयत्तविरोहादो । ण एस दोसो, अदीदाणागयपज्जया तीदाणागयकालो, वट्टमाणपज्जया वट्टमाणकालो । तेर्सि चेव भावसण्णा वि, 'वर्तमानपर्याीयोपलक्षितं द्रव्यं भावः' इदि पओअदंसणादो | तीदाणागयकाहिंतो वट्टमाणकालो भावसण्णिदो कालत्तणेण अभिण्णो त्ति काल - भावाणमयत्ताविरोहादो । एदेण वक्खाणेण जहण्णपरमोहिकालो ण सूचिदो, सो कधं लब्भदे ? ' परमोहीए असंखेज्जा " काल है । शंका- यहां समय विशेषण किसलिये दिया है ? समाधान - द्रव्य कालका प्रतिषेध करनेके लिये समय विशेषण दिया है । शंका - द्रव्य कालका प्रतिषेध किसलिये किया जाता है ? समाधान - क्योंकि, उसका यहां प्रयोजन नहीं है । 6 तु' शब्द अपि ( भी ) शब्द के अर्थ में जानना चाहिये । अवधिका समय रूप काल भी असंख्यात लोक मात्र है । इससे परमावधिके उत्कृष्ट काल और भावकी प्ररूपणा की है । शंका- -यह कालप्ररूपणा भले ही हो, किन्तु भावप्ररूपणा नहीं हो सकती क्योंकि, काल और भावकी एकताका विरोध है ? ➖➖➖➖ समाधान —यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अतीत और अनागत पर्यायें अतीत अनागत काल हैं, तथा वर्तमान पर्यायें वर्तमान काल हैं। उन्हीं पर्यायोंकी ही भाव संज्ञा भी है, क्योंकि, 'वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्य भाव है ' ऐसा प्रयोग देखा जाता है । अतीत और अनागत कालसे चूंकि भाव संज्ञावाला वर्तमान काल कालस्वरूपसे अभिन्न है, अतः काल और भावकी एकतामें कोई विरोध नहीं है । शंका - इस व्याख्यानसे जघन्य परमावधिका काल नहीं सूचित किया गया है, वह कैसे जाना जाता है ? समाधान - 'परमावधिका असंख्यात समय काल है, ' इस सूत्र से वह जाना १ प्रतिषु ' अविसदत्थे ' इति पाठः । २ स. सि. १, ५. त. रा. १, ५, ८. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ३. समयकालो' ति सुत्तादो लब्भदे । खेत्तोवमअगणिजीवेहि, क्षेत्रोपमाश्च ते अग्निजीवाश्च क्षेत्रोपमाग्निजीवाः, तेहि खेत्तोवमागणिजीवेहि सलागभूदेहि जं सिद्धं पोग्गलदव्वं तं लहदि जाणदि । रूवयद-विसेसणं किमढे ? अरूविदव्वपडिसेहटुं। जदि रूविदव्वस्सेव एदेण परिच्छेदो कीरदि तो ण तीदाणागय-वट्टमाणपज्जायाणमेदेण परिच्छेदो कीरदे, तेसिं रूवित्ताभाबादो । तदभावो वि दव्वत्ताभावादो त्ति ? ण एस दोसो, तेसिं पोग्गलपज्जायाणं कथंचि रूविदव्वत्तसिद्धीदो। एसो रूवयदसद्द। मज्झदीवओ त्ति हेट्ठोवरिमे।हिणाणेसु सव्वत्थ जोजेंयत्वो । एदेण दव्वपरूवणा कदा । संपहि एदीए गाहाए सूचिदत्थस्स णिण्णयट्ठमिमा परवणा कीरदे । तं जहा-- सुहुमतेउकाइयअपज्जतयस्स जहण्णोगाहणा अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। तं बादरतेउक्काइयपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहाणाए तत्तो असंखेज्जगुणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि जहण्णोगाहणवियप्पागमणटुं रूवं पक्खिविय सामण्णतेउक्काइयरासिम्मि गुणिदे खेत्तावमअगणिजीव जाता है। क्षेत्रोपम अग्नि जीव-क्षेत्रोपम ऐसे वे आग्न जीव क्षेत्रोपम अग्नि जीव हैं । उन शलाकाभूत क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंसे जो पुद्गल द्रव्य सिद्ध है उसे परमावधि प्राप्त करता है अर्थात् जानता है। शंका-रूपगत विशेषण किस लिये दिया है ? समाधान-अरूपी द्रव्यका प्रतिषेध करनेके लिये रूपगत विशेषण दिया है । शंका-यदि इसके द्वारा केवल रूपी द्रव्यका ही ग्रहण किया जाता है तो फिर इससे अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंका ग्रहण नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि, वे रूपी नहीं हैं । रूपीपनेका अभाव भी उनमें द्रव्यत्वके अभावसे है ? . समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन पुद्गलपर्यायोंके कथंचित् रूपी द्रव्यत्व सिद्ध है। यह रूपगत शब्द चूंकि मध्यदीपक है, अतएव इसे अधस्तन और उपरिम अवधिसानोंमें सर्वत्र जोड़ लेना चाहिये । इस व्याख्यान द्वारा द्रव्यप्ररूपणा की गई है। अब इस गाथा द्वारा सूचित अर्थके निर्णयार्थ यह प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग है। उसे उससे असंख्यातगुणी बादर तेजकायिक पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे कम करके शेषमें जघन्य अवगाहनाके विकल्पोंको लानेके लिये एक रूपका प्रक्षेप करके सामान्य तेजकायिक राशिको गुणित करनेपर क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंका प्रमाण होता है। यह परमावधिके Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३. ] कदिअणियोगद्दारे परमोहिणाणपरूवणा ४५ पमाण होदि । एसो परमोहीए दव्व-खेत-काल- भावाणं सलागरासि त्ति पुध वेदव्वो । पुणो दो आवलियाए असंखेज्जदिभागा समसंखा, ते वि पुध वेदव्वा । तत्थ दाहिणपासयिस्स पडिगुणगारे। अवट्ठिदगुणगारो त्ति दोणि णामाणि । तत्थ जो सो वामपासट्ठिदो तस्स खेतकालगुणगारो अणवदिगुणगारो त्ति दोणिण णामाणि । एवं ठविय तद। देसोहि उक्कस्सदव्वमवदिविरलणाए समखंड करिय दिण्णे तत्थ एगरूवधरिदं परमोहिजहण्णदव्वं होदि' । देसोहिउक्करसभावे तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे परमोहीए जहण्णभावो होदि । देसोहीए उक्कस्सखेत्तं लोगमणवदिगुणगारेण गुणिदे परमोहीए जहण्णं खेत होदि । पुणो समऊणपल्लमुक्कस्सदेसोहिकालं तेणेव अणवट्ठिदगुणगारेण गुणिदे परमो हिजहण्णकालो होदि । सलागाहिंतो एगरूवमवणेदव्वं । पुणो परमो हिजहण्णदव्वमवदिविरलणाए समखंड करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं परमोहीए विदियदव्ववियप्पो होदि । परमोहीए जहण्णभावं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे तस्सेव विदियवियप्पो होदि । पुणो परमोहिजहण्णखेत्तं पडिगुणगारेण गुणिदट्ठमवियष्पगुणगारेण गुणिदे परमोहिखेत्तस्स बिदियवियप्पो होदि । एदेणेव गुणगारेण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी शलाका राशि है; अतः उसे पृथक् स्थापित करना चाहिये । पुनः समान संख्यावाले आवली के दो असंख्यात भागों को लेकर उन्हें भी पृथक् स्थापित करना चाहिये। उनमें से दाहिने पार्श्व में स्थित राशिको प्रतिगुणकार व अवस्थित गुणकार इस प्रकार दो संज्ञायें हैं । उनमें जो वह वाम पार्श्व में स्थित है उसके क्षेत्र कालगुणकार और अनवस्थित गुणकार ये दो नाम हैं । इस प्रकार स्थापित करके पश्चात् देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर उनमें एक रूपधरित परमावधिका जघन्य द्रव्य होता है । देशावधिके उत्कृष्ट भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर परमावधिका जघन्य भाव होता है । देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र लोकको अनवस्थित गुणकार से गुणित करनेपर परमावधिका जघन्य क्षेत्र होता है । पुनः एक समय कम पल्य रूप देशावधिके उत्कृष्ट कालको उसी अनवस्थित गुणकारसे गुणित करनेपर परमावधिका जघन्य काल होता है । शलाकाओं में से एक रूप कम करना चाहिये । पुनः परमावधिके जघन्य द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड परमावधिका द्वितीय द्रव्यविकल्प होता है । परमावधिके जघन्य भावको उसके योग्य असंख्यात रूप से गुणित करनेपर उसका ही द्वितीय विकल्प होता है । पुनः परमावधिके जघन्य क्षेत्रको प्रतिगुणकार से गुणित अधस्तन विकल्पके गुणकारसे गुणित करनेपर परमावधिके क्षेत्रका द्वितीय विकल्प होता है । इसी गुणकार से परमावधिके जघन्य कालको गुणित करनेपर १ देसा वहिवरद धुवहारेणवहिदे हवे णियमा । परमावहिस्स अवरं दव्यमाणं तु जिनदि ॥ परमावदिस्त मेदा सगग्गाहण वियप्पहदतेऊ । चरिमे हारपमाणं जेट्ठरस य होदि दव्वं तु ॥ गो. जी. ४९३-४१४० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ३. परमोहिजहण्णकाले गुणिदे कालस्स बिदियवियप्पो होदि । सलागासु एगरूवमवणेदव्वं । पुणो बिदियवियप्पजहण्णदव्वमवहिदविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं तदियवियप्पदव्वं होदि । बिदियवियप्पभावे तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे तदियवियप्पभावो होदि । अवट्ठिदगुणगारगुणिदबिदियवियप्पगुणगारेण बिदियवियप्पखेत्त-काले गुणिदे तदियवियप्पखेत्त-काला होति । सलागासु अण्णेगरूवमवणेदव्वं । चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमादिवियप्पाणमेवं चेव णेदव्वं । णत्थि एत्थ कोच्छि विसेसो । एवं गच्छमाणे अणवट्ठिदगुणगारो कम्हि उद्देसे घणलोगमेत्तो होदि त्ति वुत्ते वुच्चदे- आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स छेदणएहि लोगछेदणए ओवट्टिय लद्धमेत्तमद्धाणे गदे अणवट्ठिदगुणगारो लोगमेत्तो होदि, विरलणरासिमेत्तअवट्ठिदगुणगाराणमण्णोण्णब्भत्थरासिस्स तत्थुवलंभादो। तदो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ अणवद्विदगुणगारो असंखेज्जलोगमेत्तो होदि, वियप्पं पडि अवट्ठिदगुणगारेण गुणिजमाणत्तादो । एवं णेदव्वं जाव परमोहीए दुचरिमवियप्पो त्ति । ... संपधि चरिमवियप्पो उच्चदे- परमोहीए दुचरिमदव्वमवद्विदविरलणाए समखंडं कालका द्वितीय विकल्प होता है। शलाकाओंमेंसे एक रूप कम करना चाहिये । पुनः द्वितीय विकल्प रूप जयन्य द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। द्वितीय विकल्प रूप भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर तृतीय विकल्प रूप भाव होता है । अवस्थित गुणकारसे गुणित द्वितीय विकल्पके गुणकारसे द्वितीय विकल्पभूत क्षेत्र व कालको गुणित करनेपर तृतीय विकल्प रूप क्षेत्र व काल होते हैं । शलाकाओंमेंसे अन्य एक रूप कम करना चाहिये। चतुर्थ, पंचम, छठे और सातवें आदि विकल्पोंको इसी प्रकार ही ले जाना चाहिये, क्योंकि, यहां कोई भी विशेषता नहीं है। __ शंका - इस प्रकार जानेपर अनवस्थित गुणकार किस स्थानमें घनलोक मात्र होता है ? समाधान -इस प्रकार पूछनेपर उत्तर कहते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागके अर्धच्छेदोंसे लोकके अर्धच्छेदोंको अपवर्तित करके लब्ध मात्र अध्वान जानेपर अनवस्थित गुणकार लोक मात्र होता है, क्योंकि, विरलन राशि मात्र अवस्थित गुणकारोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि वहां पायी जाती है । वहांसे लेकर ऊपर सर्वत्र अनवस्थित गुणकार असंख्यात लोक मात्र होता है, क्योंकि, प्रत्येक विकल्पके प्रति वह अवस्थित गुणकारसे गुणिज्यमान है। इस प्रकार परमावधिके द्विचरम विकल्प तक ले जाना चाहिये। भव अन्तिम विकल्पको कहते हैं- परमावधिके द्विचरम द्रव्यको अवस्थित www.jaihelibrary.org Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १.] कदिअणियोगद्दारे सव्वौहिणाणपरूवणा [ ४७ करिय दिणे चरिम-[दव्व-] वियप्पो होदि । दुचरिमभावं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे परमोहीए चरिमभावो होदि। परमोहीए असंखेज्जलोगमेत्तदुचरिमअणवहिदगुणगारमण्णेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिय तेण गुणिदरासिणा दुचरिमखेत्त-काले गुणिदे परमोहीए उक्कस्सखेत्तं उक्कस्सकालो च होदि । सलागासु एगरूवमवणिदे सव्वसलागाओ एत्थ णिहिदाओ । खेत्तोवमअगणिजीवेहि देसोहिउक्कस्सदव्व-खेत्त-काल-भावाणं खंडण-गुणणवारसलागाहि सोहिददव्व-खेत्त-काल-भावे उक्कस्सपरमाही जाणदि त्ति सिद्धं । तेण देसोहीए पुव्वं णमोक्कारो कदो, पच्छा परमोहीए । (णमो सव्वोहिजिणाणं ॥४॥ सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधः सर्वावधिः। एत्थ सव्वसद्दो सयलदव्ववाचओ ण घेत्तव्यो, परदो अविज्जमाणदव्वस्स ओहित्ताणुववत्तीदो । किंतु सव्वसद्दो सब्वेगदेसम्हि रूवयदे वट्टमाणो घेत्तव्यो । तेण सव्वरूवयदं ओही जिस्से त्ति संबंधो कायव्वो । अधवा, सरति गच्छति आकुंचन-विसर्पणादीनीति पुद्गलद्रव्यं सर्च, तमोही जिस्से' सा सव्वोही । असेससंसारि विरलनासे समखण्ड करके देनेपर अन्तिम द्रव्यविकल्प होता है । द्विचरम भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर परमावधिका अन्तिम भाव होता है। परमावधिके असंख्यात लोक मात्र द्विचरम अनवस्थित गुणकारको अन्य आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करके उस गुणित राशिसे द्विचरम क्षेत्र और कालको गुणित करनेपर परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट काल होता है । शलाकाओंमेंसे एक रूप कम करनेपर सब शलाकायें यहां समाप्त हो जाती हैं। क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंसे देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी खण्डन और गुणन रूप वारशलाकाओंसे शोधित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको उत्कृष्ट परमावधि जानता है, यह सिद्ध हुआ। इसीलिये देशावधिको पूर्वमें नमस्कार किया है. पश्चात परमावधिको। सर्वावधि जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४ ॥ विश्व और कृत्स्न ये सर्व शब्दके समानार्थक शब्द हैं । सर्व है मर्यादा जिस ज्ञानकी वह सर्वावधि है। यहां सर्व शब्द समस्त द्रव्यका वाचक नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किन्तु सर्व शब्द सबके एक देश रूप रूपी द्रव्यमें वर्तमान ग्रहण करना चाहिये । इसलिये सर्व रूपगत अवधि जिसकी, इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये । अथवा, जो आकुंचन और विसर्पणादिकोंको प्राप्त हो वह पुद्गल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह सर्घावधि है। -............................. १ प्रतिषु जिणस्से' इति पाठः। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४. जीव-पोग्गलदव्वपरिच्छेदकारित्तादो परमोहिजिणेहिंतो महल्लाणं सव्वोहिजिणाणं किमिदि पुव्वमेव णमोक्कारो ण कदो ? ण, सम्वोहिमहल्लत्तावगमणगुणेण सव्वाहीदो परमोहीए महल्लत्तं पेक्खिय तिस्से पुव्वं णमोक्कारविहाणादो। कथं परमोहीदो सवोहिमहल्लत्तमवगम्मदे ? उच्चदे- परमोहिउक्कस्सदव्वमवट्ठिदविरलणाए समखंड करिय दिगे रूवं पडि एगेगो परमाणू पावदि, सो सव्वोहीए विसओ । एत्थ जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तवियप्पा णत्थि, सव्वोहीए एयवियप्पादो' । परमोहिउक्कस्सभावं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे सव्वोहीए उक्कस्सभावो होदि । परमोहिउक्कस्सखेत्तं तप्पाओग्गअसंखेज्जलोगेहि गुणिदे सव्वोहीए उक्कस्सखेत्तं होदि । सोहिउक्कस्सखेत्तुप्पायणटुं परमोहिउक्कस्सखेत्तं तिस्से चेव चरिमअणवद्विदगुणगारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागपदुप्पणेण गुणिज्जदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परियम्म वुत्तओहिणिबद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो। तं जहा- परमोहिखेत्तपरूवणा ताव ___ शंका-चूंकि सर्वावधि जिन समस्त संसारी जीव और पुद्गल द्रव्यको जानते हैं, अतः परमावधिजिनोंकी अपेक्षा महान् होनेसे उन्हें ही पूर्वमें नमस्कार क्यों नहीं किया? समाधान नहीं किया, क्योंकि, सर्वावधिके महत्त्वका ज्ञान कराने रूप गुणसे सर्वावधिकी अपेक्षा परमावधिके महत्वको देखकर उसे पहिले नमस्कार किया है । शंका-परमावधिकी अपेक्षा सर्वावधिकी महत्ता कैसे जानी जाती है ? समाधान-इस शंकाका उत्तर देते हैं- परमावधिके उत्कृष्ट द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति जो एक एक परमाणु प्राप्त होता है, वह सर्वावधिका विषय है। यहां जघन्य, उत्कृष्ट और तव्यतिरिक्त विकल्प नहीं हैं, क्योंकि, सर्वावधि एक विकल्प रूप है। परमावधिके उत्कृष्ट भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर सर्वावधिका उत्कृष्ट भाव होता है। परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको उसके योग्य असंख्यात लोकोसे गणित करनेपर सर्वावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। सर्वावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको उत्पन्न करानेके लिये परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलोके असंख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुणकारसे गुणा किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर परिकर्ममें कहे हुए अवधिसे निबद्ध क्षेत्र नहीं बनते। वह इस प्रकारसे-पहिले परमावधिके क्षेत्रकी प्ररूपणा करते हैं । तेजकायिक जीवोंके अव १ सव्वावहिस्स एक्को परमाणू होदि णिव्वियप्पो सो । गो. जी. ४१५. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४.] कदि अणियोगद्दारे सव्वोहिणाणपरूवणा [ कीरदे, अगणिकाइयओगाहणट्ठाणगुणिदअगणिकाइयजीवरासिं गच्छं काऊण एगादिएगुत्तरसंकलणमाणिदे उक्काइयरासिवग्गमइच्छिदूण तदुवरिमवग्गादो हेट्ठा एसो रासी उप्पज्जदि । एदं सलागसंकलणरासिं विरलेदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागं रूवं पडि दादूण अण्णोष्णगुणं करिय देसोहिउक्कस्सखेत्तं घणलोगं गुणिदे परमोहिउक्कस्सखेत्तं होदि' । एदस्स अद्धाणगवेसंणा कीरदे - विरलणरासिछेदणया दिण्णरासिछेदणयजुदा उप्पण्णरासिस्स वग्गसलागा होंति । विरलणरासिछेदणया णाम एत्थ तेउक्काइयाणमद्धच्छेदणेहिंतो दुगुणा सादिरेया, तेउक्काइयसिवग्गग्गादो हेट्ठा द्विदरासिमद्धछेदणए कदे समुप्पण्णत्तादो । केहि एत्थ सादिरेयत्तं १ ओगाहणट्ठाण वग्गद्धछेदणएहि दिज्जमाण सिवग्गसलागाहि य । एदेसु पक्खित्तेसु आदिवग्गपहुड परमोहिखेत्तस्स चडिदद्धाणं होदि । एदं चडिदद्वाणं तेउक्काइयरासिअद्धछेदणेहिंतो दुगुणसादिरेयमेत्तं ते उक्काइयरासिवग्गसलागाहि छिंदिय अद्धरूवूणेण उक्काइयरासिवग्गसलागाओ गुणिदे ते उक्काइयरासीदो उवरि चडिदद्धाणं होदि । एदं गाहनास्थानोंसे गुणित तेजकायिक जीवोंकी राशिको गच्छ करके एकको आदि लेकर एक एक अधिक संकलन के [ जैसे- प्रथम स्थान में १, द्वि. में १+२=३, तृ. में १+२+३=६, च. में १+२+३+४=१० इत्यादि ] लानेपर तेजकायिक राशिके वर्गको लांघकर उससे उपरिम वर्ग के नीचे यह राशि उत्पन्न होती है । इस शलाका संकलन राशिका विरलन करके आवलीके असंख्यातवें भागको प्रत्येक रूपके प्रति देकर परस्पर गुणित करके उससे देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र घनलोकको गुणित करनेपर परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । इसके अध्वानकी खोज करते हैं- देय राशिके अर्धच्छेदोंसे युक्त विरलन राशिके अर्धच्छेद उत्पन्न राशिकी वर्गशलाका होते हैं। विरलन राशिके अर्द्धच्छेद यहां तेजकायिक जीवोके अर्धच्छेदोंसे कुछ अधिक दूने हैं, क्योंकि, वे तेजकायिक राशिके वर्गके वर्गसे नीचे स्थित राशिके अर्धच्छेद करनेपर उत्पन्न होते हैं । शंका – किनसे यहां अधिकता है, अर्थात् उस अधिकताका प्रमाण क्या है ? - समाधान- - अवगाहनास्थानके वर्गके अर्धच्छेद और दीयमान राशिकी वर्गशलाकाओंसे यहां अधिकता है । इनका प्रक्षेप करनेपर आदिके वर्गसे लेकर परमावधिके चढित अध्वान होता है । तेजकायिक राशिके अर्धच्छेदोंसे कुछ अधिक दुगणे मात्र इस चढित अध्वानको तेजकायिक राशिकी वर्गशलाकाओंसे खण्डित कर अर्ध रूप कम इससे तेजकायिक राशिकी वर्गशलाकाओको गुणित करनेपर तेजकायिक राशिसे ऊपर चडित अध्वान होता है। यह परमा १ आवलिअसंखभागा इच्छिदगच्छघणमाणमेत्ताओ । देसावहिस्स खेते काले वि य होंति संगमगे ॥ गो. जी. ४१७. क. क. ७० Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० ] छक्खंडागमे यणाखंड [ ४, १, ४. . परमोहिउक्कस्सखेत्तं तेउक्काइयकायट्ठिदीदो थोवं, ते उक्काइयअद्धच्छेदणेहिंतो दुगुणसादिरेयमेत्तवग्गसलागत्तादो । उक्कायकायट्ठिदी बहुआ, तेउक्काइयरासीदो उवरि असंखेज्जलोगमेत्तवग्गट्ठाणाणि गंतूणुप्पण्णवग्गसलागत्तादो । एदं परमोहिउक्कस्सखेत्तं तेउक्काइयकायट्ठिदीदो हेट्ठा असंखेज्जलागमेत्तवग्गट्टाणाणि ओसरिय ट्ठिदं आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणिदपरमोहिचरिमअणवट्ठिदगुणगारेण गुणिदे ओहिणिबद्धखेत्तं ण उप्पज्जदि, परमोहिखेत्तस्स असंखेज्जदिभागेणेदेण गुणगारेण परमोहिखेत्ते गुणिदे तदुवरिमवग्गस्स वि अप्पत्तदो । पुणो द्दहो गुणगारो होदित्ति वुत्ते वुच्चदे - परमोहिखेतेण ते उक्काइय कायट्ठिदि-ओहिणिबद्धखेत्तण्णोण्णगुणगारवग्गद्धछेदणयसलागाणमुवरि असंखेज्जलेोगमेत्तवग्गट्ठाणाणि गंतूण दिओहिणिबद्धखेत्तम्मि भागे हिदे लद्धमेत्तो गुणगारो होदि, ण अण्णा; उत्तदोसप्प संगादो । परमोहिकालं पि तप्पा ओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे सव्वा हिउक्कस्सकालो हो । एसो एक्को चेव लोगो, परमोहि सव्वोहीओ असंखेज्जलोगे जाणंति त्ति कथं घडदे ? ण एस दोसो, सव्वो पोग्गलरासी जदि' असंखेज्जलोगे आबूरिऊण अवचेदितो 2 वधिका उत्कृष्ट क्षेत्र तेजकायिक जीवोंकी कार्यस्थिति से स्तोक है, क्योंकि, तेजकायिक राशिके अर्धच्छेदोंसे कुछ अधिक दुगुणे प्रमाण उसकी वर्गशलाकायें हैं। तेजकायिकों की कायस्थिति बहुत है, क्योंकि, तेजकायिक राशिसे ऊपर असंख्यात लोक मात्र वर्गस्थान जाकर उसकी वर्गशलाकार्ये उत्पन्न होती हैं । तेजकायिकों की कार्यस्थिति से नीचे असंख्यात लोक - मात्र वर्गस्थानों को छोड़कर स्थित इस परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित परमावधिके अन्तिम अनवस्थित गुणकारसे गुणा करनेपर अवधिनिबद्ध क्षेत्र नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, परमावधिके क्षेत्रके असंख्यातवें भाग रूप इस गुणकारसे परमावधिके क्षेत्रको गुणित करनेपर उसका उपरिम वर्ग भी नहीं उत्पन्न होता । शंका- तो फिर कितना गुणकार है ? समाधान - ऐसा पूछने पर कहते हैं - परमावधिके क्षेत्रका तेजकायिकों की कायस्थिति और अवधिनिबद्ध क्षेत्रके परस्पर गुणकारके वर्गकी अर्धच्छेद शलाकाओंके ऊपर असंख्यात लोक मात्र वर्गस्थान जाकर स्थित अवधिनिबद्ध क्षेत्र में भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र गुणकार होता है, अन्य नहीं; क्योंकि, उक्त दोषका प्रसंग आता है। परमावधिके कालको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणा करनेपर सर्वावधिका उत्कृष्ट काल होता है । शंका- यह एक ही लोक है, परमावधि और सर्वावधि असंख्यात लोकोंको जानते हैं, यह कैसे घटित होता है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यदि सब पुद्गल राशि असंख्यात १ प्रतिषु ' जदि वि ' इति पाठः । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५.) कदिअणियोगद्दारे केवलणाणपरूवणा वि जाणंति ति तेसिं सत्तिप्पदंसणादो। परमोहि-सव्वोहीणं जिणत्ताविणाभाविणीणं किमहूं जिणविसेसणं कीरदे? सच्चमेदं, किंतु एत्थ सव्व-परमोहीओ विसेसण जिणा विसेसियं, अणेयपयाराणमाहारत्तादो । तेण ण दोसो त्ति सिद्धं । सर्वावधयश्च ते जिनाश्च सर्वावधिजिनाः, तेभ्यो नमः । (णमो अणंतोहिजिणाणं ॥५॥) अणते त्ति उत्ते उक्कस्सअणंतस्स गहणं, दव्वट्ठियणयावलंबणादो । सो उक्कस्साणंतो ओही जस्स सो' अणंतोही । ओही णाम वत्थुणिबंधणा । ण च एत्थ उक्कस्साणंतादो बज्झं किं पि अत्थि, तम्हा उक्कस्साणतस्स ओहित्तं ण जुज्जदि त्ति ? ण, ओही व ओहि ति उव-. यारेण उक्कस्साणतस्स ओहित्तविरोहाभावादो। ओही किमुक्कस्साणंतादो पुधभूदा आहो ..................... लोकोंको पूर्ण करके स्थित हो तो भी वे जान लेंगे। इस प्रकार उनकी शक्तिका प्रदर्शन किया गया है। शंका-जिनत्वके साथ अविनाभाव रखनेवाले परमावधि और सर्वावधिके जिन विशेषण किसलिये किया जाता है ? । समाधान- यह सत्य है, किन्तु यहां सर्वावधि और परमावधि विशेषण है और जिन विशेष्य है, क्योंकि, वे अवधिज्ञानके अनेक प्रकारोंके आधार हैं; अतएव उक्त विशेषण-विशेष्य भावमें कोई दोष नहीं है, यह सिद्ध है। सर्वावधि रूप जो जिन हैं वे सर्वावधि जिन हैं, उनके लिये नमस्कार हो । अनन्तावधि जिनोंको नमस्कार हो ॥५॥ 'अनन्त' इस प्रकार कहनेपर उत्कृष्ट अनन्तका ग्रहण है, क्योंकि, यहां द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है । वह उत्कृष्ट अनन्त है अवधि जिसकी वह अनन्तावधि है। शंका-अवधि वस्तु निमित्तक होती है। और यहां उत्कृष्ट अनन्तसे बाह्य कोई भी वस्तु है नहीं, अतः उत्कृष्ट अनन्तको अवधिपना उचित नहीं है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'अवधिके समान जो है यह अवधि है' इस प्रकार उपचारसे उत्कृष्ट अनन्तको अवधि माननेमें कोई विरोध नहीं हैं। शंका-अवधि क्या उत्कृष्ट अनन्तसे पृथग्भूत है, अथवा उत्कृष्ट अनन्त ही अवधि १ प्रतिषु 'ओहि विस्स सो' इति पाठः । २अप्रतौ णामादो', आ-काप्रत्योः । णामदो' इति पाठः। Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,१, ५. उक्कस्साणंतो चेव ओहि त्ति-१ ण पढमपक्खो, उक्कस्साणंतादो वदिरित्तदव्व-पज्जायाणमणुवलंभादो । ण च उक्कस्साणंतो चेव ओही, उक्कस्साणंतस्स दोसु वि पासेसु अण्णेसिमभावण तस्स ओहित्तविरोहादो त्ति ? ण पढमपक्खो, अणब्भुवगमादो । ण बिदियपक्खुत्तदोसो 'वि संभवदि, अभिविहिग्गहणादो । ण च एक्कम्हि दुब्भावो विरुज्झदे, अणेयंते एक्कम्हि तदविरोहादो । अधवावयविणासाणं वाचओ अंतसद्दो घेत्तव्यो । ओही मज्जाया उक्कस्साणंतादो पुधभूदा । अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तो यस्य स अनन्तावधिः । अभेदाज्जीवस्यापीय संज्ञा । अनन्तावधयश्च ते जिनाश्च अनन्तावधिजिनाः। तेभ्यो नमः । - अणंतोहिजिणा णाम केवलणाणिणो, तदो ते सव्वजिणेहिंतो महल्ला । तेसिं पुब्वमेव णमोक्कारो किण्ण कदो? ण, केवलणाणमहल्लत्तजाणावणगुणेण केवलणाणादो महल्लाए सव्वोहीए पुल्वमेव णमोक्कारकरणे विरोहाभावादो। मिच्छत्तादो सम्मत्तस्स माहप्पं जाणिज्जदि त्ति सम्मत्तभत्तीए मिच्छत्तस्स णमोक्कारो किण्ण कीरदे ? ण एस दोसो, है ? इनमें प्रथम पक्ष तो बनता नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनन्तको छोड़कर द्रव्य व उनकी पर्यायें पायी नहीं जाती। और वह उत्कृष्ट अनन्त ही हो सो भी नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट अनन्तके दोनों ही पार्श्व भागोंमें अन्य वस्तुओंका अभाव होनेसे उसे अवधि मानने में विरोध है ? .. समाधान-शंकाकारने जिन दो पक्षोंमें दोष दिखाये हैं उनमेंसे प्रथम पक्ष तो है ही नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार ही नहीं किया गया। द्वितीय पक्षमें कहा गया दोष भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, यहां अभिविधिका ग्रहण है। दूसरी बात यह कि एक वस्तुमें द्वित्वका विरोध भी नहीं है, क्योंकि, अनेकान्तका आश्रय कर एकमें द्वित्वका अविरोध है । अथवा, यहां अवयविनाशोंका वाचक अन्त शब्द ग्रहण करना चाहिये। अवधिका अर्थ मर्यादा है। वह उत्कृष्ट अनन्तसे पृथग्भूत है। अन्त और अवधि जिसके नहीं हैं वह अनन्तावधि पद होनेसे जीवकी भी यह संज्ञा है। अनन्तावधि रूप जो जिन वे अनन्तावधि जिन हैं, उनको नमस्कार हो। शंका-अनन्तावधिका अर्थ केवलज्ञानी है, इसलिये वे सर्वावधि जिनोंसे महान् हैं । उनको पहिले ही नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान -नहीं, क्योंकि, केवलज्ञानके माहात्म्यका ज्ञान कराने रूप गुणकी अपेक्षा केवलज्ञानसे सर्वावधि महान् है । अतएव उसे पहिले ही नमस्कार करने में कोई विरोध नहीं है। शंका-मिथ्यात्वसे चूंकि सम्यक्त्वका माहात्म्य जाना जाता है, अतः सम्यक्त्वकी भक्तिमें मिथ्यात्वको नमस्कार क्यों नहीं किया जाता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिस प्रकार मति, श्रुत और अवधि Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६. ] कदिअणियोगद्दारे कोट्टबुद्धिरिद्धिपरूवणा ( ५३ जहा मदि-सुद-ओहिणाणेहिंतो केवलणाणमाहध्पमवगम्मदे तहा मिच्छत्तादो सम्मत्तमाहप्पस्स अवगमाभावादो । णच जो जस्स भत्ता मित्तो वा सो तव्विरोहीणं भर्त्ति कुणइ, विरोहायो । पच्छाणुपुव्विकमपदंसणङ्कं वा देसोहिजिणादीणं पुव्वं णमोक्कारो को | संपधि सुद-मणपज्जवणाणत्तवाई मदिणाणपुव्वा इदि कट्टु महणाणम्मि समुप्पण्णसद्ध गोदममडास्ओ उत्तरसुतेहि मदिणाणीणं णमोक्कारं कुणदि णमो को बुद्धीणं ॥ ६ ॥ ― कोष्ठयः शालि-व्रीहि-यव-गोधूमादीनामाधारभूतः कुस्थली' पल्यादिः । सा चासेर्सदव्यपज्जायधारणगुणेण कोट्ठसमाणा बुद्धी कोट्ठो, कोट्ठा च सा बुद्धी च कोट्ठबुद्धी' । एदिस्से अत्थधारणकालो जहणेण संखेज्जाणि उक्कस्सेण असंखेज्जाणि वासाणि । कुदो ? ' ज्ञानोंसे केवलज्ञानका माहात्म्य जाना जाता है उस प्रकार मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वका माहात्म्य नहीं जाना जाता। दूसरे, जो जिसका भक्त अथवा मित्र होता है वह उसके विरोधियों की भक्ति नहीं करता है, क्योंकि, ऐसा करनेमें विरोध है । अथवा, पश्चादानुपूर्वी अर्थात् विपरीत क्रम दिखलानेके लिये देशावधि जिनादिकों को पूर्वमें नमस्कार किया है । काल अब श्रुत और मनःपर्यय ज्ञान तथा तप आदि चूंकि मतिज्ञानपूर्वक होते हैं अतः मतिज्ञानमें श्रद्धा उत्पन्न होनेसे गौतम भट्टारक उत्तर सूत्रले मतिज्ञानियोंको नमस्कार करते हैं कोष्ठबुद्धि धारक जिनको नमस्कार हो ॥ ६ ॥ शालि, व्रीहि, जौ और गेहूं आदिके आधारभूत कोथली, पल्ली आदिका नाम कोष्ठ है । समस्त द्रव्य व पर्यायोंको धारण करने रूप गुणसे कोष्ठके समान होनेसे उस बुद्धिको भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठ रूप जो बुद्धि वह कोष्ठबुद्धि है । इसका अर्थधारणकाल जघन्यसे संख्यात वर्ष और उत्कर्षसे असंख्यात वर्ष है, क्योंकि, ' असंख्यात और १ प्रतिषु ' कुस्थनी ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' सादासेस-' इति पाठः । ३ उक्करिसधारणाए जुत्तो पुरिसो गुरूवएसेणं । णाणाविहगंथेसुं वित्थारे लिंगसइबीजाणि ॥ गहिऊन नियमदीए मिस्सेण विणा घरेबि मदिकोट्ठे । जो कोइ तस्स बुद्धी णिद्दिट्ठा कोट्ठबुद्धि चि ॥ ति. प. ४, ९७८, ९७९. कोष्ठागारिकस्थापितानामसंकीर्णानामविनष्टानां भूयसां धान्यबीजानां यथा कोष्ठेऽवस्थानं तथा परोपदेशादनवधारितानामर्थ प्रन्थबीजानां भूयसामव्यतिकीर्णाना बुद्धाववस्थानं कोष्ठबुद्धिः । त. रा. ३, ३६, २. कोट्टयम नसुनिगल सुतत्था कोट्ठबुद्धीया ॥ प्रवचनसारोद्धार १५०२. Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ६. मसंखं संखं च धारणा ' त्ति सुत्तुवलंभादो । कुदो एदं होदि ? धारणा वरणीयस्स कम्मस्स तिव्वखओवसमादो । बुद्धिमंताणं पि कोट्ठबुद्धी सण्णा, गुण-गुणीणं भेदाभावादो । जिणसद्दो उवरि सव्वत्थ पवाहसरूवेण अणुवट्टावेदव्वा, अण्णा सुत्तट्टाणुववत्तदो । जदि जिणसद्दो णुवट्टदे' तो देस-परम-सव्वाणतो हिकिदियकम्मसत्तेसु किमहं जिणसह । उच्चदे ? ण, तदणुव्युत्तिरपदंसणङ्कं तत्थ तदुत्तदो । तदो णमो कोट्ठबुद्धीणं जिणाणमिदि सिद्धं ! धारणामदिणाणजिणाणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, कोट्ठबुद्धीए अवगाहिदासे संधारणाणाणवियप्पाए णमोक्कारे कदे सव्वधारणाणं णमोक्कारसिद्धीदो । मदिणाणादो ओहि केवलगाणाणं विसयविसेसावगमादो तदुष्पत्तिकारणादो च पुव्वमेव मदिणाणीणं णमोक्कारो किण्ण करेदि ? संख्यात काल तक धारणा रहती है ' ऐसा सूत्र पाया जाता है । शंका- यह कहांसे होता है ? समाधान -धारणावरणीय कर्मके तीव्र क्षयोपशमसे होता है । उक्त बुद्धिके धारकों की भी कोष्ठबुद्धि संज्ञा है, क्योंकि, गुण और गुणीके कोई भेद नहीं है । जिन शब्दकी ऊपर सर्वत्र प्रवाह रूपसे अनुवृत्ति लेना चाहिये, क्योंकि, उसके विना सूत्रोंका अर्थ नहीं बनता । "शंका - यदि जिन शब्दकी अनुवृत्ति लेते हैं तो फिर देशावधि, परमावधि, सर्वाधि और अनन्तावधि धारकोंके नमस्कार सूत्रोंमें जिन शब्दका उच्चारण किसलिये किया है ? - समाधान- नहीं, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्तिको दिखलानेके लिये वहां जिन शब्द कहा है । इसलिये ' कोष्ठबुद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो' ऐसा सिद्ध हुआ । शंका - धारणामतिज्ञानी जिनोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान — नहीं किया, क्योंकि, समस्त धारणाज्ञानके विकल्पोंका अवगाहन करनेवाली कोष्ठबुद्धिको नमस्कार करनेपर सब धारणाज्ञानियों को नमस्कार सिद्ध है । शंका - मतिज्ञानसे अवधि और केवल ज्ञान के विषय की विशेषताका ज्ञान होने से तथा उनकी उत्पत्तिका कारण होने से पहिले ही मतिज्ञानियोंको नमस्कार क्यों नहीं करते ? १ अ आप्रत्योः णुववहृदे ' इति पाठः । २ अप्रतौ तदणुववत्ति', आप्रतौ ' तदणुव्वति ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' णमोक्कार बुद्धीणं ' इति पाठः । . ४ प्रतिपु ' अवगाहदासेस ' इति पाठः । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७. ] कदिअणियोगद्दारे बीजबुद्धिरिद्धिपरूवणा [ ५५ ण, गोमदथेराणमेत्थ एवंविहभावाभावादो । तदभावो कुदो वगम्मदे ? मदिणाणीणं पुव्वं किदिकम्माकरणादो । परोक्खं मदिणाणं, ओहि केवलाणि पच्चक्खाणि; इंदियजं मदिणाणं, ओहि केवलणाणाणि अनिंदियाणि त्ति मदिणाणादो ओहि केवलणाणमाहप्पं पेक्खिय तेसिमग्गपूजा कदा | गोदमथेरस्स एसो अहिप्पाओ त्ति कथं णव्वदे ? अहिप्पायाविणाभाविवयणकज्जादो | बीजबुद्धिआदीणमग्गगूजा किण्ण कदा ? ण, तत्तो धारणाए गुणगरिमुवलंभादो । कुदो ? धारणाए विणा बीजबुद्धिआदीणं विहलत्तुवलंभादो । णमो बीजबुद्धीणं ॥ ७ ॥ जिणाणमिदि अणुवट्टदे' । तदो णमो बीजबुद्धीणं जिणाणमिदि एद्दहं सुत्तमिदि समाधान नहीं करते, क्योंकि, गौतम स्थविरका यहां ऐसा अभिप्राय नहीं है । शंका- -उनका ऐसा अभिप्राय नहीं रहा, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान - मतिज्ञानियोंको पहिले नमस्कार न करने से उनके उक्त अभिप्रायका अभाव जाना जाता है । मतिज्ञान परोक्ष है, किन्तु अवधि और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष है; मतिज्ञान इन्द्रियजन्य है और अवधि व केवल ज्ञान अतीन्द्रिय हैं; इस प्रकार मतिज्ञानसे अवधि और केवल ज्ञानके माहात्म्यकी अपेक्षा करके उनकी पहिले पूजा की है । शंका- गौतम स्थविरका ऐसा अभिप्राय रहा है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - उक्त अभिप्रायके विना न होनेवाले वचन रूप कार्यसे वह जाना जाता है । शंका - बीजबुद्धि आदिके धारकोंकी पहिले पूजा क्यों नहीं की ? समाधान - - नहीं की, क्योंकि, बीजबुद्धि आदिकी अपेक्षा धारणाके गुणगौरव अधिक पाया जाता है । कारण कि धारणाके विणा बीजबुद्धि आदिकोंकी विफलता देखी जाती है। बीजबुद्धि धारक जिनको नमस्कार हो ॥ ७ ॥ यहां 'जिनोंको ' पदकी अनुवृत्ति है । इस कारण बीजवुद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो, इस प्रकार इतना सूत्र है; ऐसा ग्रहण करना चाहिये । बीजके समान बीज १ अआप्रत्योः ' अणुववट्टदे ' इति पाठः । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १,७. घेत्तव्वं । वीजमिव बीजं । जहा बीजं मूलंकुर-पत्त-पोर-क्खंद'-पसव-तुस-कुसुम-खीरतंदुलादीणमाहारं तहा दुवालसंगत्थाहारं जं पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीजं । बीजपदविसयमदिणाणं पि बीजं, कज्जे कारणोवयारादो । संखेज्जसद्दअणंतत्थपडिबद्धअणतलिंगेहि सह बीजपदं जाणंती बीजबुद्धि त्ति भणिदं होदि। ण चीजबुद्धी अणंतत्थपडिबद्धअणंतलिंगबीजपदमवगच्छदि, खोवसमियत्तादो त्ति ? ण', खओवसमिएण परोक्खण सुदणाणेण केवलणाणविसईकयाणंतस्थाण जहा परिच्छेदो कीरदे परोक्खसरूवेण, तहा मदिणाणेण वि अणंतत्थपरिच्छेदो सामण्णसरुवण कीरदे; विरोहाभावादो। जदि सुदणाणिस्स विसओ अणंतसंखा होदि तो जमुक्कस्ससंखेज्जं विसओ चोद्दसपुनिस्से त्ति परिमम्मे उत्तं तं कधं घडदे ? ण एस दोसो, उक्कस्स ---rrrrri कहा जाता है। जिस प्रकार बीज मूल, अंकुर, पत्र, पोर, स्कन्ध, प्रसव, तुष, कुसुम, क्षीर और तंदुल आदिकोंका आधार है उसी प्रकार बारह अंगोंके अर्थका आधारभूत जो पद है वह बीज तुल्य होनेसे बीज है। बीज पद विषयक मतिज्ञान भी कार्यमें कारणके उपचारसे बीज है । संख्यात शब्दोंके अनन्त अर्थोसे सम्बद्ध अनन्त लिगोंके साथ बीज पदको जाननेवाली बीजबुद्धि है, यह तात्पर्य है। शंका-बीजबुद्धि अनन्त अर्थोंसे सम्बद्ध अनन्त लिंग रूप बीजपदको नहीं जानती, क्योंकि, वह क्षायोपशमिक है ? समाधान नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार क्षयोपशम जन्य परोक्ष श्रुतज्ञानके द्वारा केवलहानसे विषय किये गये अनन्त अर्थोका परोक्ष रूपसे ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मतिशामके द्वारा भी सामान्य रूपसे अनन्त अाँको ग्रहण किया जाता है, क्योकि, इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका-यदि श्रुतज्ञानका विषय अनन्त संख्या है तो 'चौदहपूर्वीका विषय उत्कृष्ट संख्यात है' ऐसा जो परिकर्ममें कहा है वह कैसे घटित होगा? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट संख्यातको ही जानता है, .......................................... १ प्रतिषु 'पोरकंद ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' जाणंति' इति पाठः । ३ गोइंदियसुदणाणावरणाणं वीरअंतरायाए । तिविहाणं पगदीणं उक्कस्सखउवसमविसुद्धस्स ॥ संखेज्जसरूपाणं सदाणं तत्थ लिंगसंजुत्तं । एक् चिय बीजपद लडूण परोपदेसेणं || तम्मि पदे आधारे सयलसुदं चिंतिऊण गणेवि । कस्स नि मदेसिणो जा बुद्धीमा जीजबुद्धि ति॥ ति. प. ४, ९७५-९७७. सुकृष्टसुमथान्विते (सुमथिते) क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथानेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइन्द्रियावरण श्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सति एकबीजपदग्रहणादनेकपदार्थप्रतिपत्ति/जबुद्धिः। त.रा.३,३६,२.जो अत्थपएणऽत्थं भशुसरह स बीयवुद्धी ओ (उ)| प्रवचनसारोद्धार १५०३. ४ अप्रतौण' इति पदं नोपलभ्यते । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७.] कदिअणियोगद्दारे बीजबुद्धिरिद्धिपरूवणा (५७ संखेज्जं चेव जाणदि त्ति तत्थ णियमाभावादो । णासेसपयत्था सुदणाणेण परिच्छिज्जंति, (पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणमिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो सुदणिबद्धो ॥ १७ ॥) इदि क्यणादो त्ति उत्ते होदु णाम सयलपयत्थाणमणंतिमभागो दव्वसुदणाणविसओ, मावसुदणाणविसओ पुण सयलपयत्था; अण्णहा तित्थयराणं वागदिसयत्ताभावप्पसंगादो । [ वदो ] बीजपदपरिच्छेदकारिणी बीजबुद्धि त्ति सिद्धं । बीजपदट्टिदपदेसादो हेहिमसुदणाणुप्पत्तीए कारणं होदूण पच्छा उवरिमसुदणाणुप्पत्तिणिमित्ता बीजबुद्धि त्ति के वि. आइरिया भणति । तण्ण घडदे, कोहबुद्धियादिचदुण्हं णाणाणमक्कमेणेक्कम्हि जीवे सव्वदा अणुप्पत्तिप्पसंगादो । तं कधं ? बीजबुद्धिसहिदजीवे ण ताव अणुसारी पडिसारी वा संभवदि, उहय ऐसा यहां नियम नहीं है। शंका-श्रुतज्ञान समस्त पदार्थोंको नहीं जानता है, क्योंकि, वचनके अगोचर ऐसे जीवादिक पदार्थोके अनन्तवें भाग प्रशापनीय अर्थात् तीर्थकरकी सातिशय दिव्य ध्वनिमें प्रतिपाद्य होते हैं। तथा प्रज्ञापनीय पदार्थोके अनन्तवें भाग द्वादशांग श्रुतके विषय होते हैं ॥ १७ ॥ इस प्रकारका वचन है। समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं कि समस्त पदार्थोंका अनन्तवां भाग द्रव्य श्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव श्रुतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ हैं; क्योंकि, ऐसा माननेके विना तीर्थकरोंके वचनातिशयके अभावका प्रसंग होगा। [इसलिये]. बीजपदोंको ग्रहण करनेवाली बीजबुद्धि है, यह सिद्ध हुआ। बीजपदसे अधिष्ठित प्रदेशसे अधस्तन श्रुतके ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होकर पीछे. उपरिम श्रुतके ज्ञानकी उत्पत्तिमें निमित्त होनेवाली बीजबुद्धि है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि,ऐसा माननेपर कोष्ठबुद्धि आदि चार शानोंकी युगपत् एक जीवमें सर्वदा उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। शंका-वह कैसे? समाधान-बीजबुद्धि सहित जीवमें अनुसारी अथवा प्रतिसारी बुद्धि सम्भव १गो. जी. ३३४. विशे. भा. १४१. २ प्रतिषु 'वागतिसयत्थाभाव.' इति पाठः। छ. क. ८. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७. दिसाविसयसुदणाणजणणक्खमबीजबुद्धिमहिट्ठिदजीवे बीजबुद्धिविरुद्धाणमणु-पडिसारीणमवठाणविरोहादो। णोभयसारी वि, हेट्ठिमसुदणाणुप्पत्तीए कारण होदूणुवरिमंसुदणाणुप्पत्तीए कारणं होदि ति णियमपडिबद्धबीजबुद्धिमहिट्ठिदजीवे अणियमेणुहयदिसाविसयसुदणाणुप्पायणसहावोभयसारिबुद्धीए अवट्ठाणविरोहादो। ण च एक्कम्हि जीवे सव्वदा चदुण्हं घुद्धीणं अक्कमेण अणुपत्ती चेव, र बुद्धि तवो वि य लद्धी विउवणलद्धी तहेव ओसहिया । रस-बल अक्खीणा वि य लद्धीओ सत्त पण्णत्ता ॥ १८ ॥ ति सुत्तगाहाए वक्खाणम्मि गणहरदेवाणं चदुरमलबुद्धीण दंसणादो । किं च अस्थि गणहरदेवेसु चत्तारि बुद्धीओ, अण्णहा दुवालसंगाणमणुप्पत्तिप्पसंगादो। तं कधं ? ण ताव तत्थ कोहबुद्धीए अभावो, उप्पणसुदणाणस्स अवट्ठाणेण विणा विणासप्पसंगादो। ण बीजबुद्धीए अभावो, ताए विणा अणवगयतित्थवरवयणविणिग्गयअक्खराणक्खरप्पयबहुलिंगालिंगियबीज ................ नहीं हैं, क्योंकि, उभय [अधस्तन व उपरिम] दिशा विषयक श्रुतज्ञानके उत्पन्न करने में समर्थ ऐसी बीजबुद्धिको प्राप्त जीवमें बीजबुद्धिके विरुद्ध अनुसारी और प्रतिसारी बुद्धियोंके अवस्थानका विरोध है। उभयसारी बुद्धि भी सम्भव नहीं हैं, क्योंकि, 'वह अधस्तन श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होकर उपरिम श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण होती है' ऐसे नियमसे सम्बद्ध बीजबुद्धि युक्त जीवमें अनियमसे उभय दिशा विषयक श्रुतज्ञानको स्वमावसे उत्पन्न करनेवाली उभयसारी बुद्धिके अवस्थानका विरोध है। और एक जीवमें सर्वदा चार बुद्धियोंकी एक साथ उत्पत्ति हो ही नहीं, ऐसा है नहीं; क्योंकि, बुद्धि, तप, विक्रिया, औषधि, रस, बल और अक्षीण, इस प्रकार ऋद्धियां सात कही गई हैं ॥ १८॥ इस सूत्रगाथाके व्याख्यानमें गणधर देवोंके चार निर्मल बुद्धियां देखी जाती हैं । तथा गणधर देवोंके चार वुद्धियां होती हैं, क्योंकि, उनके विना बारह अंगोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा। शंका-बारह अंगोंकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग कैसे होगा ? समाधान- गणधर देवोंमें कोष्ठबुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अवस्थानके विना उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानके विनाशका प्रसंग आवेगा। बीजबुद्धिका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि, उसके विना गणधर देवोंको तीर्थकरके मुखसे निकले हुए अक्षर १ प्रतिषु — कारणमहोदूणुवरिम; ' इति पाठः । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ८.] कदिअणियोगद्दारे पदाणुसारिरिद्विपरूवणा (५९ पदाणं गणहरदेवाणं दुवालसंगाभावप्पसंगादो । बीजपदसरूवावगमो बीजबुद्धी, तत्तो दुवालसंगुष्पत्ती । ण च ताए विणा तमुप्पज्जदि, अइप्पसंगादो । ण च तत्थ पदाणुसारिसण्णिदणाणाभावो, बीजबुद्धीए अवगयसरूवेहिंतो कोहबुद्धीए पत्तावट्ठाणेहिंतो . बीजपदेहितो ईहावाएहि विणा बीजपदुभयदिसाविसयसुदणाणक्खर-पद-वक्क-तदट्ठबिसयसुदणाणुप्पत्तीए अणुववत्तीदो । ण संभिण्णसोदारत्तस्स अभावो, तेण विणा अक्खराणक्खरप्पाए सत्तसदट्ठारसकुभास-भाससरूवाए णाणाभेदभिण्णबीजपदसरूवाए पडिक्खणमण्णण्णभावमुवगच्छंतीए दिव्वज्झुणीए गहणाभावादो दुवालसंगुप्पत्तीए अभावप्पसंगो त्ति । तम्हा बीजपदसरूवावगमो बीजबुद्धि त्ति सिद्धं । ततो भेदाभावादो जीवो वि बीजबुद्धी । तेर्सि बीजबुद्धीणं जिणाणं णमो इदि वुत्तं होदि । एसा कुदो होदि १ विसिट्ठोग्गहावरणीयक्खओवसमादो । (णमो पदाणुसारीणं ॥ ८॥ और अनक्षर स्वरूप बहुत लिंगालिंगिक बीजपदोंका ज्ञान न होनेसे द्वादशांगके अभावका प्रसंग आवेगा। बीजपदोंके स्वरूपका जानना बीजबुद्धि है, इससे द्वादशांगकी उत्पत्ति होती है । उस बीजबुद्धिके विना द्वादशांगकी उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि, ऐसा होनेमें अतिप्रसंग आता है। उनमें पदानुसारी नामक ज्ञानका अभाव नहीं हैं, क्योंकि, बीजबुद्धिसे जाना गया है स्वरूप जिनका तथा कोष्ठबुद्धिसे प्राप्त किया है अवस्थान जिन्होंने ऐसे बीजपदोंसे ईहा और अवायके विना बीजपदकी उभय दिशा विषयक श्रुतज्ञान तथा अक्षर, पद, वाक्य और उनके अर्थ विषयक श्रुतज्ञानकी उत्पत्ति बन नहीं सकती। उनमें संभिन्नश्रोतृत्वका अभाव नहीं है, क्योंकि, उसके विना अक्षरानक्षरात्मक, सात सौ कुभाषा और अठारह भाषा स्वरूप, नाना भेदोसे भिन्न बीजपद रूप, व प्रत्येक क्षणमें भिन्न भिन्न स्वरूपको प्राप्त होनेवाली ऐसी दिव्यध्वनिका ग्रहण न होनेसे द्वादशांगकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग होगा। इस कारण बीजपदोंके स्वरूपका जानना बीजवुद्धि है, ऐसा सिद्ध हुआ । उक्त बुद्धिसे भिन्न न होने के कारण जीव भी बीजवुद्धि है। उन बीजबुद्धिके धारक जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । शंका-यह बीजबुद्धि कहांसे होती है ? समाधान-वह विशिष्ट अवग्रहावरणीयके क्षयोपशमसे होती है । पदानुसारी ऋद्धिके धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ ८॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,१,८. एत्थ जिणसद्दो णुवट्टदे, तेण णमो पदाणुसारीणं जिणाणमिदि वत्तव्वं । पमाणमज्झिमादिपदेहि एत्थ पओजणाभावादो बीजपदस्स गहणं । पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी बुद्धिः । बीजबुद्धीए बीजपदमवगंतूण एत्थ इदं एदेसिमक्खराणं लिंग होदि ण होदि ति ईहिदूण सयलसुदक्खर-पदाइमवगच्छंती' पदाणुसारी । तेहि पदेहितो समुप्पज्जमाणं णाणं सुदणाणं ण अक्खर-पदविसयं, तेसिमक्खर-पदाणं बीजपदंतब्भावादों । सा च पदाणुसारी अणु-पदि-तदुभयसारिभेदेण तिविहो । बीजपदादो हेट्ठिमपदाइं चेव बीजपदट्ठियलिंगेण जाणंती पदिसारी णाम । उवरिमाणि चेव जाणंती अणुसारी णाम । दोपासट्ठियपदाइं णियमेण विणा णियमेण वा जाणती उभयसारी णाम । एदेसिं पदाणुसारिजिणाणं णिसुढिर्य • यहां जिन शब्दकी अनुवृत्ति आती है, इसलिये पदानुसारी ऋद्धि धारक जिनोंको ममस्कार हो, ऐसा कहना चाहिये। प्रमाण और मध्यम आदि पदोंसे यहां प्रयोजन न होने के कारण बीजपदका ग्रहण है। पदका जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीजबुद्धि से बीजपदको जानकर यहां यह इन अक्षरोका लिंग होता है और इनका नहीं, इस प्रकार विचार कर समस्त श्रुतके अक्षर-पदोंको जाननेवाली पदानुसारी बुद्धि है। उन पदोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रुतशान है, वह अक्षर-पदविषयक नहीं है क्योंकि, उन अक्षर-पदोंका बीजपदमें अन्तर्भाव है। वह पदानुसारी बुद्धि अनुसारी, प्रतिसारी और तदुभयसारीके भेदसे तीन प्रकार है । जो बीजपदसे अधस्तन पदोंको ही बीजपदस्थित लिंगसे जानती है वह प्रतिसारी बुद्धि है। जो उपरिम पदोंको ही जानती है वह अनुसारी बुद्धि है। दोनों पार्श्वस्थ पदोको नियमसे अथवा विना नियमके भी जो जानती है वह उभयसारी बुद्धि है । इन पदानुसारी जिनोंको नत होकर १ अप्रतो अवगच्छंतीति ' इति पाठः। २ अप्रती · जाणतीति ' इति पाठः । ३ बुद्धी वियवखणाणं पदाणुसारी स्वेदि तिविहप्पा । अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उमयसारी॥ आदि-अंवसाण-मज्झे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं। गेणिय उवारमगंथं जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी ॥ आदिअवसाण-मझे गुरूवदेसेण एक्कबीजपदं । गेण्हिय हेहिमगंथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी ॥ णियमेण अणियमेण य जगवं एगस्स बीजसद्दस्स । उवरिम-हेहिमगंथं जा बुज्झइ उमयसारी सा ॥ ति. प. ४, ९८०-९८३. पदानु. सारित्वं त्रेधा- अनुश्रोतः प्रति श्रोतः उभयथा चेति । एकं पदस्यार्थ परतः उपश्रुयादी अन्ते च मध्ये वा शेष धार्थावधारणं पदानुसारित्वम् ॥ त. रा. ३,३६, २. जो सुत्पएण बहुं सुयमणुधावह पयाणुसारी सो। प्रवचनसारोद्धार १५०३. ४ प्रतिषु 'निमुदिय' इति पाठः। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ९.1 फदिअणियोगद्दारे समिण्णसोदित्तपरूवणा णिवदिदो किदियम्मं करेमि त्ति भणिदं होदि । कुदो एदं होदि ? ईहावायावरणीयाणं 'तिव्वक्खओवसमेण । (णमो संभिण्णसोदाराणं ॥९॥ - जिणाणमिदि अणुवट्टदे। सम्यक् श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमेन भिन्नाः अनुविद्धाः संभिन्नाः, संभिन्नाश्च ते श्रोतारश्च संभिन्नश्रोतारः । अणेगाणं सदाणं अक्खराणक्खरसरूवाणं कधंचियाणमक्कमेण पयत्ताणं' सोदारा संभिण्णसोदारा त्ति णिद्दिष्टा । . नवनागसहस्राणि नागे नागे शतं रथाः । रथे रथे शतं तुर्गाः तुर्गे तुर्गे' शतं नराः ॥ १९॥ भूमिपतित हुआ नमस्कार करता हूं, यह सूत्रका अभिप्राय है। शंका-यह कहांसे होती है ? समाधान-ईहावरणीय और अवायावरणीयके तीन क्षयोपशमसे खेती है। संभिन्नश्रीता जिनोंको नमस्कार हो ॥ ९॥ 'जिनोंको' इस पदकी अनुवृत्ति आती है। सं अर्थात् भले प्रकार श्रोत्रेन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे जो भिन्न- अनुविद्ध अर्थात् सम्बद्ध हैं, वे संभिन्न हैं; संभिन्न ऐसे जो श्रोता नश्रोता हैं। कथंचित् युगपत् प्रवृत्त हुए अक्षर-अनक्षर स्वरूप अनेक शब्दोंके श्रोता संभिन्नश्रोता है, ऐसा निर्देश किया गया है। एक अक्षौहिणीमें नौ हजार हाथी, एक हाथोके आश्रित सौ रथ, एक एक रथके आश्रित सौ घोड़े और एक एक घोड़ेके आश्रित सौ मनुष्य होते हैं ॥ १९ ॥ १ प्रतिषु 'सोदारणं' इति पाठः । २ प्रतिषु 'अणुवषदे' शति पाठः । ३ प्रतिषु पमनाणं' इति पाठः। ४ सादिदियसुदणाणावरणाणं बीरियंतरायाए । उक्कस्सख उवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मम्मि || सोदुफस्सखिदीदो बाहिं संखेज्जजायणपएसे । संठियणर-तिरियाणं बहुविहसद्दे समूढते ।। अक्खर-अणक्खरमए मोदणं दसदिसासु पत्तेक्वं। जं दिज्जदि पडिवयणं तं चिय संभिण्णसोदित्तं ॥ ति. प. ४, ९८४-९८६. द्वादशयोजनायामे नवयोजनविस्तारे चक्रधरस्कंधावारे गज-वाजि-खरोष्ट्र-मनुष्यादीनां अक्षरानक्षररूपाणं नानाविधशब्दाना युगपदुत्पनाना तपोविशेषबललाभापादितसर्वजीवप्रदेशश्रोनेन्द्रियपरिणामात् सर्वेषामेककालग्रहणं संमिन श्रोतत्वम् ॥ त. रा. ३. ३६.२. जो मुणइ सवओ मुणइ सव्वविसए उ सव्वसोएहिं । सुणइ बहुए वि सद्दे मिन्ने संमिनसोओ सो॥ प्रवचनसारोद्धार १४९८. ५ प्रतिषु ' तुरगाः तुरगे तुरंगे' इति पाठः । स तु न छन्दोनियमानुसारी । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १०. (एदमेक्कक्खोहिणीए पमाणं । एरिसियाओ चत्तारि अक्खोहिणीओ सग-सगभासाहि अक्खराणक्खरसरूवाहि अक्कमेण जदि भणंति तो वि संभिण्णसोदारो अक्कमेण सव्वभासाओ घेत्तूण पदुप्पादेदि । एदेहितो संखेज्जगुणभासासंभलिदतित्थयरवयणविणिग्गयज्झुणिसमूहमक्कमेण गहणक्खमम्मि संभिण्णसोदारे ण चेदमच्छेरयं । कुदो एदं होदि ? बहुबहुविहक्खिप्पावरणीयाणं खओवसमेण । एदेसिं संभिण्णसोदाराणं जिणाणं णमो इदि उत्त्रं होदि । संपहि ओग्गह-ईहावाय-धारणजिणाणमेदेसु चेव अंतब्भावो होदि त्ति पुध णमोक्कारो ण कदो । उजुमदीणं णमोक्कारकरणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि (णमो उजुमदीणं ॥ १०॥) ___ परकीयमतिगतोऽर्थः उपचारेण मतिः । ऋज्वी अवका । कथमृजुत्वम् ? यथार्थमत्यारोहणात् यथार्थमभिधानगतत्वात् यथार्थमभिनयगतत्वाच्च । ऋधी मतिर्यस्य सः ऋजु यह एक अक्षौहिणीका प्रमाण है। ऐसी यादि चार अक्षौहिणी अक्षर-अनक्षर स्वरूप अपनी अपनी भाषाओंसे युगपत् बोलें तो भी संभिन्नश्रोता युगपत् सब भाषाओंको ग्रहण करके उत्तर देता है। इमसे संख्यातगुणी भाषाओंसे भरी हुई तीर्थकरके मुखसे निकली ध्वनिके समूहको युगपत् ग्रहण करने में समर्थ ऐसे संभिन्नश्रोताके विषयमें यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है । शंका-यह कहांसे होती है ? समाधान-बहु, बहुविध और क्षिप्र ज्ञानावरणीय कर्मोंके क्षयोपशमसे होती है। इन संभिन्नश्रोता जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । अब अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा रूप जिनोंका चूंकि इन्हीं में अन्तर्भाव है, अतः उन्हें पृथक् नमस्कार नहीं किया। ऋजुमति जिनों को नमस्कार करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानियोंको नमस्कार हो ॥ १० ॥ - दूसरेकी मति अर्थात् मनमें स्थित अर्थ उपचारसे मति कहा जाता है। ऋजुका अर्थ वक्रता रहित है। ___ शंका ---ऋजुता कैसे है ? समाधान --- यथार्थ मतिका विषय होने, यथार्थ वचनगत होने और यथार्थ अभि . नय अर्थात् शारीरिक चेष्टागत होनेसे उक्त मतिमें ऋजुता है। ऋजु है मति जिसकी वह ऋजुमति कहा जाता है। सरलतासे मनोगत, सरलतासे Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १०.] कदिआणियोगद्वारे रिजुमदिपवणा मतिः । उज्मुवेण मणोगदं उज्जुवेण वचि-कायगदमत्थमुज्जुवं जाणतो तन्विवरीदमणुज्जुवमत्थमजाणतो मणपज्जवणाणी उजुमदि त्ति भण्णदे । अचिंतिदमणुत्तमणभिणइदमत्थं किमिदि ण जाणदे ? ण, विसिट्ठखओवसमाभावादो। मदिणाणेण वा सुदणाणेण वा मण-वचि-कायभेदं णादूण पच्छात्तत्थट्ठिदमत्थं पच्चक्खेण जाणंतस्स मणपज्जवणाणस्स दव्व-खेत्त-कालभावभेएण विसओ चउव्विहो । तत्थ उज्जुमदी एगसमइयमोरालियसरीरस्स णिज्जरं जहण्णेण जाणदि। सा तिविहा जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तओरालियसरीरणिज्जरा ति । तत्थ कं जाणदि ? तव्वदिरित्तं । कुदो ? सामण्णणिद्देसादो । उक्कस्सेण एगसमइयमिंदियणिज्जरं वचनगत व कायगत ऋजु अर्थको जाननेवाला, और उससे विपरीत वक्र अर्थको न जाननेघाला मनःपर्ययज्ञानी ऋजुमति कहा जाता है । शंका - ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी मनसे अचिन्तित, वचनसे अनुक्त और अनभिनीत अर्थात् शारीरिक चेष्टाके अविषयभूत अर्थको क्यों नहीं जानता है ? समाधान-- नहीं जानता, क्योंकि, उसके विशिष्ट क्षयोपशमका अभाव है। मतिक्षान अथवा श्रुतज्ञानसे मन, वचन व कायके भेदको जानकर पीछे वहां स्थित अर्थको प्रत्यक्षसे जाननेवाले मनःपर्ययज्ञानका विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके भेदसे चार प्रकार है। इनमें ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जघन्यसे एक समय सम्बन्धी औदारिक शरीरकी निर्जराको जानता है । शंका-वह औदारिक शरीरकी निर्जरा जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। उनमेंसे किस निर्जराको वह जानता है ? समाधान- तद्व्यतिरिक्त औदारिक शरीरकी निर्जराको जानता है, क्योंकि, यहां सामान्य निर्देश है। उक्त ज्ञान उत्कर्षसे एक समय सम्बन्धी इन्द्रियनिर्जराको जानता है। .................. १ रिउ सामन्नं तम्मत्तगाहिणी रिउमई मणोनाणं । पायं विसेसविमुहं घडमेतं चिंतियं मुणइ । प्रवचनसारोद्धार १४९९. २ प्रतिषु — मउत्त' इति पाठः । ३ यः कार्मणद्रव्यानन्तभागोऽन्यः सर्वावधिना ज्ञातस्तस्य पुनरनन्तभागीकृतस्यान्यो भागः ऋजुमतेविषयः | स. सि. १, २४. अवरं दवमुरालियसरीरणिज्जिण्णसमयबद्धं तु । चक्खिदियणिज्जिण्णं उक्करसं उजु. मादिस्स हवे ॥ गो. जी. ४५१. तत्थ दव्वओ णं उज्जुमई णं अणते अणंतपएसिए खंधे जाणइ पासइ ।। नं. सू. १८. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १,१०. जाणदि । ओरालियसरीसिंदियणिज्जराणं ण भेदो, इंदियवदिरित्तओरालियसरीराभावादो ति उत्ते ण एस दोसो, सबिंदियाणमग्गहगादो । पुणो किर्मिदियं घेप्पदि ? चक्खिदियं । कुदो? सेसेंदिएहितो अप्पपरिमाणत्तादो, सगारंभकपोग्गलखंधाणं सण्णहत्तादो वा । इदमेव इंदियं घेप्पदि त्ति कधं णव्वदे ? गुरूवदेसादो। घाण-सोदिदिएहिंतो चक्खिदियस्स महल्लत्तं दिस्सदे चे ण, चक्षुगोलयमज्झट्ठियाए मसूरियागाराए ताराए चक्खिदियत्तन्भुवगमादो । चक्खिदियणिज्जरा वि जहण्णुक्सस्स-तब्यदिरित्तभेएण तिविहा, तत्थ काए गहणं ? तव्वदिरित्ताए । कुदो ? सामग्णणिदेसादो । जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिमदव्ववियप्पे तव्वदिरित्ता उज्जुमदी जाणदि । खेतेण जहणं गाउवपुधत्तं, उक्कस्सेण जोयणपुधत्तं' । जहण्णुक्कस्स शंका-औदारिक शरीरनिर्जरा और इन्द्रियनिर्जराके बीच कोई भेद नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियोंसे भिन्न औदारिक शरीरका अभाव है ? समाधान-इस शंकापर कहते हैं कि यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, यहां सब इन्द्रियोंका ग्रहण नहीं है। शंका-फिर कौनसी इन्द्रियका ग्रहण है ? समाधान-चक्षुरिन्द्रियका ग्रहण है, क्योंकि, वह शेष इन्द्रियोंकी अपेक्षा अल्पप्रमाण रूप है व अपने आरम्भक पुद्गलोंकी श्लक्ष्णता अर्थात् सूक्ष्मतासे भी युक्त है। शंका-यही इन्द्रिय ग्रहण की गई है, यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान - यह गुरुके उपदेशसे जाना जाता है । शंका-घाण और श्रोत्र इन्द्रियकी अपेक्षा चक्षुरिन्द्रियके विशालता देखी . जाती है? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, चक्षुगोलकके मध्यमें स्थित मसूरके आकार ताराको चक्षुरिन्द्रिय स्वीकार किया है। शंका-चक्षुरिन्द्रियनिर्जरा भी जघन्य, उत्कृष्ट और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है, उनमें कौनसी निर्जराका ग्रहण है ? समाधान-तद्व्यतिरिक्त निर्जराका ग्रहण है, क्योंकि, उसका सामान्य निर्देश है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम द्रव्यविकल्पोंको तद्व्यतिरिक्त ऋजुमति मनापर्ययहानी जानता है। क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्यसे वह गम्यूतिपृथक्त्व और उत्कर्षसे क्षेत्रतो जघन्येन गव्यूतिपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण योजनपृथक्त्वस्याम्यन्तरं न बहिः । स. सि. १, २३. त. रा. १, २३, ९. गाउयपुधत्तमवरं सक्कस्सं होदि जोयणपुधत्तं ॥ गो. जी. ४५५. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १०.] कदिअणियोगद्दारे रिजुमदिपरूवणा (६५ खेत्ताणं मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्ता उजुमदी जाणदि । कालदो जहण्णेण दोण्णि भवग्गहणाणि जाणदि । तीदाणि अणागयाणि च भवग्गहणाणि दो चेव जाणदि, वट्टमाणेण सह तिण्णि' । ण वट्टमाणभवग्गहणं सुजाणंति तीदाणागयाउ-संपयासंपय-भुत्त-कय-पडिसेवियादिणाणासुहुमत्थाइण्णस्स सुजाणत्तविरोहादो । उक्कस्सेण सत्तहभवग्गहणाणि । तीदाणागयाणि सत्त, वट्टमाणेण सह अट्ठ भवग्गहणाणि जाणदि । जहण्णुक्कस्सकालाणं मज्झिमवियप्पं तव्वदिरित्तउज्जुमदी जाणदि । भावेण जहण्णुक्कस्सदव्वेसु तप्पाओग्गे असंखेज्जे भावे' जहण्णुक्कस्सउजुमदिणो जाणंति । एतेभ्यः ऋजुमतिजिनेभ्यो नमः । योजनपृथक्त्वको जानता है । जघन्य व उत्कृष्ट क्षेत्रके मध्यम विकल्पोंको तद्व्यतिरिक्त अजुमति मनःपर्ययज्ञान जानता है। कालकी अपेक्षा जघन्यसे दो भवग्रहणोंको जानता है। अतीत और अनागत दो ही भवग्रहणोंको जानता है। वर्तमान भवके साथ तीन भवोंको जानता है। किन्तु वर्तमान भवग्रहणको भले प्रकार नहीं जानते, क्योंकि, जो भव अतीत और अनागत आयु, सम्पत् , असम्पत् , भुक्त, कृत, प्रतिसेवित आदि नाना सूक्ष्म अर्थोंसे आकीर्ण है उसके सुज्ञातपना मानने में विरोध आता है। उत्कर्षसे सात-आठ भवग्रहणोंको जानता है। अतीत और अनागत सात, तथा वर्तमानके साथ आठ भवग्रहणों को जानता है । जघन्य और उत्कृष्ट कालके मध्यम विकल्पको तद्व्यतिरिक्त ऋजुमति मनःपर्ययशान जानता है। भावकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्योंमें उसके योग्य असंख्यात पर्यायों को जघन्य व उत्कृष्ट ऋजुमति जानते हैं। इन ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी जिनोंके लिये नमस्कार हो। खेत्तओ णं उज्जुमई अ जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जयभागं| उक्कोस्सेणं अहे जाव इमीसे रयणप्पमाए पुटवीए उवरिमहेडिल्ले खुड्डगपयरे, उड्ढे जाव जोइसस्स उवरिमतले, तिरियं जाव अंतोमणुस्सखित्ते अड्डाइज्जेसु दीव-समुद्देसु पारससु कम्मभूमिसु तीसाए अकम्मभूमिसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्निपंचिंदिआणं पज्जत्तआणं मणोगए भावे जाणा पासइ ॥ नं. सू. १८. १ तत्र ऋजुमतिर्मनःपर्ययः कालतो जघन्येन जीवानामात्मनश्च द्वि-त्रीणि भवग्रहणाणि, उत्कर्षेण सप्ताष्टौ गत्यागात्यदिमिः प्ररूपयति । स. सि. १, २३. त. रा. १, २३, ९. दुग-तिगभवा हु अवरं सत्तहमवा हवंति उक्कर । गो. जी. ४५७. कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखिज्जहभागं उक्कोसेण वि पलिओ. वमस्स असंखिज्जहभागं अतीयमणागयं वा कालं जाणह पासइ। नं. सू. १८. २ प्रतिषु ' भागे' इति पाठः। . ३ आवलिअसंखभाग अवरं च वरं च वरमसंखगुणं । गो. जी. ४५८. भावओ णं उज्जुमई अणंते मावे जाणइ पासइ सवभावाणं अणंतभागं जाणइ पासइ । नं. सू. १८. छ. क. ९. Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ११. ( णमो विउलमदीणं ॥ ११ ॥ परकीयमतिगतोऽर्थों मतिः। विपुला विस्तीर्णा । कुतो वैपुल्यम् ? यथार्थं मनोगमनात् अयथार्थ मनोगमनात् उभयथापि तदवगमनात् , यथार्थं वचोगमनात् अयथार्थ वचोगमनात् उभयथापि तत्र गमनात् , यथार्थ कायगमनात् अयथार्थ कायगमनात् ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । विपुला मतिर्यस्य सः विपुलमतिः । तद्योगाज्जिनोऽपि विपुलमतिः। उज्जुवाणुज्जुवमण-वचि-कायगय तेहि दोहि वि पयारेहि तेसिमगयमद्धगयं च वत्थु जाणतस्स विउलमदिस्स जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तदव्व-खेत्त-काल-भावाणं परूवणा कीरदे-दव्वदो जहण्णेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। उज्जुमदिउक्कस्सदव्वमेव कधं विउलमदिस्स तत्तो बहुवयरस्स विसओ होदि ? ण, चक्खिदियस्स णिज्जराए अजहण्णुक्कस्साए अणंतवियप्पाए उजुमदि विपुलमति जिनोंको नमस्कार हो ॥ ११ ॥ दूसरेकी मतिमें स्थित पदार्थ मति कहा जाता है । विपुलका अर्थ विस्तीर्ण है। शंका-विपुलता किस कारणसे है ? समाधान - यथार्थ मनको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ मनको प्राप्त होनेसे और दोनों प्रकारसे भी मनको प्राप्त होनेसे; यथार्थ वचनको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ वचनको प्राप्त होनेसे और उभय प्रकारसे मी उसमें प्राप्त होने से; यथार्थ कायको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ कायको प्राप्त होनेसे तथा उन दोनों प्रकारोंसे भी वहां प्राप्त होनेसे विपुलता है। विपुल है मति जिसकी वह विपुलमति कहा जाता है। विपुल मतिके सम्बन्धसे जिन भी विपुलमति कहलाते हैं। ऋजु या अन्जु मन, वचन व कायमें स्थित उन दोनों ही प्रकारोंसे उनको अप्राप्त और अर्धप्राप्त वस्तुको जाननेवाले विपुलमतिके जघन्य, उत्कृष्ट और तव्यतिरिक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी प्ररूपणा करते हैं-द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे एक समय रूप इन्द्रियनिर्जराको जानता है। शंका-ऋजुमतिका उत्कृष्ट द्रव्य ही उससे बहुत श्रेष्ठ विपुलमतिका विषय कैसे हो सकता है ? . समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्त विकल्प रूप चक्षुरिन्द्रियकी अजघन्यानुत्तष्ट १ विउलं वत्थुविसेषण नाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ॥ प्रवचनसारोद्धार १५००. २ मणदव्यवग्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्करसं । खंडिदमे होदि हु विउलमदिस्सावरं दध्वं ॥ गो. जी. ४५२. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , १, ११.] कदिअणियोगद्दारे विउलमदिपरूवणा विसईकयउक्कस्सदव्वादो तप्पाओग्गहाणिमुवगयएगसमइयइंदियणिज्जरादव्वस्स विउलमदिविसयत्तेण अब्भुवगमादो । उक्कस्सदव्वजाणावणटुं तप्पाओग्गासंखेज्जाणं कप्पाणं समए सलागभूदे ठविय मणदव्ववग्गणाए अणंतिमभागं विरलिय अजहण्णुक्कस्समेगसमयपबद्धं विस्सासोवचयविरहिदमट्ठकम्मपडिबद्धं समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं बिदियवियप्पो होदि । सलागरासीदो एगरूवमवणेदव्यं । एवमणेण विहाणेण णेदव्वं जाव सलागरासी समत्तो त्ति । एत्थ अपच्छिमदव्ववियप्पमुक्कस्सविउलमदी जाणदि । जहण्णुक्कस्सदव्वाणं मज्झिमवियप्पे तव्वदिरित्तविउलमदी जाणदि । खेत्तेण जहणं जायणपुधत्तं । ण च उजुविज्लमदिउक्कस्स-जहण्णखेत्ताणं समाणत्तं, जोयणपुधत्तम्मि अणेयभेयदंसणादो । उक्कस्सेण माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो, णो बहिद्धा । पणदालीसजोयणलक्खघणपदरं जाणदि त्ति उत्तं होदि। एगागाससेडीए चेव जाणदि त्ति निर्जराके ऋजुमति द्वारा विषय किये गये उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा उसके योग्य हानिको प्राप्त एक समय रूप इन्द्रियनिर्जराका द्रव्य विपुलमतिका विषय माना गया है । उत्कृष्ट द्रव्यके ज्ञापनार्थ उसके योग्य असंख्यात कल्पोंके समयोंको शलाका रूपसे स्थापित करके मनोगव्यवर्गणाके अनन्तवें भागका विरलन कर विनसोपचय रहित व आठ कौसे सम्बद्ध अजघन्यानुत्कृष्ट एक समयप्रबद्धको समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड द्रव्यका द्वितीय किकल्प होता है । इस समय शलाका राशिमें से एक रूप कम करना चाहिये। इस प्रकार इस विधानसे शलाका राशि समाप्त होने तक ले जाना चाहिये। इनमें अन्तिम द्रव्यविकल्पको उत्कृष्ट विपुलमति जानता है। जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्यके मध्यम विकल्पोंको तद्व्यतिरिक्त विपुलमति जानता है । क्षेत्रकी अपेक्षा विपुलमतिका जघन्यसे योजनपृथक्त्व विषय है। ऋजुमतिका उत्कृष्ट और विपुलमतिका जघन्य क्षेत्र यहां समान नहीं है, क्योंकि, योजनपृथक्त्वमें अनेक भेद देखे जाते है। उत्कर्षसे वह मानुषोत्तर पर्वतके भीतरकी बात जा वाहरकी नहीं । तात्पर्य यह कि पैंतालीस लाख योजन धनप्रतरको जानता है । एक आकाशश्रेणी में ही जानता है ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित ............... १ अट्ठपहं कम्मणि समयपबद्ध विविस्ससोवच यं । धुवहारेणि गिवारं भजिदे बिदियं हवे दव्वं ॥ तविदिये कपाणमसंखेजाणं च समयसंखसमं । धुवहारेणवहारदे होदि हु उक्कसयं दबं ॥ गो. जी. ४५३-४५४. २ क्षेत्रतो जघन्येन योजनपृथक्त्वम्, उत्कर्षेण मानुषोत्तरशैं लस्याम्यन्तरं न बहिः । स. सि. १,२ ति. रा. १, २३, १०. विउलमदिरस य अवरं तस्स पुधत्तं वरं खु परलोयं ॥ गो. जी. ४५५. ३ परलोए ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वस्स । जम्हा तग्घणपदरं मणपज्जवखेतमुहिढं ।। गो. नी. ४५६. . Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ११. के वि भणंति । तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु तस्स णाणस्स अप्पउत्तिप्पसंगादो । 'माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो चेव जाणदि णो बहिद्धा' ति वग्गणसुत्तेण णिदितृत्तादो माणुसखेत्तअभंतरविदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, माणुसुत्तरसेलसमीवे ठाइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो । होदु चे ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खओवसमाभावादो, अभंतरदिसाविसयणाणुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो खओवसमस्स अत्थित्तसिद्धीए । ण माणुसुत्तरसेलेण अंतरिदत्तादो परभागठ्ठिदत्थेसु णाणाणुप्पत्ती, अणिंदियस्स पच्चक्खस्स तीदाणागयपज्जाएसु वि असंखेज्जेसु वावरंतस्स अभंतरदिसाए पव्वदादीहि अंतरिदत्थे वि जाणंतस्स मणपज्जवणाणिस्स माणुसुत्तरसेलेण पडिघाडाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलभंतरवयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तरसेलभंतरपणदालीसजोयणलक्खणियामयं, विउलमदिमणपज्जवणाणुज्जोयसहिदखेत्तं घणागारेण ठइदे पणदालीसलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति । अधवा उवदेसं लद्धण वत्तव्वं । कालदो जहण्णं सत्तट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकोंमें विपुलमति मनःपर्ययशानकी प्रवृत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा । 'मानुषोत्तर शैलके भीतर ही स्थित पदार्थको जानता है, उसके बाहिर नहीं' ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होनेसे मानुषक्षेत्रके भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्योंको जानता है, उससे बाह्य क्षेत्रमें नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर मानुषोत्तर पर्वतके समीपमें स्थित होकर बाह्य दिशामें उपयोग करनेवालेके ज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग होगा। यदि कहा जाय कि उक्त प्रसंग आता है तो आने दीजिये,सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि, उसके उत्पन्न न हो सकनेका कोई कारण नहीं है। क्षयोपशमका अभाव होनेसे उसकी उत्पत्ति न हो सो तो है नहीं, क्योंकि, उसके विना मानुषोत्तर पर्वतके अभ्यन्तर दिशाविषयक ज्ञानकी उत्पत्ति भी घटित नहीं होती। अतः क्षयोपशमका अस्तित्व सिद्ध है । मानुषोत्तर पर्वतसे व्यवहित होनेके कारण परभागमें स्थित पदार्थों में शानकी उत्पत्ति न हो, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि, असंख्यात अतीत व अनागत पर्यायों में व्यापार करनेवाले तथा अभ्यन्तर दिशामें पर्वतादिकोसे व्यवहित पदार्थोंको भी जाननेवाले मनःपर्ययज्ञानीके अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका मानुषोत्तर पर्वतसे प्रतिघात हो नहीं सकता। अत एव 'मानुषोत्तर पर्वतके भीतर' यह वचन क्षेत्रका नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वतके भीतर पैतालीस लाख योजनोंका नियामक है, क्योंकि, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानके उद्योत सहित क्षेत्रको घनाकारसे स्थापित करनेपर पैंतालीस लाख योजन मात्र ही होता है। अथवा उपदेश प्राप्त कर इस विषयका व्याख्यान करना चाहिये। कालकी अपेक्षा वह जघन्यसे सात-आठ भवग्रहणोंको और उत्कर्षसे असंख्यात १ प्रतिषु ' वादरंतस्स ' इति पाठः । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १२.1 कदिअणियोगद्दारे दसपुस्विपरूवणा जाणदि। भावेण जं जं दिटुं दव्वं तस्स तस्स असंखेज्जपज्जाए जाणदि । एवंविधेभ्यो विपुलमतिभ्यो नम इति यावत् । संपधि विउलमदिजिणाणं णमोक्कारं काऊण सुदणाणजिणाणं णमोक्कारकरणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि(णमो दसपुब्वियाणं ॥ १२ ॥ एत्थ दसपुग्विणो भिण्णाभिण्णभेएण दुविहा होति । तत्थ एक्कारसंगाणि पढिदण पुणो परियम्म-सुत्त-पढमाणियोग-पुव्वगय-चूलिया त्ति पंचहियारणिबद्धदिहिवादे पढिज्जमाणे उप्पादपुव्वमादि कादूण पढ़ताणं दसपुवीए विज्जाणुपवादे' समत्ते रोहिणीआदिपंचसयमहाविज्जाओ सत्तसयदहरविज्जाहिं अणुगयाओ किं भयवं आणवेदि त्ति दुक्कंति । एवं दुक्काणं सव्वविजाणं जो लोभं गच्छदि सो भिण्णदसपुवी। जो पुण ण तासु लोभं करेदि कम्मक्खयत्थी होतो सो अभिण्णदसपुव्वी णाम । तत्थ अभिण्णदसपुविजिणाणं णमोक्कारं करेमि त्ति उत्तं होदि) ............ भवग्रहणों को जानता है। भावकी अपेक्षा जो जो द्रव्य शात है उस उसकी असंख्यात पर्यायोंको जानता है । इस प्रकारके विपुलमति मनःपर्ययशानी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । अब विपुलमति जिनोंको नमस्कार करके श्रुतज्ञानी जिनोंको नमस्कार करनेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं दशपूर्वीक जिनोंको नमस्कार हो ॥ १२॥ यहां भिन्न और अभिन्नके भेदसे दशपूर्वी दो प्रकार हैं। उनमें ग्यारह अंगोंको पढ़कर पश्चात् परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका, इन पांच अधिकारों में निबद्ध दृष्टिवादके पढ़ते समय उत्पादपूर्वको आदि करके पढ़नेवालोंके दशम पूर्व विद्यानुप्रवादके समाप्त होनेपर सात सौ क्षुद्र विद्याओंसे अनुगत रोहिणी आदि पांच सौ महाविद्यायें 'भगवन् क्या आज्ञा देते हैं ' ऐसा कहकर उपस्थित होती हैं। इस प्रकार उपस्थित हुई सब विद्याओंके लोभको जो प्राप्त होता है वह भिन्नदशपूर्वी है। किन्तु जो कर्मक्षयका अभिलाषी होकर उनमें लोभ नहीं करता है वह अभिन्नदशपूर्वी कहलाता है। उनमें अभिन्नदशपूर्वी जिनोंको नमस्कार करता हूं, यह सूत्रका अर्थ है। १ द्वितीयं कालतो जघन्येन सप्ताष्टौ भवग्रहणानि, उत्कर्षेणासंख्येयानि गत्यागल्यादिभिः प्ररूपयति । से. सि. १, २३. त. रा. १, २३, १०. अडाणवमवा हु अवरमसंखेज विउल उक्कसं ॥ गो. जी. ४५७. ___२ अप्रतौ ' दसपुष्वी विज्जापबादे' इति पाठः। ३ रोहिणिपहुदीण महाविज्जाणं देवदाउ पंच सया। अंगुट्ठपसेणारं खुद्दअविज्जाण सत्त सया॥ एत्तण पेसणाई मग्गंते दसमपुचपढणम्मि । णेच्छंति संजमंता ताओ जे ते अभिण्णदसपुत्री ॥ भुवणेसु सुप्पसिद्धा विज्जाहरसमणणामपज्जाया। ताणं मुणीण बुद्धी दसपुची णाम बोद्धव्वा ॥ ति. प. ४, ९९८-१०००. महारोहिण्यादिभिस्त्रिभिरागताभिः प्रत्येकमात्मीयरूपसामाविष्करण-कथनकुशलामिर्वेगवतीमिविद्यादेवताभिरविचलितचरित्रस्य दक्षपूर्व-सपुद्रोत्तरणं दशपूर्वित्वम् । त. रा. ३, ३६, २. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० 01 छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, १३. भिण्णद सपुत्रीणं कथं पडिणियत्ती ? जिणसद्दाणुवुती दी । ण च तेसिं जिणत्तनत्थि, भग्गमहव्वसु जित्ताणुदवत्तदो । आचारांगादिहेट्ठिम अंग-पुव्वधराणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेर्सि पि णमोक्कारो कदो चेव, तेसिमेत्युवलंभादो । चोपुवहराणं पुव्वं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, जिणवयणपच्चयद्वाणपदुप्पायणदुवारेण दसपुत्रीणं चागमहत्पपदरिसण पुव्वं तण्णमोक्कारकरणादो । सुदपरिवाडीए वा पुव्वं दसपुत्रीणं णमोक्कारो को | णमो चोदसपुव्वियाणं ॥ १३ ॥ जिणाणमिदि एत्थाणुव । सयलसुदणाणधारिणो चोद्दसपुव्विणो' । तेसिं चोदस शंका - भिन्नदशपूर्वियोंकी व्यावृत्ति कैसे होती है ? समाधान - -जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे उनकी व्यावृत्ति होती है । भिन्नदशपूर्वियोंके जिनत्व नहीं है, क्योंकि, जिनके महाव्रत नष्ट हो चुके हैं उनमें जिनत्व घटित नहीं होता । शंका - आचारांगादि अधस्तन अंग और पूर्वके धारकों को नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, उनको भी नमस्कार किया ही है, क्योंकि, वे इनमें पाये जाते हैं । शंका- चौदह पूर्वोके धारकोंको पहिले नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, जिनवचनोंपर प्रत्ययस्थान अर्थात् विश्वास उत्पादन द्वारा दशपूर्वियोंके त्यागकी महिमा दिखलानेके लिये पूर्वमें उन्हें नमस्कार किया गया है । अथवा, श्रुतकी परिपाटीकी अपेक्षासे पहिले दशपूर्वियों को नमस्कार किया गया है । चौदहपूर्वक जिनको नमस्कार हो ॥ १३ ॥ यहां ' जिनोंको ' इस पदकी अनुवृत्ति आती है । समस्त श्रुतज्ञानके धारक १ सथलागमपारगया सुदकेवलिणामसुप्पसिद्धा जे । एदाण बुद्धिरिद्धी चोदसपुव्विति णामेणं ॥ ति. प. ४, १००१. सम्पूर्ण श्रुतकेवलिता चतुर्दशपूर्वित्वम् । त. रा. ३, ३६, २. Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १३. ] कदिअणियोगद्दारे चोइस पुव्विपरूवणा [ ७१ पुवीणं जाणं णमो इदि उत्तं होदि । सेसहेट्ठिमपुव्वीणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, तेर्सि पिकदो चेव, तेहि विणा चोइसपुव्वाणुववत्तीदो चोदस पुव्वस्सेव णामणिद्देसं कादुण किमहं णमोक्कारो कीरदे ? विज्जाणुपवादस्स समत्तीए इव चोदसपुव्त्रसमतीए वि जिणवयणपच्चयदंसणा दो । चोद्दसपुव्वसमत्तीए को पच्चओ ? चोदसपुव्वाणि समाणिय रत्तिं काओसग्गेण दिस पहादसमए भवणवासिय वाणवेंतर - जोदिसिय - कप्पवासियदेवेहि कयमहापूजा संखकाहला - तूररव संकुला होदु । एदेसु दोसु ट्ठाणेसु जिणवयणपच्चओवलंभो । जिणवयणतं पडि सव्वंग - पुव्वाणि समाणाणि त्ति तेसिं सव्वेसिं णामणिद्देस काऊण णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, जिणवयणत्तणेण सव्वंग-पुव्वेहि सरिसत्ते संते वि विज्जाणुष्पवाद- लोगविंदुसाराणं महल्लत्तमत्थि, एत्थेव देवपूजेोवलंभादो । चोद्दसपुव्वहरो मिच्छत्तं ण गच्छदि, तहि भवे असंजमं च ण पडिवज्जदि, एसो एदस्स विसेसो ।) चौदहपूर्वी कहे जाते हैं । उन चौदहपूर्वी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । शंका - शेष अधस्तनपूर्वियों को नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान नहीं, उनको भी नमस्कार किया ही है, क्योंकि, अधस्तन पूर्वोके विना चौदह पूर्व घटित ही नहीं होते । शंका - चौदह पूर्वका ही नामनिर्देश करके किसलिये नमस्कार किया जाता है । - समाधान - क्योंकि, विद्यानुप्रवाद की समाप्ति के समान चौदह पूर्व की समाप्तिमें भी जिनवचनपर विश्वास देखा जाता है । शंका - चौदह पूर्व की समाप्तिमें कौनसा विश्वास है ? समाधान - चौदह पूर्वौको समाप्त करके रात्रि में कायोत्सर्गसे स्थित साधुकी प्रभात समय में भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों द्वारा शंख, काहला और तूर्यके शब्द से व्याप्त महापूजा की जाती है । इन दो स्थानों में जिन वचनोंपर विश्वास पाया जाता है । शंका - जिनवचनकी अपेक्षासे सब अंग और पूर्व समान हैं, अतएव उन सबका नामनिर्देश करके नमस्कार क्यों नहीं किया गया ? समाधान - नहीं, जिनवचन रूपसे सब अंग और पूर्वोमें सदृशता के होनेपर भी विद्यानुप्रवाद और लोकविन्दुसारका महत्व है, क्योंकि, इनमें ही देवपूजा पायी जाती है । चौदह पूर्वका धारक मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता और उस भवमें असंयमको भी नहीं प्राप्त होता, यह इसकी विशेषता है । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे अयणाखंडं [१, १, १४० (णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं ॥ १४ ॥ अंग-सर-वंजण-लक्खण-छिण्ण-भौम-सुमिणंतरिक्खाणि महाणिमित्ताणमट्ठअंगाणि । उत्तं च ___ अंग सरो वंजण-लक्खणाणि छिण्णं च भौम्म सुमिणंतरिक्खं । एदे णिमित्तेहि य राहणिज्जा' जाणंति लोयस्स सुहासुहाई ॥ १९ ॥ (तत्थ अंगगयमहाणिमित्तं णाम मणुस-तिरिक्खाणं सत्त-सहाव-वाद-पित्त-सेंभ-रसरुधिर-मास-मेदहि-मज्ज-सुक्काणि सरीरवण्ण-गंध-रस-फासणिण्णुण्णदाणि जोएदूण जीविद-मरणसुह-दुख-लाहालाह-पवासादिविसयावगो' । खर-पिंगलोलूव-वायस सिव-सियाल-णर-णारीसरं सोऊण लाहालाह-सुह-दुक्ख-जीविद-मरणादीणं अवगमो सरमहाणिमित्तं णाम । तिल-याणूगे अष्टांग महानिमित्तोंमें कुशलताको प्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ १४ ॥ ___ अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष, ये महानिमित्तोंके आठ अंग हैं । कहा भी है अंग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, भौम, स्वप्न और अन्तरिक्ष, इन निमित्तोंसे आराधनीय साधु जनसमुदायके शुभाशुभको जानते हैं ॥ १९ ॥ उनमें मनुष्य और तिर्यंचोंके वात, पित्त व कफ व रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, एवं शुक्र सत्व स्वभाव रूप, तथा शरीरके निम्न व उन्नत वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्शको देखकर जीवित, मरण, सुख, दुख, लाभ, अलाभ और प्रवासादि विषयक ज्ञान अंगगत महानिमित्त है । खर, पिंगल, [नेवला, बन्दर या सर्पविशेष ] उल्लू, काक, शिवा, शृगाल, नर और नारीके स्वरको सुनकर लाभालाभ, सुख दुख और जीवित-मरणादिको जानना स्वरमहानिमित्त कहा जाता १ अप्रतौ ' राणिहिज्जा',.आप्रतौ ' राणिहिच्चा', काप्रतौ ' राहिणिच्चा' इति पाठः । २ अप्रतौ · सत्त सहावाद ' इति पाठः। ३ वातादिप्पगिदीओ रुहिरप्पहुदिस्सहावसत्ताई। णिण्णाण उण्णयाणं अंगोवंगाण दंसणा पासा ॥ गरतिरियाणं दहें जं जाणइ दुक्ख-सोक्ख-मरणाई । कालत्तयणिप्पाणं अंगणिमित्तं पसिद्धं तु ॥ ति. प. ४, १००६१.०७. अंग-प्रत्यंगदर्शनादिभिस्त्रिकालभाविसुख-दुःखादिविभावन मंगम् । त. रा. ३, ३६, २. ३ णर-तिरियाण विचित्तं सद्दे सोदण दुक्ख सोक्खाई। कालत्तयणिप्पण्णं जे जाणद तं सरणिमित्तं ॥ ति.प.४, १००८. अक्षरानक्षरशुभाशुभशब्दश्रवणेनेष्टानिष्टफलाविर्भावनं महानिमित्तं स्वरम् । त. रा. ३.३६, २. ५ प्रतिषु 'तिलयाणंग-' इति पाठः। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १४. ] कदिअणियोगद्दारे अटुंगमहानिमित्तपरूवणा [ ७३ मसादिं दट्ठूण तेसिमवगमो वंजणं' णाम महाणिमित्तं । सोत्थिय - णंदावत्त- सिरीवच्छ-संखचक्कंकुस-चंद-सूर-रयणायरादिलक्खणाणि उर- ललाट- हत्थ - पादतलादिसु जहाकमेण अट्टुत्तरसद-चउसट्ठि-बत्तीसं दट्ठूण तित्थयर - चक्कवट्टि -बलदेव - वासुदेवत्तावगमो लक्खणं णाम महा-. णिमित्तं । अंगछायाविवज्जास - वत्थालंकारछेदं मणुव-तिरिक्खादीणं चेडा-संठाणाणि दट्ठण सुहावगमोच्छिणाम महाणिमित्तं । भूमिगयलक्खणाणि दडूण गाम-णयर- खेट-कव्वडपर-पुराणं वुड-हाणपणं भौम्मं णाम महाणिमित्तं । छिण्ण-माला - सुमिणाणं सरूवं है । तिल, आनुअ और मशा आदिको देखकर उन सुख-दुःखादिकका जानना व्यञ्जन महानिमित्त है । उर, ललाट, हस्ततल और पादतलादिकमें यथाक्रमसे एक सौ आठ, चौसठ व बत्तीस स्वस्तिक, नन्द्यावर्त, श्रीवृक्ष, शंख, चक्र, अंकुश, चन्द्र, सूर्य एवं रत्नाकर आदि लक्षणोंको देखकर तीर्थकरत्व, चक्रवर्तित्व एवं बलदेवत्व व वासुदेवत्वका जानना लक्षण नामक महानिमित्त है । शरीरछायाकी विपरीतता, वस्त्र व अलंकारका छेद तथा मनुष्य और तिर्यच आदिकोंकी चेष्टा व आकारको देखकर शुभाशुभका जानना छिन्न महानिमित्त कहा जाता है । भूमिगत लक्षणों को देखकर ग्राम, नगर, खेड़ा, कर्वट, घर व पुरादिकोंकी वृद्धि हानिको कहना भौम नामक महानिमित्त है । छिन्न स्वप्न और माला स्वप्नके १ सिर- मुह - कंधप्पहृदि तिल-मसय पहुदिआइ दडणं । जं तियकालमुहाई जाणइ तं वेंजणणिमित्तं ॥ ति. प. ४, १००९. शिरोमुख- मीत्रादिषु तिलक-मशकलक्ष्मब्रह्मणादिवीक्षणेन त्रिकालहिताहितवेदनं व्यंजनम् । ܘ त. रा. ३, ३६, २. २ कर-चरणतलप्पहुदिसु पंकय-कुलिसादियाणि दट्ठणं । जं तियकालमुहाई लक्खइ तं लक्खणणिमित्तं ॥ ति. प. ४, १०१०. श्रीवृक्ष-स्वस्तिक-भृंगार-कलशादिलक्षणवीक्षणात् त्रैकालिकस्थानमानैश्वर्यादिविशेषज्ञानं लक्षणम् । त. रा. ३, ३६, २. ३ सुर-दाणव-रक्खस-णर-तिरिएहिं विण्णसत्थ- वत्थाणिं । पासाद - णयर - देसादियाणि चिण्हाणि दणं ॥ कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरण- विविहदव्वं च । सुह- दुक्खाई लक्खर चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ ॥ ति. पं. ४, १०११-१०१२. वस्त्र-शस्त्र -छत्रोपानदासन - शयनादिषु देव- मानुष - राक्षसादिविभागैः शस्त्र- कण्टक-मूषिकादिकृतछेदनदर्शनात् कालत्रयविषयलाभालाभ - सुख-दुःखादिचनं छिन्नम् । त. रा. ३, ३६, २. ४ अप्रतो 'कव्वडघपुरायादाणं ', आ-काप्रत्योः ' कव्यडघपुरारायादीणं ', मप्रतौ ' कव्वडघरारादीणं ' इति पाठः । ५ घण-सुसिर- णिद्ध-लुक्खप्पहुदिगुणे भाविदूण भूमीए । जं जाणइ खय-वह्निं तम्मयस-कणय-रजदपमुहाणं ॥ दिसि-विदिसअंतरेसुं चउरंगबलं ठिदं च दट्टणं । जं जाणइ जयमजयं तं भउमणिमित्तमुद्दिनं ॥ ति. प. ४, १००४-१००५. भुवो घन-शुषिर-स्निग्ध- रुक्षादिविभावनेन पूर्वादिदिक्सूत्रनिवासेन वा वृद्धि - हानि-जय-पराजयादिविज्ञानं भूमेरन्तर्निहितसुवर्ण रजतादिसंसूचनं च भौमं । त. रा. ३, ३६, २. छ. क. १०. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] छक्खंडागमे वयणाखंड [४, १, ११. दट्टण भाविकज्जावगमो सुमिणं णाम महाणिमित्तं । तत्थ वसह-मायंग-सीह-सायर-चंदाइच्चजलकलियकलस-पउमाहिसेय-जलण-पउमायर-भवणविमाण-रयणरासि-सीहासण-कीडंतमच्छपफुल्लदामजुवलाणं अण्णोण्णसंबंधविरहियाणं सुत्ततित्थयरमादूर्ण सोलसण्णं दंसणं छिण्णसुमिणो णाम । पुवावरेण घडताणं भावाणं सुमिणतरेण दंसणं मालासुमिणओ णाम । चंदाइच्च-गहाणमुदयत्थवण-जय-पराजय-गहघट्टण-विज्जुचडक-किंदाउह-चंदाइच-परिवेसुवरागबिंबभेयादि दट्टण सुहासुहावगमो अंतरिक्खं णाम महाणिमित्तं । एदेसु अटुंगमहाणिमित्तेसु कुसलाणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि) जिणसद्दाणुबुत्तीदो णासंजद-संजदासजदाणं गहणं । णाणेण विसेसिदजिणाणं पुनमेव णमोक्कारो किमढे कदो ? चारित्तदो णाणस्स पहाणत्तपदु स्वरूपको देखकर भावी कार्यको जानना स्वप्न नामक महानिमित्त है। उनमें वृषभ, हाथी, सिंह, समुद्र, चन्द्र, सूर्य, जलसे परिपूर्ण कलश, लक्ष्मीका अभिषेक, अग्नि, तालाब, भवनविमान, रत्नराशि, सिंहासन, क्रीड़ा करती मछलियोंका युगल और पुष्पमालाओंका युगल, इन परस्परके सम्बन्धसे रहित सोलह स्वप्नोंका सोती हुई जिनजननीको जो दर्शन होता है वह छिन्न स्वप्न है। पूर्वापरसे सम्बन्ध रखनेवाले भावोंका स्वप्नान्तरसे देखना माला स्वप्न है। चन्द्र, सूर्य एवं ग्रहके उदय व अस्तमन तथा जय-पराजय, ग्रहघर्षण, विजलीकी ध्वनि, कर्कंधायुध, चन्द्र व सूर्यके परिवेष, उपराग एवं बिम्बभेदादिको देखकर शुभाशुभका जानना अन्तरिक्ष नामक महानिमित्त है। इन अष्टांगमहानिमित्तोंमें कुशल जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है। जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे असंयत और संयतासंयतोंका ग्रहण नहीं है। शंका-ज्ञानसे विशिष्ट जिनोंको पहिले ही नमस्कार किसलिये किया ? समाधान-चारित्रकी अपेक्षा ज्ञानकी प्रधानता बतलानेके लिये ज्ञानविशिष्ट - १ वातादिदोसचत्तो पच्छिमरते मुयंक-रविपहुदि । णियमुहकमलपविलु देक्खिय सउणम्मि सुहसउणं ॥ घडतेलभंगादि रासह-करभादिएसु आरुहणं । परदेसगमण सबं जं देक्खइ असुहसउणं तं ।। जं भासइ दुक्ख सुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं । तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं ॥ करि-केसरिपहुदीणं दंसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं । पुबावरसंबंधं स उणं तं. मालसउणो ति ।। ति. प. ४,१०१३-१०१६. वात-पित्त-श्लेष्मदोषोदयरहितस्य पश्चिमरात्रिविभागे चन्द्र-सूर्यधरादिसमुद्रमुखप्रवेशनसकलमहीमण्डलोपगृहनादिशुभ-घृत-तैलाक्तात्मीयदेहखर-करमारूढावदिग्गमनाघशुभस्वप्नदर्शनादागामिजीवित-मरण-सुख-दुःखाद्याविर्भावकः स्वप्नः । त. रा. ३, ३६, २. २ रवि-ससि-गहपहुदीणं उदयत्थमणादिआई द?णं । खीणत्तं दुक्ख-सुहं जं जाणइ तं हि णहणिमित्तं ।। ति. प. ४-१००३. तत्र रवि-शशि-ग्रह-नक्षत्र-भगणोदयास्तमयादिभिरतीतानागतफलपविभागदर्शनमंतरिक्षम् ।। त. रा. ३, ३६, २. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १५. ] कदिअणियोगदारे वेउन्विपरिद्धिपरूवणा [ ७५ पाय | कुदे तत्तो तस्स पहाणत्तं ? णाणेण विणा चरणाणुववत्तदो । चरणफलविसेसियजिणपणमणमुत्तरसुत्तं भणदि -- ( णमो विउव्वणपत्ताणं ॥ १५ ॥ अणिमा हिमालमा पत्ती पागम्मं ईसित्तं वसितं कामरूवित्तमिदि विउव्वणमट्ठविहं । तत्थ महापरिमाणं सरीरं संकोडिय परमाणुपमाणसरीरेण अवट्ठाणमणिमा णाम' । परमाणुपमाणदेहस्स मेरुगिरिसरिससरीरकरणं महिमा णाम । मेरुपमाणसरीरेण मक्कडतंतुहि परिसक्कणनिमित्तसत्ती लघिमा णाम । भूमिट्टियस्स करेण चंदाइच्च बिंबच्छिवणसत्ती पत्ती' णाम । जिनको पहले ही नमस्कार किया है । शंका- चारित्र से ज्ञानकी प्रधानता क्यों है । समाधान - चूंकि विना ज्ञानके चारित्र होता नहीं है, अतः ज्ञान प्रधान है । चारित्रके फलसे विशेषताको प्राप्त जिनों को नमस्कार करनेके लिये उत्तर, सू कहते हैं विक्रिया ऋद्धिको प्राप्त हुए जिनोंको नमस्कार हो ॥ १५ ॥ अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और कामरूपित्व, इस प्रकार विक्रिया ऋद्धि आठ प्रकार है। उनमें महा परिमाण युक्त शरीरको संकुचित करके परमाणु प्रमाण शरीरसे स्थित होना अणिमा नामक विक्रिया ऋद्धि है । परमाणु प्रमाण शरीरको मेरु पर्वतके सदृश करनेको महिमा ऋद्धि कहते हैं। मेरु प्रमाण शरीरसे मकड़ीके तंतुओंपर से चलनेमें निमित्तभूत शक्तिका नाम लघिमा है । भूमिमें स्थित रहकर हाथसे चन्द्र व सूर्यके बिम्बको छूनेकी शक्ति प्राप्ति ऋद्धि कही जाती है । १ अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिदे पविसिदूण तत्थेव । विकरदि खंदात्रारं णिएसमवि चक्कत्रहिस्स ॥ ति. प. ४-१०२६. तत्राणुशरीरविकरणमणिमा विसछिद्रमपि प्रविश्याऽऽसित्वा तत्र च चक्रवर्तिपरिवारविभूतिं सृजेत् । त. रा. ३, ३६, २. २ मेरुमाणदेहा महिमा अणिलाउ लघुतरो लघिमा । ति प ४-१०२७. मेरोरपि महत्तरशरीरविकरणं महिमा । वायोरपि लघुतरशरीरत लघिमा ॥ त. रा. ३, ३६, २. ३ भूमीए चितो अंगुलिअग्गेण सूर-ससिपहुदिं । मेरुसिहराणि अण्णं जं पावदि पचरिद्धी सा ॥ ति. प. ४-१०२८. भूमौ स्थित्वांगुल्यप्रेण मेरुशिखर- दिवाकरादिस्पर्शनसामर्थ्य प्राप्तिः । त. रा. ३, ३६, २. Jain Éducation International Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] छखंडागमे वेयणाखंड [ ४,१, १५. कुलसेल - मेरुमहीहर-भूमीण बाहमकाऊण तासु गमणसत्ती तवच्छरणबलेणुप्पण्णा पागमं णाम । सव्वेसिं जीवाणं गाम-णयर - खेडादीणं च भुंजणसत्ती समुप्पण्णा ईसित्तं णाम । माणुस - मायंगहरि-तुरयादीणं सगिच्छाए विउव्वणसत्ती वुम्रितं णाम । ण च वसित्तस्स ईसित्तम्मि पवेसो, अवसाणं पिहदाकारेण ईसित्तकरणुवलंभादो । इच्छिदरूवग्गहणसत्ती कामरूवित्तं' णाम । ईंसित्त-वसित्ताणं कथं वे उव्वियत्तं ? ण, विविहगुणइड्डिजुतं वेउव्त्रियमिदि तेसिं वेडव्वियत्ताविरोहादो । एत्थ एगसंजोगादिणा विसदपंचवं चासविउव्वणभेदा उप्पाएदव्वा, तक्कारणस्स कुलाचल और मेरु पर्वत के पृथिवीकायिक जीवोंको बाधा न पहुंचाकर उनमें तपश्चरणके बलसे उत्पन्न हुई गमनशक्तिको प्राकाम्य ऋद्धि कहते हैं । सब जीवों तथा ग्राम, नगर एवं खेड़े आदिकोंके भोगने की जो शक्ति उत्पन्न होती है वह ईशित्व ऋद्धि कही जाती है । मनुष्य, हाथी, सिंह एवं घोड़े आदिक रूप अपनी इच्छासे विक्रिया करनेकी शक्तिका नाम वशित्व ऋद्धि है । वशित्वका ईशित्व ऋद्धिमें अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि, अवशीकृतों का भी उनका आकार नष्ट किये विना ईशित्वकरण पाया जाता है । इच्छित रूपके ग्रहण करने की शक्तिका नाम कामरूपित्व है । शंका - ईशित्व और वशित्वके विक्रियापन कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, नाना प्रकार गुण व ऋद्धि युक्त होने का नाम विक्रिया है, अतएव उन दोनोंके विक्रियापनेमें कोई विरोध नहीं है । यहां एकसंयोग, द्विसंयोग आदि के द्वारा दो सौ पचवन विक्रियाके भेद उत्पन्न कराना चाहिये, क्योंकि, उनके कारण विचित्र हैं । [ एकसंयोगी ८, द्विसंयोगी ८७ = २८; त्रिसंयोगी ८×७ × ६ १x२४३ १x२ = ८×७×६४५x४ १x२ × ३ × ४×५ संयोगी = ५६६ चतुःसंयोगी ५६६ षट्संयोगी ८७×६× ५× ४× ३ x २ १ × २ × ३x४×५×६× ७ ८७×६ x ५ १x२ x ३× ४ ८७×६× ५x४× ३ १x२×३× ४× ५× ६ = ७०; पंचसंयोगी = २८, सप्त = ८; अष्टसंयोगी १६ समस्त ८ + २८ + ५६ + १ सालले वि य भूमीए उम्मज्ज- णिमज्जणाणि जं कुणदि । भूमी वि य सलिले गच्छदि पाकम्मरिद्धी सौ ॥ ति. प. ४-१०२९ अन्सु भूमावित्र गमनं भूमौ जल इवोन्मज्जन करणं प्राकाम्यम् । त. रा. ३, ३६, २. २ णिस्सान पहुतं जगाग ईसवणामरिद्धी सा । वसति तवबलेणं जं जीवोहा वसिचरिद्धी सा ॥ ति. प. त्रैलोक्यस्य प्रभुता ईशित्वम् । सर्वजीववशीकरणलब्धिर्वशित्वम् । त. रा. ३, ३६, २. ४-१०३०. ३ जुगवं बहुरुवाणि जं विरयदि कामरूरिद्धी सा ॥ ति. प. ४-१०३२. युगपदनेका काररूप विकरणशक्तिः कामरूपित्वमिति । त. रा. ३, ३६, २. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १६.] कदिअणियोगद्दारे विज्जाहरपरूवणी ( 0 वइचित्तियत्तादो । एदेहि अहहि विउब्वणसत्तीहि सहियाणं णमोक्कारो कीरदे । अद्वगुणरिद्धिजुत्ताणं देवाणं एसो पामोक्कारो किण्ण पावदे ? ण एस दोसो, जिणसद्दाणुवट्टणेण तण्णिराकरणादो। ण च देवाणं जिणत्तमत्थि, तत्थ संजमाभावादो । एत्तो उवरि जहातहाणुपुस्विक्कमो दट्ठन्वो, महल्लपरिवाडीए अगुवलंभादो । (णमो विज्जाहराणं ॥ १६ ॥ तिविहाओ विज्जाओ जादि-दुल-तवविज्जाभेएण । उत्तं च जादीसु होइ विज्जा कुलविज्जा तह य होइ तवविज्जा । विज्जाहरेसु एदा तवविज्जा होइ साहूणं ॥ २० ॥ तत्थ सगमादुपक्खादो लद्धविज्जाओ जादिविज्जाओ णाम । पिदुपक्खुवलद्धाओ कुलविज्जाओ। छट्ठट्ठमादिउववासविहाणेहि साहिदाओ तवविज्जाओ । एवमेदाओ तिविहाओ -........................................ ७० + ५६ + २८ + ८ + १ - २५५ भंग होते हैं। ] इन आठ विक्रिया शक्तियोंसे सहित जिनोंको नमस्कार किया जाता है। शंका-आठ गुण ऋद्धियोंसे युक्त देवोंको यह नमस्कार क्यों नहीं प्राप्त होगा? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति आनेसे उसका निराकारण हो जाता है । कारण कि देव जिन नहीं हैं, क्योंकि, उनमें संयमका अभाव है। यहांसे आगे यथा-तथा-आनुपूर्वीक्रम समझना चाहिये, क्योंकि, महानताकी परिपाटी नहीं पाई जाती। विद्याधरोंको नमस्कार हो ॥१६॥ जातिविद्या, कुलविद्या और तपविद्याके भेदसे विद्यायें तीन प्रकार हैं। कहा भी है जातियों में विद्या अर्थात् जातिविद्या है, कुलविद्या तथा तपविद्या भी विद्या हैं । ये विद्यायें विद्याधरों में होती हैं। किन्तु तपविद्या साधुओंके होती है ॥ २०॥ .. इन विद्याओंमें स्वकीय मातृपक्षसे प्राप्त हुई विद्यायें जातिविद्यायें और पितृपक्षसे प्राप्त हुई कुलविद्यायें कहलाती हैं । षष्ठ और अष्टम आदि उपवासोंके करनेसे सिद्ध की . १ कुल-जाईविज्जाओ साहियविज्जा अणेयभेयाओ । विज्जाहरपुरिस-पुरंधियाण वरसोक्खजणणीओ ॥ ति.प.४-१३८. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 छक्खडागमे वेयणाखंड [ ४, १, १७. विज्जाओ होंति विज्जाहराणं । तेण वेअड्डणिवासिमणुआ वि विज्जाहरा, सयलविज्जाओ छंडिऊण गहिदसंजमविज्जाहरा वि होंति विज्जाहरा, विज्जाविसयविण्णाणस्स तत्थुवलंभादो । पढिदविज्जाणुपवादा वि विज्जाहरा, तेसिं पि विज्जाविसयविण्णाणुवलंभादो | केसिमेत्थ गहणं ? ण ताव वेयडुप्पण्णअसंजदाणं गहणं, तेसिं जिणत्ताभावा दो । परिसेसादो ससदुविहविज्जाहरा एत्थ घेत्तव्वा । दसपुव्वहराणमेत्थ ण ग्गहणं, पउणरुत्तियादो ? ण, तत्थ दसपुव्वविसयणाणुवलक्खियजिणाणं णमोक्कारकरणादो, एत्थ सिद्धासेसविज्जापेसणपरिच्चागेणुवलक्खियजिणाणं विज्जाहरत्तन्भुवगमादो त्ति | सिद्धविज्जाणं पेसणं जे ण इच्छंति केवलं धरति चेव अण्णाणणिवित्तीए ते विज्जाहरजिणा णाम । तेभ्यो नमः । णमो चारणाणं ॥ १७ ॥ जल-जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-वीय- आगास - सेडीमेएण अट्ठविहा चारणा । उत्तं च गई तपविद्यायें हैं । इस प्रकार ये तीन प्रकारकी विद्यायें विद्याधरोंके होती हैं । इससे वैताढ्य पर्वत पर निवास करनेवाले मनुष्य भी विद्याधर होते हैं, सब विद्याओंको छोड़कर संयमको ग्रहण करनेवाले भी विद्यावर होते हैं, क्योंकि, विद्याविषयक विज्ञान वहां पाया जाता है। जिन्होंने विद्यानुप्रवादको पढ़ लिया है वे भी विद्याधर हैं, क्योंकि, उनके भी विद्याविषयक विज्ञान पाया जाता है । शंका- इन तीन प्रकारके विद्याधरोंमेंसे यहां किनका ग्रहण है ? समाधान – वैताढ्य पर्वतपर उत्पन्न असंयतों का यहां ग्रहण नहीं है, क्योंकि, वे जिन नहीं हैं । पारिशेष न्यायसे शेष दो प्रकारके विद्याधरोंका यहां ग्रहण करना चाहिये । शंका - दशपूर्वधरोंका ग्रहण यहां नहीं करना चाहिये, क्योंकि, पुनरुक्ति दोष भाता है ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, वहां दश पूर्न विषयक ज्ञानसे उपलक्षित जिनको नमस्कार किया गया है, किन्तु यहां सिद्ध हुई समस्त विद्याओंके कार्यके परित्याग से उपलक्षित जिनोंको विद्याधर स्वीकार किया है । जो सिद्ध हुई विद्याओंसे काम लेनेकी इच्छा नहीं करते, केवल अज्ञानकी निवृत्तिके लिये उन्हें धारण ही करते हैं, वे विद्याधर जिन हैं। उनके लिये नमस्कार हो । चारण ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ १७ ॥ जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी के भेद से चारण ऋद्धिधारक आठ प्रकार हैं। कहा भी है Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १७.] कदिअणियोगहारे चारण रिद्धिपरूवणा जल - जंघ - तंतु-फल- पुप्फ-वीय आगास सेडिगइकुसला । अट्ठविहचारणगणा पइरिक्कसुहं पत्रिहरंति' ॥ २१ तत्थ भूमीए इव जलकाइयजीवाणं पीडमकाऊण जलमफुसंता जहिच्छाए जलगमणसमत्था रिसओ जलचारणा' णाम । पउमणिपत्तं व जलपासेण विणा जलमज्झगामिणो जल चारणा त्ति किण्ण उच्चंति ? ण एस दोसो, इच्छिज्जमाणत्तादो । जलचारण - पागम्मरिद्धीणं दोह को विसेसो ? घणपुढवि - मेरुसायराणंतो सव्वसरीरेण पवेससत्ती पागम्मं णाम । तत्थ जीवपरिहरणकउसलं चारणत्तं । तंतु-फल- पुप्फ-बीजचारणाणं पि जलचारणाणं व वत्तव्वं । भूमीए [ ७९ जल, जंघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणीका आलम्बन लेकर गमन में कुशल ऐसे आठ प्रकारके चारणगण अत्यन्त सुखपूर्वक विहार करते हैं ॥ २१ ॥ उनमें जो ऋषि जलकायिक जीवोंको पीड़ा न पहुंचाकर जलको न छूते हुए इच्छानुसार भूमिके समान जलमें गमन करनेमें समर्थ हैं वे जलचारण कहलाते हैं । शंका - पद्मिनीपत्रके समान जलको न छूकर जलके मध्यमें गमन करनेवाले जलचारण क्यों नहीं कहलाते ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा अभीष्ट ही है । शंका - जलचारण और प्राकाम्य इन दोनों ऋद्धियोंमें क्या विशेषता है ? समाधान - सघन पृथिवी, मेरु और समुद्र के भीतर सब शरीर से प्रवेश करनेकी शक्तिको प्राकाम्य ऋद्धि कहते हैं, और वहां जीवोंके परिहारकी कुशलताका नाम चारण ऋद्धि है । तन्तुचारण, फलचारण, पुष्पचारण और बीजचारणका स्वरूप भी जलचारणों के १ चारणरिद्धी बहुविहवियप्पसंदोहवित्थरिदा || जल-जंघा - फल- पुप्फं-पत्तग्गिसिहाण धूम - मेघाणं । धारामक्कडतंतू - जोदी-मरुदाण चारणा कमसो ॥ ति. प. ४-१०३५. तत्र चारणा अनेकविधाः जल-जंघा तंतु-पत्र- श्रेण्यभिशिखाद्यालंबनगमनाः । त. रा. ३, ३६, २. अइसयचरणसमत्था जंधा विज्जाहिं चरणा मुणओ । जंघाहिं जाइ पढमो नीसं काउं रत्रिकरे त्रि || एगुप्पाएण गओ रुयगवरमिओ तओ पडिनियतो । बीएणं णांदस्सरमिहं तओ एइ तइएणं ॥ पढमेण पंडगवणं बीओप्पाएण गंदणं एइ । तइओप्पाएण तओ इह जंघाचारणो हो (ए) इ || पढमेण माणुसोत्तरनगं स नंदिस्सरं तु बिइएण । एइ तओ तइएणं कयचेइयवंदणो इहई || पढमेण नंदणवणे बीओप्पाएण पंडगवणंमि । एइ - दहं तइएणं जो विज्जाचारणो होइ ॥ विशे. भा. ७८९-७९३. २ अविराहियप्पुका जीवे पदखेवणेहिं जं जादि । धावेदि जलहिमज्झे स च्चिय जलचारणा रिद्धी ॥ वि. प. ४-१०३६. Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १७. मुढविकाइयजीवाणं बाहमकाऊण अणेगजोयणसयमामिणो जंघचारणा' णाम । धूमग्गि-गिरितरु-तंतुसंताणेसु उड्डारोहणसत्तिसंजुत्ता सेडीचारणा णाम । चउहि अंगुलेहितो अहियपमाणेण भूमीदो उवरि आयासे गच्छंतो आगासचारणा णाम् । आगासचारणाणमुवरि उच्चमाणआगासगामीणं च को विसेसो ? उच्चदे- जीवपीडाए विणा पादुक्खेवेण आगासगामिणो आगासचारणा णाम । पलियंक-काउसग्ग-सयणासण-पादुक्खेवादिसव्वपवारहि आगासे संचरणसमत्था आगासगमिणो । चारणाणमेत्थ एगसंजोगादिकमेग विसदपंचपंचास भंगा उप्पाएदवा। कधमेगं चारित्तं विचित्तसत्तिसमुप्पाययं ? ण, परिणामभेएण णाणभेदभिण्णचारित्तादो चारणबहुत्तं पडि विरोहाभावादो। कधं पुण चारणा अट्टविहा त्ति जुज्जदे ? ण एस दोसो, णियमाभावादो, समान कहना चाहिये। भूमिमें पृथिवीकायिक जीवोंको बाधा न करके अनेक सौ योजन गमन करनेवाले जंघाचारण कहलाते हैं। धूम, अग्नि, पर्वत और वृक्षके तन्तुसमूहपरसे ऊपर चढ़नेकी शक्तिसे संयुक्त श्रेणीचारण हैं। चार अंगुलोंसे अधिक प्रमाणमें भूमिसे ऊपर आकाशमें गमन करनेवाले ऋषि आकाशचरण कहे जाते हैं। शंका-आकाशचारण और आगे कहे जानेवाले आकाशगामीके क्या भेद है ? समाधान - इस शंकाकारका उत्तर कहते हैं । जीवपीड़ाके विना पैर उठाकर आकाशमें गमन करनेवाले आकाशचारण हैं। पल्यंकासन, कायोत्सर्गासन, शयनासन और पैर उठाकर इत्यादि सब प्रकारोंसे आकाशमें गमन करने में समर्थ ऋषि आकाशगामी कहे जाते हैं। यहां चारण ऋषियोंके एकसंयोग द्विसंयोगांदिके क्रमसे दो सौ पचवन भंग उत्पन्न करना चाहिये । (देखो सूत्र १५ की टीका )। शंका-एक ही चारित्र इन विचित्र शक्तियोंका उत्पादक कैसे हो सकता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, परिणामके भेदसे नाना प्रकार चारित्र होनेके कारण चारणोंकी अधिकतामें कोई विरोध नहीं है। शंका-जब चारणोंके भेद दो सौ पचवन हैं तो फिर उन्हें आठ प्रकार बतलाना कैसे युक्त है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उनके आठ प्रकार होनेका नियम १ चउरंगुलमेत्तमहिं छंडिय गयणम्मि कुडिलजाणु विणा । जं बहुजोयणगमणं सा जंघाचारणा रिद्धी ॥ ति.प.४-१०३७. Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १८.] कदिअणियोगदारे पण्णसमणरिद्धिपरूवणा । [८१ बिसदपंचवंचासचारणाणं अट्ठविहचारणेहिंतो एयंतेण पुधत्ताभावादो च । एदेसिं चारणजिणाणं णमो इदि उत्तं होदि । कधं चारणाणं अट्ठसंखाणियमो ? ण, इदरेसिं चारणाणमेत्थंतब्भावादो । तं जहाचिक्खल्ल-छार-गोवर-भुसादिचारणाणं जंघचारणेसु अंतब्भावो, भूमीदो चिक्खल्लादीणं कथंचि भेदाभावादो। कुंथुद्देही-मक्कुण-पिपीलियादिचारणाणं फलचारणेसु अंतब्भावो, तसजीवपरिहरणकुसलतं पडि भेदाभावादो। पत्तंकुर-तण-पवालादिचारणाणं पुप्फचारणेसु अंतब्भावो, हरिदकायपरिहरणकुसलत्तेण साहम्मादो । ओस-करवास-धूमरी-हिमादिचारणाणं जलचारणेसु अंतभावो, आउक्काइयजीवपरिहरणकुसलत्तं पडि साहम्मदंसणादो । धूमग्गि-वाद-मेहादिचारणाणं तंतु-सेडिचारणेसु अंतम्भावो, अणुलोम-विलोमगमणेसु जीवपीडाअकरणसत्तिसंजुत्तत्तादो । एवमण्णेसि पि चारणाणमेत्येव अंतब्भावो दहव्यो ।) (णमो पण्णसमणाणं ॥ १८ ॥) नहीं है, तथा दो सौ पचास चारण आठ प्रकार चारणोंसे एकान्ततः पृथक् भी नहीं हैं। इन चारणजिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है। शंका - चारणोंकी आठ संख्याका नियम कैसे बनता है ? समाधान-नहीं, अन्य चारणोंका इनमें अन्तर्भाव होनेसे उक्त संख्यानियम बन जाता है । वह इस प्रकारसे-कीचड़, भस्म, गोवर और भूसे आदि परसे गमन करनेवालोंका जंघाचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, भूमिसे कीचड़ आदिमें कथंचित् अभेद है। कुंथु जीव, मत्कुण और पिपीलिका आदि परसे संचार करनेवालोंका फलचारणों में अन्त- . र्भाव होता है, क्योंकि, इनमें त्रस जीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। पत्र, अंकुर, तण और प्रवाल आदि परसे संचार करनेवालोंका पुष्पचारणोंमें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, हरितकाय जीवोंके परिहारकी कुशलताकी अपेक्षा इनमें समानता है। ओस, ओला, कुहरा और बर्फ आदि पर गमन करनेवाले चारणोंका जलचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, इनमें जलकायिक जीवोंके परिहारकी कुशलताके प्रति समानता देखी जाती है। धूम, अग्नि, वायु और मेघ आदिके आश्रयसे चलनेवाले चारणोंका तन्तुश्रेणीचारणों में अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, वे अनुलोम और प्रतिलोम गमन करनेमें जीवोंको पीड़ा न करनेकी शक्तिसे संयुक्त हैं। इसी प्रकार अन्य चारणोंका भी इनमें ही अन्तर्भाव समझना चाहिये। प्रज्ञाश्रवणोंको नमस्कार हो ॥९॥ १ प्रतिषु ' एदमण्णेसिं ' इति पाठः । छ.क. ११. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १८. .. औत्पत्तिकी पैनयिकी कर्मजा पारिणामिकी चेति चतुर्विधा प्रज्ञा । तत्थ जम्मंतरे चउविहणिम्मलमदिबलेण विणएणावहारिददुबालसंगस्स देवेसुप्पज्जिय मणुस्सेसु अविण?संसकारणुप्पण्णस्स एत्थ भवम्मि पढण-सुणग-पुच्छणवावारविरहियस्स पण्णा अउप्पत्तिया णाम । उत्तं च विणएण सुदमधीदं' किह वि पमादेण होदि विस्सरिदं । ...तमुवट्ठादि परभवे केवलणाणं च आहवदि ॥ २२ ॥ एसो उप्पत्तिपण्णसमणो छम्मासोपवासगिलाणो वि तब्बुद्धिमाहप्पजाणावणटुं पुच्छावावदचौदसपुव्विस्स वि उत्तरबाहओ। विणएण दुवालसंगाई पढंतस्सुप्पण्णा वेणइया णाम, परोवदेसेण जादपण्णा वा। तवच्छरणबलेण गुरूवदेसणिरपेक्खेणुप्पण्णपण्णा कम्मजा णाम, ओसहसेवाबलणुप्पण्णपण्णा वा । सग-सगजादिविसेसेण समुप्पण्णपण्णा पारिणामिया णाम । औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कर्मजा और पारिणामिकी इस प्रकार प्रज्ञा चार प्रकार है । उनमें जन्मान्तरमें चार प्रकारको निर्मल बुद्धिके बलसे विनयपूर्वक बारह अंगोंका अवधारण करके देवोंमें उत्पन्न होकर पश्चात् अविनष्ट संस्कारके साथ मनुष्योंमें उत्पन्न होनेपर इस भवमें पढ़ने, सुनने व पूछने आदिके व्यापारसे रहित जीवकी प्रज्ञा औत्पत्तिकी कहलाती है । कहा भी है विनयसे अधीत श्रुतज्ञान यदि किसी प्रकार प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो उसे [औत्पत्तिकी प्रज्ञा ] पर भवमें उपस्थित करती है और केवलज्ञानको बुलाती है ॥ २२ ॥ यह औत्पत्तिप्रज्ञाश्रमण छह मासके उपवाससे कृश होता हुआ भी उस बुद्धिके माहात्म्यको प्रकट करनेके लिये पूछने रूप क्रियामें प्रवृत्त हुए चौदहपूर्वीको भी उत्तर देता है। विनयसे बारह अंगोंको पढ़नेवाले के उत्पन्न हुई बुद्धिका नाम वैनयिक है । अथवा परोपदेशसे उत्पन्न बुद्धि भी वैनयिक कहलाती है। गुरुके उपदेशके विना तपश्चरणके बलसे उत्पन्न बुद्धि कर्मजा है। अथवा औषधसेवाके बलसे उत्पन्न बुद्धि भी कर्मजा है । अपनी अपनी जातिविशेषसे उत्पन्न बुद्धि पारिणामिका कही जाती है। १ प्रतिषु' -मदीदं ' इति पाठः। २ पगडीए सुदणाणावरणाए वीरियंतरायाए। उक्कस्सक्खउवसमे उप्पज्जइ पण्णसमणद्धी ॥ पण्णासमणद्धिजुदो चोदसपुव्वीसु विसयसहुमत्तं । सव्वं हि सुदं जाणदि अकअज्झअणो बिणियमेण ॥ भासंति तस्स बुद्धी पण्णासमणाद्ध सा च च उभेदा। अउपत्तिअ-परिणामिय वइणइकी कम्मजा णेया ॥ अउपत्तिकी भवंतरसुदविणएणं समुल्लसिदभावा। णिय-णियजादिविसेसे उप्पण्णा पारिणामिकी णामा ॥ वइणइकी विणएणं उम्पज्जदि बारसंगसुदजोग्गं । उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण कम्मजा तुरिमा ॥ ति.प. ४,१०१७-१०२१. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १८.] कदिअणियोगदारे पण्णसंमणरिद्धिपरूवणा [ ८३ उसहसेणादीणं तित्थयरवयणविणिग्गयबीजपदट्ठावहारयाणं पण्णाए कत्थंतब्भावो १ पारिणामियाए, विणय-उप्पत्ति-कम्मेहि विणा उप्पत्तीदो । पारणामिय-उप्पत्तियाणं को विसेसो ? जादिविसेसजणिदकम्मक्खओवसमुप्पण्णा पारिणामिया, जम्मंतरविणयजणिदसंसकारसमुप्पण्णा अउप्पत्तिया त्ति अस्थि विसेसो । एदेसु पण्णसमणेसु केसिं गहणं ? चदुण्डं पि गहणं । प्रज्ञा एव श्रवण येषां ते प्रज्ञाश्रवणाः । तदो ण वैणइयपण्णसमणाणं गहणमिदि ? ण, अदिट्ठ-अस्सुदेसु अढेसु णाणुप्पायणजोगतं पण्णा णाम, तिस्से सवत्थ उवलंभादो । गुरूवदेसेणावगयचोदसपुव्वे कहमस्सुदत्थावगमो ? ण, अणभिलप्पत्थविसयणाणुप्पायणसत्तीए तत्थाभावे सयलसुद शंका-तीर्थकरके मुखसे निकले हुए बीजपदोंके अर्थका निश्चय करनेवाले वृषभसेनादि गणधरोंकी प्रज्ञाका कहां अन्तर्भाव होता है ? समाधान - उसका पारिणामिक प्रज्ञामें अन्तर्भाव होता है, क्योंकि, वह विनय, उत्पत्ति और कर्मके विना उत्पन्न होती है। शंका -पारिणामिक और औत्पत्तिक प्रज्ञामें क्या भेद है ? समाधान-जातिविशेषमें उत्पन्न कर्मक्षयोपशमसे आविर्भूत हुई प्रज्ञा पारिणामिक है, और जन्मान्तरमें विनयजनित संस्कारसे उत्पन्न प्रज्ञा औत्पत्तिकी है, यह दोनोंमें भेद है। . शंका-इन प्रशाश्रवणोंमें यहां किनका ग्रहण है ? समाधान-चारों ही प्रशाश्रमणोंका ग्रहण है, क्योंकि, 'प्रज्ञा ही है श्रवणं जिनका वे प्रज्ञाश्रवण हैं ' ऐसी निरुक्ति है ? शंका-तो फिर वैनयिक प्रज्ञाश्रवणोंका ग्रहण नहीं हो सकेगा ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अदृष्ट और अश्रुत अर्थो में शानोत्पादनकी योग्यताका नाम प्रज्ञा है, सो वह सर्वत्र पायी जाती है। शंका-गुरूके उपदेशसे चौदह पूर्वोका ज्ञान प्राप्त करनेवाले प्रशाश्रवणके अश्रुत अर्थका शान कैसे कहा जा सकता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उसमें अवक्तव्य पदार्थ विषयक ज्ञानके उत्पादनकी १ प्रतिषु ' कथंतब्भावो' इति पाठः । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १९. णाणुप्पत्तिविरोहादो । असंजदाणं ण पण्णसमणाणं गहणं, जिणसदाणुउत्तीदो । एदेसिं पण्णसमणजिणाणं णमो । पण्णाए णाणस्स य को विसेसो ? णाणहेदुजीवसत्ती गुरूवएसणिरवेक्खा पण्णा णाम, तक्कारियं णाण; तदो अत्थि भेदो । (णमो आगासगामीणं ॥ १९ ॥ आगासे जहिच्छाए गच्छंता इच्छिदपदेसं माणुसुत्तरपव्वयावरुद्धं आगासगामिणो' त्ति घेत्तव्वा । देव-विज्जाहराणं ण ग्गहणं, जिणसद्दाणुउत्तीदो । आगासचारणाणमागासगामीणं च को विसेसो ? उच्चदे - चरणं चारित्तं संजमो पावकिरियाणिरोहो ति एयहो, तम्हि कुसलो णिउणो चारणो । तवविसेसेण जणिदआगासट्ठियजीव [ -वध ] परिहरणकुसलत्तणेण सहिदो शक्तिका अभाव होनेपर समस्त श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका विरोध होगा। यहां असंयत प्रज्ञाश्रवणोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति आती है। इन प्रज्ञाश्रवण जिनोंको नमस्कार हो । शंका-प्रज्ञा और ज्ञानके बीच क्या भेद है ? समाधान-गुरूके उपदेशसे निरपेक्ष ज्ञानकी हेतुभूत जीवकी शक्तिका नाम प्रशा है, और उसका कार्य ज्ञान है। इस कारण दोनोंमें भेद है । आकाशगामी जिनोंको नमस्कार हो ॥ १९॥ . . आकाशमें इच्छानुसार मानुषोत्तर पर्वतसे घिरे हुए इच्छित प्रदेशमें गमन करनेवाले आकाशगामी है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहां देव व विद्याधरोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति है । शंका-आकाशचारण और आकाशगामीके क्या भेद है ? समाधान -इसका उत्तर कहते हैं- चरण, चारित्र, संयम व पापक्रियानिरोध, इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थात् निपुण है वह चारण कहलाता है । तपविशेषसे उत्पन्न हुई आकाशस्थित जीवोंके [वधके ] परिहारकी कुशलतासे जो सहित १ दुविहा किरियारिद्धी णहबलगामित्त चारणत्तेहिं । उट्ठीओ आसीणो काउस्सग्गेणं इदरेणं ॥ गच्छेदि जीए या रिद्धी गयणगामिणी णाम। ति.प.४,१०३३-१०३४. पर्यकावस्था निषण्णा वा कायोत्सर्गसरीरा वा पादोद्वारनिक्षेपणविधिमंतरेणाकाशगमनकुशला आकाशगामिनः । त. रा. ३, ३६, २. Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २०. ] कदिअणियोगद्दारे आसक्सि रिद्धिपरूवणा ( ८५ आगासचारणो' । आगासगमणमेत्तजुत्ता आगासगामी । आगासगामित्तादो जीवबधपरिहरणकुसलत्तणेण विसेसिदआगासगामित्तस्स विसेसुवलंभादो अस्थि विसेसो । एदेसिं तवोयलेण आगास गामीण जिणाणं णमो त्ति उत्तं होदि । णमो आसीविसाणं ॥ २० ॥ अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विषं एषां ते आशीर्विषाः । जेसिं जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिष्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्ति वयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीसं छिंददि, ते आसीविसा' णाम समणा । कथं वयणस्स विससण्णा ? विसमिव विसमिदि उवयारादो । आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा । जेसिं वयणं थावर-जंगमविसपूरिदजीवे पडुच्च ' णिव्विसा होंतु ' ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि, वाहिवेयण-दालिद्दादि हैं वह आकाशचारण है । आकाशमें गमन करने मात्रसे संयुक्त आकाशगामी कहलाता है । सामान्य आकाशगामित्वकी अपेक्षा जीवोंके वधपरिहारकी कुशलतासे विशेषित आकाशगामित्वके विशेषता पायी जानेसे दोनों में भेद है । तपके बलसे आकाश में गमन करनेवाले इन जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । आशीर्विष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २० ॥ अविद्यमान अर्थकी इच्छाका नाम आशिष् है, आशिष् है विष जिनका वे आशीविष कहे जाते हैं । 'सर जाओ ' इस प्रकार जिसके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, 'भिक्षा के लिये भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, 'शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिरको छेदता है, वे आशीर्विष नामक साधु हैं । शंका- वचनके विष संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - विषके समान विष है, इस प्रकार उपचारसे वचनको विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष् है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विषसे पूर्ण जीवोंके प्रति ' निर्विष हो ' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें १ प्रतिषु ' आगासचारिणी' इति पाठः । २ मर इदि भणिदे जीओ मरेह सहस चि जीए सत्तीए । दुक्खरतवजुदमुणिण आसीदिसणामरिद्धी सा ॥ ति. पं. ४ -१०७८. प्रकृष्टतपोबला यतयो यं ब्रुवते म्रियस्वेति स तत्क्षण एव महाविषपरीतो म्रियते ते आस्यविषाः । त. रा. ३, ३६, २. आसी दादा तग्गय महाविसाssसीविसा दुविहभेया । ते कम्म- जाइभेएण गहा चउब्बिहविकप्पा ॥ प्रवचनसारोद्धार १५०१. विशे. भा. ७९४. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] . छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, २१. विलयं पडुच्च णिप्पडिदं संतं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसा' त्ति उत्तं होदि । तवाबलेण एवंविहसत्तिसंजुत्तवयणा होदूण जे जीवाणं णिग्गहाणुग्गहं ण कुणंति, ते आसीविसा त्ति घेत्तव्वा । कुदो ? जिणाणुउत्तदो । ण च णिग्गहाणुग्गहेहि संदरिसिद रोस - तोसाणं जिणत्तमत्थि, विरोहादो । एदेसिं सुहानुहलद्धिसहियाणमासीविसाणं जिणाणं णिसुढिय महिवीढेणिवदिदो किदियकम्मं करेमि त्ति उत्तं होदि । णमो दिट्टिविसाणं ॥ २१ ॥ दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् । तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि । रुट्ठा जदि जोएदि चिंतेदि किरियं करेदि वा ' मारेमि 'त्ति तो मारेदि, अण्णंपि असुहकम्मं संरंभपुव्वावलोयणेण कुणमाणो दिट्ठिविस णाम । एवं दिट्ठिअमियाणं पि जाणि जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदिके विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्यको करता है, वे भी आशीर्विष हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है। तपके प्रभावसे जो इस प्रकारकी शक्ति युक्त वचनोंसे संयुक्त हो करके जीवोंके निग्रह व अनुग्रहको नहीं करते हैं वे आशीर्विष हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति है । और निग्रह व अनुग्रह द्वारा क्रमशः क्रोध व हर्षको दिखलानेवालोंके जिनत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, विरोध है । इन शुभ व अशुभ लब्धि सहित आशीर्विष जिनोंको नत होता हुआ पृथिवीतलपर गिरकर वन्दना करता हूं, यह कहनेका तात्पर्य है । दृष्टिविष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २१ ॥ दृष्टि शब्द से यहां चक्षु और मनका ग्रहण है, क्योंकि, उन दोनोंमें दृष्टि शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है । उसकी सहचरतासे क्रियाका भी ग्रहण है । रुष्ट होकर वह यदि ' मारता हूं ' इस प्रकार देखता है, सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है, तथा क्रोधपूर्वक अवलोकनसे अन्य भी अशुभ कार्यको करनेवाला दृष्टिविष कहलाता है । १ तिचादिविविह्मणं विसजुतं जीए वयणमेतेणं । पावेदि णिन्त्रिसचं सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ॥ अहवा बहुवाहीहिं परिभूदा झत्ति होंति णीरोगा । सोदुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिव्वा णामा ॥ ति.प. ४-१०७४-१०७५. उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्यविनिर्गतवचः श्रवणाद्धा महाविषपरीता अपि निर्विषीभवंति ते आस्याविषाः । त. रा. ३, ३६, २. २ प्रतिषु ' महीविद -' इति पाठः । ३ जीए जीओ दिट्ठो महासिणा रोसभरिदहिदएण । अहिदट्ठे व मरिज्जदि दिडिविसा णाम सा रिद्धी ॥ ति. पं. २०१०७९. उत्कृष्टतपसो यतयः क्रुद्धा यमीक्षन्ते स तदैवोप्रविषपरीतो म्रियते ते दृष्टिविष । । त. रा. ३, ३६, २. ४ रोग-विसेहि पहदा दिट्ठीए जीए झति पार्वति । नीरोग - गिव्विसतं सा भणिदा दिट्ठिनिव्विसा रिद्धी ॥ ति. व. ४- १०७६. येषामालोकनमात्रादेवातितीव्र विषदूषिता अपि संतः विगतविषा भवति ते दृष्टिविषाः । ब्र.रा. ३, ३६, २. Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, २२.] कदिअणियोगहारे उग्गतवरिद्विपरूषणा [८७ दूण लक्खणं वत्तव्वं । जिणाणमिदि अणुवट्टदे, अण्णहा दिह्रिविसाणं सप्पाणं पि णमोक्कारप्पसंगादो । एदेसिं सुहासुहलद्धिजुत्ताणं तोस-रोसुम्मुक्काणं छविहाणं पि दिट्ठिविसाणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि। (णमो उग्गतवाणं ॥ २२ ॥ उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवविदुग्गतवा चेदि । तत्थ जो एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासे करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि । एवमेगुत्तरवड्डीए जाव जीविदंतं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करेंतो' उग्गुग्गतवो' णाम । एदस्सुववास-पारणाणयणे सुत्तं ___ उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्ठापितेऽत्र गुणमादिम् । उत्तरविशेषतं वगितं च योज्यानयेन्मूलम् ॥ २३ ॥) इसी प्रकार दृष्टि-अमृतोंका भी लक्षण जानकर कहना चाहिये । 'जिनोंको' इसकी अनुवृत्ति आती है, क्योंकि, इसके विना दृष्टिविष सोको भी नमस्कार करनेका प्रसंग आता है । इन शुभ व अशुभ लब्धिसे युक्त तथा हर्ष व क्रोधसे रहित छह प्रकारके ही दृष्टिविष जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। उग्रतप जिनोंको नमस्कार हो ॥ २२ ॥ उग्रतप ऋद्धि धारक दो प्रकार हैं-- उग्रंाग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धि धारक । उनमें जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियोंसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला उग्रोग्रतप ऋद्धिका धारक है । इसके उपवास और पारणाओंको लानेके लिये सूत्र विशेषार्थ-इन तीन करणसूत्रोंका पाठ कुछ अशुद्ध प्रतीत होता है जिससे उनका ठीक अर्थ नहीं बैठाया जा सका । किन्तु उनमें जिस गणितकी विवक्षा है वह स्पष्ट १ प्रतिषु ' करेंतवो' इति पाठः । २ उग्गतवा दो भेदा उग्गोग्ग-अवविदुग्गतवणामा ॥ दिक्खोववासमादि कादणं एक्काहिएक्कपचएणं । आमरणंत जवणं सा होदि उग्गोग्गतवरिती ॥ ति. प. १०५०-१०५१. ३ प्रतिषु 'पारणाणयणा' इति पाठः Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड आदि त्रिगुणं मूलादपास्य शेषं चरन हृतलब्धम् । सैकं दलितं च पदं शेषं तु धनं विनिर्दिष्टम् ॥ २४ ॥ मिश्रधने अष्टगुणो त्रिरूपवर्गेण संयुते मूलम् । मूलोर्द्ध च पदंशे शेषं तु धनं विनिर्दिष्टम् ॥ २५ ॥ ) एदेहि दोहि सुतेहि पदमाणिय धणम्मि सोहिदे उववासदिवसा । पदमेत्ताओ पारणाओ । एवं संते छम्मासेहिंतो वड्डिमा उववासा होंति । तदो णेदं घडदि त्ति ? ण एस दोसो, घादाउआणं मुणीणं छम्मास ववासणियमन्भुवगमादो, णाघादाउआणं, तेसिमकाले है । गोम्मटसार जीवकाण्डकी टीका (पृ. १२० आदि ) में उल्लिखित करणसूत्रों के अनुसार उपवास और पारणाके दिनोंकी गणना निम्न प्रकार की जा सकती है मान लीजिये कि एक उग्रोग्र तपस्वी प्रतिपदासे प्रारम्भ कर एकोत्तर वृद्धि क्रमसे चतुर्दशी तक निम्न प्रकारसे उपवास ( उ ) व पारणा (पा) करता है १ २ उपा १ ३ ४५ उ उ पा २ [ ४, १, २२. ६७८९ उ उ उ पा ३ इसका सर्वधन या पदधन 'मुह-भूमिजोगदले पदगुणिदे पदधणं होदि ' इस सूत्र के अनुसार हुआ - {(२ + ५ ) ÷ २} x ४ = १४ पद धन या सर्वधन । १० ११ १२ १३ १४ उ उ उ उ पा ४ इसमें पदसंख्या अर्थात् कितने वार उपवास और पारणायें हुई इसकी गणना ' आदी अंते सुद्धे वहिदे रूवसंजुदे ठाणे ' इस सूत्र के अनुसार हुई— ( ५ -२ ) × १ + १ = ४ पद । अब धवल(कारके अनुसार धनमेंसे पदकी संख्या घटानेपर १४ - ४ = १० उववास दिवस हुए, और पदमात्र अर्थात् ४ पारणादिन । इन दो सूत्रोंसे पदको लाकर धनमेंसे कम करनेपर उपवासदिन होते हैं । पारणाएं पद प्रमाण होती हैं । १ प्रतिषु वटुमा ' इति पाठः । ? शंका- ऐसा होनेपर छह मासोंसे अधिक उपवास हो जाते हैं । इस कारण यह घटित नहीं होता ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, घातायुष्क मुनियोंके छह मासों के उपवासका नियम स्वीकार किया है, अघातायुष्क मुनियोंके नहीं; क्योंकि, उनका अकालमें Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [८९ १, १, २२.] कदिअणियोगद्दारे उग्गतवरिद्धिपरूवणा मरणाभावादो। अघादाउआ वि छम्मासोववासा चेव होति, तदुवरि संकिलेसुप्पत्तीदो ति उत्ते होदु णाम एसो णियमो ससंकिलेसाणं सोवक्कमाउआणं च, ण संकिलेसविरहिदणिरुवक्कमाउआणं तवोबलेणुप्पण्णविरियंतराइयक्खओवसमाणं तब्बलेणेव मंदीकयासादावेदणीओदयाणमेस णियमो, तत्थ तव्विरोहादो। एरिसी सत्ती महाणस्सुप्पज्जदि ति कषं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । कुदो ? छम्मासेहिंतो उवरि उववासाभावे उग्गुग्गतवाणुववत्तीदो। तत्थ दिक्खट्ठमेगोववासं काऊण पारिय पुणो एक्कहतरेण गच्छंतस्स किंचिणिमित्तेण छट्ठोववासो जादो। पुणो तेण छट्टोववासेण विहरंतस्स अट्ठमोववासो जादो। एवं दसमदुवालसादिक्कमेण हेट्ठा ण पदंतो जाव जीविदंतं जो विहरदि अवट्ठिदुग्गतवो णाम । एदं पि तवोविहाणं वीरियंतराइयक्खओवसमेण होदि। दोणं पि तवाणमुक्कट्ठफलं णिव्वुई, अवर' मरण नहीं होता। शंका-अघातायुष्क भी छह मास तक उपवास करनेवाले ही होते हैं, क्योंकि, इसके आगे संक्लेश भाव उत्पन्न हो जाता है ? समाधान- इसके उत्तरमें कहते हैं कि संक्लेश सहित और सोपक्रमायुष्क मुनियों के लिये यह नियम भले ही हो, किन्तु संक्लेश भावसे रहित निरुपक्रमायुष्क और तपके बलसे उत्पन्न हुए वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे संयुक्त तथा उसके बलसे ही असातावेदनीयके उदयको मन्द कर चुकनेवाले साधुओंके लिये यह नियम नहीं है, क्योंकि, उनमें इसका विरोध है। शंका-ऐसी शक्ति किसी महाजन अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषके उत्पन्न होती है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान- इसी सूत्रसे ही यह जाना जाता है, क्योंकि, छह मासोंसे ऊपर उववासका अभाव माननेपर उग्रोग्र तप बन नहीं सकता। दीक्षाके लिये एक उपवास करके पारणा करे, पश्चात् एक दिनके अन्तरसे ऐसा करते हुए किसी निमित्तसे षष्ठोपवास हो गया। फिर उस षष्ठोपवाससे विहार करनेवालेके अष्टमोपवास हो गया। इस प्रकार दशम-द्वादशम आदिके क्रमसे नीचे न गिरकर जो जीवन पर्यंत विहार करता है वह अवस्थित उग्रतप ऋद्धिका धारक कहा जाता है। यह भी तपका अनुष्ठान वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे होता है। इन दोनों ही तपोंका उत्कृष्ट .......................................... १ प्रतिषु · विरहिणिरुवक्कमाउआणं ' इति पाठः । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] - छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, १,२४. मणुक्कट्ठफलं । एदेसिमुग्गतवाणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि । णमो दित्ततवाणं ॥ २३ ॥ दीप्तिहेतुत्वाद्दीप्तं तपः । दीप्तं तपो येषां ते दीप्ततपसः । चउत्थ-छट्ठमादिउववासेसु कीरमाणेसु जेसिं तवजणिदलद्धिमाहप्पेण सरीरतेजो पडिदिणं वदि धवलपक्खचंदस्सेव ते रिसओ दित्ततवा । तेसिं ण केवलं दित्ती चेव वड्डदि, किंतु बलो वि वड्डदि; सरीरबल-मांस-रुहिरोवचएहि विणा सरीरदीत्तिवुड्डीए अणुववत्तीदो । तेण ण तेसिं भुत्ती वि, तक्कारणाभावादो। ण च भुक्खादुक्खुवसमणटं भुंजंति, तदभावादो । तदभावो कुदो वग्गम्मदे ? दित्ति-बल-सरीरोवचयादो । तेसिं दित्ततवाणं मण-वयण-कोएहिं णमो । ((णमो तत्ततवाणं ॥ २४ ॥ फल मोक्ष है, अन्य अनुत्कृष्ट फल है। इन उग्रतप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है। दीप्ततप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २३ ॥ दीप्तिका कारण होनेसे तप दीप्त कहा जाता है । दीप्त है तप जिनका वे दीप्ततप हैं। चतुर्थ व छट्ठम आदि उपवासोंके करनेपर जिनका शरीरतेज तप जनित लब्धिके माहात्म्यसे प्रतिदिन शुक्ल पक्षके चन्द्र के समान बढ़ता जाता है, वे ऋषि दीप्ततप कहलाते हैं। उनकी केवल दीप्ति ही नहीं बढ़ती है, किन्तु बल भी बढ़ता है, क्योंकि, शरीरबल, मांस और रुधिरकी वृद्धिके विना शरीरदीप्तिकी वृद्धि हो नहीं सकती। इसीलिये उनके आहार भी नहीं होता, क्योंकि, उसके कारणोंका अभाव है। यदि कहा जाय कि भूखके दुखको शान्त करनेके लिये वे भोजन करते हैं, सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि, उनके भूखके दुखका अभाव है। शंका-उसका अभाव कहांसे जाना जाता है ? समाधान-दीप्ति, बल और शरीरकी वृद्धिसे वह जाना जाता है। उन दीप्ततप ऋद्धिधारकोंको मन, वचन और कायसे नमस्कार हो । तप्ततप ऋद्धिधारकोंको नमस्कार हो ॥ २४ ॥ १ प्रतिषु ' पदादीणं ' इति पाठः । २ बहुविहउवत्रासेहिं रविसमवइंतकायकिरणोघो । काय-मण-वयणबलिणो जीए सा दित्ततवरिद्धी ॥ ति. प. ४-१०५२. महोपवासकरणेऽपि प्रवर्धमानकाय-वाङ्मानसबलाः विगन्धरहितवदनाः पद्मोत्पलादिसुरभिनिश्वासाः अप्रच्युतमहादीप्तिशरीराः दीप्ततपसः । त. रा. ३, ३६, २. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, २५.] कदिअणियोगद्दारे महातवरिद्धिपरूवणा तप्तं दग्धं विनाशितं मूत्र-पुरीष-शुक्रादि येन तपसा तदुपचारेण तप्ततपः । जेसिं भुत्तचउव्विहाहारस्स तत्तलोहपिंडागरिसिदपाणियस्सेव णीहारो णत्थि ते तत्ततवा । एदाए रिद्धीए सहियाण जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि । (णमो महातवाणं ॥ २५॥) - अणिमादिअट्टगुणोवेदो जलचारणादिअट्ठविहचारणगुणांलकरियो फुरंतसरीरप्पेहो दुविहअक्खीणलद्धिजुत्तो सव्वोसहिसरूवो पाणिपत्तणिवदिदसव्वाहारे अमियसादसरूवेण पल्लट्टावणसमत्थो सयलिंदेहितो वि अणंतबलो आसी-दिद्विविसलद्धिसमण्णिओ तत्ततवो सयलविज्जाहरो मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणेहि मुणिदतिहुवणवावारो मुणी महातवो' णाम । कस्मात् ? महत्वहेतुस्तपोविशेषो महानुच्यते उपचारेण, स येषां ते महातपसः इति सिद्धत्वात् । अथवा जिस तपके द्वारा मूत्र, मल और शुक्रादि तप्त अर्थात् दग्ध व विनष्ट कर दिया जाता है वह उपचारसे तप्ततप है। जिनके ग्रहण किये हुए चार प्रकारके आहारका तपे · हुए लोहपिण्ड द्वारा आकृष्ट पानीके समान नीहार नहीं होता वे तप्ततप ऋद्धिके धारक हैं । इस ऋद्धिसे सहित जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। महातप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २५ ॥ जो अणिमादि आठ गुणोंसे सहित है, जलचारणादि आठ प्रकारके चारणगुणोंसे अलंकृत है, प्रकाशमान शरीरप्रभासे संयुक्त है; दो प्रकारकी अक्षीण ऋद्धिसे युक्त है, सर्वोषधि स्वरूप है, पाणिपात्रमें गिरे हुए सब आहारोंको अमृतस्वरूपसे पलटानेमें समर्थ है, समस्त इन्द्रोंसे भी अनन्तगुणे बलका धारक है, आशीविष और दृष्टिविष लब्धियोंसे समन्वित है, तप्ततप ऋद्धिसे संयुक्त है, समस्त विद्याओंका धारक है; तथा मति, श्रुत, अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानोंसे तीनों लोकके व्यापारको जाननेवाला है, वह मुनि महातप ऋद्धिका धारक है। कारण कि महत्वके हेतुभूत तपविशेषको उपचारसे महान् कहा जाता है । वह जिनके होता है वे महातप ऋषि है, ऐसा सिद्ध है। अथवा, ................ १ प्रतिषु ' तत्थ ' इति पाठः। २ तत्ते लोहकडाहे पडिअंबुकणं व जीए भुत्तण्णं । झिज्जदि धाऊहिं सा णियझाणाएहिं तत्तवा ॥ ति. प. ४-१०५३. तप्तायसकटाहपतितजलकणवदाशुशुष्काल्पाहारतया मल-रुधिरादिभावपरिणामविरहिताभ्यवहाराः तप्ततपसः । त. रा. ३, ३६, २. ३ मंदरपंतिप्पमुहे महोववांसे करेदि सबै वि। चउसण्णाणबलेणं जीर सा महातवा रिद्धी ॥ ति.प. ४-१०५४. सिंहनिःक्रीडितादिमहोपवासानुष्ठानपरायणयतयो महातपसः। त. रा. ३, ३६, २. Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४,१,२६. महसां हेतुः तप उपचारेण महा इति भवति । सेसं सुगमं । एदेसिं महातवाणं मण-वयण. कायेहि णमोक्कार करेमि । णमो घोरतवाणं ॥ २६ ॥ उववासेसु छम्मासोववासो, ओमोदरियासु एक्ककवलो, उत्तिपरिसंखासु चच्चरे गोयराभिग्गहो, रसपरिच्चाग्गेसु उण्हजलजुदायणभोयणं, विवित्तसयणासणेसु वय-वग्ध-तरच्छछवल्लादिसावयसेवियासु सज्झ-विज्झुडईसु णिवासो, कायकिलेसेसु तिव्वहिमवासादिणिवदंतविसएसु अब्भोकासरुक्खमूलादावणजोगग्गहणं । एवमभंतरतवेसु वि उक्कतवपरूवणा कायव्वा । एसो बारहविहो वि तवो कायरजणाणं सज्झसजणणो त्ति घोरत्तवो । सो जेसि ते घोरत्तवा । बारसव्विहत्तउक्कट्ठवहाए वट्टमाणा घोरतवा' त्ति भाणदं होदि । एसा वि तवजणिदरिद्धी चेव, अण्णहा एवंविहाचरणाणुववत्तीदो । एदेसिं घोरतवाणं णमो इदि उत्तं होदि । महसू अर्थात् तेजोंका हेतुभूत जो तप है वह उपचारसे 'महा' होता है। शेष सुगम है। इन महातप ऋद्धिधारकोंको मन, वचन व कायसे नमस्कार करता हूं। घोरतप ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २६ ॥ उपवासों में छह मासका उपवास, अवमोदर्य तपों में एक ग्रास, वृत्तिपरिसंख्याओंमें चत्वर अर्थात चौराहेमें भिक्षाकी प्रतिज्ञा, रसपरित्यागों में उष्ण जल यक्त ओदनका भोजनः विविक्तशय्यासनोंमें वृक, व्याघ्र, तरक्ष, छबल्ल आदि श्वापद अर्थात् हिन जीवोंसे सेवित सह, विन्ध्य आदि अटवियों में निवास, कायक्लेशों में तीन हिमालय आदिके अन्तर्गत देशों में खुले आकाशके नीचे अथवा वृक्षमूल में आतापन योग अर्थात् ध्यान ग्रहण करना। इसी प्रकार अभ्यन्तर तोमें भी उत्कृष्ट तपकी प्ररूपणा करना चाहिये। यह बारह प्रकार ही तप कायर जनोंको भयोत्पादक है, इसी कारण घोर तप कहलाता है । वह तप जिनके होता है वे घोर तप ऋद्धिके धारक हैं । बारह प्रकारके तपोंकी उत्कृष्ट अवस्थामें वर्तमान साधु घोरतप कहलाते हैं, यह तात्पर्य है। यह भी तपजनित ऋद्धि ही है, क्योंकि, विना तपके इस प्रकारका आचरण बन नहीं सकता। इन घोरतप ऋषीश्वरोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। १ प्रतिषु ' -वुदोयण' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अब्भोवास.' इति पाठः । ३ जलसूलप्पमुहाणं रोगेणच्चतपीडिअंगा वि । साहति दुद्धरतवं जीए सा घोरतवरिद्धी॥ ति.. ४-१०५५. वात-पित्त-श्लेष्म-सनिपातसमुद्भूतज्वर-कास-श्वासाक्षि-शूल-कुष्ठ-प्रमेहादिविविधरोगसंतापितदेहा अप्यप्रच्युतानशन-कायक्लेशादितपसो भीमस्मशानाद्रिमस्तकगुहा-दरी-कंदर-शून्यनामादिषु प्रदुष्टयक्ष-राक्षस-पिशाचप्रवृत्तवेतालरुपविकारेषु परुषशिवारुतानुपरसिंह-व्याघ्रादि व्याल मृगभीषणस्वन-पौरचौरादिप्रचरितेष्वभिरुचितावासाच घोरतपसः । त. रा. ३, ३६, २, Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, २८. ] कदिअणियोगदारे घोरगुण रिद्धिपरूवणा ( णमो घोरपरक्कमाणं ॥ २७ ॥ तिहुवणुव संहरण - महीवी ढंगसण-सयलसायर जलसोसण - जलग्गिसिलापव्वदादिवरिसणसत्ती घोरपरक्कम णाम । घोरो परक्कमो जेसिं जिणाणं ते घोरपरक्कमा । तेसिं णमो इदि भणिदं होदि । ण कूरकम्माणं असुराणं णमोक्कारो पसज्जदे, जिणाणुवत्तीदो । णमो घोरगुणाणं ॥ २८ ॥ घोरा उद्दा गुणा जेसिं ते घोरगुणा । कथं चउरासीदिलक्खगुणाणं घोरतं ? घोरकज्जकारिसत्तिजणणादो । तेसिं घोरगुणाणं णमो इदि उत्तं होदि । णादिष्पसंगो, जिणाणुवृत्तीद | ण गुण परक्कमाणमेयत्तं, गुणजणिदसत्तीए परक्कमववएसादो | घोरपराक्रम ऋद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो ॥ २७ ॥ तीनों लोकोंका उपसंहार करने, पृथिवीतलको निगलने, समस्त समुद्र के जलको सुखाने; तथा जल, अग्नि एवं शिलापर्वतादि के वरसाने की शक्तिका नाम घोरपराक्रम है । घोर है पराक्रम जिन जिनोंका वे घोरपराक्रम कहलाते हैं । उनको नमस्कार हो, यह अभिप्राय है । यहां जिन शब्दकी अनुवृत्ति आनेसे क्रूर कर्म करनेवाले असुरोंको नमस्कार करनेका प्रसंग नहीं आता । गुण जिनको नमस्कार हो ॥ २८ ॥ घोर अर्थात् रौद्र हैं गुण जिनके वे घोरगुण कहे जाते हैं। शंका- चौरासी लाख गुणोंके घोरत्व कैसे सम्भव है ? समाधान - घोर कार्यकारी शक्तिको उत्पन्न करनेके कारण उनके घोरत्व सम्भव है। उन घोरगुण जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है । जिन शब्दकी अनुवृत्ति 1. होने से यहां अतिप्रसंग भी नहीं आता । गुण और पराक्रमके एकत्व नहीं है, क्योंकि, गुणसे उत्पन्न हुई शक्तिकी पराक्रम संज्ञा है । १ आप्रतौ ' -पडिक्कमणि', काप्रतौ ' परिक्कमाणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु महीविद' इति पाठः । ३ णिरुवमवततवा तिहुवण संहरणकरणसत्तिजुदा । कंटय- सिलग्गि-पव्त्रयधूमुक्का पहुदिव रिसणसमत्था ॥ सहस चि सयलसायरसलिलुप्पीलस्स सोसणसमत्था । जायंति जीए मुणिणो घोरपरक्कमतव ति सा रिद्धी ॥ पि. प. ४, १०५६-१०५७. त एव गृहीततपोयोगवर्धनपरा घोरपराक्रमाः । त. रा. ३, ३६, २. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे यणाखंड णमो घारगुणवंभचारीणं ॥ २९ ॥ ब्रह्म चारित्रं पंचत्रत-समिति - त्रिगुप्त्यात्मकम्, शान्तिपुष्टिहेतुत्वात् । अघोरा शान्ता गुणा यस्मिन् तदघोरगुणं, अघोरगुणं ब्रह्म चरन्तीति अघोरगुणब्रह्मचारिणः । जेसिं तवामाहप्पेण डमरीदि-मारि-दुब्भिक्ख-वइर - कलह-बध-बंधण - रोहादिपसमणसत्ती समुप्पण्णा ते अघोरगुणबम्हचारिणो' त्ति उत्तं होदि । तेसिं अघोरगुणबं भयारीणं णमो इदि उत्तं होदि । एत्थ अकारो किण्ण सुणिज्जदे ? संधिणिसादो । दिट्ठिअमियाणमघोरबंभयारीणं च को विसेसो ? उवजो सज्जदिट्ठीए दिलद्धिजुत्ता दिट्ठिविसा णाम । अघोरबंभयारीणं पुण लद्धी असंखेज्जा सव्वंगगया, एदेसिमंगलग्गवादे वि सयलोवद्दवविणासणसत्तिदंसणादो ! दो अत्थि भेदो । ९४ ] अघोरगुणब्रह्मचारी जिनोंको नमस्कार हो ॥ २९ ॥ I ब्रह्मका अर्थ पांच व्रत, पांच समिति और तीन गुप्ति स्वरूप चारित्र है, क्योंकि, वह शान्तिके पोषणका हेतु है । अघोर अर्थात् शान्त हैं गुण जिसमें वह अघोरगुण है, अघोरगुण ब्रह्मका आचरण करनेवाले अघोर गुणब्रह्मचारी कहलाते हैं। जिनके तपके प्रभाव से डमरादि (राष्ट्रीय उपद्रव आदि), रोग, दुर्भिक्ष, वैर, कलह, बध, बन्धन और रोध आदिको नष्ट करने की शक्ति उत्पन्न हुई है वे अघोरगुणब्रह्मचारी हैं, यह तात्पर्य है । उन अघोर गुणब्रह्मचारी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । [ ४, १, २९. शंका- -' णमो घोरगुणबंभचारीणं' इस सूत्र में अघोर शब्दका अकार क्यों नहीं सुना जाता ? समाधान - सन्धियुक्त निर्देश होनेसे उक्त अकारका यहां श्रवण नहीं होता । शंका - दृष्टि- अमृत और अघोरब्रह्मचारीके क्या भेद है ? समाधान – उपयोगकी सहायता युक्त दृष्टिमें स्थित लब्धिसे संयुक्त दृष्टिविष कहलाते हैं । किन्तु अघोरब्रह्मचारियोंकी लब्धियां सर्वागगत असंख्यात हैं । इनके शरीरसे स्पृष्ट वायुमें भी समस्त उपद्रवोंको नष्ट करनेकी शक्ति देखी जाती है । इस कारण दोनों में भेद है | १ अ - काप्रत्योः ' बम्हचारीणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' दमरिदि', मप्रतौ ' दमरीदि ' इति पाठः । ३ जीए ण होंति मुणिणो खेतम्मि वि चोरपहुदिबाधाओ । काल-महाजुद्धादी रिद्धी साघोरबम्हचारिता || उक्करसक्खउवसमे चारितावरण मोहकम्मस्स । जा दुस्सिमणं णाइस रिद्धी साघोरबम्हचारिता || अहवा—- सव्वगुणेहिं अघोरं महेसिणो बम्हसद्दचारितं । विष्फुरिदाए 'जीए रिद्धी साघोरबम्हचारिता ॥ ति प ४, १०५८ - १०६०. चिरोषितास्खलित ब्रह्मचर्यवासाः प्रकृष्टचारित्रमोहनीयक्षयोपशमात् प्रणष्टदुःस्वप्नाः घोरब्रह्मचारिणः । त. रा. ३, ३६, २. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३..] कदिअणियोगदारे आमोसहिरिद्धिपरूवणा . . [ ९५ णवरि असुहलद्धीणं पउत्ती लद्धिमंताणमिच्छावसवट्टणी । सुहाणं लद्धीणं पउत्ती पुण दोहि वि पयारेहि संभवदि, तदिच्छाए विणा वि पउत्तिदसणाद।। णमो आमोसहिपत्ताणं ॥ ३०॥ आमर्षः औषधत्वं प्राप्तो येषां ते आमोषधप्राप्ताः । सुत्ते सकारो किण्ण सुणिज्जदि ? 'आई-मज्झंतवण्ण-सरलोवो" त्ति लक्खणादो। ओसहि त्ति इकारो कत्तो ? 'एए छच्चे समाणा" ति विशेष इतना है कि अशुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति लब्धियुक्त जीवोंकी इच्छाके वशसे होती है। किन्तु शुभ लब्धियोंकी प्रवृत्ति दोनों ही प्रकारोंसे सम्भव है, क्योंकि, उनकी इच्छाके विना भी उक्त लब्धियोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है। आमाँषधिप्राप्त ऋषियोंको नमस्कार हो ॥ ३० ॥ जिनका आमर्ष अर्थात् स्पर्श औषधपनेको प्राप्त है वे आमदैषध प्राप्त हैं। शंका-सूत्र में सकार क्यों नहीं सुना जाता है ? समाधान-[प्राकृतमें ] किन्हीं पदोंके आदि, मध्य व अन्तके वर्ण और स्वरका लोप कर दिया जाता है' इस व्याकरणके नियमसे सकारका लोप हो गया, अतः वह नहीं सुना जाता। शंका-'औषधि' में इकार कहांसे आया? समाधान-'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ये छह समान स्वर [तथा ए और ओ ये दो सन्ध्यक्षर, ये आठो स्वर विना विरोधके एक दूसरेके स्थानमें आदेशको प्राप्त होते हैं ] । इस व्याकरणके नियमसे 'औषधि' यहां इकार किया गया है। विशेषार्थ-यद्यपि संस्कृतमें 'औषधि' और 'औषध' दोनों शब्द हैं, तथापि यहां केवल औषधिसमूह रूप 'औषध' शब्दसे अभिप्राय होनेके कारण उक्त प्रकार समाधान किया गया है। १ कीरइ पयाण काण वि आई-मझंतवण्णसरलोवो-(जयध. भाग १, पृ. ३२६ ). २ एए छच्च समाणा दोण्णि अ संज्झक्खरा सरा अढ । अण्णोण्णस्सविरोहा उति सव्वे समाएसं ॥ (नयथ. १, पृ. ३२६). Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,१,३१. लक्खणादो । तवामाहप्पेण जेसिं फासो सयलोसहसरूवत्तं पत्तो तेसिमामोसहिपत्ता त्ति सण्णा । एवंविहाणमोसहिपत्ताणं णमो इदि भणिदं होदि । ण च एदेसिमघोरगुणवंभयारीणं अंतब्भावो, एदेर्सि वाहिविणासणे चेव सत्तिदंसणादो । णमो खेलोसहिपत्ताणं ॥ ३१ ॥ सेंभ-लाली-सिंघाण-विप्पुसादीणं खेलो त्ति सण्णा । एसो खेलो ओसहित पत्तो जेसिं ते खेलोसहिपत्ता' । तेसिं खेलोसहिपत्ताणं जिणाणं णमो । (णमो जल्लोसहिपत्ताणं ॥ ३२॥) जल्लो अंगमलो बाहिरो । सो ओसहित्तं पत्तो जेसिं तबोबलेण ते जल्लोसहि ___ तपके प्रभावसे जिनका स्पर्श समस्त औषधोके स्वरूपको प्राप्त हो गया है उनकी आमषधिप्राप्त ऐसी संशा है। इस प्रकारके औषधिप्राप्त ऋषियोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। इनका अघोरगुणब्रह्मचारियोंमें अन्तर्भाव नहीं होता, क्योंकि, इनके केवल व्याधिके नष्ट करनेमें ही शक्ति देखी जाती है। खेलौषधिप्राप्त ऋषियोंको नमस्कार हो ॥ ३१ ॥ श्लेष्म, लार, सिंहाण अर्थात् नासिकामल और विमुष् आदिकी खेल संशा है। जिनका यह खेल औषधित्वको प्राप्त हो गया है वे खेलौषधिप्राप्त ऋषि हैं। उन खेलोषाधप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो । जल्लौषधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३२ ॥ बाथ अंगमल जल्ल कहलाता है । वह तपके प्रभावसे जिनके औषधिपनेके प्राप्त १ रिसकर-चरणादीणं अस्लियमेतम्मि जीए पासम्मि । जीवा होति णिरोगा साअम्मरिसोसही रिद्धी ॥ ति. प. ४-१०६८. आमर्शनः संस्पर्शः, यदीयहस्त-पादाद्यामर्श औषधिप्राप्तो यैस्ते आमौषधिप्राप्ताः । त. रा. ३, ३६, २. संफरिसणमामोसो-संस्पर्शनमामर्शः, स एवौषधिर्यस्यासावामौषधिः । करादिसंस्पर्शमात्रादेव विविधव्याधिव्यपनयनसमर्थो लब्धि-लब्धिमतोरभेदोपचारात् साधुरेवामर्शीषधिरित्यर्थः । इदमत्र तात्पर्यम् - यत्प्रभावात् सास्त-पादाधवयवपरामर्शमात्रेणैवात्मनः परस्य वा सर्वेऽपि रोगाः प्रणश्यन्ति सा आमीषधिः । प्रवचनसारोद्धार १४९६ ( वृत्ति ). २ प्रतिषु ‘लालि' इति पाठः । ३ जीए लाला-सेमच्छीमल-सिंहाणआदिआ सिग्छ । जीवाण रोगहरणा स च्चिय खेलोसही रिद्धी॥ ति. प. , ४-१०६९. क्षेलो निष्ठीवनमौषधिर्येषां ते क्षेलौषधिप्राप्ताः। त. रा. ३, ३६, २. खेलः श्लेष्मा, जस्लो मल: कर्ण-वदन-नासिका-नयन-जिवा-समुद्भवः शरीरसम्भवच, तौ खेल-जस्लौ यत्प्रभावतः सर्वरोगापहारको सुरभी च भवतः सा क्रमेण खेलौषधिर्जल्लौषधिश्च । प्रवचनसारोद्धार १४९६ (वृत्ति). Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३४.] कदिअणियोगद्दारे सव्वोसहिरिद्धिपरूवणा पत्ता' । [ तेसिं जल्लोसहिपत्ता- ] जिणाणं णमो । (णमो विट्ठोसहिपत्ताणं ॥ ३३॥) विट्ठसद्दी जेण देसामासिओ तेण मुत्त-विट्ठा-सुत्ताणं गहणं । एदे ओसहितं पत्ता जेसि ते विट्ठोसहिपत्ता', तेसिं विट्ठोसहिपत्ताणं जिणाणं णमो । । णमो सवोसहिपत्ताणं ॥ ३४ ॥) रस-रुहिर-मांस-मेदट्ठि-मज्ज-सुक्क-पुप्फस-खरीस-कालेज्ज-मुत्त-पित्तंतुच्चारादओ सव्वे ओसाहित्तं पत्ता जेसिं ते सव्वोसहिपत्ता । तेसिं सव्वोसहिपत्ताणं णमो । एत्थ जेत्तियाओ हो गया है वे जल्लोपधिप्राप्त जिन हैं। उन जल्लोषधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो। विष्ठौषधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३३॥ विष्ठा शब्द चूंकि देशामर्शक है, अतएव उससे मूत्र, मल व सत अर्थात् शरीरके क्षरितका ग्रहण है। ये जिनके औषधित्वको प्राप्त हो गये हैं वे विष्ठौषधिप्राप्त जिन है। उन विष्टौषधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो। सर्वोषधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३४ ॥ रस, रुधिर, मांस, मेदा, अस्थि, मज्जा, शुक्र, फुप्फुस, खरीप, कालेय, मूत्र, पित्त, अंतड़ी, उच्चार अर्थात् मल आदिक सब जिनके औषधिपनेको प्राप्त हो गये हैं वे सर्वोपधिप्राप्त जिन हैं । उन सर्वोपधिप्राप्त जिनोंको नमस्कार हो। यहां लोकमें जितनी सेयजलो अंगरयं जल्लं मण्णे ति जीए तेणावि | जीवाण रोगहरणं रिद्धी जल्लोसही णामा ॥ ति. प. ४-१०७०. स्वेदालंबनो रजोनिचयो जल्लः, स औषधि प्राप्तो येषां ते जल्लोषधिप्राप्ताः । त. रा.३, ३६, २. २ मुत्त पुरीसो वि पुढे दारणबहुजीववायसंहरणा । जीए महामुणीण विपोसहि णाम सा रिद्धी ॥ ति.प. ४-१०७२. विडच्चार औषधिर्येषां ते विडौषधिप्राप्ताः । त. रा. ३, ३६ २. मुत्त-पुरीसाण विप्पुसो वावि (वयवा)। अन्ने विडित्ति विठ्ठा भासंति पइत्ति पासवर्ण ॥ ' मुत्त-पुरीसाण विप्पुसो वात्रि ' ( ऽवयवा ) ति मूत्र-पुरीषयाविपुषः- अवयवाः इह विगुडुच्यते, 'विप्पुसो वात्रि' ति पाठस्तु ग्रन्थान्तरेवदृष्टत्वादुपेक्षितः, अथ चावश्यमतव्याख्यानेन प्रयोजनं तदेत्थं व्याख्येयम् - वा-शब्दः समुच्चये, अपि-शब्द एवकारार्थी भिन्नक्रमच, ततो मूत्रपुरीषयोरेवावयवा इह विडुच्यते इति । अन्ये तु भाषन्ते --विडिति विष्ठा, पत्ति प्रश्रवणं मूत्रम्, 'सूचकत्वात्सूत्रस्यति xxx यन्माहात्म्यान्मूत्र-पुरीषाधयत्रमात्रमपि रोगराशिप्रणाशाय संपद्यते सरभि च सा विग्रुडौषधिः । प्रवचनसारोद्धार १४९६ ( वृत्ति ). __ ३ जीए पस्सजलाणिल-राम-णहादीणि वाहिहरणाणि । दुक्करतव जुत्ताणं रिद्धी सव्वीसही णामा ॥ ति.प. ४-१०७३. अंग प्रत्यंग-नख-दन्त-केशादिरवयवः तत्संस्पशी वाय्वादिस्सर्वः औषधिप्राप्तो येषां ते सौषधिप्नाप्ताः। त. रा. ३, ३६, २. तथा यन्माहात्म्यतो विभूत्र-केश-नखादयश्च सर्वेऽवयवाः समुदिताः सर्वत्र भेषजीभावं सौरभं च भजन्ते सा सावधिरिति । प्रवचनसारोद्धारवृत्ति १४९६-१४९७. छ, क. १३. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, ३५. वाहीओ लोए अत्थि ताओ सव्वाओ ठवेदूण आमास-खेल-जल्ल-विठ्ठ-सव्वासहीणमेगसंजोगादिभंगा णाणाकालजिणे' अस्सिदूण परूवेदव्वा, विचित्तचरित्तेण लद्धीणं वइचित्तियाविरोहादो । । णमो मणबलीणं ॥३५॥) बारहंगुद्दितिकालगोयराणंतह-वंजण-पज्जायाइण्णछदव्वाणि णिरंतरं चिंतिदेवि खेयाभावो मणबलो । एसो मणबलो जेसिमत्थि ते मणबलिणो । एसो वि मणवलो लद्धी, विसिट्ठ. तवोषलेणुप्पज्जमाणत्तादो। कधमण्णहा बारहंगट्ठो मुहुत्तेणेक्केण बहूहि वासेहि बुद्धिगोयरमाबण्णो चित्तखेयं ण कुणेज्ज ? तेसिं मणबलीणं णमो । णमो वचिबलीणं ॥ ३६॥ बारसंगाणं बहुवारं पडिवाडि काऊण वि जो खेयं ण गच्छइ सो वचिबलो, न्याधियां हैं उन सबको स्थापित कर आमाँषधि, खेलौषधि, जल्लौषधि, विष्ठौषधि और साषाधिके एकसंयोगादि रूप भंगोंकी नाना काल सम्बन्धी जिनौका आश्रय करके प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, विचित्र चरित्रसे लब्धियोंकी विचित्रतामें कोई विरोध नहीं है । मनबल ऋद्धि युक्त जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३५ ॥ बारह अंगोंमें निर्दिष्ट त्रिकालविषयक अनन्त अर्थ व व्यञ्जन पर्याओंसे व्याप्त छह द्रव्योंका निरन्तर चिन्तन करनेपर भी खेदको प्राप्त न होना मनबल है। यह मनबल जिनके है वे मनबली कहलाते हैं । यह मनबल भी लब्धि है, क्योंकि, वह विशिष्ट तपके प्रभावसे उत्पन्न होता है। अन्यथा बहुत वर्षों में बुद्धिगोचर होनेवाला बारह अंगोंका अर्थ एक मुहूर्तमें चित्तखेदको कैसे न करेगा ? अर्थात् करेगा ही। उन मनवली ऋषियोंको नमस्कार हो। वचनबली ऋषियोंको नमस्कार हो ॥ ३६॥ बारह अंगोंका बहुत वार प्रतिवाचन करके भी जो खेदको नहीं प्राप्त होता है, १ प्रतिषु जिणो' इति पाठः । २ प्रतिषु 'णिरं चित्तिदे' इति पाठः । ३ बलरिद्धी तिविहप्पा मण-वयण-सरीरयाण भेएण । सुदणाणावरणाए पगडीए वीरयंतरायाए । उक्कस्सरखवसमे मुहुत्तमेकंतरम्मि सयलसुदं । चिंतइ जाणइ जीए सा रिद्धी मणबला णामा । ति.प. ४,१०६०-१०६१. तत्र मनःश्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सत्यन्तर्मुहूर्ते सकल श्रुतार्थचिन्तनेऽवदाता मनोबलिनः।त. रा. ३, ३६, २. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ३८.] कदिअणियोगद्दारे खीरसवीरिद्धिपरूवणा तवोमाहप्पुप्पाइदवयणबलो वचिवली' त्ति उत्तं होदि । तेसिं विसुद्धमण-वयण-काएहि णमो । (णमो कायबलीणं ॥ ३७॥ तिहुवणं करंगुलियाए उद्धरिदूण अण्णत्थ हुवणक्खमो कायबली' णाम । एसा वि कायसत्ती चारित्तविसेसादो चेव उप्पज्जदे, अण्णहाणुवलंभादो । एदेसिं कायबलीणं णमो । (णमो खीरसवीणं ॥ ३८ ॥ खीरं दुद्धं । सविसादो खीरस्स सवी खीरसवी । पाणिपत्तणिवदिदाससाहाराणं वह वचनबल है । तपके माहात्म्यसे जिसने वचनबलको उत्पन्न किया है वह वचनबली है, यह इसका अभिप्राय है । उनको विशुद्ध मन, वचन व कायसे नमस्कार हो । कायबली ऋषियोंको नमस्कार हो ॥ ३७॥ तीनों लोकोंको हाथकी अंगुलीसे ऊपर उठाकर अन्यत्र रखने में जो समर्थ है वह कायबली है । यह भी कायशक्ति चारित्रविशेषसे ही उत्पन्न होती है, क्योंकि, उसके बिना वह पानी नहीं जाती। इन कायबल ऋद्धिधारको नमस्कार हो। क्षीरस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३८॥ क्षीरका अर्थ दूध है । विष सहित वस्तुसे भी क्षीरको बहानेवाला क्षीरस्रवी कहलाता है । हाथ रूपी पात्रमें गिरे हुए सब आहारोंको क्षीर स्वरूप उत्पन्न करनेवाली शक्ति १ जिभिदिय-णोइंदिय सुदणाणावरण-त्रिरियविग्घाणं । उक्करसखओवसमं मुहत्तमेततरम्मि मुणी॥ सयलं पि सुदं जाणइ उच्चारइ जीए विप्फुरंतीए । असमो अहिकंठो सा रिद्धी उ णेया वयणबलणामा ।। ति.प.४, १०६३१०६४. मनोजिह्वा-श्रुतावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमातिशये सत्यन्तमुहूर्ते सकल श्रुतोच्चारणसमर्थाः सततमच्चैरुच्चारणे सत्यपि श्रमविरहिता अहीनकंठाश्च वाग्बलिनः । त. रा. ३, ३६, २. २ प्रतिषु — कालंगुलियाए ' इति पाठः ।। ३ उक्करसक्ख उवसमे पविसेसे विरियविग्घपगडीए। मास-चउमासपमुहे काउस्सग्गे वि समहीणा | उच्चट्ठिय तेल्लोक्कं झत्ति कणिटुंगुलीए अण्णत्थं । थविदुं जीए समत्था सा रिद्धी कायबलणामा॥ ति. प.४, १०६५१०६६. वीर्यान्तरायक्षयोपशमाविर्भूतासाधारणकायवलत्वान्मासिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकादिप्रतिमायोगधारणेऽपि भम-क्लमविरहिताः कायबलिनः। त. रा. ३, ३६, २. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ३९. खीरसादुप्पायणसत्ती वि कारणे कज्जोवयारादो खीरसवी' णाम । कधं रसंतरेसु ट्ठियदव्वाणं तक्खणादेव खीरासादसरूवेण परिणामो ? ण, अमियसमुद्दम्मिणिवदिदविसस्सेव पंचमहव्वय-समिइ-तिगुत्तिकलावघडिदंजलिउदणिवदियाणं तदविरोहादो। सा जेमिमत्थि ते खीरसविणो । तेसिं णमो। णमो सप्पिसवीणं ॥ ३९ ॥ सपिघृतं । जेसिं तवोमाहप्पेण अंजलि उणिवदिदासेसाहारा पदासादमरवेण परिणमंति ते सप्पिसविणो जिणा । तेसिं णमो । ( णमो महुसवीणं ॥ ४० ॥ भी कारणमें कार्यके उपचारसे क्षीरनवी कही जाती है। __ शंका--अन्य रसोंमें स्थित द्रव्योंका तत्काल ही क्षीर स्वरूपसे परिणमन कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार अमृतसमुद्र में गिरे हुए विषका अमृत रूप परिणमन होने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार पांच महावत, पांच समिति व तीन गुप्तियोंके समूहसे घटित अंजलिपुट में गिरे हुप सब आहारोंका क्षीर स्वरूप परिणमन करनेमें कोई विरोध नहीं है। वह शक्ति जिनके है वे क्षीरस्नवी कहलाते हैं । उनको नमस्कार हो । सर्पिस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ३९ ॥ सर्पिष् शब्दका अर्थ घृत है। जिनके तपके प्रभावसे अंजलिपुटमें गिरे हुए सब आहार घृत स्वरूपसे परिणमते हैं वे सर्पिरवी जिन हैं । उनको नमस्कार हो। मधुस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४० ॥ १ करयलणिविखाणि रुक्खाहारादियाणि तक्कालं । पार्वति खीरभावं जीए खीरोसवी रिद्धी ॥ ति.प. ४-१०८१. विरसमायशनं येषां पाणिपुटविक्षिप्तं [-निक्षिप्त ] क्षीररसगुणपरिणामि जायते, येषां वा वचनानि क्षीरवन क्षीणानां संतर्पकाणि भवन्ति ते क्षीराखविणः । त. रा. ३, ३६, २. २ प्रतिषु ' समुद्दनि ' इति पाठः । ३ रिसिपाणितलणि खित्तं रूवखाहारादियं पि खणमेले । पावेदि सप्पिरूवं जीए सा सपिायासवी रिद्धी ।। अह्वा दुक्ख पमुहं सवणेण मुर्णिददिव्ववयणस्स । उवसामदि जीवाणं एसा सप्पियासवी रिद्धी॥ ति. प. ४, १०८६१०८७. येषां पाणिपात्रगतमन्नं सक्षमपि सपरिसवीर्यविपाकाना'नोति सर्पिरिव वा येषां भाषितानि प्राणिनां संतपकाणि भवन्ति ते सर्पिरास्रविणः । त. रा. ३, ३६, २. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४२.] कदिअणियोगद्दारे अक्खीणमहाणसरिद्धिपरूवणा महुवयणेण गुड-खंड सक्करादीणं गहणं, महुरसादं पडि एदासिं साहम्मुवलंभादो । हत्यक्खित्तासेसाहाराणं महु-गुड-खंड-सक्करासादसरुवेण परिणमणक्खमा महुसविणो जिणा । तेसिं मण-वयण-काएहि णभो । (णमो अमडसवीणं ॥ ४१ ॥ जेसि हत्थं पत्ताहारो अमडसादसरूवेण परिणमइ ते अमडसविणों जिणा । एत्थवट्ठिया संता जे देवाहारभोजिणो तेसिममडसवीणं णमो इत्ति उत्तं होदि । (णमो अक्खीणमहाणसाणं ॥ ४२ ॥ एत्थ अक्खीणमहाणससद्दो जेण देसामासओ तेण वसहिअक्खीणाणं पि गहणं । कूरो घियं तिम्मणं वा जस्स परिविसिदूण पच्छा चक्कवट्टिखंधावारे भुंजाविज्जमाणे विण मधु शब्दसे गुड़, खांड और शक्कर आदिका ग्रहण किया गया है, क्योंकि, मधुर स्वादके प्रति इनके समानता पायी जाती है । जो हाथमें रखे हुए समस्त आहारोंको मधु, गुड़, खांड़ और शक्करके स्वाद स्वरूप परिणमन कराने में समर्थ हैं वे मधुम्नवी जिन है। उनको मन, वचन व कायसे नमस्कार हो। अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४१ ॥ जिनके हाथको प्राप्त हुआ आहार अमृत स्वरूपसे परिणत होता है वे अमृतम्रवी जिन है। यहां अवस्थित होते हुए जो देवाहारको ग्रहण करनेवाले हैं; उन अमृतस्रवी जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। अक्षीणमहानस जिनोंको नमस्कार दो ॥ ४२ ॥ यहां चूंकि अक्षीणमहानस शब्द देशामर्शक है, अतएव उससे वसतिअक्षीण जिनोंका भी ग्रहण होता है । जिसके भात, घृत व भिगोया हुआ अन्न स्वयं परोस लेनेके पश्चात् चक्रवर्तीकी सेनाको भोजन करानेपर भी समाप्त नहीं होता है वह अक्षीणमहानस १ मुणिकरणिक्खित्ताणि लुक्खाहारादियाणि होति खणे । जीए महुररसाइं स च्चिय महुवोसवी रिद्धी ॥ अहवा दुक्खप्पहुदी जीए मुणिवयणसवणमेत्तेणं । णासदि णर-तिरियाणं स च्चिय महुवासवी रिद्धी ॥ ति.प. ४, १०८२-१०८३. येषां पाणिपुटपतित आहारो नीरसोऽपि मधुररसवीर्यपरिणामो भवति, येषां वंचांसि श्रोतृणां दुःखादितानामपि मधुगुणं पुष्णन्ति ते मध्वास्रविणः । त. रा. ३, ३६, २. २ मुणिपाणिसंठियाणिं रुक्खाहारादियाणि जीय खणे । पावंति अमियभावं एसा अमियाससवी रिद्धी ॥ अहवा दुक्खादीणं महेसिवयणस्स सवणकालम्मि । णासंति जीए सिग्धं सा रिद्धी अभियासवी णामा ॥ ति.प. ४, १०८४-१०८५. येषां पाणिपुटप्राप्तं भोजन यत्किंचिदमृततामास्कंदति, येषां वा व्याहृतानि प्राणिनां अमृतवदनुग्राहकाणि भवन्ति तेऽमृतास्रविणः । त. रा. ३, ३६, २. ३ प्रतिषु अतः प्राक् ‘पि' इत्यधिकं पदं समुपलभ्यते । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४३. णिहादि सो अक्खीणमहाणसो णाम । जम्हि चउहत्थाए वि गुहाए अच्छिदे संते चक्कवट्टिखंधावारं पि सा गुहा अवगाहदि सो अक्खीणावासो' णाम । तेसिमक्खीणमहाणसाणं णमो । कधमेदासिं सत्तीणमत्थित्तमवगम्मदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो णव्वदे, जिणेसु अण्णहावाझ्नाभावादो। (णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं ॥ ४३ ॥ सव्वसिद्धवयणेण पुव्वं परविदासेसजिणाणं गहणं कायव्यं, जिणेहिंतो पुधभूददेससव्वसिद्धाणमणुवलंभादो । सव्वसिद्धाणमायदणाणि सवसिद्धायदणाणि । एदेण कट्टिमाकट्टिमजिणहराणं जिणपडिमाणमीसिपब्भारुज्जंत-चंपा-पावाणयरादिविसयणिसीहियाणं च गहणं । तेसिं जिणायदणाणं णमो। ऋद्धिधारक कहलाता है। जिसके चार हाथ प्रमाण भी गुफामें रहनेपर चक्रवर्तीका सैन्य भी उस गुफामें रह सकता है वह अक्षीणावास ऋद्विधारक है। उन अक्षीणमहानस जिनोंको नमस्कार हो। शंका- इन शक्तियोंका अस्तित्व कैसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे उनका अस्तित्व जाना जाता है, क्योंकि, जिन भगवान् भन्यथावादी नहीं हैं। लोकमें सब सिद्धायतनोंको नमस्कार हो ॥ ४३॥ 'सब सिद्ध' इस वचनसे पूर्वमें कहे हुए समस्त जिनोंका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, जिनोंसे पृथग्भूत देशसिद्ध व सर्वसिद्ध पाये नहीं जाते। सब सिद्धोंके जो आयतन हैं वे सर्व-सिद्धायतन हैं। इससे कृत्रिम व अकृत्रिम जिनगृह, जिनप्रतिमा तथा ईषत्प्राग्भार, ऊर्जयन्त, चम्पापुर व पावानगर आदि क्षेत्रों व निर्धाधिकाओंका भी ग्रहण करना चाहिये । उन जिनायतनोको नमस्कार हो। १ लामंतरायकम्मक्खउवसमसंजुदाए जीए फुडं । मुणिभुत्तसेसमण्णं धामत्थं पियं जं कं पि॥ तदिवसे खज्जंतं बंधावारेण चक्कवहिस्स । झिज्जइ ण लवेण वि सा अक्खीणमहाणसा रिद्धी ।। जीए चउधणुमाणे समचउरसालयम्मि गर-तिरिया | मंति यसखेज्जा सा अक्खीणमहालया रिद्धी ॥ ति. प. ४, १०८९-१०९१. लाभान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षप्राप्तेभ्यो यतिभ्यो यतो भिक्षा दीयते ततो भाजनाच्चक्रधरस्कंधावारोऽपि यदि भुंजीत तद्दिवसे नान्नं क्षीयते ते अक्षीणमहानसाः। अक्षीणमहालयलब्धिप्राप्ता यतयो यत्र वसन्ति देव-मनुष्य-तैर्यग्योना यदि सर्वेऽपि तत्र निवसेयुः परस्परमबाधमानाः सुखमासते । त. रा. ३, ३६, २. अक्खीणमहाणसिया भिक्खं जेणाणियं पुणो तेणं । परिभुत्तं चिय खिज्जइ बहुएहि विन उण अन्नेहि ॥ प्रवचनसारोद्धार १५०४. २ प्रतिषु विसणिसीहियाणं' इति पाठः। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४१.] कदिअणियोगद्दारे मंगलस्स णिवाणिबद्धत्तविचारो । णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स ॥ ४४ ॥ वद्धमाणभयवंतस्स पुव्वं कयणमोक्कारस्स किमढें पुणो वि एत्थ णमोक्कारो कदो ? जस्संतियं....मणसा वि णिच्चमिच्चेदस्स णियमस्स आइरियपरंपरागयस्स पदुप्पायणढे कदो । (णिबद्धाणिबद्धभेएण दुविहं मंगलं । तत्थेदं किं णिवद्धमाहो अणिबद्धमिदि ? ण ताव णिबद्धमंगलमिदं, महाकम्मपयडिपाहुडस्स कदियादिचउवीसअणियोगावयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडारएण वेयणाखंडस्स आदीए मंगलटुं तत्तो आणेदूण ठविदस्स णिबद्धत्तविरोहादो । ण च वेयणाखंडं महाकम्मपयडिपाहुडं, अवयवस्स अवयवित्तविरोहादो । ण च भूदबली गोदमो, विगलसुदधारयस्स धरसेणाइरियसीसस्स भूदबलिस्स सयलसुदधारयवड्डमाणंतेवासिगोदमत्तविरोहादो। ण चाण्णो पयारो णिबद्धमंगलत्तस्स हेदुभूदो अस्थि । तम्हा वर्धमान बुद्ध ऋषिको नमस्कार हो ॥ ४४ ॥ शंका-जब कि वर्धमान भगवानको पूर्वमें नमस्कार किया जा चुका है तो फिर यहां दुवारा नमस्कार किस लिये किया गया है ? समाधान—जिसके समीप धर्मपथ प्राप्त हो उसके निकट विनयका व्यवहार करना चाहिये । तथा उसका शिर आदि पांच अंग एवं काय, वचन और मनसे नित्य ही सत्कार करना चाहिये।' इस आचार्यपरम्परागत नियमको बतलानेके लिये पुनः नमस्कार किया गया है। शंका-निबद्ध और अनिबद्धके भेदसे मंगल दो प्रकार है। उनमेंसे यह मंगल निबद्ध है अथवा अनिबद्ध ? समाधान- यह निबद्ध मंगल तो हो नहीं सकता, क्योंकि, कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वार रूप अवयवोंवाले महाकर्मप्रकृतिप्राभृतके आदिमें गौतम स्वामीने इसकी प्ररूपणा की है और भूतबलि भट्टारकने वेदनाखण्डके आदिमें मंगलके निमित्त इसे वहांसे लाकर स्थापित किया है, अतः इसे निबद्ध मानने में विरोध है। और वेदनाखण्ड महाकर्मप्रकृतिप्राभृत है नहीं, क्योंकि, अवयवके अवयवी होनेका विरोध है । और न भूतबलि गौतम ही है, क्योंकि, विकलश्रुतधारक और धरसेनाचार्यके शिष्य भूतबलिको सकल श्रुतके धारक और वर्धमान स्वामीके शिष्य गौतम होनेका विरोध है। इसके अतिरिक्त निबद्ध मंगलत्वका हेतुभूत और कोई प्रकार है नहीं, अतः यह अनिबद्ध मंगल है। अथवा, यह १ षट्खं. पु. १, पृ. ५४. Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४४. अणिबद्धमंगलमिदं । अथवा होदु णिबद्धमंगलं । कथं वेयणाखंडादिखंडगंथस्स महाकम्मपयडिपाहुडत्तं ? ण, कदियादिचउवीसअणियोगद्दारोहिंतो एयंतेण पुधभूदमहाकम्मपयडिपाहुडाभावादो । एदेसिमणियोगद्दाराणं कम्मपयडिपाहुडत्ते संते पाहुडबहुत्तं पसज्जदे ? ण एस दोसो, कधंचि इच्छिज्जमाणत्तादो । कधं वेयणाए महापरिणामाए उवसंहारस्स इमस्स वेयणाखंडस्स वेयणाभावो ? ण, अवयवेहिंतो एयंतेण पुधभूदअवयविस्स अणुवलंभादो। ण च वेयणाए बहुत्तमणिमिच्छि ज्जमाणत्तादो। कधं भूदबलिस्स गोदमत्तं ? किं तस्स गोदमत्तेण ? कधमण्णहा मंगलस्स णिबद्धत्तं ? ण, भूदबलिस्स खंडं गंथं पडि कत्तारत्ताभावादो । ण च अण्णण कयगंथाहियाराणं एगदेसस्स पुबिल्लसद्दत्थसंदभस्स परूवओ कत्तारो होदि, .................. निबद्ध मंगल भी हो सकता है । शंका-वेदनाखण्डादि स्वरूप खण्डग्रन्थके महाकर्मप्रकृतिप्राभृतपना कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंसे एकान्ततः पृथग्भूत महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अभाव है। शंका-इन अनुयोगद्वारोंको कर्मप्रकृतिप्राभृत स्वीकार करनेपर बहुत प्राभृत होने का प्रसंग आवेगा? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, ऐसा कथंचित् इष्ट ही है। - शंका-महा प्रमाणवाली वेदनाके उपसंहाररूप इस वेदनाखण्डके वेदनापना कैसे सम्भव है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, अवयवोंसे सर्वथा पृथग्भूत अवयवी पाया नहीं जाता। यदि कहा जाय कि इस प्रकारसे बहुत वेदनाओंके माननेका अनिष्ट प्रसंग आवेगा, सो भी नहीं है। क्योंकि वैसा इष्ट ही है। शंका-भूतबलिके गौतमपना कैसे सम्भव है ? प्रतिशंका-- उनके गौतम होनेसे क्या प्रयोजन है ? प्र. शं. समाधान - क्योंकि, भूतबलिको गौतम स्वीकार किये बिना मंगलके निबद्धता बन ही कैसे सकती है ? शंका-समाधान नहीं क्योंकि, भूतबलिके खण्डग्रन्थके प्रति कर्तृत्व का अभाव है । और दूसरेके द्वारा किये गये ग्रन्थाधिकारोंके एक देश रूप पूर्वोक्त शब्दार्थसन्दर्भका Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १४. ] कदिअणियोगद्दारे मंगलत्थळ विचारो [ १०५ अइपसंगादो | अथवा भूदवली गोदमो चेव, एगाहिप्पायत्तादो । तदो सिद्धं निबद्धमंगलत्तं पि । उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो । ण च मंगलेण विणा भूदबलिभडारओ मंथस्स पारंभदि, तस्स अणाइरियत्तप्पसंगादो । कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगलं सेसदोखंडाणं होदि ? ण, कदीए आदिहि उत्तस्स एदस्सेव मंगलस्स सेसतेवीस अणियोगद्दारेसु पउत्तिदंसणादो | महाकम्मपयडिपाहुडत्तणेण चउवीसण्हमणियोगद्दाराणं भेदाभावादो एगतं । तदो एगस्स एवं मंगलं तत्थ ण विरुज्झदे । ण च एदेसिं तिन्हं खंडाणमेयत्तमेगखंडप्पसंगादो ? ण एस दोसो, महाकम्पयडिपाहुडत्तणेण एदेसि पि एगत्तदंसणा दो । कदि - पास - कम्म- पयडिअणियोगद्दाराणि वि एत्थ विदाणि । तेसिं खंडग्गंथसण्णमकाऊण तिण्णि चेव खंडाणि त्ति किमहं उच्चदे | प्ररूपक कर्ता हो नहीं सकता, क्योंकि, अतिप्रसंग दोष आता है । अथवा भूतबलि गौतम ही हैं, क्योंकि, दोनों का एक ही अभिप्राय रहा है। इस कारण निबद्ध मंगलत्व भी सिद्ध है। शंका- आगे कहे जानेवाले तीन खण्डों में किस खण्डका यह मंगल है ? समाधान - यह आगे कहे जानेवाले तीनों खण्डोंका मंगल है, क्योंकि, वर्गणा और महाबन्ध इन दो खण्डों के आदि में मंगल नहीं किया गया है । और भूतबलि भट्टारक मंगलके विना ग्रन्थका प्रारम्भ करते नहीं है, क्योंकि, ऐसा करनेसे उनके अनाचार्यत्वका प्रसंग आता है । शंका - वेदनाखण्डके आदि में कहा गया मंगल शेष दो खण्डोंका कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कृतिअनुयोगद्वारके आदिमें कहे गये इसी मंगलकी शेष तेईस अनुयोगद्वारों में प्रवृत्ति देखी जाती है । शंका - महाकर्मप्रकृतिप्राभृत रूपसे चौबीस अनुयोगद्वारोंके कोई भेद न होने से उनके एकता है । अतएव वहां एक ग्रन्थका एक मंगल विरोधको प्राप्त नहीं होता । परन्तु इन तीन खण्डों के एकता नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर उनके एक खण्ड होनेका प्रसंग आवेगा ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, महाकर्मप्रकृतिप्राभृत रूपसे इनके भी एकता देखी जाती है । शंका - कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वारोंकी भी तो यहां प्ररूपणा की गई है। उनकी खण्डग्रन्थ संज्ञा न करके तीन ही खण्ड हैं, ऐसा किस लिये कहा जाता है ? क. क. १४. Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४४. : ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो । तं पि कुदो णव्वदे ? संखेवेण परूवणादो । एसो सव्वा वि मंगलदंडओ देसामासओ, णिमित्तादीणं सूचयत्तादो। तदो एत्थ मंगलस्सेव णिमित्तादीणं परूवणा कायव्वा । तं जहा- गंथावयारस्स सिस्सा णिमित्तं, वयणपउत्तीए परट्ठाए चेय दंसणादो । केण हेदुणा पढिज्जदे ? मोक्खटुं । सग्गादओ किण्ण मग्गिज्जते ? ण, तत्थ अच्चंतदुहाभावादो' संसारकारणसुहत्तादो रागं मोत्तूण तत्थ सुहाभावादो च। परिमाणं उच्चदे- गंथत्थप्परिमाणेभेएण दुविहं परिमाणं । तत्थ गंथदो अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्तिअणियोगद्दारेहि संखेज्ज । अत्थदो अणतं। अधवा खंडगंथं पडुच्च वेयणाए सोलसपदसहस्साणि । ताणि च जाणिदूण वत्तव्वाणि । वेदणा त्ति गुणणामं । समाधान नहीं, क्योंकि, उनकी प्रधानता नहीं है। शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? समाधान—यह संक्षेपमें की गई प्ररूपणासे जाना जाता है । यह सब मंगलदण्डक देशामर्शक है, क्योंकि, निमित्तादिकका सूचक है। इस कारण यहां मंगलके समान निमित्तादिककी प्ररूपणा करना चाहिये। वह इस प्रकारसेग्रन्थावतारके निमित्त शिष्य हैं, क्योंकि वचनोंकी प्रवृत्ति परके निमित्त ही देखी जाती है। शंका-यह शास्त्र किस हेतुसे पढ़ा जाता है । समाधान-मोक्षके हेतु पढ़ा जाता है । शंका-स्वर्गादिककी खोज क्यों नहीं की जाती है ? समाधान नहीं की जाती, क्योंकि, वहां अत्यन्त दुखका अभाव होनेसे संसारकारण रूप सुख है, तथा रागको छोड़कर वहां सुख है भी नहीं । परिमाण कहा जाता है- ग्रन्थ परिमाण और अर्थपरिमाणके भेदसे परिमाण दो प्रकार है। उनमें ग्रन्थकी अपेक्षा अक्षर, पद, संघात,प्रतिपत्ति व अनुयोगद्वारोंसे वह संख्यात है। अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है। अथवा खण्डग्रन्थका आश्रय करके वेदनामें सोलह हजार पद हैं । उनको जानकर कहना चाहिये । नामकी अपेक्षा 'वेदना' यह गुणनाम अर्थात् सार्थक नाम है। १ प्रतिषु ‘तहाभावादो' इति पाठः । २ अ-काप्रत्योः । गंथप्परिमाण-', ' आप्रती गंथपरिमाण-' इति पाठः। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगदारे गंथकत्तुपरूवणा [१०७ कत्तारा दुविहा अत्थकत्तारो गंथकत्तारो चेदि । तत्थ अत्थकत्तारो भयवं महावीरो । तस्स दव-खेत्त-काल-भावेहि परूवणा कीरदे गंथस्स पमाणत्तपदुप्पायणटुं । केरिसं महावीरसरीरं ? समचउरससंठाणं वज्जरिसहवइरणारायणसरीरसंघडणं ससुअंधगंधेण आमोइयतिहुवणं सतेजपरिवेढेण विच्छाईकयसुज्जसंघायं सयलदोसवज्जियमिदि । कधमेदम्हादो सरीरादो गंथस्स पमाणत्तमवगम्मदे ? उच्चदे-णिराउहत्तादो जाणाविदकोह-माण-माया-लोह-जाइजरा-मरण-भय-हिंसाभावं, णिफंदक्खेक्खणादो जाणाविदंतिवेदोदयाभावं । णिराहरणत्तादो जाणाविदरागाभावं, भिउडिविरहादा जाणाविदकोहाभावं । वग्गण-णच्चण-हसण-फोडणक्खसुत्त-जडामउड-णरसिरमालाधरणविरहादो मोहाभावलिंग । णिरंवरत्तादो लोहाभावलिंगं । ण तिरिक्खेहि वियहिचारो, वइधम्माद।। ण दालिदिएहि वियहिचारो, अट्टत्तरसयलक्खणेहि अवगयदालिद्दाभावादो । ण गहछलिएहि वियहिचारो, अट्ठत्तरसयलक्खणेहि अवगयतिहुवणाहिवइत्तस्स गहच्छलणाभावादो । णिव्विसयत्तादो णिस्सेसदोसाभावलिंगं । कर्ता दो प्रकार हैं- अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता । उनमें अर्थकर्ता भगवान् महावीर हैं। ग्रन्थकी प्रमाणताको बतलानेके लिये उसकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावसे प्ररूपणा करते हैं। महावीरका शरीर कैसा है ? वह समचतुरस्रसंस्थानसे युक्त, वज्रर्षभवज्रनाराचशरीरसंहननसे सहित, सुगन्ध युक्त गन्धसे तीनों लोकोंको सुगन्धित करनेवाला, अपने प्रभामण्डलसे सूर्यसमूहको फीका करनेवाला, तथा समस्त दोषोंसे रहित है। शंका-इस शरीरसे ग्रन्थकी प्रमाणता कैसे जानी जाती है ? समाधान-- इसका उत्तर कहते हैं- वह शरीर निरायुध होनेसे क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसाके अभावका सूचक है । स्पन्दं रहित नेत्रदृष्टि होनसे तीनों वेदोंके उदयके अभावका ज्ञापक है, निराभरण होनेसे रागके अभावको प्रकट करनेवाला है । भृकुटि रहित होनेसे क्रोधके अभावका ज्ञापक है। गमन, नृत्य, हास्य, विदारण, अक्षसूत्र, जटा-मुकुट और नरमुण्डमालाको न धारण करनेसे मोहके अभावका सूचक है । वस्त्र रहित होनेसे लोभके अभावका सूचक है । यहां तिर्यंचोंसे व्यभिचार नहीं है, क्योंकि, उनमें साधर्म्यका अभाव है। दरिद्रोंसे भी व्यभिचार नहीं है, क्योंकि, एक सौ आठ लक्षणोंसे महावीरके दरिद्रताका अभाव जाना जाता है । न गृहछलियोंसे (गृहस्खलित अर्थात् गृहभृष्ट मनुष्योंसे) व्यभिचार है, क्योंकि, एक सौ आठ लक्षणोंसे जिनके तीनों लोकोंका अधिपतित्व निश्चित है उनके गृहस्खलन हो नहीं सकता। वह सरीर निर्विषय होनेसे समस्त दोषोंके अभावका सूचक १ प्रतिष 'णिक्कदंखेक्खणादो जाणाविदे' इति पाठः। २ प्रतिषु विहादो' इति पाठः। २ प्रतिषु णिव्वियाथदो', ममतौ ‘णिबियत्थदो' इति पाठः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] छक्खंडागमे येयणाखंड [ ४, १, ४४. अग्ग-विसासणि वज्जाउहादीहि बाहाभावादो घाइकम्माभावलिंगं । ण विज्जावाईहि' वियहिचारो, सोहम्मिंदादिदेवेहि अवहिरिदविज्जासत्तिम्हि तब्बाहाणुवलंभादो सनिबंधणाणिबंधणाणं साहम्माभावादो वा । ण देवेहि वियहिचारों, णिराउहादिविसेसणविसिस्स अग्गि-विसासणिवजा उहा दिवाहाभावादो ति सविसेसणसाहणप्पओगादो । पुव्विल्ललिंगेहि जाणाविद मोहाभावेण वा अवगमिदघादिकम्मामावं । वलियावलोयणाभावादो सगासेसजीवपदेसट्ठियणाण-दंसणावरणाणं णिस्से साभावलिंगं । सव्वावयवेहि पच्चक्खावगमादो' अनिंदियजणिदणाणत्तलिंगं । आगासगमण पहापरिवेढे तिहुवणभवणविसारिणा ससुरहिगंधेण च जाणाविदअमाणुसभावं । अथवा, इमे पादेकदओ, किंतु एदेसिं समूहो एक्को हेउ त्ति घेत्तव्वो । तदो एदं सरीरं रागदोस- मोहाभावं जाणावेदि, तदभावो वि महावीरे मुसावादाभावं जाणावेदि, कारणाभावे है । अग्नि, विष, अशनि और वज्रायुधादिकोंसे वाधा न होनेके कारण घातिया कर्मों के अभावका अनुमापक है। यहां विद्यावादियोंसे व्यभिचार नहीं आता, क्योंकि, सौधर्मेन्द्र आदि देवों द्वारा जिसकी विद्याशक्ति छीन ली गई है उसमें चूंकि पूर्वोक बाधाएं पायी जाती हैं तथा सकारण और अकारण बाधाभावों में साधर्म्य भी नहीं है । विशेषार्थ - विद्यावादियोंमें बाधाभाव सकारण है, क्योंकि, वहां उक्त बाधाभाव विद्याजनित है, न कि जिन भगवान् के समान घातिया कर्मों के अभाव से उत्पन्न बाधाभाव जैसा स्वाभाविक । यही दोनोंके बाधाभाव में वैधर्म्य है । न देवोंसे व्यभिचार है, क्योंकि, निरायुधादि विशेषणोंसे विशिष्ट उक्त शरीरके आरी, विष, अशनि, और वज्रायुधादिकोंसे कोई बाधा नहीं होती, ऐसे सविशेषण साधनका प्रयोग है । अथवा, पूर्वोक्त हेतुओंसे सूचित मोहाभावके द्वारा वह घातिया कर्मो के अभावको प्रगट करनेवाला है । वलित अर्थात् कुटिल अवलोकनका अभाव होने से अपने समस्त जीवप्रदेशोंपर स्थित ज्ञानावरण और दर्शनावरणके पूर्ण अभावका सूचक है । समस्त अवयवों द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान होनेसे अतीन्द्रिय ज्ञानत्वका सूचक है। तथा आकाशगमनसे, प्रभामण्डलसे एवं त्रिभुवनरूप महलमें फैलनेवाली अपनी सुरभित गन्धसे अमानुषताका ज्ञापक है । अथवा, ये प्रत्येक अलग अलग हेतु नहीं है, किन्तु इनके समूह रूप एक हेतु है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । इस कारण यह शरीर राग, द्वेष एवं मोहके अभावका ज्ञापक है । और रागादिका अभाव भी भगवान् महावीरमें असत्य भाषणके १ प्रतिषु ' ईज्जावाईहि ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' णिस्से साभावविद्धं ', मप्रतौ ' णिस्सेसाभावविंद ' इति पाठः । ३ प्रतिषु पच्चक्खावरमादो' इति पाठ: । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे समवसरणपरूवणा कज्जस्स अस्थित्तविरोहादो। तदभावो वि आगमस्स पमाणत्तं जाणादि । तेण दव्यपरूवणा कायव्वा । . (तित्थुप्पत्ती कम्हि खेत्ते ? रविमंडलं व समवट्टे, बारहजोयणविक्खभायामे', एक्किदैणीलमणिसिलाघडिए, पंचरयणकणयविणिम्मियफुरंततेयचउतुंगगोउरधूलिवायारेण परिवेढियपेरंते, तस्संतो तिवायारवेढिय-तिमेहलापीढोवरिद्वियमणिमयदिप्पदीहरचउमाणत्थंभविसिट्ठविकसितोप्पलकंदोहारविंदादिपुप्फाइण्णणंदुत्तरादिवावीणिवहाऊरियधूलीवायारंतभाए, णवणिहिसहियअत्तरसयसंखुवलक्खियअट्ठमंगलावूरिदचउगोउरंतरिदसच्छजलकलिदखाइयापरिवेढिदे, तत्तो परं णाणाविहकुसुमभरेणोण्णयवल्लिवणेण चउरत्यंतरिएण परिवेढियाए, तत्तो परं सुतः अभावको प्रकट करता है, क्योंकि, कारणके अभावमें कार्यके अस्तित्वका विरोध है । और असत्य भाषणका अभाव भी आगमकी प्रमाणताका ज्ञापक है । इसलिये द्रव्यसे अर्थकर्ताकी प्ररूपणा करना चाहिये । तीर्थकी उत्पत्ति किस क्षेत्रमें हुई है ? जो समवसरणमण्डल सूर्यमण्डलके समान समवृत्त अर्थात् गोल है, बारह योजन प्रमाण विस्तार और आयामसे युक्त है, एक इन्द्रनील मणिमय शिलासे घटित है, पांच रत्नों व सुवर्णसे निर्मित और प्रकाशमान तेजसे संयुक्त ऐसे चार उन्नत गोपुर युक्त धूलिसालसे जिसका पर्यन्त भाग घिरा हुआ है, उसके भीतर तीन प्राकारोंसे वेष्टित तीन कटिनी युक्त पीठके ऊपर स्थित माणिमय दैदीप्यमान दीर्घ चार मानस्तम्भोंसे विशिष्ट व विकसित उत्पल, कंदोट्ट (नील कमल) एवं अरविंद आदि पुष्पोंसे व्याप्त ऐसी नन्दोत्तरादि वापियोंके समूहसे जिसमें धूलिप्राकारका अभ्यन्तर भाग परिपूर्ण है, जो नौ निधियोंसे सहित व एक सौ आठ संख्यासे उपलक्षित आठ मंगलद्रव्योंसे परिपूर्ण ऐसे चार गोपुरोंसे व्यवहित स्वच्छ जल युक्त खातिकासे वेष्टित है, इसके आगे चार वीथियोंसे व्यवहित व नाना प्रकारके पुष्पोंके भारसे उन्नत ऐसे वल्लीवन से परिवेष्टित है, इसके आगे तपाये १ प्रतिषु । रविमंडलं वव' इति पाठः । २ रविमंडल व्व वट्टा सयला वि य खंघइंदणीलमई । सामण्णखिदी बारस जोयणमे मि उसहस्स ॥ तत्तो बेकोसूणो पत्तेक्कं भिणाहपज्जतं । चउभागेण विरहिदा पासस्स य वड्डमाणस्स ॥ ति. प. ४, ७१६-७१७. इह केई आइरिया पण्णारसकम्मभूमिजादाणं । तित्थयराणं बारसजोयणपरिमाणमिच्छति ॥ ति.प. ४-७१९. ३ प्रतिष · ए एकिंद-' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'फुटीर', मप्रती 'घटीए' इति पाठः। ५ प्रतिषु । विसद्द ' इति पाठः । ६ प्रतिषु ' सुरत्त' इति पाठः । For Private & Personal use only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १४. -सुवण्णविणिम्मिएण अठ्ठत्तरसयट्ठमंगल-णवणिहि-सयलाहरणसहियधवलतुंगचउगोपुरपायारेण सोहियए, तत्तो परं चउण्हं गोउरवाराणमभंतरभागे दोपासट्ठिएहि डझंतसुगंधदव्वाणं गंधामोइयभुवणेहि दो-दोधूवघडएहि समुब्भडए, तत्तो परं तिभूमीएहि अइधवलरुप्पियरासिविणिम्मिएहि सगंगघडिदसुरलोयसारमणिसंघायबहुवण्णकिरणपडिच्छाइएहि वज्जंतमुरवसंघायखबहिरियजीवलोएहि बत्तीसच्छपिडिबद्धबत्तीसपेक्खणयसहियदोद्दोपासाएहि भूसियए, चउमहावहंतरट्टिएहि मउवसुगंधणयणहरवण्णसुरलोगरयणघडियसमुतुंगरुक्खएहि विविवरसुरहिगंधासत्तमत्तमहुवर-महुर-रवविराइयएहि णाणाविहगिरि-सरि-सर-मंडवसंडमंडिएहि चउपासट्ठियजिणिंदयंदपडिबिंबसंबंधेण पत्तच्चणचइत्तरुक्खएहि असोग-सत्तच्छद-चंपयंबवणेहि अइसोहियए, ततो परं रुप्पियचउगोउरसंबद्धसुवण्णाणिम्मियवणवेश्यावेढियए, ततो परं चउण्हं रत्थाणमंतरेसु ट्ठियएहि त्थिरथोरसुरलोयमणित्थंभएहि पादेक्कमट्टत्तरसयसंखाएहि एगेगदिसाए दस हुए सुवर्णसे निर्मित व एक सौ आठ संख्या युक्त आठ मंगल द्रव्य, नौ निधियों एवं समस्त आभरणोंसे सहित धवल उन्नत चार गोपुर युक्त प्राकारसे सुशोभित है; इसके आगे चार गोपुर द्वारोंके अभ्यन्तर भागमें दोनों पार्श्व भागों में स्थित, जलते हुए सुगन्ध द्रव्योंके गन्धसे भुवनको आमोदित करनेवाले ऐसे दो दो धूपघटोंसे संयुक्त है। इसके आगे तीन भूमियोंसे संयुक्त, अत्यन्त धवल चांदीकी राशिसे निर्मित, अपने अवयवों में लगे हुए सुरलोकके श्रेष्ठ मणिसमूहकी अनेक वर्णवाली किरणोंसे आच्छादित, बजते हुए मृदंगसमूहके शब्दसे जीवलोकको बहरा करनेवाले, तथा बत्तीस अप्सराओंसे सम्बद्ध बत्तीस नाटकोंसे सहित, ऐसे दो दो प्रासादोंसे भूषित है; चार महापों के वीचमें स्थित, मृदु, सुगन्धित एवं नेत्रोंको हरनेवाले वर्णों से युक्त सुरलोकके रत्नोंसे निर्मित ऊंचे वृक्षोसे संयुक्त, अनेक प्रकारकी उत्तम सुगन्धमें आसक्त हुर भ्रमरोंके मधुर शब्दसे विराजित नाना प्रकारके पर्वत, नदी, सरोवर व मण्डपसमूहोंसे मण्डित, तथा चारों पार्श्वभागों में स्थित जिनेन्द्र-चन्द्र के प्रतिबिम्बके सम्बन्धसे पूजाको प्राप्त हुए चैत्यवृक्षोंसे सहित ऐसे अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक व आम्र वनोंसे अतिशय शोभित है; इसके आगे चांदीसे निर्मित चार गोपुरोंसे सम्बद्ध व सुवर्णसे निर्मित ऐसी वनवेदिकासे वेष्टित है; इसके आगे चार वीथियोंके मध्य भागोंमें स्थित, स्थिर व स्थूल स्वर्गलोकके मणिमय स्तम्भोंसे संयुक्त, प्रत्येक एक सौ आठ संख्यासे युक्त, एक एक दिशामें दशसे गुणित एक सौ आठ १ प्रतिषु 'पदच्छाइयएहि' इति पाठः। २ प्रतिषु 'बत्तीसच्चरा', मप्रतौ 'बत्तीसच्छा' इति पास। ३ प्रतिषु सरिसरमंदवसंदमंदिएहि', मप्रतो 'सरिसरवमंदवसंदमंदियएहि ' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'वणोहि ' इति पाठः । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे समवसरणपरूवणा [१११ गुणहहियसयएहि मल्लंबरद्ध-बरहिण-गरुड-गय-केसरि-वसह-हंस-चक्कद्धयणिवएहि परिवेढियए', तत्तो परमवरेण अट्ठ तरसयट्ठमंगल-णवणिहिहरचउगोउरमंडिएण' विविहमणि-रयणविचित्तियंगेण आहरणतोरणसयसहियवारेण सुवण्णपायारेण जुत्तए, तस्संतो पुव्वं व दो-दो-डज्झंतसुवंधदव्वगभिणधूवघडमुरव-महुर-रवविराइयतिहूमिधवलहरसमुत्तुंगए, तत्थेव चदुसु रत्यंतरेसु संकप्पियणाणाविहफलदाणसमत्थएहि रुंटतमहुअर-कलगलकलयंठीकुलसंकुलएहि सगकिरणणिवहच्छाइयंबरेहि विविहपुर-गिरि-सरि-सरवर-हिंदोल-लयाहरएहि चउगोउरसंबद्धसुवण्णवणवेश्यामज्जाएहि सिद्धट्ठियबुद्धिद्धसिद्धत्थपायवपवित्तीकयकप्परुक्खवणेहि विहूसियए, तत्तो परं पउमरायमणिमयदेहाहि सगंगणिग्गयतेएण तंबीकयंबराहि सगसव्वंगेहि संधारियजिणिंदयंदाहि मणितोरणंतरियाहि चदुसु रत्यंतरेसु ट्ठियधवलामलपासायविहूसियाहि रत्थामज्झट्ठियणव-णवत्थूहाहि अंचियए, तदो गयणप्फलिहमणिघडिएण अट्टत्तरसयट्टमंगल-णवाणिहिसणाहपउमरायमणिविणिम्मियगोउरेण पायारेण अहिणंदियए, पीढस्स पढममेहलाए फलिह [१०८x२०=१०८०], ऐसी माला-अम्बराध्व अर्थात् सूर्य और चन्द्र-अब्ज-मयूर-गरुड-गज-सिंहवृषभ-हंस और चक्रके चिह्नसे यक्त ध्वजाओंके समहसे घिरा हआ है। इसके आगे एक सौ आठ मंगल द्रव्य व नौ निधियोको धारण करनेवाले चार गोपुरोंसे मण्डित, अनेक प्रकारके मणि व रत्नोंसे विचित्र देहवाले तथा सैकड़ों आभरण व तोरणोंसे सहित द्वारोंसे संयुक्त ऐसे सुवर्णप्राकारसे युक्त है। उसके भीतर पूर्वके समान जलते हुए सुगन्ध द्रव्योंको मध्यमें धारण करनेवाले दो दो धूपघटोंसे युक्त और मृदंगके मधुर शब्दसे विराजित तीन भूमियोंवाले धवल घरोंसे उन्नत है; वहांपर ही चार वीथियोंके अन्तरालोंमें संकल्पित नाना प्रकार फलोंके देनेमें समर्थ, गुंजार करनेवाले भ्रमर व सुन्दर गलेवाली कोयलोंके समूहसे व्याप्त, अपने किरणसम्हसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, अनेक पुर-पर्वत-नदी-सरोवर-हिंडोलों एवं लताग्रहोंसे सुंयुक्त, चार गोपुरोसे सम्बद्ध सुवर्णमय वनवेदिका रूप मर्यादावाले, तथा सिद्धप्रतिमाओंसे दीप्त सिद्धार्थ वृक्षोंसे पवित्र किये गये ऐसे कल्पवृक्षवनोंसे विभूषित है; इसके आगे पद्मरागमणिमय देहसे संयुक्त, अपने अंगसे निकलनेवाले तेजसे आकाशको ताम्रवर्ण करनेवाले, अपने सब अंगोंसे जिनेन्द्र-चन्द्रोंको धारण करनेवाले, मणिमय तोरणोंसे अन्तरित, चार वीधियोंके अन्तरालोंमें स्थित धवल व निर्मल प्रासादोंसे विभूषित, ऐसे वीथियोंके मध्यमें स्थित नौ नौ स्तूपोंसे व्याप्त है। इसके आगे आकाश-स्फटिकमणिसे निर्मित तथा एक सौ आठ अष्ट मंगल-द्रव्यों एवं नौ निधियोंसे सनाथ व पद्मरागमणिसे निर्मित गोपुरोंवाले प्राकारसे अभिनन्दित है; पीठकी १ प्रतिषु 'परिठेहियए' इति पाठः। ति. प. ४, ८१८-८१९. ह. पु. ५७-४४. २ प्रतिषु • मंदिएण' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'पावय' इति पाठः। ४ ति. प. ४, ८३३-८३५. ह. पु. ५७-५३. ५ ति. प. ४, ८४४-८४७. ह. पु. ५७-५४. ६ ति. प.४-८४८. ह. पु. ५७-५६. For Private Personal Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] छक्खडागर्म वयणाखड [४, १, ४१. पायारे च विलग्गियाहि फलिहमणिघडियंगियाहि सोलहभित्तीहि कयबारहकोट्ठएहि मणित्थंभुद्धरियएगागासफलिहघडियमंडवच्छाइयएहि सुरलोयसारसुअंधगंधगभिणएहि - चउव्विहसंघ-कप्पवासिय-मणुव-जोइसिय-वाणवेंतर-भवणवासियजुअईहि भवणवासिय-वाणवेंतरजोइसिय-कप्पवासिय-मणुव-तिरिक्खेहि य अणुक्कमेण अहि उत्तएहि विराइए, तिमेहलापीढेण मत्थएण उड्डवड्डमाणदिवायरेण बिदियमेहलाए धरियट्टमहाधय-मंगलेण मत्थयत्थधम्मचक्कविराइयजक्खकाएण मणिमएण समुत्तुंगवड्माणजिणप्पहामंडलते एण णटुंधारए,णिवदंतसुरकुसुमवरिसेण गिरंतरकयमंगलोवहारए, बहुकोडाकोडेमहुरसुरतूररवेण बहिरियतिहुवण-भवणए, मरगयमणिघडियखंधोवक्खंधेण पउमरायमणिमयपवालंकुरेण णाणाविह. फलकलिएण भमर-परहुअ-महुवर-महुरसरविराइएण जिणसासणासोगचिंधेण असोगपायवेण णिण्णासियसयलजणसोगसंघए, सिसिरयरकरधवलेण जोयणंतरवित्थारएण सच्छधवलथूलमुत्ताहलदामकलावसोहमाणपेरंतएण गयणट्ठियछत्तत्तरण वड्डमाणतिहुवणाहिवइत्तचिंधएण सुसोहियए, प्रथम कटनी व स्फटिक-प्राकारसे लगी हुई और स्फटिकमणिसे निर्मित देहवाली सोलह भित्तियोंसे विभक्त किये गये, मणिमय स्तम्भोंसे उद्धृत व एक आकाश स्फटिकसे निर्मित मण्डपसे आच्छादित, स्वर्गलोकके श्रेष्ठ सुगन्ध गन्धद्रव्यको धारण करनेवाले, चतुर्विध मुनिसंघ्र, कल्पवासिनी, मनुष्यनी, ज्योतिष्कदेवी, व्यन्तरदेवी भवनवासि. देवी, भवनवासीदेव, वानव्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तिर्यंचोंसे क्रमशः संयुक्त, ऐसे बारह कोठोंसे विराजित है: जिसके मस्तकके ऊपर वर्धमान भगवान् रूपी सूर्य स्थित है, जिसकी द्वितीय कटिनीपर आठ ध्वजाएं व मंगलद्रव्य रखे हुए हैं, जो [प्रथम कटिनीपर ] मस्तकपर स्थित धर्मचक्रसे विराजित यक्षोके शरीरसे संयुक्त है, मणियोंसे निर्मित है, तथा उन्नत वर्धमान जिनके प्रभामण्डल युक्त तेजसे सहित है, ऐसे तीन कटिनी युक्त पीठसे अन्धकारको नष्ट करनेवाला है; गिरती हुई पुष्पवृष्टिसे निरन्तर किये गये मंगल उपहारसे युक्त है; अनेक कोड़ाकोड़ी मधुर स्वरवाले वादित्रोंके शब्दसे त्रिभुवन रूपी भवनको बहरा करनेवाला है; मरकतमणिसे निर्मित स्कन्ध व उपस्कन्धसे सहित, पदमरागमणिमय प्रवालांकरों (पत्तों) से प्रकारके फलोंसे युक्त, भ्रमर कोयल व मधुकरके मधुर स्वरोंसो वराजित तथा जिनशासनके अशोक अर्थात् आत्मसुखके चिह्वस्वरूप अशोक वृक्षसे समस्त जीवोंके शोकसमूहको नष्ट करनेवाला है; चन्द्रकिरणोंके समान धवल, कुछ कम एक योजन विस्तारवाले, स्वच्छ धवल एवं स्थूल मोतियोंकी मालाओंके समूहसे शोभायमान पर्यन्त भागसे संयुक्त तथा वर्धमान भगवान्के तीनों लोकोंके अधिपतित्वके चिह्न रूप ऐसे गगनस्थित तीन छत्रोंसे १ प्रतिबु ' मंदव' इति पाठः। २ ति. प. ४, ८५६-८६३. ह. पु. ५७, १४८-१६.. ३ प्रतिषु ' मुत्थएण ' इति पाठः। ४ ति. प. ४, ८८०-८८१. ह. पु. ५७-१४१. ५ ति.प. ४, ८७०. ह. पु. ५७-१४०. ६ प्रतिषु ' विधेण ' इति पाठः। ७ति.प. ४,९१८-९२७. ह. पु. ५७, १६२-१६६. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे वड्डमाणस्स सव्वण्हुत्तं [११३ पंचसेलउरणेरइदिसाविसयअइविउलविउलगिरिमत्थयत्थए, गंगोहोव्व चउहि सुरविरइयवारेहि पविसमाणदेव-विज्जाहर-मणुवजणाण मोहए समवसरणमंडले जिणवइतणुमऊहखीरोवहिणिव्वुडासेसदेहम्मि जक्खिदकरणियरेहि विज्जिज्जमाणाणेयचामरच्छण्णढदिसाविसयम्मि दिव्वामोयगंधसुरसाराणेयमणिणिवहघडिययम्मि गंधउडिपासायम्मि ट्ठियसीहासणारूढेण वड्डमाणभडारएण तित्थमुप्पाइदं ।) __ खेत्तपरूवणा कधं तित्थस्स पमाणत्तं जाणावेदि ? वड्डमाणभयवंतसव्वण्हुत्तलिंगत्तादो । कधं सव्वण्हू वड्डमाणभयवंतो ? चोदसविज्जाठाणबलेण दिट्ठासेसभुवणेण ओहिणाणेण पच्चक्खीकयसगोहिखेत्तभंतरट्ठियसयलजीवकम्मक्खंधेण घाइचउक्कविणासेणुप्पण्णणवकेवललद्धीओ अघाइकम्मसंबंधेण पत्तमुत्तभावजिणट्ठियाओ पेच्छंतएण सोहम्मिदेण तस्स कय. पूजण्णहाणुववत्तीदो । ण च विज्जावाइपूजाए वियहिचारो, अप्पिड्डि-णाण-तरकयाए महिड्डि सुशोभित है; पंचशैलपुर अर्थात् राजगृह नगरके नैऋत्य दिशाभागमें अत्यन्त विस्तृत विपुलाचलके मस्तकपर स्थित है; तथा जो देवों द्वारा रचे गये चार द्वारोंसे गंगाके प्रवाहके समान प्रवेश करनेवाले देव, विद्याधर एवं मनुष्य जनोंको मोहित करनेवाला है, ऐसे समवसरणमण्डल में जिनेद्र देवके शरीरकी किरणों रूप क्षीरसमुद्र में डूबी हुई समस्त देहसे संयुक्त, यक्षेन्द्रोंके हाथोंके समूहोंसे ढोरे गये चामरोंसे आच्छादित आठ दिशाओंको विषय करनेवाले और दिव्य आमोद-सुगन्ध युक्त एवं देवों के श्रेष्ठ अनेक मणियोंके समूहसे रचे गये गन्धकुटी रूप प्रासादमें स्थित सिंहासनपर आरूढ़ वर्धमान भट्टारकने तीर्थ उत्पन्न किया। शंका-क्षेत्रप्ररूपणा तीर्थकी प्रमाणताकी शापक कैसे है ? समाधान-क्योंकि, वह वर्धमान भगवान्की सर्वज्ञताका चिह्न है। शंका-भगवान् वर्धमान सर्वज्ञ थे, यह कैसे सिद्ध होता है ? समाधान-चौदह विद्यास्थानोंके बलसे समस्त भुवनको देखनेवाले, अवाधिज्ञानसे अपने अवधिक्षेत्रके भीतर स्थित सम्पूर्ण जावोंके कर्मस्कन्धोंको प्रत्यक्ष करनेवाले, तथा चार घातिया कर्मोंके नष्ट होनेसे उत्पन्न और अधातिया कर्मोंके सम्बन्धसे मूर्तभावको प्राप्त ऐसी जिन भगवान्में स्थित नौ केवललब्धियोंको देखनेवाले सौधर्मेन्द्र द्वारा की गई उनकी पूजा चूंकि विना सर्वज्ञताके बनती नहीं है. अतः सिद्ध है कि वर्धमान भगवान्द सर्वज्ञ थे। यह हेतु विद्यावादियोंकी पूजासे व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि, अल्प ऋद्धि व ज्ञान युक्त व्यन्तर देवों द्वारा की गई पूजाका महा ऋद्धि व शानसे संयुक्त देवेन्द्रों द्वारा की क. क. १५. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १४. गाणदेविंदकयपूजाए सह साहम्माभावादो देविद्धिच्छायाएं विच्छायं गच्छंतीए वेंतरपूजाए इंदकयजिणपूजाए इव धुवत्ताभावेण वइधम्मियादो वा । होदु णाम दिजिणदब्वमहिमाणं देविंदसरूवावगच्छंतजीवाणमिदं जिणसवण्णुत्तलिंग, ण सेसाणं; लिंगविसयअवगमाभावादो । ण च अणवगयलिंगस्स लिंगिविसओ अवगमो उप्पज्जदि, अइप्पसंगादो ति उत्ते अणेण पयारेण जिणभावजाणावणटुं भावपरूवणा कीरदे । तं जहा ___ण जीवो जडसहावो, ससंवेयणापच्चक्खेण अविसंवादसहावेण अजडसहावजीउवलभाद।। ण च णिच्चेयणो जीवो चेयणागुणसंबंधेण चेयणसहावो होदि, सरुवहाणिप्पसंगादो। किं च ण णिच्चेयणो जीवो, तस्साभावप्पसंगादो । तं जहा- ण ताव इंदियणाणेण अप्पा घेप्पइ, तस्स बज्झत्थे वावारुवलंभादो। ण ससंवेयणाए घेप्पइ, चेयणसरूवाए तिस्से जडजीवे असंभवादो । ण चाणुमाणेण वि घेप्पइ, दुविहपच्चक्खाणमविसएण जीवेण अविणाभाविलिंग गई पूजाके साथ कोई साधर्म्य नहीं है। अथवा, देवर्द्धिकी छायाम कान्तिहीनताको प्राप्त होनेवाली ब्यन्तरकृत पूजामें इन्द्रकृत जिनपूजाके समान स्थिरता न होनेसे दोनोंमें साधर्म्यका अभाव है। शंका-जिनद्रव्य अर्थात् जिनशरीरकी महिमाको देखनेवाले व देवेन्द्रस्वरूपके जानकार जीवों (सौधर्मेन्द्रादिक) के वह जिनदेवकी सर्वशताका साधन भले ही बन सकता हो, किन्तु वह शेष जीवोंके नहीं बनता; क्योंकि, उनके उक्त साधनविषयक ज्ञानका अभाव है। और साधनशानसे रहित व्यक्तिके साध्यविषयक ज्ञान उत्पन्न हो नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेमें अतिप्रसंग दोष आता है ? समाधान- इस शंकाके उत्तरमें इस प्रकारसे जिनभावके ज्ञापनार्थ भावप्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- जीव जड़स्वभाव नहीं है, क्योंकि, विसंवाद रहित स्वभाववाले स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे अजस्वभाव जीव पाया जाता है। और अचेतन जीव चेतनागुणके सम्बन्धसे चेतनास्वभाव भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर स्वरूपकी हानिका प्रसंग आवेगा। दूसरे, जीव अचेतन हो नहीं सकता, क्योंकि, ऐसा होनेसे उसके अभावका प्रसंग आवेगा। वह इस प्रकारसे - इन्द्रियज्ञानके द्वारा तो आत्माका ग्रहण होता नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियज्ञानका व्यापार बाह्य अर्थमें पाया जाता है। स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योकि, चेतनस्वभाव होनेसे उक्त प्रत्यक्ष जड़ जीवमें सम्भव नहीं है । अनुमानसे भी आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, दोनों प्रकारके प्रत्यक्षोंके अविषयभूत जीवके साथ अविनाभाव सम्बन्ध रखनेवाले लिंगका ग्रहण सम्भव १ प्रतिषु देविद्धिच्छाए' इति पाठः । २ प्रतिषु लिंगविसओ' इति पाठः। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे जीवस्स सचेयणत्त [११५ ग्गहणाणुववत्तीदो । ण चागमेण वि घेप्पइ, अपउरुसेयआगमाभावादो । णेदरेण वि, सव्वण्णुणा विणा तस्साभावादो इयरेयरासयदोसप्पसंगादो च। तदा णत्थि जीवो, सयलपमाणगोयराइक्कंतत्तादो त्ति द्विदजीवाभावो' मा होहिदि त्ति जीवो सचेयणो त्ति इच्छिदव्वो । किं च सचेयणो जीवो, अण्णहा णाणाभावप्पसंगादो । तं जहा- ण ताव णाणोवायाणकारणं जीवो, णिच्चेयणस्स तदुवायाणकारणत्तविरोहादो। अविरोहे वा आयासं पि तदुवायाणकारणं होज्ज, अमुत्तत्त-सव्वगयत्त णिच्चेयणत्तेहि विसेसाभावादो । ण च सद्दवायाणकारणत्तकओ विसेसो, तस्स सज्झसमाणत्तादो । ण चौवायाणकारणेण विणा कज्जुप्पत्ती, विरोहादो । तम्हा आयासादीहिंतो जीवस्स विसेसो अब्भुवगंतव्वो, कधमण्णहा जीवो चेव णाणस्सुवायाणकारणं होज्ज । सो वि चेयणं मोत्तूण को अण्णो विसेसो होज्ज, अण्णम्हि दोसुवलंभादो । रुवस्स पोग्गलदव्वं व जीवो चेय णाणस्सुवायाणकारणमिदि ण वोत्तुं जुत्तं, नहीं है । आगमसे भी आत्माका ग्रहण नहीं होता, क्योंकि, अपौरुषेय आगमका अभाव है। यदि पौरुषेय आगमसे उसका ग्रहण माना जावे तो वह भी नहीं बनता, क्योंकि, सर्वज्ञके विना पौरुषेय आगमका अभाव है, तथा [ पहिले जब सर्वज्ञ सिद्ध हो तब उससे पौरुषेय आगम सिद्ध हो और जब पौरुषेय आगम सिद्ध हो तब उससे सर्वज्ञकी सत्ता सिद्ध हो, इस प्रकार ] अन्योन्याश्रय दोषका प्रसंग भी आता है। इस कारण जीव है ही नहीं, क्योंकि, वह समस्त प्रमाणोंकी विषयतासे रहित है; इस प्रकार प्रसंगप्राप्त जीवका अभाव न हो, एतदर्थ ' जीव सचेतन है 'ऐसा स्वीकार करना चाहिये। इसके अतिरिक्त जीव सचेतन है, क्योंकि, सचेतनताके विना ज्ञानके अभावका . प्रसंग आता है। वह इस प्रकारसे- जीव ज्ञानका उपादान कारण नहीं है, क्योंकि, चैतन्यसे रहित उसके ज्ञानोपादानकारणताका विरोध है । अथवा अचेतन होते हुए भी उसको ज्ञानका उपादान कारण मानने में यदि कोई विरोध नहीं माना जाय तो आकाश भी उसका उपादान कारण हो जावे, क्योंकि अमूर्तत्व, सर्वव्यापकता और अचेतनताकी अपेक्षा जीवसे आकाशमें कोई विशेषता नहीं है। यदि कहा जाय कि आकाश शब्दका उपादान कारण है, यही उसमें जीवसे विशेषता है, सो वह भी नहीं हो सकता, क्योंकि, शब्दोपादानकारणत्व रूप हेतु साध्यके ही समान असिद्ध है । और उपादानकारणके विना कार्यकी उत्पत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध है। इस कारण आकाशा. दिकोंकी अपेक्षा जीवके विशेषता स्वीकार करना चाहिये; अन्यथा जीव ही शानका उपादान कारण कैसे हो सकता है ? वह विशेषता भी चेतनताको छोड़कर और दूसरी कौनसी हो सकती है, क्योंकि, अन्य विशेषतामें दोष पाये जाते हैं। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य रूपका उपादान कारण हैं, उसी प्रकार जाव भी ज्ञानका उपादान कारण है. ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि, ऐसा माननेपर रूपके समान १ प्रतिषु · ठिदं जीवाभावो' इति पाठ। २ प्रतिषु तहा ' इति पाठः । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १,४४.. रूवस्सेव णाणस्स जावदव्वभावित्तप्पसंगादो। ण पज्जायसवेण वियहिचारो, रूवत्तं पडि समाणजादीयस्स रूवविसेसस्स तत्थावट्ठाणं व णाणत्तं पडि समाणजादीयस्स' णाणविसेसस्स जीवे वि सव्वदा अवट्ठाणप्पसंगादो । तम्हा सचेयणो जीवो त्ति इच्छिदव्यो । जेसिमण्णोण्णमविरोहो ते तस्स दव्वस्स जावदव्वभाविगुणा पोग्गलदव्वस्स रूवरस-गंध-पास इव । तदो चेयणा व णाण पि जावदव्वभाविगुणो, चेयणाए सह णाणस्स विरोहाभावादो। किं च णाणं जीवस्स जावदव्वभाविगुणो, चेयणादो उवजोगत्तं पडि एगत्तादो। ण च एक्कस्स उवजोगस्स पमेयभेएण दुब्भावं गयस्स भिण्णदव्वावट्ठाणं जुज्जदे, विरोहादो । तदो णाण-दंसणसहावो जीवो त्ति सिद्धं । ण च णाणं दिवायरप्पहा व थोवदव्वगुण-पज्जयपडिबद्धं, सत्तण्णहाणुवत्तीदो सयलमणेयंतप्पयमिच्चाइयस्स अणुमाणणाणस्स सव्वदव्वपज्जयगयस्सुवलंभादो । तदो असेसदव्व-पज्जयणाण-दंसणसहावो जीवो त्ति सिद्धं । पुणो कसाया णाणविरोहिणो, कसायवड्डि-हाणीहितो णाणस्स हाणि-वड्डीणमुवलंभादो । ज्ञानके यावदद्रव्यभावी होनेका प्रसंग आवेगा । पर्यायभूत नील-पीतादि रूपसे व्यभिचार भी नहीं हो सकता, क्योंकि, रूपत्वके प्रति समान जातीय रूपविशेषके वहां अवस्थानके समान ज्ञानत्वके प्रति समानजातीय ज्ञानविशेषके जीवमें भी सर्वदा अवस्थानका प्रसंग आवेगा । अतएव जीव सचेतन है, ऐसा स्वीकार करना चाहिये। जिन गुणोंके परस्परमें कोई विरोध नहीं रहता वे उस द्रव्यके यावद्रव्यभावी गुण कहलाते हैं, जैसे पुद्गलद्रव्यके रूप, रस, गन्ध व स्पर्श । इस कारण चेतनाके समान ज्ञान भी यावद्रव्यभावी गुण है, क्योंकि, चेतनाके साथ ज्ञानका कोई विरोध नहीं है। और भी, ज्ञान जीवका याचगव्यभावी गुण है, क्योंकि, चेतनाकी अपेक्षा उपयोगके प्रति उसकी एकता है। और एक उपयोगका प्रमेयके भेदसे द्वित्वको प्राप्त होकर भिन्न द्रव्यमें रहना उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेमें विरोध आता है । अत एव ज्ञान-दर्शनस्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ। तथा सूर्यप्रभाके समान ज्ञान स्तोक द्रव्य, गुण व पर्यायोंसे सम्बद्ध नहीं है; क्योंकि, 'समस्त पदार्थ अनेकान्तात्मक हैं, क्योंकि, उसके विना उनकी सत्ता घटित नहीं होती' इत्यादिक अनुमानज्ञान सब द्रव्य व पर्यायोंमें रहनेवाला पाया जाता है । इस कारण सम्पूर्ण द्रव्य एवं पर्यायोंको विषय करनेवाले ज्ञानदर्शन स्वरूप जीव है, ऐसा सिद्ध होता है। पुनः कषायें ज्ञानकी विरोधी हैं, क्योंकि, कषायोंकी वृद्धि और हानिसे क्रमशः ............... १ अप्रतौ • समाणोजाणीयस्स', आप्रतौ । समाणजीणीयस्स ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'गुणो' इति पाठः । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४४.] कदिअणियोगद्दारे कम्मकारणपरूवणा [ ११७ ण कसाया जीवगुणा, जावदव्वभाविणा णाणेण सह विरोहण्णहाणुववत्तदो । पमादासंजमा विण जीवगुणा, कसायकज्जत्तादो | ण अण्णाणं पि, णाणपडिवक्खत्तादो | णमिच्छतं पि, सम्मत्तप्पडिवक्खत्तादो अण्णाणकज्जत्तादो वा । तदो णाण- दंसण संजम सम्मत्त खंति-मद्दवज्जर्व-संतोस-विरागादिसहावो जीवो त्ति सिद्धं । ण णिच्चाई कम्माई, तपफलाणं जाइ - जरा - मरण तणु-करणाईणमणिच्चत्तण्णहाणुववत्तदो । ण च णिक्कारणाणि, कारणेण मिणा कज्जाणमुत्पत्तिविरोहादो | ण णाण-दंसणादीणि तक्कारणं, कम्मजणिदकसा एहि सह विरोहण्णहाणुववतीदा । ण च कारणाविरोहीण तक्कज्जेहि विरोहो जुज्जदे, कारणविरोहदुवारेणेव सव्वत्थ कज्जेसु विरोहुवलंभादो । तदो मिच्छत्तासंजम - कसायकारणाणि कम्माणि त्ति सिद्धं । सम्मत्त-संजम कसायाभावा कम्मक्खयकारणाणि, मिच्छत्तादीणं पडिवक्खत्तादो | ण च कारणाणि कज्जं ण जर्णेति चेवेत्ति नियमो अस्थि, तहाणुवलंभादो । तम्हा कहिं पि काले कत्थ वि जीवे कारणकलावसामग्गीए णिच्छएण ज्ञानकी हानि और वृद्धि पायी जाती है । कषायें जीवके गुण नहीं हैं, क्योंकि, यावद्द्रव्यभावी ज्ञानके साथ उनका विरोध अन्यथा घटित नहीं होगा । प्रमाद व असंयम भी जीवगुण नहीं हैं, क्योंकि, वे कषायों के कार्य हैं । अज्ञान भी जीवका गुण नहीं है, क्योंकि, वह ज्ञानका प्रतिपक्षी है । मिथ्यात्व भी जीवका गुण नहीं है, क्योंकि, वह सम्यक्त्वका प्रतिपक्षी एवं अज्ञानका कार्य है । इस कारण ज्ञान, दर्शन, संयम, सम्यक्त्व, क्षमा, मृदुता, आर्जव, सन्तोष और विराग आदि स्वभाव जीव है, यह सिद्ध हुआ । कर्म नित्य नहीं हैं, क्योंकि, अन्यथा जन्म, जरा, मरण, शरीर व इन्द्रियादि रूप कर्मकार्यो की अनित्यता बन नहीं सकती । यदि कहा जाय कि जन्म-जरादिक अकारण हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, कारणके विना कार्योंकी उत्पत्तिका विरोध है । यदि ज्ञान-दर्शनादिकोंको उनका कारण माने तो वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, अन्यथा कर्मजनित कषायों के साथ उनका विरोध घटित नहीं होता। और जो कारणके साथ अविरोधी हैं उनका उक्त कारणके कार्योंके साथ विरोध उचित नहीं हैं, क्योंकि, कारणके विरोध के द्वारा ही सर्वत्र कार्योंमें विरोध पाया जाता है । अत एव मिथ्यात्व असंयम और कषाय कर्मोंके कारण हैं, यह सिद्ध हुआ । सम्यक्त्व, संयम और कषायोंका अभाव कर्मक्षयके कारण हैं, क्योंकि, ये मिथ्यात्वादिकोंके प्रतिपक्षी हैं । और कारण कार्यको उत्पन्न करते ही नहीं हैं, ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अत एव किसी कालमें किसी भी जीव कारणकलाप सामग्री निश्चयसे होना चाहिये । और इसीलिये किसी भी जीवके १ अ - आप्रत्योः ' पमदासंजमा ', काप्रती पमत्ता संजमा ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' बुडुवज्जव ' इति पाठः । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ४४. होदव्वमिदि कस्स वि जीवस्स सयलसहावोवलद्धीए होदव्वं, सहाववड्डितारतम्मुवलंभादो; आगरकणय - पाहाडियसुवण्णस्सेव सुक्कपक्ख चंद मंडलस्सेव वा । कसायस्स विणिस्सेसक्खओ कत्थ वि जीवे होदि, हाणितारतम्मुवलंभादो, आगरकणए व दुबलियमाणमलकलंकस्सेव । णिस्सेसं गाणं धूवरंति कम्माई, आवरणतारतम्मुवलंभादो, चंद्रमंडलं राहुमंडलं वेत्ति ण वेत्तुं जुत्तं, जावदव्वभावीणं णाण- दंसणाणमभावेण जीवदव्त्रस्स वि अभावप्पसंगादो । तदो गेंद घडदि ति । तदा केवलणाणावरणक्खपण केवलणणी, केवल सणावरणक्खएण केवलदंसणी, मोहणीयक्खएण वीयराओ, अंतराइयक्खएण अनंतचलो विग्धविवज्जिओ दरदद्धअघाइकम्मो aar कवि अथ त्ति सिद्धं । ण च खीणावरणो परमियं चैव जाणदि, णिप्पडिबंधस्स सयलत्थावगमणसहावस्स परिमियत्थावगमविरोहादो | अत्रेोपयोगी श्लोकः - ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबंधरि । दाऽग्निर्दाको न स्यादसति प्रतिबंधरि ॥ २२ ॥ । पूर्ण स्वभावकी प्राप्ति होना चाहिये, क्योंकि, स्वभाववृद्धिका तारतम्य पाया जाता है; जैसे- खानके कनकपाषाण में स्थित सुवर्ण अथवा शुक्ल पक्ष के चन्द्रमण्डलके । कषायंका भी पूर्ण विनाश किसी भी जीव में होता है, क्योंकि, उसकी हानिका तारतम्य पाया जाता है;' जैसे - खानके सुवर्णमें हीयमान मलकलंक । शंका - कर्म पूर्ण ज्ञानका आवरण करते हैं, क्योंकि, आवरणका तारतम्य पाया जाता है; जैसे चन्द्रमण्डलको राहुमण्डल । ऐसा भी यहां कहा जा सकता है ? समाधान - ऐसा अनुमान योग्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेपर यावद्द्रव्यभावी ज्ञान-दर्शन के अभाव से जीव द्रव्यके भी अभाव होने का प्रसंग आवेगा । इस कारण पूर्ण ज्ञानका आवरण घटित नहीं होता । अत एव केवलज्ञानावरणके क्षयसे केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षयसे केवलदर्शनी, मोहनीयके क्षयसे वीतराग, अन्तरायके क्षयसे विघ्नोंसे रहित अनन्तबलसे संयुक्त, तथा अघातिया कर्मोंको किंचित् दग्ध करनेवाला जीव कहीं पर भी है, यह सिद्ध है । और आवरणके क्षीण हो जानेपर आत्मा परिमितको ही जानता है, यह हो नहीं सकता, क्योंकि, प्रतिबन्धसे रहित और समस्त पदार्थोंके जानने रूप स्वभावसे संयुक्त उसके परिमित पदार्थोंके जाननेका विरोध है । यहां उपयोगी श्लोक ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकका अभाव होनेपर शेयके विषय में ज्ञान रहित कैसे हो सकता है, अर्थात् नहीं हो सकता । [ क्या ] अग्नि प्रतिबन्धके अभाव में दाह्य पदार्थका दाहक नहीं होता है ? होता ही है ॥ २२ ॥ १ आ काप्रत्योः ' आगरकरणओ ', ' आप्रतौ ' अगरकरणओ ' इति पाठः । २. जयध. १, पू, ६६. स. त. पू. ६२. Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ४, १, ४४.] कदिअणियोगहारे तित्थुप्पत्तिकालो . एसो वि एवंविही वड्डमाणभडारओ चेव, जुत्ति-सत्याविरुद्धवयणत्तादो । एत्थुवउज्जंतीओ गाहाओ । खीणे दंसणमोहे चरित्तमोहे तहेव घाइतिए । सम्मत्त-विरियणाणी खइए ते हेति जीवाणं' ।। २३ ॥ उप्पण्णम्मि अणंते णट्ठम्मि य छादुमथिए णाणे । देविंद दाणविंदा करेंति महिमं जिणवरस्स' ॥ २४ ॥ एवंविहभावेण वड्डमाणभडारएण तित्थुप्पत्ती कदा । दव्व-खेत्त-भावपरूवणाणं संसकरणटुं कालपरूवणा कीरदे । तं जहा- दुविहो . कालो ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीभेएण । जत्थ बलाउ-उस्सेहाण उस्सप्पणं उड्डी होदि सो कालो उस्सप्पिणी । जत्थ हाणी सो ओसप्पिणी । तत्थ एक्केक्को सुसम-सुसमादिभेएण' छविहो । तत्थ एदस्स भरहखेत्तस्सोसप्पिणीए चउत्थे दुस्समसुसमकाले णवहि दिवसेहि छहि मासेहि य अहियतेत्तीसवासावसेसे | ३३ / तिथुप्पत्ती जादा । उत्तं च यह भी इस प्रकार के स्वरूपसे संयुक्त वर्धमान भट्टारक ही हो सकते हैं, क्योंकि, उनके वचन युक्ति व शास्त्रसे अविरुद्ध हैं। यहां उपयुक्त गाथायें दर्शनमोह, चारित्रमोह तथा तीन अन्य घातिया कर्मों के क्षीण हो जानेपर जीवोंके सम्यक्त्व, वीर्य और ज्ञान रूप वे क्षायिक भाव होते हैं ॥ २३ ॥ अनन्त ज्ञानके उत्पन्न होने और छाद्मस्थिक शानके नष्ट हो जानेपर देवेन्द्र एवं दानवेन्द्र जिनेन्द्रदेवकी महिमा करते हैं ॥ २४ ॥ इस प्रकारके भावसे युक्त वर्धमान भट्टारकने तीर्थकी उत्पत्ति की। अब द्रव्य, क्षेत्र और भावकी प्ररूपणाओंके संस्कारार्थ कालप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीके भेदसे काल दो प्रकार है। जिस कालमें बल, आय व उत्सेधका उत्सर्पण अर्थात वृद्धि होती है वह उत्सर्पिणी काल है। जिस कालमें उनकी हानि होती है वह अवसर्पिणी काल है। उनमें प्रत्येक सुखमासुखमादिकके भेदसे छह प्रकार है। उनमें इस भरतक्षेत्रके अवसर्पिणीके चतुर्थ दुखमासुखमा कालमें नौ दिन व छह मासोंसे अधिक तेतीस वर्षोंके ( ३३ वर्ष ६ मास ९ दिन) शेष रहनेपर तीर्थकी उत्पत्ति हुई । कहा भी है .................... ११. खं. पु. १, पृ. ६४, जयध. १, पृ. ६८. इति पाठः। ४ प्रतिषु ' तस्स' इति पाठः। २ जयध. १, पृ. ६८. ३ प्रतिषु 'सुसमादिभेएण' Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . १२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ४४. । इम्मिस्से वसप्पिणीए चउत्थकालस्स पब्छिमे भाए । " चोत्तीसवाससेसे किंचिविसेसूणकालम्मि' ॥ २५ ॥ तं जहा- पण्णारहदिवसेहिं अट्ठहि मासेहि य अहिय पचहत्तरिवासावसेसे चउत्थकाले | "५ | पुप्फुत्तरविमाणादो आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए महावीरो बाहत्तरिवासाउओ तिणाणहरो गम्भमोइण्णो । तत्थ तीसवासाणि कुमारकालो, बारसवासाणि तस्स छदुमत्थकालो, केवलिकालो वि तीसं वासाणि; एदेसिं तिण्हं कालाणं समासो बाहत्तरिवासाणि । एदाणि पंचहत्तरिवासेसु सोहिदे वड्माणजिणिंदे णिव्वुदे संते जो सेसो चउत्थकालो तस्स पमाणं होदि । एदम्मि छासहिदिवसूणकेवलकाले पक्खित्ते णवदिवस-छम्मासाहियतेतीसवासाणि चउत्थकाले अवसेसाणि होति । छासहिदिवसावणयणं केवलकालम्मि किमढें कीरदे ? केवलणाणे समुप्पण्णे वि तत्थ तित्थाणुप्पत्तीदो । दिव्वज्झुणीए किमटुं तत्थापउत्ती ? गणिदाभावादो । सोहम्मिदेण इसी अवसर्पिणीके चतुर्थ कालके अन्तिम भागमें कुछ कम चौंतीस वर्ष प्रमाण कालके शेष रहनेपर [धर्मतीर्थकी उत्पत्ति हुई ] ॥ २५ ॥ वह इस प्रकारसे-पन्द्रह दिन और आठ मास अधिक पचत्तर वर्ष चतुर्थ कालमें शेष रहनेपर (७५ व. ८ मा. १५ दि.) पुष्पोत्तर विमानसे आषाढ़ शुक्ल षष्ठीके दिन बहत्तर वर्ष प्रमाण आयुसे युक्त और तीन ज्ञानके धारक महावीर भगवान् गर्भमें अवतीर्ण हुए। इसमें तीस वर्ष कुमारकाल, बारह वर्ष उनका छद्मस्थकाल, केवलिकाल भी तीस वर्ष, इस प्रकार इन तीन कालोंका योग बहत्तर वर्ष होते हैं। इनको पचत्तर वर्षों में से कम करनेपर वर्धमान जिनेन्द्र के मुक्त होनेपर जो शेष चतुर्थकाल रहता है उसका प्रमाण होता है । इसमें छयासठ दिन कम केवलिकालके जोड़नेपर नौ दिन और छह मास अधिक तेतीस वर्ष चतुर्थ कालमें शेष रहते हैं। शंका-केवलिकालमें छयासठ दिन कम किसलिये किये जाते हैं ? समाधान-क्योंकि, केवलज्ञानके उत्पन्न होनेपर भी उनमें तीर्थकी उत्पत्ति नहीं हुई। शंका-इन दिनों में दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति किसलिये नहीं हुई ? समाधान - गणधरका अभाव होनेसे उक्त दिनोंमें दिव्यध्वनिकी प्रवृत्ति नहीं हुई। शंका-सौधर्म इन्द्रने उसी क्षणमें ही गणधरको उपस्थित क्यों नहीं किया ? १. खं. पु. १, पृ. ६२. जयध. १, पृ. ७४. २ पंचसप्ततिवर्षाष्टमास-मासार्धशेषकः । चतुर्थस्तु तदा कालो दुःखमः सुखमोत्तरः ॥ ह. पु. २-२२. Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगदारे वड्डमाणाउविसए अण्णाइरियाभिमयं तक्खणे चेव गणिंदो किण्ण ढोइदो ? काललद्धीए विणा असहायस्स देविंदस्स तड्ढोयणसत्तीए अभावादो। सगपादमूलम्मि पडिवण्णमहव्वयं मोत्तूण अण्णमुद्दिसिय दिव्वज्झुणी किण्ण पयट्टदे ? साहावियादो। ण च सहावो परपज्जणियोगारुहो, अव्ववत्थावत्तीदो। तम्हा चोत्तीसवाससेसे किंचिविसेसूणचउत्थकालम्मि तित्थुप्पत्ती जादा त्ति सिद्ध। अण्ण के वि आइरिया पंचहि दिवसेहि अट्ठहि मासेहि य ऊणाणि बाहत्तरि वासाणि त्ति वड्डमाणजिणिंदाउअं परूवेंति | ३।। तेसिमहिप्पाएण गब्भत्थ-कुमार-छदुमत्थ-केवलकालाणं परूवणा कीरदे । तं जहा- आसाढजोण्णपक्खछट्ठीए कुंडलपुरणगराहिव-णाहवंससिद्धत्थणरिंदस्स तिसिलादेवीए गब्भमागंतूण तत्थ अट्ठदिवसाहियणवमासे अच्छिय चइत्तसुक्कपक्खतेरसीए उत्तराफग्गुणीणक्खत्ते गब्भादो णिक्खंतो । एत्थ आसाढजोण्णपक्खछट्टिमादि कादूण जाव पुण्णिमा त्ति दस दिवसा होति १० । पुणो सावणमासमादि कादूर्ण समाधान नहीं किया, क्योंकि, काललब्धिके विना असहाय सौधर्म इन्द्रके उनको उपस्थित करनेकी शक्तिका उस समय अभाव था। शंका-अपने पादमूलमें महाव्रतको स्वीकार करनेवालेको छोड़ अन्यका उद्देश कर दिव्यध्वनि क्यों नहीं प्रवृत्त होती? समाधान नहीं होती, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । और स्वभाव दूसरों के प्रश्नके योग्य नहीं होता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। इस कारण चतुर्थ कालमें कुछ कम चौतीस वर्ष शेष रहनेपर तीर्थकी उत्पत्ति हुई, यह सिद्ध है। अन्य कितने ही आचार्य पांच दिन और आठ मासोंसे कम बहत्तर वर्ष प्रमाण वर्धमान जिनेन्द्रकी आयु बतलाते हैं (७१ व. ३ मा. २५ दि.)। उनके अभिप्रायानुसार गर्भस्थ, कुमार, छद्मस्थ और केवलज्ञानके कालौकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैआषाढ़ शुक्ल पक्ष षष्ठीके दिन कुण्डलपुर नगरके अधिपति नाथवंशी सिद्धार्थ नरेन्द्रकी त्रिशला देवीके गर्भमै आकर और वहां आठ दिन अधिक नौ मास रहकर चैत्र शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीके दिन उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें गर्भसे बाहर आये। यहां आषाढ़ शुक्ल पक्षकी षष्ठीको आदि करके पूर्णिमा तक दश दिन होते हैं [१० दि.] । पुनः श्रावण मासको आदि करके आठ मास ३ जयध. १, १ प्रतिषु तद्धोयण ' इति पाठः । २ मप्रती ' अव्ववत्थादो' इति पाठः। पृ. ७५-७६. ४ प्रतिषु (दुमत्था' इति पाठः । .. क. १६. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] छक्खंडागमे यणाखंड [१, १,१४. अट्ठमासे गब्भम्मि गमिय चइत्तमासम्मि सुक्कपक्खतेरसीए उप्पण्णा त्ति अट्ठावीस दिवसा तत्थ लब्भंति । एदेसु पुव्विल्लदसदिवसेसु पक्खित्तेसु मासो अढदिवसाहिओ लब्भदि । तुम्मि अट्ठमासेसु पक्खित्ते अढदिवसाहियणवमासा गम्भत्थकालो होदि । तस्स संदिट्ठी | || एत्थुवउज्जतीओ गाहाओ--- सुरमहिदो च्चुदकप्पे भोगं दिव्वाणुभागमणुभूदो । पुप्फुत्तरणामादो विमाणदो जो चुदो संतो ॥ २६ ॥ बाहत्तरिवासाणि य थोवविहूणाणि लद्धपरमाऊ । आसाढोण्णपक्खे छट्ठीए जोणिमुवयादो ॥ २७ ॥ कुंडपुरपुरवरिस्सरसिद्धत्थक्खत्तियस्स णाहकुले । तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए ॥ २८ ॥ अच्छित्ता णवमासे अट्ठ य दिवसे चइत्तसियपक्खे । तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफग्गुणीए दु' ॥ २९ ॥ एवं गब्भट्टिदकालपरूवणा कदा।। गर्भमें विताकर चैत्र मासमें शुक्ल पक्षकी त्रयोदशीको उत्पन्न हुए थे, अतः अट्ठाईस दिन चैत्र मासमें प्राप्त होते हैं । इनको पूर्वोक्त दश दिनों में मिला देनेपर आठ दिन सहित एक मास प्राप्त होता है। उसे आठ मासोंमें मिलानेपर आठ दिन अधिक नौ मास गर्भस्थकाल होता है। उसकी संदृष्टि [९ मा. ८ दि.] । यहां उपयुक्त गाथायें वर्धमान भगवान् अच्युत कल्पमें देवोंसे पूजित हो दिव्य प्रभावसे संयुक्त भोगोंका अनुभव कर पुनः पुष्पोत्तर नामक विमानसे च्युत होकर कुछ कम बहत्तर वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट आयुको प्राप्त करते हुए आषाढ़ शुक्ल पक्षकी षष्ठीके दिन योनिको प्राप्त हुए अर्थात् गर्भमें आये ॥ २६-२७॥ तत्पश्चात् कुण्डलपुर रूप उत्तम पुरके ईश्वर सिद्धार्थ क्षत्रियके नाथ कुलमें सैकड़ों देवियोंसे सेव्यमान त्रिशला देवीके [गर्भमें ] नौ मास और आठ दिन रहकर चैत्र मासके शुक्ल पक्षमें त्रयोदशीकी रात्रिमें उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्रमें उत्पन्न हुए ॥ २८-२९ ॥ इस प्रकार गर्भस्थित कालकी प्ररूपणा की है। १ जयध. १, पृ. ७६-७८. नवमासेष्वतीतेषु स जिनोऽष्टदिनेषु च । उत्तराफाल्गुनीविदो वर्तमानेऽजनि प्रभुः॥र.पु. २-२५. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४१.] कदिअणियोगद्दारे वड्डमाणाउविसए अण्णाइरियाभिमय [१२३ (संपहि कुमारकालो उच्चदे- चइत्तमासस्स दो दिवसे |२| वइसाहमादि कादूण अट्ठावीस वासाणि |२८| पुणो वइसाहमादि कादूण जाव कत्तिओ त्ति सत्तमासे च कुमारतणेण गमिय| ७ | तदो मग्गसिरकिण्हपक्खदसमीए णिक्खंत्तो त्ति एदस्स कालस्स पमाणं पारसदिवस-सत्तमासाहियअट्ठवीसवासमेतं होदि | २० | एत्थुवउज्जतीओ गाहाओ मणुवत्तणसुहमउलं देवकयं सेविऊण वासाई । अट्ठावीसं सत्त य मासे दिवसे य बारसयं ॥ ३० ॥ आहिणिबोहियबुद्धो छटेण य मग्गसीसबहुले दु । दसमीए णिक्खंतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो' ॥ ३१ ॥ एवं कुमारकालपरूवणा कदा । संपधि छदुमत्थकालो वुच्चदे । तं जहा- मग्गसिरकिण्हपक्खएक्कारसिमादि काऊण जाव मग्गसिरपुण्णिमा त्ति वीसदिवसे |२०| पुणो पुस्समासमादि कादूण बारसवासाणि |१२| पुणो तं चेव मासमादि कादूण चत्तारिमासे च|४| वइसाहजोण्णपक्खपंचवीसदिवसे अब कुमारकालको कहते हैं- चैत्र मासके दो दिन [२], वैशाखको आदि लेकर अट्ठाईस वर्ष [२८], पुनः वैशाखको आदि करके कार्तिक तक सात मासको [७] कुमार स्वरूपसे विताकर पश्चात् मगसिर कृष्ण पक्षकी दशमीके दिन दीक्षार्थ निकले थे। अतः इस कालका प्रमाण बारह दिन और सात मास अधिक अट्ठाईस वर्ष मात्र होता है [२८ वर्ष ७ मास १२ दिन] । यहां उपयुक्त गाथायें वर्धमान स्वामी अट्ठाईस वर्ष सात मास और बारह दिन देवकृत श्रेष्ठ मानुषिक सुखका सेवन करके आभिनिबोधिक शानसे प्रबुद्ध होते हुए षष्ठोपवासके साथ मगसिर कृष्णा दशमीके दिन गृहत्याग करके सुरकृत महिमाका अनुभव कर तप कल्याण द्वारा पूज्य हुए ॥ ३०-३१॥ इस प्रकार कुमारकालकी प्ररूपणा की है। अब छद्मस्थकाल कहते हैं। वह इस प्रकार है- मगसिर कृष्ण पक्षकी एकादशीको आदि करके मगसिरकी पूर्णिमा तक बीस दिन [२०], पुनः पौष मासको आदि करके बारह वर्ष [१२], पुनः उसी मासको आदि करके चार मास [४] और वैशाख शुक्ल पक्षकी दशमी तक वैशाखके पच्चीस दिनोंको १ भयध. १, पृ. ७८. Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४४. घ |२५/ छदुमत्थत्तणेण गमिय वइसाहजोण्णपक्खदसमीए उजुकूलणदीतीरे जिंभियगामस्स बाहिं छटोववासेण सिलावट्टे आदावेंतेण अवरण्हे पादछायाए केवलणाणमुप्पाइदं । तेणेदस्स कालस्स पमाणं पण्णारसदिवस-पंचमासाहियबारसवासमेत्तं होदि | १.२ । । एत्थुवउज्जतीओ गाहाओ गमइय छदुमत्थत्तं बारसवासाणि पंच मासे य । पण्णरसाणि दिणाणि य तिरयणसुद्धो महावीरो ॥ ३२ ॥ उजुकूलणदीतीरे जंभियगामे बहिं सिलावट्टे । छट्टेणादावेतो अवरण्हे पायछायाए ॥ ३३ ॥ वइसाहजोण्णपक्खे दसमीए खवगसेडिमारूढो । हंतूण घाइकम्मं केवलणाणं समावण्णो' ॥ ३४ ॥ एवं छदुमत्थकालो परूविदो । (संपहि केवलकालो उच्चदे। तं जहा- वइसाहजोण्णपक्खएक्कारसिमादि कादूण जाव पुण्णिमा त्ति पंच दिवसे |५/ पुणो जेट्टप्पहुडि एगूणतीसवासाणि | २९ तं चेव मासमादि छद्मस्थ स्वरूपसे विताकर वैशाख शुक्ल पक्षकी दशमीके दिन ऋजुकूला नदीके तीरपर भिका ग्रामके बाहर षष्ठोपवासके साथ शिलापट्टपर आतापन योग सहित होकर अपराहकालमें पादपरिमित छायाके होनेपर केवलज्ञान उत्पन्न किया। इस लिये इस काल प्रमाण पन्द्रह दिन और पांच मास अधिक बारह वर्ष मात्र होता है [१२ वर्ष ५ मास १५ दिन] । यहां उपयुक्त गाथायें रत्नत्रयसे विशुद्ध महावीर भगवान् बारह वर्ष, पांच मास और पन्द्रह दिन छदमस्थ अवस्थामें विताकर ऋजुकूला नदीके तीरपर जृम्भिका ग्राममें बाहर शिलापट्टपर षष्ठोपवासके साथ आतापन योग युक्त होते हुए अपराल काल में पादपरिमित छाया पर वैशाख शुक्ल पक्षकी दशमीके दिन क्षपक श्रेणीपर आरूढ़ होकर एवं घातिया कर्मीको नष्ट कर केवलज्ञानको प्राप्त हुए ॥ ३२-३४॥ इस प्रकार छद्मस्थकालकी प्ररूपणा की। अब केवलकाल कहते हैं। वह इस प्रकार है-वैशाख शुक्ल पक्षकी एकादशीको मादि करके पूर्णिमा तक पांच दिन [५], पुनः ज्येष्ठसे लेकर उनतीस वर्ष [२९], उसी १ नयध. १, पृ. ७९-८०. २ अ-काप्रयोः 'एक्कारस- ' इति पाठः । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे वड्डमाणाउविसर अण्णाइरियाभिमय [११५ काऊण जाव आसउज्जो त्ति पंचमासे |५| पुणो कत्तियमासकिण्हपक्खचोदसदिवसे च केवलणाणेण सह एत्थ गमिय णिव्वुदो |१४|| अमावासीए' परिणिव्वाणपूजा सयलदेविंदेहि कया ति तं पि दिवसमेत्येव पक्खित्ते पुण्णारस दिवसा होति । तेणेदस्स पमाणं वीसदिवसपंचमासाहियएगुणतीसवासमेत्तं होदि | २ | । एत्थुवउज्जतीओ गाहाओ वासाणूणत्तीसं पंच य मासे य वीसदिवसे य । चउविहअणगारेहिं बारहहि गणेहि विहरंतो ॥ ३५ ॥ पच्छा पावाणयरे कत्तियमासे य किण्हचोइसिए । समदीए रत्तीए सेसरयं छत्तु णिव्वाओं ॥ ३६ ॥ एवं केवलकालो परूविदो । परिणिव्वुदे जिणिदे चउत्थकालस्स जं भवे सेसं । वासाणि तिणि मासा अट्ट य दिवसा वि पण्णरसा ॥ ३७॥ संपहि कत्तियमासम्मि पण्णारसदिवसेसु मग्गसिरादितिण्णिवासेसु अट्ठमासेसु च महा मासको आदि करके आसोज तक पांच मास [५], पुनः कार्तिक मासके कृष्ण पक्षक चौदह दिनोंको भी केवलज्ञानके साथ यहां विताकर मुक्तिको प्राप्त हुए [१४]। चूंकि अमावस्याके दिन सब देवेन्द्रोंने परिनिर्वाणपूजा की थी, अतः उस दिनको भी इसमें नेपर पन्द्रह दिन होत है। इस कारण इसका प्रमाण बीस दिन और पांच मास अधिक उनतीस वर्ष मात्र होता है [ २९ व.५ मा. २० दि.] । यहां उपयुक्त गाथायें भगवान महावीर उनतीस वर्ष, पांच मास और बीस दिन चार प्रकारके अनगारों व बारह गणों के साथ विहार करते हुए पश्चात् पावा नगरमें कार्तिक मास में कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीको स्वाति नक्षत्रमें रात्रिको शेष रज अर्थात् अघातिया कौंको नष्ट करके मुक्त हुए ॥ ३५-३६॥ इस प्रकार केवलकालकी प्ररूपणा की। महावीर जिनेन्द्र के मुक्त होनेपर चतुर्थ कालका जो शेष है वह तीन वर्ष, आठ मास और पन्द्रह दिन प्रमाण है ॥ ३७॥ अब भगवान महावीर के निर्वाणगत दिनसे कार्तिक मास में पन्द्रह दिन, मगसिरको १ भा-कापत्योः · अमवासीए ' इति पाठः। २ जयध. १, पृ. ८०-८१. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेणाखंड [ ४, १, ४४. १ ५ वीरणिव्वाणगयदिवसादेो गदेसु सावणमासपडिवयाए दुसमकालो ओदिण्णो | | | एदं कालं वङ्कुमाणजिनिंदाउअम्मि पक्खिते दसदिवसाहियपंचहत्तरिवासमेत्तावसेसे चउत्थकाले सग्गादा वड्डमाणजिंर्णिदस्स ओदिण्णकालो होदि | ११ || १२६] दो वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहइ जिन्भमेलाइरियवच्छओ, भलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाह्राणुवलंभादो । किंतु दोसु एक्केण होदव्वं । तं जाणिय बत्तव्वं । एवमत्थकत्तार परूवणा कदा | संपद्दि गंथकत्तारपरूवणं कस्सामा । वयणेण विणा अत्थपदुपायणं णं सभवइ, सुहुमत्थाणं सण्णाए परूवणाणुववत्तदा । ण चाणक्खराए झुणीए अत्थपदुप्पायणं जुज्जदे, अणक्खरभासतिरिक्खे मोत्तूणण्णेसिं तत्तो अत्थावगमाभावादो | ण च दिव्वज्झुणी अणक्खरप्पिया चेव, अट्ठारस - सत्तसयभास- कुभासप्पियत्तादो । तदो अत्थपरूवओ चेव गंथपरूवओ आदि लेकर तीन वर्ष और आठ मासोंके वीतने पर श्रावण मास की प्रतिपदा के दिन दुखमा काल अवतीर्ण हुआ [ ३ व. ८ मा. १५ दि. ]। इस कालको वर्धमान जिनेन्द्रकी आयुमें मिला देनेपर दश दिन अधिक पचत्तर वर्ष मात्र चतुर्थ कालके शेष रहनेपर वर्धमान जिनेन्द्रके स्वर्गसे अवतीर्ण होनेका काल होता है [ ७५ व १० दि. ] । उक्त दो उपदेशों में कौनसा उपदेश यथार्थ है, इस विषय में एलाचार्यका शिष्य ( वीरसेन स्वामी ) अपनी जीभ नहीं चलाता अर्थात् कुछ नहीं कहता, क्योंकि, न तो इस विषयका कोई उपदेश प्राप्त है और न दोमेंसे एकमें कोई बाधा ही उत्पन्न होती है । किन्तु दोनों में से एक ही सत्य होना चाहिये । उसे जानकर कहना उचित है । इस प्रकार अर्थकर्ताकी प्ररूपणा की । अब ग्रन्थकर्ताकी प्ररूपणा करते हैं । शंका- वचनके विना अर्थका व्याख्यान सम्भव नहीं है, क्योंकि, सूक्ष्म पदार्थोंकी संज्ञा अर्थात् संकेत द्वारा प्ररूपणा नहीं बन सकती। यदि कहा जाय कि अनक्षरात्मक ध्वनि द्वारा अर्थकी प्ररूपणा होसकती है, सो यह भी योग्य नहीं है; क्योंकि, अनक्षर भाषा युक्त तिर्यचौको छोड़कर अन्य जीवोंको उससे अर्थज्ञान नहीं हो सकता । और दिव्यध्वनि अनक्षरात्मक ही हो, सो भी नहीं है; क्योंकि, वह अठारह भाषा एवं सात सौ कुभाषा स्वरूप है । इसी कारण चूंकि अर्थका प्ररूपक ही ग्रन्थका प्ररूपक होता है, अतः प्रन्थकर्ताकी १ अ. १, पु. ८१-८१. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे गंथकत्तारपरूवणा [ १२० ति गंथकत्तारपरूवणा ण कायव्वा इदि ? ण एस दोसो, संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगयं बीजपदं णाम । तेसिमणयाणं बीजपदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभाससरूवाणं परूवओ अत्थकत्तारो णाम, बीजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवालसंगाण कारओ गणहरभडारओ गंथकत्तारओ त्ति अब्भुवगमादो। बीजपदाणं वक्खाणओ त्ति वुतं होदि । किमढें तस्स परूवणा कीरदे ? गंथस्स पमाणत्तपदुप्पायणटुं । ण च राग-दोसमोहोवहओ जहुत्तत्थपरूवओ, तत्थ सच्चवयणणियमाभावादो । तम्हा तप्परूवणा कीरदे । तं जहा- पंचमहव्वयधारओ तिगुत्तिगुत्तो पंचसमिदो णट्ठमदो मुक्कसत्तभओ बीज-कोट्ठपदाणुसारि-सभिण्णसोदारत्तुवलक्खिओ उक्कट्ठोहिणाणेण असंखेज्जलोगमेत्तकालम्मि तीदाणा- . गद-वट्टमाणासेसपरमाणुपेरंतमुत्तिदव्वपज्जायाणं च पच्चक्खण जाणंतओ तत्ततवलद्धीदो णीहारविवज्जिओ दित्ततवलद्धिगुणेण सव्वकालोववासो वि संतो सरीरतेजुज्जोइयदसदिसो प्ररूपणा नहीं करणा चाहिये? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्षिप्त शब्दरचनासे सहित व अनन्त अर्थोके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे संयुक्त बीजपद कहलाता है । अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदोंका प्ररूपक अर्थकर्ता है, तथा बीजपदोंमें लीन अर्थके प्ररूपक बारह अंगोंके कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं, ऐसा स्वीकार किया गया है । अभिप्राय यह कि बीजपदोंका जो व्याख्याता है वह ग्रन्थकर्ता कहलाता है। शंका-उक्त कर्ताको प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान-ग्रन्थकी प्रमाणताको बतलानेके लिये कर्ताकी प्ररूपणा की जाती है। राग, द्वेष व मोहसे युक्त जीव यथोक्त अर्थोका प्ररूपक नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें सत्य वचनके नियमका अभाव है। इसी कारण उसकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है पांच महाव्रतोंके धारक, तीन गुप्तियोंसे रक्षित, पांच समितियोंसे युक्त, आठ मदोंसे रहित, सात भयोंसे मुक्त; बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धियोंसे उपलक्षित; प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञानसे असंख्यात लोक मात्र कालमें अतीत, अनागत एवं वर्तमान परमाणु पर्यन्त समस्त मूर्त द्रव्य व उनकी पर्यायोंको जाननेवाले, तप्ततप लब्धिके प्रभावसे मल-मूत्र रहित, दीप्ततप लब्धिके बलसे सर्व काल उपवास युक्त होकर भी शरीरके तेजसे दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले, सर्वौषधि लब्धिके निमित्तसे १ प्रतिषु पन्वाण-' इति पाठः २ प्रतिषु तीदाणागदाणं वट्टमाणा- 'इति पाः। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४४. सव्वोसहिलद्धिगुणेण सव्वोसहसरूवो अणंतबलादो करंगुलियाए' तिहुवणचालणक्खमो आमियासवीलद्धिबलेण' अंजलिपुडणिवदिदसयलाहारे अमियत्तणेण परिणमणक्खमो महातवगुणेण कप्परुक्खोवमो महाणसक्खीणलद्धिबलेण सगहत्थणिवदिदाहाराणमक्खयभावुप्पायओ अघोरतवमाहप्पण जीवाणं मण-वयण-कायगयासेसदुत्थियत्तणिवारओ सयलविज्जाहि सेवियपादमूलो आयासचारणगुणेण रक्खियासेसजीवणिवहो वायाए मणेण य सयलत्थसंपादणक्खमो अणिमादिअट्ठगुणेहि जियासेसदेवणिवहो तिहुवणनणजेट्टओ परोवदेसेण विणा अक्खराणक्खरसरूवासेसभासंतरकुसलो समवसरणजणमत्तस्वधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सव्वेसिं पच्चउप्पायओ समवसरणजणसोदिदिएसु सगमुहविणिग्गयाणयभासाण संकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारो, अण्णहा गंथस्स पमाणत्तविरोहादो धम्मरसायणेण समोसरणजणपोसणाणुववत्तीदो । एत्थुववज्जती गाहा--- बुद्धि-तव-विउवणोसह-रस-बल-अक्खीण-सुस्सरत्तादी । ओहि-मणपज्जवेहि य हवंति गणवालया सहिया ॥ ३८ ॥) समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बल युक्त होनेसे हाथकी कनिष्ठ अंगुलि द्वारा तीनों लोकोंको घलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रव आदि ऋद्धियोंके बलसे हस्तपुटमें गिरे हुए सब आहारोंको अमृत स्वरूपसे परिणमाने में समर्थ, महातप गुणसे कल्पवृक्षके समान, अक्षीण महानस लब्धिके बलसे अपने हाथोंमें गिरे हुए आहारोंकी अक्षयताके उत्पादक, अघोरतप ऋाद्धक माहात्म्यस जीवोक मन, वचन एवं काय गत समस्त कष्टोको दूर करनेवाल, सम्पूर्ण विद्याओंके द्वारा सेवित चरणमूलसे संयुक्त, आकाशचारण गुणसे सब जीवसमूहोंकी रक्षा करनेवाले, वचन एवं मनसे समस्त पदार्थोके सम्पादन करने में समर्थ, आणिमादिक आठ गुणोंके द्वारा सब देवसमूहोंको जीतनेवाले, तीनों लोकोंके जनोंमें श्रेष्ठ, परोपदेशके विना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल, समवसरणमें स्थित जन मात्रके रूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषाओंसे हम हमको ही कहते हैं ' इस प्रकार सबको विश्वास करानेवाले, तथा समवसरणस्थ जनाके कणे इन्द्रियोम अपने मुहसे निकली हुई अनेक भाषाओंके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारकऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं, क्योंकि, ऐसे स्वरूपके विना ग्रन्थकी प्रमाणताका विरोध होनेसे धर्म-रसायन द्वारा समवसरणके जनोंका पोषण बन नहीं सकता। यहां उपयुक्त गाथा गणधर देव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानसे सहित होते हैं ॥ ३८ ॥ १ प्रतिषु ' कालंगुलियार' इति पाठः। २ प्रतिषु ' अमयादिलद्धिबलेण', मप्रतौ ' अमियादिसादिलद्धिबलेण ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' महाणसक्कीण- ' इति पाठः। ४ अ-काप्रत्योः '-विउलवण्णोवारस-', आप्रतौ -विउवणोसवारस-', मप्रतौ -विउवणोसावारस-' इति पार Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे गंथकत्तारपरूवणा [१२९ संपहि वड्डमाणतित्थगंथकत्तारो वुच्चदे पंचेव अस्थिकाया छज्जीवणिकाया महव्वया पंच । अट्ठ य पचयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य ॥ ३९ ॥ को होदि त्ति सोहम्मिदचालणादो जादसंदेहेण पंच-पंचसयंतेवासिसहियभादुत्तिदयपरिवुदेण माणत्थंभदंसणेणेव पणट्ठमाणेण वड्डमाणविसोहिणा वड्डमाणजिणिंददंसणे वणट्ठासंखेज्जभवज्जियगरुवकम्मेण जिणिंदस्स तिपदाहिणं करिय पंचमुट्ठीए वंदिय हियएण जिणं झाइय पडिवण्णसंजमेण विसोहिबलेण अंतोमुहुत्तस्स उप्पण्णासेसगणिदलक्खणेण उवलद्धजिणवयणविणिग्गयबीजपदेण गोदमगोत्तेण बम्हणेण इंदभूदिणा अयार-सूदयद-ट्ठाण-समवायवियाहपण्णत्ति-णाहधम्मकहोवासयज्झयणंतयडदस-अणुत्तरोववादियदस-पण्णवायरण-विवायसुत्त-दिट्टिवादाणं सामाइय-चउवीसत्थय-वंदणा-पडिक्कमण-वइणइय-किदियम्म दसवयोलिउत्तरज्झयण-कप्पववहार-कप्पाकप्प-महाकप्प-पुंडरीय-महापुंडरीय-णिसिहियाणं चोदसपइण्णयाणमंगबज्झाणं च सावणमासबहुलपक्खजुगादिपडिवयपुवदिवसे जेण रयणा कदा तेर्णिदभूदि अब वर्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्ताको कहते हैं पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, पांच महाव्रत, आठ प्रवचनमाता अर्थात् पांच समिति और तीन गुप्ति तथा सहेतुक बन्ध और मोक्ष ॥ ३९ ॥ 'उक्त पांच अस्तिकायादिक क्या हैं ?' ऐसे सौधर्मेन्द्र के प्रश्नसे संदेहको प्राप्त हुए, पांच सौ पांच सौ शिष्योंसे सहित तीन भ्राताओंसे वेष्टित,मानस्तम्भके देखनेसे ही मानसे रहित हुए, वृद्धिको प्राप्त होनेवाली विशुद्धिसे संयुक्त, वर्धमान भगवान्के दर्शन करनेपर असंख्यात भवोमें अजित महान् कोको नष्ट करनेवाले; जिनेन्द्र देवकी तीन प्रदक्षिणा करके पंच मृष्टियोंसे अर्थात् पांच अंगों द्वारा भूमिस्पर्शपूर्वक वंदना करके एवं हृदयसे जिन भगवान्का ध्यान कर संयमको प्राप्त हुए, विशुद्धिके बलसे मुहुर्तके भीतर उत्पन्न हुए समस्त गणधरके लक्षणोंसे संयुक्त, तथा जिनमुखसे निकले हुए बीजपदोंके ज्ञानसे सहित ऐसे गौतम गोत्रवाले इन्द्रभूति ब्राह्मण द्वारा चूंकि आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, ज्ञातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृतदशांग, अनुत्तरोपपादिक , प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग व दृष्टिवादांग, इन बारह अंगों तथा सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक व निषिद्धिका, इन अंगबाह्य चौदह प्रकीर्णकोंकी श्रावण मासके कृष्ण पक्षमें युगके आदिम प्रतिपदाके पूर्व दिनमें रचना की १ प्रतिषु · उप्पण्णे सेसगणिदि-' इति पाठः । २ अ-आप्रयोः दसवेयादि ', ' काप्रतौ । दसवेयालियादि ' इति पाठः। 5.क.१७. Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, ११. भडारओ वड्डमाणजिणतित्थगथकत्तारो । उत्तं च - वासस्स पढममासे पढमे पक्खम्मि साबणे बहुले ।। पाडिवदपुव्यदिवसे तित्थुप्पत्ती दु अभिजिम्मि' ॥ ४० ॥) __ एवं उत्तरतंतकत्तारपरूवणा कदा । संपहि उत्तरोत्तरतंतकत्तारपरूवणं कस्सामो। तं जहा- कत्तियमासकिण्णपक्खचोद्दसरत्तीए पच्छिमभाए महदिमहावीरे णिव्बुदे संते केवलणाणसंताणहरो गोदमसामी जादो । बारहवरसाणि केवलविहारेण विहरिय गोदमसामिम्हि णिव्बुदे संते लोहज्जाइरिओ केवलणाणसंताणहरो जादो । बारहवासाणि केवलविहारेण विहरिय लोहज्जभडारए णिब्बुदे संते जंबूभडारओ केवलणाणसंताणहरो जादो। अट्टत्तीसवस्साणि केवलविहारेण विहरिय जंबूभडारए परिणिव्वुदे संते केवलणाणसंताणस्स वोच्छेदो जादो भरहक्खेत्तम्मि। एवं महावीरे णिव्वाणं गदे बासहिवरसेहि केवलणाणदिवायरो भरहम्मि अत्थमिदि । ६२ । ३।। णवरि तक्काले सयलसुदणाणसंताणहरो विष्णुआइरियो जादो । तदो अत्तुट्टसंताणरूवेण णंदिआइरिओ अवराइदो गोवद्धणो भद्दबाहु त्ति एदे सकलसुदधारया जादा । एदेसिं पंचण्हं पि सुदकेवलीणं काल थी, अतएव इन्द्रभूति भट्टारक वर्धमान जिनके तीर्थमें ग्रन्थकर्ता हुए । कहा भी है वर्षके प्रथम मास व प्रथम पक्षमें श्रावण कृष्ण प्रतिपदाके पूर्व दिनमें अभिजित् नक्षत्रमें तीर्थकी उत्पत्ति हुई ॥ ४० ॥ इस प्रकार उत्तरतंत्रकर्ताकी प्ररूपणा की। अब उत्तरोत्तर तंत्रकर्ताओंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- कार्तिक मासमें कृष्ण पक्षकी चतुर्दशीकी रात्रिके पिछले भागमें अतिशय महान् महावीर भगवान्के मुक्त होनेपर केवलज्ञानकी सन्तानको धारण करनेवाले गौतम स्वामी हुए । बारह वर्ष तक केवलविहारसे विहार करके गौतम स्वामीके मुक्त हो जानेपर लोहार्य आचार्य केवलज्ञानपरम्पराक धारक हुए । बारह वर्षे केवलविहारसे विहार करके लोहार्य भट्टारकके मुक्त हो जानेपर जम्बू भट्टारक केवलज्ञानकी परम्पराके धारक हुए । अड़तीस वर्ष केवलविहारसे विहार करके जम्बू भट्टारकके मुक्त हो जानेपर भरत क्षेत्रमें केवलज्ञानपरम्पराका व्युच्छेद हो गया। इस प्रकार भगवान् महावीरके निर्वाणको प्राप्त होनेपर बासठ वर्षोंसे केवलज्ञान रूपी सूर्य भरत क्षेत्रमें अस्त हुआ [६२ वर्षमें ३ के.] । विशेष यह है कि उस कालमें सकल श्रुतज्ञानकी परम्पराको धारण करनेबाले विष्णु आचार्य हुए । पश्चात् अविछिन्न सन्तान स्वरूपसे नन्दि आचार्य, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु, ये सकल श्रुतके धारक हुए । इन पांच १ष. खं. पु. १, पृ. ६३; ति. प. १, ६९. २ जयध, १, पृ. ८४. Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १४.] कदिअणियोगद्दारे आईरियपरंपरा [१३१ समासो बस्ससदं |१००।५।। तदो भद्दबाहुभडारए सग्गं गदे संते भरहक्खत्तेम्मि अत्थमिओ सुदणाण-संपुण्णमियंको, भरहखेत्तमावूरियमण्णाणंधयारेण । णवरि एक्कारसण्णमंगाणं विज्जाणुपवादपेरंतदिट्ठिवादस्स य धारओ विसाहाइरिओ जादो। णवरि उवरिमचत्तारि वि पुव्वाणि वोच्छिण्णाणि तदेगदेसघारणादो । पुणो तं विगलसुदणाणं पोटिल्ल-खत्तिय-जय-णागसिद्धत्थ-धिदिसेण-विजय-बुद्धिल्ल-गंगंदेव-धम्मसेणाइरियपरंपराए तेयासीदिवरिससयाइमागंतूण वोच्छिण्णं | १८३ । ११ ।। तदो धम्मसेणभडारए सग्गं गदे णढे दिढिवादुज्जोए एक्कारसण्णमंगाणं दिविवादेगदेसस्स य धारयो णक्खत्ताइरियो जादो। तदो तमेक्कारसंग सुदणाणं जयपाल-पांडु-धुवसेण-कंसो त्ति आइरियपरंपराए वीसुत्तरबेसदवासाइमागंतूण वोच्छिण्णं । | २२० । ५।। तदो कंसाइरिए सग्गं गदे वोच्छिण्णे एक्कारसंगुज्जोवे सुभद्दाइरियो आयारंगस्स सेसंग-पुव्वाणमेगदेसस्स य धारओ जादो। तदो तमायारंग पि जसभद्द-जसबाहुलोहाइरियपरंपराए अट्ठारहोत्तरवरिससयमांगतूण वोच्छिण्णं | ११८ । ४।। सव्वकालसमासो तेयासीदीए अहियछस्सदमेत्तो' |६८३ ।। पुणो एत्थ सत्तमासाहियसत्तहत्तरिवासेसु | ७, श्रुतकेवलियों के कालका योग सो वर्ष है [१०० वर्ष में ५श्रु. के.] । पश्चात् भद्रबाहु भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होने पर भरतक्षेत्रमें श्रुतज्ञान रूपी पूर्ण चन्द्र अस्तमित हो गया। अब भरतक्षेत्र अज्ञान अन्धकारसे परिपूर्ण हुआ। विशेष इतना है कि उस समय ग्यारह अंगों और विद्यानुवाद पर्यन्त दृष्टिवाद अंगके भी धारक विशाखाचार्य हुए । विशेषता यह है कि इसके आगेके चार पूर्व उनका एक देश धारण करनेसे व्युच्छिन्न हो गये। पुनः वह विकल थतज्ञान प्रोष्टिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, प्रतिषण, विजय, वृद्धिल्ल. गंगदेव और धर्मसेन, इन आचार्योंकी परम्परासे एक सौ तेरासी वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [१८३ वर्षमें ११ एकादशांग-दशपूर्वधर] । पश्चात् धर्मसेन भट्टारकके स्वर्गको प्राप्त होनेपर दृष्टिवाद-प्रकाशके नष्ट हो जानेसे ग्यारह अंगों और दृष्टिवादके एक देशके धारक नक्षत्राचार्य हुए । तदनन्तर वह एकादशांग श्रुतज्ञान जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन और कंस, इन आचार्योंकी परम्परासे दो सौ बीस वर्ष आकर व्युच्छिन्न हो गया [ २२० वर्षमें ५ एकादशांगधर] । तत्पश्चात् कंसाचार्यके स्वर्गको प्राप्त होनेपर ग्यारह अंग रूप प्रकाशके व्युच्छिन्न हो जानेपर सुभद्राचार्य आचारांगके और शेष अंगों एवं पूर्वोके एक देशके धारक हुए। तत्पश्चात् वह आचारांग भी यशोभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्यकी परम्परासे एक सौ अठारह वर्ष आकार व्युच्छिन्न हो गया [११८ वर्ष में ४ आचारांगधर ] । इस सब कालका योग छह सौ तेरासी वर्ष होता है [ ६२ + १०० + १८३ + २२० + ११८ = ६८३ ] । पुनः इसमेंसे सात मास अधिक सतत्तर वर्षोंको १ नबध. १, पृ. ८५-८६ ह. पु. १, ५६-६५. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] artisan daणाखंड [ ४, १, ४४. भवणि पंचमासाहियपंचुत्तरछस्सद वासाणि हवंति । एसो वीरजिणिदणिव्वाणगद दिवसादो जव सगकालस्स आदी होदि तावदियकालो । कुदो ? | ६९५ | एदम्हि काले सगणरिंदकालम पक्खित्ते वडमाणजिणणिव्वुदकालागमणादो । वृत्तं च अण्ण के वि आइरिया चोदस सहस्स - सत्तसद - तिणउदिवासेसु जिणणिव्वाणदिणादो इक्कंतेसु सगणरिंदुष्पत्तिं भणति | १४७९३ । वुत्तं च - गुत्ति- पत्थ-भयाई चोदसरयणाइ समइकंताई | परिणिबुदे जिनिंदे तो रज्जे सगणस्स ॥ ४२ ॥ अणे के वि आइरिया एवं भणति । तं जहा - सत्तसहस्स - णवसय- पंचाणउदि पंच य मासा पंच य वासा छच्चेव होंति वाससा । सगकाले य सहिया थावेव्वा तदो रासी' ॥ ४१ ॥ [ ७७ वर्ष ७ मास ] कम करनेपर पांच मास अधिक छह से पांच वर्ष होते हैं । यह, वीर जिनेन्द्र के निर्वाण प्राप्त होनेके दिनसे लेकर जब तक शककालका प्रारम्भ होता है, उतना काल है । इस कालके ६०५ वर्ष और ५ माह होनेका कारण यह कि इस कालमें शक नरेन्द्र के कालको मिला देनेपर वर्धमान जिनके मुक्त होनेका काल आता है। कहा भी है सौ तेरा भी है www पांच मास, पांच दिन और छह सौ वर्ष होते हैं । इस लिये शककालसे सहित राशि स्थापित करना चाहिये ॥ ४९ ॥ अन्य कितने ही आचार्य वीर जिनेन्द्रके मुक्त होनेके दिनसे चौदह हजार सात वर्षों बीत जानेपर शक नरेन्द्रकी उत्पत्तिको कहते हैं [ १४७९३ ] । कहा वीर जिनेन्द्रके मुक्त होनेके पश्चात् गुप्ति, पदार्थ, भय' और चौदह रत्नों अर्थात् चौदह हजार सात सौ तेरानचे वर्षोंके वीतनेपर शक नरेन्द्रका राज्य हुआ ॥ ४२ ॥ अन्य कितने ही आचार्य इस प्रकार कहते हैं। जैसे - वर्धमान जिनके मुक्त १ णिव्त्राणे वीरजिणे छत्र्वाससदेसु पंचवरिसेतुं । पणमासेसु गदेसुं संजादो संगणिवो अहवा || ति. प. ४, १४९९. वर्षाण षट्शतीं त्यक्त्वा पंचामं मासपंचकम् । मुक्तिं गते महावीरे शकराजस्ततोऽभवत् ॥ ३. पु. ६०, ५५१. 焱 २ चोदससहससगसयतेणउंदीवास काल बिच्छे | वीरेसरसिद्धीदो उप्पण्णो सगणिओ अवा ॥ वि. प. ४, १४९८. Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४४. कदिअणियोगदारे गंथावयारी वरिसेसु पंचमासाहिएसु वड्डमाणजिणणिव्वुददिणादो अइक्कतेसु सगरिंदरज्जुप्पत्ती जादो त्ति । एत्थ गाहा सत्तसहस्सा णवसद पंचाणउदी सपंचमासा य । अइकंता वासाणं जझ्या तइया सगुप्पत्ती ॥ ४३ ॥ ० ९.९५| एदेसु तिसु एक्केण होदव् । ण तिण्णमुद्देसाण सच्चत्तं, अण्णोण्णविरोहादो। तदो जाणिय वृत्तव्वं ।) एत्तो उवरि पयदं परूवेमो - लोहाइरिये सग्गलोग गदे आयार-दिवायरो अत्थमिओ। एवं बारससु दिणयरेसु भरहखेत्तम्मि अत्थमिएसु सेसाइरिया सव्वेसिमंग-पुवाणमेगदेसभूदपेज्जदोस-महाकम्मपयडिपाहुडादीणं धारया जादा । एवं पमाणीभूदमहरिसिपणालेण आगंतूण भहाकम्मपयडिपाहुडामियजलपवाहो धरसेणभडारयं संपत्तो। तेण वि गिरिणयरचंदगुहाए भूदबलि-पुप्फदंताणं महाकम्मपयडिपाहुडं सयलं समप्पिदं । तदो भूदबलिभडारएण सुदणईपवाहवोच्छेदभीएण भवियलोगाणुग्गहढं महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । तदो तिकालगोयरासेसपयत्थविसयपच्चक्खामंतकेवलणाणप्पभावादो पमाणीभूदआइरियपणालेणागदत्तादो दिट्ठिट्ठविरोहाभावादो पमाणमेसो गंथो । तम्हा मोक्खकंखिणा होनेके दिनसे पांच मास अधिक सात हजार नौ सौ पंचानबै वर्षोंके वीतनेपर शक नरेन्द्र के राज्यकी उत्पत्ति हुई । यहां गाथा अब सात हजार नौ सौ पंचानबै वर्ष और पांच मास बीत गये तब शक नरेन्द्रकी उत्पत्ति हुई ॥ ४३ ॥ [ ७९९५ व. ५ मा. ] इन तीन उपदेशोंमें एक होना चाहिये। तीनों उपदेशोंकी सत्यता सम्भव नहीं है, क्योंकि, इनमें परस्पर विरोध है । इस कारण जानकर कहना चाहिये। ____ यहांसे आगे प्रकृतकी प्ररूपणा करते हैं- लोहाचार्यके स्वर्गलोकको प्राप्त होनेपर आचारांगरूपी सूर्य अस्त हो गया। इस प्रकार भरतक्षेत्रमें बारह सूर्योके अस्तमित हो जानेपर शेष आचार्य सब अंग-पूर्वोके एकदेशभूत 'पेजदोस' और ' महाकम्मपयाडिपाहुड' आदिकोंके धारक हुए । इस प्रकार प्रभाणीभूत महर्षि रूप प्रणालीसे आकर महाकम्मपयडिपाहुड रूप अमृत-जल-प्रवाह धरसेन भट्टारकको प्राप्त हुआ । उन्होंने भी गिरिनगरकी चन्द्र गुफामें सम्पूर्ण महाकम्मपयडिपाहुड भूतबलि और पुष्पदन्तको अर्पित किया। पश्चात् श्रुतरूपी नदीप्रवाहके व्युच्छेदसे भयभीत हुए भूतबलि भट्टारकने भव्य जनोंके अनुग्रहार्थ महाकम्मपयडिपाहुडका उपसंहार कर छह खण्ड ( पखंडागम) किये। अतएव त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाले प्रत्यक्ष अनन्त केवल शानके प्रभावसे प्रमाणीभूत आचार्यरूप प्रणालीसे आने के कारण प्रत्यक्ष व अनुमानसे चूंकि विरोधसे रहित है अतः यह ग्रन्थ प्रमाण है । इस कारण मोक्षाभिलाषी भव्य जीवोंको इसका Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ छक्खंडागमे धेयणाखंड (४, १, ४५. भवियलोएण अब्भसेयव्वो। ण एसो गंथो थोवो त्ति मोक्खकज्जजणणं पडि असमत्थो, अमियघडसयवाणफलस्स चुलुवामियवाणे वि उवलंभादो। एवं मंगलादीणं छण्णं परवणं काऊण पयदगंथस्स संबंधपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि - अग्गेणियस्स पुवस्स पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थो पाहुडो कम्मपयडी णाम ॥ ४५ ॥ तत्थ इमाणि चउवीसअणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - कदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिबंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण संकमे लेस्सा-लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दीहेरहस्से भवधारणीए तत्थ पोग्गलत्ता णिवत्तमणिधत्तं णिकाचिदमणिकाचिदं कम्महिदिपच्छिमक्खंधे अप्पाबहुगं च। सव्वत्थ सम्वेसिं गंथाणं उवक्कमो णिक्खेवो अणुगमो णओ चेदि चउव्विहो अवयारो होदि । तत्थ उपक्रम्यते अनेनेत्युपक्रमः, जेण करणभूदेण णाम-पमाणादीहि गंथो अवगम्मदे सो उवक्कमो णाम । आणुपुट्वि-णाम-पमाण-वत्तव्वदत्थाहियारभेएण उवक्कमो पंचविहो । तत्थ आणुपुविउव अभ्यास करना चाहिये । चूंकि यह ग्रन्थ स्तोक है अतः वह मोक्षरूप कार्यको उत्पन्न करनेके लिये असमर्थ है, ऐसा विचार नहीं करना चाहिये; क्योंकि, अमृतके सौ घडोंके पीनेका फल चुल्लु प्रमाण अमृतके पीनेमें भी पाया जाता है । इस प्रकार मंगलादिक छहकी प्ररूपणा करके प्रकृत ग्रन्थक सम्बन्धको बतलानेके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं अग्रायणी पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है ॥ ४६॥ उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार ज्ञातव्य हैं- कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, वहांपर ही सातासात, दीर्घ-हस्व, भवधारणीय, वहां पुद्गलात्त, निधत्तानिधत्त, निकाचितानिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और अल्पबहुत्व । सर्वत्र सब : उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय,इस प्रकार चार प्रकारका अवतार होता है। उनमें 'उपक्रम्यते अनेन इति उपक्रमः' इस निरुक्तिके अनुसार जिस साधन द्वारा नाम व प्रमाणादिकोंसे ग्रन्थ जाना जाता है वह उपक्रम है । यह उपक्रम आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकारके भेदसे पांच प्रकार है। उनमें आनुपूर्वी उपक्रम तीन प्रकार १णाणप्पवादस्स पुवस्स दसमस्स वत्थुस्स तदियस्स पाहुडस्स पंचविहो उवक्कमो। तं जहा-आश्पुब्बी, नाम, पमाणं वत्तबदा, अस्थहियारो चेदि (यू. सू.)। उपक्रम्यते समीपीक्रियते श्रोत्रा अनेन प्राभूतमित्युपक्रमः । नवध, १, पृ. १३. Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगहारे णामोवक्कमपरूवणा क्कम्मो तिविहो पुव्वाणुपुव्वी पच्छाणुपुब्वी जहा-तहाणुपुव्वी चेदि । उद्दिट्टकमेण अत्याहियारपरूवणा पुव्वाणुपुव्वी णाम । विलोमेण परूवणा पच्छाणुपुव्वी णाम । अणुलोम-विलोमेहि विणा परूवणा जहा-तहाणुपुवी । ण च परूवणाए चउत्थो पयारो अस्थि, अणुवलंभादो। णामोवक्कमो दसविहो गोण्ण-णोगोण्ण-आदाण-पडिवक्ख-पाधण्ण-णाम-पमाण-अवयवसंजोग-अणादियसिद्धंतपदभेएण। गुणेण णिप्पण्णं गोणं । जहा सूरस्स तवण-भक्खरदिणयरसण्णा, वड्डमाणजिणिंदस्स सव्वण्णु-वीयराय-अरहंत-जिणादिसण्णाओ' । चंदसामी सूरसामी इंदगोवो इच्चादिणामाणि णोगोण्णपदाणि, णामिल्लए पुरिसे सद्दत्थाणुवलंभादों। छत्ती मउली गब्भिणी अइहवा इच्चाईणि आदाणपदणामाणि, इदमेदस्स अत्थि त्ति विवक्खाए है- पूर्वानुपूर्वी, पश्चादानुपूर्वी और यथा तथानुपूर्वी । उद्दिष्टके क्रमसे अर्थाधिकारकी प्ररूपणाका नाम पूर्वानुपूर्वी है। विरुद्ध क्रमसे की गई प्ररूपणा पश्चादानुपूर्वी कहलाती है । अनुलोम व प्रतिलोम क्रमके विना जो प्ररूपणा की जाती है उसका नाम यथा-तथानुपूर्वी है। इनके अतिरिक्त प्ररूपणाका और कोई चतुर्थ प्रकार नहीं है, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता। गौण्यपद, नोगौण्यपद, आदानपद, प्रतिपक्षपद, प्राधान्यपद, नामपद, प्रमाणपद, अवयवपद, संयोगपद और अनादिकसिद्धान्तपदके भेदसे नामोपक्रम दश प्रकार है। जो पद गुणसे सिद्ध है वह गौण्य है । जैसे सूर्यके तपन, भास्कर एवं दिनकर नाम; वर्धमान जिनेन्द्र के सर्वश, वीतराग, अरहन्त व जिन आदि नाम । चन्द्रस्वामी, सूर्यस्वामी व इन्द्रगोप इत्यादि नाम नोगौण्य पद हैं; क्योंकि, इन नामोंसे युक्त पुरुषमें शब्दोंका अर्थ नहीं पाया जाता । छत्री, मौली, गर्भिणी और अविधवा इत्यादिक आदानपद रूप नाम हैं, १ष. खं. पु. १, पृ. ७३. आणुपुव्वी तिविहा। एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहापुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, जत्थतत्थाणुपुची चेदि । जं जेण कमेण सुत्तकारेहि ठइदमुप्पण्णं वा तस्स तेण कमेण गणणा पुवाणुपुव्वी णाम | तस्स विलोमेण गणणा पच्छाणुपुची। जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो इच्छिदमादि कादण गणणा जत्थतत्थाणु युव्वी। एवमाणुपुब्बी तिविहा चेव, अणुलोम-पडिलोम-तदुभएहि वदिरित्तगणणकमाणुवलंभादो। जयध. १,पृ. २७. २ ष. खं. पु. १, पृ. ७४-७९. णामं छविहं । एदस्स मुत्तस्स अस्थपरूवणं कस्सामो। तं जहागोणपदे णोगोणपदे आदाणपदे पडिववखपदे अवचयपदे उवचयपदे चेदि । जयध. १, पृ. ३०. ३ गुणेण णिप्पणं गोण्णं । [ जहा सूरस्स तवण-भक्खर- ] दिणयरसण्णाओ, वडमाणजिणिंदस्स सब्बण्हुबीयराय-अरहंत-जिणादिसण्णाओ। जयध. १, पृ ३१. ४ चंदसामी सूरसामी इंदगोत्र इच्चादिसण्णाओ णोगोण्णपदाओ, णामिल्लए पुरिसे णामत्थाणुवलंभादो।। मगध. १, पृ. ३१. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड उप्पण्णत्तादों। णाणी बुद्धिवंतो इच्चाईणि णामाणि आदाणपदाणि चेव, इदमेदस्स अस्थि त्ति विवक्खाणिबंधणत्तादो। ण गोण्णपदाणि, संबंधविवक्खाए विणा गुणसण्णाए दव्वम्मि पउत्तिअदंसणादो । विहवा रंडा पोरो दुविही इच्चाईणि पडिवक्खपदाणि अगम्भिणी अमउडी इच्चादीणि वा, इदमेदस्स णस्थि त्ति विवक्खाणिबंधणादो। अण्णहि वि रुक्खेहि सहियाण कयंब-णिबंबरुक्खाणं बहुत्तं पेक्खिय जाणि कयंब-णिबंबवणणामाणि ताणि वाधण्णपदाणि । किमेत्थ पधाणत्तं ? अप्पियं पहाणत्तमणप्पियमप्पहाणत्तैमण्णहा पहाणत्ताणुववत्तीदो । अरविंदसदस्स अरविंदसण्णा णामपदं, णामस्स अप्पाणम्हि चेव पउत्तिदसणादो। सदं सहस्समिच्चादीणि पमाणपदणामाणि, संखाणिबंधणादो । अवयवो दुविहो समवेदो असमवेदो चेदि । सिलीवदी क्योंकि, वे ' यह (छत्रादि ) इसके है ' इस विवक्षासे उत्पन्न हुए हैं । ज्ञानी व बुद्धिमान् इत्यादि नाम आदानपद ही हैं, क्योंकि, इनका कारण ' यह इसके है' यह विवक्षा है। ये गौण्यपद नहीं हैं, क्योंकि, सम्बन्धविवक्षाके विना द्रव्यमें गुण संज्ञाकी प्रवृत्ति नहीं देखी जाती। विधवा, रांड़, पोर ( अनाथ बालक) व दुर्विध (धनहीन ) इत्यादिः अथवा अगर्भिणी व अमुकुटी (मुकुट हीन) इत्यादि प्रतिपक्ष पद है; क्योंकि, ये पद 'यह इसके नहीं है' इस विवक्षाके निमित्तसे हैं । अन्य भी वृक्षोंसे सहित कदम्ब, नीम व आमके वृक्षोके बाहुल्य की अपेक्षा करके जो कदम्बवन, निम्बवन व आम्रवन नाम हैं वे प्राधान्यपद हैं। शंका-यहां प्रधानता क्या है ? समाधान-विवक्षित प्रधानता और अविवक्षित अप्रधानता है, क्योंकि, इसके विना प्रधानता बन नहीं सकती। अरविन्द शब्दकी अरविन्द संज्ञा नाम पद है, क्योंकि, नामकी प्रवृत्ति अपने ही देखी जाती है । शत, सहन इत्यादि प्रमाणपद नाम हैं, क्योंकि, वे संख्यानिमित्तक हैं। अवयव दो प्रकार है - समवेत और असमवेत । श्लीपद, गलगण्ड, दीर्धनास एवं १ दंडी छत्ती मोली गभिणो अइहवा इच्चादिसण्णाओ आदाणपदाओ, इदमेदस्स अस्थि ति संबंधणिबंधणत्तादो। जयध. १, पृ. ३१. २ [णाणी बुद्धिवं- ] तो इच्चादीणि वि णामाणि आदाणपदाणि चेत्र, इदमेदस्स अस्थि ति विवक्खाणिबंधणत्तादो। एदाणि गोपणपदाणि किण्ण होंति ? ण, गुणमुहेण दव्वम्हि पवुतीए संबंधविश्वखाए विणा अदंसणाद। जयध. १, पृ. ३२. ... ३ विहबा रंडा पोरा दुविहा इच्चाईणि णामाणि पडिवखपदाणि, इदमेदस्स णथि त्ति विवक्खागिमंधणसादो। जयध. १, पृ. ३२. ४ अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाधस्यकस्यचिद्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतमिति यावत् । तद्विपरीतमनर्पितम् । स. सि. ५, ३२. ५ प्रतिषु 'सिलीवभी' इति पाठः। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे णामोवक्कमपरूवणा [१३७ गलयंडो दीहणासो लंबकण्णो त्ति उवचिदावयवणिबंधणाणि; छिण्णकरो छिण्णणासो काणो कुंटो इच्चादीणि अवचिदणिबंधणाणि । संजोगो दव्व-खेत्त-काल-भावभेएण चउब्विहो । तत्थ धणुहासि-परसुआदिसंजोगेण संजुत्तपुरिसाणं धणुहासि-परसुणामाणि दव्वसंजोगपदाणि। भारहओ ऐरावओ माहुरो मागहो त्ति खेत्तसंजोगपदाणि णामाणि । सारओ वासंतओ त्ति कालसंजोगपदणामाणि । णेरइओ तिरिक्खो कोही माणी बालो जुवाणो इच्चेवमाईणि भावसंजोगपदाणि । भाव-गुणाणं को विसेसो ? ण, जावदव्वभाविणो गुणा, तविवरीया भावा इदि भेदुवलंभादो । दमिलो' अंधो कण्णाडो त्ति .......................................... लम्बकर्ण, ये नाम उपचितावयव अर्थात् अवयवोंकी वृद्धिके निमित्तसे; तथा छिन्नकर, छिन्ननास, काना एवं कुण्ट (हस्त हीन) इत्यादि नाम अवयवोंकी हानिके निमित्तसे प्रसिद्ध हैं। __ संयोग द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावके भेदसे चार प्रकार है । उनमें धनुष, असि व परशु आदिके संयोगसे संयुक्त पुरुषोंके धनुष, असि व परशु नाम द्रव्यसंयोगपद हैं। भारत, ऐरावत, माथुर व मागध, ये क्षेत्रसंयोगपद नाम हैं। शारद व वासंतक ये कालसंयोगपद नाम हैं । नारक, तिर्यंच,क्रोधी,मानी, बाल एवं युवा, इत्यादिक भावसंयोग पद हैं। शंका-भाव और गुणमें क्या भेद है ? समाधान नहीं, गुण यावद्द्व्य भावी अर्थात् समस्त द्रव्यमें रहनेवाले होते हैं, परन्तु भाव यावद्रव्यभावी नहीं होते; यह उन दोनोंमें भेद है।। शंका-द्रविड, आन्ध्र और कर्नाटक, ये नाम कौनसे पद हैं ? १ प्रतिषु ' कुंठो' इति पाठः। २. खं. पु. १, पृ. ७७. सिलीवदी गलगंडो दीहणासो लंबकण्णो इच्चेवमादीणि णामाणि प्रवचयपदाणि, सरीरे उबचिदमवयवमवेक्खिय एदेसि णामाणं पउत्तिदंसणादो। छिण्णकण्णो किण्णणासो काणो कुंठो [कुंटो] खंजो बहिरो इच्चाईणि णामाणि अवचयपदाणि, सरीरावयवविगलत्तमक्खिय एदेसिं णामाणं पउत्तिदंसणादो। जयध. १, पृ. ३३. ३ प्रतिषु 'आरहओ' इति पाठः।। ४ ष. खं. पु. १, पृ. ७७-७८. दव्व-खेत्त-काल-भावसंजोयपदाणि रायासि-घणु-हर-सुरलोयणयर-भारयअइरावय-सायर (सारय-) वासंतय-कोहि-माणिइच्चाईणि णामाणि वि आदाणपदे चेव णिवदंति, इदमेदस्स अस्थि एत्थ वा इदमथि ति बिवक्खाए एदेसि णामाणं पवुत्तिदंसणादो। जयध. १, पृ. ३३. ५ प्रतिषु 'धमिलो' इति पाठः । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, १, १५. गामाणि किंपदाणि ? दव्वसंजोगपदाणि, भासा-पोग्गलदव्वसंजोगेण तदुप्पत्तीदो। पमाणभावाणं को विसेसो ? ण, सगद-इयत्तापरिच्छेदकारणं पमाणं , तव्विवरीओ भावो ति तेसिं भेदुवलंभादो । धम्मत्थिओ अधम्मत्थिओ कालो पुढवी आऊ तेऊ इच्चादीणि अणादियसिद्धंतपदाणि । भाव-गुणपडिसेहदुवारेणुप्पण्णणामाणि भावसंजोगैपद-गोण्णाणि हवंति, अवयव. सहस्सेव भाव-गुणाणं देसामासयत्तब्भुवगमादो । एवं णामोवक्कमसरूवपरूवणा कदा । णाम-ट्ठवण-दव्व-खेत्त-काल-भावपमाणभेदेण पमाणं छविहं । तत्थ णामपमाणं पमाण समाधान-ये द्रव्यसंयोगपद है, क्योंकि, उनकी उत्पत्ति भाषा ( द्राविडी आदि) रूप पुद्गल द्रव्यके संयोगसे है। शंका -प्रमाण और भावके क्या भेद है ? समाधान-नहीं, स्वगत अर्थात् अपने वाच्यगत परिमाणके जाननेका कारण प्रमाण और इससे विपरीत भाव होता है, इस प्रकार उन दोनोंमें भेद पाया जाता है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, काल, पृथिवी, अप् और तेज, इत्यादिक अनादिकसिद्धान्तपद हैं । भाव और गुणके प्रतिषेध द्वारा उत्पन्न नाम क्रमशः भावसंयोगपद ब गौण्यपद होते हैं, क्योंकि, अवयव शब्दके समान भाव और गुणको देशामर्शक स्वीकार किया गया है। - विशेषार्थ-जिस प्रकार अवयवके सद्भाव व अभावके वाचक पदोंका अन्तर्भाव अवयवपदोंमें किया है, उसी प्रकार भावसंयोग व भावासंयोग वाचक पदोंका भावसंयोगपदोंमें एवं गुणके सद्भाव व असद्भाव वाचक पदोंका अन्तर्भाव गौण्य पदोंमें करना चाहिये। इस प्रकार नामोपक्रम स्वरूपकी प्ररूपणा की है। नामप्रमाण, स्थापनाप्रमाण, द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण, कालप्रमाण और भावप्रमाणके भेदसे प्रमाण छह प्रकार है। उनमेंसे अपनेमें व बाह्य पदार्थमें वर्तमान प्रमाण शब्द नाम १ प्रतिषु 'आउ तेउ' इति पाठः । २. से किं तं अणाइसिद्धतेणमित्यादि-अमनं अन्तो वाच्य-वाचकरूपतया परिच्छेदः, अनादिसिद्धश्चासावन्तश्चानादिसिद्धान्तस्तेन; अनादिकालादारभ्येदं वाचकमिदं तु वाच्यमित्येवं सिद्धः- प्रतिष्ठितो यो सावन्तःपरिच्छेदस्तेन किमपि नाम भवतीत्यर्थः । अनु. सू. ( मलय. वृत्ति ) १३०. ३ प्रतिषु ‘भावासेजोग' इति पाठः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे पमाणोवक्कमपरूवणा [१३९ सद्दो अप्पाणम्मि बज्झत्थे च वट्टमाणो । कधं णामस्स पमाणत्तं ? न, प्रमीयते अनेनेति प्रमाणत्वसिद्धे': । सब्भावासब्भावट्ठवणा ठवणपमाण, अण्णसरूवपरिच्छित्तिकारणत्तादों । संखेज्जमसंखेज्जमणतमिदि दव्वपमाणं पल-तुला-करिसादीणि वा, अण्णदव्यपरिच्छेदकारणतादो'। अधवा दव्वगयसंखाणं मोत्तूण दव्वमेव पमाणमिदि घेत्तव्वं, दंडादिदव्वेहितो अण्णेसिं परिच्छित्तिदसणादो । अंगुल-विहत्थि-किक्खुआदि क्खेत्तपमाणं' । समयावलियादि कालपमाणं । जीवाजीवभावपमाणभेएण भावपमाणं दुविहं । तत्थ अजीवभावपमाणं संखेज्जा प्रमाण कहा जाता है। शंका-नामके प्रमाणता कैसे हो सकती है ? समाधान -नहीं, क्योंकि, जिसके द्वारा जाना जाता है वह प्रमाण है, इस व्युत्पत्तिसे नामके प्रमाणता सिद्ध है। सद्भाव और असद्भाव रूप स्थापनाका नाम स्थापनाप्रमाण है, क्योंकि, वह अन्य पदार्थोंके स्वरूपको जाननेकी कारण है । संख्यात, असंख्यात व अनन्त तथा पल (मापविशेष ), तराजू व कर्ष इत्यादिक द्रव्यप्रमाण हैं, क्योंकि, ये अन्य द्रव्योंके जाननेके कारण हैं । अथवा, द्रव्यगत संख्याको छोड़कर द्रव्य ही प्रमाण है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, दण्डादिक द्रव्योंसे अन्य पदार्थोंका ज्ञान देखा जाता है । अगुंल, वितस्ति और किष्कु आदि क्षेत्रप्रमाण हैं । समय और आवली आदि कालप्रमाण हैं । जीवभावप्रमाण और अजीवभावप्रमाणके भेदसे भावप्रमाण दो प्रकार है। इनमें अजीवभावप्रमाण संख्यात, असंख्यात व अनन्तके भेदसे तीन प्रकार है । जीवभाव १पमाणं सत्तविहं।xxx तं जहा- णामपमाण ढवणपमाणं संखपमाणं दव्वपमाणं खेत्तपमाणं कालपमाणं णाणपमार्ण चेदि । प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम् । नामाख्यातपदानि नामप्रमाणं प्रमाणशब्दो वा। कुदो? एदेहिंतो अप्पणो अण्णेसिं च दव्व-पज्जयाणं परिच्छित्तिदंसणादो। जयध. १, पृ. ३७. २ सो एसो त्ति अभेदेण कट्ठ-सिला-पव्वएसु अप्पियवत्थुण्णासो ढवणापमाणं । कथं ठवणाए पमाणतं? ण, ठवणादो एवंविहो सो ति अण्णस्स परिच्छितिदसणादो। मइ-सुद-ओहि-मणपज्जव-केवलणाणाणं सब्भावासभावसरूवेण विण्णासो वा सयं सहस्समिदि असब्भावट्ठवणा वा ठवणपमाणं । जयध. १, पृ. ३८. ३ पल-तुला-कुडवादीणि दव्वममाणं, दव्वंतरपरिच्छित्तिकारणत्तादो । जयध. १, पृ. ३८. ४ प्रतिषु ' दव्वमेद ' इति पाठः। । ५ अंगुलादिओगाहणाओ खेत्तपमाणं, 'प्रमीयन्ते अवगाह्यन्ते अनेन शेषद्रव्याणि ' इति अस्य प्रमाणत्वसिद्धेः । जयध. १, पृ. ३९. ६ समयावलिय-खण-लव-मुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उडुवयण-संवच्छर-जुग-पुव्व-पव-पल्ल-सागरादि काल - पमाणं । जयध. १, पृ. ४१. Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ] छक्खंडागमे यणाखंड [ ४, १२, ४५. संखेज्जाणतएण तिविहं । जीवभावपमाणं आभिणिबोहिय- सुदोधि-मणपज्जव केवलणाणभेएण पंचविहं । एवं पमाणावक्कम सरूवपरूवणा कदा | ससमय-परसमय-तदुभयवत्तव्वदाभेदेण वत्तव्वदा तिविहा' । जदि ससमओ' चेव परुविज्जदि सा ससमयैवत्तव्वदा । जदि परसमओ चेव परुविज्जदि सा परसमयवत्सव्वदा । दि दो वि रुविज्जति सा तदुभयवत्तव्वदा । एवं वत्तव्वदुवक्कम सरूवपरूवणा कदा | अत्थाहियारो अणेयविहो, तत्थ संखाणियमाभावाद । एवमत्थहियारो वक्कमसरूवपरूवणा कदा | वृत्तं च- तिविहाय आणुपुत्री दसधा णामं च छन्विहं माणं । तव्वदा यतिविहा विविहो अत्याहियारो य ॥ ४४ ॥ एवमुत्रक्कम सरूवरूणा कदा | संपहि णिक्खेवसरूवपरूवणा कीरदे । तं जहा - बज्झत्थवियपपरूवणा णिक्खेवो प्रमाण आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानके भेदसे पांच प्रकार है । इस प्रकार प्रमाणोपक्रमके स्वरूपकी प्ररूपणा की है । स्वसमयवक्तव्यता, परसमयवक्तव्यता और तदुभयवक्तव्यता के भेद से वक्तव्यता तीन प्रकार है । यदि स्वसमयकी ही प्ररूपणा की जाती है तो वह स्वसमयवक्तव्यता है। यदि परसमयकी ही प्ररूपणा की जाती है तो वह परसमयवक्तव्यता है । यदि दोनोंकी ही प्ररूपणा की जाती है तो वह तदुभयवक्तव्यता है । इस प्रकार वक्तव्यतोपक्रमके स्वरूपकी प्ररूपणा की है । अर्थाधिकार अनेक प्रकार है, क्योंकि, उसमें संख्याका नियम नहीं है । इस प्रकार अर्थाधिकारोपक्रमके स्वरूपकी प्ररूपणा की है। कहा भी है आनुपूर्वी तीन प्रकार, नाम दश प्रकार, प्रमाण छह प्रकार, वक्तव्यता तीन प्रकार और अर्थाधिकार अनेक प्रकार है ॥ ४४ ॥ इस प्रकार उपक्रमके स्वरूपकी प्ररूपणा की है । अब निक्षेप स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- बाह्यार्थ के विकल्पोंकी १ जयध. १, पृ. ९६. ३ प्रतिषु 'समय' इति पाठः । २ प्रतिषु ' समओ ' इति पाठ । ४ ष. खं. पु. १ पृ. ७२. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे अणुगमपरूवणा [१४१ णाम, अणधिगदत्थणिराकरणदुवारेण अधिगदत्थपरूवणा वा। णिक्खेवेण विणा परूवणा किण्ण कीरदे ? ण, तेण विणा परूवणाणुववत्तीदो । सो च अणेयविहो जत्थ बहु जाणेज्जो अपरिमियं तत्थ णिक्खिव' णियमा । जत्थ य बहुं ण जाणदि चउट्टयं तत्थ णि विखबउ ॥ ४५ ॥ इदि वयणादो । एवं णिक्खेवसरूवपरूवणा कदा । (संपहि अणुगमत्थं वत्तइस्सामो- जम्हि जेण वा वत्तव्वं परूविज्जदि सो अणुगमो । अहियारसण्णिदाणमणिओगद्दाराणं जे अहियारा तेसिमणुगमो त्ति सण्णा, जहा वेयणाए पदमीमांसादिः। सो च अणुगमो अणेयविहो, संखाणियमाभावादो । अथवा, अनुगम्यन्ते जीवादयः पदार्थाः अनेनेत्यनुगमः । किं प्रमाणम् ? निर्बाधबोधविशिष्टः आत्मा प्रमाणम् । संशय प्ररूपणा अथवा अनधिगत पदार्थके निराकरण द्वारा अधिगत अर्थकी प्ररूपणाका नाम निक्षेप है। शंका-निक्षेपके विना प्ररूपणा क्यों नहीं की जाती ? समाधान-नहीं, क्योंकि उसके विना प्ररूपणा बन नहीं सकती। वह निक्षेप अनेक प्रकार है,क्योंकि, जहां बहुत ज्ञातव्य हो वहां नियमसे अपरिमित निक्षेपोंका प्रयोग करना चाहिये । और जहां बहुतको नहीं जानना हो वहां चार निक्षेपका उपयोग करना चाहिये ।। ४५ ।। ऐसा वचन है । इस प्रकार निक्षेपके स्वरूपकी प्ररूपणा की है। अब अनुगमके अर्थको कहते हैं- जहां या जिसके द्वारा वक्तव्यकी प्ररूपणा की जाती है वह अनुगम कहलाता है। अधिकार संज्ञा युक्त अनुयोगद्वारोंके जो अधिकार होते हैं उनका 'अनुगम' यह नाम है, जैसे-वेदनानुयोगद्वारके पदमीमांसा आदि अनुगम । वह अनुगम अनेक प्रकार है, क्योंकि, उसकी संख्याका कोई नियम नहीं है । अथवा, जिसके द्वारा जीवादिक पदार्थ जाने जाते हैं वह अनुगम कहलाता है। शंका-प्रमाण किसे कहते हैं ? समाधान-निर्बाध शानसे विशिष्ट आत्माको प्रमाण कहते हैं । १ प्रतिषु ‘णिक्खेवे ' इति पाठः । २ प्रतिषु । णिविखवओ' इति पाठः । ष. खं. पु. १, पृ. ३.. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,४५. विपर्ययानध्यवसायबोधविशिष्टस्यात्मनः न प्रामाण्यं, संशय-विपर्ययोस्सबाधयोर्निर्बाधविशेषणस्य असत्वात् । अनध्यवसायस्स चार्थानुगमस्याभावात् । ज्ञानस्यैव प्रामाण्यं किमिति नेष्यते ? न, जानाति परिछिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानमात्मा, तस्यैव प्रामाण्याभ्युपगमात् । न ज्ञानपर्यायस्य स्थितिरहितस्य उत्पाद-विनाशलक्षणस्य प्रामाण्यम् , तत्र त्रिलक्षणाभावतः अवस्तुनि परिच्छेदलक्षणार्थक्रियाभावात् , स्मृति-प्रत्यभिज्ञानुसंधानप्रत्ययादीनामभावप्रसंगाच्च । - तच्च प्रमाणं द्विविधम् , प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणभेदात् । तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलबिकलप्रत्यक्षभेदात् । सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम् , विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थसन्निधानमात्रप्रवर्तनात् । उक्तं च क्षायिकमेकमनंतं त्रिकालसर्वार्थयुगपद्विभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ॥ ४६॥ इति संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानसे विशिष्ट आत्माके प्रमाणता नहीं हो सकती, क्योंकि, संशय और विपर्ययके बाधायुक्त होनेसे उनमें निर्वाध विशेषणका अभाव है, तथा अनध्यवसायके अर्थबोधका अभाव है। शंका-शानको ही प्रमाण स्वीकार क्यों नहीं करते? समाधान नहीं, क्योंकि 'जानातीति ज्ञानम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवादि पदार्थोंको जानता है वह शान अर्थात् आत्मा है, उसीको प्रमाण स्वीकार किया गया है । उत्पाद व व्यय स्वरूप किन्तु स्थितिसे रहित ज्ञानपर्यायके प्रमाणता स्वीकार नहीं की गई, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप लक्षणत्रयका अभाव होनेके कारण अवस्तुस्वरूप उसमें परिच्छित्ति रूप अर्थक्रियाका अभाव है, तथा स्थिति रहित ज्ञानपर्यायको प्रमाणता स्वीकार करनेपर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व अनुसंधान प्रत्ययोके अभावका भी प्रसंग आता है। वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणके भेदसे दो प्रकार है। उनमें प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकार है। केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोको विषय करनेवाला, अतीन्द्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधानसे रहित और आत्मा एवं पदार्थकी समीपता मात्रसे प्रवृत्त होनेवाला है। कहा जिन भगवान्का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनन्त, तीनों कालोंके सब पदार्थीको एक साथ प्रकाशित करनेवाला, निरतिशय, विनाशसे रहित और व्यवधानसे विमुक्त है ॥४६॥ १ प्रतिषु । -मवधानं ' इति पाठः। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४६ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे वियलपञ्चक्खपरूवणा अवधि-मनःपर्ययज्ञाने विकलप्रत्यक्षम् , तत्र साकल्येन प्रत्यक्षलक्षणाभावात् । तदपि कुतोऽवगम्यते ? मूर्त्तद्रव्येष्वेव प्रवृत्तिदर्शनात् सक्षयत्वात् मूर्तेष्यप्यर्थेषु त्रिकालगोचरानन्तपर्यायेषु साकल्येन प्रवृत्तेरदर्शनात् । अतीन्द्रियाणामवधि-मनःपर्यय-केवलानां कथं प्रत्यक्षता ? नैष दोषः, अक्ष आत्मा, अक्षमक्षं प्रति वर्तत इति प्रत्यक्षमवधि-मनःपर्यय-केवलानीति तेषांप्रत्यक्षत्वसिद्धेः । परोक्षं द्विविधं मति-श्रुतभेदेन । परोक्षमिति किम् ? उपात्तानुपात्तपरप्राधान्यादवगमः परोक्षम् । अवधि और मनःपर्यय ज्ञान विकल प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि, उनमें सकल प्रत्यक्षका लक्षण नहीं पाया जाता। शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? समाधान-क्योंकि, उक्त दोनों ज्ञान मूर्त द्रव्यों में ही प्रवर्तमान हैं, विनश्वर है, तथा तीन काल विषयक अनन्त पर्यायोंसे संयुक्त उन मूर्त पदाथों में भी उनकी पूर्ण रूपसे प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । शंका-इन्द्रियों की अपेक्षासे रहित अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानके प्रत्यक्ष. ता कैसे सम्भव है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अक्ष शब्दका अर्थ आत्मा है; अतएव अक्ष अर्थात् आत्माकी अपेक्षा कर जो प्रवृत्त होता है वह प्रत्यक्ष है; इस निरुक्तिके अनुसार अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञान प्रत्यक्ष हैं । अतएव उनके प्रत्यक्षता सिद्ध है। मति और श्रुतके भेदसे परोक्ष दो प्रकार है । शंका-परोक्षका क्या स्वरूप है ? समाधान-उपात्त और अनुपात्त इतर कारणोंकी प्रधानतासे जो ज्ञान होता है १ ओहि-मणपज्जवणाणाणि वियलपच्चक्खाणि, अत्थेगदेसम्मि विसदसरूवण तेसिं पउत्तिदंसणादो। जयध. १, पृ. २४. २ प्रतिषु 'प्रवृत्तिरदर्शनात् ' इति पाठः । ३ अक्षं प्रतिनियतमिति परापेक्षानिवृत्तिः- अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा प्राप्तक्षयोपशमः प्रक्षीणावरणो वा, तमेव प्रतिनियतं प्रत्यक्षमिति विग्रहात्परापेक्षानिवृत्तिः कृता भवति । त. रा. १, १२, २. कथं पुनरेतेषां प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वमिति चेत् , रूढित इति ब्रूमः। अथवा, अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तन्मात्रापेक्षोत्पत्तिकं प्रत्यक्षमिति किमनुपपन्नम् ? न्यायदीपिका पृ. ३८. तत्र ' अशुङ् व्याप्ती' अश्नुते ज्ञानात्मना सर्वानर्थान् व्याप्नोतीत्यक्षः । अथवा ' अशू भोजने ' अश्नाति सर्वान् अर्थान् यथायोगं भु) पाल. यति वेल्यक्षो जीव उभयत्राप्यौणादिकः सकप्रत्ययः, तं अक्षं जीवं प्रति साक्षाद्वर्त्तते यत् ज्ञानं तत्प्रत्यक्षम् ।। xxx उक्तं च-“जीवो अक्खो अस्थवावण-भोयणगुणनिओ जेणं । तं पइ वट्टइ नाणं जं पचक्ख तय तिविहं ॥" नं. सू. (वृत्ति) २. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५. उपात्तानीन्द्रियाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि, तत्प्राधान्यादवगमः परोक्षम् । यथा गतिशक्त्युपेतस्यापि स्वयं गन्तुमसमर्थस्य यष्ट्याद्यालंबनप्राधान्यं गमनम् , तथा मति-श्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वयमानुपलब्धुमसमर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधान ज्ञान परायत्तत्वात्परोक्षम् । ___ तत्र मत्याख्यं प्रमाणं चतुर्विधम् - अवग्रह ईहा अवायो धारणा चेति' । विषय-विषयिसन्निपातानंतरमाचं ग्रहणमवग्रहः । पुरुष इत्यवग्रहीते भाषा-वयोरूपादिविशेषैराकांक्षणमीहा । ईहितस्यार्थस्य विशेषविज्ञानात् याथात्म्यावगमनमवायः । निर्णीताविस्मृतिर्यतस्सा धारणा । अथ स्यादवग्रहो निर्णयरूपो वा स्यादनिर्णयरूपो वा ? आये अवायान्तर्भावः । अस्तु वह परोक्ष है । यहां उपात्त शब्दसे इन्द्रियां व मन तथा अनुपात्त शब्दसे प्रकाश व उपदेशादिका ग्रहण किया गया है । इनकी प्रधानतासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष कहलाता है। जिस प्रकार गमन शक्तिसे युक्त होते हुए भी स्वयं गमन करने में असमर्थ व्यक्तिका लाठी आदि आलम्बनंकी प्रधानतासे गमन होता है, उसी प्रकार मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरणका क्षयोपशम होनेपर शस्वभाव परन्तु स्वयं पदार्थों को ग्रहण करनेके लिये असमर्थ हुए आत्माके पूर्वोक्त प्रत्ययोंकी प्रधानताले उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पराधीन होनेसे परोक्ष है। उनमें मति नामक प्रमाण चार प्रकार है- अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । विषय और विषयोंके सम्बन्धके अनन्तर जो आद्य ग्रहण होता है वह अवग्रह है । 'पुरुष' इस प्रकार अवग्रह द्वारा गृहीत अर्थमें भाषा, आयु और रूपादि विशेषोंसे होनेवाली आकांक्षाका नाम ईहा है । ईहासे गृहीत पदार्थका भाषा आदि विशेषोंके ज्ञानसे जो यथार्थ स्वरूपसे ज्ञान होता है वह अवाय है। जिससे निर्णीत पदार्थका विस्मरण नहीं होता वह धारणा है। शंका-क्या अवग्रह निर्णय रूप है अथवा अनिर्णय रूप ? प्रथम पक्षमें अर्थात् निर्णय रूप स्वीकार करनेपर उसका अवायमें अन्तर्भाव होना चाहिये । परन्तु ऐसा हो १ अ-काप्रत्योः · गतिशक्यपेतस्यापि ' इति पाठः। २ त. रा. १, ११, ६. ३ उग्गह ईहाऽवाओ य धारणा एव हुंति चारि । आभिणिबोहियणाणस्स भेयवत्थू समासेणं ॥ अस्थाणं उग्गणमि उग्गहो तह विआलणे ईहा । ववसायंमि अवाओ धरणं पुण धारण विति ॥ नं. सू. गा. ७५-७६. ४ ष. खं. पु. १. पृ. ३५४; पु. ६, पृ. २६. तत्र अवग्रहणमवग्रहः- अनिर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहणमित्यर्थः । यदाह चूर्णिकृत् “ सामन्नस्त्र रूवादिविसेसणरहियस्स अनिद्देसस्स अवग्गणमवग्गह" इति । नं. सू. ( म. वृत्ति ) २७.। ५ष. खं. पु. १, पृ. ३५४; पु. ६. पृ. १६. अवग्रहगृहीतार्थसमुद्भुतसंशयनिरासाय यतनमीहा । तद्यथापुरुष इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उतौदीच्य इति संशये सति दाक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहाख्यं झान जायत इति । न्या. दी. पू. ३२. ईहनमीहा, सद्भतार्थपर्यालोचनरूपा चेष्टा इत्यर्थः । नं. सू. (म. वृत्ति) २७. ६ प्रतिषु । निणीतार्थविस्मृतिर्यतस्साधारणात् ' इति पाठः । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [१४५ चेन्न, ततः पश्चात्संशयोत्पत्तरभावप्रसंगानिर्णयस्य विपर्ययानध्यवसायात्मकत्वविरोधाच्च । द्वितीये न प्रमाणमवग्रहः, तस्य संशय-विपर्ययानध्यवसायेष्वन्तर्भावादिति ? न, अवग्रहस्य द्वैविध्यात् । द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावाय-धारणाप्रत्ययोत्पत्तिनिबन्धनः । निर्णयरूपोऽपि नायमवायसंज्ञकः, ईहाप्रत्ययपृष्ठभाविनो निर्णयस्य अवायव्यपदेशात् । तत्र अविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषा-वयोरूपादिविशेषः गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्वादिविशेषः अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः । नायमविशदावग्रहो दर्शनेऽन्तर्भवति, तस्य विषय-विषयिसन्निपातकालवृत्तित्वात् । अप्रमाणमविशदावग्रहः, अनध्यवसायरूपत्वादिति चेन्न, अध्यवसितकतिपयविशेषत्वात् । न विपर्ययरूपत्वादप्रमाणम् , तत्र वैपरीत्यानुपलंभात् । न विपर्ययज्ञानोत्पादकत्वादप्रमाणम् , तस्मात्तदुत्पत्तेर्नियमाभावात् । न संशयहेतुत्वादप्रमाणम् , नहीं सकता, क्योंकि, वैसा होनेपर उसके पीछे संशयकी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आवेगा, तथा निर्णयके विपर्यय व अनध्यवसाय रूप होनेका विरोध भी है । अनिर्णय स्वरूप माननेपर अवग्रह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होनेपर उसका संशय, विपर्यय व अनध्यवसायमें अन्तर्भाव होगा? समाधान-नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकार है । विशदावग्रह और अविशदावग्रहके भेदसे अवग्रह दो प्रकार है। उनमें विशद अवग्रह निर्णय रूप होता हुआ अनियमसे ईहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। यह निर्णय रूप होकर भी अवाय संज्ञावाला नहीं हो सकता, क्योंकि, ईहा प्रत्ययके पश्चात् होनेवाले निर्णयकी अवाय संज्ञा है। ___उनमें भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुष मात्रके सत्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है। यह आविशदावग्रह दर्शनमें अन्तर्भूत नहीं है, क्योंकि वह ( दर्शन ) विषय और विषयीके सम्बन्धकालमें होनेवाला है। शंका-अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि, वह अनध्यवसाय स्वरूप है ? समाधान- ऐसा नहीं है, क्योंकि, वह कुछ विशेषोंके अध्यवसायसे सहित है। उक्त ज्ञान विपर्यय स्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती । यदि कहा जाय कि वह चूंकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है अतः अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, उससे विपर्यय ज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है । संशयका हेतु होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि, १ प्रतिषु ' द्वैविध्येवग्रहो' इति पाठः । छ, क.१९. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. कारणानुगुणकार्यनियमानुपलंभात् , संशयादप्रमाणात्प्रमाणीभूतनिर्णयप्रत्ययोत्पत्तितोऽनेकान्ताच । न च संशयरूपत्वादप्रमाणम् , स्थाणु-पुरुषसंचारिणश्चलस्वभावस्य संशयस्य अचलेनैकार्थविषयेण अविशदावग्रहेण एकत्वविरोधात् । ततो गृहीतवस्त्वंशं प्रति अविशदावग्रहस्य प्रामाण्यमभ्युपगन्तव्यम् , व्यवहारयोग्यत्वात् । व्यवहारायोग्योऽपि अविशदावग्रहोऽस्ति, कथं तस्य प्रामाण्यम् ? न, किंचिन्मया दृष्टमिति व्यवहारस्य तत्राप्युपलंभात् । वास्तवव्यवहारायोग्यत्वं प्रति पुनरप्रमाणम् । पुरुषमवगृह्य किमयं दाक्षिणात्य उत उदीच्य इत्येवमादिविशेषाप्रतिपत्तौ संशयानस्योत्तरकालं विशेषोपलिप्सां प्रति यतनमीहा । ततोऽवग्रहगृहीतग्रहणात् संशयात्मकत्वाच्च न प्रमाणमीहाप्रत्यय इति चेदुच्यते - न तावद् गृहीतग्रहणमप्रामाण्यनिबन्धनम् , तस्य संशय-विपर्ययानध्यवसायनिबन्धनत्वात् । न चैकान्तेन ईहा गृहीतग्राहिणी, अवग्रहेण गृहीतवस्त्वंशनिर्णयोत्पत्तिनिमित्तलिंगमवग्रहागृहीतमध्यवस्यंत्या गृहीतग्राहित्वा कारणगुणानुसार कार्यके होने का नियम नहीं पाया जाता, तथा अप्रमाणभूत संशयले प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेस उक्त हेतु व्यभिचारी भी है । संशय रूप होनेसे भी वह अप्रमाण नहीं है, क्योंकि, स्थाणु और घुरुष आदि रूप दो विषयोंमें प्रवर्त व चलस्वभाव संशयकी अचल व एक पदार्थको विषय करनेवाले आविशदावग्रह के साथ एकताका विरोध है। इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वंशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि, वह व्यवहारके योग्य है। शंका-व्यवहारके अयोग्य भी तो अविशदावग्रह है, उसके प्रमाणता कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'मैंने कुछ देखा है ' इस प्रकारका व्यवहार वहां भी पाया जाता है । किन्तु वस्तुतः व्यवहारकी अयोग्यताके प्रति वह अप्रमाण है। शंका-अवग्रहसे पुरुषको ग्रहण करके, क्या यह दक्षिणका रहनेवाला है या उत्तरका, इत्यादि विशेषज्ञानके विना संशयको प्राप्त हुए व्यक्तिके उत्तरकालमें विशेष जिज्ञासाके प्रति जो प्रयत्न होता है उसका नाम ईहा है। इस कारण अवग्रहसे गृहीत विषयको ग्रहण करने तथा संशयात्मक होनेसे ईहा प्रत्यय प्रमाण नहीं है? __. समाधान-इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि गृहीतग्रहण अप्रामाण्यका कारण नहीं है, क्योंकि, उसका कारण संशय, विपर्यय व अनध्यवसाय है। दूसरे, ईहा प्रत्यय सर्वथा गृहीतग्राही भी नहीं है, क्योंकि, अवग्रहसे गृहीत वस्तुके उस अंशके निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगको, जो कि अवग्रहसे नहीं ग्रहण किया गया है, ग्रहण करनेवालाईहा १ प्रतिषु किंचिनया' इति पाठः। २ प्रतिषु 'अनवगृहीतगृहीत' इति पाठः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा भावात् । न चैकान्तेन अगृहीतमेव प्रमाणैर्गृह्यते, अगृहीतत्वात् खरविषाणवदसतो ग्रहणविरोधात् । न चेहाप्रत्ययः संशयः, विमर्शप्रत्ययस्य निर्णयप्रत्ययोत्पत्तिनिमित्तलिंगपरिच्छेदनद्वारेण संशयमुदस्यतस्संशयत्वविरोधात् । न च संशयाधारजीवसमवेतत्वादप्रमाणम् , संशयविरोधिनः स्वरूपेण संशयतो व्यावृत्तस्य अत्रमाणत्वविरोधात् । नानध्यवसायरूपत्वादप्रमाणमीहा, अध्यवसितकतिपयविशेषस्य निराकृतसंशयस्य प्रत्ययस्य अनध्यवसायत्वविरोधात् । तस्मात्प्रमाणं परीक्षाप्रत्यय इति सिद्धम् । अनोपयोगी श्लोकः न अबायावयवोत्पत्तिस्संशयावयवच्छिदा । सम्यग्निर्णयपर्यंता परीक्षेहेति कथ्यते ॥ ४७ ॥ नेहादयो मतिज्ञानमिन्द्रियेभ्योऽनुत्पन्नत्वाच्छ्रतज्ञानवदिति चेन्न, इन्द्रियजनितावग्रहज्ञानजनितानामीहादीनामुपचारेणेन्द्रियजत्वाभ्युपगमात् । श्रुतज्ञानेऽपि तदस्त्विति चेन्न, ईहादीनामिव ज्ञान गृहीतग्राही नहीं हो सकता। और एकान्ततः अगृहीतको ही प्रमाण ग्रहण करते हों। सो भी नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने पर अगृहीत होने के कारण खरविषाणके समान असत् होनेसे वस्तुके ग्रहणका विरोध होगा। ईहा प्रत्यय संशय भी नहीं हो सकता, क्योंकि निर्णयकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत लिंगके ग्रहण द्वारा संशयको दूर करनेवाले विमर्श प्रत्ययके संशय रूप होने में विरोध है । संशयके आधारभूत जीवमें समवेत होनेसे भी वह ईहा प्रत्यय अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, संशयके विरोधी और स्वरूपतः संशयसे भिन्न उक्त प्रत्ययके अप्रमाण होनेका विरोध है ! अनध्यवसाय रूप होनेसे भी ईहा अप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि, कुछ विशेषोंका अध्यवसाय करते हुए संशयको दूर करनेवाले उक्त प्रत्ययके अनध्यवसाय रूप होने का विरोध है । अत एव परीक्षा प्रत्यय प्रमाण है, यह सिद्ध होता है। यहां उपयोगी श्लोक संशयके अवयवोंको नष्ट करके अवायके अवयवोंको उत्पन्न करनेवाली जो भले प्रकार निर्णय पर्यन्त परीक्षा होती है वह ईहा प्रत्यय कहा जाता है ॥ ४७॥ शंका-ईहादिक प्रत्यय मतिज्ञान नहीं हो सकते, क्योंकि, वे श्रुत शानके समान इन्द्रियोंसे उत्पन्न नहीं होते। समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, इन्द्रियोंसे उत्पन्न हुए अवग्रह शानसे उत्पन होनेवाले ईहादिकोंको उपचारसे इन्द्रियजन्य स्वीकार किया गया है। शंका- वह औपचारिक इन्द्रियजन्यता श्रुतज्ञानमें भी मान लेना चाहिये। १ प्रतिषु ' -पुदयस्यतत्संशयत्व ' इति पारः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Drasta daणाखंड [ ४, १,४५. अवग्रहगृहीतार्थविषयप्रवृत्त्यभावतो व्यधिकरणस्य श्रुतस्य प्रत्यासत्तेरभावतः इन्द्रियजत्वोपचाराभावात् । तत एव न श्रुतस्य मतिव्यपदेशोऽपीति । नावायज्ञानं मतिः, ईहानिर्णीत लिंगावष्टम्भबलेनोत्पन्नत्वादनुमानवदिति चेन्न, अवग्रहगृहीतार्थविषयलिंगादीहा प्रत्ययविषयीकृतादुत्पन्न - निर्णयात्मकप्रत्ययस्य अवग्रहगृहीतार्थविषयस्य अवायस्य अमतित्वविरोधात् । न चानुमानमवगृहीतार्थविषयमवग्रहनिर्णीतलिंगबलेन तस्यान्यवस्तुनि समुत्पत्तेः । न चावग्रहादीनां चतुर्णां सर्वत्र क्रमेणोत्पत्तिनियमः, अवग्रहानन्तरं नियमेन संशयोत्पत्त्यदर्शनात् । न च संशयमंतरेण विशेषाकांक्षास्ति येनावग्रहान्नियमेन ईहोत्पद्येत । न चेहातो नियमेन निर्णय उत्पद्यते, क्वचिन्निर्णयानुत्पादिकाया ईहाया एव दर्शनात् । न चावायाद्धारणा' नियमेनोत्पद्यते, तत्रापि व्यभि - चारोपलंभात् । तस्मादवग्रहादयो धारणापर्यंता मतिरिति सिद्धम् । १४८ ] समाधान - नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार ईहादिककी अवग्रहसे गृहीत पदार्थ के विषय में प्रवृत्ति होती है उस प्रकार चूंकि श्रुतज्ञानकी नहीं होती, अतः व्यधिकरण होने से श्रुतज्ञान के प्रत्यासत्तिका अभाव है, इसी कारण उसमें उपचारसे इन्द्रियजन्यत्व नहीं बनता । और इसीलिये श्रुतके मति संज्ञा भी सम्भव नहीं है । शंका - अवायज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, वह ईहासे निर्णीत लिंगके आलम्बन बलसे उत्पन्न होता है । जैसे अनुमान ? I समाधान - - ऐसा नहीं है, क्योंकि, अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाले तथा ईहा प्रत्यय से विषयीकृत लिंग से उत्पन्न हुए निर्णय रूप और अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाले अवाय प्रत्ययके मतिज्ञान न होनेका विरोध है । और अनुमान अवग्रहसे गृहीत पदार्थको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि, वह अवग्रहसे निर्णीत लिंगके बलसे अन्य वस्तु उत्पन्न होता है । तथा अवग्रहादिक चारोंकी सर्वत्र क्रमसे उत्पत्तिका नियम भी नहीं है, क्योंकि, अवग्रहके पश्चात् नियमसे संशयकी उत्पत्ति नहीं देखी जाती । और संशय के विना विशेषकी आकांक्षा होती नहीं है जिससे कि अवग्रहके पश्चात् नियमसे ईहा उत्पन्न हो । न ईद्दासे नियमतः निर्णय उत्पन्न होता है, क्योंकि, कहीं पर निर्णयको उत्पन्न न करनेवाला ईहा प्रत्यय ही देखा जाता है। अवायसे धारणा भी नियमसे नहीं उत्पन्न होता, क्योंकि, उसमें भी व्यभिचार पाया जाता है । इस कारण अवग्रहसे लेकर धारणा तक चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं, यह सिद्ध होता है । १ प्रतिषु ' चावाया धारणात् ' इति पाठः । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवण! (१४९ ते च बहु-बहुविध क्षिप्रानिःसृतानुक्त ध्रुवेतरभेदेन द्वादशधा भवन्ति । तत्र बहुशब्दो हि संख्यावाची वैपुल्यवाची च । संख्यायामेकः द्वौ बहवः, वैपुल्ये बहुरोदनः बहुः सूप इति एतस्योभयस्यापि ग्रहणम्' । न बह्नवग्रहोऽस्ति, विज्ञानस्य प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेन्न, नगरवन-स्कंधावारेवनेकप्रत्ययोत्पत्तिदर्शनात् , बह्ववग्रहाभावे तन्निबन्धनबहुवचनप्रयोगानुपपत्तेः । न ह्येकार्थग्राहकेभ्यो ज्ञानेन्यो भूयसामर्थानां प्रतिपत्तिर्भवति, विरोधात् । किं च, यस्यैकार्थ एव नियमेन विज्ञानं तस्य किं पूर्वज्ञाननिवृत्ता उत्तरविज्ञानोत्पत्तिरनिवृत्तौ वा ? न द्वितीयः पक्षः, एकार्थमेकमनस्त्वादित्यनेन वाक्येन सह विरोधात् । नाद्यः, इदगस्मादन्यदित्यस्य वे चारों ज्ञान बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःस्मृत, अनुक्त और ध्रुव तथा इनसे विपरीत एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त और अधुक्के भेदसे बारह प्रकार हैं । उनमें बहु शब्द संख्यावाची और वैपुल्यवाची है । संख्यामें एक, दो, बहुत और विपुलतामें बहुत ओदन व बहुत दाल, इस प्रकार इन दोनोंका भी ग्रहण है । शंका-बहुत पदार्थोका अवग्रह नहीं है, क्योंकि, विज्ञान प्रत्येक अर्थके वशवर्ती है ? समाधान - नहीं, क्योंकि नगर, वन व स्कन्धावार ( छावनी ) में अनेक पदार्थ विषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसके अतिरिक्त बहु-अवग्रहके अभावमें उसके निमित्तसे होनेवाला बहु वचनका प्रयोग भी नहीं बन सकेगा। इसका कारण यह कि एक पदार्थके ग्राहक ज्ञानोंसे बहुत पदार्थोंका ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। ___ दूसरे, जिसके अभिप्रायसे नियमतः एक पदार्थमें ही विज्ञान होता है उसके यहां क्या पूर्व ज्ञानके हट जाने पर उत्तर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है, अथवा उसके होते हुए? इनमें द्वितीय पक्ष तो बनता नहीं है, क्योंकि पूर्व ज्ञानके होते हुए उत्तर ज्ञान होता है,ऐसा माननेपर 'एक मन होनेसे ज्ञान एक पदार्थको विषय करनेवाला है इस वाक्यके साथ विरोध होगा। ( अर्थात् जिस प्रकार यहां एक मन अनेक प्रत्ययोंका आरम्भक है उसी प्रकार एक प्रत्यय अनेक पदार्थोको विषय करनेवाला भी होना चाहिये, क्योंकि, एक कालमें अनेक प्रत्ययोंकी १ प्रतिषु — बहुत्वोदनः ' इति पाठः । २ बहुशब्दस्य संख्या-वैपुल्यत्राचिनो ग्रहणमविशेषात् । संख्यावाची यथा- एकः द्वौ बह्व इति । वैपुल्यवाची यथा- बहुरोदनो बहुः सूपः इति । स. सि. १, १६. त. रा. १, १६, १. ३ प्रतिषु — टेकार्थे ग्राहकेभ्यो' इति पाठः। ४ बह्ववग्रहाद्यभावः प्रत्यर्थवशवर्तित्वादिति चेन्न, सर्वदेकप्रत्ययप्रसंगात् । स्यादेतप्रत्यर्थवशवर्ति विज्ञानं नानेकमर्थ गृहीतुमलम् । अतो बहुवग्रहादीनामभाव इति ? तन्न, किं कारणं; सर्वदैकप्रत्ययप्रसंगात् । यथारण्याटव्यां कश्चिदेकमेव पुरुषमवलोकयन्नानेक इत्यवैति, मिथ्याज्ञानमन्यथा स्यादेकत्रानेकबुद्धिर्यदि भवेत् तथा नगर-वन-स्कन्धावारावगाहिनोऽपि तस्येकप्रत्ययः स्यात् सार्वकालिकः। अतश्चानेकार्थग्राहिविज्ञानस्यात्यन्तासम्भवान्नगर-वन-स्कन्धावारप्रत्ययनिवृत्तिः, नैताः संज्ञा ोकार्थनिवेशिन्यः। तस्माल्लोकसंव्यवहारानिवृतिः। त. रा. १,१६, २. ध. अ. प.११६८, Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४५. व्यवहारस्योच्छित्तिप्रसंगात्', मध्यमा-प्रदेशिन्योयुगपदुपलंभाभावासजनात्तद्विषयदीर्घ-हस्वव्यवहारस्य आपेक्षिकस्य विनिवृत्तिप्रसंगात्, एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने स्थाणौ पुरुषे वा प्रत्यय इति उभयसंस्पर्शित्वाभावतः तन्निबन्धनसंशयस्याभावप्रसंगाच्च । किं च, पूर्णकलशमालिखतश्चित्रकर्मणि निष्णातस्य चैत्रस्य क्रिया कलशविषयविज्ञानभेदाभावात्तदनिष्पत्तिः स्यात् । सम्भावना है ही। ) प्रथम पक्ष भी नहीं बनता है, क्योंकि, पूर्व ज्ञानके नष्ट होनेपर उत्तर ज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा स्वीकार करनेपर — यह इससे अन्य है' इस व्यवहारके नष्ट होनेका प्रसंग आवेगा, मध्यमा ओर प्रदेशिनी (तर्जनी ) इन दोनों अंगुलियोंका एक साथ शान न हो सकनेका प्रसंग आनेसे उनके विषय में अपेक्षाकृत दीर्घता व ह्रस्वताके व्यवहारके भी लोप होनेका प्रसंग आवेगा, तथा ज्ञानके एकार्थविषयवर्ती होनेपर या तो स्थाणुः विषयक प्रत्यय होगा या पुरुषविषयक; इन दोनोंको विषय न कर सकनेसे उनके निमित्तसे होनेवाले सशंयके भी अभावका प्रसंग आवेगा । दूसरे, पूर्ण कलशको चित्रित करनेवाले तथा चित्र क्रियामें दक्ष चैत्रके क्रिया व कलश विषयक विज्ञानका भेद न होनेसे १ नानात्वप्रत्ययाभावात् । यस्यैकार्थमेव नियमाज्ञानम् , तस्य पूर्वज्ञाननिवृत्तावृत्तरज्ञानोपतिः स्यादनिवती वा? उभयथा च दोषः- यदि पूर्वमुचरज्ञानोत्पत्तिकालेऽस्ति, यदुत्तम् 'एकार्थमेकमनस्त्वात्' इलदो विरंध्यते-यथैकं मनोऽनेकप्रत्ययारम्भकं तथैकप्रत्ययोऽनेकार्थो भविष्यति, अनेकस्य प्रत्ययस्यैककालसम्भवात् । न त्वनेकार्थोपलब्धिरुपपत्स्यते, तत्र यदभिमतमेव 'एकस्य ज्ञानमेकं चार्थमुपलभते' इत्यमुप्य व्याघातः। अभ पुनर्निवृत्तेः [ निवृत्ते] पूर्वस्मिन्नुत्तरज्ञानोत्पत्तिः प्रतिज्ञायते, ननु सर्वथैकार्थमेकमेव ज्ञानमित्यत इदमरमादन्यदित्येष व्यवहारो न स्यात् । अस्ति च सः । तस्मान किंचिदेतत् । त. रा. १, १६, ३.ध. अ.प. ११६८. २ प्रतिषु भावासंजननात् ' इति पाठः । अप्रती ११६८ पत्रे 'युगपदुपलंभाभावातद्विषय' इति पाठः । ३ आपेक्षिकसंव्यवहारनिवृत्तेः । यस्यै कज्ञानमनेकार्थविषयं न विद्यते, तस्य मध्यम-प्रदेशिन्योर्युगपदनुपलम्भातद्विषयदीर्घ-हस्वव्यवहारो विनिवर्तेत । आपेक्षिको ह्यसौ । न वा [ चा ] पेक्षास्ति । त. रा १, १६, ४. ४ संशयाभावप्रसंगात् । एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने स्थाणौ पुरुष वा प्राक्प्रत्ययजन्म स्यात् , नोभयोः, प्रतिज्ञातविरोधात् । यदि स्थाणी पुरुषाभावात्स्थाणुबंध्यापुत्रवत्संशयाभावः स्यात् , अथ पुरुष तथा स्थाणद्रव्यानपेक्षत्वात्संशयो न स्यात; तत्पूर्ववत । न त्वभाव इष्टः । अतोऽनेकार्थग्राहि विज्ञान कल्पना श्रेयसीति । त. रा. १, १६, ५. ५ ईप्सितनिष्पत्तिरनियमात् । विज्ञानस्यैकार्थावलम्बित्वे चित्रकर्मणि निष्णातस्य चैत्रस्य पूर्णकलशमालिखतस्तक्रिया-कलश-तत्यकारग्रहणविज्ञानभेदादितरेतरविषयसंक्रमाभावादनेकविज्ञानोत्पादनिरोधक्रमे सत्यनियमेन निष्पत्तिः स्यात् । द्रष्टा तु सा नियमेन । सा चैकार्थमाहिणि विक्षाने विरुध्यते । तस्मान्नानार्थोऽपि प्रत्पयोऽभ्युपेयः । व. रा. १, १६, .. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [१५१ नासौ यौगपद्येन द्वि-त्रादिविज्ञानाभावे उत्पद्यते, विरोधात् । प्रतिद्रव्यभिन्नानां प्रत्ययानां कथमेकत्वमिति चेन्नाक्रमेणैकजीवद्रव्यवर्तिनां परिच्छेद्यभेदेन बहुत्वमादधानानामेकत्वविरोधात् । ___ एकाभिधान-व्यवहारनिबन्धन. प्रत्यय एकः । विधग्रहणं प्रकारार्थम्', बहुविधं बहुप्रकारमित्यर्थः । जातिगतभूयःसंख्याविषयः प्रत्ययो बहुविधः । गो-मनुष्य-हय-हस्त्यादिजातिगताक्रमप्रत्ययश्चक्षुर्जः। श्रोत्रजस्तत-वितत-धन-सुषिरादिजातिविषयोऽक्रमप्रत्ययः। प्राणजः कर्पूरागुरु-तुरुष्क-चन्दनादिगन्धगताक्रमवृत्तिः प्रत्ययः । रसनजस्तिक्त-कषायाम्ल-मधुर-लवणरसेष्वक्रमवृत्तिः प्रत्ययः । स्पर्शजः स्निग्ध-मृदु-कठिनोष्म-गुरु-लघु-शीतादिस्पर्शष्वक्रमवृत्तिः प्रत्ययश्च उसकी उत्पत्ति न हो सकेगी, कारण कि वह युगपत् दो तीन शानोंके विना उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि, वैसा होने में विरोध है। शंका-प्रत्येक द्रव्यमें भेदको प्राप्त हुए प्रत्ययोंके एकता कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, युगपत् एक जीव द्रव्यमें रहनेवाले और शेय पदार्थोके भेदसे प्रचुरताको प्राप्त हए प्रत्ययोंकी एकतामें कोई विरोध नहीं है। एक शब्दके व्यवहारका कारणभूत प्रत्यय एक प्रत्यय है। विधका ग्रहण भेद प्रकट करनेके लिये है, अतः बहुविधका अर्थ बहुत प्रकार है । जातिमें रहनेवाली बहुसंख्याको अर्थात् अनेक जातियोंको विषय करनेवाला प्रत्यय बहुविध कहलाता है। गाय, मनुष्य, घोड़ा और हाथी आदि जातियों में रहनेवाला अक्रम प्रत्यय चक्षुर्जन्य बहुविध प्रत्यय है। तत, वितत, घन और सुषिर आदि शब्दजातियोंको विषय करनेवाला अक्रम प्रत्यय श्रोत्रज बहुविध प्रत्यय है। कपूर, अगुरु, तुरुष्क (सुगन्धि द्रव्य विशेष) और चन्दन आदि सुगन्ध दव्यों में रहनेवाल योगपद्य प्रत्यय घ्राणज बहुविध प्रत्यय है । तिक्त, कषाय, आम्ल, मधुर और लवण रसोंमें एक साथ रहनेवाला प्रत्यय रसनज बहुविध प्रत्यय है । स्निग्ध, मृदु, कठिन, ऊष्म, गुरु,लघु और १ द्वि-व्यादिप्रत्ययाभावाच्च । एकार्थविषयवर्तिनि विज्ञाने द्वाविमौ इमे त्रय इत्यादिप्रत्यस्यामावः । यतो नैक विज्ञानं द्विध्याद्यर्थानां ग्राहकमस्ति । त. रा. १, १६, ७. २ अल्पश्रोत्रन्द्रियावरणक्षयोपशम आत्मा ततशब्दादीनामन्यतममल्पं शब्दमत्रगृह्णाति । त. रा. १, १६, १५. एकार्थविषयः प्रत्यय एकः । ध अ. प. ११६९. यदा तु वेकमेव कश्चिच्छब्दमवगृह्णाति तदाऽअबह्वग्रहः । नं. सू. (म. वृत्ति) ३६. ३ विधशब्दः प्रकारवाची । स. सि. १, १६. त. रा. १, १६, ७. ४ ध. अ. प. ११६९. पृकृष्ट श्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिसनिधाने सति ततादिशब्दविकल्पस्य प्रत्येकमेकद्वि-त्रि-चतुः-संख्येयासंख्येयानन्तगुणस्याग्राहकत्वाद् बहुविधमवगृह्णाति । त रा. १, १६, १५. शंख-प्रटहादिनानाशब्दसमूहमध्ये एकै शब्दमनेकैः पर्यायः स्निग्ध-गाम्भीर्यादिभिविशिष्टं यथावस्थितं यदाऽवग्रहाति तदा स बहुविधावग्रहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) ३६, Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ ] छक्खंडागमे बयणाखंडं [ ४, १, ४५. बहुविधः । न चायमसिद्ध;, उपलभ्यमानत्वात् । न चोपलंभोऽपहातुं पार्यते, अव्यवस्थापत्तेः, जातिविषयबहुप्रत्ययनिवन्धनबहुवचनव्यवहाराभावापत्तेश्च । एकजातिविषयत्वादेतत्प्रतिपक्षः प्रत्ययः एकविधः । न चैकप्रत्ययेऽस्यान्तर्भावस्तस्य व्यक्तिगतैकत्ववर्तित्वात् , एतस्य चानेकव्यक्त्यनुविद्वैकजातिवर्तित्वात् । क्षिप्रवृत्तिः प्रत्ययः क्षिप्रः । अभिनवशरावगतोदकवत् शनैः परिच्छंदानः अक्षिप्रप्रत्यय:। वस्वेकदेशमवलम्व्य साकल्येन वस्तुग्रहणं वस्त्वेकदेशं समस्तं वा अवलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वंतरविषयोऽप्यनिःसृतप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, घटावाग्भागमवलम्ब्य क्वचिद्घटप्रत्ययस्य उत्पत्त्युपलंभात् , शीत आदि स्पर्शीमें एक साथ रहनेवाला स्पर्शज बहुविध प्रत्यय है। यह प्रत्यय आसिद्ध नहीं है, क्योंकि, वह पाया जाता है । और जिसकी प्राप्ति है उसका अपह्नव नहीं किया जा सकता, क्योंकि, ऐसा करने में अव्यवस्थाकी आपत्तिके साथ जातिविषयक बहुप्रत्ययके निमित्तसे होनेवाले बहुवचनके भी व्यवहारके अभावकी आपत्ति आवेगी । एक जातिको विषय करने के कारण इसके प्रतिपक्षभूत प्रत्ययको एकविध कहते हैं। इसका अन्तर्भाव एक प्रत्ययमें नहीं हो सकता, क्योंकि, वह (एकप्रत्यय) व्याक्तिगत एकतामें सम्बद्ध रहनेवाला है और यह अनेक व्यक्तियों में सम्बद्ध एक जातिमें रहनेवाला है। क्षिप्रवृत्ति अर्थात् शीघ्रतासे वस्तुको ग्रहण करनेवाला प्रत्यय क्षिप्र कहा जाता है। नवीन सकोरमें रहनेवाले जलके समान धीरे वस्तुको ग्रहण करनेवाला अक्षिप्र प्रत्यय है। वस्तुके एक देशका अवलम्बन करके पूर्ण रूपसे वस्तुको ग्रहण करनेवाला तथा वस्तुके एक देश अथवा समस्त वस्तुका अवलम्बन करके वहां अविद्यमान अन्य वस्तुको विषय करनेवाला भी अनिःसृत प्रत्यय है। यह प्रत्यय असिद्ध नहीं है, क्योंकि, घटके अर्वाग्भागका अवलम्बन करके कहीं घटप्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहीं पर 'गायके समान गवय होता है। १ एकजातिविषयः प्रत्ययः एकविधः । न चैकविधैकप्रत्ययोरेकत्वम् , जाति-व्यक्तयोरेकत्वाभावतस्तद्विषयप्रत्यययोरेकत्वाभावात् । च. अ. प. ११६९. अल्पविशुद्धि श्रोन्द्रियादिपरिणामकारण आत्मा ततादिशब्दानामेकविधावग्रहणादेकविधमवगृह्णाति । त. रा. १, १६, १५. यदा वेकमनकं वा शब्दमेकपयर्यायविशिष्टमवगृहाति तदा सोबहुविधावग्रहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) ३६. २ आश्वर्थग्राही क्षिप्रप्रत्ययः । ध. अ. प. ११६९. ३ ध. अ. प. ११६९. ४ वस्त्वेकदेशस्य आलन्बनीभूतस्य ग्रहणकाले एकवस्तुप्रतिपत्ति: वस्त्वेकदेशप्रतिपतिकालएव वा दृष्टान्तमुखेन अन्यथा वा अनवलम्बितवस्तुप्रतिपति: अनुसंधानः प्रत्ययः प्रत्यभिज्ञापत्ययश्च अनिःसृतप्रत्ययः। ध.अ. प. ११६९. मुविशुद्धिश्रोत्रादिपरिणामात्साकश्येनानुच्चारितस्य ग्रहणादनिःसृतमवगृह्णाति । निसृतं प्रतीतम् । त. रा १, १६, १५ तमेव शब्दं स्वरूपेण यदा जानाति, न लिंगपरिम्रहात् , तदाऽनिश्रितावग्रहः । लिंगपरिग्रहेण त्ववगच्छतो निश्रितावग्रहः । अथवा परधविमिश्रितं यद्ग्रहणं तन्मिश्रितावग्रहः । यत्पुनः परधर्मेरमिश्रितस्य गहण तदमिश्रितावग्रहः । नं. सू. (म वृत्ति) ३६. Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा क्वचिदग्भिागैकदेशमवलम्ब्य तदुत्पत्त्युपलंभात् , क्वचिद् गौरिव गवय इत्यन्यथा वा एकवस्त्ववलम्ब्य तत्रासन्निहितवस्त्वंतरविषयप्रत्ययोत्पत्युपलंभात् , क्वचिदर्वाग्भागग्रहणकाल एव परभागग्रहणोपलंभात् । न चायमसिद्धः, वस्तुविषयप्रत्ययोत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः । न चार्वाग्भागमात्रं वस्तु, तत एव अर्थक्रियाकर्तृत्वानुपलंभात् । क्वचिदेकवर्णश्रवणकाल एव अभिधास्यमानवर्णविषयप्रत्ययोत्पत्त्युपलंभात् , क्वचित्स्वभ्यस्तप्रदेशे एकस्पर्शोपलंभकाल एव स्पर्शान्तरविशिष्टतद्वस्तुप्रदेशांतरोपलंभात् , क्वचिदेकरसग्रहणकाल एव तत्प्रदेशासन्निहितरसांतरविशिष्टवस्तूपलंभात् । निःसृतमित्यपरे पठन्ति । तैरुपमाप्रत्यय एक एव संगृहीतः स्यात् , ततोऽसौ नेष्यते'। एतत्प्रतिपक्षो निःसृतप्रत्ययः, तथा क्वचित्कदाचिदुपलभ्यते च वस्त्वेकदेशे आलम्बनीभूते प्रत्ययस्य वृत्तिः। इन्द्रियप्रतिनियतगुणविशिष्टवस्तूपलंभकाल एव तदिन्द्रियानियतगुणविशिष्टस्य ......................................... अर्वाग्भागके एकदेशका अवलम्बन करके उक्त प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर 'गायके समान गवय होता है' इस प्रकार अथवा अन्य प्रकारसे एक वस्तुका अवलम्बन करके वहां समीपमें न रहनेवाली अन्य वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर अर्वाग्भागके ग्रहणकालमें ही परभागका ग्रहण पाया जाता है। और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, अन्यथा वस्तुविषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति बन नहीं सकती। तथा अर्वाग्भाग मात्र वस्तु हो नहीं सकती, क्योंकि, उतने मात्रसे अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता। कहींपर एक वर्णके श्रवणकालमें ही आगे उच्चारण किये जानेवाले वर्णोको विषय करनेवाले प्रत्ययकी उत्पत्ति पायी जाती है, कहींपर अपने अभ्यस्त प्रदेशमें एक स्पर्शके ग्रहणकालमें ही अन्य स्पर्श विशिष्ट उस वस्तुके प्रदेशान्तरोंका ग्रहण होता है, तथा कहींपर एक रसके ग्रहणकालमें ही उन प्रदेशोंमें नहीं रहनेवाले रसान्तरसे विशिष्ट वस्तुका ग्रहण होता है। दूसरे आचार्य • नि:सृत' ऐसा पढ़ते हैं । उनके द्वारा उपमा प्रत्यय एक ही संग्रहीत होगा, अतः यह इष्ट नहीं है । इसका प्रतिपक्षभूत निःसृतप्रत्यय है, क्योंकि, कहींपर किसी कालमें आलम्बनीभूत वस्तुके एक देशमें उतने ही ज्ञानका अस्तित्व पाया जाता है। इन्द्रियके प्रतिनियत गुणसे विशिष्ट वस्तुके ग्रहणकालमें ही उस इन्द्रियके अप्रति १ निःसृतमित्यपरे पठति ...ध. अ. प. ११६९. अपरेषां क्षिप्रनिःसृत इति पाठः। त एवं वर्णयन्तिओन्द्रियेण शब्दमवगृह्यमाणं मयूरस्य कुररस्य वेति कश्चित् प्रतिपद्यते । अपरः स्वरूपमेवानिःसृत इति । स. सि. १, १६. क. क. २०. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. तस्योपलब्धिर्यतः सोऽनुक्तप्रत्ययः । न चायमसिद्धः, चक्षुषा लवण-शर्करा-खंडोपलंभकाल एव कदाचित्तद्रसोपलंभात् , दध्नो' गंधग्रहणकाल एव तद्रसावगतेः, प्रदीपस्य रूपग्रहणकाल एव कदाचित्तत्स्पर्शीपलंभादाहितसंस्कारस्य कस्यचिच्छब्दग्रहणकाल एव तद्रसादिप्रत्ययात्पत्त्युपलंभाच्च । एतत्प्रतिपक्षः उक्तप्रत्ययः । निःसृतोक्तयोः को भेदश्चेन्न, उक्तस्य निःसृतानिःसृतोभयरूपस्य तेनैकत्वविरोधात्' । स एवायमहमेव स इति प्रत्ययो ध्रुवः । तत्प्रतिपक्षः प्रत्ययः अध्रुवः । मनसोऽनुक्तस्य को नियत गुणसे विशिष्ट उस वस्तुका ग्रहण जिससे होता है वह अनुक्तप्रत्यय है। यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि, चक्षुसे लवण, शक्कर व खांडके ग्रहणकालमें ही कभी उनके रसका शान हो जाता है, दहीके गन्धके ग्रहणकालमें ही उसके रसका ज्ञान हो जाता है, दीपकके रूपके ग्रहणकालमें ही कभी उसके स्पर्शका ग्रहण हो जाता है, तथा शब्दके ग्रहणकालमें ही संस्कार युक्त किसी पुरुषके उसके रसादिविषयक प्रत्ययकी उत्पत्ति भी पायी जाती है। इसके प्रतिपक्ष रूप उक्तप्रत्यय है। शंका-निःसृत और उक्त में क्या भेद है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, उक्त प्रत्यय निःसृत और अनिःसृत दोनों रूप है । अतः उसका निःसृतके साथ एकत्व होनेका विरोध है । 'यह वही है, वह मैं ही हूं' इस प्रकारका प्रत्यय ध्रुव कहलाता है। इसका प्रतिपक्षभूत प्रत्यय अध्रुव है। शंका-मनसे अनुक्तका क्या विषय है ? १ध. अ. प. ११६९. प्रकृष्टविशुद्धि श्रोत्रेन्द्रियादिपरिणामकारणादेकवर्णनिर्गमेऽपि अभिप्रायेणैवानुच्चारित शब्दमवग्रह्णाति ‘इमं भवान् शब्दं वक्ष्यति' इति । अथवा, स्वरसंचरणात् प्राक् तन्त्रीद्रव्यातोद्याद्यामर्शनेनैव वादितमनुक्तमेव शब्दमभिप्रायेणावगृह्याऽऽचष्टे भवानिमं शब्दं वादयिष्यतीति । त. रा. १, १६, १५. २ प्रतिषु ‘दना' इति पाठः। ३ध. अ. प. ११६९. तत्र तेन ' स्थाने ' निसृतेन ' इति पाठः । ४ नित्यत्वविशिष्टस्तम्भादिप्रत्ययः स्थिरः। ध. अ.प. ११६९. संक्लेशपरिणामनिरुत्सुकस्य (१) यथानुरूपश्रोत्रेन्द्रियावरणक्षयोपशमादिपरिणामकारणावस्थितत्वाद्यथा प्राथमिकं शब्दग्रहणं तथास्थितमेव शब्दमवगृह्णाति, नोनं नाभ्यधिकम् । त. रा. १, १६, १५. सर्वदैव बह्वादिरूपेणावगृह्नतो ध्रुवावग्रहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) ३६. ५ विद्युत्प्रदीपज्वालादौ उत्पाद-विनाशविशिष्टवस्तुप्रत्ययः अध्रुवः, उत्पाद-व्यय ध्रौव्यविशिष्टवस्तुप्रत्ययोऽपि अध्रुवः; ध्रुवात्पृथग्भूतत्वात् । ध. अ. प. ११३९. पौनःपुन्येन संक्लेश विशुद्धिपरिणामकारणापेक्षस्यात्मनो यथानुरूपपरिणामोपात्तश्रोत्रेन्द्रियसान्निध्येऽपि तदावरणस्येषदीषदाविर्भावात् । पौनःपुनिकं प्रकृष्टावकृष्ट श्रोन्द्रियावरणादिक्षयोपशमपरिणामत्वाच्चाध्रुवमवगृह्णाति । त. रा. १,१६, १५. कदाचिदेव पुनर्बहादिरूपेणावगृह्नतोऽध्रुवावग्रहः । नं. सू. (म. वृत्ति) ३६. Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [१५५ विषयश्चेददृष्टमश्रुतं च । न च तस्य तत्र वृत्तिरसिद्धा, उपदेशमंतरेण द्वादशांगश्रुतावगमान्यथानुपपत्तितस्तस्य तत्सिद्धेः । इदानीमुच्चार्य प्रदर्श्यन्ते । तद्यथा- चक्षुषा बहुमवगृह्णाति, चक्षुषा एकमवगृह्णाति, चक्षुषा बहुविधमवगृह्णाति, चक्षुषा एकविधमवगृह्णाति, चक्षुषा क्षिप्रमवगृह्णाति, चक्षुषा अक्षिप्रमवगृह्णाति, चक्षुषा अनिसृतमवगृह्णाति, चक्षुषा निःसृतमवगृह्णाति, चक्षुषा अनुक्तमवगृह्णाति, चक्षुषा उक्तमवगृह्णाति, चक्षुषा ध्रुवमवगृह्णाति, चक्षुषा अध्रुवमवगृह्णाति । एवं चक्षुरिन्द्रियावग्रहो द्वादशविधः। ईहावायधारणाश्च प्रत्येकं चक्षुषो द्वादशविधा भवन्ति । तद्यथा-- बहुमीहते, एकमीहते, बहुविधमीहते, एकविधमीहते, क्षिप्रमीहते, अक्षिप्रमीहते, निःसृतमीहते, अनिःसृतमीहते, उक्तमीहते, अनुक्तमीहते, ध्रुवमीहते, अध्रुवमीहते । एवमीहाभेदाः। बहुमवैति, एकमवैति, बहुविधमवैति, एकविधमवैति, क्षिप्रमवैति, अक्षिप्रमवैति, समाधान-अदृष्ट और अश्रुत पदार्थ उसका विषय है । और उसका वहां रहना असिद्ध नहीं है, क्योंकि, उपदेशके विना अन्यथा द्वादशांग श्रुतका ज्ञान नहीं बन सकता; अतएव उसका अदृष्ट व अश्रुत पदार्थमें रहना सिद्ध है। __ अब ये भेद उच्चारण करके दिखलाये जाते हैं। वह इस प्रकारसे-चक्षुसे बहुतका अवग्रह करता है, चक्षुसे एकका अवग्रह करता है, चक्षुसे बहुत प्रकारका अवग्रह करता से एक प्रकारका अवग्रह करता है, चक्षुसे क्षिप्रका अवग्रह करता है, चक्षसे अक्षिप्रका अवग्रह करता है, चक्षुसे अनिःसृतका अवग्रह करता है, चक्षुसे निःसृतका अवग्रह करता है, चक्षुसे अनुक्तका अवग्रह करता है, चक्षुसे उक्तका अवग्रह करता है, चक्षुसे ध्रुवका अवग्रह करता है, चक्षुसे अध्रुवका अवग्रह करता है। इस प्रकार चक्षुरिन्द्रियावग्रह बारह प्रकार है। ईहा, अवाय और धारणा इनमेंसे प्रत्येक चक्षुके निमित्तसे बारह प्रकार है । वह इस प्रकारसे-बहुतका ईहा करता है, एकका ईहा करता है, बहुविधका ईहा करता है, एकविधका ईहा करता है, क्षिप्रका ईहा करता है, अक्षिप्रका ईहा करता है, निःसृतका ईहा करता है, अनिःसृतका ईहा करता है, उक्तका ईहा करता है, अनुक्तका ईहा करता है, ध्रुवका ईहा करता है, अध्रुवका ईहा करता है । इस प्रकार ये ईहाके भेद है । बहुतका अवाय करता है, एकका अवाय करता है, बहुविधका अवाय करता है, एकविधका अवाय करता, क्षिप्रका अवाय करता है, अक्षिप्रका अवाय २. अ. प. ११६९. तत्र · अश्रुतम् ' इत्येतस्याने ' अननुभूतम् ' इत्यधिकं पदम् । २ प्रतिषु ईहावायाधारणाश्र' इति पाठः। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. निःसृतमवैति, अनिःसृतमवैति, उक्तमवैति, अनुक्तमवैति, ध्रुवमवैति, अध्रुवमवैति । इति अवायभेदाः । बहुं धारयति, एकं धारयति, बहुविधं धारयति, एकविधं धारयति, क्षिप्रं धारयति, अक्षिप्रं धारयति, निःसृतं धारयति, अनिःसृतं धारयति, उक्तं धारयति, अनुक्तं धारयति, ध्रुवं धारयति, अध्रुवं धारयति । एवं चक्षुरिन्द्रियस्याष्टचत्वारिंशन्मतिज्ञानभेदाः । मनसोऽप्येतावंत एव, अनयोर्व्यजनावग्रहाभावात् । शेषेन्द्रियाणां प्रत्येकं षष्टिभंगाः, तेषां व्यंजनावग्रहस्य सत्वात् । त एते सर्वेऽप्येकध्यमुपनीताः त्रीणि शतानि षट्त्रिंशदधिकानि भवन्ति । कोऽवग्रहो व्यंजनावग्रहो वा ? अप्राप्तार्थग्रहणमथवग्रहः, प्राप्तार्थग्रहणं व्यंजनावग्रहः' । न स्पष्टास्पष्टग्रहणे अर्थ-व्यंजनावग्रहौ, तयोश्चक्षुर्मनसोरपि सत्वतस्तत्र व्यंजनावग्रहस्य करता है, निःसृतका अवाय करता है, अनिःसृतका अवाय करता है, उक्तका अवाय करता है, अनुक्तका अवाय करता है, ध्रुवका अवाय करता है, अध्रुवका अवाय करता है । इस प्रकार ये अवायके भेद हैं । बहुतको धारण करता है, एकको धारण करता है, बहुविधको धारण करता है, एकविधको धारण करता है, क्षिप्रको धारण करता है, अक्षिप्रको धारण करता है, निःसृतको धारण करता है, अनिःसृतको धारण करता है, उक्तको धारण करता है, अनुक्तको धारण करता है, ध्रुवको धारण करता है, अध्रुवको धारण करता है। इ प्रकार चक्षु इन्द्रियके निमित्त से अड़तालीस मतिज्ञानके भेद होते हैं । मनके निमित्त से भी इतने ही भेद होते हैं, क्योंकि, इन दोनोंके व्यञ्जनावग्रह नहीं होता । शेष चार इन्द्रियोंमें प्रत्येकके निमित्तसे साठ भंग होते हैं, क्योंकि, उनके व्यञ्जनावग्रह होता है । वे ये सब एकत्रित होकर तीन सौ छत्तीस ( ४८ + ४८+६०+६०+ ६० + ६० = ३३६ ) होते हैं । शंका - अर्थावग्रह और व्यञ्जनावग्रह किसे कहते हैं ? समाधान - अप्राप्त पदार्थके ग्रहणको अर्थावग्रह और प्राप्त पदार्थके ग्रहणको यञ्जनावग्रह कहते हैं । स्पष्टग्रहणको अर्थावग्रह और अस्पष्टग्रहणको व्यञ्जनावग्रह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, स्पष्टग्रहण और अस्पष्टग्रहण तो चक्षु और मनके भी रहता है, अतः ऐसा माननेपर १ ध. अ. पं. ११६८. तत्र अर्थ्यते इत्यर्थः, अर्थस्य अवग्रहणं अर्थावग्रहः - सकलरूपादिविशेषमिरपेक्षा निर्देश्यसामान्यमात्ररूपार्थग्रहण मेकसामयिकमित्यर्थः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) २८. २ ध. अ. प. ११६४. व्यञ्जनमव्यक्तां शब्दादिजातम्, तस्यावग्रहो भवति । स. सि. १, १८. व्यज्यते मनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम्, तच्चोपकरणेन्द्रियस्य श्रोत्रादेः शब्दादिपरिणतद्रव्याणां च परस्परं सम्बन्धः । सम्बन्धे हि सति सोऽर्थः शब्दादिरूपः श्रोत्रादीन्द्रियेण व्यञ्जयितुं शक्यते, नान्यथा । ततः सम्बन्धो व्यञ्जनम् । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणी [१५७ सत्वप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, 'न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् ' इति तत्र व्यंजनावग्रहस्य प्रतिषेधात् । न शनैर्ग्रहणं व्यंजनावग्रहः, चक्षुर्मनसोरपि तदस्तित्वतस्तयोयंजनावग्रहस्य सत्वप्रसंगात् । न च तत्र शनैर्ग्रहणमसिद्धमक्षिप्रभंगाभावे अष्टचत्वारिंशच्चक्षुर्मतिज्ञानभेदस्यासत्वप्रसंगात् । न श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टये अर्थावग्रहः, तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलंभादिति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तार्थग्रहणस्योपलंभात् । तदपि कुतोऽवगम्यते ? दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्तेः । उन दोनोंके भी व्यञ्जनावग्रहके अस्तित्वका प्रसंग आवेगा । परन्तु ऐसा हो नहीं सकता, क्योंकि, 'चक्षु और मनसे व्यञ्जन पदार्थका अवग्रह नहीं होता' इस प्रकार सूत्र द्वारा उन दोनोंके व्यजनावग्रहका प्रतिषेध किया गया है । यदि कहो कि धीरे धीरे जो ग्रहण होता है वह व्यजनावग्रह है, सो भी ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकारके ग्रहणका अस्तित्व चधु और मनके भी है, अतः उनके भी व्यञ्जनावग्रहके रहनेका प्रसंग आवेगा। और उन दोनोंमें शनैर्ग्रहण असिद्ध नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेसे अक्षिप्र भंगका अभाव होनेपर चधुनिमित्तक अड़तालीस मतिज्ञानके भेदोंके अभावका प्रसंग आवेगा। शंका-श्रोत्रादिक चार इन्द्रियों में अर्थावग्रह नहीं है, क्योंकि, उनमें प्राप्त ही पदार्थका ग्रहण पाया जाता है ? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, वनस्पतियों में अप्राप्त अर्थका ग्रहण पाया जाता है। शंका-वह भी कहांसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि, दूरस्थ निधि ( खाद्य आदि ) को लक्ष्य कर प्रारोह (शाखा) का छोड़ना अन्यथा बन नहीं सकता। तभा चाह भाष्यकृत-विजिज्जइ जेणऽत्थी घडो व दीवेण वंजणं तं च । उवगरणिदियसदाइपरिणयबव्वसंबंधो' । [वि. भा. १९४] । व्यन्जनेन-सम्बन्धेनावग्रहणम्- सम्बध्यमानस्य शब्दादिरूपस्यार्थस्याव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यञ्जनावग्रहः । अथवा, व्यज्यन्ते इति व्यञ्जमानि, 'कृद् बहुलम्' इति वचनात् कर्मण्यन , व्यञ्जनानां शब्दादिरूपतया परिणतानां द्रव्याणामुपकरणेन्द्रियसम्प्राप्तानामवग्रहः- अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यग्जनावग्रहः । व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनम्- उपकरणेन्द्रियम् , तेन सम्बद्धस्यार्थस्य- शब्दादेरवग्रहणम्-अव्यक्तरूपः परिच्छेदो व्यम्जनावग्रहः। इयमत्र भावना- उपकरणेन्द्रियशब्दादिपरिणतद्रव्यसम्बन्धे प्रथमसमयादारभ्यार्थावग्रहात् प्राक् या सुप्त-मत्त-मूछितादिपुरुषाणामिव शब्दादिद्रव्यसम्बन्धमात्रविषया काचिदव्यक्ता ज्ञानमात्रा सा व्यञ्जनावमहः । नं. सू. ( म. वृत्ति ) २८. [ मन- ] वा व्यतिरिक्तेष्विन्द्रियेप्वप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यते इति चेन्न, धवस्याप्राप्तनिधिप्राहिण उपलम्मात् अलावूबल्यादीनामप्राप्तवृत्तिवृक्षादिग्रहणोपलम्भात् । ध. अ. प. ११६४. Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, १५. (चत्तारि धणुसयाई चउसट्ठ सयं च तह य धणुहाणं । पासे रसे य गंधे दुगुणा दुगुणा असण्णि त्ति ॥ ४८ ॥ उणतीसजोयणसया चउवण्णा तह य होंति णायव्वा । चउरिदियस्स णियमा चक्खुप्फासो सुणियमेण ॥ ४९ ॥ उणसटिजोयणसया अट्ठ य तह जोयणा मुणेयत्वा । पंचिंदियसण्णीणं चक्खुप्पासो मुणेयवो ॥ ५० ॥ अट्टेव धणुसहस्सा विसओ सोदस्स तह असण्णिस्स । __ इय एदे णायव्वा पोग्गलपरिणामजोएण' ॥ ५१ ॥ पासे रसे य गंधे विसओ णव जोयणा मुणेयव्वा । बारह जोयण सोदे चक्खुस्सुडू पवक्खामि ॥ ५२ ॥ सत्तेतालसहस्सा बे चेव सया हवंति तेवढा । चक्खिदियस्स विसओ उक्कस्सो होदि अदिरित्तो ॥ ५३॥) चार सौ धनुष, चौंसठ धनुष तथा सौ धनुष प्रमाण कमसे एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय जीवोंका स्पर्श, रस एवं गन्ध विषयक क्षेत्र है। आगे असंज्ञी पर्यन्त यह विषयक्षेत्र दूना दूना होता गया है ॥ ४८ ।। ____चतुरिन्द्रिय जीवके चक्षु इन्द्रियका विषय नियमसे उनतीस सौ चौवन योजन प्रमाण है ॥४९॥ पंचेन्द्रिय संज्ञी जीवोंके चक्षु इन्द्रियका विषय उनसठ सौ आठ योजन प्रमाण जानना चाहिये ॥५०॥ __ असंही पंचेन्द्रिय जीवके श्रोत्रका विषय आठ हजार धनुष प्रमाण है। इस प्रकार पुद्गलपरिणाम योगसे ये विषय जानना चाहिये ॥ ५१ ॥ संझी पंचेन्द्रिय जीवोंके स्पर्श, रस वगन्ध विषयक क्षेत्र नौ योजन प्रमाण तथा भ्रोत्रका बारह योजन प्रमाण जानना चाहिये । चक्षुके विषयको आगे कहते हैं ॥ ५२ ॥ चक्षु इन्द्रियका उत्कृष्ट विषय सैंतालीस हजार दो सौ तिरेसठ योजनसे कुछ अधिक [*] है ॥ ५३ ॥ १ प्रतिषु मुणियणेण' इति पाठः । २ धणुवीसडदसयकदी जोयणकादालहीणतिसहस्सा | अट्ठसहस्स धणूणं विसया दुगुणा असणि ति॥ गो. जी. १६७. ३ सणिस्स बार सोदे तिण्हे णव जोयणाणि चखुस्स । सत्तेताल सहस्सा बेसदतेसद्विमदिरेया ॥ गो.जी.. १६८. भ. भ. प. ११६७. Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [१५९ इति आगमाद्वा तेषामप्राप्तार्थग्रहणमवगम्यते। नवयोजनान्तरस्थितपुद्गलद्रव्यस्कंधैकदेशमागम्येन्द्रियसंबद्धं जानन्तीति केचिदाचक्षते । तन्न घटते, अध्वानप्ररूपणायाः वैफल्यप्रसंगात्। न चाध्वानं द्रव्याल्पीयस्त्वस्य कारणम् , स्वमहत्वापरित्यागेन भूयो योजनानि संचरज्जीमूतव्रातोपलंभतोऽनेकांतात् । किं च यदि प्राप्तार्थग्राहिण्येवेन्द्रियाण्यध्वाननिरूपणमंतरेण द्रव्यप्रमाणप्ररूपणमेवाकरिष्यत् । न चैवम् , तथानुपलंभात् । किं च नवयोजनांतरस्थिताग्नि-विषाभ्यांतीव्रस्पर्श-रसक्षयोपशमानां दाह-मरणे स्याताम् , प्राप्तार्थग्रहणात् । तावन्मात्राध्वानस्थिताशुचिभक्षणतद्गन्धजनितदुःखे च तत एव स्याताम् । ( पुढे सुणेइ सदं अप्पुढे चेय पस्सदे रूवं । गंधं रसं च फासं बद्धं पुटुं च जाणादि ॥ ५५ ॥ ) इत्यस्मात्सूत्रात्प्राप्तार्थग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणा इस आगमसे भी उक्त चार इन्द्रियोंके अप्राप्त पदार्थका ग्रहण जाना जाता है। नौ योजनके अन्तरसे स्थित पुद्गल द्रव्य स्कन्धके एक देशको प्राप्त कर इन्द्रियसम्बद्ध अर्थको जानते हैं, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अध्वानप्ररूपणाके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। और अध्वान द्रव्यकी सूक्ष्मताका कारण नहीं है, क्योंकि, अपने महान् परिमाणको न छोड़कर बहुत योजनों तक गमन करते हुए मेघसमूहके देखे जानेसे हेतु अनैकान्तिक होता है। दूसरे, यदि इन्द्रियां प्राप्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली ही होती तो अध्वानका निरूपण न करके द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा ही की जाती। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता । इसके अतिरिक्त नौ योजनके अन्तरमें स्थित अग्नि और विषसे स्पर्श और रसके व क्षयोपशमसे यक्त जीवोंके क्रमशः दाह और मरण होना चाहिये, क्योंकि, इन्द्रियां प्राप्त पदार्थका ग्रहण करनेवाली हैं । और इसी कारण उतने मात्र अध्वानमें स्थित अशुचि पदार्थके भक्षण और उसके गन्धसे उत्पन्न दुख भी होना चाहिये । . शंका-श्रोत्रसे स्पृष्ट शब्दको सुनता है। परन्तु चक्षुसे रूपको अस्पृष्ट ही देखता है । शेष इन्द्रियोंसे गन्ध, रस और स्पर्शको बद्ध व स्पृष्ट जानता है ॥ ५४॥ इस सूत्रसे इन्द्रियोंके प्राप्त पदार्थका ग्रहण करना जाना जाता है ? समाधान -ऐसा नहीं है, क्योंकि, वैसा होनेपर अर्थावग्रहके लक्षणका अभाव १ स. सि. १, १९. त. रा १, १९, ३. तत्र ' बद्धं पुढे च' इत्येतस्य स्थाने 'पुढे पुढे ' इति पाठः । पुढे सुणेइ सई रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंध रसं च फासं च बद्धपुढे वियागरे । वि. भा. ३३६ (नि. ५). Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६.] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. भावतः खरविषाणस्येवामावप्रसंगात् । कथं पुनरस्या गाथाया अर्थो व्याख्यायते ? उच्यतेरूपमस्पृष्टमेव चक्षुर्गृह्णाति । चशब्दान्मनश्च । गंध रसं स्पर्श च बद्धं स्वक स्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुढं स्पृष्टं चशब्दादस्पृष्टं च शेषेन्द्रियाणि गृह्णन्ति । पुढे सुणेइ सई इत्यत्रापि बद्धच-शब्दौ योज्यौ, अन्यथा दुर्व्याख्यानतापत्तः । एवं मतिज्ञानं संक्षेण प्ररूपितम् । इदानीं श्रुतस्वरूपमुच्यते -श्रुतशब्दो जहत्स्वार्थवृत्तिः कुशलशब्दवत्' । यथा कुशलशब्दः कुशलवनकर्म प्रतीत्य व्युत्पादितः सर्वत्र पर्यवदाते वर्तते, तथा श्रुतशब्दोऽपि श्रवणमुपादाय व्युत्पादितो रूढिवशात्कस्मिंश्चिद्ज्ञानविशेषे वर्तते, न श्रवणोत्पन्नज्ञान एव । तदपि श्रुतज्ञानं होनेसे गधेके सींगके समान उसके अभावका प्रसंग आवेगा। शंका-फिर इस गाथाके अर्थका व्याख्यान कैसे किया जाता है ? समाधान-इस शंकाके उत्तरमें कहते हैं - चक्षु रूपको अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, च शब्दसे मन भी अस्पृष्ट ही वस्तुको ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियां गन्ध, रस और स्पर्शको बद्ध अर्थात् अपनी अपनी इन्द्रियों में नियमित व स्पृष्ट ग्रहण करती हैं, च शब्दसे अस्पृष्ट भी ग्रहण करती हैं। ‘स्पृष्ट शब्दको सुनता है ' यहां भी बद्ध और च शब्दोंको जोड़ना चाहिये, क्योंकि, ऐसा न करनेसे दूषित व्याख्यानकी आपत्ति आती है । इस प्रकार संक्षेपसे मतिज्ञामकी प्ररूपणा की है। अब श्रुत ज्ञानके स्वरूपको कहते हैं-श्रुत शब्द कुशल शब्दके समान जहत्स्वार्थवृत्ति (लक्षणाविशेष ) है । जैसे कुश काटने रूप क्रियाका आश्रय करके सिद्ध किया गया कुशल शब्द [उक्त अर्थको छोड़कर] सब जगह पर्यवदात' अर्थमें आता है, उसी प्रकार श्रुत शब्द भी श्रवण क्रियाको लेकर सिद्ध होता हुआ रूढिवशसे किसी ज्ञानविशेषमें रहता है, न कि केवल श्रवणसे उत्पन्न ज्ञानमें ही । वह भी श्रुतज्ञान मतिपूर्वक अर्थात् मतिज्ञानके १ पुट्ठ- आलिंगियं रेणुं व तणुंमि, शृणोति गृह्णात्युपलभत इति पर्यायाः । कम् ? शब्द्यतेऽनेनेति शब्दः तं, शब्दप्रायोग्यां द्रव्यसंहतिमित्यर्थः, तस्य बहुसूक्ष्मभावुकत्वात् । xxxx बद्धं- आत्मीकृतमात्मनदेशैस्तोयवदाश्लिष्टमिलथेः, 'पुढे'तु पूर्ववत् । प्राकृतशेल्या चत्थमाह 'बद्ध पुढे तु ' अथेतस्तु 'पुट्ठबद्ध' इति दृश्यम् अनुगुणत्वात् ।xxxx भावार्थस्त्वयम्-- स्पृष्टानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतं गन्धादि बादरत्वात् अभावुकत्वादल्पद्रव्य. रूपत्वात् घ्राणादीनां चापटुत्वात् , गृहाति विनिश्चिनोति घ्राणेन्द्रियादिगण इत्येवं 'व्यागुणीयात् ' प्रतिपादयदिति निर्यत्तिगाथासमुदयार्थः । वि. भा. (शि. वृत्ति) ३३६. २ त. रा. १, २०, १. Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगद्दारे मदिणाणपरूवणा [ १६१ 3 मतिपूर्वं, मतिकारणमिति यावत् कार्यं पालयति पूरयतीति वा पूर्वशब्दनिष्पत्तेः' । मतिपूर्वत्वाविशेषात् श्रुताविशेष इति चेन्न, मतिपूर्वत्वाविशेषेऽपि प्रतिपुरुषं हि श्रुतावरणक्षयोपशमाः बहुधा भिन्नाः, तद्भेदात् बाह्यनिमित्तभेदाच्च श्रुतस्य प्रकर्षाप्रकर्षयोगो भवेदिति । यदा शब्दपरिणतपुद्गलस्कन्धात् आहितवर्ण-पद-वाक्यादिभेदाच्च आद्यश्रुतविषयभावमापन्नादविनाभाविनः कृतसंगीतिर्जनो घटाज्जलधारणादिकार्यसम्बन्ध्यन्तरं प्रतिपद्यते अग्न्यादेव भस्मादिद्रव्यं तदा श्रुताच्छ्रुतप्रतिपत्तिरिति कृत्वा मतिपूर्वलक्षणमव्यापीति चेत्तन्न, व्यवहितेऽपि पूर्वशब्दप्रवृत्तेः । तद्यथा— पूर्व मथुरायाः पाटलिपुत्रमिति । ततः साक्षान्मतिपूर्वं परम्परामतिपूर्वमपि मतिपूर्वग्रहणेन गृह्यते । निमित्त से होनेवाला है, क्योंकि, ' कार्यको जो पालन करता है अथवा पूर्ण करता है यह पूर्व है' इस प्रकार पूर्व शब्द सिद्ध हुआ है । शंका - मतिपूर्वत्वकी समानता होनेसे श्रुतज्ञानमें कोई भेद नहीं होगा ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, मतिपूर्वत्व के समान होनेपर भी प्रत्येक पुरुषमें श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम बहुधा भिन्न होते हैं, अतः उनके भेद से और बाह्य निमित्तोंके भी भेद से श्रुतके हीनाधिकताका सम्बन्ध होता है । शंका- - जब वर्ण, पद एवं वाक्य आदि भेदोंको धारण करनेवाले तथा आद्य श्रुतविषयताको प्राप्त हुए अविनाभावी शब्दपरिणत पुद्गलस्कन्धसे संकेत युक्त पुरुष घटसे जलधारणादि कार्य रूप अन्य सम्बन्धीको अथवा अग्नि आदिसे भस्म आदिको जानता है तब श्रुतसे श्रुतका लाभ होता है, अतः श्रुतका मतिपूर्वत्व लक्षण अव्याप्ति दोष युक्त ( लक्ष्य के एक देशमें रहनेवाला ) है ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, व्यवधानके होनेपर भी पूर्व शब्दकी प्रवृत्ति होती है। जैसे मथुरा से पूर्व में पाटलिपुत्र है । इसलिये मतिपूर्व-ग्रहणसे साक्षात् मतिपूर्वक और परम्परा से मतिपूर्वक भी ग्रहण किया जाता है । १ त. रा. १, २०, २. मइपुत्रं सुयमुत्तं न मई सुयपुत्रिया विसेसोऽयं । पुत्रं पूरण- पालणभावाओ जं मई तस्स || पूरिज्जइ पालिज्जह दिज्जइ वा जं मइए णामइणा । पालिज्जइ य मईए गहियं इहरा पणस्सेज्जा ॥ वि. भा. १०५ -६. २ त. रा. १,२०, ९. ३ यदा शब्दपरिणत पद-वाक्यादिभावाच्चक्षुरादिविषयाच्चाऽद्यश्रुतविषयभावमापन्नादविनाभाविनः कृत संगतिर्जनो... धूमादेवीग्न्यादिद्रव्यं तदा ... लक्षणमव्यापीति तन, किं कारणम्, तस्योपचारतो मतित्वसिद्धेः । मतिपूर्वं हि श्रुतं क्वचिन्मतिरित्युपचर्यते । अथवा व्यवहिते पूर्वशब्दो वर्तते तद्यथा ........ । त. रा. १, २०, १०. छ. क. २१. Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १५. मतदपि द्विविधमंगमंगबाह्यमिति । अंगश्रुतमाचारादिभेदेन द्वादशविधम् , इतरश्च सामायिकादिभेदेन चतुर्दशविधम् , अथवा अनेकभेदम् ; चक्षुरादिभ्यः समुत्पन्नस्य परिगणनाभावात् । कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेशः ? नैष दोषः, कारणे कार्योपचारात् । ___ अथवा, अनुगम्यन्ते परिछिद्यन्त इति अनुगमाः षड्द्रव्याणि त्रिकोटिपरिणामात्मकपाषंड्यविषयाविभ्राड्भावरूपाणि प्राप्तजात्यन्तराणि प्रमाणविषयतया अपसारितदुर्नयानि सविश्वरूपानन्तपर्यायसप्रतिपक्षविधिनियतभंगात्मकसत्तास्वरूपाणीति प्रतिपत्तव्यम् । एवमणुगमपरूवणा कदा । संपहि णयसरूवपरूवणा कीरदे- को नयो नाम ? ज्ञातुरभिप्रायो नयः । वह श्रुतज्ञान दो प्रकार है - अंग और अंगबाह्य । अंगश्रुत आचार आदिके भेदसे बारह प्रकार और दूसरा सामायिक आदिके भेदसे चौदह प्रकार अथवा अनेक भेद रूप है, क्योंकि, चक्षु आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न उसकी गणनाका अभाव है । शंका-शब्द और उसकी स्थापनाकी श्रुत संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कारणमें कार्यका उपचार करनेसे शब्द या उसकी स्थापनाकी श्रुत संशा बन जाती है । ___ अथवा 'जो जाने जाते हैं वे अनुगम हैं ' इस निरुक्तिके अनुसार त्रिकोटि स्वरूप (द्रव्य, गुण व पर्याय) पाखण्डियोंके अविषयभूत अविभ्राड्भावसम्बन्ध अर्थात् कथंचित् तादात्यसे सहित, जात्यन्तर स्वरूपको प्राप्त, प्रमाणके विषय होनेसे दुर्नयोंको दूर करनेवाले, अपनी नानारूप अनन्त पर्यायोंकी प्रतिपक्ष भूत असत्तासे सहित और उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वरूपसे संयुक्त ऐसे छह द्रव्य अनुगम है,ऐसा जानना चाहिये । इस प्रकार अनुगमकी प्ररूपणा की है। अब नयोंके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैशंका-नय किसे कहते हैं ? समाधान–ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं। १ प्रतिषु ' -नियम ' इति पाठः। २ सत्ता सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया । भंगप्पादधुवा सप्पडिवरखा हवदि एक्का ।। पंचा. ८. ३ णाणं होदि पमाणं णओ वि णादुस्स हिदयभावत्थो। ति. प. १-८३. ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते । नयो ज्ञातुरभिप्रायः युक्तितोऽर्थपरिग्रहः । लघी. ६, २. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.! कदिअणियोगदारे णयपरूवणा [१६३ अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थः: ? प्रमाणपरिग्रहीताथै कदेशवस्त्वध्यवसायः अभिप्रायः । युक्तितः प्रमाणात् अ द्रव्य-पर्याययोरन्यतरस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नयः । प्रमाणेन परिछिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् । प्रमाणमेव नयः इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसंगात् । किं च न प्रमाणं नयः, तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नयः प्रमाणम् , तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्यनीरूपत्वतोऽवस्तुनः कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेवपरिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्तेः सांकर्यप्रसंगादप्रतिपत्तिसमानताप्रसंगो वा । न प्रतिषेधमात्रम् , विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् शंका-'अभिप्राय' इसका क्या अर्थ है ? समाधान-प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक देशमें वस्तुका निश्चय ही अभिप्राय है। युक्ति अर्थात् प्रमाणसे अर्थके ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायमेंसे किसी एकको अर्थ रूपसे ग्रहण करनेका नाम नय है । प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्य अथवा पर्यायमें वस्तुके निश्चय करनेको नय कहते हैं, यह इसका अभिप्राय है। प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर नयोंके अभावका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि नयोंका अभाव हो जाय, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा होनेपर देखे जानेवाले एकान्त व्यवहारके लोप होनेका प्रसंग आवेगा। दूसरे, प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि, उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि, उसका एकान्त विषय है । और ज्ञान एकान्तको विषय करनेवाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होनेसे अवस्तु स्वरूप है, अतः वह कर्म नहीं हो सकता। तथा नय अनेकान्तको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तुमें वस्तुका आरोप नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त, प्रमाण केवल विधिको ही नहीं जानता, क्योंकि, दूसरे पदार्थोंसे भेदको न ग्रहण करनेपर उसकी प्रवृत्तिके संकरताका प्रसंग अथवा समान रूपसे अज्ञानका प्रसंग आवेगा । वह प्रमाण प्रतिषेध मात्रको ग्रहण नहीं करता, क्योंकि, विधिको न जाननेपर वह ' यह इससे भिन्न है' ऐसा ग्रहण करनेके १ जयध. १, पृ. १९९६ २ किच, न नयः प्रमाणम् प्रमाणव्यपाश्रयस्य वस्त्वध्यवसायस्य तद्विरोधात् । 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः, विकलादेशो नयाधीनः' इति भिन्न कार्यदृष्ट्वा न नयः प्रमाणम् । जयध. १, पृ. २००. किन्च, न नयः प्रमाणम, एकान्तरूपत्वात , प्रमाणे चानेकान्तरूपसन्दशेनात् । जयध. १,पृ.२०७, For Plate & Personal Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ छवखंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४५. व्यावृत्तमिति गृहीतुमशक्यत्वात् । न च विधि-प्रतिषेधौ मिथो भिन्न प्रतिभासेते, उभयदोषानुषंगात् । ततो विधि-प्रतिषेधात्मकं वस्तु प्रमाणसमधिगम्यमिति नास्त्येकान्तविषय विज्ञानम् । न चानुमानमेकान्तविषयं येन तस्य नयत्वमुच्यते, तस्याप्युक्तन्यायतोऽनेकान्तविषयत्वात् । ततः प्रमाणं न नयः, किंतु प्रमाणपरिच्छिन्नवस्तुनः एकदेशे वस्तुत्वार्पणा नय इति सिद्धम् । प्रमाण-नयैर्वस्त्वधिगम इत्यनेन सूत्रेणापि नेदं व्याख्यानं विघटते । कुतः ? यतः प्रमाणनयाभ्यामुत्पन्नवाक्येऽप्युपचारतः' प्रमाण-नयौ, ताभ्यामुत्पन्न बोधौ विधि-प्रतिषेधात्मकवस्तुविषयत्वात् प्रमाणतामादधनावपि कार्ये कारणोपचारतः प्रमाग-नयावित्यस्मिन् सूत्रे परिगृहीतौ । नयवाक्यादुत्पन्नबोधः प्रमाणमेव न नय, इत्येतस्य ज्ञापनार्थ ताभ्यां वस्त्वधिगम इति भण्यते । अथवा प्रधानीकृतबोधः पुरुषः प्रमाणम् , अप्रधानीकृतबोधो नयः । वस्त्वधिगम एव क्रियते नावस्तुन इति प्रतिपत्तव्यमन्यथा नयस्य प्रमाणांतःप्रवेशतेोऽभावप्रसंगात् । लिये असमर्थ है । और प्रमाण विधि व प्रतिषेध दोनों परस्पर भिन्न भी नहीं प्रतिभासित होते, क्योंकि, ऐसा होनेपर पूर्वोक्त दोनों दोषोंका प्रसंग आता है। इस कारण विधि प्रतिषेध रूप वस्तु प्रमाणका विषय है, अतएव ज्ञान एकान्तको विषय करनेवाला नहीं है । __ अनुमान भी एकान्तको विषय नहीं करता जिससे कि उसे नय कहा जा सके, क्योंकि, वह भी उपर्युक्त न्यायसे अनेकान्तको विषय करनेवाला है । इसलिये प्रमाण नय नहीं है, किन्तु प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके एक देशमें वस्तुत्वकी विवक्षाका नाम नय है, यह सिद्ध हुआ। 'प्रमाण और नयसे वस्तुका ज्ञान होता है ' इस सूत्र द्वारा भी यह व्याख्यान विरुद्ध नहीं पड़ता। इसका कारण यह कि प्रमाण और नयसे उत्पन्न वाक्य भी उपचारसे प्रमाण और नय हैं, उन दोनोंसे उत्पन्न उभय बोध विधि-प्रतिषेधात्मक वस्तुको विषय करनेके कारण प्रमाणताको धारण करते हुए भी कार्यमें कारणका उपचार करनेसे प्रमाण य हैं, इस प्रकार सूत्र में ग्रहण किये गये है। नयवाक्यसे उत्पन्न बोध प्रमाण ही है, नय नहीं है; इस बातके ज्ञापनार्थ ' उन दोनोंसे वस्तुका ज्ञान होता है ऐसा कहा जाता है । अथवा, बोधको प्रधान करनेवाला पुरुष प्रमाण और उसे अप्रधान करनेवाला नय है। वस्तुका ही अधिगम किया जाता है, अवस्तुका नहीं, ऐसा जानना चाहिये; क्योंकि, इसके विना प्रमाणके भीतर प्रवेश होनेसे नयके अभावका प्रसंग आवेगा । १ प्रतिपु । वाक्ये न यावदप्युपचारतः' इति पाठः । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५. कादिणियोगदारे णयपरूवणा प्रमाणपरिगृहीतवस्तुनि यो व्यवहार एकान्तरूपः स नयनिबन्धनः । ततः सकलो व्यवहारो नयाधीनः । प्रमाणाधीनव्यवहारानुपलंभतस्तदस्तित्वे संशयानस्य प्रमाणनिबन्धनव्यवहारप्रदर्शनार्थ — सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः' इति प्रतिपादयता नानेनापीदं व्याख्यानं विघटते । कः सकलादेशः ? स्यादस्तीत्यादि । कुतः ? प्रमाणनिबन्धनत्वात् स्याच्छब्देन सूचिताशेषाप्रधानीभूतधर्मत्वात्। को विकलादेशः ? अस्तीत्यादिः । कुतः ? नयोत्पन्नत्वात् । तथा पूज्यपादभट्टारकैरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव । तद्यथा- प्रमाण प्रमाणसे गृहीत वस्तुमें जो एकान्त रूप व्यवहार होता है वह नयनिमित्तक है। इसीलिये समस्त व्यवहार नयके आधीन है । प्रमाणके आधीन व्यवहारके न पाये जानेसे उसके अस्तित्वमें संशय करनेवालेके लिये प्रमाणनिमित्तक व्यवहारके दिखलानेके लिये 'सकलादेश प्रमाणके आधीन है और विकलादेश नयके आधीन है' ऐसा कहा है। इससे भी यह व्याख्यान विघटित नहीं होता। शंका--सकलादेश किसे कहते हैं ? समाधान -' स्यादस्ति ' अर्थात् ' कथंचित् है' इत्यादि सात भंगोंका नाम सकलादेश है ; क्योंकि, प्रमाणनिमित्तक होनेसे इनके द्वारा ' स्यात् ' शब्दसे समस्त अप्रधानभूत धाँकी सूचना की जाती है । शंका-विकलादेश किसे कहते हैं ? समाधान - ' अस्ति' अर्थात् ' है ' इत्यादि सात वाक्योंका नाम विकलादेश है, क्योंकि, वे नयाँसे उत्पन्न है । तथा पूज्यपाद भट्टारकने भी सामान्य नयका लक्षण यही १ प्रतिपु प्रतिपादयनानेनापीदं ' इति पाठः । २ कः सकलादेशः ? स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्ति च नास्ति च स्यादस्ति चावक्तव्यश्व स्यानास्ति चावक्तव्यश्च स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घट इति सप्तापि सकलादेशः। कथमेतेषां सप्तानां सुनयानां सकलादेशत्वम् ? न, एकधर्मप्रधानभाबेन साकल्येन वस्तुनः प्रतिपादकत्वात् । जयध. १, पृ. २०१. तत्र यदा योगपद्यं तदा सकलादेशः । स एव प्रमाणमित्युच्यते, सकलादेशः प्रमाणाधीन इति वचनात् । xxx कथं सकलादेशः ? एकगुणमुखेनाशेषवस्तुरूपसंग्रहात् सकलादेशः। त. रा. ४, ४२, १६; १८. ३ को विकलादेशः ? अस्त्येव नास्त्येव अवक्तव्य एव अस्ति नास्त्येव अस्त्यवक्तव्य एवं नास्त्यवक्तव्य एवं अस्ति नास्त्यवक्तव्य एव घट इति विकलादेशः । जयध, १, पृ. २०३. यदा तु क्रमस्तदा विकलादेशः । स एव नय इति व्यपदिश्यते, विकलादेशो नयाधीन इति वचनात् । xxxअथ कथं विकलादेशः ? निरंशस्यापि गुणभेदादंशकल्पना विकलादेशः। त. रा. ४, ४२, १७, २९. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड ।४,१, ४५. प्रकाशितार्थविशेषप्ररूपको नयः इति । प्रकर्षेण मानं प्रमाणम् , सकलादेशीत्यर्थः । तेन प्रकाशितानांप्रमाणपरिगृहीतानामित्यर्थः। तेषामर्थानामस्तित्व-नास्तित्व-नित्यानित्यत्वाद्यनन्तात्मकानां जीवादीनां ये विशेषाः पर्यायाः तेषां प्रकर्षेण रूपकः प्ररूपकः निरुद्धदोषानुषंगद्वारेणेत्यर्थः । अबोधरूपस्याभिप्रायस्य कथं निरुद्धदोषानुषंगद्वारेण पर्यायप्ररूपकत्वम् ? नैष दोषः, द्रव्यपर्यायाभिप्रायोत्थापितवचनयोः द्रव्य-पर्यायनिरूपणात्मकयोः अभिप्रायवतः पुरुषस्य वा नयत्वाभ्युपगमतो दोषाभावात् , अन्यथोक्तदोषानुषंगात् । (तथा प्रभाचन्द्रभट्टारकैरप्यभाणिप्रमाणव्यपाश्रयपरिणामविकल्पवशीकृतार्थविशेषप्ररूपणप्रवणः प्रणिधिर्यः स नय इति । प्रमाणव्यपाश्रयस्तत्परिणामविकल्पवशीकृतानां अर्थविशेषाणां प्ररूपणे प्रवणः प्रणिधान प्रणिधिः प्रयोगो व्यवहारात्मा प्रयोक्ता वा स नयः । स एष याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद् भावानां श्रेयोऽपदेशः' कहा है। वह इस प्रकार है-प्रमाणसे प्रकाशित जीवादिक पदार्थोकी पर्यायोंका प्ररूपण करनेवाला नय है । इसीको स्पष्ट करते हैं-प्रकर्षसे अर्थात् संशयादिसे रहित वस्तुका शान प्रमाण है, अभिप्राय यह कि जो समस्त धर्मोको विषय करनेवाला हो वह प्रमाण है। उससे प्रकाशित अर्थात् प्रमाणसे गृहीत उन अस्तित्व-नास्तित्व व नित्यत्व-अनित्यत्वादि अनन्त धर्मात्मक जीवादिक पदार्थों के जो विशेष अर्थात् पर्याये हैं उनका प्रकर्षसे अर्थात् दोषोंके सम्बन्धसे रहित होकर निरूपण करनेवाला नय है । शंका-अबोधरूप अभिप्राय संशयादि दोषोंसे रहित होकर जीवादिक पदार्थोकी पर्यायोंका निरूपक कैसे हो सकता है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्य और पर्यायके अभिप्रायसे उत्पन्न द्रव्य-पर्यायके निरूपणात्मक वचनोंको अथवा अभिप्रायवान् पुरुषको नय माननेसे कोई दोष नहीं आता, ऐसा न माननेपर उपर्युक्त दोषका प्रसंग आता है। तथा प्रभाचन्द्र भट्टारकने भी कहा है-प्रमाणके आश्रित परिणामभेदोंसे वशीकृत पदार्थविशेषोंके प्ररूपणमें समर्थ जो प्रयोग होता है वह नय है। उसीको स्पष्ट करते हैं-जो प्रमाणके आश्रित है तथा उसके आश्रयसे होनेवाले ज्ञाताके भिन्न भिन्न अभिप्रायोंके आधीन हुए पदार्थविशेषोंके प्ररूपणमें समर्थ है ऐसे प्रणिधान अर्थात् प्रयोग अथवा व्यवहार स्वरूप प्रयोक्ताका नाम नय है । वह यह नय पदार्थोके यथार्थ परिज्ञानका निमित्त होनेसे मोक्षका कारण है । यहां श्रेयस् शब्दका अर्थ मोक्ष और अपदेश शब्दका अर्थ १त. रा, १,३३, १. तत्र सकलादेशीत्यर्थः ' इत्येतस्य स्थाने ' सकलादेश इत्यर्थः ' इति पाठः, 'तेन प्रकाशितानाम् ' अतोऽग्रे तत्र 'न प्रमाणाभासपरिगृहीतानामित्यर्थः' इत्यधिकः पाठः । जयध, १, पृ.२१०. २ जयध. १, पृ. २१०. www.jainelibrary Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [ १६७ श्रेयसो मोक्षस्यापदेशः कारणम् । कुतः? याथात्म्योपलब्धिनिमित्तभावात् । तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः - अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निरवद्यप्रयोगो नय' इति । भवतु नाम अभिप्रायवतः प्रयोक्तुर्नयव्यपदेशः, न प्रयोगस्य; तत्र नित्यत्वानित्यत्वाद्यभिप्रायाणामभावादिति ? न, नयतस्समुत्पन्नप्रयोगस्यापि प्रयोक्तुरभिप्रायप्ररूकस्य कार्य कारणोपचारतो नयत्वसिद्धेः । तथा सभन्तमद्रस्वामिनाप्युक्तम् ___स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः ॥ ५५ ॥ इति स्याद्वादः प्रमाण कारणे कार्योपचारात् , तेन प्रविभक्ताः प्रकाशिताः अर्थाः ते स्याद्वादप्रविभक्तार्थाः, तेषां विशेषा पर्यायाः, जात्यहेत्ववष्टंभवलेन तेषां व्यंजकः प्ररूपकः यः स नय इति । __ स एवंविधो नयो द्विविधः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत्तांस्तान् पर्यायानिति द्रव्यम्'। एतेन तद्भाव-सादृश्यलक्षणसामान्ययोर्द्वयोरपि ग्रहणम् , वस्तुनः कारण है । नयको जो मोक्षका कारण बतलाया है उसका हेतु पदार्थोकी यथार्थोपलब्धिनिमित्तत्ता है। तथा सारसंग्रहमें भी पूज्यपाद स्वामीने कहा है- अनन्त पर्याय स्वरूप वस्तुकी किसी एक पर्यायका ज्ञान करते समय श्रेष्ठ हेतुकी अपेक्षा करनेवाला निर्दोष प्रयोग नय कहा जाता है। शंका-अभिप्राय युक्त प्रयोगकर्ताकी नय संशा भले ही हो, किन्तु प्रयोगकी वह संज्ञा नहीं हो सकती; क्योंकि, उसमें नित्यत्व व अनित्यत्व आदि अभिप्रायोंका अभाव है? समाधान- नहीं, क्योंकि, प्रयोगकर्ताके अभिप्रायको प्रगट करनेवाले नयजन्य प्रयोगके भी कार्यमें कारणका उपचार करनेसे नयपना सिद्ध है। तथा समन्तभद्र स्वामीने भी कहा है--स्याद्वादसे प्रकाशित पदार्थों की पर्यायोंको प्रगट करनेवाला नय है। इस कारिकाके उत्तरार्धमें प्रयुक्त 'स्याद्वाद' शब्दका अर्थ कारणमें कार्यका उपचार करनेसे प्रमाण होता है। उस प्रमाणसे प्रविभक्त अर्थात् प्रकाशित जो पदार्थ हैं उनके विशेष अर्थात् पर्यायोंका जो श्रेष्ट हेतुके बलसे व्यञ्जक अर्थात् प्ररूपण करता हो वह नय है। उपर्युक्त स्वरूपवाला वह नय दो प्रकार है-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । जो उन उन पर्यायोंको प्राप्त होता है, प्राप्त होगा अथवा प्राप्त हुआ है वह द्रव्य है। इस निरुक्तिसे तद्भाव सामान्य और सादृश्य सामान्य दोनोंका ही ग्रहण किया गया है, १ जयध. १, पृ. २११. २ जयध. १, पृ. २१०. ३ आ. मी. १०६. ४ तस्य द्वौ मूलभेदी द्रव्यास्तिकः पर्यायास्तिक इति । त. रा. १, ३३, १. ५ दवियदि गच्छदि ताई ताई सम्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते अणण्णभूदं तु सत्तादो॥ पंचा.९. Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] उभयथापि द्रवणोपलंभात् । साम्प्रतं द्रव्यविकल्प उच्यते सदित्येकं वस्तु, सर्वस्य सतोऽविशेषात् । न ततो व्यतिरिक्तं किंचित्, असत्वप्रसंगात् । अथवा सर्वं द्विविधं वस्तु जीवाजीवभावाभ्यां विधि-निषेधाभ्यां मूर्तीमूर्तत्वाम्यां अस्तिकायानस्तिकायभेदाम्यां वा । कोऽनस्तिकायः ? कालः, तस्य प्रदेश - प्रचयाभावात् । कुतस्तस्यास्तित्वम् ? प्रचयस्य सप्रतिपक्षत्वान्यथानुपपत्तेः । अथवा, सर्व वस्तु त्रिविधं द्रव्य-गुण- पर्यायैः । चतुर्विधं वा बद्ध-मुक्त-बन्ध-मोक्षकारणैः । तत्र बद्धः संसारिजीवः । मुक्तः कर्मकलंकाङ्कच्युतः । एकान्तबुध्यवसितः सर्वो बाह्यार्थ : मिथ्याविरति -प्रमादकषाय- योगाश्च बंधकारणम् । कथम् ? एतेषामेकत्वं प्रत्यभेदाद् । अनेकान्तबुद्ध्यध्यवसितः सर्वो छक्खंडागमे वेयणाखंड ----- -- क्योंकि, वस्तुके दोनों प्रकार से भी उन पर्यायोंको प्राप्त करना पाया जाता है । अब द्रव्यके भेदको कहते हैं - 'सत् ' इस प्रकारसे वस्तु एक है, क्योंकि, सबके सत्की अपेक्षा कोई भेद नहीं है; कारण कि सत्से भिन्न कुछ नहीं है, क्योंकि, वैसा होने पर उसके असत् होनेका प्रसंग आवेगा । अथवा सब वस्तु जीवभाव- अजीवभाव, विधि-निषेध, मूर्त-अमूर्त या अस्तिकाय अनस्तिकायके भेद से दो प्रकार है । शंका -अनस्तिकाय कौन है ? [ ४, १,४५. समाधान-काल अनस्तिकाय है, क्योंकि, उसके प्रदेशप्रचय नहीं है ? शंका- तो फिर कालका अस्तित्व कैसे है ? समाधान - चूंकि अस्तित्वके विना प्रचयके सप्रतिपक्षता बन नहीं सकती अतः उसका अस्तित्व सिद्ध है । अथवा, सब वस्तु द्रव्य, गुण व पर्यायसे तीन प्रकार है । अथवा वह वस्तु बद्ध, मुक्त, बन्धकारण और मोक्षकारणकी अपेक्षा चार प्रकार है । उनमें बद्ध संसारी जीव 1 कर्मरूपी कलंकसे रहित मुक्त जीव है । एकान्त बुद्धिसे निश्चित सब बाह्य पदार्थ और मिथ्यात्व, अविरति प्रमाद, कषाय व योग, ये बन्धकारण हैं; क्योंकि, इनकी एकता के प्रति कोई भेद नहीं है । अनेकान्त बुद्धिसे निश्चित सब बाह्य पदार्थ और सम्यक्त्व, अविरति, १ 'सत्ता' इत्येकं द्रव्यम् । जयध. १, पृ. २११. २ द्विविधं वा द्रव्यं जीवाजीवद्रव्यभेदेन । जयथ. १, पृ. २१३. ३ त्रिविधं वा द्रव्यं भव्याभव्यानुभयभेदेन । जयध. १, पृ. २१४. ४ संसार्यसंसारिभदेन जीवद्रव्यं द्विविधम्, अजीवद्रव्यं पुद्गलापुद्गलभेदेन द्विविधम् एवं चतुविधं वा द्रव्यम् । जयध. १, पृ. २१४. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [१६९ बाह्यार्थः सम्यक्त्व-विरत्यप्रमादाकषायायोगाश्च' मोक्षकारणम् । सर्वं वस्तु पंचविधं वा औदयिकौपशमिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिकभेदैः। सर्व वस्तु षड्विधं वा जीव-पुद्गलधर्माधर्म-कालाकाशभेदैः। सर्व वस्तु सप्तविधं वा बद्ध-मुक्तजीव-पद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदैः । सर्व वस्तु अष्टविधं वा भव्याभव्य-मुक्तजीव-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदैः (सर्व वस्तु नवविधं वा जीवाजीव-पुण्य-पापास्रव-संवर-निर्जर-बन्ध-मोक्षभेदैः । सर्व वस्तु दशविध वा एक-द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रियजीव-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदैः। सर्व वस्त्वेकादशविधं वा पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पति-त्रसजीव-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदैः । एवमेकाघेकोत्तरक्रमेण बहिरंगान्तरंगधर्मिणौ विपाट्येते यावदविभागप्रतिच्छेदं प्राप्ताविति । एष सर्वोऽप्यनन्त अप्रमाद, अकषाय एवं अयोग मोक्षकारण हैं । अथवा सब वस्तु औदयिक, औपशमिक, क्षायिक,क्षायोपशमिक और पारिणामिकके भेदसे पांच प्रकार है । अथवा सब वस्तु जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे छह प्रकार है । अथवा सब वस्तु बद्ध जीव, मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे सात प्रकार है । अथवा सब वस्तु भव्य, अभव्य, मुक्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे आठ प्रकार है। अथवा सब वस्तु जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्षके भेदसे नौ प्रकार है । अथवा सब वस्तु एकेन्द्रिय जीव, द्वीन्द्रिय जीव, त्रीन्द्रिय जीव, चतुरिन्द्रिय जीव, पंचेन्द्रिय जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे दस प्रकार है। अथवा सब वस्तु पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक,वायुकायिक, वनस्पतिकायिक,त्रस जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाशके भेदसे ग्यारह प्रकार है । इस प्रकार एकको लेकर एक अधिक क्रमसे बहिरंग व अंतरंग धर्मियोंका विभाग करना चाहिये जब तक कि अविभागप्रतिच्छेदको प्राप्त नहीं होते हैं । इस प्रकार सभी अनन्त भेद रूप संग्रहप्रस्तार नित्य व १ प्रतिषु -प्रमादकषायायोगाश्च' इति पाठः। २ जीवद्रव्यं त्रिविधं भष्याभव्यानुभयभेदेन, अजीवद्रव्यं द्विविधं मूर्तीमूर्तभेदेन, एवं पंचविधं वा द्रव्यम् । जीव-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदेन षड्विधं वा । जीवाजीवास्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध-मोक्षभेदेन सप्तविधं वा । जीवाजीव-कर्मास्रव-संवर-निर्जरा-बन्ध-मोक्षभेदेनाष्टविधं वा । जीवाजीव-पुण्य-पापासव-संबर-निर्जर-बन्ध-मोक्षभेदेन नवविधं वा । एक-द्वि-त्रि-चतुः-पंचेन्द्रिय-पुद्गल-धर्माधर्म-कालाकाशभेदेन दशविधं वा । पृथिव्यप्तेजो-वायु-वनस्पतित्रस-पुद्गल-धर्माधर्मा-कालाकाशभेदेनैकादशविधं . वा । पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पति-समनस्कामनस्क-त्रस-पुद्गलधर्माधर्म-कालाकाशभेदेन द्वादशविधं वा । जीवद्रव्यं त्रिविधं भव्याभव्यानुभयभेदेन, पुद्गलद्रव्यं षड्विधं बादरबादरबादर-बादरसूक्ष्म-सूक्ष्मबादर-सूक्ष्म-सूक्ष्मसूक्ष्मं चेति । xxx शेषद्रव्याणि चत्वारि धर्माधर्म-कालाकाशभेदेन । एवं । त्रयोदशविधं वा द्रव्यम् । एवमेतेन क्रमेण जीवाजीवद्रव्याणां भेदः कर्तव्यः यावदन्त्यविकल्प इति । जयच.१, पृ. २१४-१५. क. क. २२. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ४५. विकल्पः संग्रहप्रस्तारः नित्यः वाचकभेदेनाभिन्नः द्रव्यमित्त्युच्यते । द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । एष एव सदादिरविभागप्रतिच्छेदनपर्यन्तः संग्रहप्रस्तारः क्षणिकत्वेन विवक्षितः वाचकभेदेन च भेदमापन्नः विशेषप्रस्तारः पर्यायः। पर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः। तत्र योऽसौ द्रव्यार्थिकनयः स त्रिविधो नैगम-संग्रह-व्यवहारभेदेन । तत्र सत्तादिना यः सर्वस्य पर्याय-कलंकाभावन अद्वैतत्वमध्यवस्येति शुद्धद्रव्यार्थिकः स संग्रहः । अनोपयोगी गाहा शब्दभेदसे अभिन्न होता हुआ द्रव्य कहा जाता है। द्रव्य ही है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिसका वह द्रव्याथिक नय है। सत्को आदि लेकर अविभागप्रतिच्छेद पर्यन्त यही संग्रहप्रस्तार क्षणिक रूपसे विवक्षित व शब्दभेदसे भेदको प्राप्त होता हुआ विशेषप्रस्तार या पर्याय है। पर्याय ही है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिसका वह पर्यायार्थिक नय है । उनमें जो वह द्रव्यार्थिक नय है वह नैगम, संग्रह और व्यवहारके भेदसे तीन प्रकार है। इनमें जो सत्ता आदिकी अपेक्षासे पर्याय रूप कलंकका अभाव होनेके कारण सबकी एकताको विषय करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रह है । यहां उपयोगी गाथा १ प्रतिषु 'द्रव्यार्थिकः पुरुषः' इति पाठः । ष. खं. पु. १, पृ. ८३. द्रव्यमस्तीति मतिरस्य द्रव्यभवनमेव नातोऽन्ये भावविकाराः नाप्यभावस्तव्यतिरेकेणानुपलव्धेरितिद्रव्यास्तिकः। xxx अथवा, द्रव्यमेवार्थोऽस्य न गुण-कर्मणी तदवस्थारूपादिति द्रव्यार्थिकः | xxx अथवा, अयते गम्यते निष्पाद्यत इत्यर्थः कार्यम्, द्रवति गच्छतीति द्रव्यं कारणम् । द्रव्यमेवार्थोऽस्य कारणमेव कार्य नार्थान्तरम् न च कार्य-कारणयोः कश्चिद् रूपभेदः तदु. भयमेकाकारमेव पर्यागुलिद्रव्यवदिति द्रव्याबिकः | xxx अथवा, अर्थनमर्थः प्रयोजनम्, द्रव्यमेवार्थोऽस्य प्रत्ययाभिधानानुप्रवृत्तिलिंगदर्शनस्य निहोतुमशक्यत्वादिति द्रव्यार्थिकः । त. रा. १,३३, १. एतद्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः। तद्भावलक्षणसामान्येनाभिन्नं सादृश्यलक्षणसामान्येन भिन्नमभिन्नं च वस्त्वभ्युपगच्छन् द्रव्यार्थिक इति यावत् । जयध. १, पृ. २१६. २ प्रतिषु ' -रविभागपरिच्छेदन ' इति पाठः। __ ३ ष. खं. पु. १, पृ. ८४. पर्याय एवास्तीति मतिरस्य जन्मादिभावविकारमात्रमेव भवनम्, न ततोऽन्यदद्रव्यमस्ति, तव्यतिरेकेणानुपलब्धेरिति पर्यायास्तिकः|xxx पर्याय एवार्थोऽस्य रूपाद्यत्क्षेपणादिलक्षणो न ततोऽन्यद् द्रव्यमिति पर्यायार्थिकः। xxx परि समन्तादायः पर्यायः, पर्याय एवार्थः कार्यमस्य न द्रव्यमतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहाराभावात् स एवैकः कार्य-कारणव्यपदेशभागिति पर्यायार्थिकः । xxx पर्यायोऽर्थः प्रयोजनमस्य वागविज्ञानव्यावृत्तिनिबन्धनव्यवहारप्रसिद्धेरिति पर्यायार्थिकः । त रा. १, ३३, १. परि भेदं ऋजुसूत्रवचनविच्छेद्रं एति गच्छतीति पर्यायः, स पर्यायः अर्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । सादृश्यलक्षणसामान्येन भिनमभिन्नं च द्रव्यार्थिकाशेषविषयं ऋजुसूत्रवचनविच्छेदेन पाटयन् पर्यायार्थिक इत्यवगन्तव्यः । जयध. १, पृ. २१७. ४ तत्र द्रव्यार्थिकनयस्त्रिविधः संग्रहो व्यवहारो नैगमश्चेति । तत्र शुद्धद्रव्यार्थिकः पर्यायकलंकरहितः बहुभेडः संग्रहः । जयध. १, पृ. २१९. Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [१५१ सत्ता' सव्वपयत्था सविस्सरूवा अणंतपज्जाया। भंगुप्पाय-धुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का ॥५६ ॥ शेषद्वयाद्यनन्तविकल्पसंग्रहप्रस्तारावलम्बनः पर्याय-कलंकांकिततया अशुद्धद्रव्यार्थिकः व्यवहारनयः । यदस्ति न तद् द्वयमतिलंध्य वर्तते इति संग्रह-व्यवहारयोः परस्परविभिन्नोभयविषयालम्बनो नैगमनयः, शब्द-शील-कर्म-कार्य-कारणाधाराधेय-भूत-भविष्यद्वर्तमान-मेयोन्मेयादिकमाश्रित्य स्थितोपचारप्रभव इति यावत् । पर्यायार्थिको नयश्चतुर्विधः ऋजुसूत्र-शब्द-समभिरूद्वैवंभूतभेदेन । तत्र अपूर्वामिकाल अस्तित्व रूप सत्ता उत्पाद, व्यय व धौव्य रूप तीन लक्षणोंसे युक्त समस्त वस्तुविस्तारके सादृश्यकी सूचक होनेसे एक है; उत्पादादि त्रिलक्षण स्वरूप 'सत्' इस प्रकारके शब्दव्यवहार एवं 'सत्' इस प्रकारके प्रत्ययके भी पाये जाने से समस्त पदार्थों में स्थित है; विश्व अर्थात् समस्त वस्तुविस्तारके त्रिलक्षण रूप स्वभावोंसे सहित होनेके कारण सविश्व रूप है, अनन्त पर्यायोंसे सहित है; भंग (व्यय ), उत्पाद व ध्रौव्य स्वरूप है, तथा अपनी प्रतिपक्षभूत असत्तासे संयुक्त है ॥५६॥ शेष दो आदि अनन्त विकल्प रूप संग्रहप्रस्तारका अवलम्बन करनेवाला व्यवहार नय पर्याय रूप कलंकसे युक्त होनेसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय है। 'जो है वह भेद व अभेद दोनोंका उल्लंघन कर नहीं रहता' इस प्रकार संग्रह और व्यवहार नयोंके परस्पर भिन्न (भेदाभेद) दो विषयोंका अवलम्बन करनेवाला नैगम नय है। अभिप्राय यह कि जो शब्द, शील, कर्म, कार्य, कारण, आधार, आधेय, भूत, भविष्यत, वर्तमान. मेय व उन्मेयादिकका आश्रयकर स्थित उपचारसे उत्पन्न होनेवाला है वह नैगम नय कहा जाता है । पर्यायार्थिक नय ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूतके भेदसे चार प्रकार है। इनमें जो तीन कालविषयक अपूर्व पर्यायोको छोड़कर वर्तमान कालविषयक पर्यायको १ प्रतिषु — सत्था' इति पाठः। २ पंचा ८. ३ प्रति 'पर्यायः कलंका-' इति पाठः । ४ [ अशुद्ध- ] द्रव्यार्थिकः पर्यायकलंकांकितद्रव्यविषयः व्यवहारः । जयध. १, पृ. २१९. ५१. खं. पु. १ पृ. ८४. यदस्ति न तवयमतिलंध्यं वर्तत इति नैकगमो नैगमः शब्द-शील-कर्म-कार्यकारणाधाराधेय-सहचार-मान-मेयोन्मेय-भूत-भविष्यद्-वर्तमानादिकमाश्रित्य स्थितोपचारविषयः । जयध. १.प. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦૨ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. विषयानतिशय्य वर्तमानकालविषयमादत्ते यः स ऋजुसूत्रः । कोऽत्र वर्तमानकालः १ आरम्भात्प्रभृत्या उपरमादेष वर्तमानकालः । एष चानेकप्रकारः, अर्थ- व्यंजनपर्यायस्थितेरनेकविधत्वात् । तत्र तावच्छुद्धऋजुसूत्रविषयः प्रदश्यते - पच्यमानः पक्वः । पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति । पच्यमान इति वर्तमानः पक्व इति अतीतः, तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरुद्ध इति चेन्न, पचनप्रारम्भप्रथमसमये पाकांशानिष्पत्तौ द्वितीयादिक्षणेषु प्रथमलक्षण इव पाकांश प्रहण करता है वह ऋजुसूत्र नय है । शंका- यहां वर्तमान कालका क्या स्वरूप है ? समाधान - विवक्षित पर्यायके प्रारम्भकाल से लेकर उसका अन्त होने तक जो काल यह वर्तमान काल है । अर्थ और व्यञ्जन पर्यायोंकी स्थिति के अनेक प्रकार होनेसे यह काल अनेक प्रकार है । उसमें पहिले शुद्ध ऋजुसूत्र नयके विषयको दिखलाते हैं - इस नयका विषय पच्यमान -पक्व है | पक्वका अर्थ कथंचित् पकनेवाला और कथंचित् पका हुआ है । शंका- चूंकि 'पच्यमान' यह पचन क्रियाके चालू रहने अर्थात् वर्तमान कालको और 'पक्व' यह उसके पूर्ण होने अर्थात् भूत कालको सूचित करता है अतः उन दोनोंका एक में रखना विरुद्ध है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, पचन क्रियाके प्रारम्भ होनेके प्रथम समय में पाकांशकी सिद्धि न होनेपर प्रथम क्षणके समान द्वितीयादि समयों में पाकांशकी सिद्धिका अभाव १ ऋजु प्रगुणं सूत्रयति सूचयतीति ऋजुसूत्रः । अस्य विषयः पच्यमानः पक्त्रः । पक्वस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति । पच्यमान इति वर्तमानः, पक्त्र इत्यतीतः, तयोरेकस्मिन्नवरोघो विरुद्ध इति चेत् न, पाकप्रारम्भप्रथमक्षणे निष्पन्नांशेन पक्वत्वाविरोधात् । न च तत्र पाकस्य सर्वाशैरनिष्पत्तिरेव, चरमावस्थायामपि पाकनिष्पत्तेरभावप्रसंगात् । ततः पच्यमान एव पक्व इति सिद्धम् । तावन्मात्रक्रियाफलनिष्पत्त्युपरमापेक्षया स एव पक्वः स्मादुपरतपाक इति, अन्त्यपाकापेक्षया निष्पत्तेरभावात् एव पच्यमान इति सिद्धम् एवं क्रियमाणकृत भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिध्यत्सिद्धादयो योज्याः । जयध. १, पृ. २२३. सूत्रपातवद् ऋजुसूत्रः । यथा ऋजुः सूत्रपातस्तथा ऋजु प्रगुणं सूत्रयति तंत्रयति ऋजुसूत्रः । सर्वास्त्रिकाल विषयानतिशय्य वर्तमानविषयकालमादत्ते xxx अस्य विषयः पच्यमानः पक्वः । पक्त्रस्तु स्यात्पच्यमानः स्यादुपरतपाक इति । असदेतद्विरोधात् (?) । पच्यमान इति वर्तमानः, पक्त्र इत्यतीतः, तयोरेकस्मिन्नवरोधो विरोधीति ? नैष दोषः, पचनस्यादावविभागसमये कश्चिदशो निर्वृत्तो बा न वा ? यदि न निर्वृत्तस्तद्वितीयादिष्वप्यनिर्वृतेः पाकाभावः स्यात् । ततोऽभिनिर्वृत्तेस्तदपेक्षया पच्यमानः पक्वः, इतरथा हि समयस्य त्रैविध्यप्रसंगः। स एवोदनः पच्यमानः पक्वः स्यात्पच्यमान इत्युच्यते पक्तुरभिप्रायस्यानिवृतेः । पक्तुर्हि सुविशद - सुस्विन्नौदने पक्वाभिप्रायः । स्यादुपरतपाक इति चोच्यते, कस्यचित् पक्तुस्तावतैव कृतार्थत्वात् । एवं क्रियमाणकृत- भुज्यमानमुक्त- बध्यमानबद्ध - सिध्यत् सिद्धादयो योज्याः । त. रा. १, ३३, ७, २ प्रतिषु पाकांश निष्पत्तौ ' इति पाठः । < Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे णयपरूवणी । १७१ निष्पत्त्यभावतः पाकस्य साकल्येनोत्पत्तरभावप्रसंगात् । एवं द्वितीयादिक्षणेष्वपि पाकनिष्पत्तिवक्तव्या । ततः पच्यमानः पक्व इति सिद्धम् , नान्यथा; समयस्य त्रैविध्यप्रसंगात् । स एवौदनः पक्वः स्यात्पच्यमान इति चोच्यते, सुविशद-सुस्विन्नौदने पक्तुः पक्वाभिप्रायात् । तावन्मात्रक्रियाफलनिष्पत्त्युपरमापेक्षया स एव पक्वः ओदनः स्यादुपरतपाक इति कथ्यते । एवं क्रियमाणकृत- भुज्यमानभुक्त-बध्यमानबद्ध-सिद्धयत्सिद्धादयो योज्याः । 'तथा यदैव धान्यानि मिमीते तदैव प्रस्था, प्रतिष्ठन्त्यस्मिन्निति प्रस्थव्यपदेशात् । न कुम्भकारोऽस्ति । कथम् ? उच्यतेशिवकादिपर्यायं करोति न तस्य तद्व्यपदेश, शिवकादीनां कुम्भव्यपदेशाभावात् । नापि कुम्भपर्यायं करोति, स्वावयवेभ्य एव तस्य निष्पत्तेः । नोभयत एकस्योत्पत्तिः, युगपदेकत्र होनेसे पूर्णतया पाककी उत्पत्तिके अभावका प्रसंग आवेगा। इसी प्रकार द्वितीयादि क्षणों में भी पाककी उत्पत्ति कहना चाहिये। इसीलिये पच्यमान ओदन कुछ पके हुए अंशकी अपेक्षा पक्व है, यह सिद्ध होता है, क्योंकि, ऐसा न माननेसे समयके तीन प्रकार माननेका प्रसंग आवेगा। वही पका हुआ ओदन कथंचित् 'पच्यमान' ऐसा कहा जाता है, क्योंकि, विशद रूपसे पूर्णतया पके हुए ओदनमें [जो अभी सिद्ध नहीं हुआ है ] पाचकका 'पक्व' से अभिप्राय है। उतने मात्र अर्थात् कुछ ओदनांशमें पचन क्रियाके फलकी उत्पत्तिके विराम होनेकी अपेक्षा वही ओदन उपरतपाक अर्थात् कथंचित् पका हुआ कहा जाता है। इसी प्रकार क्रियमाण-कत, भुज्यमान भुक्त, बध्यमान-बद्ध और सिद्धयत्सिद्ध इत्यादि ऋजुसूत्र नयके विषय जानना चाहिये । तथा जब धान्योको मापता है तभी इस नयकी दृष्टि में प्रस्थ ( अनाज नापनेका पात्रविशेष ) हो सकता है, क्योंकि, जिसमें धान्यादि स्थित रहते हैं उसे निरुक्तिके अनुसार प्रस्थ कहा जाता है । इस नयकी दृष्टि में कुम्भकार संज्ञा भी नहीं बनती। कैसे ? ऐसा पूछनेपर उत्तर देते हैं कि जो शिवक आदि पर्यायको करता है उसकी कुम्भकार संज्ञा नहीं बन सकती, क्योंकि, शिवक-स्थासादिका कुम्भ नाम नहीं है। कुम्भ पर्यायको भी वह नहीं करता, क्योंकि, उसकी उत्पत्ति अपने अवयवोंसे ही होती है। और दोसे एककी उत्पत्ति सम्भव २ प्रतिषु । यद्येव ' इति पाठः । १ त. स. १, ३३, ७. जयध. १, पृ. २२४. ३ प्रतिषु । तदेव' ति पाठः । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४) छक्खंडागमे वेयणाखंड ( १, १, ४५. स्वभावद्वयविरोधात् अवयवेष्वेव व्याप्रियमाणपुरुषोपलम्भाच्च । 'स्थितप्रश्ने च कुतोऽयागच्छसीति, न कुतश्चिदित्ययं मन्यते, तत्कालक्रियापरिणामाभावात् । यमेवाकाशदेशमवगा, समर्थः आत्मपरिणामं वा तत्रैवास्य वसतिः। न कृष्णः काकोऽस्य नयस्य । कथम् ? यः कृष्णः स कृष्णात्मक एव, न काकात्मकः; भ्रमरादीनामपि काकताप्रसंगात् । काकश्च काकात्मको, न कृष्णात्मकः; शुक्लकाकाभावप्रसंगात् तत्पित्तास्थि-रुधिरादीनामपि काण्यप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, तेषां पीत-शुक्ल-रक्तादिवर्णोपलम्भात् । न च तेभ्यो व्यतिरिक्तः काकोऽस्ति, तद्व्यतिरेकेण काकानुपलम्भात् । ततोत्र न विशेषण-विशेष्यभाव इति सिद्धम् । 'न चास्य नयस्य सामानाधिकरण्यमप्यस्ति, एकस्य पीयेभ्य अनन्यत्वात् । न च पर्यायव्यतिरिक्तं नित्यमेक नहीं है, क्योंकि, एक साथ एकमें दो स्वभावोंका विरोध है, तथा पुरुष अवयवोंमें ही म्यापार करनेवाला पाया जाता है। 'आज तुम कहांसे आ रहे हो ? ' ऐसा किसी स्थित व्यक्तिसे पूछनेपर 'कहींसे नहीं आ रहा हूं' ऐसा यह ऋजुसूत्र नय मानता है, क्योंकि, उस समय आगमन क्रिया रूप परिणामका अभाव है। जिस आकाशप्रदेशको अथवा आत्मपरिणामको अवगाहनेके लिये वह समर्थ है वहींपर इसका निवास है। 'कृष्ण काक' यह इस नयका विषय नहीं है। कारण कि जो कृष्ण है वह कृष्णात्मक ही है, काक स्वरूप नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर भ्रमर आदिकोंके भी काक होनेका प्रसंग आवेगा। इसी प्रकार काक भी काकात्मक ही है, कृष्णात्मक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर सफेद काकके अभावका प्रसंग आवेगा, तथा उसके पित्त (शरीरस्थ धातुविशेष ), हड्डी व रुधिर आदिके भी कृष्णताका प्रसंग आवेगा। यदि कहा जाय कि वे भी कृष्ण होते हैं, सो ऐसा नहीं है, क्योंकि, क्रमशः उनका पीला, सफेद घ लाल रंग पाया जाता है। और इन धातुओंसे भिन्न काक है नहीं, क्योंकि, उनको छोड़कर काक पाया नहीं जाता। इसीलिये इस नयकी दृष्टि में विशेषण-विशेष्यभाव नहीं है, यह सिद्ध हुआ। इस नयकी दृष्टिम सामानाधिकरण्य (एक आधारमें समान रूपसे रहना) भी नहीं है, क्योंकि, एक द्रव्य पर्यायोंसे भिन्न नहीं है । तथा पर्यायोंको छोड़कर नित्य, एक, २१. रा. १, ३३, ७. अगष. १, १. २११. १ ते. री. १, ३३, ७. जयध. १, पृ. २३५. ३ प्रतिषु कथ यकृष्णः' इति पाठः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [ १७५ मनवयवं सकलावयवव्याप्युपलभ्यते । ततो न द्रव्य - पर्याया विविक्तशक्तयः सन्ति । न तेषामेकमधिकरणं स्वस्मिन्नवस्थितत्वात् । किं च, 'न विनाशोऽन्यतो जायते, तस्य जातिहेतुत्वात् । अत्रोपयोगी लेक: जातिरेव हि भावानां निरोधे हेतुरिष्यते । यो जातश्च न च ध्वस्तो नश्यते पश्चात् स केन वः ॥ ५७ ॥ न च भावः अभावस्य हेतुः घटादपि खरविषाणोत्पत्तिप्रसंगात् । किं च न वस्तु परतो विनश्यति, परसन्निधानाभावे तस्याविनाशप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, अक्षणिकेऽर्थक्रियाविरोधात् । किं च, न पलालो दह्यते, पलालाग्निसम्बन्धसमनन्तरमेव पलालस्य नैरात्म्यानुपलम्भात् । न द्वितीयादिक्षणेषु पलालस्य नैरात्म्यकृदग्निसम्बन्धः, तस्य तत्कार्यत्वप्रसंगात् । न पलालावयवी दह्यते, तस्यासत्वात् । नावयवा दह्यन्ते, निरवयवत्वतस्तेषामप्यसत्वात् । न निरवयव और समस्त अवयवोंमें रहनेवाला द्रव्य पाया नहीं जाता । अत एव भिन्न भिन्न शक्तियुक्त द्रव्य व पर्यायें नहीं है । इसीलिये उनका एक अधिकरण नहीं है; क्योंकि, वे अपने आपमें स्थित हैं । और भी, इस नयकी अपेक्षा विनाश किसी अन्य पदार्थके निमित्तसे नहीं होता, क्योंकि, उसका हेतु उत्पत्ति ही है । यहां उपयोगी श्लोक - --- पदार्थोंके विनाशमें जाति अर्थात् उत्पत्ति ही कारण मानी जाती है, क्योंकि, जो पदार्थ उत्पन्न होते ही नष्ट नहीं होता तो फिर वह पश्चात् आपके यहां किसके द्वारा नष्ट होगा ? अर्थात् किसीके द्वारा नष्ट नहीं हो सकेगा ॥ ५७ ॥ दूसरे, भाव अभावका हेतु नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा माननेपर घटसे भी गधेके सींगोंके उत्पन्न होनेका प्रसंग आवेगा । तथा वस्तु परके निमित्तसे नष्ट नहीं होती, क्योंकि, वैसा होनेपर परकी समीपताके अभाव में उसके अविनाशका प्रसंग आवेगा । यदि कहा जाय कि नाश न भी हो, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि, नित्य होनेपर अर्थक्रियाका विरोध होगा । इस नयकी दृष्टिमें पलाल (पुआल ) का दाह नहीं होता, क्योंकि, पलाल और अग्निके सम्बन्धके अनन्तर ही पलालकी निरात्मता अर्थात् शून्यता नहीं पायी जाती । द्वितीयादि क्षणों में पलालकी निरात्मताको करनेवाला अग्निका सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि, उसके होनेपर पलालकी निरात्मताको उसके कार्य होनेका प्रसंग आवेगा [ जो उस समय नहीं है ] । पलाल अवयवीका दाह नहीं होता, क्योंकि, अवयवीकी [ आपके यहां ] सत्ता ही नहीं । न अवयव जलते हैं, क्योंकि, स्वयं निरवयव होनेसे उनका १ नवध. १, पृ. २२६. २ त. रा. १, ३३, ७. v.jainelibrary.org www. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. पलालोत्पत्तिक्षण एवाग्निसम्बन्धस्तस्यानुत्पत्तिप्रसंगात् । नोत्तरक्षणे, असत्तासम्बन्धविरोधात् । किं च यः पलालो न स दह्यते, तत्रामिसम्बन्धजनितातिशयान्तराभावात् , भावे वा न स पलालप्राप्तोऽन्यस्वरूपत्वात् । 'न शुक्लः कृष्णीभवति, उभयोभिन्नकालावस्थितत्वात् प्रत्युत्पन्नविषये निवृत्तपर्यायानभिसम्बन्धात् । एवमृजुसूत्रनयस्वरूपनिरूपणं कृतम् । शपत्यर्थमाह्वयति प्रत्यायतीति शब्दः । अयन्नयः लिंग-संख्या-काल-कारक पुरुषोपग्रहव्यभिचारनिवृत्तिपरः । लिंगव्यभिचारस्तावत् स्त्रीलिंगे पुल्लिंगाभिधानम् - तारका स्वातिरिति । पुल्लिंगे स्न्यभिधानम् - अवगमो विद्येति । स्त्रीत्वे नपुंसकाभिधानम् - वीणा आतोद्यमिति । नपुंसके स्न्यभिधानम् - आयुधं शक्तिरिति । पुल्लिगे नपुंसकाभिधानम भी असत्व है । यदि कहा जाय कि पलालकी उत्पत्तिक्षण में ही अग्निका सम्बन्ध हो ज नाता है, अतः वह जल सकता है। सो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर अग्निका सम्बन्ध होनेसे वह उत्पन्न ही न हो सकेगा। इसलिये यदि उत्पत्तिके उत्तरक्षणमें अग्निका सम्बन्ध स्वीकार किया जाय तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, उत्पत्तिके द्वितीय क्षणमें पलालकी सत्ता नष्ट हो जानेसे असत्ताके अग्निसम्बन्धका विरोध है। दूसरे, जो पलाल है वह नहीं जलता है, क्योंकि, उसमें अग्निसम्बन्ध जनित अतिशयान्तरका अभाव है। अथवा यदि अतिशयान्तर है भी तो वह पलाल प्राप्त नहीं है, क्योंकि, उसका स्वरूप पलालसे भिन्न है।। इस नयकी अपेक्षा 'शुक्ल कृष्ण होता है। ऐसा भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, कृष्ण और शुक्ल दोनों पर्यायें भिन्न काल में रहनेवाली हैं, अतः उत्पन्न हुई कृष्ण पर्यायमें नष्ट हुई शुक्ल पर्यायका सम्बन्ध नहीं हो सकता । इस प्रकार ऋजुसूत्र नयके स्वरूपका निरूपण किया। जो 'शपति' अर्थात् अर्थको बुलाता है या उसका शान कराता है वह शब्द नय है। यह नय लिंग, वचन, काल, कारक, पुरुष और उपग्रहके व्यभिचारको दूर करनेवाला है। इनमें पहिले लिंगव्यभिचार कहा जाता है- स्त्रीलिंगमें पुल्लिगका कथन करना लिंगव्यभिचार है। जैसे- 'तारका स्वातिः' यहां स्त्रीलिंग तारका शब्दके साथ पुल्लिंग स्वाति शब्दका प्रयोग किया गया है, अतः यह लिंगव्यभिचार है । पुल्लिगमें स्त्रीलिंगका कथन करना । जैसे- ‘अवगमो विद्या' यहां पुल्लिंग अवगम काब्टके साथ स्त्रीलिंग विद्या शब्दका प्रयोग । स्त्रीलिंगमें नपंसकलिंगका कथन करना। जैसे- 'वीणा आतोद्यम् ' यहां स्त्रीलिंग वीणाके लिये नपुंसकलिंग आतोद्य शब्दका प्रयोग । नपुंसकलिंगमें स्त्रीलिंगका कथन करना । जैसे- 'आयुधं शक्तिः' यहां नपुंसकलिंग आयुधके लिये स्त्रीलिंग शक्ति शब्दका प्रयोग। पुल्लिगमें नपुंसकलिंगका कथन करना। १ जयध. १, पृ. २३०. २ त. रा. १, ३३, ८. जयध. १, पृ. २३५. ३ त. रा. १, ३३, ९. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [१७७ पटो वस्त्रमिति । नपुंसके पुल्लिंगाभिधानम् - द्रव्यं परशुरिति । संख्याव्यभिचारः । एकत्वे द्वित्वम् - नक्षत्रं पुनर्वसू इदि । एकत्वे बहुत्वम्नक्षत्रं शतभिषजः इति । द्वित्वे एकत्वम् - गोदौ ग्राम इति । द्वित्वे बहुत्वम्- पुनर्वसू पंचतारका इति । बहुत्वे एकत्वम् -- आम्राः वनमिति । बहुत्वे द्वित्वम् - देव-मनुष्याः उभी राशी इति। कालव्यभिचारः- विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनितेति भविष्यदर्थे भूतप्रयोगः। भावि कृत्यमा जैसे- 'पटो वस्त्रम् यहां पुल्लिग 'पटः' के साथ 'वस्त्रम्' ऐसे नपुंसकलिंग वस्त्र शब्दका प्रयोग। नपुंसकलिंगमें पुल्लिगका कथन करना। जैसे-'द्रव्यं परशुः' यहां नपुंसकलिंग द्रव्य शब्दके साथ पुलिंग परशु शब्दका प्रयोग। [यह सब लिंगव्यभिचार है।] संख्याव्यभिचार कहा जाता है । एकवचनके स्थानमें द्विवचनका प्रयोग करना संख्याव्यभिचार है। जैसे- 'नक्षत्रं पुनर्वसू' यहां एक वचन 'नक्षत्रम् ' के साथ 'पुनर्वसू' ऐसे द्विवचनका प्रयोग किया गया है । एक वचनके स्थानमें बहुवचनका प्रयोग, जैसे- 'नक्षत्रं शतभिषजः' यहां एक वचन 'नक्षत्रम्' के साथ ‘शतभिषजः' ऐसे बहुवचनका प्रयोग किया गया है । द्विवचनके स्थानमें एकवचनका प्रयोग, जैसे- 'गोदौ ग्रामः' यहां गोदौ' द्विवचनके साथ 'ग्रामः' ऐसे एकवचनका प्रयोग किया गया है। द्विवचनके स्थानमें बहुवचनका प्रयोग, जैसे- 'पुनर्वसू पंचतारकाः ' यहां 'पुनर्वसू' इस द्विवचनके साथ 'पंचतारकाः' ऐसे बहुवचनका प्रयोग किया गया है। बहुवचनके स्थानमें एकवचनका प्रयोग, जैसे'आम्राः वनम् ' यहां 'आम्राः' बहुवचनके साथ 'वनम् ' ऐसे एकवचनका प्रयोग किया गया है । बहुवचनके स्थानमें द्विवचनका प्रयोग, जैसे- 'देव-मनुष्याः उभौ राशी' अर्थात् देव एवं मनुष्य ये दो राशियां हैं, यहां 'देव-मनुष्याः' इस प्रकार बहुवचनके साथ ' उभौ राशी' ऐसे द्विवचनका प्रयोग किया गया है। [यह सब वचनका विपर्यास होनेसे संख्याव्यभिचार है।] कालव्यभिचार-विवक्षित किसी एक कालके स्थानमें दूसरे कालका प्रयोग करना कालव्यभिचार है। जैसे- 'विश्वदृश्वास्य पुत्रो जनिता' अर्थात् जिसने विश्वको देख लिया है ऐसा इसके पुत्र होगा। यहां भविष्यत्कालीन 'जनिता' क्रियाके साथ भूतकालीन क्रियाके द्योतक 'विश्वदृश्वा' कर्तृपदका प्रयोग किया गया है। 'भावि कृत्यमासीत् ' अर्थात् कार्य होनेवाला ही था । यहां भूतकालीन 'आसीत् ' क्रियाके साथ भविष्यत्कालीन क्रियाके द्योतक 'भावि' पदका 'कृत्य' के विशेषण रूपसे १ष. खं. पु. १, पृ. ८७. २ प्रतिषु 'गोधौ' इति पाठः । ३ ष. खं. पु. १, पृ. ८७. जयध. १, पृ. २३६. ४ प्रतिषु 'विश्वदृष्वास्य ' इति पाठः। छ, क. २३. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] छक्खंडागने वेयणाखंडं [४, १, ४५. सीदिति भूतार्थे भविष्यत्प्रयोगः। साधनव्यभिचारः - ग्राममधिशेते इति । पुरुषव्यभिचारःएहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पितेति । उपग्रहव्यभिचारः -- रमते विरमति, तिष्ठति संतिष्ठते, विशति निविशते; इत्येवमादयो व्यभिचारा न युक्ताः, अन्यार्थस्य अन्याथन सम्बन्धाभावात् । तस्माद्यथालिगं यथासंख्यं यथासाधनादि च न्याय्यमभिधानम् । एवं शब्दनयस्वरूपमभिहितम् । प्रयोग किया गया है । [ इसीलिये उक्त दोनों कालव्यभिचारके उदाहरण हैं । ] एक कारकके स्थानमें दूसरे कारकका प्रयोग करना साधनव्यभिचार है । जैसे'ग्राममधिशेते' अर्थात् गांवमें सोता है। यहां 'ग्रामे' अधिकरण कारकके स्थानमें 'ग्रामम् ' ऐसे कर्मकारकका प्रयोग किया गया है, अतः यह साधनव्यभिचार है। एक पुरुषके स्थानमें दूसरे पुरुषका प्रयोग करने का नाम पुरुषव्यभिचार है। जैसे'एहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता' अर्थात् आओ, तुम समझते हो कि मैं रथसे जाऊंगा, पर तुम नहीं जाओगे, तुम्हारे पिता चले गये। यहां ' मन्यसे' मध्यम पुरुषके स्थानमें ' मन्ये' इस प्रकार उत्तम पुरुषका प्रयोग और ' यास्यामि' इस उत्तम पुरुषके स्थानमें ' यास्यसि' ऐसे मध्यम पुरुपका प्रयोग किया गया है। अत एव यह पुरुषव्यभिचार है। उपसर्गके सम्बन्धसे परस्मैपदके स्थानमें आत्मनेपद और आत्मनेपदके स्थानमें परस्मैपदका प्रयोग करना उपग्रहव्यभिचार है । जैसे- 'रमते' ऐसे आत्मनेपदके स्थानमें वि उपसर्गके सम्बन्धसे 'विरमति' इस प्रकार परस्मैपदका प्रयोग: 'तिष्ठति' परस्मैपदके स्थानमें सम् उपसर्गके संयोगसे ' संतिष्ठते' ऐसे आत्मनेपदका प्रयोग; और 'विशति' परस्मैपदके स्थानमें नि उपसर्गके योगसे ' निविशते' इस प्रकार आत्मनेपदका प्रयोग। उपर्युक्त लिंगादिव्यभिचारके अतिरिक्त और भी जो व्यभिचार हैं वे सब शब्दनयकी दृष्टिमें उचित नहीं हैं, क्योंकि, अन्य अर्थवाले शब्दका अन्य अर्थवाले शब्दके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता। इस कारण जैसा लिंग हो, जैसा वचन हो और जैसा साधन आदि हो वैसा व्यभिचारसे रहित प्रयोग करना चाहिये । इस प्रकार शब्दनयका स्वरूप कहा गया है। १ हासे मन्योक्तौ युस्मन्मन्येऽस्मत्त्वेकम् । मन्योक्ती- मन्यवाचि, हासे- प्रहासे, गम्यमाने युष्मद् भवतिः मन्ये मन्यतेस्त्वस्मदेकं च। पुहि, मन्ये रथेन यास्यसि, न हि यास्यसि, यातस्ते पिता। शब्दा. चं. १, २, १८२. २ ष. खं. पु. १, पृ. ८७, जयध. १, पृ. २३६. Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगदारे णयपरूवणा [१७९ नानार्थसमभिरोहणात्समभिरूढः । इन्दनादिन्द्रः शकनाच्छकः पूरिणात्पुरन्दर इत्येकस्यार्थस्यैकेन गतत्वादन्वर्थस्य नाम्नस्तत्र सामर्थ्याभावाद्वा पर्यायशब्दप्रयोगोऽनर्थक इति नानार्थरोहणात्समभिरूढः । अथ स्यान्न शब्दो वस्तुधर्मः, तस्य ततो भेदात् । नाभेदः, वाच्यवाचकभावाद् भिन्नेन्द्रियग्राद्यत्वाद् भिन्नसाधनत्वाद् भिन्नार्थक्रियाकारित्वादुपायोपेयरूपत्वात त्वगिन्द्रियग्राह्याग्राह्यत्वात् क्षुर-मोदकशब्दोच्चारणे मुखस्य पाटन-पूरणप्रसंगाद् वैयधिकरण्यात् । 'न च विशेष्याद् भिन्नं विशेषणमव्यवस्थापत्तेः। ततो न वाचकभेदाद्वाच्यभेद इति ? नैष दोषः, भिन्नानामपि वस्त्राभरणादीनां विशेषणत्वोपलम्भात् । न चैकत्वे व्यवच्छेद्य-व्यवच्छेदकभावो शब्दभेदसे जो नाना अर्थों में रूढ़ हो, अर्थात् जो शब्दके भेदसे अर्थके भेदको स्वीकार करता हो वह समभिरूढ़नय है। जैसे- इन्दन अर्थात् ऐश्वर्योपभोग रूप क्रियाके संयोगसे इन्द्र, सकना क्रियाके संयोगसे शक और पुरोंके विभाग करने रूप क्रियाके संयोगसे पुरन्दर, इस प्रकार एक अर्थका एक शब्दसे परिज्ञान होनेसे अथवा अम्वर्थक शब्दका उस अर्थमें सामर्थ्य न होनेसे पर्यायशब्दोंका प्रयोग व्यर्थ है। इसलिये नाना अर्थीको छोड़ एक अर्थमें ही शब्द का रूढ़ होना इस नयकी दृष्टि में उचित है। शंका-शब्द वस्तुका धर्म नहीं है, क्योंकि, उसका वस्तुसे भेद है। और यदि उसका वस्तुसे अभेद माना जाय तो यह सम्भव नहीं है, क्योंकि, वस्तु वाच्य है और शब्द बाचक है: वस्तु भिन्न इन्द्रियसे ग्राह्य है और शब्द भिन्न इन्द्रियसे ग्राह्य है: वस्तके कारण भिन्न हैं और शब्दके कारण भिन्न हैं; वस्तुकी अर्थक्रिया भिन्न है और शब्दकी अर्थक्रिया भिन्न है; शब्द उपाय है और वस्तु उपेय है, तथा वस्तु त्वगिन्द्रयसे ग्राह्य है और शब्द त्वगिन्द्रियसे ग्राह्य नहीं है। इसके अतिरिक्त उन दोनों में अभेद माननेपर छुरा और मोदक शब्दोंका उच्चारण करनेपर क्रमसे मुखके कटने और पूर्ण होनेका प्रसंग आता है। अतः दोनों में सामानाधिकरण्य न होनेसे अभेद नहीं हो सकता। कदाचित् शब्द और वस्तमे विशषण विशेष्यभाव मानकर यदि शब्दको वस्तुका धमे स्वीकार करें तो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, विशेष्यसे भिन्न विशेषण नहीं होता; कारण कि ऐसा मानने में अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। अत एव शब्द वस्तुका धर्म न होनेसे उसके भेदसे अर्थका भेद नहीं हो सकता? समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, विशेष्यसे भिन्न भी वस्त्राभरणादिकोंके विशेषणता पायी जाती है। और विशेष्यसे विशेषणको एक मानने पर उनमें व्यवच्छेद्यव्यवच्छेदकभाव मानना भी योग्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, अभेद माननेपर उसका ........................ १. सि. १, ३३. तं. रा. १, ३३, १०. 4. खं. पु. १, पृ. ८९. जयंध. १, पृ. १३९. २ नयच. १, पृ. २४०. ३ प्रतिषु 'घटन' इति पाठः। ४ जयध. १. पृ. २३२. Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] छक्खंडागमे घेयणाखंड [४, १, ४५. युज्यते, विरोधात । न स्वतो व्यतिरिक्ताशेषार्थव्यवच्छेदकः शब्दः, अयोग्यत्वात् । योग्यः शब्दो योग्यार्थस्य व्यवच्छेदक इति नातिप्रसंग आढौकते । कुतो योग्यता शब्दार्थानाम् ? स्व-पराभ्याम् । न चैकान्तेनान्यत एव तदुत्पत्तिः, स्वतो विवर्तमानानामर्थानां सहायत्वेन वर्तमानबाह्यार्थोंपलम्भात् । न च शब्दयोर्दैविध्ये तत्सामर्थयोरेकत्वं न्याय्यम् , भिन्नकालोत्पन्नद्रव्योपादानभिन्नाधारयोरेकत्वविरोधात् । न च सादृश्यमपि, तयोरेकत्वापत्तेः । ततो वाचकभेदादवश्यं वाच्यभेदेनापि भवितव्यमिति नानार्थाभिरूढः समभिरूढः । एवं समभिरूढनयस्वरूपमभिहितम् । वाचकगतवर्णभेदेनार्थस्य गवाद्यर्थभेदेन गवादिशब्दस्य च भेदकः एवम्भूतः । क्रियाभेदे न अर्थभेदकः एवम्भूतः, शब्दनयान्तर्भूतस्य एवम्भूतस्य अर्थनयत्वविरोधात् । केऽर्थनयाः ? विरोध है। शब्द अपनेसे भिन्न समस्त पदार्योंका व्यवच्छेदक नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें वैसी योग्यता नहीं है। किन्तु योग्य शब्द योग्य अर्थका व्यवच्छेदक होता है, अत एव अतिप्रसंग नहीं आता। शंका-शब्द और अर्थके योग्यता कहांसे आती है ? समाधान-स्व और परसे उनके योग्यता आती है । सर्वथा अन्यसे ही उसकी उत्पत्ति होती हो ऐसा है नहीं, क्योंकि, स्वयं वर्तनेवाले पदार्थोकी सहायतासे वर्तते हुए बाह्य पदार्थ पाये जाते हैं । दूसरे, शब्दोंके दो प्रकार होनेपर उनकी शक्तियोंको एक मानना भी उचित नहीं है, क्योंकि, भिन्न कालमें उत्पन्न भिन्न उपादान एवं भिन्न आधारवाली शब्दशक्तियोंके अभिन्न होनेका विरोध है । उनमें सादृश्य भी नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर एकताकी आपत्ति आती है। इस कारण वाचकके भेदसे वाच्यभेद भी अवश्य होना चाहिये। अत एव शब्दभेदसे नाना अर्थो में जो रूढ़ है वह समभिरूढ़ नय है, यह सिद्ध है। इस प्रकार समभिरूढ़ नयका स्वरूप कहा गया है। जो शब्दगत वर्णोके भेदसे अर्थका और गौ आदि अर्थके भेदसे गो आदि शब्दका भेदक है वह एवम्भूत नय है । क्रियाका भेद होनेपर एवम्भूत नय अर्थका भेदक नहीं है, क्योंकि, शब्दनयके अन्तर्गत एवम्भूत नयके अर्थनय होने का विरोध है । शंका- अर्थनय कौन हैं ? १ प्रतिषु व्यवच्छेदकशब्दः' इति पाठः। २ शब्दभेदश्वेदस्ति अर्थभेदेनाप्यवश्यं भवितव्यामिति नानार्थसमभिरोणात् समभिरूदः । स. सि. १.३३. त. रा. १, ३३, १०. ३ ष. खं. पु. १, पृ. ९०. जयध. १, पृ. २४२. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे णयपरूवणा क्रिया-गुणाद्यर्थगतभेदेनार्थभेदनात् संग्रह-व्यवहारर्जुसूत्रा अर्थनयाः, शेषाः शब्दपृष्ठतोऽर्थग्रहणप्रवणत्वात् शब्दनयाः । न एकगमो नैगम इति न्यायात् शुद्धाशुद्धपर्यायार्थिनयद्वयविषयः पर्यायार्थिकनैगमः; द्रव्यार्थिकनयद्वयविषयः द्रव्यार्थिकनैगमः'; द्रव्य-पर्यार्थिकनयद्वयविषयः नैगमो द्वंदजः, एवं त्रयो नैगमाः । नव नयाः क्वचिच्छ्रयन्त इति चेन्न नयानामियत्तासंख्यानियमाभावात् । अत्रोपयोगिनी गाथा जावदिया वयणवहा तावदिया चव होति णयवादा । जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमया ॥ ५८ ॥ समाधान - क्रिया और गुणादिक रूप अर्थगत भेदसे अर्थका भेद करनेके कारण संग्रह, व्यवहार व ऋजुसूत्र नय अर्थनय हैं। शेष नय शब्दके पीछे अर्थके ग्रहणमें तत्पर होनेसे शब्दनय हैं। 'जो एकको विषय न करे अर्थात् भेद व अभेद दोनोंको विषय करे वह नैगमनय है' इस न्यायसे जो शुद्धपर्यायार्थिक नय व अशुद्धपर्यायार्थिक नय इन दोनोंके विषयको ग्रहण करनेवाला हो वह पर्यायार्थिक नैगमनय है। शुद्धद्रव्यार्थिक और अशुद्धद्रव्यार्थिक दोनों नयोंके विषयको ग्रहण करनेवाला द्रव्यार्थिक नैगमजय है। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयोंके विषयको ग्रहण करनेवाला द्वंदज अर्थात् द्रव्य-पर्यायार्थिक नैगमनय है । इस प्रकार तीन नैगम हैं । शंका – कहींपर नौ नय सुने जाते हैं ? समाधान - नहीं, क्योंकि, 'नय इतने हैं ' ऐसी संख्याके नियमका अभाव है। यहां उपयोगी गाथा जितने वचनमार्ग है उतने ही नयवाद है, तथा जितने नयवाद है उतने ही परसमय हैं ॥ ५८ ॥ १ प्रतिषु ' व्यपर्यायार्थिकनयद्वयविषयः पर्यायाधिकनैगमः ' इति पाठः । २ द्रव्यार्थिकनैगमः पर्यायार्थिकनैगमः द्रव्य-पर्यायार्थिकनैगमश्चेत्येवं त्रयो नैगमोः । तत्र सर्वमेकं सदविशेषात् , सर्व द्विविधं जीवाजीवमेदादित्यादियुक्त्यवष्टम्भबलेन विषयीकृतसंग्रह-व्यवहारनयविषयः द्रव्यार्थिकनैगमः। माजसूत्रादिनयचतुष्टयविषयं युक्त्यवष्टम्भबलेन प्रतिपन्नः पर्यायार्थिकनेगमः। द्रव्यार्थिकमयविषयं पर्यायार्थिकनयविषय प्रतिपनः द्रव्य-पर्यायार्थिकनेंगमः। जयध. १, पु. २४४. ३. खं. पु. १, पृ. ८०. जयध. १, पृ. २४५. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ 1 छक्खडागमे यणाखंडे [ ४, १,४५. एते सर्वेऽपि नयाः अनवधृतस्वरूपाः सम्यग्दृष्टयः, प्रतिपक्षानिराकरणात्' । एत एव दुरधारिताः मिथ्यादृष्टयः, प्रतिपक्षनिराकरणमुखेन प्रवृत्तत्वात् । अत्रोपयोगिनः श्लोकाःयथैकं कारकमर्थसिद्धये समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम् । तथैव सामान्य- विशेषमातृका नयास्तवेष्टा गुण-मुख्यकल्पतः ॥ ५९ ॥ य एव नित्य-क्षणिकादयो नयाः मिथोऽनपेक्षाः स्व- परप्रणाशिनः । तएव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः स्व-परोपकारिणः ॥ ६० ॥ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्यकृत् ॥ ६१ ॥ एतेषां नयानां विषय उपनयः उपचारात् । तत्समूहो वस्तु, अन्यथार्थक्रियाकर्तृत्वानुपपत्तेः । अत्रोपयोगी श्लोकः - ये सभी नय वस्तुस्वरूपका अवधारण न करनेपर समीचीन नय होते हैं, क्योंकि, वे प्रतिपक्ष धर्मका निराकरण नहीं करते । किन्तु ये ही जब दुराग्रहपूर्वक वस्तुस्वरूपका अवधारण करनेवाले होते हैं तब मिथ्यानय कहे जाते हैं, क्योंकि, वे प्रतिपक्षका निराकरण करनेकी मुख्यतासे प्रवृत्त होते हैं। यहां उपयोगी लोक जिस प्रकार एक कारक शेषको अपना सहायक कारक मान करके प्रयोजनकी सिद्धिके लिये होता है, उसी प्रकार सामान्य व विशेष धर्मोसे उत्पन्न जय आपको मुख्य और गौणकी विवक्षासे इष्ट हैं ॥ ५९ ॥ जो नित्य व क्षणिक आदि नय परस्पर में निरपेक्ष होकर अपना व परका नाश करनेवाले हैं वे ही आप विमल मुनिके यहां परस्परकी अपेक्षा युक्त हो अपने व परके उपकारी हैं ॥ ६० ॥ मिध्यानयका विषयसमूह मिथ्या है, ऐसा कहनेपर उत्तर देते हैं कि वह मिथ्या ही हो, ऐसा हमारे यहां एकान्त नहीं है। किन्तु परस्परकी अपेक्षा न रखनेवाले नय मिथ्या हैं, तथा परस्परकी अपेक्षा रखनेवाले वे वास्तवमें अभीष्टसिद्धिके कारण हैं ॥ ६१ ॥ इन नयाँका विषय उपचारसे उपनय है । इनका समूह वस्तु है, क्योंकि, इसके विना अर्थक्रियाकारित्व नहीं बन सकता। यहां उपयोगी श्लोक १ न चैकान्तेन नयाः मिथ्यादृष्टय एव, परपक्षानिराकरिष्णूनां सप (स्वप ) क्षतत्वावधारणे व्यापृतानां स्यात्सम्यग्दृष्टित्वदर्शमात् । जयध. १, पृ. २५७. २ एते सर्वेऽपि नयाः एकान्तावधारणगर्भा मिथ्यादृष्टयः, एतैरध्ववसितवस्त्वभावात् । जयध. १, पृ. २४५. ६ प्रतिषु 'तेषा' इति पाठः । ४ बुँ. स्व. ६२. तत्र 'यथैककं' इत्यस्य स्थाने 'यथैकशः' इति पाठः । ५ बु. स्त्र. ६१. ६ आ. सी. १०८. ७ प्रतिषु ' विषयोपनयः ' इति पाठः । तच्छाखा प्रशाखात्मोपनयः । अष्टशती १०७. Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] . कदिअणियोगद्दारे णयपरूवणा [ १८३ ( नयोपनयकान्तानां त्रिकालानां समुच्चयः । अविनाड्भावसम्बन्धो द्रव्यमेकमनेकधा' ॥ ६२ ॥ एयदवियम्मि जे अस्थपञ्जया वयणपज्जया चावि । तीदाणागदभूदा तावदिय तं हवइ दव्यं ।। ६३ ॥ धर्मे धर्मेऽन्य एवार्थो धर्मिणोऽनन्तधर्मणः । अंगित्वेऽन्यतमान्तस्य शेषान्तानां तदंगता' ।। ६४ ॥ स्यादस्ति, स्यान्नास्ति, स्यादवक्तव्यम् , स्यादस्ति च नास्ति च, स्यादस्ति चावक्तव्यं च, स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च, स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च इति एतानि सप्त सुनयवाक्यानि प्रधानीकृतैकधर्मत्वात् । न चैतेषु सप्तस्वपि वाक्येषु स्याच्छब्दप्रयोगनियमः', तथा प्रतिज्ञाशयादप्रयोगोपल भात् । सावधारणानि वाक्यानि दुर्णयाः। एवं णयो परूविदो। नय एकान्त और उपनय एकान्तका विषयभूत त्रिकालवर्ती पर्यायोंका अभिन्न सत्ता. सम्बन्ध रूप समुदाय द्रव्य कहलाता है । वह द्रव्य कथंचित् एक और कथंचित् अनेक है ॥ ६२ ॥ एक द्रव्यमें जितनी अतीत व अनागत अर्थपर्याय और व्यञ्जनपर्याय होती हैं उतने मात्र वह द्रव्य होता है ॥ ६३ ॥ अनन्त धर्म युक्त धर्म के प्रत्येक धर्ममें अन्य ही प्रयोजन होता है। सब धर्मों में किसी एक धर्मके अंगी होनेपर शेप धर्म अंग होते हैं ॥ ६४॥ कथंचित् है, कथंचित् नहीं है, कथंचित् अवक्तव्य है, कथंचित् है और नहीं है, कथंचित् है और अवक्तव्या है, कथंचित् नहीं है और अबक्तव्य है, कथंचित् है नहीं है और अवक्तव्य है, इस प्रकार ये सात सुनयवाक्य हैं, क्योंकि वे एक धर्मको प्रधान करते हैं। इन सातों ही वाक्योंमें 'स्यात्' शब्दके प्रयोगका नियम नहीं है, क्योंकि, वैसी प्रतिज्ञाका आशय होनेसे अप्रयोग पाया जाता है। ये ही वाक्य सावधारण अर्थात् अन्यव्यावृत्ति रूप होनेपर हुर्नय हो जाते हैं । इस प्रकार नयकी प्ररूपणा समाप्त हुई। १ आ. मी. १०७. २ षट्खं. पु. १, पृ. ३८६, जयध. पृ. २५३. २ आ. मी. २२. ४ प्रतिषु प्रधानानिस्तेक... ' इति पाठः। ५ अप्रती ' स्यात्छब्दः प्रयोगनियमः' आ-काप्रयोः स्यात्प्रयोगनियमः' इति पाठः। ६ प्रतिषु 'सा च धारणानि इति पाठः। www.jairnelibrary.org Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. कम्मपयडिपाहुडस्स एदे चत्तारि वि अवयारा एदेण देसामासियसुतेण परूविदा । तं जहा 'अग्गेणियस्स पुव्वस्स पंचमस्स वत्थुस्स चउत्थे पाहुडे कम्मपयडी णाम । तत्थ इमाणि चवीस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति ' त्ति एदेण सव्वेण वि सुत्तेण उवक्कमो पंचविहो परूविदो । एसो उवक्कमो सेसाणं तिण्णं अवयाराणं उवलक्खणो, तेण ते विएत्थ दट्ठव्वा, एदस्स तदविणाभा वित्तादो । एदमग्गेणियं णाम पुव्वं णाण-सुदंग- दिट्टिवाद-व्वमिद छप्पयारं, णाणादीहिंतो पुधभूदेग्गेणियाभावादो । तेण सिस्समइविष्फारणङ्कं छण्णं पिच अवयारो उच्चदे । तं जहा - णाम- इवणा- दव्व-भावभेण चउग्विहं णाणं । आदिल्ला तिणि विणिक्खेवा दव्वडियणय संठिदा, तिण्णमण्णय दंसणादो । भावो पज्जवडियणय - - कर्मप्रकृतिप्राभृतके ये चारों ही अवतार ( उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय ) इस देशामर्शक सूत्रके द्वारा प्ररूपित किये गये हैं । वह इस प्रकारसे - ' अग्रायणी पूर्वकी पंचम वस्तुके चतुर्थ प्राभृतका नाम कर्मप्रकृति है। उसमें ये चौबीस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं' इस प्रकार इस समस्त ही सूत्र के द्वारा पांच प्रकार के उपक्रमकी प्ररूपणा की गई है । यह उपक्रम शेष तीन अवतारोंका उपलक्षण है, अत एव उन्हें भी यहां देखना चाहिये; क्योंकि, यह उनका अविनाभावी है । यह अप्रायणी पूर्व ज्ञान, श्रुत, अंग, दृष्टिवाद व पूर्वगतके अन्तर्गत होनेसे छह प्रकार है, क्योंकि, ज्ञानादिकोंसे पृथग्भूत अग्रायणी पूर्वका अभाव है । इसलिये शिष्योंकी बुद्धिको विकसित करनेके लिये उक्त छहोंके चार प्रकारका अवतार कहते हैं । विशेषार्थ — यहां अग्रायणी पूर्वका उद्गम इस प्रकार बतलाया गया है - मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय व केवलके भेदसे ज्ञान पांच प्रकार है। इनमें श्रुतज्ञान मुख्य है, क्योंकि, अग्रायणी पूर्व से उसका ही सम्बन्ध है । वह श्रुतज्ञान भी भंगश्रुत और अनंगश्रुतके भेद से दो प्रकार है । उनमें उक्त कारणसे ही अंगत मुख्य है । वह भी आचारांगादिके भेदसे बारह प्रकार है । इनमें बारहवां दृष्टिवादअंग मुख्य है जो पांच प्रकार है- परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका । इनमें पूर्वगत विवक्षित है, क्योंकि, उसके उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेदोंमें द्वितीय अग्रायणी पूर्व ही है । अतएव अग्रायणी पूर्व से सम्बद्ध होने के कारण यहां क्रमसे ज्ञान, श्रुतज्ञान, अंगश्रुत, दृष्टिवादअंग, पूर्वगत और अग्रायणी पूर्वके उपक्रमादि चार प्रकार अवतारके कहने की प्रतिज्ञा की गई है । वह इस प्रकार है - नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ज्ञान चार प्रकार है। इनमें आदि तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके आश्रित हैं, क्योंकि, उन तीनके अन्वय देखा जाता है । भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाला है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायसे १ प्रतिषु ' पुव्वभूद ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' चव्विहाणं ' इति पाठः । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं णिबंधणो, वट्टमाणपज्जएणुवलक्खियदव्वत्तस्स भावत्तन्भुवगमादो । वुत्तं च णामं ठवणा दवियं ति एस' दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो । भाव दुपज्जवट्टियपरूवणा एस परमट्ठों ॥ ६५ ॥ संपहिणिक्खेवट्ठो वुच्चदे - णामणाणं णाणसद्दो अप्पाणम्मि वट्टमाणो । ठवणणाण सो एसो त्ति अभेदेण संकप्पिओ सम्भावासम्भावट्ठी । दुविहं दव्वणाणमागम - णोआगमभेएण । णाणपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वणाणं, णेगमणयावलंबणादो | णोआगमदव्वणाणं तिविहं जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तणोआगमदव्वणाणभेएण | जाणुगसरीर - भवियदुगं सुगमं, बहुसो परूविदत्तादो । तव्वदिरित्तणोआगमदव्वणाणं णाणहेदुपोत्थयादिदव्वाणि । णाणपाहुडजाणओ उवजुत्ता भावागमप्पाणं । एत्थ भावागमणाणे पयदं, सेसाणमसंभवादो । एदेण णयणिक्खेवा दो वि परुविदा | अणुगमो वि परुविदो चेव, णय-णिक्खेवाणं तमहि किच्च परुविदत्तादो । एत्थ उवक्कमो आणुपुव्वी - णाम-पमाण-वत्तव्वदत्थाहियारभेण पंचवि उपलक्षित द्रव्यको भाव स्वीकार किया गया है। कहा भी है नाम, स्थापना और द्रव्य ये तीन द्रव्यार्थिक नयके निक्षेप हैं, किन्तु भाव पर्यायार्थिक नयका निक्षेप है; यह परमार्थ सत्य है ॥ ६५ ॥ अब निक्षेपका अर्थ कहते हैं— नाम ज्ञान अपने आपमें रहनेवाला शान शब्द है 1 'वह यह है' इस प्रकार अभेदसे संकल्पित सद्भाव व असद्भाव रूप अर्थ स्थापनाज्ञान है । द्रव्यज्ञान आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । ज्ञानप्राभृतका जानकार उपयोगसे रहित जीव आगमद्रव्यज्ञान है, क्योंकि, यहां नैगम नयका अवलम्बन है । ज्ञायकशरीर, भव्य और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यज्ञान के भेदसे नोआगमद्रव्यज्ञान तीन प्रकार है । शायकशरीर और भव्य नोआगमद्रव्यज्ञान ये दो सुगम हैं, क्योंकि, इनकी प्ररूपणा बहुतवार की गई है । ज्ञानकी हेतुभूत पुस्तक आदि द्रव्य तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यज्ञान है । ज्ञानप्राभृतका जानकार उपयोगयुक्त जीव भावागमज्ञान है । यहां भावागमज्ञान प्रकृत है, क्योंकि, शेष ज्ञानोंकी यहां सम्भावना नहीं है । इसके द्वारा नय और निक्षेप दोनोंकी प्ररूपणा की गई है । अनुगमकी भी प्ररूपणा की ही गई है, क्योंकि, उसका ही अधिकार करके नय और निक्षेपकी प्ररूपणा की गई है । 1 यहां आनुपूर्वी, नाम, प्रमाण, वक्तव्यता और अर्थाधिकार के भेदसे पांच प्रकार [ १८५ १ प्रतिषु ' ते सो ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'ठवणाणं' इति पाठः । छ. क. २४. २. खं. पु, १, पृ. १५ पु. ४, पृ. ३. जयथ. १, पृ. २६०. ४ प्रतिषु ' तमइकिच्च ' इति पाठः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४५. वुच्चदे । तत्थ आणुपुवीए एत्थ णत्थि संभवो, णाणेगत्तविवक्खादो। णज्जते एदेण जीवादिपदत्था त्ति णाणमिदि गुणणामं । पमाणमेक्कं चेव, संगहणयावलंबणादो। अधवा पमाणं अणतं, णाणस्स णयप्पमाणत्तादो । वत्तब्वमेदस्स ससमय-परसमया । मदि-सुद-ओधिमणपज्जव-केवलणाणभेएण पंच अहियारा, ण वड्डिमा ण चूणा; ववहारणयावलंबणादो। __ संपदि सुदणाणमुहेण चउब्धिहो वयारो वुच्चदे- णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावसुदणाणभेएण चउविहं सुदणाणं । आदिल्ला तिण्णि वि दव्वट्ठियस्स णिक्खेवा । कधं णामं दव्वट्ठियस्स ? ण, पज्जवहिए खणक्खएण सद्दत्थविसेसभावेण संकेदकरणाणुववत्तीए वाचियवाचयभेदाभावादो । कधं सद्दणएसु तिसु वि सद्दववहारो ? अणप्पिदअत्थगयभयाणमप्पिदसद्दणिबंधणभेयाणं तेसिं तदविरोहादो । कधं ट्ठवणा दव्वट्ठियणयविसओ ? ण, अत्थम्हि' उपक्रम कहा जाता है। उनमें आनुपूर्वी की यहां सम्भावना नहीं है, क्योंकि, यहां ज्ञानके एकत्वकी विवक्षा है। चूंकि इससे जीवादि पदार्थ जाने जाते हैं अतः 'ज्ञान' यह गुणनाम है। प्रमाण- एक ही है, क्योंकि, यहां संग्रहनयका अवलम्बन है । अथवा प्रमाण अनन्त है, क्योंकि, ज्ञान शेयके प्रमाण है अर्थात् जितने ( अनन्त ) शेय हैं उतने ही ज्ञान भी हैं। वक्तव्य इसके स्वसमय और परसमय हैं। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ज्ञानके भेदसे अधिकार पांच हैं । न वे अधिक है और न कम भी, क्योंकि, यहां व्यवहारनयका अवलम्बन है। ___ अब श्रुतज्ञानकी मुख्यतासे चार प्रकारका अवतार कहते हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव श्रुतके भेदसे श्रुतक्षान चार प्रकार है। इनमें आदिके तीनों ही निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके हैं। शंका-नाम द्रव्यार्थिकनयका निक्षेप कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिकनयमें क्षणक्षयी होनेसे शब्द और अर्थकी विशेषतासे संकेत करना न बन सकने के कारण वाच्य वाचकभेदका अभाव है। शंका-तो फिर तीनों ही शब्दनयोंमें शब्दका व्यवहार कैसे होता है ? समाधान-अर्थगत भेदकी अप्रधानता और शब्दनिमित्तक भेदकी प्रधानता रखनेवाले उक्त नयोंके शब्दव्यवहारमें कोई विरोध नहीं है । शंका-स्थापना द्रव्यार्थिकनयका विषय कैसे है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अर्थका उसके द्वारा ग्रहण होनेपर स्थापना १ अ.काप्रत्योः 'पज्जय' इति पाठः। २ अप्रती । अतम्हि '; आ-कापत्योः । अत्तम्हि ' इति पाठः। Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [ १८७ तर संते ठवणुववत्तदो । दव्वसुदाणं पि दव्वट्ठियणयविसओ, आहाराहेयाणमेयत्तकपणाए दव्वसुदग्गहणादो । भावणिक्खेवो पज्जवट्ठियणयविसओ, वट्टमाणपज्जाएणुवलक्खियदवगहणादो | णिक्खेवट्ठो वुच्चदे - णाम- दुवणा-आगम-णोआगमदव्वसुदणाणाणि सुगमाणि । णवरि सुदणाणहेदुभूद्गुरु- कवलियादीणि तव्वदिरित्तणोआगमदव्त्र सुदणाणं ति वत्तव्यं । सुदवजुत्ता पुरसो भावसुदणाणं । एवं णिक्खेव णयपरूवणाओ गदाओ । सुदणाणं पमाणं, ण प्पमेओ; तेणेत्थ अणहियारादो | अणुगमा गदो । पुत्रवाणुपुवीए बिदियं, पच्छाणुपुत्रीए चउत्थं, जहा - तहाणुपुवीए पढमं बिदियं तदियं वा । सुणाणं इदि णामं गोगोणं, सोदादिइंदिएहिंतो अणुप्पण्णस्स णाणस्स सुदणाणसण्णा गोण्णत्ताभावाद । पमाणमेक्कं चेव, सुदत्तमेत्तविवक्खादो । अक्खर -पद-संवादपडिवत्ति-अणियोगद्दारविवक्खाए सुदणाणं संखेज्जं । अथवा अगंत, पमेयाणंतियादो । वत्तव्वं स-परसमया, सुणय-दुण्णयसरूवपरूवणादो | अंगम गंगामिदि वे अत्याहियारा । सामाइयं बन सकती है । द्रव्यश्रुतज्ञान भी द्रव्यार्थिकनयका विषय है, क्योंकि, आधार और आधेयके एकत्वकी कल्पनासे द्रव्यश्रुतका ग्रहण किया गया है । भावनिक्षेत्र पर्यायार्थिक नयका विषय है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायले उपलक्षित द्रव्यका यहां भाव रूपले ग्रहण किया गया है । निक्षेपका अर्थ कहते हैं - नाम, स्थापना तथा आगम व नोआगम द्रव्यश्रुतज्ञान सुगम हैं। विशेष इतना है कि श्रुतज्ञानके निमित्तभूत गुरु और कवलिआ ( ज्ञानका एक उपकरण ) आदि तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यश्रुतज्ञान है, ऐसा कहना चाहिये । श्रुतज्ञानके उपयोग से युक्त पुरुष भावश्रुतज्ञान है । इस प्रकार निक्षेप और नयकी प्ररूपणा समाप्त हुई । श्रुतज्ञान प्रमाण है, प्रमेय नहीं है; क्योंकि, उसका यहां अधिकार नहीं है । अनुगमकी प्ररूपणा समाप्त हुई । वह श्रुतज्ञान पूर्वानुपूर्वी से द्वितीय, पश्चादानुपूर्वीसे चतुर्थ और यथा तथानुपूर्वी से प्रथम, द्वितीय अथवा तृतीय है। श्रुतज्ञान यह नाम नोगोण्य है, क्योंकि, श्रोत्रादिक इन्द्रियोंसे नहीं उत्पन्न हुए ज्ञानकी श्रुतज्ञान संज्ञाके गोण्यताका अभाव है । प्रमाण एक ही है, क्योंकि, यहां श्रुतसामान्यकी विवक्षा है। अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वार की विवक्षासे श्रुतज्ञान संख्यात है । अथवा, प्रमेय अनन्त होनेसे वह अनन्त है । वक्तव्य स्वसमय और परसमय हैं, क्योंकि, सुनय और दुर्नय के स्वरूपकी यहां प्ररूपणा की गई है । अंगश्रुत और अनंगश्रुत इस प्रकार अर्थाधिकार दो हैं । सामायिक, चतुर्विंशति Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८1 छक्खंडागमे यणाखंड [४, १, १५. चउवीसत्थओ वंदण पडिक्कमणं वेणइयं किदियम्मं दसवेयालियं उत्तरायणं कप्पववहारो कप्पाकप्पियं महाकप्पियं पुंडरीय महापुंडरीयं णिसिहियमिदि चोद्दसविहमणंगसुदं । तत्थ सामाइयं दव्व-खेत्त-काले अप्पिदूण पुरिसजादं आभोगिय परिमिदापरिमियकालसामाइयं परूवेदि। चदुवीसत्थओ उसहादिजिणिंदाणं तच्चेइय-चेइयहराणं च कट्टिमाकट्टिमाणं दव्व-खेत्त-कालभावपमादिवण्णणं कुणदि । वंदणा एदेसिं वंदणविहाणं परूवेदि दव्वट्ठियणयमवलंबिऊण । पडिक्कमणं दीवसिय-राइय-इरियावहिय-पक्खिय-चाउम्मासिय-संवच्छरिय-उत्तमट्ठमिदि सत्तपडिक्कमणाणि भरहादिखेत्ताणि दुस्समादिकाले छसंघडण समण्णिर्यपुरिसे च अप्पिदूण स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निषिद्धिका, इस प्रकार अनंगश्रुत चौदह प्रकार है। उनमें सामायिक अनंगथुत द्रव्य, क्षेत्र और कालकी अपेक्षा करके एवं पुरुषवर्गका विचार करके परिमित एवं अपरिमित काल रूप सामायिकका प्ररूपण करता है। चतुर्विंशतिस्तव अधिकार वृषभादिक जिनेन्द्रों और उनकी कृत्रिम व अकृत्रिम प्रतिमाओं एवं चैत्यालयोंके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और प्रमाणादिका वर्णन करता है। वन्दना अधिकार द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन करके उनकी वन्दनाकी विधिका प्ररूपण करता है। प्रतिक्रमण अधिकार देवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण, इस प्रकार सात प्रतिक्रमणों की भरतादिक क्षेत्रों, दुषमादिक कालों और छह संहनन युक्त पुरुषोंकी विवक्षाकर प्ररूपण करता है । वैनयिक १ष. खं. पृ. १, पृ. ९६. जयध. १, पृ. ९७. तत्र समम् एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः, अयमह ज्ञाता द्रष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः आत्मनः एकस्यैव शेय-बायकत्वसम्भवात् । अथवा सं समे राग-द्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आयः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः, स प्रयोजनमत्यति सामायकं नित्य-नैमित्तिकानुष्ठानम्, तत्प्रतिपादकं शायं वा सामायिकमित्यर्यः । गो. जी, जी.प्र ३६७. अंगपण्णत्ती. ३, ११-१३. २. खं. पु. १, पृ. ९६. जयध. १, पृ. १००. ततत्कालसम्बन्धिनां चतुर्विशतितीर्थकराणां नामस्थापना-द्रव्य-भावानाश्रित्य पंचमहाकल्याण-चतुस्त्रिंशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्य-परमोदारिकदिव्यदेह समवसरणसभाधर्मोपदेशनादितर्थिकरमहिमस्तुतिः चतुर्विशतिस्तवः, तस्य प्रतिपादक शास्त्रं वा चतुर्विशतिस्तव इत्युच्यते । गो. जी. जी. प्र. ३६७. अं. प. ३, १४-१५. ३ ष. खं. पु. १, पृ. ९७. जयध. १, पृ. १११. तस्मात् परं एकतीर्थकरावलम्बना चैत्य-चैत्यालयादिस्तुतिः वन्दना, तत्प्रतिपादकं शास्त्रं वा वन्दना इत्युच्यते । गो. जी. जी. प्र. ३६७. अं. प.३-१६. अप्रती । उसंघडणसमाणिय', आ-काप्रत्योः ' उसंघणणसमणिय', मप्रती चसंघडणसमाणिय' इति पाठः। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरण (૨૮૨ परूवेदि' । वेणइयं भरहेरावद-विदेहसाहणं दव्व-खेत्त-कालभावे पडुच्च णाण-दसण-चारित्ततवोवचारियविणयं वणेदि । किदियम्मं अरहंत-सिद्धाइरिय-उवझाय-गणचिंतय-गणवसहाईणं कीरमाणपूजाविहाणं वण्णेदि । एत्थुववुज्जती गाहा दुओणदं जहाजादं बारसावत्तमेव" वा । चउसीसं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजए ॥ ६४ ॥ अधिकार भरत, ऐरावत व विदेहमें साधने योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रयकर शानविनय, दर्शनविनय, चारित्रविनय, तपोविनय एवं औपचारिक विनयका वर्णन करता है । कृतिकर्म अधिकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, गणचिन्तक (साधुसंघके कायाँकी चिन्ता करनेवाले) और गणवृषभ (गणधर) आदिकोंकी की जानेवाली पूजाके विधानका वर्णन करता है । यहां उपयुक्त गाथा यथाजात अर्थात् जातरूपके सदृश क्रोधादि विकारोंसे रहित होकर दो अवनति, बारह आवर्त, चार शिरोनति और तीन शुद्धियोसे संयुक्त कृतिकर्मका प्रयोग करना चाहिये ॥ ६४ ॥ विशेषार्थ-अरहन्तादिकोंकी की जानेवाली पूजाके विधानका नाम कृतिकर्म है। इसमें कितनी अवनति, कितनी शिरोनति और कितने आवर्त किये जाते हैं, इसका निर्देश इस गाथामें किया गया है। दोनों हाथ जोड़कर शिरसे भूमिस्पर्श रूप नमस्कार करनेका ........................... १ . खं. पु. १, पृ. ९७. जयध. १, पृ. ११३. अं. प.३, १७-१९. २ प्रतिषु । वेण्णेदि ' इति पाठः । ष. खं. पु. १. पृ ९७. विणओ पंचविहो- णाणविणओ दंसणविणओ चरिचविणओ तवविणओ उवयारियविणओ चेदि । गुणाधिकेषु नीचैटिविनयः । एदोसि पंचण्हं विणयाणं लक्खणं विहाणं फलं च वइणयियं परूवेदि । जयध. १, पृ. ११७. अं. प. ३, २०. ३ अ-आप्रत्योः ' चउझाय' इति पाठः। ४ ष. खं. पु. १, पृ. ९७. कृत्यते छिद्यते अष्टविधं कर्म येनाक्षरकदम्बकेन परिणामेन क्रियया वा तत् कृतिकर्म पापविनाशोपायः । मूला. टीका ७-७९. जिण-सिद्धाइरिय-बहुसुदेसु वंदिज्जमाणेसु जं कीरइ कम्मं तं किदियम्म णाम । तस्स आदाहीण-तिक्खुत्त-पदाहिण-तिओणद-चदुसिर-बारसावतादिलक्खणं विहाणं फलं च किदियम्म वण्णेदि । जयध. १, पृ. ११८. अं. प. ३, २२-२३. ५ प्रतिघु 'मेय वा' इति पाठः। ६ दोणदं तु जधाजादं बारसावत्तमेव य । चदुरिसरं तिसुद्धं च किदियम्म पउंजदे || मूला. ७, १०४. चतु शिरस्त्रि-द्विनतं द्वादशावर्तमेव च । कृतिकर्माख्यमाचष्टे कृतिकर्मविधि परम् ॥ ह. पु. १०, १३३. दुओणयं जहाजायं कितिकम्मं बारसावयं । चउसिरं तिगुत्तं च दुपवेसं एगणिक्खमणं ॥ समवायांग सूत्र १२, Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. 1 - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. दसवेयालियं दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण आयार-गोयरविहिं' वण्णेदि । उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादिविसेसिदं परूवेदि। कप्पववहारो साहूण जे जम्हि काले कप्पदि पिच्छ-कमंडलु-कवली-पोत्थयादि परूवेदि, अकप्पसेवणाए कप्पस्स असेवयणाए च पायच्छित्तं परूवेदि । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि नाम अवनति है। यह अवनति एक पंचनमस्कारके आदिमें और एक चतुर्विंशतिस्तवके आदिमें, इस प्रकार प्रकार दो वार की जाती है । मन, वचन व कायके संयमन रूप शुभ योगोंके वर्तनेका नाम आवर्त ( दोनों हाथ जोड़कर उनको अग्रिम भागकी ओरसे चक्राकार घुमाना) है। पंचनमस्कारमंत्रोच्चारण के आदि व अन्तमें तीन-तीन तथा चतुर्विंशतिस्तवके आदि व अन्तमें तीन-तीन, इस प्रकार बारह आवर्त किये जाते हैं। अथवा, चारों दिशाओंमें घूमते समय प्रत्येक दिशामें एक-एक प्रगाम किया जाता है । इस प्रकार तीन वार घूमनेपर वे बारह होते हैं। दोनों हाथ जोड़कर शिरके नमानेका नाम शिरोनति है । यह क्रिया पंचनमस्कार और चतुर्विंशतिस्तवके आदि व अन्तमें एक एक वार करनेसे चार वार की जाती है। यह कृतिकर्म जन्मजात बालकके समान निर्विकार होकर मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक किया जाना चाहिये । दशवैकालिक अनंगभुत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रयकर आचारविषयक विधि व भिक्षाटनविधिकी प्ररूपणा करता है । उत्तराध्ययन अनंगश्रुत उद्गमदोष, उत्पादनदोष और एषणदोष सम्बन्धी प्रायश्चितकी विधिको कालादिसे विशेषित प्ररूपणा करता है। कल्प्यव्यवहार श्रुत साधुओंको पीछी, कमण्डलु, कवली (ज्ञानोपकरणविशेष) और पुस्तकादि जो जिस काल में योग्य हो उसकी प्ररूपणा करता है, तथा अयोग्य सेवन और योग्य सेवन न करनेके प्रायश्चित्तकी प्ररूपणा भी करता है। कल्पयाकल्प्य श्रुत साधुओंको जो योग्य है [ और जो योग्य नहीं है ] उन १ प्रतिषु · गोयारविहिं ' इति पाठः । २. खे.पु. १, पृ. ९७. साहूणमायार-गोयरविहिं दसवेयालीय वण्णेदि। जयध. १, पृ. १२०. जदिगोचारस्स विहिँ पिंडवितुद्धिं च ज परूवेदि। दसवेयालियतुते दह काला जत्थ संवा ॥ अं. प. ३, २४, ३ मप्रतौ । विससिदव्व ' इति पाठः । ४ ष. खं. पु. १, पृ. ९७. चउबिहोवसग्गाणं बावीसपरिस्सहाणं च सहणविहाणं सहणफलमेदम्हादो एदमुत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२०. अं. प. ३, २५-२६. ५१. खं. पु. १, पृ. ९७. रिसीणं जो कप्पइ ववहारो तम्हि खलिदे जं पायच्छित्तं तं च भणइ कप्पबवहारो। जयध. १, पृ. १२०. कप्पव्ववहारो जहिं ववहिज्जइ जोग कप्पमाजोगा। सत्थं अवि इसिजोगं भायरण कहदि सव्वत्थ । अं. प. ३, २७. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [ १९१ [जं च ण कप्पदि ] तं दुविहं पि दव्व-खेत्त-कालमस्सिदूण परूवेदि। महाकप्पियं भरहइरावद-विदेहाणं तत्थतणतिरिक्ख मणुस्साणं देवाणमण्णेसिं दव्वाणं च सरूवं छक्काले अस्सिदूण परूवेदि। पुंडरीयं देवेसु असुरेसु णेरइएसु च तिरिक्ख-मणुस्साणमुववादं छक्कालविसेसिद परुवेदि । एदम्हि काले तिरिक्खा मणुस्सा च एदेसु कप्पेसु एद्रासु पुढवीसु उप्पज्जति त्ति परुवेदि त्ति वुत्तं होदि। महापुंडरीयं देविंदेसु चक्कवट्टि-बलदेव-वासुदेवेसु च कालमस्सिदूण उववादं वण्णेदि। णिसिहियं पायच्छित्तविहाणमण्णं पि आचरणविहाणं कालमस्सिदूण परूवेदि।) दोनोंकी ही द्रव्य, क्षेत्र और कालका आश्रयकर प्ररूपणा करता है। महाकल्प्य श्रुत भरत, ऐरावत और विदेह तथा वहां रहनेवाले तिर्यंच व मनुष्योंके, देवोंके एवं अन्य द्रव्योंके भी स्वरूपका छह कालोंका आश्रयकर निरूपण करता है। पुण्डरीक श्रुत छह कालोसे विशेषित देव, असुर एवं नारकियों में तिर्यच व मनुष्योंकी उत्पत्तिकी प्ररूपणा करता है। इस कालमें तिर्यंच और मनुष्य इन कल्पों व इन प्रथिवियों में उत्पन्न होते हैं, इसकी वह प्ररूपणा करता है; यह अभिप्राय है। महापुण्डरीक श्रुत कालका आश्रयकर देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव व वासुदेवोंमें उत्पत्तिका वर्णन करता है। निषिद्धिका कालका आश्रयकर प्रायश्चित्तविधि और अन्य आचरणविधिकी भी प्ररूपणा करता है। १ष. खं. पु. १. पृ. ९८. साहणमसाहणं च जं कप्पइ जं च ण कप्पर तं सव्वं दव-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण भणइ कप्पाकप्पियं । जयध. १, पृ. १२१. गो. जी. जी. प्र. ३६८. कप्पाकप्पं तं चिय साहूणं जत्थ कप्पमाकप्पं । वणिज्जा आसिच्चा दव्वं खेतं भवं कालं ॥ अं. प.३, २८. २ प्रतिषु — भवहइतावद ' इति पाठः। ३ ष.वं. पु. २, पृ. ९८. साहणं गहण-सिक्खा -गणपोसणप्पसंसकरण-सल्लेहणुत्तमट्ठाणगयाणं जं कप्पइ तरस चेव दव-खेत-काल-भावे अस्सिदण परूवणं कुणइ महाकप्पियं । जयध. १, पृ. १२१. महतां कल्यमस्मिन्निति महाकल्प्य शास्त्रम् । तच्च जिनकल्पसाधनामुत्कृष्ट संहननादिविशिष्टद्रव्य-क्षेत्र-काल-भाववर्तिनां योग्यं त्रिकालयोग्याद्यनुष्ठान स्थविरकल्पानां दीक्षा-शिक्षा-गणपोषणात्मसंस्कार-सल्लेखनोतमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेष च वर्णयति । गो. जी. जी. प्र. ३६८. अं. प. ३, २९-३१. ४ ष. खं. पु. १, पृ. ९८. भवणवासिय-वाणवेतर जोइसिय-कप्पवासिय-वेमाणियदेविंद-समाणियादिसु उप्पति कारणदान-पूजा-सील-तवोववास-सम्मत्त-अकाम-णिज्जराओ तेसिमुववादभवणसरूवाणि च वण्णेदि पुंडरीयं । जयध. १, पृ, १२१. गो. जी. जी. प्र. ३६८. अं. प. ३, ३१-३३. ५ष. खं. पु. १, पृ. ९८. तेसिं चेव पुव्वुत्तदेवाणं देवीसु उप्पतिकारणतयोववासादियं महापुंडरीयं परूवेदि । जयध. १, पृ. १२१, महच्च तत्पुण्डरीकं महापुण्डरीकं शास्त्रम् । तच्च महद्धि केषु इन्द्र-प्रतीन्द्रादिषु उत्पत्तिकारणतपोविशेषाद्याचरणं वर्णयति । गो. जी. जी. प्र. ३६८. ६ ष. खं. पु. १, पृ. ९८. णाणाभेदभिण्णं पायच्छित्तविहाणं णिसीहियं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२१. णीसोहियं हि सत्थं पमाददोसस्स दूरपरिहरणं । पायच्छित्तविहाणं कहेदि कालादिभावणं ।। अं. प. ३. ३४. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. संपहि णाम- ट्ठवणा दव्व-भावंगसुदभेएण चउविहमंगसुदणाणं । आदिल्ला तिष्णि विणिक्खेवा दव्वट्ठियणयपहवा, भावणिक्खेवो पज्जवट्ठियणयसमुब्भूदो । तत्थ णिक्खेवट्ठो वुच्चदे - अंगसद्दो अप्पाणम्मि वट्टमाणो णामंगं । तमेदं ति बुद्धीए अण्णत्थ समारोविदं ट्ठवर्णनं । अंगसुदपारओ अणुवज्जुत्तो भट्टाभट्ठेसंसकारो आगमदव्वंगं | जाणुगसरीरं भवियवट्टमाण-समुज्झाद' णोआगमदव्वंगं । कधमेदिर्सि अंगसण्णा ? आधारे आधेयोवयारादो । जदि एवं तो णोआगमत्तं ण घडदे, अंगागमाणमभेदादो ? ण, जीवदव्वस्स सदो अभिण्णआगमभावस्स भट्टाभट्ठसंसकारस्स आगमसण्णिदस्स पडिसेहफलत्तादो । होदु णाम सरीरस्स णोआगमत्तमंगसुदत्तं च, ण भविस्सकाले अंगसुदपारयस्स गोआगमत्तं, उवयारेण आगम अब नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव अंगश्रुतके भेदसे अंगश्रुतज्ञान चार प्रकार है । आदिके तीनों निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके निमित्त से होनेवाले हैं, तथा भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयसे उत्पन्न है । उनमें निक्षेपके अर्थको कहते हैं - अपने आपमें रहनेवाला अंग शब्द नाम अंग है । ' वह यह है ' इस प्रकार बुद्धिमें आरोपित अन्य अर्थका नाम स्थापना अंग है । जो जीव अंगश्रुतके पारंगत, उपयोग रहित व भ्रष्ट अथवा अभ्रष्ट संस्कार से सहित है वह आगम द्रव्य अंग है । भव्य, वर्तमान और त्यक्त शायकशरीर नोआगमद्रव्यअंग है । शंका- इनकी अंग संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - आधार में आधेयका उपचार करने से इनकी अंग संज्ञा उचित है । शंका- यदि ऐसा है तो उनके नोआगमपना घटित नहीं होता, क्योंकि, अंगके आगमसे कोई भेद नहीं है ? समाधान — नहीं, क्योंकि, उसका प्रयोजन स्वतः आगमभाव से अभिन्न, भ्रष्ट व अभ्रष्ट संस्कारवाले तथा आगम संज्ञासे युक्त जीव द्रव्यका प्रतिषेध करना है । शंका- शरीरके नोआगमत्व और अंगश्रुतत्व भले ही हो, किन्तु भविष्य काल में अंगश्रुतके पारगामी होनेवाले जीवके नोआगमपना सम्भव नहीं है, क्योंकि, वहां उपचार से १ प्रतिषु भट्टाभट्ट ' इति पाठः । २ अ - काप्रत्योः समज्झादं ' इति पाठः । " • ३ आप्रतौ सद्दो' इति पाठः । · Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं [१९३ सण्णिदजीवदव्वस्स तत्थुवलंभादो ? ण एस दोसो, एदस्स जीवस्स अंगसुदसण्णा चेव, अणागयअंगसुदपज्जाएण भविस्समाणत्तादो । उवयारेण आगमसण्णा णस्थि, वट्टमाणादीदाणागयआगमाधारधम्माणमभावादो। तव्वदिरित्तणोआगमअंगसुदमंगसुदसदरयणा तस्स हेदुभूददव्वाणि वा । अंगसुदपारओ उवजुत्तो आगमभावंगसुदं । केवलणाणी आगमंगसुदणिमित्तभूदो णोआगमंगसुदं । कथं पज्जायणए उवयारो जुज्जदे ? ण, णेगमणयावलंबणेण दोसाभावादो। एवं णिक्खेव-णयपरूवणा कदा। दोसु अणुगमेसु कस्सेत्थ गहण ? [ पमाणस्स ], ण प्पमेयस्स; तेणेत्थ अहियाराभावादो । पुवाणुपुवीए पढमं । पच्छाणुपुव्वीए बिदिय, णोअंगसुदं पेक्खिदूण अंगम्मि दुब्भाउवलंभादो। जत्थ-तत्थाणुपुत्री एत्थ ण संभवदि, दुब्भावादो । अंगसुदमिदि गुणणाम, आगम संज्ञा युक्त जीव द्रव्य पाया जाता है ? समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, इस जीवकी अंगश्रुत संज्ञा ही है। कारण कि वह भविष्यमें होनेवाली अंगश्रुत पर्यायसे भविष्यमान है। किन्तु उसकी उपचारसे आगम संज्ञा नहीं है, क्योकि वर्तमान, अतीत और अनागत कालम आगमक आधारभूत धर्मोंका वहां अभाव है। अंगश्रुतकी शब्दरचना अथवा उसके हेतुभूत द्रव्य तद्व्यतिरिक्त नोआगमअंगश्रुत कहलाते हैं। अंगश्रुतका पारगामी उपयोग युक्त जीव आगमभावअंगश्रुत है। आगमअंगश्रुतके निमित्तभूत केवलशानी नोआगमअंगभुत कहे जाते हैं । शंका-पर्यायनयमें उपचार कैसे योग्य है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, नैगमनयका अवलम्बन करनेसे कोई दोष नहीं आता। इस प्रकार निक्षेप और नयकी प्ररूपणा की गई है। दो अनुगमोंमें किसका यहां ग्रहण है ? [प्रमाणका ग्रहण है], प्रमेयका ग्रहण नहीं है; क्योंकि, उसका यहां अधिकार नहीं है। पूर्वानुपूर्वीसे प्रथम और पश्चादानुपूर्वीसे द्वितीय है, क्योंकि, नोअंगश्रुतकी अपेक्षा करके अंगमें द्वित्व पाया जाता है। यत्र-तत्रानुपूर्वी यहां सम्भव नहीं है, क्योंकि, दो ही भेद हैं । अंगश्रुत यह गुणनाम है, क्योंकि, जो तीनों कालकी १ प्रतिषु आगमसण्णिगद ' इति पाठः । २ प्रतिषु 'अणागम' इति पाठः । छ.क.२५. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. अंगति गच्छति व्याप्नोति त्रिकालगोचराशेषद्रव्य-पर्यायानित्यंगशब्दनिष्पत्तः । दव्वट्ठियणए अवलंबिदे पमाणमेक्कं चेव, अंगत्तं पडुच्च भेदाभावादो । ववहारणयं' पड्डच्च भण्णमाणे चउसट्ठी अंगसुदपमाणं होदि । कुदो ? चउसट्ठिअक्खरहि णिप्पण्णत्तादो । काणि चउसट्टिअक्खराइं ? वुचदे- कादि-हकारांता तेत्तीसवण्णा, विसज्जणिज्ज-जिब्भामूलीयाणुस्सारुवधुमाणिया चत्तारि, सरा सत्तावीस, हरस-दीह-पुधभेएण एक्केक्कम्हि सर तिणं सराणमुवलंभादो । एदे सव्वे वि वण्णा चउसट्ठी हवंति । अक्खरसंजोग' पडुच्च एक्कलक्ख-चउरासीदिसहस्सचदसद-सत्तसटि-कोडाकोडीयो चोदालीसलक्ख-तेहत्तरिसद-सत्तरिकोडीओ पंचाणउदिलक्खएक्कवंचाससहस्स-पण्णारसुत्तरछस्सदाणि च अंग्रसुदपमाणं होदि। १८४४६७४४०७३. ७०९५५१६१५। चउसट्ठि-अक्खराणमेग-दुसंजोगआदिभंगेहिंतो एत्तियमेत्तसंजोगक्खराणगुप्पत्तिदसणादों । पदं पडुच्च बारहुत्तरसदकोडि-तेसीदिलक्ख-पंचुत्तरअट्ठवंचाससहस्समेत्तमंग समस्त द्रव्य व पर्यायोको 'अंगति' अर्थात् प्राप्त होता है या व्याप्त करता है वह अंग है, इस प्रकार अंग शब्द सिद्ध हुआ है । द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन करनेपर प्रमाण एक ही है, क्योंकि, अंगसामान्यकी अपेक्षा कोई भेद नहीं है। व्यवहारनयकी अपेक्षा कथन करनेपर आंगश्रुतका प्रमाण चौंसठ है, क्योंकि, वह चौंसठ अक्षरोसे उत्पन्न हुआ है। शंका-चौसठ अक्षर कौनसे हैं ? समाधान-क को आदि लेकर हकार तक तेतीस वर्ण, विसर्जनीय, जिह्नामूलीय, अनुस्वार और उपध्मानीय ये चार; सत्ताईस स्वर, क्योंकि हस्व, दीर्व और प्लुतके भेदसे एक एक स्वरमें तीन स्वर पाये जाते हैं । ये सब ही वर्ण चौसठ होते हैं । अक्षरसंयोगकी अपेक्षा करके अंगभुतका प्रमाण एक लाख चौरासी हजार चार सौ सड़सठ कोडाकोड़ी चवालीस लाख तिहत्तर सौ सत्तर करोड़, पंचानबै लाख इक्यावन हजार छह सौ पन्द्रह १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ होता है, क्योंकि, चौंसठ अक्षरोंके एक दो संयोगादि रूप भंगोंसे इतने मात्र संयोगाक्षरोंकी उत्पत्ति देखी जाती है। पदकी अपेक्षा करके अंगश्रुतका प्रमाण एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठा १ प्रतिषु ' ववहारेणय' इति पाठः। २. जयध. १, पृ. ८९. तेत्तीस वेंजणाई सत्तावीसा सरा तहा भणिया। चगरि य जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ ॥ गो. जी. ३५१. ३ प्रतिपु 'सजोगं ' इति पाठः।। ४ जयथ. १, पृ. ८९. च उसद्विपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा । रूऊणं च कुए पुण सुदणागस्स खरा होति ॥ एकटु च च य छस्सत्यं च च मुण्ण-सत्त-सिय-सत्ता । सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥ गो. जी. ३५२-३५३. पणदस सोलस पण पण णव णभ सग तिणि चेव सगं । मुण्णं चउ-चउ-सग-क-चउ-चउ-अतुक्क सव्वसुदवण्णा ॥ अं. प. १, १४. Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं [१९५ सुदं। ११२८३५८००५। कधमेदेसिं पदाणुमुप्पत्ती ? सोलससदचोत्तीसकोडि-तेसीदिलक्ख-अट्ठहत्तरिसदअट्ठासीदिसंजोगअक्खरेहि मज्झिमपदमेगं होदि। १६३४८३०७८८८ । एदेहि एगमज्झिमपदसंजोगक्खरेहि पुव्विल्लसव्वसंजोगक्खरेसु विहत्तेसु पुव्विल्लअंगपदाणं [ उप्पत्ती ] होदि । एदेसिमंगाणं णमोक्कारो कोटीशतं द्वादश चैव कोट्यो लक्षाण्यशीतिस्त्र्यधिकानि चैव । पंचाशदष्टौ च सहस्रसंख्या एतच्छ्रतं पंच पदं नमामि ॥ ६७ ॥ एकपद-वर्णनमस्कारोऽयम् पोडशशतं चतुस्त्रिंशत्कोटीनां त्र्यशीतिमेव लक्षाणि । शतसंख्याप्टासप्ततिमष्टाशीति च पदवर्णान् ॥ ६८ ॥ । वन हजार पांच पद मात्र है ११२८३५८००५। शंका-इन पदोंकी उत्पत्ति कैसे होती है ? ___समाधान -सोलह सौ चौतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तर सौ अठासी संयोगाक्षरोंसे एक मध्यम पद होता है । १६३४८३०७८८८ । इन एक मध्यम पदके संयोगाक्षरोंका पूर्वोक्त सब संयोगाक्षरों में भाग देने पर पूर्वोक्त अंगपदोंकी उत्पत्ति होती है। इन अंगपदोंको नमस्कार एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पांच पद प्रमाण इस श्रुतको मैं नमस्कार करता हूँ॥७॥ यह एकपद-वर्ण-नमस्कार है सोलह सौ चौतीस करोड़ तेरासी लाख अठत्तर सौ अठासी मात्र एक पदके वाँको [ नमस्कार करता हूं ] ॥ ६८ ॥ १बारुत्तरसयकोडी तेसीदी तह य होति लखाण । अट्ठावण्णसहस्सा पंचेव पदाणि अंगाणं ।। गो.जी. ३४९. सयकोडी बारुत्तर तेसीदीलक्खमंगगंथाणं । अट्ठावण्णसहस्सा पयाणि पंचेव जिणदि8 ।। अं.प.१, १२. २ कोट्यश्चैव चतुत्रिंशत् तच्छतान्यपि षोडश | त्र्यशीतिश्च पुनर्लक्षाः शतान्यष्टौ च सप्ततिः ॥ अष्टाशीतिश्च वर्णाः स्युर्मध्यमे तु पदे स्थिताः। पूर्वागपदसंख्या स्यान्मध्यमेन पदेन सा॥ ह. पु. १०, २५-२५. सोलससयचउतीसा कोडी तियसीदिलक्खयं चेव । सत्तसहस्साहसया अट्ठासीदी य पदवण्णा ॥ गो. जी. ३३५. सोलससयचउतीसा कोडी तियसीदिलक्खयं जत्थ । सत्तसहस्सहसयाडसीदपुणरत्तपदवण्णा ।। अं. प. १, ५, ३ मज्झिमपदवखरवाहिदवण्णा ते अंग-पुव्वगपदाणि । गो. जी. ३५४. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १५. अवसेसक्खरपमाणमेत्तियं होदि। ८०१०८१७५ । पुणो एदेहि बत्तीसक्खरेहि भागे हिदै चोइसपइण्णयाण पमाणपदपमाणमेत्तियं होदि । २५०३३८० । एदं खंडपदम् । ३५। अत्थपदेहि गणिज्जमाणे संखेज्जमंगसुदं होदि । किमत्थपदम् ? जेत्तिएहि अक्खरहि अत्यावलद्धी होदि तमत्थपदं । एत्थुवउज्जती गाइा तिविहं तु पदं भणिदं अत्थपद-पमाण-मज्झिमपदं ति । मज्झिमपदेण भणिदा पुव्वंगाणं पदविभागा ॥ ६९ ॥ संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि वि संखेज्जमंगसुदं । अधवा अणतं, पमेयमेत्तंगसुद शेष अक्षरोका प्रमाण इतना होता है ८०१०८१७५। फिर इनमें बत्तीस अक्षरोंका भाग देनेपर चौदह प्रकीर्णकोंके प्रमाणपदोंका प्रमाण इतना होता है २५०३३८०, यह खण्डपद है १५ । अर्थात् उक्त पदोंका प्रमाण २५०३३८० १५ है। अर्थपदोंसे गणना करनेपर अंगश्रुतका प्रमाण संख्यात होता है। शंका-अर्थपद किसे कहते हैं ? समाधान-जितने अक्षरोंसे अर्थकी उपलब्धि होती है उनका नाम अर्थपद है। यहां उपयोगी गाथा अर्थपद, प्रमाणपद और मध्यमपद, इस प्रकार पद तीन प्रकार कहा गया है । इनमें मध्यम पदसे पूर्व और अंगोंके पदविभाग कहे गये हैं ॥ ६९ ॥ संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारसे भी अंगश्रुत संख्यात है । अथवा प्रमेय मात्र ............... १ अडकोडि-एयलक्खा अट्ठसहस्सा य एयसदिगं च । पण्णत्तरि वण्णाओ पइण्णयाणं पमाणं तु ॥ गो. जी ३५०. पण्ण तरि वण्णाणं सयं सहस्साणि होदि अद्वैव । इगिलक्खमट्ठकोडी पइण्णयाणं पमाणं हु॥अं. प. १,१३. जयध. १, पृ. ९३. २ जयध. १, पृ. ९३. ३ जतिएहि अक्खरेहि अत्थोवलद्धी होदि तेसिमक्खराणं कलावो अत्थपदं णाम । जयध. १४. ९१. एक द्वि-त्रि-चतु:-पंच-षट्-सप्ताक्षरमर्थवत् । पदमाद्य... || ह. पु. १०, २३. जाणदि अत्थं सत्थं अक्खरहेण जेत्तिएणेव । अत्थपयं तं जाणइ घडमाणय सिग्धमिच्चादि ॥ अ. प. १, ३. ४ तिविहं पयं जिणेहिमत्थपदं खलु पमाणपदमुत्तं । तदियं मज्झपयं हु तत्थत्थपयं परूवेमो ॥ र्भ. प. १, २. जयध. १, पृ. ९२. पदमर्थपदं ज्ञेयं प्रमाणपदमित्यपि । मध्यमं पदमित्येवं त्रिविधं तु पदं स्थितम् ।। ह. पु. १०-२२. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरण वियप्पुवलंभादो । वत्तव्वं स-परसमया' अत्थाहियारो बारसविहो । तद्यथा- आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायो व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययनं अन्तकृद्दशा अनुत्तरोपुपादिकदशा प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिवाद इति । तत्र आचारे अष्टादशपदसहस्रे । १८००० । चर्याविधान शुद्धयष्टकं पंचसमिति-त्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते'-- कंधं चरे कधं चिढे कधमासे कधं सए । कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि ॥ ७० ॥ जदं चरे जदं चिढे जदमासे जदं सए । जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झदि ॥ ७१ ॥ सूत्रकृते षट्त्रिंशत्पदसहस्रे । ३६००० । ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोप अंगथुतके विकल्पोंके पाये जानेसे वह अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय और परसमय है। अर्थाधिकार बारह प्रकार है। वह इस प्रकारसे- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, शातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग। उनमेंसे आचारांगमें अठारह हजार पद हैं १८००० । इसमें चर्याविधि, आठ शुद्धियों, पांच समितियों और तीन गुप्तियोंके भेदोंकी प्ररूपणा की जाती है । किस प्रकार चलना चाहिये या आचरण करना चाहिये, किस प्रकार ठहरना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, किस प्रकार सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और . किस प्रकार भाषण करना चाहिये, जिससे कि पापका बन्ध न हो ? ॥ ७० ॥ यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक सोना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिये, इस प्रकार पापका बन्ध नहीं होता ॥ ७१ ॥ छत्तीस हजार ३६००० पद प्रमाण सूत्रकृतांगमें शानविनय, प्रशापना, करण्या १ प्रतिषु ‘स-परसमत्थ' इति पाठः ।। २ष.ख. पु. १, पृ. ९९. आचारे चर्याविधानं शुद्धयष्टक-पंचसमिति-गुप्तिविकल्पं कथ्यते । त. रा. १,२०, १२, तत्थ आचारंग ‘जदं चरे जदं चिढे...' इच्चाइय साहूणमायारं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२२. आचरन्ति समन्ततोऽनुतिष्ठन्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आचारः। तस्मिन् आचारांगे 'जदं चरे जदं चिहे...' इत्याद्युत्तरवाक्यप्रतिपादिदमुनिजनसमस्ताचरणं वर्ण्यते। गो. जी. जी. प्र. ३५६. आयारं पढमंग तत्थहारससहस्सपयमत्तं । यत्थायरति भव्वा मोक्खपहं तेण तं णाम। अं. प. १, १५. ३ कह चरे कह तिढे कहमासे कह सये। कहं भासे कहें भुंजे कहं पार्वण बंधा॥ जदंबरे जद ति? जदमासे जदं सये। जदं भासे जदं भुंजे एवं पावं ण बंधइ ॥अं. प. १, १६. Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४५. स्थापना-व्यवहारधर्मक्रियाः दिगन्तरशुद्धया प्ररूप्यन्ते । स्थाने द्वाचत्वारिंशत्पदसहस्रे ४२०००। एकाद्यकोत्तरक्रमेण जीवादिपदार्थानां दश स्थानानि प्ररूप्यन्ते । तस्योदाहरणगाथा एक्को चेव महप्पा सो दुवियप्पो त्तिलक्खणो भणिदो । चदुसंकमणाजुत्तो पंचग्गगुणप्पहाणो य ॥ ७२ ॥ छक्कपक्कमजुत्तो उवजुत्तो सत्तभंगिसब्भावो । अट्टासवो णवट्ठो जीवो दसठाणिओ भणिदो ॥ ७३ ॥ कल्प्य, छेदोपस्थापना और व्यवहारधर्मक्रियाओंकी दिगन्तरशुद्धिसे प्ररूपणा की जाती है। व्यालीस हजार ४२००० पद प्रमाण स्थानांगमै एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे जीवादि पदार्थोके दस स्थानोंकी प्ररूपणा की जाती है । उसके उदाहरणकी गाथायें वह जीव महात्मा अविनश्वर चैतन्य गुणसे अथवा सर्व जीव साधारण उपयोग रूप लक्षणसे युक्त होनेके कारण एक है । वह शान और दर्शन, संसारी और मुक्त, अथवा भव्य और अभव्य रूप दो भेदोंसे दो प्रकार है। ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतनाकी अपेक्षा; उत्पाद, व्यय व धौव्यकी अपेक्षा; ज्ञान, दर्शन व चारित्रकी अपेक्षा; अथवा द्रव्य,गुण व पर्यायकी अपेक्षा तीन प्रकार कहा गया है। नारकादि चार गतियों में परिभ्रमण करनेके कारण चार संक्रमणोंसे युक्त है। औपशमिकादि पांच भावोंसे युक्त होनेके कारण पांच भेद रूप है। मरण समयमें पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर, ऊर्ध्व ११. ख. पु. १, पृ. ९९. सूदयर्ड बिदियंगं छत्तीससहस्सपयपमाणं खु। सूचयदि सुत्तत्थं संखेवा तस्स करणं तं ॥ णाणविणयादिविग्घातीदाझयणादिसव्वसक्किरिया। पण्णायणा (य) सुकथा कप्पं ववहारविसकिरिया ॥ छेदोवट्ठावणं जइण समय यं परूवदि। परस्स समयं जत्थ किरियाभेया अगेयसे ॥ अं. प. १, २०-१२. सूत्रकृते ज्ञानविनयप्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्यच्छेदोपस्थापना-व्यवहारधर्मकियाः प्ररूप्यन्ते । त. रा. १,२०, १२.सूदयदं णाम अंग ससमयं परसमयं थीपरिणामं क्लैव्यास्फुटत्व-मदनावेश-विभ्रमाऽऽस्फालनसुख-पुंस्कामितादिस्त्रीलक्षणं च प्ररूपयति । जयध. १, पृ. १२२, सूत्रयति संक्षेपेण अर्थ सूचयति इति सूत्रं परमागमः। तदर्थ कृतं करणं ज्ञानविनयादिनिर्विघ्नाध्ययनादिक्रिया, अथवा प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्यम्, छेदोपस्थापना व्यवहारधर्मक्रिया स्वसमयपरसमयस्वरूपं च; सूत्रैः कृतं करण क्रियाविशेषो यस्मिन् वर्ण्यते तत् सूत्रकृतं नाम द्वितीयमंगम् । गो. जी. जी. प्र. ३५६.. २ ष. खं. पु. १, पृ. १००. स्थाने अनेकाश्रयाणामर्थानां निर्णयः क्रियते। त. रा. १, २०, १२. द्वाणं णाम जीव-पुग्गलादीणमेगादिएगुत्तरकमेण ठाणाणि वण्णेदि 'एक्को चेव महप्पा ... ...' एवमाइसरूवेण । जयध. १, पृ. १२३. तिष्ठन्ति अस्मिन् एकाद्यकोत्तराणि स्थानानीति स्थानम् । ... एकाद्यकोत्तरस्थानानि वर्ण्यन्ते इति स्थानं नाम तृतीयमंगं । गो. जी. जी. प्र. ३५६. बादालसहस्सपदं ठाणंग ठाणभेयसंजुत्तं । चिट्ठति ठाणभेया एयादी जत्थ जिणदिट्ठा ॥ अ. प. १, २३. __३ पंचा, ७१-७२. Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं समवाए सलक्षचतुःषष्टिपदसहस्रे । १६४०००। सर्वपदार्थानां समवायश्चित्यते । स चतुर्विधः द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावविकल्पैः । तत्र धर्माधर्मास्तिकाय-लोकाकाशैकजीवानां तुल्यासंख्येयप्रदेशत्वादेकेन प्रमाणेन द्रव्याणां समवायनात् द्रव्यसमवायः । जम्बूद्वीप--सर्वार्थसिद्धयप्रतिष्ठाननरक-नन्दीश्वरैकवापीनां तुल्ययोजनशतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायनात्क्षेत्रसमवायः। सिद्धि-मनुष्यक्षेत्रर्तुविमान-सीमन्तनरकाणां तुल्ययोजनपंचचत्वारिंशच्छतसहस्रविष्कम्भप्रमाणेन क्षेत्रसमवायः । उत्सर्पिण्यवसर्पिण्योस्तुल्यदशसागरोपमकोटाकोटिप्रामाण्यात् कालसमवायनात्कालसमवायः । क्षायिकसम्यक्त्व-केवलज्ञान-दर्शन-यथाख्यातचारित्राणं यो भावस्तदनु व अधः, इन छह दिशाओं में गमन करने रूप छह अपक्रमोंसे सहित होनेके कारण छह प्रकार है। चूंकि सात भंगोंसे उसका सद्भाव सिद्ध है, अतः वह सात प्रकार है। ज्ञानावरणादिक आठ कर्मोंके आस्रवसे युक्त होने, अथवा आठ कर्मों या सम्यक्त्वादि आठ गुणोंका आश्रय होनेसे आठ प्रकार है । नौ पदार्थों रूप परिणमण करनेकी अपेक्षा नौ प्रकार है। पृथिवी, जल, तेज, वायु, प्रत्येक व साधारण वनस्पति, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय. चतुरिन्द्रिय रूप दस स्थानों में प्राप्त होनेसे दस प्रकार कहा गया है ॥ ७२-७३ ॥ ___एक लाख चौंसठ हजार १६४००० पद प्रमाण समवायांगमें सब पदार्थोके समवायका अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र व कालादि अपेक्षा समानताका विचार किया जाता है । वह समवाय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकार है । उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, लोकाकाश और एक जीव, इन द्रव्योंके समान रूपसे असंख्यात प्रदेश होनेसे एक प्रमाणसे द्रव्योंका समवाय होनेके कारण द्रव्यसमवाय कहा जाता है । जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि, अप्रतिष्टान नरक और नन्दीश्वरद्वीपस्थ एक वापी, इनके समान रूपसे एक लाख योजन विस्तारप्रमाणकी अपेक्षा क्षेत्रसमवाय होनेसे क्षेत्रसमवाय है। सिद्धिक्षेत्र, मनुष्यक्षेत्र, ऋतुविमान और सीमन्त नरक, इनके समान रूपसे पैंतालीस लाख योजन विस्तारप्रमाणसे क्षेत्रसमवाय है । उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालोंके समान दश सागरोपम कोडाकोड़ि प्रमाणकी अपेक्षा कालसमवाय होनेसे कालसमवाय है। क्षायिक सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और यथाख्यातचारित्र, इनका ......... १ ष. खं. पु. १, पृ. १०१. समवाये सर्वपदार्थानां समवायश्चिन्त्यते । त. रा. १, २०, १२. समवाओ णाम अंग दव्व-खेत्त-काल-भावाणं समवायं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२४. से संग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयन्ते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रव्य-क्षेत्र-कालभावानाश्रित्य अस्मिन्निति समवायांगम् । गो. जी. जी. प्र.३५६. समवायंग अडकदिसहस्समिगिलक्खमाणपयमेत्तं । संगहणयेण दव्वं खेत्तं कालं पड्डच्च भवं ॥ दीवादी अवियंति अत्था णज्जति सरित्थसामण्णा । अं. प. १, २९-३०. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. भवस्य तुल्यानन्तप्रमाणत्वाद्भावसमवायनाद्भावसमवायः। व्याख्याप्रज्ञप्ती स-द्वि-लक्षाष्टाविंशतिपदसहस्रायां | २२८००० । षष्ठिाकरणसहस्राणि किमस्ति जीवो नास्ति जीवः क्वोत्पद्यते कुत आगच्छतीत्यादयो निरूप्यन्ते । ज्ञातृधर्मकथायां सपंचलक्ष-पटपंचाशत्सहस्रपदायां । ५५६००० । सूत्रपौरुषीषु भगवतस्तीर्थकरस्य ताल्वोष्ठपुटविचलनमन्तरेण सकलभाषास्वरूपदिव्यध्वनिधर्मकथनविधानं जातसंशयस्य गणधरदेवस्य संशयच्छेदनविधानमाख्यानोपाख्यानानां च बहुप्रकाराणां स्वरूपं कथ्यते' । उपासकाध्ययने सैकादशलक्ष-सप्ततिपदसहस्रे | ११७०००० । एका जो भाव है उसके अनुभवके तुल्य अनन्त प्रमाण होने के कारण भावसमवाय होनेसे भाव समवाय है। दो लाख अट्ठाईस हजार पद प्रमाण व्याख्याप्रज्ञप्तिमें क्या जीव है, क्या जीव नहीं है, जीव कहां उत्पन्न होता है और कहांसे आता है. इत्यादिक साठ हजार प्रश्नोंके उत्तरोंका निरूपण किया जाता है। पांच लाख छप्पन हजार पद युक्त शातृधर्मकथांगमें सूत्रपौरुषी अर्थात् सिद्धान्तोक्त विधिसे स्वाध्यायके प्रस्थापनमें भगवान् तीर्थकरकी तालु व ओष्ठपुटके हलन-चलनके विना प्रवर्तमान समस्त भाषाओं स्वरूप दिव्यध्वनि द्वारा दी गई धर्मदेशनाकी विधिका, संशय युक्त गणधर देवके संशयको नष्ट करने की विधिका, तथा बहुत प्रकार कथा व उपकथाओंके स्वरूपका कथन किया जाता है। ग्यारह लाख सत्तर हजार पद प्रमाण उपासकाध्ययनांगमें ग्यारह प्रकार श्रावकधर्मका १ त. रा. १, २०, १२. ( शब्दशः सदृशोऽयं प्रबन्धः प्रायशोऽनेन । केवलमत्र सिद्धिक्षेत्रादीनामुदाहरणं नोपलभ्यते।). प. खं. पु. १, पृ. १०१. जयध. १, पृ. १२४. ह. पु. १०, ३१-३३. गो. जी. जी. प्र. ३५६. अं. प. १, ३०-३५. २ ष. खं. पु. १, पृ. १०१. व्याख्याप्रज्ञप्तौ षष्ठिव्याकरणसहस्राणि 'किमस्ति जीव', नास्ति ?' इत्येवमादीनि निरूप्यन्ते । त. रा, १,२०, १२. वियाहपण्णत्ती नाम अंगं सट्ठिवायरणसहस्साणि छण्णउदिसहस्सछिण्णछेयणजणि ( उजणी ) यसुहमसुहं च वण्णेदि। जयध. १, पृ. १२५. विशेषैः- बहुप्रकारैः, आख्यातं 'किमस्ति जीवः, किं नास्ति जीवः, किमेको जीवः, किमनेको जीवः, किं नित्यो जोवः, किमनित्यो जीवः, किं वक्तव्यो जीवः, किमवक्तव्यो जीवः ?' इत्यादीनि षष्ठिसहस्रसंख्यानि भगवदहत्तीर्थकरसन्निधौ गणधरदेवप्रश्नवाक्याने प्रज्ञाप्यन्ते कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्ति म पंचममंगम् । गो. जी. जी. प्र. ३५६. अं. प. १, ३६-३८. ३ ष. खं. पु- १, पृ. १०१. ज्ञातृधर्मकथायामाख्यानोपाख्यानानां बहुप्रकाराणां कथनम् । त. रा. १,२०, १२,णाहधम्मकहा णाम अंगं तित्थयराण धम्मकहाणं सरूवं वण्णेदि। केण कहिंति ते? दिव्वज्झुणिणा। केरिसा सा ? सव्वभासासरूवा अक्खराणक्खरप्पिया अणंतत्थगब्भबीजपदघडियसरीरा तिसज्झूविसय-छघडियासु जिरंतरं पयट्टमाणिया इयरकालेसु संसय-विवज्जासाणज्झवसायभावगयगणहरदेवं पदि वट्टमाणसहावा संकर-वादगराभावादो विसदसरूवा एऊणवीसधम्मकहाकहणसहावा । जयध. १, पृ. १२५. अं. प. १, ३९-४४. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगहारे सुत्तावयरणं दशविधश्रावकधर्मो निरूप्यते । अत्रोपयोगी गाथा दंसण-वद-सामाइय-पोसह-सञ्चित्त-रादिभत्ते य । बम्हारंभ-परिग्गह-अणुमणमुद्दिट्ठ-देसविरदी य ॥ ७ ॥ संसारस्य अन्तो कृतो यैस्तेऽन्तकृतः नमि-मतंग-सोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलीकवलीक-किष्कविल-पालंबाष्टपुत्रा' इत्येते दश वर्द्धमानतीर्थकरतीर्थे, एवं वृषभादीनां त्रयोविंशतितीर्थेषु अन्येऽन्ये, एवं दश-दशानगाराः दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य कृत्स्नकर्मक्षयादन्तकृतः दश अस्यां वर्ण्यन्त इति अन्तकृद्दशा । अस्यां सत्रयोविंशतिलक्षाष्टाविंशतिपदसहस्राणि निरूपण किया जाता है । यहां उपयोगी गाथा दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्तविरति, रात्रिभक्तविरति, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरति, परिग्रहविरति, अनुमतिविरति और उद्दिष्टविरति, यह ग्यारह प्रकारका देशचारित्र है ॥ ७४ ॥ जिन्होंने संसारका अन्त कर दिया है वे अन्तकृत् कहे जाते हैं। नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कंविल, पालम्ब और अष्टपुत्र, ये दस वर्धमान तीर्थकरके तीर्थमें अन्तकृत् हुए हैं। इसी प्रकार वृषभादिक तेईस तीर्थकरोंके तीर्थमें भिन्न भिन्न दश अन्तकृत् हुए हैं। इस प्रकार दस दस अनगार घोर उपसर्गोंको जीतकर समस्त कौके क्षयसे अन्तकृत् होते हैं। चूंकि इस अंगमें उन दस दसका वर्णन किया जाता है अतएव वह अन्तकद्दशांग कहलाता है। इस अंगमें तेईस लाख अट्ठाईस १५. खं. पु. 1, पृ. १०२. उपासकाध्ययने श्रावकधर्मलक्षणम् । त.रा.१,२०, १२. उवासयज्झयणं णाम अंगं देसण-यय-सामाइय-पोसहोववास-सचित्त-रायिभत्त-बंभारंभ-परिग्गहाणुमणुद्दिलणामाणमेक्कारसण्डमुवासयाण धम्ममेक्कारसविहं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२९. गो. जी. जी. प्र. ३५७. अं. प. १, ४५-४७. २ चारित्रप्रामृत २२. गो. जी. ४७६. अं. प. १, ४६. ३ प्रतिषु 'पालम्बष्टपुत्रा' इति पाठः। ४ प्रतिषु 'तयोविंशति' इति पाठः। ५त. रा. १,२०, १२. तत्र ' यमलीक-वलीक-किष्कविल-पालम्बाष्टपुत्राः' इत्येतस्य स्थाने । यमवाल्मीक-बलीक-निष्कंबल-पालम्बष्टपुत्राः'; 'एवं' इत्येतस्य स्थाने 'च' इति पाठभेदः। ष. खं. पु. १, पृ. १०२. अंतयडदसा णाम अंग चउविहोवसग्गे दारुणे सहियूण पाडिहेरं लघृण णिव्वाणं गदे मुदंसणादिदस-दससाडू तित्वं पडि वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३०. प्रतितीर्थ दश दश मुनीश्वरा. तीव्र चतुर्विधोपसर्ग सोवा इन्द्रादिभिर्विरचिंता पूजादिप्रातिहार्यसम्भावनां लब्ध्वा कर्मक्षयान्तरं संसारस्यान्तं अवसानं कृतवन्तोऽन्तकृतः । श्रीवर्धमानतीर्थे नमि-मतंगसोमिल-रामपुत्र-सुदर्शन-यमलीक-वलीक-किकंबिल-पालम्बष्ट-पुत्रा इति दश | एवं वृषभादितीर्थेष्वपि दश-दशान्तकतो वर्ण्यन्ते यस्मिंस्तदन्तकृद्दशनामाष्टममंगम् । गो. जी. जी. प्र. ३५७. ... ...मायंग रामपुसो सोमिल जमलीक गाम किक्कंबी । सुदंसणो बलीको य णमी अलंबद्ध पुत्तलया ॥ अं. प. १, ४०-५१. .. क. २६. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५.. २३२८००० । उपपादो जन्म प्रयोजनमेषां त इमे औपपादिकाः, विजय-वैजयन्त-जयन्तापराजित-सर्वार्थसिद्धयाख्यानि पंचानुत्तराणि, अनुत्तरेषु' औपपादिकाः अनुत्तरौपपादिकाः । ऋषिदास-धन्य-सुनक्षत्र-कार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्राभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इति एते दश वर्द्धमानतीर्थकरतीर्थे । एवमृषभादीनां त्रयोविंशतितीर्थेषु अन्येऽन्ये । एवं दश-दशानगाराः दारुणानुपसर्गान्निर्जित्य विजयाद्यनुत्तरेषूत्पन्ना इति । एवमनुत्तरौपपादिकाः दश अस्यां वर्ण्यन्त इति अनुत्तरौपपादिकदशा'। अस्यां सद्वानवतिलक्ष-चतुश्चत्वारिंशत्पदसहस्राणि ९२४४०००। प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम् , तस्मिन् सत्रिनवतिलक्ष-षोडशपदसहस्रे ९३१६००० प्रश्नानष्ट-मुष्टि-चिन्ता-लाभालाभ-सुख-दुख-जीवित-मरण-जय-पराजय-नाम-द्रव्यायुस्संख्यानानि लौकिक-वैदिकानामर्थानां निर्णयश्च प्ररूप्यते, आक्षेपणी-विक्षेपणी-संवेदनी-निवेदन्यश्चेति हजार पद हैं २३२८०००। उपपाद अर्थात् जन्म ही जिनका प्रयोजन है वे औपपादिक कहलाते हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि, ये पांच अनुत्तर हैं। अनुत्तरों में उत्पन्न होनेवाले अनुत्तरौपधादिक कहे जाते हैं । ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिषेण और चिलातपुत्र,ये दस वर्धमान तीर्थकरके तीर्थमें अनुत्तरोपपादिक हुए हैं। इसी प्रकार ऋषभादिक तेईस तीर्थंकरोंके तीर्थमें भिन्न भिन्न दस अनुत्तरौपपादिक हुए हैं । इस प्रकार दस दस अनगार भयानक उपसौको जीतकर विजयादिक अनुत्तरोंमें उत्पन्न हुए हैं। चूंकि इस प्रकार इसमें दस दस अनुत्तरौपपादिक अनगारोंका वर्णन किया जाता है अतः वह अनुत्तरौपपादिकदशांग कहलाता है। इसमें बानबै लाख चवालीस हजार पद हैं ९२४४००० । प्रश्नोंका व्याकरण अर्थात् उत्तर जिसमें हो वह प्रश्नव्याकरण है। तेरानबै लाख सोलह हजार ९३१६००० पद युक्त उसमें प्रश्नके आश्रयसे नष्ट, मुष्टि, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुख, जीवित, मरण, जय, पराजय, नाम, द्रव्य, आयु व संख्याकी तथा लौकिक एवं वैदिक अर्थोके निर्णयकी प्ररूपणा की जाती है। इसके अतिरिक्त आक्षेपणी, विक्षेपणी, १ प्रतिषु — अनुत्तरे ' इति पाठः । २त. रा. १,२०, १२. ( शब्दशः सदृशोऽयं प्रबन्धः प्रायशस्तत्र)। ष. खं. पु. १, पृ. १०३. अनुसरोववादियदसा णाम अंगं चउविहोवसग्गे दारुणे सहियूण चउवीसण्हं तित्थयराणं तित्थेसु अणुत्तरविमानं गदे बस दस मुणिवसहे वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३०. गो. जी. जी. प्र. ३५७. अं. प. १, ५२-५५. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १५.) कदिअणियोगद्दारे सुत्ताक्यरणं चतस्रः कथाः एताश्च निरूप्यन्ते । विपाकसूत्रे चतुरशीतिशतपदलक्षे १८४००००० सुकृतदुःकृतविपाकश्चिन्त्यते । एकादशांगानामियत्पदसमासः ४१५०२००० । द्वादशममंगं दृष्टिप्रवाद इति । कौत्कल-काणविद्धि-कौशिक-हरिश्मश्रु-मांथपिक-रोमश-हारित-मुण्डाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् , मरीचिकुमार-कपिलोलूक-गार्य-व्याघ्रभूति-वालि माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीनां चतुरशीतिः, शाकल्य-बल्कलि-कुथुमि-सात्यमुनि-नारायण-कण्वमाध्यंदिनँ-मोद-पिप्पलाद-बादरायण-स्विष्टिकृत्-ऐतिकायन-वसु-जैमिन्यादीनामज्ञानिकदृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर-जतुकर्ण-वाल्मीकि-रोमहर्षणि-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवैन्द्रदत्तायस्थूणादीनां वैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् , एषां दृष्टिशतानां त्रयाणां त्रिशष्ठयुत्तराणां प्ररूपणं संवेदनी और निवेदनी, इन चार कथाओंकी भी प्ररूपणा की जाती है। एक सौ चौरासी लाख १८४००००० पद प्रमाण विपाकसूत्रमें पुण्य और पापके विपाकका विचार किया जाता है । ग्यारह अंगोंके पदोंका जोड़ इतना है ४१५०२००० । " यारहवां अंग दृष्टिप्रवाद है। कौत्कल, काणविद्धि, कौशिक, हरिश्मनु, मांथपिक, रोमश, हारित, मुण्ड और अश्वलायनादिक क्रियावाददृष्टियोंके एक सौ अस्सी; मरीचिकुमार, कपिल, उलूक, गार्ग्य, व्याघ्रभूति, वाद्वलि, माठर और मौद्गल्यायन आदि अक्रियावाददृष्टियोंके चौरासी; शाकल्य, बल्कलि, कुथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कण्व, माध्यंदिन, मोद, पिप्पलाद, बादरायण, स्विष्टिकृत्, ऐतिकायन, वसु और जैमिनी आदि अज्ञानिकदृष्टियोंके सड़सठ; वशिष्ठ, पाराशर, जतुकर्ण, वाल्मीकि, रोमहर्षणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, ऐन्द्रदत्त और अयस्थूण आदि वैनयिकदृष्टियोंके बत्तीस; इन तीन सौ तिरेसठ मतोंकी प्ररूपणा और उनका निग्रह दृष्टिवाद अंगमें किया जाता है । ................... १.खं. पु. १, पृ. १०४. आक्षेप-विक्षेपैहेतु-नयाश्रितानां प्रश्नानां व्याकरणं प्रश्नव्याकरणम् , तस्मि. स्लौकिक-वैदिकानामर्थानां निर्णयाः। त. रा.१,२०, १२. पण्हवायरणं णाम अंग अक्खेवणी-विक्खेवणी-संवेयणी. णिवेयणीणामाओ चउविहं कहाओ पण्हादो गढ-मुहि-चिंता लाहालाह-सुख-दुख-जीविय-मरणाणि च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३१. गो. जी. जी. प्र. ३५७. अं. प. १, ५६-६७. २. खं. पु. १, पृ. १०७. विपाकसूत्रे सुकृत-दुष्कृतानां विपाकश्चिन्त्यते । त. रा. १, २०, १२. विवायसुत्तं णाम अंगं दब-क्खेत-काल-भाबे अस्सिदूण सुहासुहकम्माणं विवायं वप्णेदि । जयध. १, पृ. १३२. चुलसीदिलक्खकोडी पयाणि णिच्च विवागसुत्ते य । कम्माण बहुसती सुहासुहाणं हु मज्झिमया ॥ तिव्व-मंदाणुमावा - इन्वे खेत्तेसु काल भावे य । उदयो विवायरूवो भणिज्जइ जत्थ वित्थारा ॥ अं. प. १,६८-६९, ३ अप्रतौ · एकादशांगनामियात्पद-', आ-काप्रत्योः “ एकादशांगानामियात्पद- ' इति पाठः। ४ प्रतिषु कण्ठ-माघंदिन' इति पाठः। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, १५. निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते । एवमंगश्रुतस्य द्वादश अधिकाराः । अत्र दृष्टिवादे प्रयोजनम् , स्वकुक्षिस्थितमहाकर्मप्रकृतिप्राभृतत्वात्। संपहि दिविवादस्स अक्यारो वुच्चदे - णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावभेएण चउबिहो द्विदिवादो । तत्थ अदिल्ला तिणि वि णिक्खेवा दव्वट्ठियणयसंभवा, अंतिमो पज्जवट्ठियणयसंभवो । एदेसु णामणिक्खेवो दिहिवादसद्दो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि वट्टमाणो । सो एसो त्ति एयत्तणेण संकप्पिओ अत्थो हवगादिहिवादो । दव्वदिट्टिवादो आगम-णोआगमदिट्टिवादभेएण दुविहो । तत्थ दिहिवादजाणओ अणुवजुत्तो भट्ठाभट्ठसंसकारो पुरिसो आगमदवदिट्टिवादो । णोआगमदव्वदिहिवादो जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तभेएण तिविहो । आदिम सुगम, बहुसो उत्तत्थादो। णोआगमदिविवादसरूवेण परिणमंतओ जीवो णोआगमभवियदिहिवादो । दिद्विवादसुदहेदुभूददन्वाणि आहारादीणि तव्वदिरित्तणोआगमदव्वदिहिवादो। इस प्रकार अंगश्रुतके बारह अधिकार हैं। यहां दृष्टिवादसे प्रयोजन है, क्योंकि, उसकी कुक्षिमें महाकर्मप्रकृतिप्राभृत स्थित है। - अब दृष्टिवादका अवतार कहते हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे दृष्टिवाद चार प्रकार है । इनमें आदिके तीनों निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाले हैं, और अन्तिम पर्यायार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाला है। इनमें . बाह्यार्थसे निरपेक्ष अपने आपमें प्रवर्तमान दृष्टिवाद शब्द नामदृष्टिवाद है । वह यह है दस प्रकार एक रूपसे संकल्पित पदार्थ स्थापनादृष्टियाद है। आगमष्टिवाद और नोआगमहष्टिवादके भेदसे द्रव्यदृष्टिवाद दो प्रकार है। उनमें दृष्टिवादका जानकार उपयोग रहित भ्रष्ट व अभ्रष्ट संस्कारवाला पुरुष आगमद्रव्यदृष्टिवाद है । नोआगमद्रव्यदृष्टिवाद शायकशरीर, भावि और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है । ज्ञायकशरीर सुगम है, क्योंकि, बहुत बार उसका अर्थ कहा जा चुका है। नोआगमदृष्टिवाद स्वरूपसे परिणमन करनेवाला जीव नोआगमभाविदृष्टिवाद है। दृष्टिवाद थुतके हेतुभूत द्रव्य आहारादिक तव्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यदृष्टिवाद है। १.खं. पु. १, पृ.१०७. द्वादशमंगं दृष्टिवाद इति । कौत्कल-कांडे विद्धि-कौशिक-हरिश्मश्रु-मायिकमस-हारीत-मुंडाश्वलायनादीनां क्रियावाददृष्टीनामशीतिशतम् , मरीचकुमार-कपिलोलक-गार्य-व्याघ्रभूति-वाद्वालि. माठर-मौद्गल्यायनादीनामक्रियावाददृष्टीना चतुरशीतिः, शकल्य-वात्कल-कुथुमि-सात्यमुदिग-नारायण-कण्ठ-माध्यंदिनमौद-पैप्पलाद-वादरायणविष्टीकृदैरिकायन-वसु-जैमिन्यादीनामज्ञानकुदृष्टीनां सप्तषष्टिः, वशिष्ठ-पाराशर जतुकीर्णबाल्मीकि-रोमर्षि-सत्यदत्त-व्यासैलापुत्रौपमन्यवन्द्रदत्तायस्थूणादीनां बैनयिकदृष्टीनां द्वात्रिंशत् एषां दृष्टिशताना त्रयाणां निषष्ठथुत्नराणां प्ररूपणं निग्रहश्च दृष्टिवादे क्रियते । त. रा. १, २०, १२. २ प्रतिषु ' प्राभूतवात् ' इति पाठः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४..] कदिणियोगद्दारे सुत्तावरण (१.५ भावदिहिवादो आगम-णोआगमभेदेण दुविहो । दिद्विवादजाणओ उवजुत्तो आगमभावदिहिवादो । आगमेण विणा केवलेोहि-मणपज्जवणाणेहि दिहिवादवुत्तत्थपरिच्छेदओ णोआगमभावदिद्विवादो। एत्थ आगमभावदिहिवादेण अहियारो । दवदिविवादं पडुच्च तव्वदिरित्तणोआगमदव्वदिहिवादेण अहियारो, दिट्टिवादहेदुसद्दाणं अक्खरट्ठवणाकलावस्स वि उवयारेण दिहिवादत्तुवलंभादो । एवं णिक्खेव-णएहि दिद्विवादस्स अवयारो कदो । दिद्विवादणाणे तदद्वे च अणुगमसहा वट्टदे । तेहि दोहि वि एत्थ अहियारो, णाण-णयाणं दोण्णमण्णाण्णाविणाभावादो। पुव्वाणुपुवीए दिट्टिवादो बारसमो, पच्छाणुपुव्वीए पढमो; जत्थ तत्थाणुपुवीए अवत्तव्यो, एक्कारसमो दसमो णवमो अट्ठमो सत्तमो छ8ो पंचमो चउत्थो तदिओ विदिओ पढमो वा त्ति णियमाभावादो । दिद्विवादो त्ति गुणणाम, दिट्ठीओ वददि त्ति सद्दणिप्पत्तीदो। दव्वट्ठियणयं पडुच्च दिद्विवादमेक्कं चेव । पदं पडुच्च दिद्विवादमेत्तियं होदि १८८६८५६००५। अत्थदो अणंतं वा होदि । वत्तव्वं स-परसमया ।(अर्थाधिकारः पंचविधः परिकर्म सूत्रं प्रथमानुयोगः पूर्वकृतं चूलिका चेति । तत्र परिकर्मणि चन्द्रप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः द्वीप भावदृष्टिवाद आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । दृष्टिवादका जानकार उपयोग युक्त जीव आगरावष्टिवाद है। आगमके विना केवलशान, अवधिशान और मनःपर्ययशानसे दृष्टिवादमें कहे हुए पदार्थोंका जाननेवाला नोआगमभावदृष्टिवाद है। यहां आगमभावदृष्टिवादका अधिकार है। द्रव्यदृष्टिवादकी अपेक्षा तव्यतिरिक्तनोआगमद्रव्याष्टिवादका अधिकार है, क्योंकि, दृष्टिवादके हेतुभूत शब्दों और अक्षरस्थापना. कलापके भी उपचारसे दृष्टिवादपना पाया जाता है। इस प्रकार निक्षेप व नयोंसे दृष्टिवादका अवतार किया है। दृष्टिवादका ज्ञान और उसके अर्थमें अनुगम शब्द रहता है। उन दोनोंका ही यहां अधिकार है, क्योंकि, शान और शेय दोनोंके परस्परमें अविनाभाव है। दृष्टिवाद पूर्वानुपूर्वीसे बारहवां, पश्चादानुपूर्वीसे प्रथम और यत्र-तत्रानुपूर्वीसे अवक्तव्य है; क्योंकि, ग्यारहवां, दशवां, नौवां, आठवां, सातवां, छठा, पांचवां, चौथा, तीसरा, दूसरा अथवा पहिला है, इस प्रकारके नियमका यहां अभाव है। रहिवाद यह गुणनाम है, क्योंकि, दृष्टियोंको जो कहता है वह दृष्टिवाद है, इस प्रकार दृष्टिवाद शब्दकी सिद्धि है। द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा दृष्टिवाद एक ही है। पदकी अपेक्षा करके दृष्टिवाद इतना है १०८६८५६००५। अथवा अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय और परसमय हैं। ___ अर्थाधिकार पांच प्रकार है-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वकृत भौर चूलिका। उनमेसे परिकर्ममें चन्द्रप्राप्ति, सूर्यप्राप्ति, द्वीप-सागरप्रशप्ति, जम्बूदीपप्राप्ति और Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे धैयणाखंड (४, १, ४५. सागरप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति पंचाधिकाराः । तत्र चन्द्रप्रज्ञप्तौ पंचसहस्राधिकषट्त्रिंशच्छतसहस्रपदायां चन्द्रबिम्ब-तन्मार्गायुःपरिवारप्रमाणं चन्द्रलोकः तद्गतिविशेषः तस्मादुत्पद्यमानचन्द्रदिनप्रमाणं राहु-चन्द्रबिम्बयोः प्रच्छाद्य-प्रच्छादकविधानं तत्रोत्पत्तेः कारणं च निरूप्यते' । पदस्थापनात् ३६०५००० । सूर्यप्रज्ञप्तौ त्रिसहस्राधिकपंचशतसहस्रपदायां सूर्यबिम्ब-मार्ग-परिवारायुःप्रमाणं तत्प्रभावृद्धि-हासकारणं सूर्यदिन-मास-वर्ष-युगायनविधानं राहु-सूर्यबिम्ब-प्रच्छाद्यप्रच्छादकविधानं च निरूप्यते । पदांकन्यासः ५०३००० । द्वीप-सागरप्रज्ञप्तौ षट्त्रिंशत्सहस्राधिकद्वापंचाशच्छतसहस्रपदायां ५२३६००० द्वीप-सागराणामियत्ता तत्संस्थानं तद्विस्तृतिः तत्रस्थजिनालया व्यन्तरावासाः समुद्राणां उदकविशेषाश्च निरूप्यन्ते । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती पंचविंशतिसहस्राधिकत्रिशतसहस्रपदायां ३२५००० वर्षधर-वर्षा व्याख्याप्रज्ञप्ति, इस प्रकार पांच अधिकार हैं। उनमें छत्तीस लाख पांच हजार पद प्रमाण चन्द्रप्रज्ञप्तिमै चन्द्रबिम्ब, उसके मार्ग, आयु व परिवारका प्रमाण; चन्द्रलोक, उसका गमनविशेष, उससे उत्पन्न होनेवाले चन्द्रदिनका प्रमाण, राहु और चन्द्रबिम्बमें प्रच्छाद्यप्रच्छादकविधान अर्थात् राहु द्वारा होनेवाले चन्द्र के आवरण की विधि और वहां उत्पन्न होनेका कारण, इस सबकी प्ररूपणा की जाती है। पदोंकी स्थापना ३६०५०००। पांच लाख तीन हजार पद प्रमाण सूर्यप्रज्ञप्तिमें सूर्यबिम्ब, उसके मार्ग, परिवार और आयुका प्रमाण, उसकी प्रभाकी वृद्धि एवं ह्रासका कारण, सूर्यसम्बन्धी दिन, मास, वर्ष और युगके निकालनेकी विधि, तथा राहु व सूर्यबिम्बकी प्रच्छाद्य प्रच्छादकविधि, इस सबका निरूपण किया जाता है। पदके अंकोंकी स्थापना ५०३००० । बावन लाख छत्तीस हजार ५२३६००० पद प्रमाण द्वीप-सागरप्रज्ञप्तिमें द्वीप-समुद्रोंकी संख्या, उनका आकार, विस्तार, उनमें स्थित जिनालय, व्यन्तरोंके आवास, तथा समुद्रोंके जलविशेषोंका निरूपण किया जाता है। तीन लाख पच्चीस हजार ३२५००० पद प्रमाण जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें .................................... १. खं. पु. १, पृ. १०९. तत्थ चंदपण्णत्ती चंदविमाणाउ-परिवारिधि-गमण-हाणि-वभि-सयलद्धचउत्थभागग्गहणादीणि यष्णेदि । जयध. १, पृ, १३२. चंदस्सायु-विमाणे परिया रिद्धी च अयण गमणं च । सयलद्ध-पायगहण वण्णेदि वि चंदपण्णत्ती ।। छत्तीसलक्ख-पंचसहस्सपययाण चंदपण्णत्ती । अं. प. २, २-३. १.खं. पु. १, पू. ११०. सूराउ-मंडल-परिवारिहि-पमाण-गमणायणुप्पत्ति-कारणादीणि सूरसंबंधाणि सूरपण्णत्ती वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३२. सहस्सतियं पणलक्खा पयाणि पणत्तियाक्कस्स ॥ सूरस्साय-विमाणे परिया रिद्धी य अयणपरिमाण । तत्तावमत्तगण वण्णाद वि सूरपण्णत्ती ।। अं. प. २,३-४. ३ प्रतिषु · द्वापंचाशच्छहस्र' इति पाठः । ४.खं. पु.१,१.११०. जा दीव-सागरपण्णत्ती सा दीव-सायराणं तत्थठियजोयिस-वण-भवणाmer आवास पनि संठिदअकहिमजिणभवणाणं च वण्णणं कुणह। जपथ. १, पृ. १३३. अं. प. २,८-११. जिवचारानुसार व डिपजोषित कण-भक्ताः Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [२०७ हृद-चैत्य-चैत्यालय-भरतैरावतगतसरित्संख्याश्च निरूप्यन्ते । व्याख्याप्रज्ञप्तौ षट्त्रिंशत्सहस्राधिकचतुरशीतिशतसहस्रपदायां ८४३६००० रूपिअजीवद्रव्यं अरूपिअजीवद्रव्यं भव्याभव्यजीवस्वरूपं च निरूप्यते । सूत्रे अष्टाशीतिशतसहस्रपदैः ८८००००० पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यन्ते, अबन्धकः अलेपकः अभोक्ता अकर्ता निर्गुणः सर्वगतः अद्वैतः नास्ति जीवः समुदयजनितः सर्वं नास्ति बाह्यार्थों नास्ति सर्व निरात्मकं सर्व क्षणिकं अक्षणिकमद्वैतमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते । अत्रत्य॑ष्टाशीत्यधिकारेषु चतुर्णामधिकाराणां प्रमेयप्रतिपादिकेयं गाथा कुलाचल, क्षेत्र, तालाब, चैत्य, चैत्यालय तथा भरत व ऐरावतमें स्थित नदियोंकी संख्याका निरूपण किया जाता है। चौरासी लाख छत्तीस हजार पद प्रमाण ८४३६००० व्याख्याप्रज्ञप्तिमें रूपी अजीव द्रव्य, अरूपी अजीव द्रव्य तथा भव्य एवं अभव्य जीवोंके स्वरूपका निरूपण किया जाता है। सूत्र अधिकारमें अठासी लाख ८८००००० पदों द्वारा पूर्वोक्त सब मतोंका निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीव अबन्धक है, अलेपक है, अभोक्ता है, अकर्ता है, निर्गुण है, व्यापक है, अद्वैत है, जीव नहीं है, जीव [ पृथिवी आदि चार भूतोंके समुदायसे उत्पन्न होता है, सब नहीं है अर्थात् शून्य है, बाह्य पदार्थ नहीं हैं, सब निरात्मक है, सब क्षणिक है, सब अक्षणिक अर्थात् नित्य है, अथवा अद्वैत है, इत्यादि दर्शनभेदोंका भी इसमें निरूपण किया जाता है। इसके अठासी अधिकारों में चार अधिकारोंके प्रमेयकी प्रतिपादक यह गाथा है ....................... १ ष. खं. पु. १, पृ. ११०. जंबूदीवपप्णत्ती जंबूदीवगयकुलसेल-मेम्-दह-वस्सवेश्या-चणसंड-तरावासमहाणइयाईणं वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३२. अं. प. २, ५-८. २ ष. खं. पु, १, पृ. ११०. जा पुण वियाइपण्णत्ती सा रूवि-अरूविजीवाजीवदवाणं भवसिनियअभवसिद्धियाणं पमाणस्स तल्लक्खणस्स अणंतर-परंपरसिद्धाणं च अण्णेसिं च बत्थूणं वप्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३३. अं. प. २, १२-१३.. ३ ष. खं. पु. १, पृ. ११०. सुत्तं णाम तं जीवो अबंधओ अलेवओ अकता णिग्गुणो अमोत्ता: सव्वगओ अणुमेत्तो णिच्चेयणो सपयासओ परप्पयासओ णस्थि जीवो ति य णत्थिपवादं किरियावादं अकिरियावाद अण्णाणवादं गाणवादं वेणइयवादं अणेयपयारं गणिदं च वष्णेदि । “ असीदिसदं किरियाणं अक्किरियाणं च आहु चुलसीदिं । सत्तट्ठपणाणीण वेणइयाणं च बत्तीसं ॥" एदीए गाहाए भणिदतिण्णिसयतिसविसमयाणं वण्णणं कुणदि. त्ति मणिदं होदि । जयध. १, पृ. १३३. ४ प्रतिषु ' अत्रेत्य-' इति पाठः। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८] छक्खंडागमे यणाखंड १,१५. पढमो अबंधयाणं बिदियो तेरासियाण बोद्धयो । पदमो . तदियो य णियदिपक्खे हयदि चउत्थो ससमयम्मि ।। ७५ ॥ त्रयीगतमिथ्यात्वसंख्याप्रतिपादिकेयं गाथा एक्केक्कं तिणि जणा दो दो यण इच्छदे तिवग्गम्मि । एक्को तिण्णि ण इच्छइ सत्त वि पावेंति मिच्छत्तं' ।। ७६ ॥ प्रथमानुयोगे पंचपदसहस्रे ५००० चतुर्विशतेस्तीर्थकराणां द्वादशचक्रवर्तिनां बलदेववासुदेव-तच्छत्रूणां चरितं निरूप्यते' । अत्रोपयोगी गाथा इनमें प्रथम अधिकार अबन्धकोंका और द्वितीय त्रैराशिक अर्थात् आजीविकोंका जानना चाहिये । तृतीय अधिकार नियतिपक्षमें और चतुर्थ अधिकार स्वसमयमें है ॥७५॥ (विशेषके लिये देखिये पु. २ की प्रस्तावना पृ. ४६ आदि)। त्रिवर्गगत मिथ्यात्वकी संख्याको बतलानेवाली यह गाथा है तीन जन त्रिवर्ग अर्थात् धर्म, अर्थ और काममें एक एककी इच्छा करते हैं, अर्थात् कोई धर्मको, कोई अर्थको और कोई कामको ही स्वीकार करते हैं। दूसरे तीन जन उनमें दो-दोकी इच्छा करते हैं; अर्थात् कोई धर्म और अर्थको, कोई धर्म और कामको तथा कोई अर्थ और कामको ही स्वीकार करते हैं । कोई एक तीनोंकी इच्छा नहीं करता अर्थात् तीनमेंसे एकको भी नहीं चाहता है । इस प्रकार ये सातों जन मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं ॥ ७६ ॥ पांच हजार ५००० पद प्रमाण प्रथमानुयोगमें चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और उनके शत्रु प्रतिवासुदेवोंके चरित्रका निरूपण किया जाता है । यहां उपयोगी गाथायें-- १ धर्म यशः शर्म च सेवमानाः केऽप्येकशी जन्म विदुः कृतार्थम् । अन्ये द्विशो विद्म वयं त्वमोधान्यहानि यान्ति त्रयसेवयैव ॥ सागारधर्मामृत १, १४. २ अ-आप्रत्योः 'प्रथमानियोगे', 'काप्रतौ 'प्रथमनुयोगे' इति पाठः । ३ प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमपि पुण्यम् । बोधि-समाधिनिधानं बोधति बोधः समीचीनः ॥ एकपुरुषाश्रिता कथा चरितम् , त्रिषष्टिशलाकापुरुषाश्रिता कथा पुराणम् , तदुभयमपि प्रथमानुयोगशब्दाभिधेयम् । र. क. श्रा. २, २. जो पुण पढमाणिओओ सो चउवीसतित्थयर-बारहचक्कवट्टि-णवबल-णवणारायण-णवपडिसत्तूणं पुराणे जिणविज्जाहर-चक्कवहि-चारण-रायादीण वसे च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३८. अं. प. २, ३५-३७, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [२०९ बारसविहं पुराणं जं दिटुं जिणवरेहि सव्वेहिं । तं सव्वं वण्णेदि हु जिणवंसे रायवंसे य ॥ ७७ ॥ पढमो अरहंताणं बिदिओ पुण चक्कवट्टिवंसो दु । तदिओ वसुदेवाणं चउत्थो विज्जाहराणं तु ।। ७८ ।। चारणवंसो तह पंचमो दु छट्ठो य पण्णसमणाणं । सत्तमगो कुरुवंसो अट्ठमओ चापि हरिवंसो ॥ ७९ ॥ णवमो अइक्खुवाणं वंसो दसमो ह कासियाणं तु । वाई एक्कारसमो बारसमो णाहवंसो दु॥ ८० ॥ पूर्वकृते पंचनवतिकोटिपंचाशच्छतसहस्रपंचपदे ९५५०००००५ उत्पाद-व्ययधौव्यादयो निरूप्यन्ते । चूलिका पंचप्रकारा जल-स्थल-माया-रूपाकाशभेदेन । तत्र जलगतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० जलगमनहेतवो मंत्रौषध-तपोविशेषा निरूप्यन्ते । स्थलगतायां द्विकोटिनवशतसहस्त्रैकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० बारह प्रकारका पुराण, जिनवंशों और राजवंशोंके विषयमें जो सब जिनेन्द्रोंने देखा है या उपदेश किया है, उस सबका वर्णन करता है । इनमें प्रथम पुराण अरहन्तोंका, द्वितीय चक्रवर्तियोंके वंशका, तृतीय वासुदेवोंका, चतुर्थ विद्याधरोंका, णवंशका, छठा प्रशाश्रमणोंका, सातवां कुरुवंशका, आठवां हरिवंशका.नौवां इक्ष्वाकुवंशजोंका, दशवां काश्यपोका या काशिकोंका, ग्यारहवां वादियोंका और बारहवां नाथवंशका है ॥ ७७-८०॥ पंचानबै करोड़ पचास लाख पांच पद प्रमाण ९५५०००००५ पूर्वकृतमें उत्पाद, व्यय और धौव्य आदिका निरूपण किया जाता है। जल, स्थल, माया, रूप और आकाशके भेदसे चूलिका पांच प्रकार है। उनमें दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे युक्त २०९८९२०० जलगता चूलिकामें जलगमनके कारण मंत्र, औषधि एवं तपविशेषका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त स्थलगता चूलिकामें हजारों योजन जानेकी १ प्रतिषु 'जगदिट्ठ' इति पाठः। २ ष. खं. पु. १, पृ. ११२. ३ ष. खं. पु. १, पृ. ११३. तत्थ जलगया जलत्थंभण-जलगमणहेदुभूदमंत-तंत-तवच्छरणाणं अग्गित्थंभण-भक्खणासण-पवणादिकारणपओए च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३९. छ, क.२७. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १५. योजनसहस्रादिगतिहेतवो विद्या-मंत्र-तंत्रविशेषा निरूप्यन्ते । मायागतायां द्विकोटि-नवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० मायाकरणहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि निरूप्यन्ते । रूपगतायां द्विकोटिनवशतसहस्रकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० चेतनाचेतनद्रव्याणां रूपपरावर्तनहेतुविद्या-मंत्र-तंत्र-तपांसि नरेन्द्रवाद-चित्र-चित्राभासादयश्च निरूप्यन्ते । आकाश'गतायां द्विकोटिनवशतसहस्रैकान्नवतिसहस्रद्विशतपदायां २०९८९२०० आकाशगमनहेतुभूतविद्या-मंत्र-तंत्र-तपोविशेषा निरूप्यन्ते । अत्र पूर्वकृताधिकारे प्रयोजनम् , स्वान्तर्भूतमहाकर्मप्रकृतिप्राभृतत्वात् । पुव्वगयस्स अवयारो वुच्चदे- णाम-दुवणा-दव्व-भावभेएण चउब्धिहं पुव्वगयं । आदिल्ला तिण्णि वि णिक्खेवा दव्वट्ठियणयप्पहवा, भावणिक्खवो पज्जवट्ठियणयप्पहवो । णिक्खेवट्ठो वुच्चदे । तं जहा- णामपुव्वगयं पुव्वगयसद्दो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि कारणभूत विद्या, मंत्र व तंत्र विशेषोंका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त मायागता चूलिकामें माया करनेकी हेतुभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तपका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त रूपगता चूलिकामें चेतन और अचेतन द्रव्योंके रूप बदलनेकी कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र एवं तपका तथा नरेन्द्रवाद, चित्र और चित्राभासादिका निरूपण किया जाता है। दो करोड़ नौ लाख नवासी हजार दो सौ पदोंसे संयुक्त आकाशगता चूलिकामें आकाशगमनकी कारणभूत विद्या, मंत्र, तंत्र व तपविशेषका निरूपण किया जाता है । यहां पूर्वकृत अधिकारसे प्रयोजन है, क्योंकि, वह महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको अपने अन्तर्गत करता है। पूर्वगतका अवतार कहते हैं- नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे पूर्वगत चार प्रकार है । आदिके तीन निक्षेप द्रव्यार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाले हैं, किन्तु भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयके निमित्तसे होनेवाला है। निक्षेपका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- बाह्य अर्थसे निरपेक्ष अपने आपमें प्रवर्तमान पूर्वगत शब्द नामपूर्वगत है। १ष. खं. पु. १, पृ. ११३. थलगया कुलसेल-मेरु-महीहर-गिरि-वसुंधरादिसु चटुलगमणकारणमंततंत-तवच्छरणाणं वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३९. २ष. ख. पु. १, पृ. ११३. मायागया पुण माहिंदजालं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३९. ३ ष. खं. पु. १, पृ. ११३. रूवगया हरि-करि-तुरय-रुरु-णर-तरु-हरिण-वसह-सस-पसयादिसरूवण परावत्तणविहाणं णरिंदवायं च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १३९. ४ ष. खं. पु. १, पृ. ११३. जा आयासगया सा आयासगमणकारणमंत-तंत-तवच्छरणाणि वण्णेदि। जयध. १, पृ. १३९. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं [२१९ वट्टमाणो । सो एसो त्ति एयत्तेण संकप्पियदव्वं ठवणापुव्वगयं । दव्वपुव्वगयं दुविहं आगमणोआगमभेएण। पुव्वमण्णवपारओ अणुवजुत्तो आगमदव्वपुव्वगयं । णोआगमदव्वपुव्वगयं जाणुंगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तभेएण तिविहं । आदिल्लदुर्ग सुगम, बहुसो परूविदत्तादो । पुव्वगयसद्दसंघाओ णोआगमतव्वदिरित्तदव्वपुव्वगय, पुव्वगयकारणत्तादो। भावपुव्वगयमागमणोआगमभेएण दुविहं । चोदसविज्जाठाणपारओ उवजुत्तो आगमभावपुव्वगयं । आगमेण विणा केवलोहि-मणपज्जवणाणेहि पुव्वगयत्थपरिच्छेदओ णोआगमभावपुव्वगयं । . .... एत्थ केण णिक्खेवेण पयदं ? पज्जवट्ठियणय पडुच्च आगमभावणिक्खेवेण पयदं । दवट्ठियणयं पडुच्च णोआगमतव्वदिरित्तदव्वपुव्वगयेण अक्खरट्ठवणापुव्वगएण च पयदं । णइगमणयं पडुच्च पुव्वगयणाणजणियसंसकारविसिट्ठजीवदव्वस्स गहणं । एवं णिक्खेव-णएहि पुव्वगयस्स अवयारो कद।। पमाण-पमेयाणं दोणं पि एत्थाणुगमो, करण-कम्मकारएसु अणुगमसद्दणिप्पत्तीदो । 'वह यह है ' इस प्रकार अभेद रुपसे संकल्पित द्रव्य स्थापनापूर्वगत है। द्रव्यपूर्वगत आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है। पूर्वरूप समुद्र के पारको प्राप्त हुआ उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यपूर्वगत है । नोआगमद्रव्यपूर्वगत ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकार है। इनमें आदिके दो सुगम हैं, क्योंकि, उनका बहुत बार निरूपण किया जा चुका है । पूर्वगतका शब्दसमूह नोआगमतद्व्यतिरिक्तद्रव्यपूर्वगत है, क्योंकि, वह पूर्वगतका कारण है । भावपूर्वगत आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । चौदह विद्याओंका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावपूर्वगत है। आगमके बिना केवलज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानसे पूर्वगतके अर्थका जाननेवाला नोआगमभावपूर्वगत है।। शंका-यहां कौनसा निक्षेप प्रकृत है ? समाधान-पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा आगमभावनिक्षेप प्रकृत है। द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नोआगमतव्यतिरिक्तद्रव्यपूर्वगत और अक्षरस्थापनापूर्वगत प्रकृत है । नैगम नयकी अपेक्षा पूर्वगतके ज्ञानसे उत्पन्न हुए संस्कारसे विशिष्ट जीव द्रव्यका ग्रहण है। इस प्रकार निक्षेप और नयसे पूर्वगतका अवतार किया है । प्रमाण और प्रमेय दोनोंका ही यहां अनुगम है, क्योंकि, करण और कर्म कारकमें अनुगम शब्द सिद्ध हुआ है । [अर्थात् करणकारकमें सिद्ध हुए अनुगम शब्दसे ज्ञान और कर्मकारक सिद्ध हुए उक्त शब्दसे शेयका ग्रहण होता है।] Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ४५. पुवाणुपुबीए पुष्वगयं चउत्थं, पच्छाणुपुबीए बिदियं । जत्थ-तत्थाणुपुवीए अवत्तव्वं, फ्टमं विदियं तदियं चउत्थं पंचमं वा त्ति णियमाभावादो । पुव्वेहि कयं पुव्वगयमिदि पिप्पत्तीदो गुणणामं । अक्खर-पद-संघाय-पडिवत्ति-अणियोगद्दारेहि संखेज्ज । अत्थदो अणंत, पमेयाणतियादो। वत्तव्वं ससमयो, ण परसमयो; तस्सेत्थपरूवणाभावादो । अत्याहियारो चोइसविहो । तं जहा- उत्पादपूर्व अग्रायणं वीर्यप्रवादं अस्ति-नास्तिप्रवाद ज्ञानप्रवादं सत्यप्रवादं आत्मप्रवादं कर्मप्रवादं प्रत्याख्याननामधेयं विद्यानुप्रवादं कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं लोकविन्दुसारमिति (पुद्गल-काल-जीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोसादा वर्ण्यन्ते तदुत्पादपूर्व एककोटिपदम् १०००००००। अग्राणि चांगानां स्वसमयविषयश्च यत्राख्यापितस्तदग्रायणं षण्णवतिशतसहस्रपदम् ९६००००० । छद्मस्थनां केवलिनां वीर्य सुरेन्द्र-दैत्याधिपानां वीर्यर्द्धयो नरेन्द्र-चक्रधर-बलदेवानां वीर्यलाभो द्रव्याणां आत्म-पराभय पूर्वानुपूर्वीसे पूर्वगत चतुर्थ और पश्चादानुपूर्वीसे वह द्वितीय है। यत्र-तत्रानु. पूर्वीसे वह अवक्तव्य है, क्योंकि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ अथवा पंचम है, ऐसे नियमका अभाव है। पूर्वोसे जो कृत है वह पूर्वकृत है, इस प्रकार सिद्ध होनेसे पूर्वकृत शब्द गुणनाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा वह संख्यात है। अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है, क्योंकि, उसके प्रमेय अनन्त हैं। वक्तव्य स्वसमय है। परसमय वक्तव्य नहीं है, क्योंकि, यहां उसकी प्ररूपणाका अभाव है। अर्थाधिकार चौदह प्रकार है। वह इस प्रकारसे- उत्पादपूर्व, अप्रायण, वीर्यप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान नामक, विद्यानुप्रवाद, कल्याण नामक, प्राणावाद, क्रियाविशाल और लोकविन्दुसार । जिसमें पदगल, काल और जीव आदिकोंके जब, जहांपर और जिस प्रकारसे पर्याय रूपसे उत्पादोंका वर्णन किया जाता है वह उत्पादपूर्व कहलाता है। इसमें एक करोड़ पद हैं १०००००००। जिसमें अंगोंके अग्र अर्थात् मुख्य पदार्थोंका तथा स्वसमयके विषयका वर्णन किया गया हो वह अप्रायणपूर्व है। वह छ्यानबै लाख पदोसे संयुक्त है ९६०००००। जिसमें छद्मस्थ व केवलियोंके वीर्यका; सुरेन्द्र व दैत्येन्द्रोंके वीर्य एवं ऋद्धिका; राजा, चक्रवर्ती और बलदेवोंके वीर्यलाभका; द्रव्योंका आत्मवीर्य, परवीर्य, उभयवीर्य, १५. ख. पु. १, पृ. ११४. काल-पुद्गल जीवादीनां यदा यत्र यथा च पर्यायेणोत्पादो वर्ण्यते तदुपादपूर्वम् । त. रा. १, २०, १२. जमुप्पायपुव्वं तमुप्पाय-वय-धुवभावाणं कमाकमसरूवाणं णाणाणयविसयाण बण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १३९. अ. प. २-३८. २.खं. पु. १, पृ. ११५. क्रियावादादीनां प्रक्रिया अग्रायणी चांगादीनां स्वसमवायविषयश्च यत्र च्यापितस्तदप्रायणम् । त. रा. १,२०, ११. अग्गेणियं णाम पुवं सत्तसयसुणय-दुण्णयाणं छदव-णवपयत्थपंचत्थियाणं च घण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १४०. अं. प. २, ३९-४१. Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १५.] कदिअणियोगबारे सुत्तावयरण (२९३ क्षेत्र-भवर्षितपोवीर्य सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं तद्वीर्यप्रवाद' सप्ततिशतसहस्रपदम् ७००००००। षण्णामपि द्रव्याणां भावाभावपर्यायविधिना स्व-परपर्यायाभ्यामुभयनयवशीकृताभ्यामर्पितानर्पितसिद्धाभ्यां यत्र निरूपणं षष्ठिपदशतसहस्रैः ६०००००० क्रियते तदस्तिनास्विरवादम्') तद्यथा-स्वरूपादिचतुष्टयेनास्ति घटः, तथाविधरूपेण प्रतिभासनात् । पररूपादिचतुष्टयेन नास्ति घटः, तद्रूपतया घटस्याप्रतिभासनात् । ताभ्यामन्योन्यात्मकत्वेन प्राप्तजात्यन्तराम्यामर्थपर्यायरूपाभ्यां वा आदिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा मृद्घटो मृद्घटरूपेनास्ति, न कल्याणादिरूपेण तथानुपलम्भात् । ताभ्यां विधि-निषेधधर्माभ्यामन्योन्यात्मकत्वेन प्राप्त क्षेत्रवीर्य, भबवीर्य, ऋषियोंके तपोवीर्य एवं सम्यक्त्वके लक्षणका कथन किया गया हो वह वीर्यप्रवाद है। यह सत्तर लाख पदोंसे संयुक्त है ७०००००० । जिसमें छहों द्रव्योका. भाव व अभाव रूप पर्यायके विधानसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयोंके अधीन एवं प्रधान व अप्रधान भावसे सिद्ध स्वपर्याय और परपर्याय द्वारा साठ लाख ६०००००० पदोंसे निरूपण किया जाता है वह अस्ति-नास्तिप्रवाद पूर्व है। [अर्थात् जिसमें स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके द्वारा छह द्रव्योंके अस्तित्व और पर द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके द्वारा उनके नास्तित्वका निरूपण किया जाता है वह अस्ति-नास्तिप्रवादपूर्व है। इसीको स्पष्ट करते हैं-स्वरूपादि चतुष्टय अर्थात् स्व-द्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल व स्व-भावके द्वारा घट है', क्योंकि, वैसे स्वरूपसे प्रतिभासमान है । पररूपादि चतुष्टयसे 'घट नहीं है, क्योंकि. उन चारोंसे घटका प्रतिभास नहीं होता। परस्पर एक दूसरे रूप होनेसे जात्यन्तर भावको प्राप्त अथवा द्रव्य-पर्याय रूप स्वचतुष्टय और परचतुष्टयकी अपेक्षा एक साथ कहनेपर 'घट अवक्तव्य है'। अथवा मिट्टीका घट मृद्घट रूपसे है, सुवर्णादि रूपसे नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। अन्योन्यस्वरूप होनेसे जात्यन्तर भावको प्राप्त १ ष. ख. पु. १ पृ. ११५. छद्मस्थ-केवलिनां वीर्य सुरेन्द्र-दैत्याधिपानां ऋद्धयो नरेन्द्र-चक्रधरबलदेवानां च वीर्यलाभो द्रव्याणां सम्यक्त्वलक्षणं च यत्राभिहितं च तद्बीर्यप्रवादम्। त. रा. १,२०, १२. विरियाणुपवादपुवं अप्पविरिय-परविरिय-तदुभयविरिय-खेत्तविरिय-कालविरिय-भवविरिय-तवविरियादीण वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १४०. अं. प. २, ४९-५१. २. ख. पु. १, पृ. ११५. पंचानामस्तिकायानामर्थो नयानां चानेकपर्यायैरिदमस्तीदं नास्तीति च कात्स्न्येन यत्रावभासितं तदस्ति-नास्तिप्रवादम। अथवा, षण्णामपि द्रव्याणां भावाभावपर्यायवि पर्यायाम्यामुभयनयवशीकृताभ्यामर्पितानर्पितसिद्धाभ्यां यत्र निरूपणं तदस्ति-नास्तिप्रवादम् । त. रा. १,२०, १२.. अस्थि-णत्थिपवादो सव्वदव्वाणं सरूवादिचउक्केण अत्थित्तं पररूवादिचउक्कण णत्थित्तं च परूवेदि। विहि-परिसेहधम्मे णयगणलीणे णाणादुण्णयणिराकरणदुवारेण परूवेदि ति भणिदं होदि । जयध. १, पृ. १४.. भं. प. २, ५२-५५, Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, १५. जात्यन्तराम्यामादिष्टो वक्तव्यः। रूपघटो रुपघटरूपेणास्ति, न रसादिघटरूपेण । ताभ्यामक्रमेणादिष्टः अवक्तव्यः । एवं रसादिघटानामपि योज्यम् । रक्तघटो रक्तघटरूपेणास्ति, न कृष्णादिघटरूपेण, तथाप्रतिभासाभावात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा नवघटो नवघटरूपेणास्ति, न पुराणादिघटरूपेण, अवस्थासांकर्यप्रसंगात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । एवं पुराणादिघटनामपि योज्यम् । अथवा अर्पितसंस्थानघटः अस्ति स्वरूपेण, नानर्पितसंस्थानघटरूपेण, विरोधात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवार्पितक्षेत्रवृत्तिर्घटोऽस्ति स्वरूपेण, नानपितक्षेत्रवृत्तटैः', अनुपलम्भात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा पर्यायघटः पर्यायघटरूपेणास्ति, न द्रव्यघटरूपेण घटप्रत्ययाभिधान-व्यवहाराहेतुपर्यायघटरूपेण च । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा तत्परिणतरूपेणास्ति घटः, न नामादिघटरूपेण । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः। अथवा घटपर्यायेणास्ति घटः, न पिण्ड-कपालादिप्राक्-प्रध्वंसाभावैः उन विधिवनिषेध रूपधर्मोसे कहा गया घट अवक्तव्य है। रूपघट रूपघट स्वरूपसे है,रसादि घट रूपसे नहीं है। उन दोनों धर्मोंसे एक साथ कहा गया घट अवक्तव्य है। इसी प्रकार रसादि घटोके भी कहना चाहिये। रक्तघट रक्तघटरूपसे है, कृष्णादिघट रूपसे नहीं है, क्योंकि, वैसा प्रतिभास नहीं होता। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा नवीन घट नवीन घट स्वरूपसे है, पुराने आदि घट स्वरूपसे नहीं है, क्योंकि, अन्यथा दोनो (नवीन व पुरानी) अवस्थाओंके सांकर्यका प्रसंग आता है। उन दोनोंकी अपेक्षा युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है । इसी प्रकार पुराने आदि घटोंके भी कहना चाहिये। अथवा विवक्षित आकार युक्त घट स्वरूपसे है, अविवक्षित आकार युक्त घट रूपसे नहीं है। क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है । उन दोनोंकी अपेक्षा युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है । अथवा विवक्षित क्षेत्रमें रहनेवाला घट अपने स्वरूपसे है, अविवक्षित क्षेत्रमें रहनेवाले घटोकी अपेक्षा वह नहीं है। क्योंकि, उस रूपसे वह पाया नहीं जाता। उन दोनोंसे एक साथ कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा पर्यायघट पर्यायघट रूपसे है, द्रव्यघट रूपसे और 'घट' इस प्रकारके प्रत्यय एवं 'घट' इस शब्दके व्यवहारके अहेतुभूत पर्यायघट रूपसे भी वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा घट रूप पर्यायसे परिणत स्वरूपसे घट है, नामादि घट रूपसे वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा घटपर्यायसे घट है, प्रागभाव रूप पिण्ड और प्रध्वंसाभाव रूप कपाल पर्यायसे वह नहीं है; क्योंकि, वैसा होनेमें विरोध है। उन दोनोंसे युग अ-आप्रत्योः ‘-क्षेत्रवृत्तेर्घटः अनुप-'; काप्रती 'क्षेत्रवृत्तेर्घटैरनुप-' इति पाठः । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [२१५ विरोधात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः। वर्तमानघटो वर्तमानघटरूपेणास्ति, नातीतानागतघटै, विरोधात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यो घटः । अथवा चक्षुरिन्द्रियग्राह्यघटः स्वरूपेणास्ति, न तदग्राह्यघटरूपेण, विरोधात् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा व्यञ्जनपर्यायेणास्ति घटः, नार्थपर्यायेण । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा ऋजुसूत्रनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शब्दादिनयविषयीकृतपर्यायैः। ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा शब्दनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शेषनयविषयीकृतपर्यायैः। ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः। अथवा समभिरूढनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शेषनयविषयैः । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा एवम्भूतनयविषयीकृतपर्यायैरस्ति घटः, न शेषनयविषयैः । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवोपयोगरूपेणास्ति घटः, नार्थाभिधानाभ्याम् । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवोपयोगघटोऽपि वर्तमानरूपतयास्ति, नातीतानागतोपयोगघटैः। ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । अथवा घटोपयोगघटः स्वरूपेणास्ति, न पटोपयोगादिरूपेण । ताभ्यामक्रमेणादिष्टोऽवक्तव्यः । इत्यादिप्रकारेण सकलार्थानामस्तित्व-नास्तित्वावक्तव्यभंगा योज्याः। अस्तित्व-नास्तित्वाभ्यां क्रमेण पत् कहा गया घट अवक्तव्य है। वर्तमानघट वर्तमानघट रूपसे है, अतीत व अनागत घटोंकी अपेक्षा यह नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेमें विरोध है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है । अथवा चक्षु इन्द्रियसे ग्राह्य घट स्वरूपसे है, चक्षु इन्द्रियसे अग्राह्य घट रूपसे वह नहीं है, क्योंकि, ऐसा होने में विरोध है। उन दोनोंसे यगपत कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा व्यञ्जन पयार्यसे घट है, अर्थपर्यायसे नहीं है। उन दोनों धौंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा ऋजुसूत्र नयसे विषय की गई पर्यायोंसे घट है, शब्दादि नयोंसे विषय की गई पर्यायोंसे वह नहीं है । उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा शब्दनयसे विषय की गई पर्यायोंसे घट है, शेष नयोंसे विषय की गई पर्यायोंसे वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा समभिरूढनयसे विषय की गई पर्यायोंसे घट है, शेष नयोंसे विषय की गई पर्यायोंसे वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा एवम्भूत नयसे विषय की गई पर्यायोसे घट है, शेष नयोंसे विषय की गई पर्यायोसे वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है । अथवा उपयोग रूपसे घट है, अर्थ और अभिधानकी अपेक्षा वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया अवक्तव्य है । अथवा उपयोगघट भी वर्तमान स्वरूपसे है, अतीत व अनागत उपयोगघटोंकी अपेक्षा वह नहीं है। उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है। अथवा घटोपयोगस्वरूपसे घट है, पटोपयोगादि रूपसे नहीं है । उन दोनोंसे युगपत् कहा गया घट अवक्तव्य है । इत्यादि प्रकारसे सब पदार्थोके अस्तित्व, नास्तित्व व अवक्तव्य भंगोंको कहना चाहिये। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५. विशेषितः अस्ति च नास्ति च घटः। अस्तित्वावक्तव्याभ्यां क्रमेणादिष्टः अस्ति चावक्तव्यश्च घटः। नास्तित्वावक्तव्याभ्यां क्रमेणादिष्टः नास्ति चावक्तव्यश्च घटः । अस्ति-नास्त्यवक्तव्यैः क्रमेणादिष्टः अस्ति च नास्ति चावक्तव्यश्च घटः । एवं शेषधर्माणामपि सप्तभंगी योज्या । पंचानामपि ज्ञानानां प्रादुर्भाव-विषयायतनानां ज्ञानिनामज्ञानिनामिन्द्रियाणां च प्राधान्येन यत्र भागोऽनाद्यनिधनानादिसनिधन-साद्यनिधन-सादिसनिधनादिविशेषैर्विभावितस्तद्ज्ञानप्रवादम् । तच्चैकोनकोटिपदम् ९९९९९९९) वाग्गुप्तिः संस्कारकारणं प्रयोगो द्वादशधा भाषा वक्तारश्चानेकप्रकार मृषामिधानं दशप्रकारश्च सत्यसद्भावो यत्र प्ररूपितस्तत्सत्यप्रवादम् । एतस्य पदप्रमाणं षडधिकैकुकोटी १००००००६। व्यलीकनिवृत्तिवाचंयमत्वं वा वाग्गुप्तिः। - अस्तित्व और नास्तित्व धर्मोंसे क्रमशः विशेषित घट 'है भी और नहीं भी है। अस्तित्व और अवक्तव्य धर्मों द्वारा क्रमसे कहा गया घट है भी और अवक्तव्य भी है'। नास्तित्व जौर अवक्तव्य धर्मों द्वारा क्रमसे कहा गया घट 'नहीं भी है और अवक्तव्य भी है'। अस्तित्व, नास्तित्व और अवक्तव्य धर्मों द्वारा क्रमसे कहा गया घट ' है भी, नहीं भी है और अवक्तव्य भी है। इसी प्रकार शेष धर्मोकी भी सप्तभंगी जोड़ना चाहिये । जिसमें अनाद्यनिधन, अनादि-सनिधन, सादि-अनिधन और सादि-सनिधन आदि विशेषोंसे पांचों शानोंका प्रादुर्भाव, विषय व स्थान इनका तथा शानियोंका, अशानियोंका और इन्द्रियोंका प्रधानतासे विभाग बतलाया गया हो वह ज्ञानप्रवाद कहलाता है । इसमें एक कम एक करोड़ पद हैं ९९९९९९९ । जिसमें वाग्गुप्ति, वचनसंस्कारके कारण, प्रयोग, बारह भाषा, वक्ता, अनेक प्रकारका असत्यवचन और दश प्रकारका सत्यसद्भाव, इनकी प्ररूपणा की गई हो वह सत्यप्रवादपूर्व है। इसके पदोंका प्रमाण एक करोड़ छह है १००००००६। असत्य वचनके त्याग अथवा वचनके संयमको वाग्गुप्ति कहते हैं । शिर व कण्ठादिक आठ स्थान १ प्रतिषु ‘प्रागभावविषयायतनाना-' इति पाठः । २ ष. खं. पु. १, पृ. ११६. पंचानामपि ज्ञानानां प्रादुर्भावविषयायतनानां ज्ञानिनां अज्ञानिनामिन्द्रियाणां प्राधान्येन यत्र विभागो विभावितस्तज्ज्ञानप्रवादम् । त. रा. १, २०, १२. णाणप्पवादो मदि-सुद-ओहिमणपज्जव-केवलणाणाणि वण्णेदि । जयध. १, पृ. १४१. अं. प. २-५९. . ३ सत्यप्रवादप्ररूपणान्तर्गतोऽयं सकलः प्रबन्धः षट्खंडागमस्य प्रथमपुस्तके ( ११६ पृष्ठतः ) तत्त्वार्थराजवार्तिके (३,२०, १२) च प्रायेण शब्दशः समानः समुपलभ्यते । ४ सच्चपवादो ववहारसच्चादिदसविहसच्चाणं सत्तभंगीए सयलवत्थुनिरूवणविहाणं च भणइ । जयध. १, पृ. १४१. अं. प. २,७८-८४. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [२१७ वाक्संस्कारकारणाणि शिरःकंठादीन्यष्टौ स्थानानि । वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणः सुगमः । अभ्याख्यान-कलह-पैशून्याबद्धप्रलाप-रत्यरत्युपधि-निकृत्यप्रणति-मोष-सम्यग्मिथ्यादर्शनात्मिका भाषा द्वादशधा। अयमस्य कति अनिष्टकथनमभ्याख्यानम् । कलहः प्रतीतः । पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशून्यम् । धर्मार्थ-काम-मोक्षासम्बद्धा वागबद्धप्रलापः । शब्दादिविषयेषु रत्युत्पादिका रतिवाक् । शब्दादिविषयेष्वरत्युत्पादिका अरतिवाक् । यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जन-रक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक् । वणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रवण आत्मा भवति सा निकृतिवाक् । यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाभ्यधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक् । यां श्रुत्वा स्तेये प्रवर्तते सा मोषवाक् । सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सम्यग्दर्शनवाक् । तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक् । वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृत्वपर्याया वीन्द्रियादयः । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावाश्रयमनेकप्रकारमनृतम् । वचनसंस्कारके कारण हैं । शुभ या अशुभ रूप वचनका प्रयोग सुगम है । अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, अबद्धप्रलाप, रति, अरति, उपधि, निकृति, अप्रणति, मोष, सम्यग्दर्शन व मिथ्यादर्शन स्वरूप भाषा बारह प्रकार है। यह इसका कर्ता है इस प्रकार अनिष्ट कथनका नाम अभ्याख्यान है । कलह प्रसिद्ध है । पीछे दोषोंका प्रगट करना पैशून्य कहा जाता है। धर्म, अर्थ, काम व मोक्षसे असम्बद्ध वचनका नाम अबद्धप्रलाप है । शब्दादिक विषयों में रतिको उत्पन्न करनेवाला वचन रतिवाक् है । शब्दादिक विषयों में अरतिको उत्पन्न करनेवाला वचन अरतिवाक् है। जिस वचनको सुनकर परिग्रहके उपार्जन करने और उसके रक्षणादिकमें आसक्त होता है वह उपधिवाक् कहलाता है। जिस वचनको सुनकर आत्मा वणिग्व्यवहार अर्थात् व्यापारमें कपटपरायण होता है वह निकृतिवाक् है । जिस वचनको सुनकर प्राणी तप और विज्ञानसे अधिक जीवोंको भी प्रणाम नहीं करता है वह अप्रणतिवाक् है। जिस वचनको सुनकर चौर्य कार्यमें प्रवृत्त होता है वह मोषवचन है। समीचीन मार्गका उपदेश करनेवाला वचन सम्यग्दर्शनवाक् है । इससे विपरीत अर्थात् मिथ्यामार्गका उपदेश करनेवाला वचन मिथ्यादर्शनवाक् है । वक्ता प्रगट हुई वक्तृत्व पर्यायसे संयुक्त द्वीन्द्रियादिक जीव हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रयकर असत्य वचन अनेक प्रकार है। १ प्रतिषु तपोविज्ञानाभ्या केष्वपि ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' अप्रणमतिवाक् ' इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सम्यक्मार्गस्योपदेष्ट ' इति पाठः। ४ हिंसादेः कर्मणः कर्तुः विरतस्य विरताविरतस्य वाध्यमस्य कर्तेत्यभिधानमभ्याख्यानम् । त. रा. १, २०, १२. हिंसाधकर्तुः कर्तुर्वा कर्तव्यमिति भाषणम् । अभ्याख्यानं प्रसिद्धो हि वागादिकलहः पुनः ॥ दोषाविष्करणं दुष्टैः पश्चात्पैशून्यभाषणम् । भाषाबद्धप्रलापाख्या चतुर्वर्गविवर्जिता ।। रत्यरत्यभिधे वोभे [चोमे ] रत्यरत्युपपादिके । आसज्यते जयार्थेषु श्रोता सोपधिवाक् पुनः॥ वंचनाप्रवणं छ, क. २८. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. दशविधः सत्यसद्भावः नाम-रूप-स्थापना-प्रतीत्य-संवृति संयोजना-जनपद-देश-भाव-समयसत्यभेदेन' । तत्र सचेतनेतरद्रव्यस्य असत्यप्यर्थे संव्यवहारार्थ संज्ञाकरणं तन्नामसत्यम् , इन्द्र इत्यादि। यदर्थेऽसन्निधानेऽपि रूपमात्रेणोच्यते तद्रूपसत्यम् , यथा चित्रपुरुषादिष्वसत्यपि चैतन्योपयोगादावर्थे पुरुष इत्यादि । असत्यप्यर्थे यत्कार्यार्थ स्थापितं धृताक्षनिक्षेपादिषु तत्स्थापनासत्यम् । साधनादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचस्तत्प्रतीत्यसत्यम् । यल्लोकसंवृता श्रुतं वचस्तत्संवृतिसत्यम्', यथा पृथिव्याघनेककारणत्वेऽपि सति पंके जातं पंकजमित्यादि । नाम, रूप, स्थापना, प्रतीत्य, संवृति, संयोजना, जनपद, देश, भाव और समय सत्यके भेदसे सत्यसदभाव दश प्रकार है। उनमें पदार्थके न होनेपर भी व्यवहारके लिये सचेतन और अचेतन द्रव्यकी संज्ञा करनेको नामसत्य कहते हैं, जैसे इन्द्र इत्यादि । पदार्थका सन्निधान न होनेपर भी रूपमात्रकी अपेक्षा जो कहा जाता है वह रूपसत्य है, जैसे चित्रपुरुषादिकोंमें चैतन्य उपयोगादि रूप पदार्थके न होनेपर भी 'पुरुष' इत्यादि कहना । पदार्थके न होनेपर भी कार्यके लिये जो जुएके पाँसे आदि निक्षेपोंमें स्थापना की जाती है वह स्थापनासत्य है । सादि व अनादि आदि भावोंकी अपेक्षा करके जो वचन कहा जाता है वह प्रतीत्यसत्य है। जो वचन लोकरूढ़िमें सुना जाता है वह संवृतिसत्य है, जैसे पृथिवी आदि अनेक कारणोंके होनेपर भी पंक अर्थात् कीचड़में उत्पन्न होनेसे 'पंकज' जीवं कर्ता निःकृतिवाक्यतः। न नमत्यधिकेवात्मा सा च [चा ] प्रणतिवागभूत् ॥ या प्रवर्तयति स्तेये मोघ [ मोष ] वाक् सा समीरिता । सम्यग्मार्गे नियोक्त्री या सम्यग्दर्शनवागसौ ॥ मिथ्यादर्शनवाक् सा या मिध्यामार्गोपदेशिनी । वाचो द्वादशभेदाया वक्तारो द्वीन्द्रियादयः ॥ ह. पु. १०, ९२-९७. १ जणवद-संमदि ठवणा णामे रूवे पडुच्च-ववहारे। संभावणववहारे भावेणोपम्मसच्चेण ॥ भ. आ. ११९३. गो. जी. २२२. २ ह. पु. १०-९८. तथा च यथा 'भातु 'इत्यादि नाम देशापेक्षया सत्यं तथा अन्यनिरपेक्षतयैव संव्यवहारार्थ कस्यचित्प्रयुक्तं संज्ञाकर्म नामसत्यम् । यथा कश्चित् पुरुषो जिनदत्त इति । गो. जी. जी. प्र. २२३. ३ ह. पु. १०-९९. चक्षुर्व्यवहारप्रचुरत्वेन रूपादिपुद्गलगुणेषु रूपप्राधान्येन तदाश्रितं वचनं रूपसत्यम् । यथा कश्चित् पुरुषः श्वेत इति । गो. जी. जी. प्र. २२३. ४ ह. पु.१०-१००. अन्यत्रान्यवस्तुनः समारोपः स्थापना, तदाश्रितं मुख्यवस्तुनो नाम स्थापनासत्यम् । यथा चन्द्रपभप्रतिमा चन्द्रप्रभ इति । गो. जी. जी. प्र. २२३. ५ ह. पु. १०-१०१. आदिमदनादिमदोपशमिकादीन् भावान् प्रतीत्य यद्वचनं तत्प्रतीत्यसत्यम् । त. रा. १,२०, १२. प्रतीत्य विवक्षितादितरदुदिश्य विवक्षितस्यैव स्वरूपकथनं प्रतीत्यसत्यम् - आपेक्षिकसत्यमित्यर्थः । यथा कश्चिद्दीर्घ इति, अन्यस्य हस्वत्वमपेक्ष्य प्रकृतस्य दीर्घत्वकथनात् । एवं स्थूल-सूक्ष्मादिवचनान्यपि प्रतीत्यसत्यानि ज्ञातव्यानि । गो. जी. जी. प्र. २२३. ६ ह. पु. १०-१०२. यल्लोक संवृत्यानीतं वचस्तत्संवृतिसत्यम् । यथा... । त. रा. १,२०, १२ तथा संवृत्या कल्पनया सम्मत्या वा बहुजनाभ्युपगमेन सर्वदेशसाधारणं यन्नाम रूदं तत्संवृतिसत्यं सम्मतिसत्यं वा । यथा अप्रमहिषीत्वाभावेऽपि कस्याश्चिद्देवीति नाम । गो. जी. जी. प्र. २२३. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणं [ २१९ धूपचूर्णवासानुलेपनप्रघर्षादिषु पद्म-मकर-हंस-सर्वतोभद्र-कौंचव्यूहादिषु इतरेतरद्रव्याणां यथाविभागविधिसन्निवेशाविर्भावकं यद्वचस्तत्संयोजनासत्यम् । द्वात्रिंशज्जनपदेषु आर्यानार्यभेदेषु धर्मार्थ-काम-मोक्षाणां प्रापकं यद्वचस्तज्जनपदसत्यम् । ग्राम-नगर-राज-गण-पाखण्ड-जातिकुलादिधर्माणां व्यपदेष्ट यद्वचस्तद्देशसत्यम्। छद्मस्थज्ञानस्य द्रव्ययाथात्म्यादर्शनेऽपि संयतस्य [ संयतासंयतस्य ] वा स्वगुणपरिपालनार्थ प्राशुकमिदमप्राशुकमित्यादि यद्वचस्तद् भावसत्यम् । प्रतिनियतषट्तयद्रव्यपर्यायाणामागमगम्यानां याथात्म्याविष्करणं यद्वचस्तत्समयसत्यम् । । यत्रात्मनोऽस्तित्व-नास्तित्वादयो धर्माः षड्जीवनिकायभेदाश्च युक्तितो निर्दिष्टास्तदात्म इत्यादि वचनप्रयोग । सुगन्धित धूपचूर्णके लेपन और घिसनेमें [अथवा ] पद्म, मकर, हंस, सर्वतोभद्र और कौंच रूप व्यूह ( सैन्यरचना) आदिकोंमें भिन्न भिन्न द्रव्योंकी विभागविधिके अनुसार की जानेवाली रचनाको प्रगट करनेवाला जो वचन है वह संयोजनासत्यवचन कहलाता है । आर्य व अनार्य भेद युक्त बत्तीस जनपदोंमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका प्रापक जो वचन है वह जनपदसत्य है । जो वचन, ग्राम, नगर, राजा, गण, पाखण्ड, जाति एवं कुल आदि धर्मोंका व्यपदेश करनेवाला है वह देशसत्य है। छदमस्थज्ञानीके द्रव्यके यथार्थ स्वरूपका दर्शन न होनेपर भी संयत अथवा [ संयतासंयत ] के अपने गुणोंका पालन करनेके लिये ' यह प्राशुक है और यह अप्राशुक है' इत्यादि जो वचन कहा जाता है वह भावसत्य है। जो वचन आगमगम्य प्रतिनियत छह द्रव्य व उनकी पर्यायोंकी यथार्थताको प्रगट करनेवाला है वह समयसत्य है। जिसमें आत्माके अस्तित्व व नास्तित्व आदि गुणोंका तथा छह कायके जीवोंके १त. रा. वार्तिके मूलाराधनायां (११९३) च ' -व्यूहादिषु इतरेतरद्रव्याणां यथाविभागविधि- ' अस्य स्थाने 'व्यूहादिषु वा सचेतनेतरद्रव्याणां यथाभागविधि-' इति पाठः । चेतनाचतनद्रव्यसनिवेशाविभागकृत् । पच: संयोजनासत्यं कौंचव्यूहादिगोचरम् । ह. पु. १०-१०३. २ ह. पु. १०-१०४. जनपदेषु तत्रतन तत्रतनव्यवहर्तृजनानां रूढं यद्वचनं तज्जनपदसत्यम् । यथा महाराष्ट्रदेशे भातु भेटु, अंध्रदेशे वंटक मुकुडू, कर्णाटदेशे कूलू, द्रविडदेशे चोरु । गो. जी, जी. प्र. २२३. ३ यद् ग्राम-नगराचार-राजधर्मोपदेशकृत् । गणाश्रमपदोभासि देशसत्यं तु तन्मतम् ॥ ह. पु. १०-१०५. ४ मूलाराधना ११९३. ह. पु. १०-१०७. अतीन्द्रियार्थेषु प्रवचनोक्तविधि निषेधसंकल्पपरिणामो भावः, तदाश्रितं वचनं भावसत्यम् । यथा शुष्क-पक्व-ध्वस्ताम्ल-लवणसंमिश्रदग्पादिद्रव्यं प्रासुकम्, ततस्तत्सेवने पापबन्धोनास्तीति पापवर्जनवचनम् । अत्र सूक्मत्राणिनामिन्द्रियागोचरत्वेऽपि प्रवचनप्रामाण्येन प्रासुकाप्रासुकसंकल्परूपभावाश्रितवचनस्य सत्यत्वात्, समस्तातीन्द्रियार्थज्ञानिप्रणीतप्रवचनस्य सत्यत्वादेव कारणात् । गो. जी. जी. प्र. २२४. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १,१५. प्रवादम् । एतस्य पदप्रमाणे षड्विंशतिः कोट्यः २६.०००.०० । अत्रोपयोगी गाहा जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पोग्गलो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणओ ॥ ८१ ॥ सत्ता जंतू य माई य माणी जोगी य संकटो। असंकटो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य' ॥ ८२ ॥ एतयोरर्थमुच्यते-- जीवति जीविष्यति अजीवीदिति जीवः । शुभमशुभं करोतीति कर्ता । सत्यमसत्यं ब्रवीतीति वक्ता। प्राणा अस्य सन्तीति प्राणी । चतुर्गतिसंसारे कुशल .................... भेदोंका युक्तिसे निर्देश किया गया हो वह आत्मप्रवादपूर्व कहा जाता है। इसके पदोंका प्रमाण छब्बीस करोड़ है २६०००००००। यहां उपयोगी गाथायें - जीव कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोक्ता, पुद्गल, वेद, विष्णु, स्वयंभू, शरीरी, मानव, सक्त, जन्तु, मायी, मानी, योगी, संकट, असंकट, क्षेत्र और अन्तरात्मा है ॥८१-८२॥ . इन दोनों गाथाओंका अर्थ कहते हैं- जो जीता है, जीता रहेगा और जीता था यह जीव है। चूंकि जीव शुभ और अशुभ कार्योको करता है अतः वह कर्ता है । सत्य और असत्य वचन बोलनेके कारण वक्ता है। व्यवहारनयसे आयु व इन्द्रियादि दश प्राणोंसे तथा निश्चय नयकी अपेक्षा ज्ञान-दर्शनादि रूप प्राणोंसे संयुक्त होनेके कारण प्राणी है। चूंकि वह चतुर्गति रूप संसारमें शुभ और अशुभ कर्मके फल स्वरूप सुख दुखको भोगता है १. खं. पु. १, पृ. ११८. त. रा. १, २०, १२. आदपवादो णाणाविहदुण्णए जीवविसए णिराकरिय जीवसिद्धिं कुणइ । अस्थि जीवो तिलक्षणो सरीरमेतो स-परप्पयासओ सुहुमो अमुतो भोना कत्ता अणाइबंधणबद्धो णाण-दसणलक्खणो उड्ढगमणसहावो एवमाइसरूवेण जीवं साहेदि ति वुत्तं होदि । जयध. १, पृ. १४१, भ. प. २, ८५. २ अं. प. २, ८६-८७. ३ ववहारेण जीवदि दसपाणेहि, णिच्छयणएण य केवलणाण-दसण-सम्मत्तरूपपाणहि जीवहिदि जीविदपुचो जीवदि ति जीवो। अं. प. २, ८६-८७. ४ ववहारेण सुहासुहं कम्मं णिच्छयणएण चिप्पज्जयं च करेदि ति कत्ता, नो किमवि करेदि इदि भकत्ता। अं. प, २, ८६-८७. ५ सच्चमसच्चं च वत्ति ति वना, णिच्छ यदी अवता । अं. पं. २, ८६. ८७. ६ णयगुचपाणा अस्स अस्थि इदि पाणी । अं. प. २, ८६-८७. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगदौर सुत्तावयरण (२२१ मकुशलं भुक्ते इति भोक्ता' । पूरण-गलनात्पुद्गलः । सुखमसुखं वेदयतीति वेदः । स्वशरीराशेषावयवान्वेवेष्टीति विष्णुः । स्वयमेव भूतवानिति स्वयम्भूः । शरीरमस्यास्तीति शरीरी । मना भवः मानवः । स्वजन-सम्बन्धि-मित्रवर्गादिषु सजतीति सक्ता । चतुर्गतिसंसारे आत्मानं जनयति जायत इति वा जन्तुः । माया अस्यास्तीति मायी "। मानोऽस्यास्तीति मानी। योगोऽस्यास्तीति योगी । संहरधर्मत्वात्संकटः । विसर्पणधर्मत्वादसंकटः । षड्द्रव्याणि क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन् तत्क्षेत्रम् , षड्व्व्यस्वरूपमित्यर्थः; तज्जानातीति क्षेत्रज्ञः । अथवा, अतः भोक्ता है। चूंकि वह कर्म रूप पुद्गलको पूरा करता और गलाता है अतः पुद्गल है। सुख और दुखका चूंकि वेदन करता है अतः वेद है। चूंकि अपने शरीरके समस्त अवयवोंको पुनः पुनः वेष्टित करता है अतः वह विष्णु है। स्वयं ही उत्पन्न होनेके कारण स्वयम्भू है। शरीर होनेके कारण शरीरी है। मनु अर्थात् ज्ञानमें उत्पन्न होनेसे मानव है । चूंकि अपने कुटुम्बी जन, सम्बन्धी एवं मित्रवर्गादिकोंमें आसक्त रहता है अतः सक्ता कहा जाता है । चतुर्गति रूप संसारमें चूंकि अपनेको उत्पन्न कराता है या उत्पन्न होता है अतः जन्तु है। माया युक्त होनेसे मायी है। मान युक्त होनेसे मानी है। योग युक्त हो योगी है । संकोच रूप स्वभावके कारण संकट है । फैलने रूप धर्मसे संयुक्त होनेके कारण असंकट कहलाता है । छह द्रव्य जिसमें रहते हैं अर्थात् वास करते हैं वह क्षेत्र कहलाता है, अर्थात् जो छह द्रव्य स्वरूप है उसका नाम क्षेत्र है; और उसको जो जानता है वह १ कम्म फलं सस्सरुवं च भुजदि इदि भोत्ता । अ. प. २, ८६, ८७. २ कम्म-पोग्गलं पूरेदि गालेदि य पोग्गलो, णिच्छयदो अपोग्गलो। अं. प. ८६, ८७. ३ सव्वं वेइ इदि वेदो। अं. प. २, ८६-८७. ४ प्रतिषु ' सशरीर ' इति पाठः । वावणसीलो विण्ढू । अं. प. २, ८६-८७. ५ सयंभुवणसीलो सयंभू । अं. प. २, ८६-८७. ६ सरीरमस्सत्थि त्ति सरीरी, णिच्छयदो असरीरी । अं. प. २, ८६-८७. ७ माणकादिपज्जयजुत्तो माणवो, णिच्छएण अमाणवो । अं. प. २, ८६-८७. ८ परिग्गहेसु सजदि त्ति सत्ता, णिच्छयदो असत्ता । अं. प. २, ८६-८७. ९ णाणाजोणिसु जायइ ति जंतू , णिच्छएण अजंतू । अं. २, ८६-८७. १० मायारसत्थि ति मायी, णिच्छयदो अमायी । अं. प. २, ८६-८७. ११ माणो अहंकारो अस्सस्थि त्ति माणी, णिच्छयदो अमाणी। अं. प. २, ८६-८७. १२ जोगो मण-वयण-कायलक्खणो अस्सत्थि त्ति जोगी, णिच्छयदो अजोगी । अं. प. २, ८६-८७. १३ जहण्णेण संकुइदपदेसो संकुडो। अं. प. २, ८६-८७. १४ समुग्धादे लोय वाप्पड ति असंकुडो । अं. प. २, ८६-८७. १५ खेत्तं लोयालोयं सस्सरूवं च जाणदि त्ति खेत्तण्हू । अं. प. २, ८६-८५. Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ ] इक्खागमे वैयणाखंड [ ४, १,४५. प्रदेशज्ञः' जीव इत्ययमस्यार्थः, क्षेत्रज्ञशब्दस्य कुशलशब्दवत् जहत्स्वार्थवृत्तित्वात् । अन्तश्वासौ आत्मा च अन्तरात्मा' इति । “बन्धोदयोपशमनिर्जरापर्यीयाः अनुभवप्रदेशाधिकरणानि स्थितिश्च जघन्य-मध्यमोत्कृष्टा यत्र निर्दिश्यन्त तत्कर्म्मप्रवादम् ; अथवा ईर्यापथकर्मादिसप्तकर्माणि यत्र निर्दिश्यन्ते तत्कर्मप्रवादम् । तत्र पदप्रमाणमशीतिशत सहस्राधिका एका कोटी १८०००००० । व्रत नियमप्रतिक्रमण-प्रतिलेखन-तपः कल्पोपसर्गाचार प्रतिमाविराधनाराधनविशुद्धयुपक्रमाः श्रामण्यकारणं च परिमितापरिमितद्रव्य- भावप्रत्याख्यानं च यत्राख्यातं तत्प्रत्याख्याननामधेयम् । तत्र चतुरशीतिशतसहस्रपदानि ८४००००० । समस्तविद्या अष्टौ महानिमित्तानि तद्विषयों रज्जुराशिविधिः क्षेत्र कहा जाता है । अथवा जीव प्रदेशश है, यह इसका अर्थ है, क्योंकि, क्षेत्रज्ञ शब्द कुशल शब्दके समान जहत्स्वार्थवृत्ति लक्षणा रूप है । अभ्यन्तर होने से वह अन्तरात्मा कहा जाता है । जिसमें बन्ध, उदय, उपशम और निर्जरा रूप पर्यायोंका, अनुभाग, प्रदेश व अधिकरण तथा जघन्य, मध्यम एवं उत्कृष्ट स्थितिका निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवाद है; अथवा जिसमें ईर्याीपथकर्म आदि सात कर्मोंका निर्देश किया जाता है वह कर्मप्रवादपूर्व कहलाता है । उसमें पदोंका प्रमाण एक करोड़ अस्सी लाख है १८०००००० | जिसमें व्रत, नियम, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन, तप, कल्प, उपसर्ग, आचार, प्रतिमाविराधन, आराधन और विशुद्धिका उपक्रम, श्रमणताका कारण तथा द्रव्य और भावकी अपेक्षा परिमित व अपरिमित काल रूप प्रत्याख्यान का कथन हो प्रत्याख्यान नामक पूर्व है । उसमें चौरासी लाख पद हैं ८४००००० 1 जिसमें समस्त विद्याओं, आठ महानिमित्तों, उनके विषय, राजुराशिविधि, १ प्रतिषु ' प्रदेश: ' इति पाठः । २ अट्टकम्मान्मंतरवत्तीसभावादो चेदणान्मंतरवत्तीसभावादो च अंतरप्पा । अं. प. २, ८६-८७. ३. खं. पु. १. पू. १२१. त. रा. १,२०, १२. कम्मपवादो समोदाणिरियावह किरिया तवाहाकम्माणं वण्णणं कुणइ । जयध. १, पृ. १४२. अं. प. २-८८. ४ प्रतिषु ' प्रतिलेखनलपन्कल्पोप, मप्रतौ ' पतिलेखनलयन्मल्पोप-' इति पाठः । ५ ष. खं. पु. १, पृ. १२१. त. रा. १,२०, १२. पच्चक्खाणपवादो णाम दुवणा दन्त्र-खेत-काळभावभेदमिणं परिमियमपरमियं च पच्चक्खाणं वण्णीद जयध. १, पु. १४३. अं. प. २, ९५-१००. ६ प्रतिषु ' तद्वियो ' इति पाठः । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं । २२१ क्षेत्रं श्रेणि लोकप्रतिष्ठा संस्थानं समुद्घातश्च यत्र कथ्यते तद्विद्यानुप्रवादम् । तत्रागुष्ठप्रसेनादीनां अल्पविद्यानां सप्तशतानि, महाविद्यानां रोहिण्यादीनां पंचशतानि । अन्तरिक्ष-भौमाङ्ग-स्वरस्वप्न-लक्षण-व्यञ्जन-चिह्नान्यष्टौ महानिमित्तानि । तेषां विषयो लोकः । क्षेत्रमाकाशम् । पटसूत्रवच्चीवयववद्वानुपूविणो/धस्तिर्यग्व्यवस्थिताः आकाशप्रदेशपंक्तयः श्रेणयः। अन्यत्सुगमम् । अत्र पदानि दशशतसहस्राधिका एका कोटी ११००००००। रवि-शशि-ग्रहनक्षत्र-तारागणानां चासेपपाद-गतिविपर्ययफलानि शकुनव्याहृतिमहद्-बलदेव-वासुदेव-चक्रधरादीनां गर्भावतरणादिमहाकल्याणानि च यत्रोक्तानि तत्कल्याणनामधेयम् । तत्र पदप्रमाणं षड्विंशतिकोट्यः २६०००.०० कायचिकित्साद्यष्टांगः आयुर्वेदः भूतिकर्म जाङ्गुलिप्रक्रमः क्षेत्र, श्रेणि, लोकप्रतिष्ठा, संस्थान और समुद्घातका वर्णन किया जाता है वह विधानुप्रवाद पूर्व कहलाता है। उनमें अंगुष्ठप्रसेनादिक अल्पविद्यायें सात सौ और रोहिणी आदि महाविद्यायें पांच सौ हैं । अंतरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यञ्जन और चित, ये आठ महानिमित्त हैं। उनका विषय लोक है। क्षेत्रका अर्थ आकाश है। वस्त्रतन्तुके समान अथवा चर्मके अवयवके समान अनुक्रमसे ऊपर, नीचे और तिरछे रूपसे व्यवस्थित आकाशप्रदेशोंकी पंक्तियां श्रेणियां कहलाती हैं। शेष सुगम है। इसमें एक करोड़ दश लाख पद हैं ११००००००। सूर्य, चन्द्र,ग्रह, नक्षत्र और तारागोका संचार, उत्पत्ति व विपरीत गतिका फल, शकुनव्याहृति अर्थात् शुभाशुभ शकुनोंका फल, अरहन्त, बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती आदिकोंके गर्भमें आने आदिके महाकल्याणकोंकी जिसमें प्रस की गई हो वह कल्याणवाद नामक पूर्व है। उसमें पदोंका प्रमाण छब्बीस करोड़ है २६०००००००। जिसमें शरीरचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, भूतिकर्म अर्थात् भस्मलेपनादि, .............................. ......... १ ष. खं. पु. १, पृ. १२१. त. रा. १, २०, १२. विज्जाणुपवादो अंगुठ्ठपसेणादिसमसयमंते रोहिणिआदिपचसयमहाविज्जाओ च तासि साहणविहाणं सिद्धाणं फलं च वण्णेदि । जयध. १, पृ. १४४. २ त. रा. १, २०, १२. तत्र ‘चिहान्यष्टौ ' इत्येतस्य स्थाने ' छिन्नानि अष्टौ', 'वद्वानुपूर्विणो.' स्थाने ' वद्वानुपूर्वेणो- इति पाठभेदः। -व्यवस्थिताः ' अतोऽग्रे तत्र ' असंख्याताः ' पदमधिकं चोपलभ्यते । ३ प्रतिषु 'धर्मावयव- ' इति पाठः । ४ ष. खं. पु. १. पृ १२१. त. रा. १,२०, १२. कल्लाणपवादो गह-णवत्त-चंद-सूरचारविसेस अहगमहाणिमित्तं तित्थयर-चक्का -बल-णारायणादीणं कल्लाणाणि च वण्णेदि। जयध. १, पृ. १४५. अं. प. २, १०४-१०६. ५ ' शल्यं शालाक्यं कायचिकित्सा भूतविद्या कौमारभृत्यमगदतंत्र रसायनतंत्र वाजीकरणतंत्रमिति' शुश्रुत पृ. १. Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२२४ ] छक्खंडागमे यणाखंड प्राणापान विभागो यत्र विस्तरेण वर्णितस्तत्प्राणावायम् । अत्रोपयोगी गाहा— उस्सासाउअपाणा इंदियपाणा परक्कमो पाणो । एदेसिं पाणा बड्ढी-हाणीओ वण्णेदि ॥ ८३ ॥ अत्र पदानां त्रयोदशकोट्यः १३००००००० । (लेखादिकाः कलाः द्वासप्ततिः गुणाश्चतुःषष्टिः स्त्रैणाः शिल्पानि काव्यगुण-दोषक्रिया - छन्दोविचितिक्रिया-फलेोपभोक्तारश्च यत्र ख्यातास्तत्क्रियाविशालम् । अत्र पदानां नव कोट्यो भवन्ति ९००००००० । यत्राष्टौ व्यवहाराश्चत्वारि बीजानि क्रियाविभागश्चोपदिष्टः तल्लो कबिन्दुसारम् । तत्र पंचाशच्छतसहस्राधिकद्वादशकोट्य: पदानां १२५०००००० । [ ४, १,४५. जांगुलिप्रक्रम अर्थात् विषचिकित्सा और प्राण व अपान वायुओंका विभाग, इनका विस्तार से वर्णन किया गया हो वह प्राणावाय पूर्व है । यहां उपयोगी गाथा - प्राणावाय पूर्व उच्छ्वास, आयुप्राण, इन्द्रिय प्राण और पराक्रम अर्थात् बलप्राण, इन प्राणोंकी वृद्धि एवं हानिका वर्णन करता है ॥ ८३ ॥ इसमें तेरह करोड़ पद हैं १३००००००० | जिसमें लेखन आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्रीसम्बन्धी चौंसठ गुणोंका, शिल्पोंका, काव्य सम्बन्धी गुण-दोषक्रियाका, छन्दरचनेकी किया और उसके फलके उपभोक्ताओंका वर्णन किया गया हो वह क्रियाविशाल पूर्व कहलाता है । इसमें नौ करोड़ पद हैं ९००००००० । जिसमें आठ प्रकारके व्यवहारों, चार बीजों और क्रियाविभागका उपदेश किया गया हो वह लोकबिन्दुसार है । उसमें बारह करोड़ पचास लाख पद हैं १२५०००००० । १ . खं. पु. १, पृ. १२२.. त. रा. १ २०, १२. पाणावायपवादो दसत्रिहपाणाणं हाणि वड्ढीओ बगेदि । x x x काजि आउव्यस्त अगागि ? वुच्चदे – शालाक्यं कायचिकित्सा भूततंत्र रसायनतंत्रं बालरक्षा बीजवर्द्धनमिति आयुर्वेदस्य अष्टाङ्गानि । जयव. १, पृ. १४६. अं. प. २, १०७-११०. २. खं. पु. १, पृ. १२२. त. रा. १, २०, १२. तत्र ' त्रिचितिक्रियाफलोप ' इत्येतस्य स्थाने • विचितिक्रिया क्रियाफलोप इति पाठभेदः । किरियाविसालो पट्ट-गेय-लक्खण- छंदालंकार-संद थी- पुरुसलभ्ख गाणं वगगं कुगइ । जयध. १. पृ. १४८. अं. प. २, ११०-११३. ३ प्रतिषु ' अत्राष्टौ ' इति पाठः । ४ ष. खं. पु. १, पृ. १२२. यत्राष्टौ व्यवहाराश्रत्वारि बीजानि परिकर्मराशिक्रियाविभागश्च सर्वश्रुतसंपदुपदिष्टा तत्खलु लोकविन्दुसारम् । त. रा. १, २०, १२. लोकबिंदुसारो परियम्म-ववहार-रज्जुरासि - कलासवण्ण-जावंara-are-aण-बीजगगिय- मोक्खाणं सरूवं वण्गेदि । जयध. १, पृ. १४८. अं. प. २, ११४-११६. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं [ २२५ अत्र अग्रायणेन अधिकारः, तत्र महाकर्मप्रकृतिप्राभृतस्यावस्थानात् । एत्थ अग्गेणियस पुव्वस्स चदुहि पयारेहि अवयारो होदि । तं जहा- णाम - ट्ठवणा- दव्व-भावभेएण चव्विमग्गेणियं । तत्थ आदिल्ला तिणि विणिक्खेवा दव्वङियणयणिबंधणा, धउविएण विणा तेसिं सरूवोवलंभाभावादो | भावणिक्खेवो पज्जवट्ठियणयणिबंधणो, वट्टमाणपज्जाएण पडिगददव्वस्स भावत्तब्भुवगमादा । णिक्खेवट्ठो वुच्चदे - अग्गेणियसदे। बज्झत्थं मोत्तूण अप्पाणम्हि वट्टमाणो णामग्गेणियं । सो एसो त्ति बुद्धीए' अग्गेणिएण पत्तेयत्तट्ठो ववणाअग्गेणियं । दव्वग्गेणियमागम - णोआगमभेएण दुविहं । तत्थ अग्गेणियपुव्वहरो अणुवजुत्ता आगमदव्वग्गेणियं । णोआगमदव्वग्गेणियं जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तग्गेणियभेएण तिविहं । तत्थ जाणुगसरीर-भवियणोआगम दव्वग्गेणियदुगं सुगमं, बहुसो उत्तत्थादो | तव्वदित्ति - णोआगमदव्वग्गेणियमग्गेणियसद्दागमो तक्कारणदव्वाणि वा । भावग्गेणियं दुविहं आगमणोआगमभेएण' । तत्थ अग्गेणियपुव्वहरो उवजुत्तो आगमभावग्गेणियं । अग्गेणियपुव्वत्थविसओ केवलोहि-मणपज्जवणाणावयोगो णोआगमभावग्गेणियं । एत्थ दव्वट्ठियणयं पच्च यहां अग्रायणपूर्वका अधिकार है, क्योंकि, उसमें महाकर्मप्रकृतिप्राभृतका अवस्थान है। यहां अग्रायणीयपूर्वका चार प्रकारसे अवतार होता है । वह इस प्रकार है- नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेद से अग्रायणीयपूर्व चार प्रकार है। इनमें आदिके तीन निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके निमित्त से हैं, क्योंकि, धौव्य के विना उनका स्वरूप नहीं पाया जाता । भाषनिक्षेप पर्यायार्थिकनयके निमित्तले होनेवाला है, क्योंकि, वर्तमान पर्यायले युक्त द्रव्यको भाव माना गया है । निक्षेपका अर्थ कहते हैं— बाह्यार्थको छोड़कर अपने आपमें रहनेवाला अग्रायणीय शब्द नामअग्रायणीय है । ' वह यह है ' इस बुद्धिसे अग्रायणीयके साथ एकताको प्राप्त पदार्थ स्थापनाअग्रायणीय है । द्रव्यअग्रायणीय आगम और नोआगमके भेद से दो प्रकार है। उनमें अग्रायणीयपूर्वधारक उपयोग से रहित जीव आगमद्रव्य अग्रायणीय है । नोआगमद्रव्य अग्रायणीय ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त अग्रायणीयके भेद से तीन प्रकार है । उनमें ज्ञायकशरीर और भावी नोआगमद्रव्य अग्रायणीय ये दो सुगम हैं, क्योंकि, बहुत बार उनका अर्थ कहा जा चुका है । अप्रायणीय रूप शब्दागम अथवा उसके कारणभूत द्रव्य तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य अग्रायणीय है । भावअग्रायणीय आगम और नोआगम भावअग्रायणीयके भेद से दो प्रकार है । उनमें अग्रायणीपूर्वका धारक उपयोग युक्त जीव आगमभावअग्रायणीय कहलाता है । अग्रायणीय पूर्वके अर्थको विषय करनेवाला केवलज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान रूप उपयोग नोआगमभाव अग्रायणीय है । यहां द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा करके तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्य अग्रायणीय और अक्षर 1 १ प्रतिषु ' बुद्धी ' इति पाठः । ख. क २९. - ३ अ-काप्रत्योः ' भावेण ' इति पाठः । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे यणाखंड [ ४, १,४५. तव्वदिरित्तणोआगमदब्बग्गेणिए अक्खरट्ठवणग्गेणिए च पयदं । पज्जवट्ठियणय पडुच्च आगमभागेण पयदं । णइगमणयं पडुच्च अग्गेणियपुव्वहर- तिकोडिपरिणयजीवदव्वेण पदं । एवं क्खेिव - एहि अवयारो पविदो | पमाण- पमेयाणं दोन्हं पि एत्थ गहणं कायव्वं, अण्णोण्णाविणाभावादो । २२६ ] पुव्वाणुपुवीए बिदियमग्गेणियं । पच्छाणुपुव्वीए तेरसमं । जत्थ तत्थाणुपुवीए अव - तव्वं, पढमं बिदियं तदियं चउत्थं पंचमं छटुं सत्तममट्ठमं णवमं दसममेक्कारसमं बारसमं वा त्ति नियमाभावादो । अंगानामग्रमेति गच्छति प्रतिपादयतीति गोण्णणाममग्गेणियं । अक्खरपद - संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि संखेज्जमणंत वा अत्थाणंतियादो' । वत्सव्वं ससम्ओ, परसमयपरूवणाभावादो | अत्थाहियारो चोद्दसविहो । तं जहा - पुते अवरंते धुवे अद्भुवे चयणलद्धी अद्धवसंपणिधाणे कप्पे अट्ठे भोम्मावयादीए सव्व कप्पणिज्जाणे तीदाणगय स्थापना रूप अग्रायणीय प्रकृत है । पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा करके आगमभाव अप्रायणीय प्रकृत है । नैगमनयकी अपेक्षा करके अग्रायणीयपूर्वका धारक त्रिकोटिपरिणत ( उत्पाद, व्यय व धौव्य; अथवा द्रव्य, गुण व पर्यायः अथवा सत्, असत् व उभय स्वरूप ) जीव द्रव्य प्रकृत है । इस प्रकार निक्षेप और नयसे अवतारकी प्ररूपणा की है। प्रमाण और प्रमेय दोनोंका ही यहां ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, वे परस्पर में भविनाभावी हैं । पूर्वानुपूर्वी से अग्रायणीयपूर्व द्वितीय है । पश्चादानुपूर्वीसे वह तेरहवां है । यत्रतत्रानुपूर्वीसे वह अवक्तव्य है, क्योंकि, प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम, आठवां, नौवां, दशवां, ग्यारहवां, अथवा बारहवां है, इस प्रकार उक्त आनुपूर्वीकी अपेक्षा कोई नियम नहीं है । अंगके अग्र अर्थात् प्रधान पदार्थको वह प्राप्त होता है अर्थात् प्रतिपादन करता है अतः अप्रायणीय यह गौण्य नाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा संख्यात है, अथवा अर्थोंकी अनन्तताकी अपेक्षा वह अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय है, क्योंकि, परसमयकी प्ररूपणाका यहां अभाव है । अर्थाधिकार चौदह प्रकार है । वह इस प्रकारसे है- पूर्वान्त, अपरान्त, ध्रुव, अध्रुव, चयनलब्धि, अध्रुवसंप्रणिधान, कल्प, अर्थ, भौमायाद्य, सर्वार्थ, कल्पनिर्याण, (सर्वार्थकल्प, निर्वाण,) अतीतकाल और अनागत १ प्रतिषु ' अत्थाणंतियालो ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' भोम्भावयाधीए ' इति पाठः । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदिअणियोगदारे सुत्तावरण [ २२७ काले सिज्झए बुज्झए' त्ति । चोद्दसहं पुव्वाणमहियारपमाणपरूवणागाहाओ । तं जहा → दस चोद्दस अट्ठट्ठारस बारस य दोसु पुत्रेसु । सोलस वीस तीस दसमम्मिय पण्णरस वत्थू ॥ ८४ ॥ देसि पुत्राणं एवदिओ वत्थुसंगहो भणिदो । साणं पुव्वाणं दस दस वत्थू पणिवयामि ॥ ८५ एदेसिमंकविण्णासो जहाकभेण - १० | १० | १४ | ८ | १८ | १२ | १२ | १६ | २० | २० | १५ | १० | १० १० १० एत्थ चयणलद्धीए अहियारो, संगहिदमहाकम्मपयडिपाहुडत्तादो । संपधि चयणलद्धीए काल, सिद्ध और बुद्ध । चौदह पूर्वोके अधिकारोंके प्रमाणको बतलानेवाली गाथायें इस प्रकार हैं ८५) दश, चौदह, आठ, अठारह, दो पूर्वौमें बारह, सोलह, बीस, तीस और दशवेमें पन्द्रह, इस प्रकार क्रमसे आदिके इन दश पूर्वौकी इतनी मात्र वस्तुओंका संग्रह कहा गया है । शेष चार पूर्वोके दश दश वस्तु हैं । इनको मैं नमस्कार करता हूं ॥८४-८५॥ यथाक्रमसे इनके अंकोंकी रचना १४ ८ १८ .१२ १२ १६ २० ३० १५ १० १० १० यहां चयनलग्धिका अधिकार है, क्योंकि, उसमें संगृहीत है । १० १ ष. खं. पु. १, पृ. १२३. अप्रायणीयपूर्वस्य यान्युक्तानि चतुर्दश । विज्ञातव्यानि वस्तूनि तानीमानि यथाक्रमम् ॥ पूर्वान्तमपरान्तं च ध्रुवमधुवमेव च । तथा च्यवनलब्धिश्च पंचमं वस्तु वर्णितम् ॥ अध्रुवं संप्रणध्यन्तं कल्पाश्रार्थ नामतः । भौमावयाचमित्यन्यत् तथा सर्वार्थकल्पकम् ॥ निर्वाणं च तथा ज्ञेयाऽतीतानागतकल्पता । सिद्धषाख्यं चाप्युपाध्याख्यं ख्यापितं वस्तु चान्तिमम् ॥ ह. पु. १०, ७७-८०. पुव्वंतं अवरंतं धुवाधुवच्चवणलद्धिणामाणि । अधुवसंपणही च अत्थं भोमावयज्जं च ॥ सव्वत्थकप्पणीयं णाणमदीद अणागदं कालं । सिद्धिमुवज्जं बंदे दहवत्थूणि विदियरस ॥ अं. प. २, ४२-४३. महाकर्मप्रकृतिप्राभृत २ प्रतिपूर्व च वस्तूनि ज्ञातव्यानि यथाक्रमम् ॥ दश चतुर्दशाष्टौ चाष्टादश द्वादश द्वयोः । दशषड् विंशतिस्त्रिंशत् तत्तत् पंचदशैव तु || दशैवोत्तरपूर्वाणां चतुर्णा वर्णितानि वै । ह. पु. १०, ७२ - ७४. दस चोदसह अट्ठारसयं नारं पवार सोलं च । वीसं तीसं पण्णारसं च दस चसु वत्थूणं ॥ गो. जी. ३४४. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ४५. चउब्धिहो अवयारो होदि । तं जहा- चयणलद्धी चउबिहो णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावचयणलद्धिभेएण । तत्थ चयणलद्धिसद्दो बज्झत्थं मोत्तूण अप्पाणम्हि वट्टमाणो णामचयणलद्धी होदि। सा एसा ति चयणलद्धीए एयत्तेण संकप्पियत्थो ट्ठवणाचयणलद्धी। दवचयणलद्धी दुविहो आगम-णोआगमचयणलद्धिभेएंण । तत्थ चयणलद्धिवत्थुपारओ अणुवजुत्तो आगमदव्वचयणलद्धी। [णोआगमदव्वचयणलद्धी ] तिविहा जाणुगसरीर-भविय-तव्वदिरित्तदव्वचयणलद्धिभेएण । जाणुगसरीर-भवियणोआगमदव्वचयणलद्धिदुगं सुगम, बहुसो उत्तत्थत्तादो। तव्वदिरित्तणोआगमदव्वचयणलद्धी चयणलद्धीए सदरयणा । भावचयणलद्धी आगम-णोआगमभावचयणलद्धिभेएण दुविहा । तत्थ चयणलद्धिवत्थुपारओ उवजुत्तो आगमभावचयणलद्धी । आगमेण विणा अत्थोवजुत्तो णोआगमभावचयणलद्धी । एदेसु णिक्खेवेसु दव्वट्ठियणयं पडुच्च णोआगमतव्वदिरित्तदव्यचयणलद्धीए अधियारो । पज्जवट्ठियणयं पडुच्च आगमभावचयणलद्धीए अहियारो । णइगमणयं पडुच्च चयणलद्धिवत्थुपारएण तिकोडिपरिणामेण जीवदव्वेण अहियारो । एवं णिक्खेव-णएहि चयणलद्धीए अवयारो परूविदो । पमाण-पमेयाणि अणुगमो चयणलद्धीए, कम्म-करणेसु अणुगमसद्दणिप्पत्तीदो । चयनलब्धिका चार प्रकार अवतार है। वह इस प्रकार है- चयनलब्धि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव चयनलब्धिके भेइसे चार है। उनमें बाह्य अर्थको छोड़कर अपने आपमें रहनेवाला चयनलब्धि शब्द नामचयनलब्धि है। 'वह यह है' इस प्रकार चयनलब्धिके साथ अभेद रूपसे संकल्पित अर्थ स्थापनाचयनलब्धि है। द्रव्यचयनलब्धि आगमचयनलब्धि और नोआगमचयनलब्धिके भेदसे दो प्रकार है । उनमें चयनलब्धि वस्तुका पारगामी उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यचयनलब्धि कहलाता है। निोआगमद्रव्यचयनलब्धि] ज्ञायकशरीर,भावी और तव्यतिरिक्त द्रव्यचयनलब्धिके भेदसे तीन प्रकार है। ज्ञायकशरीर जौर भाषी नोआगमद्रव्यचयनलब्धि ये दो सुगम है, क्योंकि, उनका अर्थ बहुत बार कहा जा चुका है । तद्व्यतिरिक्तनोआगमद्रव्यचयनलब्धि चयनलब्धिकी शब्दरचना है । भावचयनलब्धि आगम और नाआगम भावचयनलब्धिके भेदसे दो प्रकार है। उनमें चयनलब्धि वस्तुका पारगामी उपयोग युक्त जीव आगमभावचयनलब्धि है । आगमके विना अर्थमें उपयोग रखनेवाला जीव नोआगमभावचयनलब्धि है। इन निक्षेपोंमें द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा करके नोआगमतव्यतिरिक्तद्रव्यचयनलब्धिका अधिकार है । पर्यायर्थिक नयकी अपेक्षा करके आगमभावचयनलब्धिका अधि: कार है। नैगमनयकी अपेक्षाकर चयनलब्धि वस्तुके पारगामी त्रिकोटिपरिणाम रूप जीव द्रव्यका अधिकार है । इस प्रकार निक्षेप और नयसे चयनलब्धिके अवतारकी प्ररूपणा की है। चयनलब्धिका अनुगम प्रमाण और प्रमेय है, क्योंकि, कर्म और करण कारकमें Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,४५. ] कदि अणियोगद्दारे सुतावरण [ २२९ पुव्वाणुपुवीए चयणलद्धी पंचमी । पच्छाणुपुवीए दसमं । जत्थ- तत्थाणुपुवीए अवत्तव्वा, पढमा बिदिया तदिया चउत्थी पंचमी छट्ठी वा त्ति नियमाभावादो । चयणलद्धि त्ति गुणणामं, चयणलद्धिपरूवणादो । अक्खर - पद-संघाद - पडिवत्ति - अणियोगद्दारेहि संखेज्ज - [ मत्थदो अणतं, पमेयाण- ] माणंतियादो । वत्तव्वं ससमओ, परसमयपरूवणाभावादो | अत्थाधियारो वीसदिविधो, सव्ववत्थुसु पाहुडसण्णिदवीस-वीसाहियारसंभवादो । एत्थुवउज्जती गाहासं वीसं च पाहुडा मणिदा' | "विसम-समा हि यत्थू सव्वे पुण पाहुडेहि समा ॥ ८६ ॥ ) पुव्वाणं पुध पुध पाहुडसमासो एसो - २००, २८०, १६०, ३६०, २४०, २४०, ३२०, ४००, ६००, ३००, २००, २००, २००, २०० । सव्ववत्समासो पंचाणउदिसदमेत्तो | १९५ ] । सव्वपाहुडसमास तिसहस्स-णवसदमेत्तो' | ३९०० | ( एत्थ वीसपाहुडेसु चउत्थेण कम्मपथडिपाहुडेण अहियारो । तस्स वि उवक्कमो --- अनुगम शब्द सिद्ध हुआ है । पूर्वानुपूर्वीसे चयनलब्धि पांचवीं है । पश्चादानुपूर्वी से वह दसमी है । यत्र-तत्रानुपूर्वीसे वह अवक्तव्य है, क्योंकि प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, पांचवीं अथवा छठी है, ऐसे नियमका यहां अभाव है । चयनलब्धि यह गुणनाम है, क्योंकि, इसमें चयनलब्धिकी प्ररूपणा है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा संख्यात और अर्थकी अपेक्षा वह अनन्त है, क्योंकि, उसके प्रमेय अनन्त हैं । वक्तव्य स्वसमय है, क्योंकि, परसमयप्ररूपणाका यहां अभाव है । अर्थाधिकार बीस प्रकार है, क्योंकि, सब वस्तुओंमें प्राभृत संज्ञावाले बीस बीस अधिकार सम्भव हैं। यहां उपयुक्त गाथा - एक एक वस्तुमें बीस बीस प्राभृत कहे गये हैं । पूर्वौमें वस्तुएं सम व विसम हैं, किन्तु वे सब वस्तुएं प्राभृतोंकी अपेक्षा सम हैं ॥ ८६ ॥ पूर्वोके पृथक् पृथक् प्राभृतोंका योग यह है - २००, २८०, १६०, ३६०, २४०, २४०, ३२०, ४००, ६००, ३००, २००, २००, २००, २०० । सब वस्तुओंका योग एक सौ पंचानबे मात्र होता है १९५ । सब प्राभृतोंका योग तीन हजार नौ सौ मात्र होता है ३९०० । यहां चयनलब्धिके बीस प्राभृतोंमेंसे चतुर्थ कर्मप्रकृतिप्राभृतका अधिकार है । १ प्रत्येकं विंशतिस्तेषां वस्तूनां प्राभृतानि तु ॥ ह. पु. १०, ७४. वीस वीसं पाहुडअहियारे एक्काअहियारो । गो. जी. ३४२. २ पण उदिया वत्थू पाहुडया तियसहस्सणवसया । एवेस चोदसेस वि पुम्बेसु हवंति मिलियाणि ॥ गो. जी. ३४६. ३ प्रतिषु ' चउत्थेस ' इति पाठः । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १,४५. णिक्खेवो अणुगमो णओ त्ति चउव्विह। अवयारो । तत्थ ताव णिक्खेवा वुच्चदे - णामट्ठवणा- दव्व-भावकम्मपय डिपाहुडमिदि चउव्विहं कम्मपयडिपाहुडं । तत्थ आदिल्ला तिण्णि विणिक्खेवा दव्वट्ठियणयसंभवा, भावणिक्खेवो पज्जवट्ठियणयप्पहवो । कम्मपयडिपाहुडसहो बज्झत्थणिरवेक्खो अप्पाणम्हि वट्टमाणो णामकम्मपयडिपाहुडं । तमेसो त्ति बुद्धीए कम्मपयडिपाहुडेण एगत्तमुवगयत्थो ह्वणाकम्मपयडिपाहुडं । दव्वकम्मपयडिपाहुडमागम - णोआगमकम्मपयडिपाहुडं इदि दुविहं । कम्मपयडिपाहुडजाणओ अणुवजुत्तो आगमदव्वकम्मपयडिपाहुडं । णोआगमदव्वकम्मपयडिपाहुडं जाणुगसरीर-भविय तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकम्मपयडिपाहुडं ति तिविहं । आदिल्लं दुगं सुगमं, बहुसो उत्तत्थादो । कम्मपयडिपाहुडसद्दरयणा तट्ठवणरयणा वा णो आगमतव्वदिरित्तदव्वकम्मपयडिपाहुडं । [ भावकम्मपयडिपाहुडं ] दुविहं आगम-णोआगमभेण । कम्मपयडिपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावकम्मपयडिपाहुडं | आगमेण विणा तदद्भुवजुत्तो णोआगमभावकम्मपयडिपाहुडमुवारादो । एत्थ दव्वट्ठियणयं पडुच्च तव्वदिरित्तणोआगमदव्वकम्मपयडिपाहुडेण अहियारो । पज्जवट्ठियणयं पडुच्च आगमभावकम्मपयडिपाहुडेण अहियारो । इगमणयं पडुच्च कम्मपयडिपाहुडजाणओ तिकोडिपरिणामजुत्तो जीवो उसका भी उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय, इस प्रकारसे चार प्रकारका अवतार है । उनमें निक्षेपको कहते हैं - कर्मप्रकृतिप्राभृतके नामकर्मप्रकृतिप्राभृत, स्थापनाकर्मप्रकृतिप्राभृत, द्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृत और भावकर्मप्रकृतिप्राभृत इस प्रकार चार भेद हैं। इनमें आदिके तीनों ही निक्षेप द्रव्यार्थिकनयके निमित्तसे होनेवाले हैं, किन्तु भावनिक्षेप पर्याया किनके निमित्तसे होनेवाला है । बाह्य अर्थकी अपेक्षा न रखकर अपने आपमें रहनेवाला कर्मप्रकृतिप्राभृत यह शब्द नामकर्मप्रकृतिप्राभृत है । 'वह यह है' इस प्रकारकी बुद्धिसे कर्मप्रकृतिप्राभृतके साथ एकताको प्राप्त पदार्थ स्थापनाकर्मप्रकृतिप्राभृत कहा जाता है । द्रव्यकर्मप्रतिप्राभृत आगमकर्मप्रकृतिप्राभृत और नोआगमकर्मप्रकृतिप्राभृतके भेद से दो प्रकार है । कर्मप्रकृतिप्राभृतका जानकार उपयोग रहित जीव आगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृत कहलाता है । नोआगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृत ज्ञायकशरीर, भावी और तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृतके भेदसे तीन प्रकार है । इनमेंसे आदिके दो सुगम हैं, क्योंकि, उनका अर्थ बहुत वार कहा जा चुका है । कर्मप्रकृतिप्राभृतकी शब्दरचना अथवा उसकी स्थापना रूप रचना नोआगमतद्व्यतिरिक्त द्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृत है। [ भावकर्मप्रकृतिप्राभृत ] आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकार है । कर्मप्रकृतिप्राभृतका जानकार उपयोग युक्त जीव आगमभावकर्मप्रकृतिप्राभृत कहलाता है । आगमके विना उसके अर्थ में • उपयोग युक्त जीव उपचारसे नोआगमभावकर्मप्रकृति कहलाता है । यहां द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा करके तद्व्यतिरिक्तनो आगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्राभृतका अधिकार है । पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा करके आगमभावकर्मप्रकृतिप्राभृतका afधकार है । नैगमनयकी अपेक्षा कर्मप्रकृतिप्राभूतका जानकार त्रिकोटिपरिणाम युक्त Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३१ ., १, १५.] कदिवणियोगदारे सुत्तावरणं अहियविदो होदि । एवं कम्मपयडिपाहुडस्स णिक्खेव-णएहि अवयारो कदो। पमाण-पमेयाणं दोण्णं पि एत्थाणुगमो, एक्काणुगमस्स इदराणुगमाविणाभावादो । पुवाणुपुन्वीए कम्मपयडिपाहुडं चउत्थं । पच्छाणुपुवीए सत्तारसमं । जत्थ-तत्थाणुपुबीए अवत्तव्यं । कम्मपयडिपरूवणादो कम्मपयडिपाहुडमिदि गुणणामं । अक्खर-पद-संघाद-पडिवत्ति-अणिओगद्दारेहि संखेज्जमणंतं वा, अत्थाणंतियादो । वत्तव्वं ससमओ, परसमयपरूवणाभावादो । अत्याधियारो चदुवीसदिविधा 'कदि वेदणाए पस्से कम्मे पयडीसु बंधणे णिबंधणे पक्कमे उवक्कमे उदए मोक्खे पुण संकमे लेस्सा लेस्साकम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दीहे-रहस्से भवधारणीए तत्थ पोग्गलअत्ता णिवत्तमणिधतं णिकाचिदमणिकाचिदं कम्महिदि-पच्छिमक्खंधे अप्पाबहुगं च सव्वत्थ ' इदि सुत्तणिबद्धो।। जीव अधिकृत है। इस प्रकार निक्षेप और नयसे कर्मप्रकृतिप्राभृतके अवतारकी प्ररूपणा प्रमाण और प्रमेय दोनोंका ही यहां अनुगम है, क्योंकि, एक अनुगमका दूसरे अनुगमके साथ अविनाभाव है। पूर्वानुपूर्वीसे कर्मप्रकृतिप्राभृत चतुर्थ है। पश्चादानुपूर्वीसे घह सत्तरहवां है । यत्र-तत्रानुपूर्वीसे अवक्तव्य है । कर्मप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेसे कर्मप्रकृतिप्राभृत यह गुणनाम है । अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति और अनुयोगद्वारोंकी अपेक्षा यह संख्यात अथवा अर्थकी अनन्तताकी अपेक्षा अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय है, क्योंकि, इसमें परसमयकी प्ररूपणाका अभाव है। कृति, वेदना, स्पर्श, कर्म, प्रकृति, बन्धन, निबन्धन, प्रक्रम, उपक्रम, उदय, मोक्ष, संक्रम, लेश्या, लेश्याकर्म, लेश्यापरिणाम, वहां ही सात-असात, दीर्घ-हस्व, भवधारणीय, पुद्गलात्म, निधत्त-अनिधत्त, निकाचित-अनिकाचित, कर्मस्थिति, पश्चिमस्कन्ध और सवंत्र अल्पबहत्व, इस प्रकार सत्रनिवद्ध अर्थाधिकार चौबीस प्रकार है। १वस्तुनः पंचमस्यात्र चतुर्थे प्राभृते पुनः । कर्मप्रकृति संझे तु योगद्वाराण्यभूनि तु॥ कृतिश्च वेदना स्पर्शः कर्माख्यं च पुनः परम् । प्रकृतिश्च तथैवान्यद् बन्धनं च निबन्धनम् ॥ प्रक्रमोपक्रमो प्रोक्तावुदयो मोक्ष एव च। संक्रमश्च तथा लेश्या लेश्याकर्म च वर्णितम् ॥ लेश्यायाः परिणामश्च सातासातं तथैव च। दीर्ध-हस्त्रमीप तथा भवधारणमेव च ।। पुद्गलात्माभिधानं च तन्निधत्तानिधत्तकम् । सनिकाचितमित्यन्यदनिकाचितसंयुतम् ।। कर्मस्थितिकमित्युक्तं पश्चिमं स्कन्ध एव च । समस्तविषयाधीना बोध्याल्पबहुता तथा ॥ ह. पु. १०, ८१-८६. पंचमवत्युचउत्थपाहुडयस्साणुयोगणामाणि। कियवयणे तहेव फसण-कम्मपयडिक तह । बंधण-णिबंधण-पाक्कमाथुक्कममहन्भुदय-मोक्खा । संकम लेस्सा च तहा लेस्साए कम्म-परिणामा || सादमसादं दिग्धं हस्सं भवं धारणीयसणं च । पुरुपोग्गलप्पणामं णिहत्त-अणि हत्तणामाणि ॥ सणिकाचिदमणिकाचिदमह कम्मद्विदि-पश्छिमक्खंधा। अप्पनहसंच वहा तदाराणं च चउवीसं ॥ अं.प. २, ४४-४७. Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ छक्खंडागमे वेयणाखंड [२, १, १५. एदेसिं चदुवीसण्णमणिओगद्दाराणं वत्तवपरूवणा कीरदे । तं जहा- कदीए ओरा. लिय-वेउव्विय-तेजाहार-कम्मइयसरीराणं संघादण-परिसादणकदीओ भवपढमापढम-चरिमम्मि. विदजीवाणं कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंखाओ च परूविज्जति । वेदणाए कम्म-पोग्गलाणं वेदणासण्णिदाणं वेदणणिक्खेवादिसोलसेहि अणिओगहारेहि परूवणा कीरदे । पासणि औगद्दारम्मि कम्म-पोग्गलाणं णाणावरणादिभेएण अट्ठभेदमुवगयाणं फासगुणसंबंधेण पत्तफासणामाण पासणिक्खेवादिसोलसेहि अणियोगदारेहि परूवणा कीरदे । कम्मे त्ति अणियोगद्दारे पोग्गलाणं णाणावरणादिकम्मकरणक्खमत्तणेण पत्तकम्मसण्णाणं कम्मणिक्खेवादि. सोलसेहि अणियोगद्दारेहि परूवणा कीरदे । पयडि त्ति अणियोगद्दारम्हि पोग्गलाणं कदिम्हि परूविदसंघादाणं वेदणाए पण्णविदावत्थाविसेस-पच्चयादीणं पासम्मि परूविदजीवसंबंधाणं जीवसंबंधगुणेण कम्मम्मि णिरूविदवावाराणं पयडिणिक्खेवादिसोलसअणियोगद्दारहि सहाव. इन चौबीस अनुयोगद्वारोंकी विषयप्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार हैकृतिअनुयोगद्वारमें औदारिक, वैक्रियिक, तैजस, आहारक और कार्मण शरीरोंकी संघातन और परिशातन रूप कृतिकी तथा भवके प्रथम, अप्रथम और चरम समयमें स्थित जीवोंकी कृति, नोकृति एवं अवक्तव्य रूप संख्याओंकी प्ररूपणा की जाती है। वेदना अनुयोगद्वारों में वेदना संशावाले कर्मपुद्गलोंकी वेदनानिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्ररूपणा की जाती है । स्पर्श अनुयोगद्वार में स्पर्श गुणके सम्बन्धसे स्पर्श नामको व शानावरणादिके भेदसे आठ भेदको भी प्राप्त हुए कर्मपुद्गलोंकी स्पर्शनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंसे प्ररूपणा की जाती है। कर्म अनुयोगद्वारमें कर्मनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंके द्वारा ज्ञानके आवरण आदि कार्योंके करने में समर्थ होनेसे कर्म संक्षाको प्राप्त पुद्गलोंकी प्ररूपणा की जाती है। प्रकृति अनुयोगद्वारमें-कृति अधिकारमें जिनके संघातन स्वरूपकी प्ररूपणा की गई है, वेदना अधिकारमें जिनके अवस्थाविशेष व प्रत्ययादिकोंकी प्ररूपणा की गई है, स्पर्श अधिकारमें जिनके जीवके साथ सम्बन्धकी प्ररूपणा की गई है, तथा जीवसम्बन्ध गुणसे कर्म अधिकारमें जिनके व्यापारकी प्ररूपणा की गई है- उन पुद्गलोंके स्वभावकी प्रकृतिनिक्षेप आदि सोलह अनुयोगद्वारोंसे प्ररूपणा की जाती है । १ प्रतिषु ' अणियोगद्दारहि इति पाठः। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३॥ १, १, ४५.] कदिअणियोगद्दारे सुत्तावयरणं परूवणा कीरदे । जं तं बंधणं तं चउव्विहो बंधो बंधगा बंधणिज्जं बंधविधाणमिदि । तत्थ बंधो जीव-कम्मपदेसाणं सादियमणादियं च बंध वण्णेदि । बंधगाहियारो अट्ठविहकम्मबंधगे परुवेदि । सो च खुद्दाबंधे परूविदो । बंधणिज्ज बंधपाओग्ग-तदपाओग्गपोग्गलदवं परूवेदि । बंधविहाणं पयडिबंधं विदिबंध अणुभागबंध पदेसबंधं च परूवेदि । णिबंधणं मूलुत्तरपयडीण णिबंधणं वण्णेदि । जहा चक्खिदियं रूवम्मि णिबद्धं, सोदिंदियं सद्दम्मि णिबद्धं, पाणिंदियं गंधम्मि णिबद्धं, जिभिदियं रसम्मि णिबद्धं, पासिंदियं कक्खदादिपासेसु णिबद्धं, तहा इमाओ पयडीओ एदेसु अत्थेसु णिबद्धाओ ति णिपंधणं परूवेदि, एसो भावत्थो । पक्कमे त्ति अणियोगद्दारं अकम्मसरूवेण द्विदाणं कम्मइयवग्गणाखंधाणं मूलुत्तरपयडिसरूवेण परिणममाणाणं पयडि-ट्ठिदि-अणुभागविसेसेण विसिट्ठाणं पदेसपरूवणं कुणदि । उवक्कमे त्ति अणियोगद्दारस्स चत्तारि अहियारा बंधणोवक्कमो उदीरणोवक्कमो उवसामणोवक्कमो विपरिणामोवक्कमो चेदि । तत्थ बंधोवक्कमो बंधविदियसमयप्पहुडि जो बन्धन अनुयोगद्वार है वह बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान इस तरह चार प्रकार है। उनमें बन्ध अधिकार जीव और कर्मकें प्रदेशोंके सादि व अनादि बन्धका वर्णन करता है। बन्धक अधिकार आठ प्रकारके कर्मोको बांधनेवाले जीवोंकी प्ररूपणा करता है । उसकी क्षुद्रकबन्धमें प्ररूपणा की जा चुकी है। बन्धनीय अधिकार बन्धके योग्य और उसके अयोग्य पुद्गल द्रव्यकी प्ररूपणा करता है। बन्धविधान प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धकी प्ररूपणा करता है । निबन्धन अनुयोगद्वार मूल और उत्तर प्रकृतियोंके निबन्धनका वर्णन करता है। जैसे चक्षु इन्द्रिय रूपमें निबद्ध है, श्रोत्र इन्द्रिय शब्दमें निबद्ध है, घ्राण इन्द्रिय गम्धमें निबद्ध है, जिह्वा इन्द्रिय रसमें निबद्ध है और स्पर्श इन्द्रिय कर्कषादि स्पों में निबद्ध है। उसी प्रकार ये प्रकृतियां इन अर्थोंमें निबद्ध हैं, इस प्रकार निबन्धनकी प्ररूपणा करता है; यह भावार्थ है। प्रक्रम अनुयोगद्वार अकर्म स्वरूपसे स्थित, मूल व उत्तर प्रकृतियोंके स्वरूपसे परिणमन करनेवाले, तथा प्रकृति, स्थिति व अनुभागके भेदसे विशेषताको प्राप्त हुए कार्मणवर्गणास्कन्धोंके प्रदेशोंकी प्ररूपणा करता है। __ उपक्रम अनुयोगद्वारके बन्धनोपक्रम, उदीरणोपक्रम, उपशामनोपक्रम और विपरिणामोपक्रम,ये चार अधिकार हैं। उनमें बन्धोपक्रम अधिकार बन्धके द्वितीय समयसे लेकर छ. क. ३.. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ४५. अण्णं कम्माणं पयडि-हिदि- अणुभाग-पदेसाणं बंधवण्णणं कुणदि । उदीरण वक्कमो पयडिदि-अणुभाग-पदेसाणमुदीरणं परुवेदि । उवसामणोवक्कमो पसत्थोवसामणमप्पसत्थोवसामणं' च पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग - पदेस भेदभिण्णं परुवेदि । विपरिणाममुवक्कमो पयडि-विदिअणुभाग-पदेसाणं देसणिज्जरं सयलणिज्जरं च परुवेदि । उदयाणिओगद्दारं पयडि-हिदि- अणुभाग-पदेसुदयं परुवेदि | मोक्खे त्ति अणिओगद्दारं पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसाणं मोक्खं वण्णेदि | मोक्ख विपरिणामोवक्कमाणं को भेदो ? वुच्चदे – विपरिणामोवक्कमो देस - सयलणिज्जराओ परुवेदि | मोक्खो पुण देस-सयलणिज्जराहि परपयडिसंकमोकड्डणुक्कड्डुण-अद्धट्ठिदिगलणेहि पयड-ट्ठिदि - अणुभाग-पदेसभिण्णं मोक्खं वदिति अस्थि भेदो । संकमे त्ति अणियोगद्दारं पयडि-ट्ठिदि - अणुभाग-पदेस संक परुवेदि । लेस्से त्ति अणियोगद्दारं छदव्वलेस्साओ परुवेदि । लेस्सयम्मे त्ति अणियोगद्दारमंतरंगळलेस्सापरिणयजीवाणं बज्झकज्जपरूवणं कुणइ । लेस्सापरिणामेत्ति अणियोगद्दारं जीव- पोग्गलाणं आठ कर्मों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धका वर्णन करता है । उदीरणोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी उदीरणाकी प्ररूपणा करता है । उपशामनोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशके भेदसे भेदको प्राप्त प्रशस्तोपशामना एयं अप्रशस्तोपशामनाकी प्ररूपणा करता है । विपरिणामोपक्रम अधिकार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी देशनिर्जरा और सकलनिर्जराकी प्ररूपणा करता है । उदयानुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके उदयकी प्ररूपणा करता है | मोक्षानुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के मोक्षका वर्णन करता है । I शंका - मोक्ष और विपरिणामोपक्रमके क्या भेद है ? समाधान - इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि विपरिणामोपक्रम अधिकार देशनिर्जरा और सकलनिर्जराकी प्ररूपणा करता है, परन्तु मोक्षानुयोगद्वार देशनिर्जरा व सकलनिर्जरा के साथ परप्रकृति संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण और कालस्थितिगलन से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्धके भेदसे भेदको प्राप्त मोक्षका वर्णन करता है, यह दोनों में भेद है । संक्रम अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके संक्रमणकी प्ररूपणा करता है । लेश्यानुयोगद्वार छह द्रव्यलेश्याओंकी प्ररूपणा करता है । लेश्याकर्मानुयोगद्वार अन्तरंग छह लेश्याओंसे परिणत जीवोंके बाह्म कार्यकी प्ररूपणा करता है । लेश्यापरि १ अ आप्रत्योः 'वसामण्णाणं ', ' काप्रतौ ' वसामणाणं ' इति पाठः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरणे . दव्व-भावलेस्साहि परिणमणविहाणं वण्णेदि । सादमसादे त्ति अणियोगद्दारमेयंतसाद-अणेयंतसादमेयंतासादमणेयंतासादाणं' गदियादिमग्गणाओ अस्सिदूण परूवणं कुणइ । दीहेरहस्से त्ति अणियोगद्दार पयडि-ट्ठिदि-अणुभाग-पदेसे अस्सिदूण दीह-रहस्सत्तं परुवेदि । भवधारणीए त्ति अणियोगद्दार केण कम्मेण णेरइय-तिरिक्ख-मणुस-देवभवा धरिज्जति त्ति परूवेदि । पोग्गलअत्ते त्ति अणियोगद्दार गहणादो अत्ता पोग्गला परिणामदो अत्ता पोग्गला उवभोगदो अत्ता पोग्गला आहारदो अत्ता पोग्गला ममत्तादो अत्ता पोग्गला परिग्गहादो अत्ता पोग्गला त्ति अप्पणिज्जाणप्पणिज्जपोग्गलाणं पोग्गलाणं संबंधण पोग्गलतं पत्तजीवाणं च परूवणं कुणदि । णिधत्तमणिधत्तमिदि अणियोगद्दारं पयडि-द्विदि-अणुभागाणं णिवत्तमणिधत्तं च परूवेदि । णिवत्तमिदि किं ? ज पदेसग्गं ण सक्कमुदए दाईं अण्णपयडिं वा संकामेदं तं णिवत्तं णाम । तविवरीयमणिधत्तं । णिकाचिदमणिकाचिदमिदि अणियोगद्दारं पयडि-हिदि-अणुभागाणं णामानुयोगद्वार जीव और पुद्गलोंके द्रव्य और भाव लेश्या रूपसे परिणमन करने के विधानका वर्णन करता है। सातासातानुयोगद्वार एकान्त सात, अनेकान्त सात, एकान्त असात और अनेकान्त असातकी गति आदि मार्गणाओंका आश्रय करके प्ररूपणा करता है। दीर्घ-हस्वानुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका आश्रय करके दीर्घता और ह्रस्वताकी प्ररूपणा करता है । भवधारणीय अनुयोगद्वार किस कर्मसे नारकी पर्याय, किस कर्मसे तिर्यंच पर्याय, किस कर्मसे मनुष्य पर्याय और किस कर्मसे देव पर्याय धारण की जाती है, इसकी प्ररूपणा करता है। पुद्गलात्त अनुयोगद्वार ग्रहणसे आत्त पुद्गल, परिणामसे आत्त पुद्गल, उपभोगसे आत्त पुद्गल, आहारसे आत्त पुद्गल, ममत्वसे आत्त पुद्गल और परिग्रहसे आत्त पुद्गल, इस प्रकार विवक्षित और अविवक्षित पुद्गलोका तथा पुद्गलोंके सम्बन्धसे पुद्गलत्वको प्राप्त जीवोंकी भी प्ररूपणा करता है। निधत्तानिधत्त अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागके निधत्त एवं अनिधत्तकी प्ररूपणा करता है। शंका-निधत्त किसे कहते हैं ? समाधान - जो प्रदेशाग्र उदयमें देनेके लिये अथवा अन्य प्रकृति रूप परिणमानेके लिये शक्य नहीं है वह निधत्त कहलाता है। इससे विपरीत अनिधत्त है। निकाचितानिकाचित अनुयोगद्वार प्रकृति, स्थिति और अनुभागके निकाचन और १ प्रतिषु ' -अणेयततोदाणं ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' ममत्तीदो' इति पाठः। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. णिकाचणाणिकाचणं परूवेदि । णिकाचणमिदि किं ? जं पदेसग्गं ण सक्कमौकट्टिदुमुक्कट्टिदुमण्णपयडिसंकामेदुमुदए दादु वा तण्णिकाचिदं णाम । तविवरीदमणिकाचिदं । एत्थुवउज्जंती गाहा उदए संकम-उदए चदुसु वि दादु कमेण णो सक्कं । उवसंतं च णिधत्तं णिकाचिदं चावि जं कम्म' ॥ ८७ ॥ कम्मद्विदि त्ति अणियोगदारं सव्वकम्माणं सत्तिकम्मट्ठिदिमुक्कड्डणोकड्डणमणिदहिदि च परुवेदि । पच्छिमक्खंधे त्ति अणिओगद्दारं दंड-कपाट-पदर-लोगपूरणाणि तत्थ हिदि-अणुभागखंडयघादणविहाणं जोगकिट्टीओ काऊण जोगणिरोहसरूवं कम्मक्खवणविहाणं च परूवेदि । अप्पाबहुगाणिओगद्दारं अदीदसव्वाणियोगद्दारेसु अप्पाबहुगं परूवेदि । जहा उद्देसो तहा णिदेसो त्ति कटु कदिअणिओगद्दारपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि---- भनिकाचनकी प्ररूपणा करता है। शंका-निकाचन किसे कहते हैं ? समाधान-जो प्रदेशाग्र अपकर्षणके लिये, उत्कर्षणके लिये, अन्य प्रकृति रूप परिणमानके लिये और उदयमें देनेके लिये शक्य नहीं है वह निकाचित कहलाता है । इससे विपरीत अनिकाचित है । यहां उपयुक्त गाथा जो कर्म उदयमें नहीं दिया जा सके वह उपशान्त कहलाता है। जो कर्म संक्रमण थ उदयमें नहीं दिया जा सके उसे निधत्त कहते हैं। जो कर्म उदय, संक्रमण, उत्कर्षण घ अपकर्षण, इन चारोंमें ही नहीं दिया जा सकता है वह निकाचित कहा जाता है ॥८७॥ कस्थिति अनुयोगद्वार सब कर्मोंकी शक्ति रूप कर्मस्थिति और उत्कर्षण-अपकर्षणसे उत्पन्न स्थितिकी भी प्ररूपणा करता है। पश्चिमस्कन्ध अनुयोगद्वार दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण समुद्घातोंकी, उनमें स्थितिकाण्डक व अनुभागकाण्डकोंके घातने के विधानकी, योगकृष्टियोंको करके होनेवाले योगनिरोधके स्वरूपकी, तथा कर्मों के क्षय करनेकी विधिकी प्ररूपणा करता है। अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार पिछले सब अनुयोगद्वारों में अल्प-बहुत्वकी प्ररूपणा करता है। 'जैसा उद्देश होता है वैसा ही निर्देश होता है ऐसा समझ कर कृति अनुयोगद्वारकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं ............... ........ १ गो. क. ४४०. Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४६.1 करिअणियोगदौरे कदिभेदपरूवणा कदि त्ति सत्तविहा कदी-णामकदी ठवणकदी दव्वकदी गणणकदी गंधकदी करणकदी भावकदी चेति ॥ ४६ ॥ कदि त्ति एत्थ जो इदिसदो तस्स अट्ठ अत्था--- हेतावेवंप्रकारादौ व्यवच्छेदे विपर्यये । प्रादुर्भावे समाप्तौ च इति-शब्दः प्रकीर्तितः ॥ ८८ ॥ इति वचनात् । एतेष्वर्थेषु क्वायमितिशब्दः प्रवर्तते ? स्वरूपावधारणे । ततः किं सिद्धम् ? कृतिरित्यस्य शब्दस्य योऽर्थः सोऽपि कृतिः, अर्थाभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामधेया' इति न्यायात्तस्य ग्रहणं सिद्धम् । स च कृत्यर्थः सप्तविधः नामकृत्यादिभेदेन । कधमेगो कदिसहो अणेगेसु कृति सात प्रकार है- नामकृति, स्थापनाकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति, ग्रन्थकृति, करणकृति और भावकृति ॥ ४६॥ 'कदि त्ति ' यहां जो इति शब्द है उसके आठ अर्थ हैं, क्योंकि, हेतु, एवं, प्रकार, आदि, व्यवच्छेद, विपर्यय, प्रादुर्भाव और समाप्ति, इन अर्थों में इति शब्द कहा गया है ॥ ८६॥ ऐसा वचन है। शंका--- इन अर्थों में से कौनसे अर्थ में यहां इति शब्दकी प्रवृत्ति है ? समाधान -- यहां स्वरूपके अवधारणमें इति शब्दकी प्रवृत्ति हुई है। शंका-इससे क्या सिद्ध होता है ? समाधान-कृति इस शब्दका जो अर्थ है वह भी कृति है, क्योंकि अर्थ, अभिधान और प्रत्यय ये तुल्य नाम है ' इस न्यायसे उसका ग्रहण सिद्ध है। वह कृत्यर्थ नामकृति आदिके भेदसे सात प्रकार है । शंका-एक कृति शब्द अनेक अर्थों में कैसे रहता है ? १ प्रतिषु ' प्रकारादि ' इति पाठः। २ अने. ना. ३९. इति हेतौ प्रकारे च प्रकाशापनुकर्षयोः । इति प्रकरणेऽपि स्यात्समाप्तौ च निदर्शने ॥ विश्वलोचन ( अव्ययवर्ग ) २१. ३ सं. त. ७ ( उद्धृतमिदं तत्र टीकायाम् ). Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८) छवंडागमै वैयणाखंड [४, १७. अस्येसु वट्टदे १ ण, अणेयसहकारिकारणसण्णिहाणवसेण एयादो वि पहूण कज्जाणमुप्पत्तिदसणादो । दृश्यन्ते च क्रमाक्रमाभ्यामनेकधमैः परिणमन्तोऽर्थाः । न च दृष्टस्यापलापः शक्यते कर्तुमतिप्रसंगात् । एष कृतिशब्दः कर्तृवर्जितेषु त्रिकालगोचराशेषकारकेषु वर्तत इति सप्तस्वपि कृतिषु यथासम्भवकारकयोजना विधेया। सत्तण्णं कदीणमंते हिदइदिसदो आदीए आयत्वे वदि त्ति घेत्तव्यो, सत्त चेव कदीए णिक्खेवा होति त्ति णियमाभावादो। (कदिणयविभासणदाए को णओ काओ कदीओ इच्छदि ? ॥ ४७ ॥ सत्तण णिक्खेवाणं णामणिद्देस काऊण तेसिमट्ठपरूवणमकाऊण किम णयविभासणदा कीरदे ? जहा सव्वे लोगववहारा दव्व-पज्जवट्ठियणयं अस्सिदूण ट्ठिदा तहा एसो वि णामादिववहारो दव्व-पज्जवट्ठियणयं अस्सिदूण द्विदो त्ति जाणावणहूँ कीरदे । एदेर्सि समाधान-नहीं, क्योंकि, अनेक सहकारी कारणोंकी समीपता होनेसे एकसे भी बहुत कार्योंकी उत्पत्ति देखी जाती है। तथा क्रम और अक्रमसे अनेक धर्म रूपसे परिणमन करनेवाले पदार्थ देखे भी जाते हैं। और देखे गये पदार्थका अपह्नव नहीं किया जा सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आता है। __ यह कृति शब्द कर्ता कारकको छोड़कर तीनों काल विषयक समस्त कारकों में है, अतएव सातों कृतियों में यथासम्भव कारकोंकी योजना करना चाहिये। सात कृतियोंके भन्तमें स्थित इति शब्द आदि अर्थात् आद्यत्व अर्थमें है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, सात ही कृतियोंके निक्षेप है, ऐसा नियम नहीं है । कृतियोंके नयोंके व्याख्यानमें कौन नय किन कृतियोंकी इच्छा करता है ? ॥४७॥ शंका-सात निक्षेपोंका नामनिर्देश करके उनके अर्थकी प्ररूपणा न कर नयोंका व्याख्यान किस लिये किया जाता है ? समाधान-जिस प्रकार सब लोकव्यवहार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयका भाधय करके स्थित हैं उसी प्रकार यह नामादिक व्यवहार भी द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयका आश्रय करके स्थित है, यह जतलाने के लिये नोंका व्याख्यान किया जाता है। १ प्रतिषु धर्मः परिममन्तोः ' इति पाठ २ प्रतिषु ' सत्स्वपि ' इति पाठः । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १७.] कदिअणियोगदारे णयविभासणदा [२३९ णामादिववहाराणं दुविहणयावलंषणतजाणावणं किंफलं । एदेसि ववहाराणं सच्चत्तपण्णवणफलं'। ण च दुविहणयणिबंधणो संववहारो चप्पलओ, अणुवलंभादो। ण च दुग्णयाणं सच्चत्तमस्थि, णिसिद्धपडिवक्खविसयाणं सगविसयाभावादो सच्चत्ताभावादो। तदो ण दुण्णया संववहारकारणं । सुणया कधं सविसया ? एयंतेण पडिवक्खणिसहाकारणादो गुण-पहाणभावेण ओसारिदपमाणबाहादो । एयतो अवत्थू कधं ववहारकारण ? एयतो अक्त्थू ण संववहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविसईकओ, वत्थुत्तादो । कथं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि १ वुच्चदे- को एवं भणदि णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि । पमाणं पमाणविसई __ शंका-ये नामादिक व्यवहार दो प्रकारके नयोंके आश्रित हैं, यह बतलानेका क्या प्रयोजन है? समाधान-इसका प्रयोजन नामादिक व्यवहारोंकी सत्यता प्रगट करना है। यदि कहा जाय कि दोनों प्रकारके नयोंके निमित्तसे होनेवाला संव्यवहार मिथ्या है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। और दुर्नयोंके सत्यता हो नहीं सकती, क्योंकि, वे प्रतिपक्षभूत विषयोंका सर्वथा निषेध करते हैं। इसीलिये स्वविषयोंका भी अभाव होनेसे उनके सत्यता रह नहीं सकती। इसी कारण दुर्नय संव्यवहारके कारण नहीं है। शंका-सुनयोंके अपने विषयों की व्यवस्था कैसे सम्भव है ? समाधान- चूंकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयोंका निषेध नहीं करते, भतः उनके गौणता और प्रधानताकी अपेक्षा प्रमाणबाधाके दूर कर देनेसे उक्त विषयव्यवस्था भले प्रकार सम्भव है। शंका-जब कि एकान्त अवस्तु स्वरूप है तब वह व्यवहारका कारण कैसे हो सकता है? समाधान-अवस्तु स्वरूप एकान्त संव्यवहारका कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाणसे विषय किया गया अनेकान्त है; क्योंकि वह वस्तु स्वरूप है। शंका-यदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारोंका कारण नय कैसे हो सकता है ! समाधान-इसका उत्तर कहते हैं, कौन ऐसा कहता है कि नय सब संन्यवहारोंका १ प्रतिषु ' -पण्णवण्यफलं 'इति पाठः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.1 छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४८. कयट्ठा च सयलसंववहारकारणं ? किंतु सव्वो संववहारो पमाणणिबंधणो णयसरूवो त्ति परूवेमो, सव्वसंववहारेसु गुण-पहाणभावोवलंभादो । अधवा पमाणादो णयाणमुप्पत्ती, अणवगहे' गुण-प्पहाणभावाहिप्पायाणुप्पत्तीदो। णएहिंतो संववहारुप्पत्ती, अप्पणो अहिप्पायवसेण एगाणेगववहारुवलंभादो। तदो णओ वि संववहारकारणमिदि वुत्ते ण कोच्छि दोसो। किमर्थ संव्यवहारो नयात्मक एव ? न, स्वाभाव्यात् , अन्यथा व्यवहर्तुमुपायाभावात् । णिक्खेवट्ठपरूवणाए कदाए पच्छा णयविभासणा किण्ण कीरदे ? ण, णयपरूवणाए विणा दुविहणयट्ठियजीवाणं परूविज्जमाणणिक्खवपरूवणाए संकर-वदिकरभावेण अत्थसमप्पण कुणंतीए वइफल्लप्पसंगादो। णेदं पुच्छासुत्तं, किंतु आइरियासंकासुत्तं; पुव्विल्लसुत्तचालणवसेण एदस्स सुत्तस्स अवयारादो। णइगम-ववहार-संगहा सव्वाओ ॥ ४८ ॥ कारण है, प्रमाण और प्रमाणसे विषय किये गये पदार्थ भी समस्त संव्यवहारोंके कारण हैं। किन्तु प्रमाणनिमित्तक सब संव्यवहार नय स्वरूप हैं,ऐसा हम कहते हैं क्योंकि, सब संव्यव. हारोंमें गौणता और प्रधानता पायी जाती है । अथवा, प्रमाणसे नयोंकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, वस्तुके अज्ञात होनेपर उसमें गौणता और प्रधानताका अभिप्राय बनता नहीं है। और नयोंसे संव्यवहारकी उत्पत्ति होती है, क्योंकि, अपने अभिप्रायके वशसे एक व अनेक रूप व्यवहार पाया जाता है। इस कारण नय भी संव्यवहारका कारण है, ऐसा कहनेमें कोई दोष नहीं है। शंका-संव्यवहार नय स्वरूप ही है, ऐसा क्यों है ? समाधान -नहीं, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है, तथा अन्य प्रकारसे व्यवहार करनेके लिये और कोई उपाय भी नहीं है । . शंका-निक्षेपोंके अर्थकी प्ररूपणा कर चुकनेपर पीछे नयोंका व्याख्यान क्यों नहीं किया जाता? समाधान-नहीं, क्योंकि, नवप्ररूपणाके विना दो प्रकारके नयोंके आश्रित जीवोंके लिये कही जानेवाली निक्षेपप्ररूपणा संकर व व्यतिकर रूपसे अर्थका समर्पण करनेवाली होगी, अतः उसके निष्फल होनेका प्रसंग आता है। यह पृच्छासूत्र नहीं है, किन्तु आचार्यका आशंकासूत्र है, क्योंकि, पूर्वोक्त सूत्रकी चालनाके वशसे इस सूत्रका अवतार हुआ है। नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब कृतियोंको स्वीकार करते हैं ॥४८॥ १ प्रतिषु · अगवगए ‘इति पाठः। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ४८. ] कदिअणियोगद्दारे णयविभासणदा [ २४१ एत्थ इच्छंति त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । ण तमेगवयणं, अत्थवसादो विहत्ति' - परिणामो होदि ति बहुवयणं संपज्जदे । णामकदी एदेसिं तिण्णं णयाणं विसया होदु णाम, आजम्मा आमरणादो अवदित्थे सव्वकालमवट्ठिदत्तणेण अज्झवसिदसद्दत्थेसु सण्णासणिसंबंधुवलंभादो । ठवणकदी वि दव्वट्ठियणयविसया चेव होदि, पुधभूददव्वाणमेगत्तज्झवसाएण विणा वणाणुववत्तदा । दव्वकदी विदव्वट्ठियणयविसया, आगम- गोआगमदव्वेसु पच्चहिण्णापच्चयगेज्झत्तणेण अवगयावट्ठाणेसु दव्वकइत्तदंसणादो । कथं गणणकई दव्वणियविसया ? ण, गणत-गणिज्जमाणाणं धुवावड्डाणेण विणा गणणकदीए असंभवादो । ण च एक्कमिदि गणिय तत्थेव विणट्ठो दुवादिगणणकारओ होदि, असंतस्स कत्तारत्तविरोहादो | ण च बिदियक्खणसमुप्पण्णो दुसंखमवहारयदि, अगहिदेक्कसंखस्स दुसंखावहारणाणुववत्तदो । ण च गणिज्जमाणे अणिच्चे संते गणणकदी जुज्जदे, एक्कमिदि गणिददव्वे विणट्ठे दुवादि यहां ' इच्छन्ति ' अर्थात् स्वीकार करते हैं इस पदकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति आ है । यह एकवचन नहीं है, किन्तु 'अर्थके वशसे विभक्तिका परिवर्तन होता है ' इस न्याय से बहुवचन सिद्ध होता है । अर्थात् यद्यपि पूर्व सूत्र में 'इच्छति ' ऐसा एकवचन है, परन्तु, उक्त न्याय से अर्थके वश यहां 'इच्छंति ' ऐसे बहुवचन पदकी अनुवृत्ति है । शंका- नामकृति इन तीन नयोंकी विषय भले ही हो, क्योंकि, जन्मसे लेकर मरण पर्यन्त स्थिर अर्थ में सर्व काल अवस्थित स्वरूपसे निश्चित शब्द और अर्थमे संज्ञा-संज्ञी रूप सम्बन्ध पाया जाता है । स्थापनाकृति भी द्रव्यार्थिक नयकी विषय ही है, क्योंकि, पृथग्भूत द्रव्योंके एकत्वके निश्चय विना स्थापना बन नहीं सकती । द्रव्यकृति भी द्रव्यार्थिक नयकी विषय है, क्योंकि, प्रत्यभिज्ञान प्रत्ययके विषय रूपसे जिनका अवस्थान अर्थात् स्थिरता अवगत है ऐसे आगम व नोआगम रूप द्रव्योंमें द्रव्यकृतिपना देखा जाता है । किन्तु गणनकृति द्रव्यार्थिक नयकी विषय कैसे हो सकती है ? समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, गिननेवाले व्यक्ति और गिनी जानेवाली वस्तुओं की स्थिरता के विना गणनकृति सम्भव ही नहीं है। कारण कि ' एक ' इस प्रकार गिनकर यदि गणना करनेवाला वहां ही नष्ट हो जावे तो फिर वह 'दो' आदि गिनतीका करनेवाला नहीं हो सकता, क्योंकि, असत्के कर्ता होने का विरोध है । और द्वितीय क्षणमें उत्पन्न व्यक्ति ' दो' संख्याका निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि, ' एक ' संख्याको जिसने नहीं जाना है उसके ' दो' संख्याका निश्चय बन नहीं सकता । इसी प्रकार गिनी जानेवाली वस्तुके भी अनित्य होनेपर गणनकृति उचित नहीं है, क्योंकि, ' एक ' इस प्रकार १ प्रतिषु ' विहित्थि ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' विसए ' इति पाठः । छ, क३१. २ अर्थवशाद विभक्तिपरिणामः । स. सि. २-२. ४ प्रतिषु ' धुवट्ठाणेण ' इति पाठः । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १८. गणणकरणाणुववत्तीदो । तदो गणणकदी दव्वट्ठियणयविसया । __ गंथकदीए दव्वट्ठियणयविसयत्तमेवं चेव वत्तव्वं, सद्दत्थकत्ताराणं णिच्चत्तेण' विणा गंथकदीए असंभवादो। करणकदी वि दवडियणयविसया, छिंदंत-छिंदमाणदव्वाणं असिवासिआदिकरणाणं च अणिच्चत्ते तदणुववत्तीदो । भावकदी दव्वट्ठियणयविसया ण होदि । णामढवणादवियं एसो दव्ववियस्स णिक्खेवो। भावो दु पज्जवट्ठियपरूवणा एस परमत्थो ॥ ८९ ॥ इदि वयणादो । किं च वट्टमाणपज्जाएणुवलक्खियं दव्वं भावो त्ति भण्णदि । ण च एसो भावो दव्वट्ठियणयविसओ होदि, पज्जवट्ठियणयस्स णिव्विसयत्तप्पसंगादो ति? एत्थ परिहारो वुच्चदे- पज्जाओ दुविहो अत्थ-वंजणपज्जायभेएण । तत्थ अत्थपज्जाओ' एगादिसमयावट्ठाणो सण्णा-सण्णिसंबंधवज्जिओ अप्पकालावट्ठाणादो अइविसेसादो वा । तत्थ गिने जानेवाले द्रव्यके नष्ट हो जानेपर 'दो' आदि गिनती करना बन नहीं सकता। इस कारण गणनकृति द्रव्यार्थिक नयकी विषय है। ग्रन्थकृतिके भी द्रव्यार्थिक नयकी विषयताका इसी प्रकार कथन करना चाहिये, क्योंकि शब्द, अर्थ और कर्ताके नित्य होनेके विना ग्रन्थकृति सम्भव नहीं है। करणकृति भी द्रव्यार्थिक नयकी विषय है, क्योंकि, छेदनेवाले व्यक्ति, छदे जानेवाले काष्ठादि द्रव्य और तलवार एवं वसूला आदि करणोंके अनित्य होनेपर वह बन नहीं सकती। शंका-भावकृति द्रव्यार्थिक नयकी विषय नहीं है, क्योंकि, नाम, स्थापना और द्रव्य, यह द्रव्यार्थिक नयका निक्षेप है। किन्तु भावनिक्षेप पर्यायार्थिक नयका निक्षेप है, यह परमार्थ सत्य है ॥ ८९ ॥ ऐसा वचन है। दूसरी बात यह कि वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित द्रव्य भाव कहा जाता है । सो यह भाव द्रव्यार्थिक नयका विषय नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होनेपर पर्यायार्थिक नयके निर्विषय होनेका प्रसंग आता है ? समाधान-यहां इस शंकाका परिहार कहते हैं, अर्थ और व्यञ्जन पर्यायके भेदसे पर्याय दो प्रकार हैं । उनमें अर्थपर्याय थोड़े समय तक रहनेसे अथवा अति विशेष होनेसे एक आदि समय तक रहनेवाली और संज्ञा-संज्ञी सम्बन्धसे रहित है। और उनमें जो १ प्रतिषु णिवत्तेण ' इति पाठः । २ स. त. १-६. ३ तत्रार्थपर्यायाः सूक्ष्माः क्षणक्षयिणस्तथावाग्गोचरा विषया भवन्ति । पंचा. ता. टीका.१६. Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ४९.] कदिअंणियोगदारे णयविभासणदा [२४३ जो सो वंजणपज्जाओ [सो] जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहुत्तासखेज्जलोगमेत्तकालावट्ठाणो अणाइ-अणतो वा । तत्थ वंजणपज्जाएण पडिगहियं दव्वं भावो होदि । एदस्स वट्टमाणकालो जहण्णुक्कस्सेहि अंतोमुहुत्तो संखेज्जालोगमेत्तो अणाइणिहणो वा, अप्पिदपज्जायपढमसमयप्पहुडि आचरिमसमयादो एसो वट्टमाणकालो त्ति णायादो । तेण भावकदीए दवट्ठियणयविसयत्तं ण विरुज्झदे । ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो, सुद्धज्जुसुत्र्तणयविसयीकयपज्जाएणुव. लक्खियदव्वस्स सुत्ते भावत्तब्भुवगमादो (एवं वुत्तासेसत्थं मणम्मि काऊण णेगम-ववहारसंगहाँ सव्वाओ कदीओ इच्छंति त्ति भूदबलिभडारएण उत्तं ।) उजुसुदो ट्ठवणकदिं णेच्छदि ॥ ४९॥ __ अवसेसाओ कदीओ इच्छदि । कधमेदं सुत्तम्मि अवुत्तं णव्वदे ? अत्थावत्तीदो । उजुसुदणओ णाम पज्जवडियो, कधं तस्स णाम-दव्व-गणण-गंथकदी होति त्ति, विरोहादो । व्यजनपर्याय है वह जघन्य और उत्कर्षसे क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और असंख्यात लोक मात्र काल तक रहनेवाली अथवा अनादि अनन्त है। उनमें व्यञ्जनपर्यायसे स्वीकृत द्रव्य भाव होता है । इसका वर्तमान काल जघन्य और उत्कर्षसे क्रमशः अतमुहूर्त और संख्यात लोक मात्र अथवा अनादिनिधन है, क्योंकि, विवक्षित पर्यायके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय तक यह वर्तमान काल है, ऐसा न्याय है। इस कारण भावकृतिकी द्रव्यार्थिक नयविषयता विरुद्ध नहीं है । यदि कहा जाय कि ऐसा माननेपर सन्मतिसूत्रके साथ विरोध होगा सो भी नहीं है, क्योंकि, शुद्ध ऋजुसूत्र नयसे विषय की गई पर्यायसे उपलक्षित द्रव्यको सूत्रमें भाव स्वीकार किया गया है। इस प्रकार कहे हुए सब अर्थको मनमें करके 'नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सर कृतियों को स्वीकार करते हैं ' ऐसा भूतबलि भट्टारकने कहा है। ऋजुसूत्र नय स्थापनाकृतिको स्वीकार नहीं करता है ॥ ४९ ॥ ऋजुसूत्र स्थापनाकृतिको छोड़ शेष कृतियों को स्वीकार करता है । शंका-यह सूत्रमें न कहा हुआ अर्थ कैसे जाना जाता है ? समाधान- यह अर्थापत्तिसे जाना जाता है । शंका-ऋजुसूत्र नय पयार्यार्थिक है, अतः वह नामकृति, द्रव्यकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिको कैसे विषय कर सकता है, क्योंकि, इसमें विरोध है । अथवा इसमें यदि कोई ५ व्य-जनपर्यायाः पुनः स्थूलाश्चिरकालस्थायिनो वाग्गोचराश्छमस्थदृष्टिविषयाश्च भवन्ति । पंचा. ता. टीका. १६. २ प्रतिषु · सुद्ध ' इति पाठः। ३ जयंध. १, पृ. २६१. ४ प्रतिषु — संगह ' इति पाठः । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] छखंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४९. अविरोहे वा छवणकदी वि इच्छिज्जउ, विसेसाभावादो त्ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदेउजुसुदो दुविहो सुद्धो असुद्धो चेदि । तत्थ सुद्धो विसईकयअत्थपज्जाओ पडिक्खणं विवट्टमाणासेसत्थो अप्पणो विसयादो ओसारिदसारिच्छ-तब्भावलक्खणसामण्णो । एदस्स भावं मोत्तण अण्णकदीओ ण संभवंति, विरोहादो । तत्थ जो सो असुद्धो उजुसुदणओ सो चक्खुपासियवेंजणपज्जयविसओ। तेसिं कालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमुक्कस्सेण छम्मासा संखेज्जा वासाणि वा । कुदो ? चक्खिदियगेझवेंजणपज्जायाणमप्पहाणीभूददव्वाणमेत्तियं कालमवट्ठाणुवलंभादो । जदि एरिसो वि पज्जवट्ठियणओ अत्थि तो ( उपजंति वियंति य भावा णियमेण पज्जवणयस्स । दव्ववियस्स सव्यं सदा अणुप्पण्णमविणहूँ ॥ ९० ॥ ( इच्चेएण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि ति उत्ते ण होदि, एदेण असुद्ध उजुसुदेण विरोध नहीं है तो फिर स्थापनाकृतिको भी ऋजुसूत्र नयका विषय स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि उसमें कोई विशेषता नहीं है ? समाधान- यहां इस शंकाका परिहार कहते हैं- ऋजुसूत्र नय शुद्ध और अशुद्ध ऋजुसूत्र नयके भेदसे दो प्रकार है। उनमें अर्थपर्यायको विषय करनेवाला शुद्ध ऋजुसूत्र नय प्रत्येक क्षणमें परिणमन करनेवाले समस्त पदार्थोको विषय करता हुआ अपने विषयसे सादृश्य सामान्य और तद्भाव रूप सामान्यको दूर करनेवाला है। अतः भावकृतिको छोड़कर अन्य कृतियां इसकी विषय सम्भव नहीं है, क्योंकि, इसमें विरोध है। उनमें जो अशुद्ध ऋजुसूत्र नय है वह चक्षु इन्द्रियकी विषयभूत व्यञ्जनपर्यायोंको विषय करनेवाला है। उन पर्यायोंका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे छह मास अथवा संख्यात वर्ष है, क्योंकि, चक्षु इन्द्रियसे ग्राह्य व्यञ्जन पर्यायें द्रव्यकी प्रधानतासे रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती हैं। शंका- यदि ऐसा भी पर्यायार्थिक नय है तो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा पदार्थ नियमसे उत्पन्न होते हैं और नष्ट भी होते हैं। किन्तु द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सब पदार्थ सदा उत्पाद और विनाशसे रहित हैं ॥ ८८॥ इस सन्मतिसूत्रके साथ विरोध होगा ? समाधान नहीं होगा, क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्रके द्वारा व्यजनपर्याय ही १ स. सू. १-११;ष. खं. पु. १, पृ. १३. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५०. ] कदिअणियोगद्दारे णयविभासणदा [ २४५ विसई कयवेंजणपज्जाए अपहाणी कयसेसपज्जाए पुव्वावर कोटीणमभावेण उप्पत्ति-विणासे मोत्तूण अवाणावलंभादो । तम्हा उजुसुदे ट्ठवणं मोत्तूण सव्वणिक्खेवा संभवंति त्ति वृत्तं । कथं ठवणणिक्खेवो णत्थि ? संकष्पवसेण अण्णस्स दव्वस्स अण्णसरूवेण परिणामाणुवलंभादो सरिसत्तणेण दव्वाणभेगत्ताणुवलंभादो । सारिच्छेण एगत्ताणन्भुवगमे कधं णाम- गणण-गंथकदीणं संभवो ? ण, तब्भाव-सारिच्छसामण्णेहि विणा वि वट्टमाणकालविसे सप्पणाए वितासि - मत्थितं पडि विरोधाभावादो । उजुसुदस्स ण गणणकदी तस्साणेयमवत्थु इदि वयणादोत्ति कुत्ते ण, पज्जवट्ठिय- इगमे अवलंबिज्जमाणे अणेयसंखाए वि वत्थुत्तुवलंभादो | सद्दादओ णामकदिं भावकदिं च इच्छंति ॥ ५० ॥ होदु भावकदी सणयाणं विसओ, तेसिं विसए दव्वादीणमभावादो । किंतु ण तेसिं विषय की जाती हैं और शेष पर्यायें अप्रधान हैं; [ किन्तु प्रस्तुत सन्मतिसूत्रसे शुद्ध ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा होने से ] पूर्वापर कोटियोंका अभाव होने के कारण उत्पत्ति व विनाशको छोड़कर अवस्थान पाया ही नहीं जाता । इस कारण ऋजुसूत्र में स्थापनाको छोड़कर सब निक्षेप संभव हैं, ऐसा कहा गया है। शंका - स्थापनानिक्षेप ऋजुसूत्रनयका विषय कैसे नहीं है ? - समाधान – क्योंकि, इस नयकी अपेक्षा संकल्पके वशसे एक द्रव्यका अन्य स्वरूपसे परिणमन नहीं पाया जाता, कारण कि सादृश्य रूपसे द्रव्योंके एकता नहीं पायी जाती । अतः स्थापनानिक्षेप यहां सम्भव नहीं है । ―――― शंका- - सादृश्य सामान्यसे एकताके स्वीकार न करनेपर नामकृति, गणनकृति और ग्रन्थकृतिकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान – नहीं, क्योंकि, तद्भावसामान्य और सादृश्य सामान्यके विना भी वर्तमान काल विशेषकी विवक्षासे भी उनके अस्तित्वके प्रति कोई विरोध नहीं है । शंका - ऋजुसूत्र नयके गणनकृति सम्भव नहीं है, क्योंकि, इस नयकी दृष्टिमें ' अनेक संख्या अवस्तु है ' ऐसा वचन है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, पर्यायार्थिक नैगमनयका अवलम्बन करनेपर अनेक संख्याके भी वस्तुपना पाया जाता है। शब्दादिक नय नामकृति और भावकृतिको स्वीकार करते हैं ॥ ५० ॥ शंका - भावकृति शब्दनयोंकी विषय भले ही हो, क्योंकि, उनके विषय में द्रव्यादिक कृतियोंका अभाव है । परन्तु नामकृति उनकी विषय नहीं हो सकती, क्योंकि, Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड (४, १,५१. णामकदी जुज्जदे, दव्वट्ठियणयं मोत्तूण अण्णत्थ सण्णासण्णिसंबंधाणुववत्तीदो ? खणक्खइभावमिच्छताणं सपणासण्णिसंबंधा मा घडंतु णाम । किंतु जेण सद्दणया सद्दजणिदभेदपहाणा तेण 'सण्णासण्णिसंबंधाणमघडणाए अणत्थिणो । सगब्भुवगमम्हि सण्णासण्णिसंबंधो अस्थि चेवे त्ति अज्झवसायं काऊण ववहरणसहावा सद्दणया, तेसिमण्णहा सद्दणयत्ताणुववत्तीदो । तेण तिसु सद्दणएसु णामकदी वि जुज्जदे । संपधि णिक्खेवत्थपरूवणत्थमुवरिमसुत्तं भणदि (जा सा णामकदी णाम सा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, जीवाणे वा, अजीवाणं वा, जीवस्स च अजीवस्स च, जीवस्स च अजीवाणं च, जीवाणं च अजीवस्स [च], जीवाणं च अजीवाणं च' ॥ ५१ ॥ जस्स णाम कीरदि कदि ति सा सव्वा णामकदी णाम । सत्तसु कदीसु जा सा द्रव्यार्थिक नयको छोड़कर अन्य नयों में संज्ञा-संशी सम्बन्ध बन नहीं सकता। समाधान-पदार्थको क्षणक्षयी स्वीकार करनेवालोंके यहां संज्ञा-संझी सम्बन्ध भले ही घटित न हो, किन्तु चूंकि शब्दनय शब्द जनित भेदकी प्रधानता स्वीकार करते हैं अतः वे संज्ञा-संशी सम्बन्धोंके अघटनको स्वीकार नहीं कर सकते। इसीलिये स्वमतमें संज्ञा-संशी सम्बन्ध है ही, ऐसा निश्चय करके शब्दनय भेद करने रूप स्वभाववाले हैं, क्योंकि, इसके विना उनके शब्दनयत्व ही नहीं बन सकता। अत एव तीन शब्दनयोंमें नामकृति भी उचित है । अब निक्षेपार्थकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं जो वह नामकृति है वह एक जीवके, एक अजीवके, बहुत जीवोंके, बहुत अजीवोंके, एक जीव और एक अजीवके, एक जीव और बहुत अजीवोंके, बहुत जीव और एक अजीवके अथवा बहुत जीवों और बहुत अजीवोंके होती है ॥ ५१॥ जिसका ‘कृति' ऐसा नाम किया जाता है वह सब नामकृति कहलाती है । सात १ इतः प्रारभ्यं सगम्भुवगमम्हि पर्यन्तः पाठः प्रतिषु नास्ति, मप्रती तूपलभ्यते ।। २५. खे. पु. १, पृ. १९. से किं तं नामांवस्सयं ? जस्स ण जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाण वा अजीवाण वा तदुभयरस वा तदुभयाण वा आवस्सए त्ति नामं कज्जह से तं नामविस्सयं । अनु. सू. ९. Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५१.] कदिअणियोगदारे ठषणकदिपरूषणा। । २९७ पढममुद्दिट्ठा णामकदी तिस्से अत्थपरूवणे भण्णमाणे ताव विसयपरूवणा कीरदे- सा णामकदी अट्टविसया, एयाणेयजीवाजीवेसु सण्णिवादभंगाणं' असंखादो अहियाणमणुवलंभा । एदेसु अट्ठभंगेसु जस्स णामं कीरदि कदि त्ति सा कदिसण्णा अप्पाणम्हि वट्टमाणा आहारभेदेण अट्ठपयारा अवंतरभेदण बहुकोडिभेदमावण्णा सा सव्वा णामकदी णाम । एषा पिन क्षणिकैकान्तवादे घटते, तत्र संज्ञासंज्ञिसम्बन्धग्रहणानुपपत्तेः । न नित्यैकान्तवादिमते, तत्र अनाधेयातिशये प्रतिपाद्य-पतिपादकभेदाभावात् । नोभयपक्षोऽपि, विरोधादुभयदोषानुषंगात् । नानुभयपक्षोऽपि, निःस्वभावतापत्तेः। न शब्दार्थयोरैक्यपक्षोऽपि, कारण-करणदेशादिभेदाभावासंजनात् । ततस्त्रिकोटीपरिणामात्मकाशेषार्थवादिनां जैनवादिनामेवैतद् घटते, नान्येषाम् । न स्फोटोऽर्थप्रतिपादकः, तस्यानुपलंभतोऽसत्वात् । ततो बहिरंगवर्णजनितमन्तरंगवर्णात्मकं पदं कृतियोंमें जो वह पहिले निर्दिष्ट की गई नामकृति है उसके अर्थकी प्ररूपणा करनेपर प्रथमतः विषयकी प्ररूपणा की जाती है। उस नामकृतिके विषय आठ हैं- क्योंकि, एक व अनेक जीव एवं अजीवमें संयोगसे होनेवाले भंगोंकी आठ ही संख्या है। इससे अधिक अधिक संख्या पायी नहीं जाती । इन आठ भंगोंमें जिसका 'कृति' ऐसा नाम किया जाता है वह अपने आपमें रहनेवाली कृति संज्ञा आधारके भेदसे आठ प्रकार और अवान्तर भेदसे अनेक करोड़ भेदोंको प्राप्त है, वह सब नामकृति कहलाती है । यह नामकृति भी क्षणिक एकान्तवादमें घटित नहीं होती, क्योंकि, उसमें संज्ञासंशी सम्बन्धका ग्रहण नहीं बनता। और न वह सर्वथा नित्यताको माननेवालोंके मतमें बनती है, क्योंकि, उनके यहां पदार्थके अनाधेयातिशय अर्थात् निरतिशय होनेसे यह प्रतिपाद्य है और यह प्रतिपादक है, ऐसा भेद सम्भव नहीं है । उभय पक्ष अर्थात् परस्पर निरपेक्ष नित्यानित्य पक्ष भी नहीं बनता, क्योंकि, वैसा मानने में विरोध है, तथा दोनों पक्षोंमें कहे हुए दोषोंका प्रसंग भी आता है। अनुभय पक्ष (न नित्य और न अनित्य ) भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर वस्तुके निःस्वभावताकी आपत्ति आती है। शब्द और अर्थका अभेद पक्ष भी नहीं बनता, क्योकि, ऐसा होनेपर कारण, करण और देश आदिके भेदके अभावका प्रसंग आता है। अत एव त्रिकोटिपरिणाम स्वरूप समस्त पदार्थोंको माननेवाले जैन वादियोंके यहां ही वह घटित होता है, दूसरोंके नहीं होता। स्फोट भी अर्थका प्रतिपादक नहीं है, क्योंकि, अनुपलब्ध होनेसे उसका सत्व ही सम्भव नहीं है। इस कारण बहिरंग वाँसे उत्पन्न अन्तरंग वर्गों स्वरूप पद अथवा १ अ-काप्रत्योः · संपादसण्णिवादभंगाणं', अप्रती · सपादसण्णिवादभंगाणं ' इति पाठः। २ प्रतिषु · भेदाभावासंजननात् ' इति पाठः । ३ न च वर्ण-पद-वाक्यव्यतिरिक्तः नित्योऽक्रमः अमृतों निरवयवः सर्वगतः अर्थप्रतिपत्तिनिमित्तं स्फोट इति, अनुपलम्भात् । जयध. १, पृ. २६६. Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड २४८ ] वाक्यं वा अर्थप्रतिपादकमिति निश्चेतव्यम् । (जा साठवणकदी णाम सा कटुकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मेसु वा लेप्यकम्मेसु वा लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकम्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा दंतकम्मेसु वा भेंडकम्मेसु वा अक्खो वा वराडओ वा जे चामण्णे एवमादिया ठवणाए ठविज्जंति कदि त्ति सा सव्वा ठेवणकदी णाम' ॥ ५२ ॥ [ ४, १, ५२. एतस्स सुत्तस्स अत्थो वुच्चदे - जा साठवणकदी णामे त्ति वयणेण इमा परूवणा वणकदिविसया त्ति जाणावण पुव्वुद्दिट्ठट्ठवणकदी पुणे वि उद्दिट्ठा | जहा उद्देसो तहा णिसो त्तिणायादो वणकदिपरूवणा चेव णामकदिपरूवणाणंतरं होदि ति णव्वदे । तदो द वत्तव्यमिदि चे होदि एसो णाओ पुव्वाणुपुव्विविवक्खाए, ण सेसदोसु परूवणासुः वाक्य अर्थ प्रतिपादक है, ऐसा निश्चय करना चाहिये । जो वह स्थापनाकृति है वह काष्ठकर्मों में, अथवा चित्रकममें, अथवा पोत कर्मे में, अथवा लेप्यकर्मोंमें, अथवा लयनकर्मों में, अथवा शैलकर्मोंमें, अथवा गृहकर्मोंमें, अथवा भित्तिक में, अथवा दन्तकर्मों में, अथवा भेंडकर्मों में, अथवा अक्ष या वराटक; तथा इनको आदि लेकर अन्य भी जो ' कृति ' इस प्रकार स्थापना में स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कही जाती है ॥ ५३ ॥ इस सूत्र का अर्थ कहते हैं- 'जो वह स्थापनाकृति है ' इस वचनसे यह प्ररूपणा स्थापनाकृतिविषयक है, इसके जतलाने के लिये पूर्वमें निर्दिष्ट की गई स्थापनाकृतिका फिरसे भी निर्देश किया गया है । - शंका -' जैसा उद्देश होता है वैसा ही निर्देश होता है' इस न्यायसे नामकृतिकी प्ररूपणाके पश्चात् स्थापनाकृतिकी ही प्ररूपणा है, यह स्वयं जाना जाता है। इस कारण उक्त वाक्यांश नहीं कहना चाहिये ? समाधान - यह न्याय पूर्वानुपूर्वीकी विवक्षामें भले ही लागू हो, किन्तु शेष दो १ ष. स्वं. पु. ३, पृ. ११. से किं तं ठवणावस्सयं ? जण्णं कटुकम्मे वा पोत्थकम्मे वा चित्तकम्मे वा लेप्पकम्मे वा गंधिमे वा वेढिमे वा पूरिमे वा संघारमे वा अक्खे वा वराडए वा एगो वा अणेगो वा सम्भावठवणा वा असम्भावठवणा वा आवस्सए ति ठवणा ठविज्जह से तं ठवणावस्सयं । अनु. सू. १०. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १,५२.] कदिअणियोगद्दारे ठवणकदिपरूवणा [२४९ तदो सेसदोपरूवणापडिसेहकरणादो ण णिप्फला हवणकदिसंभालणा। तत्थ ताव सन्भावढवणाहारदेसामासो कीरदे-सा सब्भावठ्ठवणकदी कट्टकम्मेसु वा त्ति वुत्ते काष्ठे क्रियन्त इति निष्पत्तेः देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं णच्चण-हसण-गायण-तूर-वीणादिवायणकिरियावावदाणं कठ्ठघडिदपडिमाओ कट्ठकम्मे त्ति भणंति । पड-कुड्ड-फलहियादीसु णच्चणादिकिरियावावददेव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं पडिमाओ चित्तकम्म, चित्रेण क्रियन्त इति व्युत्पत्तेः । पोत्तं वस्त्रम् , तेण कदाओ पडिमाओ पोत्तकम्मं । कड-सक्खर-मट्टियादीणं लेवो लेप्पं, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्मं (लेणं पव्वओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं ।। सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्मं । गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्मं, हय-हत्थि (द्रव्य व भाव) प्ररूपणाओंमें वह नहीं है; अत एव शेष दो प्ररूपणाओंका प्रतिषेध करनेसे स्थापनाकृतिका स्मरण कराना निष्फल नहीं है। उसमें पहिले सद्भावस्थापनाके आधारभूत देशामर्शको करते हैं अर्थात् कुछ दृष्टान्त देते हैं-'वह स्थापनाकृति काष्ठकलॊमें है ऐसा कहनेपर 'काष्ठमें जो किये जाते हैं वे काष्ठकर्म हैं ' इस निरुक्तिके अनुसार नाचना, हँसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा आदि वाद्योंके वजाने रूप क्रियाओंमें प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंकी काष्ट से निर्मित प्रतिमाओंको काष्ठकर्म कहते हैं। पट, कुड्य (भित्ति), एवं फलहिका ( काष्ट आदिका तख्ता) आदिमें नाचने आदि क्रियामें प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंकी प्रतिमाओंको चित्रकर्म कहते हैं, क्योंकि, 'चित्रसे जो किये जाते हैं वे चित्रकर्म हैं' ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्तका अर्थ वस्त्र है, उससे की गई प्रतिमाओंका नाम पोतकर्म है । कट (तृण ), शर्करा (वालु) व मृत्तिका आदिके लेपका नाम लेप्य है। उससे निर्मित प्रतिमायें लेप्यकर्म कही जाती हैं। लयनका अर्थ पर्वत है, उसमें निर्मित प्रतिमाओंका नाम लयनकर्म है। शैलका अर्थ पत्थर है, उसमें निर्मित प्रतिमाओंका नाम शैलकर्म है । गृहोंसे अभिप्राय जिनगृहादिकोंका है, उनमें की गई प्रतिमाओंका नाम गृहकर्म है; घोड़ा, १तत्र क्रियत इति कर्म, काष्ठे कर्म काष्ठकर्म । काष्ठनिकुट्टितं रूपकमित्यर्थः । अनु. टीका सू. १०. २ चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकम् । अनु. टीका सू. १०. ३ 'पोत्थकम्मे व ' ति अत्र पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः । तत्र कर्म तत्पल्लवनिष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः । अथवा पोत्थं पुस्तकम्, तच्चेह संपुटकरूपं ग्रह्यते। तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः। अथवा पोत्थं ताडपत्रादि । तत्र कर्म तच्छेदनिष्पन्न रूपकम् । अनु. टीका सू. १०. ४ लेण्यकर्म लेप्यरूपकम् । अनु. टीका. सू. १०. 5. क. ३२. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,५३. ‘णर-वराहादिसरूवेण घडिदघराणि गिहकम्ममिदि वुत्तं होदि । घरकुड्डेसु तदो अभेदेण चिदपडिमाओ' भित्तिकम्मं । हत्थिदंतेसु किण्णपडिमाओ दंतकम्मं । भेंडो सुप्पसिद्धो, तेण घडिदपडिमाओ भेडकम्मं । एदे सम्भावट्ठवणा । एदे देसामासया दस परूविदा ।। संपहि असब्भावट्ठवणाविसयस्सुवलक्खणटुं भणदि- अक्खे त्ति वुत्ते जूवक्खो सयडक्खो वा घेत्तव्यो । वराडओ त्ति वुत्ते कवड्डिया घेत्तवा । जे च अण्ण एवमादिया त्ति वयणं दोण्णं अवहारणपडिसेहफलं । तेण थंभ-तुला-हल-मुसलकम्मादीणं गहण । स्थाप्यतेऽस्मिन्निति स्थापना। अमा अभेदेण, ठवणाए सद्भावासद्भावस्थापनायाम् , ठविज्जति कृतिरिति स्थाप्यन्ते, सा सव्वा ठवणकदी णाम । जा सा दव्वकदी णाम सा दुविहा आगमदो दव्वकदी चेव णोआगमदो दव्वकदी चेव ॥ ५३॥ हाथी, मनुष्य एवं वराह (शूकर) आदिके स्वरूपसे निर्मित घर गृहकर्म कहलाते हैं, यह अभिप्राय है। घरकी दीवालोंमें उनसे अभिन्न रची गई प्रतिमाओंका नाम भित्तिकर्म है। हाथी दांतोपर खोदी हुई प्रतिमाओंका नाम दन्तकर्म है । भेंड सुप्रसिद्ध है। उससे निर्मित प्रतिमाओंका नाम भेंडकर्म है । ये सद्भावस्थापनाके उदाहरण हैं । ये दस देशामर्शक कहे गये हैं। अब असद्भावस्थापनासम्बन्धी विषयके उपलक्षणार्थ कहते हैं-अक्ष ऐसा कहनेपर छूताक्ष अथवा शकटाक्षका ग्रहण करना चाहिये । वराटक ऐसा कहनेपर कपर्दिका का ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार इनको आदि लेकर और भी जो अन्य हैं इस वचनका प्रयोजन दोनों (अक्ष व वराटक) के अवधारणका प्रतिषेध करना है । इसलिये स्तम्भकर्म,तुलाकर्म, हलकर्म व मूसलकर्म आदिकोंका ग्रहण होता है। जिसमें स्थापित किया जाता है वह स्थापना है। अमा अर्थात अभेद रूपसे, स्थापना अर्थात सदभाव व असदभाव रूप स्थापनामें 'कृति है' इस प्रकार जो स्थापित किये जाते हैं वह सब स्थापनाकृति कही जाती है। जो वह द्रव्यकृति है वह दो प्रकार है- आगमसे द्रव्यकृति और नोआगमसे द्रव्यकृति ॥ ५३॥ १ आ-काप्रत्योः • चित्तपडिमाओ' इति पाठः । ३ अक्षः चन्दनकः। अनु. टोका सू. १०. २ प्रतिषु • जोवक्खो' इति पाठः । ४ वराटकः कपर्दकः । अनु. टीका सू. १०, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५४.] कदिअणियोगद्दारे दव्वकदिपरूवणा [२५१ आममो सिद्धंतो सुदणाणमिदि एयहो । अत्रोपयोगी श्लोकः-- पूर्वापरविरुद्धादेयंपेतो दोषसंहतेः ।। द्योतकः सर्वभावानामाप्तव्याहृतिरागमः ॥ ९१ ।। एदम्हादो आगमादो जं तं दव्वं तमागमदव्वं, तस्स कदी आगमदव्वकदी णाम । आगमादण्णो णोआगमो । तदो जं दव्वं तण्णोआगमदव्वं, तस्स कदी णोआगम [ दव्वकदी णाम । एवं ] दव्वकदीए दुविहत्तं परूविय आगमवियप्पपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि जा सा आगमदो दव्वकदी णाम तिस्से इमे अट्ठाहियारा भवंति-द्विदं जिदं परिजिदं वायणोपगदं सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । एवं णव अहियारा आगमस्स होति ॥ ५४॥ तत्थ द्विदस्स आगमस्स सरूवपरूवणा कीरदे- अवधृतमात्रं स्थितम् , जो पुरिसो ___आगम, सिद्धान्त व श्रुतक्षान, इन शब्दोंका एक ही अर्थ है। यहां उपयोगी श्लोक जो आप्तवचन पूर्वापरंविरुद्ध आदि दोषोंके समूहसे रहित और सब पदार्थोंका प्रकाशक है वह आगम कहलाता है ॥ ९१॥ इस आगमसे जो द्रव्य है वह आगमद्रव्य है, उसकी कृति आगमद्रव्यकृति कहलाती है। आगमसे भिन्न नोआगम कहा जाता है, उससे जो द्रव्य है वह नोआगमद्रव्य और उसकी कृति नोआगमद्रव्यकृति कहलाती है। इस तरह दो प्रकार कृतिकी प्ररूपणा करके आगमभेदोंके प्ररूपणार्थ उत्तरसूत्र कहते हैं जो वह आगमसे द्रव्यकृति है उसके ये अधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम । इस प्रकार आगमके नौ अधिकार हैं ॥ ५४॥ उनमें स्थित आगमके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हैं- अवधारण किये हुए मात्रका १ से कि तं आंगमओं दव्यावस्त्यं ? जस्स णे आवस्सए ति पदं सिविखतं ठितं जितं मितं परिजित नामसमं घोससमं अहीणक्खरं अणच्चक्खरं अव्वाइद्धक्खरै अक्खलिअं अमिलिअं अवच्चामेलियं पडिपुण्णं पडिपुण्णधोर्स कंठोडविप्पमुक्कं गुरुवायणोवगयं xxx। अनु. टीका सू. १३. Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२] छक्खंडागमे धेयणाखंड [४, १, ५४. भावागमम्मि वुडओ गिलाणो व्व सणि सणिं संचरदि सो तारिससंसकारजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च स्थित्वा वृत्तः द्विदं णाम । नैसर्यवृत्तिर्जितम् , जेण संसकारेण पुरिसो भावागमम्मि अक्खलिओ संचरइ तेण संजुत्तो पुरिसो तब्भावागमो च जिदमिदि भण्णदे । यत्र यत्र प्रश्नः क्रियते तत्र तत्र आशुतमवृत्तिः परिचितम् , क्रमेणोत्क्रमणानुभयेन च भावागमाम्भोधौ मत्स्यवचटुलतमवृत्ति वो भावागमश्च परिचितम् । शिष्याध्यापनं वाचना। सा चतुर्विधा नंदा भद्रा जया सौम्या चेति । पूर्वपक्षीकृतपरदर्शनानि निराकृत्य स्वपक्षस्थापिका व्याख्या नन्दा । युक्तिभिः प्रत्यवस्थाय पूर्वीपरविरोधपरिहारेण तंत्रस्थाशेषार्थव्याख्या भद्रा । पूर्वापरविरोधपरिहारेण विना तंत्रार्थकथनं जया । क्वचित् क्वचित् स्खलितवृत्तेर्व्याख्या सौम्या । एतासां वाचनानामुपगतं नाम स्थित आगम है । अर्थात् जो पुरुष भाव आगममें वृद्ध व व्याधिपीडित मनुष्यके समान धीरे धीरे संचार करता है वह उस प्रकारके संस्कारसे युक्त पुरुष और वह भावागम भी स्थित होकर प्रवृत्ति करनेसे अर्थात् रुक रुक कर चलनेसे स्थित कहलाता है। स्वाभाविक प्रवृत्तिका नाम जित है। अर्थात् जिस संस्कारसे पुरुष भावागममें अस्खलित रूपसे संचार करता है उससे युक्त पुरुष और वह भावागम भी 'जित ' इस प्रकार कहा जाता है। जिस जिस विषयमें प्रश्न किया जाता है उस उसमें शीघ्रतापूर्ण प्रवृत्तिका नाम परिचित है । अर्थात् क्रमसे, अक्रमसे और अनुभय रूपसे भावागम रूपी समुद्र में मछलीके समान अत्यन्त चंचलतापूर्ण प्रवृत्ति करनेवाला जीव और भावागम भी परिचित कहा जाता है। शिष्योंको पढ़ानेका नाम वाचना है। वह चार प्रकार है-नन्दा,भद्रा, जया और सौम्या । अन्य दर्शनोंको पूर्वपक्ष करके उनका निराकरण करते हुए अपने पक्षको स्थापित करनेवाली व्याख्या नन्दा कहलाती है । युक्तियों द्वारा समाधान करके पूर्वापर विरोधका परिहार करते हुए सिद्धान्तमें स्थित समस्त पदार्थों की व्याख्याका नाम भद्रा है। पूर्वापर विरोधके परिहारके विना सिद्धान्तके अर्थोका कथन करना जया वाचना कहलाती है। कहीं कहीं स्खलनपूर्ण वृत्तिसे जो व्याख्या की जाती है वह सौम्या वाचना कही जाती है । इन चार प्रकारकी वाचनाओंको प्राप्त वाचनोपगत कहलाता है । अभिप्राय १ प्रतिषु — बुदओ' इति पाठः । २ कापतो 'च' इति पाठः । ३ तवादित आरभ्य पठनक्रियया यावदन्तं नीतं तच्छिक्षितमुच्यते । तदेवाविस्मरणतश्चेतसि स्थित स्थितत्वात् स्थितमप्रच्युतमित्यर्थः । अनु. टीका सू. १३. ४ परावर्तनं कुर्वतः परेण वा क्वचितू पृष्टस्य यच्छीघमागच्छति तज्जितम् । अनु. टीका सू. १३. ५ परि समन्तात् सर्वप्रकारैर्जितं परिजतम्, परावर्त्तनं कुर्वतो यत् क्रमेणोत्क्रमेण वा समागपतीत्यर्थः । भन. टीका स. १३. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५१.] कदिअणियोगदारे वाचणामुद्धिपरूवणा । २५३ वाचनोपगतं' परप्रत्यायनसमर्थ इति यावत् । एत्थ वक्खाणंतेहि सुतेहि वि दव्व-खेत्त-कालभावसुद्धीहि वक्खाण-पढणवावारो कायव्यो । तत्र ज्वर-कुक्षि-शिरोरोग-दुःस्वप्न-रुधिर-विट्मूत्र-लेपातीसार-पूयस्रावादीनां शरीरे अभावो द्रव्यशुद्धिः । व्याख्यातृव्यावस्थितप्रदेशात् चतसृष्वपि दिक्ष्वष्टाविंशतिसहस्रायतासु विण्मूत्रास्थि-केश-नख-त्वगाद्यभावः षष्ठातीतवाचनातः आरात्पंचेन्द्रियशरीरा स्थि-त्वग्मांसासूक्संबंधाभावश्च क्षेऋशुद्धिः । विद्युदिन्द्रधनुर्ग्रहोपरागाकालवृष्ट्यभ्रगर्जन-जीमूतव्रातप्रच्छाद-दिग्दाह धूमिकापात-सन्यास-महोपवास-नन्दीश्वर-जिनमहिमाघभावः कालशुद्धिः । ___ अत्र कालशुद्धिकरणविधानमभिधास्ये । तं जहा- पच्छिमरत्तिसज्झायं खमाविय यह है कि जो दूसरोंको शान करानेके लिये समर्थ है वह वाचनोपगत है। यहां व्याख्यान करनेवालों और सुननेवालोंको भी द्रव्यशुद्धि, क्षेत्रशुद्धि, कालशुद्धि और भावशुद्धिसे व्याख्यान करने या पढ़नेमें प्रवृत्ति करना चाहिये । उनमें ज्वर, कुक्षिरोग, शिरोरोग, कुत्सित स्वप्न, रुधिर, विष्ठा, मूत्र, लेप, अतीसार और पीवका बहना, इत्यादिकोंका शरीरमें न रहना द्रव्यशुद्धि कही जाती है। व्याख्यातासे अधिष्ठित प्रदेशसे चारों ही दिशाओं में अट्ठाईस हजार [धनुष] प्रमाण क्षेत्रमें विष्ठा, मूत्र, हड्डी, केश, नख और चमड़े आदिके अभावको; तथा छह अतीत वाचनाओंसे (?) समीपमें [या दुरी तक] पंचेन्द्रिय जीवके शरीर सम्बन्धी गीली हड्डी, चमड़ा, मांस और रुधिरके सम्बन्धके अभावको क्षेत्रशुद्धि कहते हैं। विजली, इन्द्र-धनुष, सूर्य-चन्द्रका ग्रहण, अकालवृष्टि, मेघगर्जन, मेघोंके समूहसे आच्छादित दिशायें, दिशादाह, धूमिकापात (कुहरा ), सन्यास, महोपवास, नन्दीश्वरमहिमा और जिनमहिमा, इत्यादिके अभावको कालशुद्धि कहते हैं। ___ यहां कालशुद्धि करनेके विधानको कहते हैं । वह इस प्रकार है- पश्चिम रात्रिके १ गुरुप्रदत्तया वाचनया उपगतं प्राप्तं गुरुवाचनोपगतम्, न तु कणीघाटकेन शिक्षितं न वा पुस्तकात् । स्वयमेवाधीतमिति भावः : अनु. टीका सू. १३. २ अ-काप्रत्योः ‘शहिःस्थि-', आप्रतौ ' शदिद्रिास्थि-' इति पाठः। ३ तिरिपंचिंदिय दव्वे खेते सहिहत्थ पोग्गलाइन्नं । तिकुरत्थ महंतेगा नंगरे बाहिं तु गामस्स ॥xxx क्षेत्रे क्षेत्रतः षष्टिहस्ताभ्यन्तरे परिहरणीयम्, न परतः। xxx (टीका) प्रवचनसारोद्धार गाथा १४६४. ४ प्रतिषु ' -ग्राहोप- ' इति पाठः। ५ दिसदहि-उक्कपडणे विज्ज चक्कासणिंदधणुगं च । दुग्गंध-सज्झ-दुविण-चंद-ग्गह-सूर-राहुजुझं च ॥ कलहादिधूमकेदू धरणीकंपं च अब्भगज्जं च । इच्चेवमाइबहुया सज्झाए वज्जिदा दोसा ॥ मूला. ५, ७७-७८. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४३ छक्खंडागमे वेयणाखंड . [४, १, ५४. बहिं णिक्कलिय पासुवे भूमिपदेसे काओसग्गेण पुव्वाहिमुहो हाइदूण णवगाहापरियट्टणकालेण पुव्वदिसं सोहिय पुणो पदाहिणेण पल्लट्टिय एदेणेव कालेण जम-वरुण-सोमदिसासु सोहिदासु छत्तीसगाहुच्चारणकालेण |३६ असदुस्सासकालेण वा कालसुद्धी समप्पदि १०८।। अवरण्हे वि एवं चेव कालसुद्धी कायवा । णवरि एक्केक्काए दिसाए सत्त-सत्तगाहापरियट्टणेण परिच्छिण्णकाला त्ति णायव्वा । एत्थ सव्वगाहापमाणमट्ठावीस | २८ | चउरासीदिउस्सासा | ८४ | । पुणो अणत्थमिदे दिवायरे खेत्तसुद्धिं कादूण अत्थमिदे कालसुद्धिं पुव्वं व कुज्जा । णवरि एत्थ कालो वीसगाहुच्चारणमेत्तो । २० । सहिउस्सासमेत्तो वा | ६० । अवररत्ते णत्थि वायणा, खेत्तसुद्धिकरणोवायाभावादो । ओहि-मणपज्जवणाणीणं सयलंगसुदधराणमागासट्ठियचारणाणं मेरु-कुलसेलगभट्ठियचारणाणं च अवररत्तियवाचणा वि अस्थि अवगयखेत्तसुद्धीदो । अवगयराग-दोसाहंकारट्ट-रुदज्झाणस्स पंचमहव्वयकलिदस्स तिगुत्तिगुत्तस्स णाण-दसण-चरणादिचारणवड्डिदस्स भिक्खुस्स भावसुद्धी होदि । अत्रोपयोगिश्लोकाः । तद्यथा सन्धिकालमें क्षमा कराकर बाहिर निकल प्राशुक भूमिप्रदेशमें कायोत्सर्गसे पूर्वाभिमुख स्थित होकर नौ गाथाओंके उच्चारणकालसे पूर्व दिशाको शुद्ध करके फिर प्रदक्षिण रूपसे पलटकर इतने ही कालसे दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओंको शुद्ध कर लेनेपर छत्तीस ३६ गाथाओंके उच्चारणकालसे अथवा एक सौ आठ १०८ उच्छ्वासकालसे कालशुद्धि समाप्त होती है । अपरालकालमें भी इसी प्रकार ही कालशुद्धि करना चाहिये। विशेष इतना है कि इस समयकी कालशुद्धि एक एक दिशामें सात सात गाथाओंके उच्चारण कालसे सीमित है, ऐसा जानना चाहिये। यहां सब गाथाओंका प्रमाण अट्ठाईस २८ अथवा उच्छ्वासोंका प्रमाण चौरासी ८४ है । पश्चात् सूर्य के अस्त होनेसे पहिले क्षेत्रशुद्धि करके सूर्यके अस्त हो जाने पर पूर्वके समान कालशुद्धि करना चाहिये । विशेष इतना है कि यहां काल बीस २० गाथाओंके उच्चारण प्रमाण अथवा साठ ६० उच्छवास प्रमाण है। अपररात्र अर्थात् रात्रिके पिछले भागमें वाचना नहीं है, क्योंकि, उस समय क्षेत्रशुद्धि करनेका कोई उपाय नहीं है। अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, समस्त अंगश्रुतके धारक, आकाशस्थित चारण तथा मेरु व कुलाचलोंके मध्य में स्थित चारण ऋषियोंके अपररात्रिक वाचना भी है, क्योंकि, वे क्षेत्रशुद्धिसे रहित हैं, अर्थात् भूमिपर न रहनेसे उन्हें क्षेत्रशुद्धि करने की आवश्यकता नहीं होती । राग, द्वेष, अहंकार, आर्त व रौद्र ध्यानसे रहित; पांच महावतोंसे युक्त, तीन गुप्तियोंसे रक्षित; तथा शान, दर्शन व चारित्र आदि आचारसे वृद्धिको प्राप्त भिक्षुके भावशुद्धि होती है । यहां उपयोगी श्लोक इस प्रकार हैं १ णव-सत्त-पंचगाहापरिमाणं दिसिविभागसोधीए । पुवण्ई अवरण्हे पदोसकाले य सज्झाए । मूला. ५-७६. Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५४.] [२५५ कदिअणियोगहारे वाचणासुद्धिपरूवणा यमपटहरवश्रवणे' रुधिररावेऽगतोऽतिचारे च । दातृष्वशुद्धकायेषु भुक्तवति चापि नाध्येयम् ॥ ९२ ॥ तिलपलल-पृथुक-लाजा-पूपादिस्निग्धसुरभिगंधेषु । भुक्तेषु भोजनेषु च दावाग्निधूमे च नाध्येयम् ॥ ९३ ॥ योजनमण्डलमात्रे सन्यासविधौ महोपवासे च। आवश्यकक्रियायां केशेषु च लुच्यमानेषु ॥ ९४ ॥ सप्तदिनान्यध्ययनं प्रतिषिद्धं स्वर्गगते श्रमणसूरौ । योजनमात्रे दिवसत्रितयं त्वतिदूरतो दिवसम् ॥ ९५ ॥ प्राणिनि च तीव्रदुःखान्म्रियमाणे स्फुरति चातिवेदनया । एकनिवर्तनमात्रे तिर्यक्षु चरत्सु च न पाठ्यम् ॥ ९६ ॥ तावन्मात्रे स्थावरकायक्षयकर्मणि प्रवृत्ते च । क्षेत्राशुद्धौ दूराद् दुग्गंधे वातिकुणपे वा ॥ ९७ ॥ यमपटहका शब्द सुननेपर, अंगसे रक्तस्रावके होनेपर, अतिचारके होनेपर, तथा दाताओंके अशुद्धकाय होते हुए भोजन कर लेनेपर स्वाध्याय नहीं करना चाहिये ॥ ९॥ तिलमोदक, चिउड़ा, लाई और पुआ आदि चिक्कण एवं सुगन्धित भोजनोंके खानेपर तथा दावानलका धुआं होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥९३ ॥ __ एक योजनके घेरेमें सन्यासविधि, महोपवासविधि, आवश्यकक्रिया एवं केशोंका लौंच होनेपर तथा आचार्यका स्वर्गवास होनेपर सात दिन तक अध्ययनका प्रतिषेध है। उक्त घटनाओंके योजन मात्रमें होनेपर तीन दिन तक तथा अत्यन्त दूर होनेपर एक दिन तक अध्ययन निषिद्ध है ॥ ९४-१५॥ प्राणीके तीव दुःखसे मरणासन्न होनेपर या अत्यन्त वेदनासे तड़फड़ानेपर तथा एक निवर्तन (एक बीघा या गुंठा) मात्रमें तिर्यचोंका संचार होनेपर अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥ ९६॥ उतने मात्र स्थावरकाय जीवोंके घात रूप कार्यमें प्रवृत्त होनेपर, क्षेत्रकी अशुद्धि होनेपर, दूरसे दुर्गन्ध आनेपर अथवा अत्यन्त सड़ी गन्धके आनेपर, ठीक अर्थ समझमें न २ प्रतिषु ' श्रवणसूरौ ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' स्रवणे' इति पाठः । ३प्रतिषु ' याग्यं ' इति पाठः । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ५४. विगतार्थागमने' वा स्वशरीरे शुद्धिवृत्तिविरहे वा । नाध्येयः सिद्धान्तः शिवसुखफलमिच्छता वतिना ॥ ९८ ॥ प्रमितिररत्निशतं स्यादुच्चारविमोक्षणक्षितेरारात् । तनुसलिलमोक्षणेऽपि च पंचाशदरनिरेवातः ॥ ९९ ॥ मानुषशरीरलेशावयवस्याप्यत्र दण्डपंचाशत् । संशोध्या तिरश्चां तदर्द्धमात्रैव भूमिः स्यात् ॥१०० ।। व्यन्तरभेरीताडन-तत्पूजासंकटे कर्षणे वा । संमृक्षण-संमार्जनसमीपचाण्डालबालेषु ॥ १०१ ।। अग्निजलरुधिरदीपे मांसास्थिप्रजनने तु जीवानां । क्षेत्रविशुद्धिर्न स्याद्यथोदितं सर्वभावः ॥ १०२॥ क्षेत्रं संशोध्य पुनः स्वहस्तपादौ विशोध्य शुद्धमनाः । प्राशुकदेशावस्थो गृह्णीयाद् वाचनां पश्चात् ॥ १०३ ॥ आने पर (?) अथवा अपने शरीरके शुद्धिसे रहित होनेपर मोक्षसुखके चाहनेवाले व्रती पुरुषको सिद्धान्तका अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥ ९७-९८ ॥ मल छोड़नेकी भूमिसे सौ अरनि प्रमाण दूर, तनुसलिल अर्थात् मूत्रके छोड़नमें भी इस भूमिसे पचास अरनि दूर, मनुष्यशरीरके लेशमात्र अवयवके स्थानसे पचास मनुष, तथा तिर्यंचोंके शरीरसम्बन्धी अवयवके स्थानसे उससे आधी मात्र अर्थात् पच्चीस धनुष प्रमाण भूमिको शुद्ध करना चाहिये ॥ ९९-१०० ॥ व्यन्तरोंके द्वारा भेरीताड़न करनेपर, उनकी पूजाका संकट होनेपर, कर्षणके होनेपर, चाण्डालबालकोंके समीपमें झाड़ा-वुहारी करनेपर; अग्नि, जल व रुधिरकी तीव्रता होनेपर; तथा जीवोंके मांस व हड्डियोंके निकाले जानेपर क्षेत्रकी विशुद्धि नहीं होती जैसा कि सर्वज्ञोंने कहा है ॥ १०१-१०२ ॥ क्षेत्रकी शुद्धि करने के पश्चात् अपने हाथ और पैरोंको शुद्ध करके तदनन्तर विशुद्ध मन युक्त होता हुआ प्राशुक देशमें स्थित होकर वाचनाको ग्रहण करे ॥ १०३ ॥ १ प्रतिषु विनतार्थागमने' इति पाठः । २ प्रतिषु 'संशोध्या' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' -देशावस्था ' इति पाठः। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५४.] [२५७ कदिअणियोगहारे वायणासुद्धिपरूवणा युक्त्या समधीयानो वक्षणकक्षाद्यमस्पृशन् स्वाङ्गम् । यत्नेनाधीत्य पुनर्यथाश्रुतं वाचनां मुंचेत् ॥ १०४ ॥ तपसि द्वादशसंख्ये स्वाध्यायः श्रेष्ठ उच्यते सद्भिः। अस्वाध्यायदिनानि ज्ञेयानि ततोऽत्र विद्वद्भिः ॥ १०५॥ पर्वसु नन्दीश्वरवरमहिमादिवसेषु चोपरागेषु ।। सूर्याचन्द्रमसोरपि नाध्येयं जानता वतिना ॥ १०६ ॥ अष्टम्यामध्ययनं गुरु-शिष्यद्वयवियोगमावहति । कलहं तु पौर्णमास्यां करोति विप्नं चतुर्दश्याम् ॥ १० ॥ कृष्णचतुर्दश्यां यद्यधीयते साधवो ह्यमावस्याम् । विद्योपवासविधयो विनाशवृत्तिं प्रयान्त्यशेषं सर्वे ।। १०८ ॥ मध्याहे जिनरूपं नाशयति करोति संध्ययोाधिम् । तुष्यन्तोऽप्यप्रियतां मध्यमरात्रौ समुपयान्ति ॥ १०९ ॥ वाजू और कांख आदि अपने अंगका स्पर्श न करता हुआ उचित रीतिसे अध्ययन करे और यत्नपूर्वक अध्ययन करके पश्चात् शास्त्रविधिसे वाचनाको छोड़ दे ॥ १०४ ॥ साधु पुरुषोंने बारह प्रकारके तपमें स्वाध्यायको श्रेष्ठ कहा है। इसीलिये विद्वानोंको स्वाध्याय न करनेके दिनोंको जानना चाहिये ॥ १०५ ॥ पर्वदिनों (अष्टमी व चतुर्दशी आदि), नन्दीश्वरके श्रेष्ठ महिमदिवसों अर्थात् अष्टाह्निक दिनों में और सूर्य-चन्द्रका ग्रहण होनेपर विद्वान् व्रतीको अध्ययन नहीं करना चाहिये ॥१०॥ अष्टमीमें अध्ययन गुरु और शिष्य दोनोंके वियोगको करता है। पूर्णमासीके दिन किया गया अध्ययन कलह और चतुर्दशीके दिन किया गया अध्ययन विघ्नको करता है ॥ १०७॥ यदि साधु जन कृष्ण चतुर्दशी और अमावस्याके दिन अध्ययन करते हैं तो विद्या और उपवासविधि सब विनाशवृत्तिको प्राप्त होते हैं ॥ १०८ ॥ मध्याह्न कालमें किया गया अध्ययन जिनरूपको नष्ट करता है, दोनों संध्याकालों में किया गया अध्ययन व्याधिको करता है, तथा मध्यम रात्रिमें किये गये अध्ययनसे अनुरक्त जन भी द्वेषको प्राप्त होते हैं ॥ १०९ ॥ १ प्रतिषु — वंक्षण- ' इति पाठः । छ, क३३. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८] [४, १, ५१. छक्खंडागमे वेयणाखंड अतितीव्रदुःखितानां रुदतां संदर्शने समीपे च ।। स्तनयित्नुविद्युदभ्रेष्वतिवृष्ट्या उल्कनिर्घाते ॥ ११०॥ प्रतिपद्येकः पादो ज्येष्ठामूलस्य पौर्णमास्यां तु । सा वाचनाविमोक्षे छाया पूर्वाह्नवेलायाम् ॥ १११ ॥ सैवापराह्नकाले वेला स्याद्वाचनाविधौ विहिता । सप्तपदी पूर्वाह्नापरायोग्रहण-मोक्षेषु ॥ ११२ ॥ ज्येष्ठामूलात्परतोऽप्यापौषाव्यंगुला' हि वृद्धिः स्यात् । मासे मासे विहिता क्रमेण सा वाचनाछाया ॥ ११३ ॥ एवं क्रमप्रवृद्धया पादद्वयमत्र हीयते पश्चात् । पौषादाजभेष्ठान्ताद् द्वयंगुलमेवेति विज्ञेयम् ॥ ११४ ॥ __ अतिशय तीव्र दुखसे युक्त और रोते हुए प्राणियोंको देखने या समीपमें होनेपर मेघोंकी गर्जना व विजलीके चमकनेपर और अतिवृष्टिके साथ उल्कापात होनेपर [अध्ययन नहीं करना चाहिये ] ॥ ११०॥ जेठ मासकी प्रतिपदा एवं पूर्णमासीको पूर्वाह्न कालमें वाचनाकी समाप्तिमें एक पाद अर्थात् एक वितस्ति प्रमाण [जांघोंकी] वह छाया कही गई है। अर्थात् इस समय पूर्वाल कालमें बारह अंगुल प्रमाण छायाके रह जानेपर अध्ययन समाप्त कर देना चाहिये ॥१११॥ वही समय (एक पाद ) अपराह्नकालमें वाचनाकी विधिमें अर्थात् प्रारम्भ करनेमें कहा गया है। पूर्वाह्नकालमें वाचनाका प्रारम्भ करने और अपराह्नकालमें उसके छोड़नेमें सात पाद (वितस्ति) प्रमाण छाया कही गई है ( अर्थात् प्रातःकाल जब सात पाद छाया हो जावे तब अध्ययन प्रारम्भ करे और अपराह्नमें सात पाद छाया रहजानेपर समाप्त करे)॥ ११२॥ ज्येष्ठ मासके आगे पौष मास तक प्रत्येक मासमें दो अंगुल प्रमाण वृद्धि होती है। यह क्रमसे वाचना समाप्त करनेकी छायाका प्रमाण कहा गया है ।। ११३ ॥ इस प्रकार क्रमसे वृद्धि होनेपर पौष मास तक दो पाद हो जाते हैं। पश्चात् पौष माससे ज्येष्ठ मास तक दो अंगुल ही क्रमशः कम होते जाते हैं, ऐसा जानना चाहिये १ प्रतिषु ' -प्यापौषादयंगुला ' इति पाठः । २ प्रतिषु ‘पौषाद्याज्येष्ठान्ता' इति पाठः। ३ सज्झाये पढ़वणे जंघच्छायं वियाण सत्तपयं । पुव्वण्हे अवरण्हे तावादियं चेव गिट्ठवणे ॥ आसादे दुपदा छाया पुस्समासे चतुप्पदा । वड्ढदे हीयदे चावि मासे मासे दुअंगुला ॥ मूला. ५, ७४-७५. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, १, ५४.] कदिअणियोगहारे आगमस्स णव अस्थाहियारा [२५९ दव्यादिवदिक्कमणं करेदि सुत्तत्थसिक्खलोहेण । असमाहिमसज्झायं कलह वाहिं वियोगं च ॥ ११५॥ विणरण सुदमधीत किह वि पमादेण होइ विस्सरिदं । तमुवट्टादि परभवे केवलणाणं च आवहदि ॥ ११६ ॥ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् गूढनिर्णयम् । निर्दोष हेतुमत्तथ्यं सूत्रमिच्युते बुधैः ।। ११७ ॥) इदि वयणादो तित्थयरवयणविणिग्गयषीजपदं सुत्तं । तेण सुत्तेण समं वदि उप्पज्जदि त्ति गणहरदेवम्मि ह्रिदसुदणाणं सुत्तसमं । अर्यते परिच्छिद्यते गम्यते इत्यर्थों द्वादशांगविषयः, तेण अत्थेण समं सह वट्टदि त्ति अत्थसमं । दव्वसुदाइरिए अणवेक्खिय संजमजणिदसुदणाणावरणक्खओवसमसमुप्पण्णबारहंगसुदं संयंबुद्धाधारमत्थसममिदि वुत्तं होदि । गणहर सूत्र और अर्थकी शिक्षाके लोभसे किया गया द्रव्यादिकका अतिक्रमण असमाधि अर्थात् सम्यक्त्वादिकी विराधना, अस्वाध्याय अर्थात् शास्त्रादिकोंका अलाभ, कलह, व्याधि और वियोगको करता है ॥ ११५ ॥ विनयसे पढ़ा गया श्रुत यदि किसी प्रकार भी प्रमादसे विस्मृत हो जाता है तो परभवमे वह उपस्थित हो जाता है और केवलज्ञानको भी प्राप्त कराता है ॥ ११६॥ जो थोड़े अक्षरोसे संयुक्त हो, सन्देहसे रहित हो, परमार्थ सहित हो, गृढ़ पदार्थों का निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्ति युक्त हो और यथार्थ हो उसे पण्डित जन सूत्र कहते हैं ॥ ११७ ॥ इस वचनके अनुसार तीर्थंकरके मुखसे निकला बीजपद सूत्र कहलाता है। उस सूत्रके साथ चूंकि रहता अर्थात् उत्पन्न होता है, अतः गणधर देवमें स्थित श्रुतज्ञान सूत्रसम कहा गया है। जो' अर्यते ' अर्थात् जाना जाता है वह द्वादशांगका विषयभूत अर्थ है । उस अर्थके साथ रहनेके कारण अर्थसम कहलाता है। द्रव्यश्रुत आचार्योंकी अपेक्षा न करके संयमसे उत्पन्न हुए श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे जन्य स्वयंबुद्धोंमें रहनेवाला द्वादशांगभुत अर्थसम है, यह अभिप्राय है । गणधर देवसे रचा गया द्रव्यश्रुत ग्रन्थ कहा १ प्रतिषु । असमाहियसझायां ' इति पाठः । २ मूला. ४, १७१. ३ मूला. ५, ८९. ४ सुसं गणधरकथिदं तहेव पत्तेयबुद्धि कथिद च । सुदकेवलिणा कधिदं अभिण्णदसपुस्विकधिदं च ॥ मूली. ५, ८०. अप्पगंथमहत्थं बचीसादोसविरहियं जं च । लक्खणजुत्तं सुत्तं अहेहि च गुणेहि उववेयं ॥ आव. सू. ८८०. अप्पक्खरम संदिर सारवं विस्सओमुह । अत्थोभमणवज्जं च सुत्तं सव्वण्णुभासियं ॥ आव. सू. ८८६. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०1 छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ५४. देवविरइददव्वसुदं गंथो, तेण सह वदि उप्पज्जदि त्ति बोहियबुद्धाइरिएसु ट्ठिदवारहंगसुदणाणं गंथसम । नाना मिनोतीति नाम । अणेगाह पयारेहि अत्थपरिच्छित्तिं णामभेदेण' कुणदि त्ति एगादिअक्खराण बारसंगाणिओगाणं मज्झट्ठिददव्वसुदणाणवियप्पा णाममिदि वुत्तं होदि । तेण णामेण दव्वसुदेण समं सह वट्टदि उप्पज्जदि त्ति सेसाइरिएसु ह्रिदसुदणाणं णामसम । अणियोगो य नियोगो भास विहासा य वट्टिया चेव । एदे अणियोगस्स दु णामा एयट्ठया पंच ॥ ११८ ॥ सृई मुद्दा पडिघो संभवदल-वट्टिया' चेव । अणियोगणिरुत्तीए दिटुंता होंति पंचैते ॥ ११९ ॥) इदि वयणादो अणियोगस्स घोससण्णो णामेगदेसेण अणिओगो वुच्चदे। सच्चभामापदेण अवगम्ममाणत्थस्स तदेगदेसभामासदादो वि अवगमादो। कधं दिस॒तसण्णा अंणि जाता है। उसके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होनेके कारण बोधितवुद्ध आचार्यों में स्थित द्वादशांग श्रुतज्ञान ग्रन्थसम कहलाता है । 'नाना मिनोति' अर्थात् नाना रूपसे जो जानता है उसे नाम कहते हैं; अर्थात् अनेक प्रकारोंसे अर्थज्ञानको नामभेद द्वारा करनेके कारण एक आदि अक्षरों स्वरूप बारह अंगोंके अनुयोगोंके मध्यमें स्थित द्रव्य श्रुतज्ञानके भेद नाम है, यह अभिप्राय है । उस नामके अर्थात् द्रव्यथुतके साथ रहने अर्थात् उत्पन्न होनेके कारण शेष आचार्यों में स्थित श्रुतज्ञान नामसम कहलाता है। __ अनुयोग, नियोग, भाषा, विभाषा और वर्तिका, ये पांच अनुयोगके समानार्थक नाम हैं ॥ ११८॥ अनुयोगकी निरुक्तिमें सूची, मुदा, प्रतिघ, सम्भवदल और वर्तिका, ये पांच दृष्टान्त हैं ॥ ११९ ॥ (देखिये पु. १, पृ. १५४ ) । इस वचनसे घोष संज्ञावाला अनुयोगका अनुयोग (घोषानुयोग ) नामका एक सोनेसे अनयोग कहा जाता है, क्योंकि, सत्यभामा पदसे अवगम्यमान अर्थ उक्त पदके एक देशभूत भामा शब्दसे भी जाना ही जाता है । शंका-अनुयोगकी दृष्टान्त संशा कैसे सम्भव है ? ५ प्रतिषु णाणभेदेन ' इति पाठः । २ नाम अभिधानम्, तेन समं नामसमम् । इदमुक्तं भवति--- यथा स्वनाम कस्यचिच्छिक्षितं जितं मितं परिजितं भवति तथैतदपीत्यर्थः । अनु. टीका सू. १३. ३ प्रतिषु सम्भवदअवट्ठिया' इति पाठः। ४ ष.खं. पु.१, पृ.१५४, ५ प्रतिषु 'घोससण्णामेगदसण' इति पाठः। ६ प्रतिषु 'वुच्चदे ण च सच्चभामापदेणं' इति पाठः। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५४. कंदिअणियोगद्दारे आगमस्स णव अस्थाहियारा (२६१ ओगस्स ? उवमेये उवमाणावयारादो । घोसेण दव्वाणिओगद्दारेण समं सह वदि उप्पज्जदि त्ति घोससमं णाम अणियोगसुदणाणं । विभक्त्यन्तभेदेन पढनं सूत्रसमम् , कारकभेदेनार्थसमम् , विभक्त्यन्ताभेदेन ग्रन्थसमम् । लिंगत्तिय वयणसमं अवणिदुवण्णिदमिस्सयं चेव । अझत्थं च बहित्थं पचक्खपरोक्ख सोलसिमे ॥ १२० ।) एदेहि सोलसवयणेहि पढणं णामसमं । उदात्त-अणुदात्त-सरिदसरभेएण पढणं घोससममिदि के वि आइरिया परूवेंति । तण्ण घडदे, अणवत्थापसंगादो । कुदो ? विहत्ति-लिंगकारय-काल-पच्चक्ख-परोक्खज्झत्थ-बहित्थभेदाभेदेहि सुदणाणस्स अणेयविहत्तप्पसंगादो । ण च लिंगादीहि सुदणाणभेदो होदि, तेहि विणा पढणाणुववत्तीदो। एदे आगमस्स णव अत्याहि समाधान-उपमेयमें उपमानका उपचार करनेसे वह भी सम्भव ही है। अर्थात् अनुयोग उपमेय है और दृष्टान्त उपमान है। उनके इस सम्बन्धके कारण अनुयोगको भी दृष्टान्त संक्षा प्राप्त है। घोष अर्थात् द्रव्यानुयोगद्वारके समं अर्थात् साथ रहता है अर्थात् उत्पन्न होता है, इस कारण अनुयोगश्रुतशान घोषसम कहलाता है। ___विभक्त्यन्तभेदसे पढ़ना सूत्रसम, कारकभेदसे अर्थसम और विभक्त्यन्तके अभेदसे पढ़ना ग्रन्थसम है। [तीनों ] वचनोंके साथ तीन लिंग, अपनीत, उपनीत व मिश्र अर्थात् उदात्त, अनुदात्त व स्वरित (?), अभ्यन्तर, बाह्य, प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये सोलह हैं ॥ १२० ॥ इन सोलह वचनोंसे पढ़ना नामसम है। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरोंके भेदसे पढ़नेका नाम घोषसम है, ऐसा कितने ही आचार्य प्ररूपण करते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर अनवस्थाका प्रसंग आता है; कारण कि इस प्रकार विभक्ति, लिंग, कारक, काल, प्रत्यक्ष, परोक्ष, अभ्यन्तर और बाह्यके भेदाभेदोंसे श्रुतज्ञानके अनेक प्रकार होनेका प्रसंग आता है। और लिंगादिकोंसे श्रुतशानका भेद होता नहीं है, क्योंकि, उनके विना पढ़ना बन नहीं सकता। ये आगमके नौ अर्थाधिकार १ घोषा- उदात्तदियः, तैवाचनाचार्याभिहितघोषैः समं घोषसमम् । यथा गुरुणा अभिहितास्तथा शिष्योऽपि यत्र शिक्षते तद घोषसममिति भावः । अनु. टीका स. १३. २ आ-कामलोः 'विभक्त्यन्तभेदेन ' इति पाठः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ५५. यारा परुविदा । एसो अत्यो पयदकदीए जोजेयव्यो । कधमणियोगस्सणियोगा ? ण, कदीए वि संतादिणाणाणियोगसंभवादो । संपधि एदेसु जो उवजोगो तस्स भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तमागदं - जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टणा वा वा अणुपेक्खणा वा थय-थुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया एदस्सत्थो वुच्चदे-जा तत्थ गवसु आगमेसु वायणा अण्णेसिं भवियाणं जहासत्तीए गंथत्थपरूवणा उवजोगो णाम । तत्थ आगमे अमुणिदत्थपुच्छा वा उवजोगो । आइरियभडारएहि परूविज्जमाणत्थावहारणं पडिच्छणा णाम । सावि उवजोगो । एत्थ सव्वत्थ वासद्दो समुच्चयट्ठो घेत्तव्यो। अविस्सरणटं पुणो पुणो भावागमपरिमलणं परियट्टणा णाम । कहे नये हैं । यह अर्थ प्रकृत कृतिमें जोड़ना चाहिये । शंका-अनुयोगके अनुयोग कैसे सम्भव हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि, कृतिअनुयोगके भी सत् संख्या आदि नाना अनुयोग सम्भव हैं। अब इन आगमोंमें जो उपयोग है उसके भेदोंकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र प्राप्त होता है उन नौ आगमोंमें जो वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति, धर्मकथा तथा और भी इनको आदि लेकर जो अन्य हैं वे उपयोग हैं ॥ ५५ ॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- जो उनं नौ आगमोंमें वाचना अर्थात् अन्य भव्य जीवोंके लिये शक्त्यनुसार ग्रन्थके अर्थकी प्ररूपणा की जाती है वह उपयोग है। वहां आगममें नहीं जाने हुए अर्थके विषयमें पूछना भी उपयोग है। आचार्य भट्टारकों द्वारा कहे जानेवाले अर्थके निश्चय करनेका नाम प्रतीच्छना है। वह भी उपयोग है। यहां सब अगह वा-शब्दको समुच्चयार्थक ग्रहण करना चाहिये। ग्रहण किया हुआ अर्थ विस्मृत न हो जावे, एतदर्थ वार चार भावागमका परिशीलन करना परिवर्तना है। यह भी उपयोग ........................ १ परियणा य वायण पांडच्छणाणुपेहणा य धम्मकहा। थुदिमंगलसंयुक्तः [ संजुत्तो ] पंचविहो होह समाओं । मूला. ५-१९६. xxx से णं तत्थ वायणाए पुच्छणाए परिअणाए थम्मकहाए । नो अशुप्पेहाए। कम्दा ? अव ओगो दव्वमिति कट्टु ॥ अनु. सू. १३. २ अप्रतौ — सो' इति पाठः । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५५.] कदिअणियोगदारे सुदणाणीवजोगा [२५१ एसा' वि उवजोगो। कम्माणिज्जरणट्ठमट्ठि-मज्जाणुगयस्स सुदणाणस्स परिमलणमणुपेक्खणा णाम । एसा वि सुदणाणोवजोगो । बारसंगसंघारो सयलंगविसयप्पणादो थवो णाम । तम्हि जो उवजोगो वायण-पुच्छण-परियट्टणाणुवेक्खणसरूवो सो वि थओवयारेण । बारसंगेसु एक्कंगोवसंघारो थुदी णाम । तम्हि जो उवजोगो सो वि थुदि' त्ति घेत्तव्यो । एक्कंगस्स एगाहियारोवसंहारो धम्मकहा। तत्थ जो उवजोगो सो वि धम्मकहा त्ति घेत्तव्यो। जे च अमी अण्णे एवमादिया त्ति वुत्ते कदि-वेदणादिउवसंघारविसया उवजोगा घेत्तव्वा । उवजोगसदो जदि वि सुत्ते णत्थि तो वि अत्थावत्तीदो अज्झाहारेदव्यो । एवमेदे अट्ट सुदणाणोवजोगा परूविदा। संपहि कदीए अट्ठविहोपजोगपरूवणा कीरदें-- अण्णेसिं जीवाणं कदीए अत्थपरूवणा वायणा । अणवगयत्थपुच्छा पुच्छणा । कहिज्जमाणअत्थावहारणं पडिच्छणा । अविस्सरण8 पुणो पुणो कदिय?परिमलणं परियट्टणा। सांगीभूदकदीए कम्मनिज्जरट्ठमणुसरणमणुवेक्खणा । कदीए उवसंहारस्स सयलाणियोगद्दारेसु उवजोगो थवो णाम । तत्थेगणि है । कर्मोंकी निर्जराके लिए अस्थि मज्जानुगत अर्थात् पूर्ण रूपसे हृदयंगम हुए श्रुतज्ञानके परिशीलन करनेका नाम अनुप्रेक्षणा है। यह भी श्रुतज्ञानका उपयोग है। सब अंगोंके विषयोंकी प्रधानतासे बारह अंगोंके उपसंहार करनेको स्तव कहते हैं। उसमें जो वाचना, पृच्छना, परिवर्तना और अनुप्रेक्षणा स्वरूप उपयोग है वह भी उपचारसे स्तव कहा जाता है। बारह अंगोंमें एक अंगके उपसंहारका नाम स्तुति है। उसमें जो उपयोग है वह भी स्तुति है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । एक अंगके एक अधिकारके उपसंहारका नाम धर्मकथा है । उसमें जो उपयोग है वह भी धर्मकथा है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । 'इनको आदि लेकर और जो वे अन्य है' इस प्रकार कहनेपर कृति व वेदना आदिके उपसंहारविषयक उपयोगोंको ग्रहण करना चाहिये। उपयोग शब्द यद्यपि सूत्रमें नहीं है तो भी अर्थापत्तिसे उसका अध्याहार करना चाहिये। इस प्रकार ये आठ श्रुतज्ञानोपयोग कहे गये हैं। अब कृतिके विषयमें आठ प्रकार उपयोगोंकी प्ररूपणा करते हैं- अन्य जीवोंके लिये कृतिके अर्थकी प्ररूपणा करना वाचना कहलाती है। अज्ञात अर्थक विषयमें पूछनापृच्छना ह। प्ररूपित किये जानेवाले अर्थका निश्चय करनेको प्रतीच्छना कहते हैं। विस्मरण न होने देनेके लिये वार वार कृतिके अर्थका परिशीलन करना परिवर्तना है। सांगीभूत कृतिका कर्मनिर्जराके लिये अनुस्मरण अर्थात् विचार करना अनुप्रेक्षणा कही जाती है। समस्त अनुयोगोंमें कृतिके उपसंहारविषयक उपयोगका नाम स्तव है। कृतिके एक अनुयोगद्वार २ काप्रतौ ' एसो ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' एसो' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' मदि ' इति पाठः। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ५६. योगद्दारुवजोगो थुदी णाम । एगमग्गणोवजोगो धम्मकहा णाम । एवमेदे कदीए अळुवजोगा. परूविदा । सेसं सुगमं । एदेहि वदिरित्तजीवो सुदणाणक्खओवसमसहिओ णट्ठक्खओवसमो वा अणुवजुत्तो णाम । सुत्तम्मि अणुवजुत्तजीवलक्खणमपरूविदं कधं णवदे ? ण, उवजुत्तपरूवणाए तदवगमादो । अणुवजुत्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्ताणि आगयाणि णेगम-ववहाराणमेगो अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी अणेया वा अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी ॥ ५६ ॥ एत्थ पढमो सुत्ताक्यवो घडदें, एगस्साणुवजुत्तो त्ति एगवयणेण णिद्देसादो। ण बिदिओ, अणेयाणमणुवजुत्तो त्ति एगवयणपओगादो ? ण एस दोसो, अणेयाणं पि आगमदव्वकदित्तणेण एयत्तमावण्णाणं एगवयणविसयसंभवेण अणुवजुत्ता त्ति एगवयणणिदेसोववत्तीदो । विषयक उपयोगका नाम स्तुति है। एक मार्गणाविषयक उपयोग धर्मकथा कहलाता है । इस प्रकार ये कृतिके आठ उपयोग कहे गये हैं। शेष प्ररूपणा सुगम है । इन उपयोगोंसे भिन्न श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमसे सहित अथवा नष्ट हुए क्षयोपशमवाला जीव अनुपयुक्त कहलाता है। शंका-सूत्र में अप्ररूपित यह अनुपयुक्त जीवका लक्षण कैसे जाना जाता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उपयुक्त जीवकी प्ररूपणा करनेसे उसका ज्ञान स्वयमेव हो जाता है। अनुपयुक्त जीवकी प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र प्राप्त होते हैं नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा एक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति है अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति हैं ॥ ५६ ॥ शंका-यहां सूत्रका प्रथम अवयव घटित होता है, क्योंकि, उसमें एकके लिये 'अणुवजुत्तो' इस प्रकार एक वचनका निर्देश किया गया है। किन्तु द्वितीय अवयव घटित नहीं होता, क्योंकि, उसमें अनेकोंके लिये अणुवजुत्तो' इस प्रकार एक वचनका प्रयोग किया गया है ? समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, आगमद्रव्यकृति रूपसे एकताको प्राप्त अनेकोंके भी एक वचन विषयके सम्भव होनेसे 'अणुवजुत्तो' ऐसा एक वचनका निर्देश घटित होता ही है । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ५८. ] कदिअणियोगहारे आगमव्वक्रदिपषणा [२१५ संगहणयस्स एयो वा अणेया वा अणुवजुत्तों आगमदो दन्वकदी ॥ ५७॥ एसो संगहिदत्थग्गाहि त्ति संगहणओ भण्णदि । तेणेत्थसंगहपरूवणाए होदव्वमिदि । अस्थि एत्थ संगहो, जादि-वत्तिएयत्तवाचियाणं दोण्णं पि आगमदो दव्वकदीणमेयत्तभुवगमादो । पुबिल्लणएहि एदासिं दोण्णं कदीणमेयत्तं किण्ण इच्छिदं ? जादि-वत्तिगयएगत्ताणमेगाणेयदव्वाहाराणं एगजोग-क्खेमविरहिदाणं एगत्तविरोहादो । एसो णओ पुण संगहणसहाओ जादिव्वत्तिट्टियसंखाणं एगत्तेण भेदाभावादो दोण्णमांगमदो दश्वकदीणं एयत्तमिच्छदे । उजुसुदस्स एओ अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी ॥ ५८॥ अणेया इदि अवत्थु । कधमुज्जुसुदस्स पज्जवडियस्स दव्वसंभवो ? ण, असुद्धम्मि संग्रहनयकी अपेक्षा एक अथवा अनेक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति हैं ॥५७॥ चूंकि यह संगृहीत अर्थों को ग्रहण करता है इसीलिये संग्रहनय कहा जाता है। इसी कारण यहां संग्रहकी प्ररूपणा होना चाहिये । यहां संग्रह है ही, क्योंकि, जाति और व्यक्तिकी एकताकी वाचक दोनों ही आगमसे द्रव्यकृतियोंको एक स्वीकार किया गया है। शंका--पूर्वोक्त नयोंसे इन दोनों कृतियोंको एक क्यों नहीं स्वीकार किया ? समाधान -एक व अनेक द्रव्योंके आश्रित रहनेवाली तथा एक योग-क्षेम (ईप्सित वस्तुका लाभ और उसका संरक्षण ) से रहित जाति व व्यक्तिगत एकताओंकी एकताका विरोध होनेसे उक्त नयोंसे उन दोनों कृतियोंको एक नहीं स्वीकार किया गया। परन्तु यह नय संग्रहण स्वभाव होता हुआ जाति व व्यक्तिगत संख्याओंके एकताकी अपेक्षा कोई भेद न होनेसे दोनों आगमद्रव्यकृतियोंकी एकताको स्वीकार करता है। ऋजुसूत्रकी अपेक्षा एक अनुपयुक्त जीव आगमसे द्रव्यकृति है ॥ ५८ ॥ इस नयकी दृष्टिमें अनेक ' अवस्तु है।। शंका- पर्यायार्थिक ऋजुसूत्रके द्रव्यकी सम्भावना कैसे हो सकती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अशुद्ध ऋजुसूत्रनयमें द्रव्यकी सम्भावनाके प्रति कोई १ प्रतिषु ' अणुवजुत्तो वा ' इति पाठः। २ अप्रती जादिव्वद्विदिसंखाणं', आ-कापत्योः । जादिव्वट्टियसंखाणं ' इति पाठः । क.क. ३४. Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ छक्खंडागमे यणाखंड [१, १, ५९. दव्वसंभवं पडि विरोहाभावादो। उजुसुदे किमिदि अणेयसंखा णस्थि ? एयसहस्स एयपमाणस्स य एगत्थं मोत्तूण अणेगत्थेसु एक्ककाले पवुत्तिविरोहादो । ण च सद्द-पमाणाणि बहुसत्तिजुत्ताणि अस्थि, एक्कम्हि विरुद्धाणेयसत्तीण संभवविरोहादो एयसंखं मोत्तूण अणेयसंखाभावादो वा। सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ ५९॥ कुदो ? एदस्स विसए दव्वाभावादो। सा सव्वा आगमदो दव्वकदी णाम ॥ ६०॥ सा सव्वा इदि वयणेण पुव्वुत्तासेसकदीणं गहण कायव्वं । कथं बहूणमेगवयणणिदेसो १ ण एस दोसो, बहूणं पि कदित्तणेण एगत्तमावण्णाणमेगवयणणिद्देसोववत्तीदो । विरोध नहीं है। शंका-ऋजुसूत्रनयमें अनेक संख्या क्यों नहीं सम्भव है ? समाधान - चूंकि इस नयकी अपेक्षा एक शब्द और एक प्रमाणकी एक अर्थको छोड़कर अनेक अर्थों में एक कालमें प्रवृत्तिका विरोध है, अतः उसमें अनेक संख्या सम्भव नहीं है । और शब्द व प्रमाण बहुत शक्तियोंसे युक्त हैं नहीं, क्योंकि, एकमें विरुद्ध अनेक शक्तियोंके होनेका विरोध है, अथवा एक संख्याको छोड़ अनेक संख्याओंका यहां अभाव है। शब्दनयकी अपेक्षा अवक्तव्य है ॥ ५९ ॥ इसका कारण शब्दनयके विषयमें द्रव्यका अभाव है। वह सब आगमसे द्रव्यकृति कहलाती है ॥ ६० ॥ 'वह सब ' इस वचनसे पूर्वोक्त समस्त कृतियोंका ग्रहण करना चाहिये । शंका-बहुत कृतियों के लिये एक वचनका निर्देश कैसे किया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कृतिस्वरूपसे अभेदको प्राप्त बहुत कृतियोंके लिये भी एक वचनका निर्देश युक्तिसंगत है। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६१. फेदि अणियोगद्दारे णोआगमदव्वकदिपरूवणा [ २६७ जा सा णोआगमदो दव्वकदी णाम सा तिविहा- जाणुगसरीरदव्वकदी भवियदव्वकदी जाणुगसरीर-भवियवदिरित्तदव्वकदी चेदि ॥ ६१ ॥ जा सा णोआगमदो दव्वकदि त्ति वयणेण पुत्रवुद्दिट्ठा णोआगमदो दव्वकदी संभालिदा अत्थपरूवणङ्कं । जाणयस्स सरीरं जाणयसरीरं । कस्स जाणओ ? कदिपाहुडस्स । कदं वदे ? पयरणवसादो । तदेव दव्वकदी जाणुगसरीरदव्वकदी । भविस्सदि त्ति भविया । Par भविस्सदि ? कदिपज्जाएण | कुदो णव्वदे ? पयरणादो । सा चैव दव्वकदी भवियदव्वदी । तर्हित। वदिरित्ता तव्वदिरित्ता, [ सा चैव दव्वकदी ] तव्वदिरित्तदव्वकदी | जो वह नोआगमसे द्रव्यकृति है वह तीन प्रकार है- ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति, भाबी द्रव्यकृति और ज्ञायकशरीर - भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति ॥ ६१ ॥ ' जो वह नोआगमसे द्रव्यकृति है ' इस वचनसे पूर्वोद्दिष्ट नोआगमसे द्रव्यकृतिका अर्थप्ररूपणा के लिये स्मरण कराया गया है । शायकका शरीर शायकशरीर है । शंका- किसका ज्ञायक ? समाधान - कृतिप्राभृतका शायक । शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - प्रकरण के सम्बन्धसे वह जाना जाता है । वही ( शायकशरीर स्वरूप ) द्रव्यकृति शायकशरीरद्रव्यकृति कहलाती है । जो आगे होनेवाली है उसका नाम भावी है । शंका- किस रूपसे होनेवाली है ? समाधान - कृतिपर्यायसे होनेवाली है । शंका- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान - वह प्रकरणसे जाना जाता है । -- aft द्रव्यकृति भावी द्रव्यकृति है । इन दोनों कृतियोंसे व्यतिरिक्त तद्व्यतिरिक्त है, तद्व्यतिरिक्त ऐसी जो हाते Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८) खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ६२ः तिष्ण गोआममदव्वकदीण सरूवं भणिय तासि विसेसपरूवणट्ठमुत्तरसुत्त भणदि जा सा जाणुगसरीरदव्वकदी णाम तिस्से इमे अत्थाहियारा भवंति-ट्ठिदं जिद परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं अस्थसमं गंथसम णामसमं घोससमं ॥ ६२॥ तत्थ सणि सणिं सगविसए वट्टमाणो कदिअणियोगो द्विदं णाम । पडिक्खलणेण विणा मंथरगईए सगविसए संचरमाणो कदिअणियोगो जिदं णाम । अइतुरियाए गईए पडिक्खलणेण विणा आइद्धकुलालचक्कं व सगविसए परिब्भमणक्खमो कदिअणियोगो परिजिदं णाम । पत्तणंदादिसरूवं कदिसुदणाणं वायणोवगयं णाम । जिणवयणविणिग्गयबीजपदादो भणंतत्थावगहणेण अपक्खरणिदेसत्तणेण य पत्तसुत्तणामादो गणहरदेवेसुप्पण्णकदिअणिओगो सुत्तेण सह वुत्तीदो सुत्तसमं । गंथ-बीजपदेहि विणा संजमवलेण केवलणाणं व सयंबुद्धसुप्पण्णकदिअणियोगो अत्थेण सह वुत्तीदो अत्थसमं णाम । अरहंतवुत्तत्थो गणहरदेवगंथिओ सद्दकलावो गंथो णाम । तत्तो समुप्पणो भद्दबाहुआदिथेरेसु वट्टमाणो कदिअणियोगो गंधेण सह वह तद्व्यतिरिक्तकृति है। अब तीन नोआगमकृतियोंका स्वरूप कहकर उनकी विशेष प्ररूपणाके लिये उत्तर सूत्र कहते हैं ___ जो वह ज्ञायकशरीर द्रव्यकृति है उसके ये अधिकार हैं- स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ॥ ६२ ।। उनमें से धीरे धीरे अपने विषयमें वर्तमान कृतिअनुयोग स्थित कहलाता है । बिना रुकावटके मन्द गतिसे अपने विषयमें संचार करनेवाला कृतिअनुयोग जित कहलाता है। रुकावटके विना अति शीघ्र गतिसे घुमाए हुए कुम्हारके चक्रके समान अपने विषयमें जो संचार करने में समर्थ है वह कृतिअनुयोग परिजित है। नन्दा आदिके स्वरूपको प्राप्त कृतिश्रुतशान का नाम घाचनोपगत है। अनन्त पदार्थों का ग्रहण करने और अक्षरनिर्देशसे राहत होने के कारण सूत्र नामको प्राप्त हुए जिन भगवान के मुखसे निकले पीजपदसे गणधर देवोंमें उत्पन्न हुआ कृतिअनुयोग सूत्रके साथ रहनेसे सूत्रसम कहा जाता है। प्रस्थ और बीजपदोंके विना संयमके प्रभावसे केवलज्ञानके समान स्वयंबुद्धों में उत्पन्न कृतिअनुयोग अर्थके साथ रहनेसे अर्थसम कहलाता है। अरहन्त देवके द्वारा जिसका अर्थ कहा गया है तथा जो गणधरोंसे गूंथित है ऐसे शब्दकलापको ग्रन्थ करते हैं। उससे उत्पन्न हुआ भद्रबाहु आदि स्थघिरोंमें रहनेवाला कृतिअनुयोग प्रत्यके १ प्रतिषु · वायगोवकदं' इति पाठः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६३.] कदिअणियोगद्दारे णोआगमदवकदिपरूषणा बुत्तीदो गंथसमं णाम । बुद्धिविहूणपुरिसभेदेण एगक्खरादीहि ऊणकदिअणियोगो गाणा मिणोदीदि वुप्पत्तीदो णाममिदि भण्णदे । तेण सह वट्टमाणो भावकदिअणियोगो णामसमं णाम । तस्स कदिअणिओगद्दारस्स एमाणियोगो घोसो । तत्तो समुप्पण्णो कदिअणिओगो तत्तो असमुप्पंज्जिय एदेण समो वि घोससमो । एवं णवविहो कदिअणिओगो परुविदो । जाणया वि एत्तिया चेव, दोण्हं भेदाभावादो । तस्स कदिपाहुडजाणयस्स चुद-चइद-चत्तदेहस्स इमं सरीरमिदि सा सव्वा जाणुगसरीरदव्वकदी णाम ॥ ६३॥ सयमेव आउक्खएण पदिदसरीरो चुददेहो णाम । उवसग्गेण पादिदसरीरो कदिपाहुडजाणओ साहू चइददेहो णाम । भत्तपच्चक्खाणिगिणि-पाओवगमणविहाणेहि छंडिदसरीरो साहू कदिप्पाहुडजाणओ चत्तदेहो णाम' । एदेसिं कदिपाहुडजाणयाणं चुद-चइद-चत्तदेहाणं साथ रहनेसे ग्रन्थसम कहलाता है। बुद्धिविहीन पुरुषोंके भेदसे एक-दो अक्षर आदिकोंसे हीन कृतिअनुयोग 'नाना मिनोति' अर्थात् जो नाना अर्जको ग्रहण करता है, इस व्युत्पत्तिके अनुसार 'नाम' कहा जाता है। उसके साथ रहनेवाले भावकृतिअनुयोगको नामसम कहते हैं। उस कृतिअनुयोगद्वारका एक अनुयोग घोष कहलाता है। उससे उत्पन्न कृतिअनुयोगको और उससे न उत्पन्न होकर उसके समान भी कृतिअनुयोगको घोषसम कहते है । इस तरह नौ प्रकार कृतिअनुयोगकी प्ररूपणा की है । शायक भी इतने ही हैं, क्योंकि, उन दोनों में कोई भेद नहीं है। च्युत, च्यावित और त्यक्त देहवाले उस कृतिप्राभृतज्ञायकका यह शरीर है, ऐसा समझकर वह सब ज्ञायकशरीरद्रव्यकृति कहलाती है ॥ ६३ ॥ आयुके क्षयसे स्वयं ही गिरे हुए (निर्जीव हुए. ) शरीरवाला शायक जीव व्युतदेह कहलाता है । उपसर्गसे गिराये गये शरीरवाला कृतिप्राभृतका जानकार साधु च्यावितदेह कहा जाता है। भक्तप्रत्याख्यान, इंगिनि और प्रायोपगमन विधानसे शरीरको छोड़नेवाला कृतिप्राभृतका जानकार साधु त्यक्तदेह कहा जाता है। च्युत, च्यावित और त्यक्त १जाणुगसरीर भत्रियं तव दिरित्तं तु हादि जं बिदिये । तत्थ सरीर तिविह तियकालगयं ति दो सुगमा ।। भूदं तु चुदं चइदं चदं ति तेधा xxx। गो. क. ५५-५६. से किं तं जाणयसरीरदब्वावस्सयं ? आवस्सए ति पयत्याहिगारजागयस्स जे सरीरयं ववगदन्त-चावित-चत्तदेहं xxxअनु. सू. १६. २xxx चुदं सपाकेण | पडिदं कदलीघाद-परिच्चागेणूणयं होदि ॥ गो. क. ५६. ३ कदलीचादसमेदं चागविहीणं तु चइदमिदि होदि। घादेण अघादेण व पडिदं चागेण समिदि॥ गो. क. ५८. Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० खंडागमे वैयणाखंड [., १, ११. इमं सरीरमिदि कटु ताणि सव्वसरीराणि जाणुगसरीरदव्वकदी णाम । कथं सरीराणं णोआगमदवकदिव्ववएसो ? आधारे आधेओवयारादो । जदि एवं तो सरीराणमागमत्तमुवयारेण किण्ण वुच्चदे ? आगम-णोआगमाणं भेदपदुप्पायणटुं ण' बुच्चदे पओजणाभावादो च । भवियवट्टमाणजाणुगसरीरणोआगमदव्वकदीओ सुत्ते केण णपण ण वुत्ताओ? सरीर-सरीरीणमभेदपण्णावएण । कधं सरीरादो सरीरी अभिण्णो ? सरीरदाहे जीवे दाहोवलंभादो, सरीरे भिज्जमाणे छिज्जमाणे च जीवे वेयणोवलंभादो, सरीरागरिसणे जीवागरिसणसणादो, सरीरगमणागमणेहि जीवस्स गमणागमणदंसणादो, पडियारखंडयाणं व दोण्णं भेदाणुवलंभादो, एगीभूददुद्धोदयं व देहवाले कृतिप्राभृतके शायकोंका यह शरीर है, ऐसा जानकर वे सब शरीर झायकशरीर. द्रव्यकृति कहलाते हैं। शंका-शरीरोंकी नोआगमद्रव्यकृति संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान-चूंकि शरीर नोआगमद्रव्यकृतिके आधार है, अतः आधारमें आधेयका उपचार करनेसे शरीरोंकी उक्त संज्ञा सम्भव है। शंका-यदि ऐसा है तो शरीरोंको उपचारसे आगम क्यों नहीं कहते ? समाधान-~-भागम और नोआगमका भेद बतलानेके लिये तथा कोई प्रयोजन न होनेसे भी शरीरोंको आगम नहीं कहते। शंका-भावी और वर्तमान शायकशरीर नोभागमद्रव्यकृतियोंको सूत्रमें किस नयसे नहीं कहा? समाधान-शरीर और शरीरीका अभेद बतलानेवाले नयसे उन्हें सूत्र में नहीं कहा। शंका-शरीरसे शरीरधारी जीव अभिन्न कैसे है ? समाधान-चूंकि शरीरका दाह होनेपर जीवमें दाह पाया जाता है, शरीरके भेदे जाने और छेदे जानेपर जीवमें वेदना पायी जाती है, शरीरके खींचने में जीवका भाकर्षण देखा जाता है, शरीरके गमनागमनमें जीवका गमनागमन देखा जाता है, प्रत्याकार (म्यान ) और खण्डक (तलवार ) के समान दोनोंके भेद नहीं पाया जाता है, तथा एक रूप हुए दूध और पानीके समान दोनों पक रूपसे पाये जाते हैं। इस कारण १ प्रतिषु णाम ' इति पाठः । २ प्रतिषु इति पाठः। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६..] कदिअणियोगहारे णोआगमदम्बकदिपवणा ।२७१ एगत्तेणुवलंभादो। तदो कदिपाहुडजाणओ चेव सरीरमिदि जाणुगमविय-वट्टमाणसरीराणि आगमदव्वकदीए पविट्ठाणि ति गएण पुध ण वुत्ताओ । जीव-सरीराणं भेदपण्णवणिज्जेण णएण ताओ दो वि कदीओ परूविज्जति । तं जहा- जीवो सरीरादो भिण्णो, अणादि-अणतत्तादो सरीरे सादि-सांतभावदसणादो; सव्वसरीरेसु जीवस्स अणुगमदंसणादो सरीरस्स तदणुवलंभादो; जीव-सरीराणमकारणत्त [-सकारणत्त] दसणादो। सकारणं सरीरं, मिच्छत्तादिआसवफलत्तादो; णिक्कारणो जीवो, जीवभावण धुवत्तादो सरीरदाहच्छेद-भेदे हि जीवस्स तदणुवलंभादो । तेण दो वि कदीओ मंगलादीसु परूविदाओ। जा सा भवियदब्बकदी णाम-जे इमे कदि त्ति अणिओगद्दारा भविओवकरणदाए जो ढिदो जीवो ण तावं तं करेदि सा सव्वा भवियदव्वकदी णाम ॥ ६४ ॥ शरीरसे शरीरधारी अभिन्न है । इस कारण चूंकि कृतिप्राभृतका जानकार जीव ही शरीर है,अतः भावी और धर्त. मान शायकशरीरोंके आगमद्रव्यकृतिमें प्रविष्ट होनेसे [जीव और शरीरके अभेद प्रज्ञापक] नयसे उन्हें पृथक् नहीं कहा। जीव और शरीरके भेदप्रज्ञापनीय नयसे उन दोनों कृतियोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-जीव शरीरसे भिन्न है. क्योंकि, वह अनादि-अनन्त है, परन्त शरीर में सादि-सान्तता पायी जाती है; सब शरीरोंमें जीवका अनुगम देखा जाता है, किन्तु शरीरके जीवका अनुगम नहीं पाया जाता तथा जीव अकारण और शरीर सकारण देखा जाता है। शरीर सकारण है, क्योंकि, वह मिथ्यात्व आदि आनवोंका कार्य है। जीव कारण रहित है, क्योंकि, यह चेतनभावकी अपेक्षा नित्य है, तथा शरीरके दाह, छदन और भेदनसे जीवका दहन, छेदन एवं भेदन नहीं पाया जाता । इसीलिये दोनों ही कृतियोंकी मंगल आदिकोंमें प्ररूपणा की गई है। जो वह भावी द्रव्यकृति है- जो वे कृतिअनुयोगद्वार हैं उनके भविष्यमें होनेवाले उपादान कारण रूपसे जो जीव स्थित होकर उसे उस समय नहीं करता है वह सब भावी नोआगमद्रव्यकृति कहलाती है ॥ ६४ ॥ १ प्रतिषु । भविओवकरणदाए गो यपु ण तात्र' इति पाठः । २ प्रतिषु · भविओ व्वकदी' इति पाठः । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ । खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ६५. एदस्स अत्थो बुच्चदे - 'जे हमे कदि त्ति अणियोगद्दारा ' एदेण बहुवयांतसुत्तावयवेण कदिअणिओगद्दाराणं बहुत्तं परुविदं । तेसिमणिओगद्दाराणमिदि संबंध कायवो, अण्णा अणुवत्तदो । भविओवकरणदाए त्ति उवयरणं कारणं । तं च तिविदं भूदं भवियं वट्टमाणमिदि । तत्थ जो कदिअणिओगद्दाराणं भवियोवकरणदाए भविस्सकाले एदेसिमणिओगद्दाराणमुवायाणकारणदाए जो ट्ठिदो जीवो ण ताव तं करेदि सा सव्वा भवियदव्वकदी णाम । जा सा जाणुगसरीर - भवियवदिरित्तदव्वकदी णाम सा अणयविहा । तं जहा - गंथिम वाइम वेदिम- पूरिम-संघादिम- अहोदिमणिक्खोदिम ओवेल्लिम उव्वेल्लिम वण्ण-चुण्ण-गंधविलेवणादीणि जे चामण्णे एवमादिया सा सव्वा जाणुगसरीर-भवियवदिरित्तदव्यकदी णाम ।। ६५ ।। 6 जा सा जाणुगसरीरभवियवदिरित्तदव्वकदी णाम ' एदं पुव्वुद्दिदुवियप्पसंभालणटुं विदं । तत्थ गंधणकिरियाणिष्फणं फुल्लमादिदव्वं गंथिम णाम । वायणकिरियाणिफण्णं सुप्प-पच्छिया- चंगेरि-किदय - चालणि- कंबल - वत्थादिदव्वं वाइमं णाम । सुत्तिं धुवकोसपल्लादि - इस सूत्र का अर्थ कहते हैं-- ' जो ये कृतिअनुयोगद्वार हैं ' इस बहुवचनान्त सूत्रांशसे कृतिअनुयोगद्वारोंकी अधिकता बतलाई है। यहां 'उन अनुयोगद्वारोंकी ' ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये, क्योंकि, इसके चिना अर्थ नहीं बनता । 'भविओवकरणदाए ' यहां उपकरणका अर्थ कारण है । वह तीन प्रकार हैभूत, भविष्यत् और वर्तमान । उनमें जो कृतिअनुयोगद्वारोंके 'भवियोवकरणदार अर्थात् भविष्य कालमें इन अनुयोगद्वारोंके उपादान कारण स्वरूपसे जो जीव स्थित होता हुआ उस समय उसे नहीं करता है वह सब भावी द्रव्यकृति है । जो वह ज्ञायकशरीर और भावी से भिन्न द्रव्यकृति है वह अनेक प्रकार है । वह इस प्रकार से है -- ग्रन्थिम, वाइम, वेदिम, पूरिम, संघातिम, अहोदिम, णिक्खादिम, ओवेल्लिम, उद्वेल्लिम, वर्ण, चूर्ण, गन्ध और विलेपन आदि तथा और जो इसी प्रकार अन्य हैं वह सच ज्ञायकशरीर- भाविव्यतिरिक्तद्रव्यकृति कही जाती है ।। ६५ ।। ' जो वह ज्ञायकशरीर- भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति है' यह पूर्वोक्त विकल्पोंका स्मरण कराने के लिये प्ररूपणा की है। उनमें गूंथने रूप क्रियासे सिद्ध हुए फूल आदि द्रव्यको ग्रन्थिम कहते हैं । बुनना क्रियासे सिद्ध हुए सूप, टिपारी, चंगेर (एक प्रकारकी बड़ी टोकरी), किदय ( कृतक ? ), चालनी, कम्बल और वस्त्रादि द्रव्य वाहम कहलाते हैं । वेधन क्रिया से Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६५. कदिअणियोगद्दारे णोआगमदव्यकदि परूवणा [२७१ दव्वं वेदणकिरियाणिप्फण्णं वेदिम णाम । तलावालि-जिणहराहिट्ठाणादिदव्वं पूरणकिरियाणिप्फण्णं पूरिमं णाम । कट्टिमजिणभवण-घर-पायार-थूहादिदव्वं कट्ठिय-पत्थरादिसंघादणकिरियाणिप्पणं संघादिमं णाम । णिबंब-जंबु-जंबीरादिदव्वं अहोदिमकिरियाणिप्फण्णमहोदिमं णाम । अहोदिमकिरिया सचित्त-अचित्तदव्वाणं रोवणकिरिए त्ति वुत्तं होदि । पोक्खरिणी-वावी-कूवतलाय-लेण-सुरुंगादिदव्वं णिक्खोदणकिरियाणिप्फण्णं णिक्खोदिमं णाम । णिक्खोदणं खणणमिदि वुत्त होदि । एक्क-दु-तिउणसुत्त-डोरा-वेट्ठादिदव्वमोवेल्लणकिरियाणिप्पण्णमोवेल्लिमं णाम । गंथिम-वाइमादिदव्याणमुवेल्लणेण जाददव्वमुव्वेल्लिमं णाम । चित्तारयाणमण्णेसिं च वण्णुप्पायणकुसलाणं किरियाणिप्पण्णदव्वं णर-तुरयादिबहुसंठाणं वणं णाम । पिट्ठ-पिडियाकणिकादिदव्वं चुण्णणकिरियाणिप्फण्णं चुण्णं णाम । बहूण दव्वाणं संजोगणुप्पाइदगंधपहाणं दव्वं गंधं णाम। घुट्ठ-पिट्ठ-चंदण-कुंकुमादिदव्वं विलेवणं णाम । 'जे च अमी अण्ण एवमादिया' एदेण वयणेण ओहाणत्थुरणादीण दुसंजोगादिदव्वाणं च अस्थित्तं परूविदं होदि । कधमेदेसि सिद्ध हुए सूति ( सोम निकालनेका स्थान ), इंधुव (पंधी अर्थात् भट्टी), कोश और पल्य आदि द्रब्य वेधिम कहे जाते हैं। पूरण क्रियासे सिद्ध हुए तालाबका बांध व जिनग्रहका चबूतरा आदि द्रव्यका नाम पूरिम है। काष्ट, ईट और पत्थर आदिकी संघातन क्रियासे . सिद्ध हुए कात्रिम जिनभवन, ग्रह, प्राकार और स्तूप आदि द्रव्य संघातिम कहलाते हैं। नीम, आम, जामुन और जंबीर आदि अधोधिम क्रियासे सिद्ध हुए द्रव्यको अधोधिम कहते हैं। अधोधिम क्रियाका अर्थ सचित्त व अचित्त द्रव्योंकी रोपन क्रिया है, यह तात्पर्य है । पुष्करिणी, वापी, कूप, तड़ाग, लयन और सुरंग आदि निप्खनन क्रियासे सिद्ध हुए द्रव्य णिक्खोदिम कहलाते हैं। णिक्खोदनसे अभिप्राय खोदना क्रियासे है। उपवेल्लन क्रियासे सिद्ध हुए एकगुणे, दुगुणे एवं तिगुणे सूत्र, डोरा व वेष्ट आदि द्रव्य उपवेल्लन कहलाते हैं । ग्रन्थिम व वाहम आदि द्रव्योंके उद्वेल्लनसे उत्पन्न द्रव्य उद्वेल्लिम कहे जाते है । चित्रकार एवं वर्णो के उपादनमें निपुण दूसरोंकी क्रियासे सिद्ध मनुष्य व तुरग आदि अनेक आकार रूप द्रव्य वर्ण कहे जाते हैं। चूर्णन क्रियासे सिद्ध हुए पिष्ट, पिष्टिका और कणिका आदि द्रव्यको चूर्ण कहते हैं । वहुत द्रव्योंके संयोगसे उत्पादित गन्धकी प्रधानता रखनेवाले द्रव्यका नाम गन्ध है। घिसे व पासे गये चन्दन और कुंकुम आदि द्रव्य विलेपन कहे जाते हैं। इनको आदि लेकर जो वे और द्रव्य हैं ' इस वचनसे अवधान व सुरण अर्थात् जोड़कर व काटकर बनाने व द्विसंयोगादि द्रव्योंके अस्तित्वकी प्ररूपणा होती है। २ प्रतिषु — पुट्ठ ' इति पाठः । १ प्रतिषु ' -तिउद- ' इति पाठः। छ, क ३५. Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. दव्वाणं कदिसद्दो परूवओ ? ण एस दोसो, कम्मकारए वि कदिसद्दणिप्फत्तीदो । एसा सव्वा वि जाणुगसरीर-भवियवदिरित्तदव्वकदी णाम । जा सा गणणकदी णाम सा अणेयविहा । तं जहा- एओ णोकदी, दुवे अवत्तव्वा कदि त्ति वा णोकदि त्ति वा, तिप्पहुडि जाव संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा कदी, सा सव्वा गणणकदी णाम ॥६६॥ एगो णोकदी। कुदो ? जो रासी वग्गिदो संतो वड्वदि सगवग्गादो सगवग्गमूलमवणिय वग्गिज्जमाणो वुड्डिमल्लियइ सो कदी णाम । एगो वग्गिज्जमाणो ण वड्वदि, मूले अवणिदे णिम्मूलं फिट्टदि । तेण एगो णोकदि त्ति वुत्तं । एसो एगो गणणपयारो दरिसिदो । दोरूवेसु वग्गिदेसु वडिदसणादो दोण्णं ण णोकदित्तं । तत्तो मूलमवणिय वग्गिदे ण वड्वदि, पुव्विल्लरासी चेव होदि; तेण दोणं ण कदित्तं पि अस्थि । एदं मणेण अवहारिय दुवे अवत्तव्वमिदि शंका-कृति शब्द इन सब द्रव्योंका प्ररूपक कैसे है ? · समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, कर्म कारकमें भी कृति शब्द सिद्ध है। यह सब ही ज्ञायकशरीर-भाविव्यतिरिक्त द्रव्यकृति कहलाती है। जो वह गणनकृति है वह अनेक प्रकार है। वह इस प्रकारसे है- एक संख्या नोकृति है, दो संख्या कृति और नोकृति रूमसे अवक्तव्य है, तीनको आदि लेकर संख्यात, असंख्यात व अनन्त कृति कहलाते हैं; वह सब गणनकृति है ॥६६॥ एक यह नोकृति है, क्योंकि, जो राशि वर्गित होकर वृद्धिको प्राप्त होती है और अपने वर्गमेंसे अपने वर्गके मूलको कम कर वर्ग करनेपर वृद्धिको प्राप्त होती है उसे कृति कहते हैं। एक संख्याका वर्ग करनेपर वृद्धि नहीं होती तथा उसमेंसे वर्गमलके क देनेपर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है । इस कारण एक संख्या नोकृति है, ऐसा सूत्र में कहा है। यह 'एक' गणनाका प्रकार बतलाया गया है। दो रूपोंका वर्ग करनेपर चूंकि वृद्धि देखी जाती है अतः दोको नोकृति नहीं कहा जा सकता है । और चूंकि उसके वर्गमेंसे मूलको कम करके वर्गित करनेपर वह वृद्धिको प्राप्त नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त राशि ही रहती है, अतः 'दो' कृति भी नहीं हो सकता । इस बातको मनसे निश्चित कर ' दो संख्या अवक्तव्य है' ऐसा सूत्र में निर्दिष्ट किया है। कम कर १ यस्य कृतौ मूलमपनीय शेषे वर्गिते वर्धिते ( वर्धते ) सा कृतिरिति । त्रि. सा. (टीका ) १६. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६.] कदिअणियोगद्दारे गणणकदिपरूवणा [२७५ वुत्तं । एसा बिदियगणणजाई । तिप्पहुडि जा संखा वग्गिदे वड्डदि, तत्थ मूलमवणिय वग्गिदे वि वड्डिमल्लियइ तेण सा कदि त्ति वुत्ता । एदं तदियगणणकदिविहाणं । ण चउत्थी गणणकदी अस्थि, तीहिंतो वदिरित्तगणणाणुवलंभादो। एगो एगो त्ति गणिज्जणाणे णोकदिगणणा । दो-दो त्ति गणिज्जमाणे अवत्तव्वा गणणा । तिण्णि-चत्तरि-पंचादिक्कमेण गणिज्जमाणे कदिगणणा ति । तेण गणणाकदी तिविधा चेव । अधवा कदिगयसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतभेदेहि अणेयविहा । तत्थ एगादिएगुत्तरकमेण वड्डिदरासी णोकदिसंकलणा। दोआदिदोउत्तरकमेण वड्ढेि गदा अवत्तव्वसंकलणा। तिण्णि-चत्तारिआदीसु अण्णदरमादि कादूण तेसु चेव वण्णदरुत्तरकमेण गदवड्डी कदिसंकलणा । एदेसिं दुसंजोगेण अण्णाओ छस्संकलणाओ उप्पाएअव्वाओ। एवं रिणगणणाओ णवविहा उप्पाएयव्वा । यह द्वितीय गणनाकी जाति है। तीनको आदि लेकर जो संख्या वर्गित करनेपर चूंकि बढ़ती है और उसमेंसे वर्गमूलको कम करके पुनः वर्ग करनेपर भी वृद्धिको प्राप्त होती है इसी कारण उसे कृति ऐसा कहा है। यह तृतीय गणनकृतिका विधान है। चतुर्थ कोई गणनकृति नहीं है, क्योंकि, तीनसे अतिरिक्त गणना पायी नहीं जाती। एक-एक ऐसी गणना करनेपर नोकृतिगणना, दो दो इस प्रकार गणना करनेपर अवक्तव्यगणना, तथा तीन चार व पांच इत्यादि क्रमसे गणना करनेपर कृतिगणना कहलाती है। अत एव गणना. कृति तीन प्रकार ही है। अथवा कृतिगत संख्यात, असंख्यात व अनन्त भेदोंसे गणनाकृति अनेक प्रकार है। उनमें एकको आदि लेकर एक अधिक क्रमसे वृद्धिको प्राप्त राशि नोकृतिसंकलना है । दोको आदि लेकर दो अधिक क्रमसे वृद्धिको प्राप्त र संकलना है। तीन व चार इत्यादिकोंमें अन्यतरको आदि करके उनमें ही अन्यतरके अधिक क्रमसे वृद्धिंगत राशि कृतिसंकलना है । इनके द्विसंयोगसे अन्य छह संकलनाओंको उत्पन्न कराना चाहिये । इसी प्रकार नौ ऋणगणनाओंको उत्पन्न कराना चाहिये। विशेषार्थ-यहां नौ संकलनाओंका स्वरूप इस प्रकार बतलाया गया प्रतीत होता है १ नोकृतिसंकलना-जैसे १, २, ३, ४, ५, ६, ७ आदि । २ अवक्तव्यसंकलना-२, ४, ६, ८, १०, १२, १४ आदि । ३ कृतिसंकलना-३, ६, ९, १२ आदि; ४, ८, १२, १६ आदि; ५, १०, १५, २० इत्यादि । इन तीनोंके ६ द्विसंयोगी भंग- ४ नोकृति अवक्तव्य ५ नोकृति कृति ६ अवक्तव्य-कृति ७ अवक्तव्य नोकृति ८ कृति नोकृति ९ कृति-अवक्तव्य । इन्हीं नौ संकलनाओंको विपरीत क्रमसे ग्रहण करनेपर ऋणगणनाओंके नौ प्रकार उत्पन्न होते हैं। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. जेणेदं सुत्तं देसामासिय तेणेत्थ धण-रिण-धणरिणगणिदं सव्वं वत्तव्वं । संकलणावग्ग-वग्गावग्ग-घण-घणाघणरासिउप्पत्तिणिमित्तगुणयारो कलासवण्णा' जाव ताव भेयपइण्णयजाईओ तेरासिय-पंचरासियादि सव्वं धणगणिदं । वोकलणा भागहारो खयकं च कलासवणादिसुत्त. पडिबद्धसंखा' च रिणगणिदं । गइणिवित्तिगणिद कुट्टाकारादिगणिदं च धण-रिणगणिदं । एवं तिविहं पि गणिदमेत्थ परुवेदव्वं । अधवा कदिमुवलक्खण काऊण गणणा-संखेज्ज-कदीणं पि एत्थ लक्खणं वत्तव्वं । तं जहा- एक्कादि कादूण जाव उक्कस्साणते त्ति ताव गणणा त्ति वुच्चदे । दोआदि कादूण जाउक्कस्साणंते ति जा गणणा संखेज्जमिदि भण्णदे । तिण्णिआदि कादूण जाउक्कस्साणते त्ति गणणा कदि त्ति भण्णदे । वुत्तं च एयादीया गणणा दोआदीया वि जाण संखे त्ति । तीयादीण णियमा कदि त्ति सण्णा दु बोद्धव्या ॥ १२१ ॥ चूंकि यह सूत्र देशामर्शक है अत एव यहां धन, ऋण और धन-ऋण गणित सबको कहना चाहिये । संकलना, वर्ग, वर्गावर्ग, घन व घनाघन राशियोंकी उत्पत्तिमें निमित्तभूत गुणकार और कलासवर्ण तक भेदप्रकीर्णक जातियां (देखो गणितसारसंग्रह द्वितीय कलासवर्ण व तृतीय प्रकीर्णक व्यवहार), त्रैराशिक व पंचराशिक आदि सब धनगणित हैं। व्युत्कलना, भागहार और क्षय रूप कलासवर्ण आदि सूत्रप्रतिबद्ध संख्यायें ऋणगणित है। गतिनिवृत्तिगणित और कुट्टिकार आदि गणित धन-ऋणगणित है । इस प्रकार तीनों ही प्रकारके गणितकी यहां प्ररूपणा करना चाहिये । अथवा कृतिका उपलक्षण कर गणना, संख्यात व कृति, इनका भी यहां लक्षण कहना चाहिये । वह इस प्रकार है एकको आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तक 'गणना' कही जाती है। दोको आदि करके उत्कृष्ट अनन्त तककी गणना' संख्यात' कहलाती है। तीनको आदि करके उत्कृष्ट अन तककी गणना 'कृति' कहलाती है। कहा भी है एक आदिकको गणना और दो आदिको संख्या समझो। तथा तीन आदिककी नियमसे ' कृति ' यह संज्ञा जानना चाहिये ॥ १२१ ॥ १ प्रतिषु , कलासवण्णणा ' इति पाठः । भाग-प्रभागावथ भागभागो भागानुबन्धः परिकीर्तितोऽतः । भागापवाहः सह भागमात्रः षङ्जातयाऽमुत्र कलासवर्ण ॥ गणितसारसंग्रह २-५४. २ प्रतिषु ‘णसंबग्गादिसुत्त- ' इति पाठः । ३ गतिनिवृत्ती सूत्रम् - निज-निजकालोदधृतयोगमननिवृत्याविशेषणज्जिाताम् । दिनशुद्धगतिं न्यस्य राशिकविधिमतः कुर्यात ॥ गणितसारसंग्रह ४-२३. ४ गणितसारसंग्रह ५, ७९-२०८. लीलावती २. ६५-७७ ५ त्रि. सा. १६. Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६.1 कदिअणियोगहारे गणणकदिओघाणुगमरवणा । २७७ एत्थ ताव कदि-णोकदि-अवत्तव्वाणमुदाहरणट्ठमिमा परूवणा कारदे । तीए कीरमाणाए ओघाणुगमो पढमाणुगमो चरिमाणुगमो संचयाणुगमो चेदि चत्तारि अणिओगद्दाराणि । तत्थ ताव ओघाणुगमा बुच्चदे- सो दुविहो मूलोघाणुगमो चेदि आदेसोघाणुगमो चेदि । तत्थ मूलोघाणुगमो बुच्चदे । तं जहा- जीवा कदी। कुदो एदस्स मूलोपत्तं ? सुद्धसंगहवयणादो । आदेसोपो वुच्चदे- गदियादिचोदसमग्गणहाणेसु ह्रिदजीवा कदी, तत्थ सुद्धेगदोजीवाणुवलंभादो । णवरि मणुसअपज्जत्त-वेउब्वियमिस्साहारदुग-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदउवसम-सासणसम्माइद्वि-सम्मामिच्छादिट्ठिजीवा सिया कदी, तिप्पहुडि उवरिमसंखाए कदाचिदुवलंभादो । सिया णोकदी, एदेसु अट्टसु कदाचि एगस्सेव जीवस्स दंसणादो । सियावत्तव्यकदी, कदाचि दोण्णं चेवुवलंभादो । एवमोघाणुगमो समत्तो । पढमाणुगमा वुच्चदे ---- कस्स पढमसमए एसो अणुगमो कीरदे ? मग्गणाणं । एत्य यहां कृत्ति, नोकृति और अवक्तव्य के उदाहरणोंके लिये यह प्ररूपणा की जाती है। उस प्ररूपणाके करनेमें ओघानुगम, प्रथमानुगम, चरमानुगम और संचयानुगम, ये चार अनुयोगद्वार हैं। उनमें पहले ओधानुगमको कहते हैं। वह दो प्रकार है ---- मूलौघानुगम और आदेशौघानुगम | उनमें मूलौघानुगमको कहते हैं। वह इस प्रकार है-जीव कृति है। शंका- यह मूलौघ कैसे है ? समाधान-- चूंकि यह कथन शुद्ध संग्रहनयकी अपेक्षा किया गया है, अतः वह मूलौघ है। आदेशौघकी प्ररूपणा करते हैं - गति आदि चौदह मार्गणास्थानों में स्थित जीव कृति हैं, क्योंकि, उनमें शुद्ध एक दो जीव नहीं पाये जाते । विशेषता इतनी है कि मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रिीयकीमश्र, आहारद्विक, सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत, उपशमसम्यग्हा सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कथंचित् कृति हैं, क्योंकि, वे तीन आदि उपरिम संख्यामें कभी पाये जाते हैं। कथंचित् वे नोकृति हैं, क्योंकि, इन आठ स्थानोंमें कभी एक ही जीव देखा जाता है। कथंचित् अवक्तव्य कृति हैं, क्योंकि, कभी वहां दो ही जीव पाये जाते हैं । इस प्रकार ओघानुगम समाप्त हुआ। प्रथमानुगमकी प्ररूपणा करते हैंशंका-किसके प्रथम समयमें यह अनुगम किया जाता है ? समाधानमार्गणाओंके प्रथम समयमें यह अनुगम किया जाता है। Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,१,६६. अपढमाणुगमो वि कायव्यो । कुदो ? पढमापढमाणमण्णोण्णाविणाभावादो । णेरइया पढमसमए सिया कदी। कुदो ? णेरइयाणमुवक्कमणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जावलियाओ, एदेणंतरेणुप्पज्जमाणणेरइयाणं तिप्पहुडिसंखेज्जाणमप्पणो आउपढमसमए उवलभादो । सिया जोकदी, एदेणेवंतरेणुप्पण्णपढमसमए कदाचि एक्कस्सेव जीवस्सुवलंमादो । सियावत्तव्वकदी, कदाचि णेरइयपढमसमए दोणं जीवाणं उवलंभादो। अपढमा कदी चेव, सगाउअविदियसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति एसो अपढमकालो; एत्थ ट्ठिदजीवाणं णियमेण सव्वकालमसंखेज्जतवलंभादो । एवं सवणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वदेव-मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणी-एइंदिय व्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ-बादरवाउ-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-तस-तसपज्जत्तापज्जत्त-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिकायजोगि-वेउव्वियकायजोगि-इत्थि-पुरिस-णqसयावगदवेद-अकसाय-सव्वणाण-सामाइयच्छेदोवट्ठावण-परिहार-जहाक्खाद-संजमासंजम-संजम-चक्खुदंसणी-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिय-सम्माइट्ठिखइय-वेदगसम्माइटि-मिच्छाइटि-सण्णि-असण्णीणं पि वत्तव्यमेदेसिमुवक्कमणतरदसणादो । यहां अप्रथमानुगम भी करना चाहिये, क्योंकि, प्रथम और अप्रथमके परस्पर अविनाभाव है। नारकी जीव प्रथम समयमें कथचित् कृति हैं, क्योंकि, नारकियोंके उपक्रमका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात आवलियां है; इस अन्तरसे उत्पन्न होनेवाले नारकी अपनी आयुके प्रथम समयमें तीनको आदि लेकर संख्यात पाये जाते हैं। कथंचित् वे नोकृति है, क्योंकि, इसी अन्तरसे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें कभी एक ही जीव पाया जाता है। कथंचित् वे अवक्तव्यकृति हैं, क्योंकि, कदाचित् नारकी होनेके प्रथम समयमें दो जीव पाये जाते हैं । अप्रथमसमयवर्ती नारकी कृति ही है, क्योंकि, अपनी आयुके द्वितीय समयसे लेकर अन्तिम समय तक यह अप्रथम काल है, इस कालमें स्थित जीव नियमसे सर्व काल असंख्यात पाये जाते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यंच, सब देव, मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, प्रस, प्रस पर्याप्त, बस अपर्याप्त, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अपगतवेद, अकषाय, सर्व शान, सामायिकछेदोपस्थापनासंयम, परिहारशुद्धिसंयम, यथाख्यातसंयम, संयमासंयम, संयम, चक्षुदर्शनी, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्हाधि, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और असंशी, इनके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके उपक्रमणका भन्तर देखा जाता है। Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगद्दारे गणणक दिपढमाणुगमो [ २७९ कथमेइंदियाणं कायजोगीणं च णोकदि - अवत्तव्वकदीओ होंति ? ण, तसेहि पंचमण-वचिजोगेहि य सांतरमेइंदिय-काय जोगे सुष्पज्जंताणं तदुवलंभाद। । मणुसापज्जत्त-वे उब्विय मिस्साहार - दुग-सुहुमसांपराइय- उवसमसम्माइडि-सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठी पढमापढमसमएस सिया कदी सिया णोकदी सिया अवत्तत्व्वा । कुदो ? सांतररासित्तादो | सव्वबादरेइंदिय- सव्वसुहुमेइंदिय - पुढविकाइय- आउकाइय ते उकाइय-वाउकाइय-वणफदिकाइय- णिगोदजीव-सव्वसुहुमबादरपुढविकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय- बादरवा उकाइय- बादरवणप्फदिकाइय- बादरणिगोदजीव-पत्तेयसरीरा तेर्सि सव्वेसिमपज्जत्ता ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्स कायजोगि कम्मइयकाय जे गि- चत्तारिकसाय- किण्ण-णील- काउलेस्सिय- आहार- अणाहारा पढमा पढमसमएस णियमा कदी, एदेसु एग-दोजीवाणं' केवलाणं सव्वकालं पवेसाभावाद | अचक्खुदंसणीसु पढमाढमवियप्पो णत्थि, केवलदंसणीणमचक्खुदंसणीसरूवेण परिणामाभावादो । भवाभवसिद्धियाणं पिढमाढमभंगो णत्थि, सिद्धाणं भवसिद्धियसरूवेण परिणामाभावादो, भवसिद्धियाणमभव शंका - एकेन्द्रियों और काययोगियोंके नोकृति और अवक्तव्यकृति कैसे सम्भव है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्रमसे त्रसों और पांच मनोयोगी एवं पांच वचनयोगियोंसे अन्तर सहित एकेन्द्रियों और काययोगियों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके नोकृति और अवक्तव्यकृति पायी जाती है । मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्र, आहारकद्विक, सुक्ष्मसाम्परायिक, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि प्रथम और अप्रथम समयोंमें कथंचित् कृति, कथंचित् नोकृति और कथंचित् अवक्तव्यकृति हैं, क्योंकि, ये सान्तर राशियां हैं। सब बादर एकेन्द्रिय, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सब सूक्ष्म और बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, वादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद जीव और प्रत्येकशरीर तथा उन सबके अपर्याप्त, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, चार कपाय, कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले, आहारक और अनाहारक, ये प्रथम व अप्रथम समय में नियमसे कृति हैं, क्योंकि, इनमें सर्व काल केवल एक दो जीवोंके प्रवेशका अभाव है । अचक्षुदर्शनियों में प्रथम व अप्रथम विकल्प नहीं है, क्योंकि, केवलदर्शनी जीव अचक्षुदर्शनी रूपसे परिणमन नहीं करते । भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंके भी प्रथम व अप्रथम विकल्प नहीं है, क्योंकि, सिद्ध जीवोंका भव्यसिद्धिक रूपसे परिणमन नहीं होता, तथा भव्यसिद्धिकोंका अभव्यसिद्धिक रूपसे १ प्रतिषु एदे गदो जीवाणं ' इति पाठः । 6 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ६६. सिद्धियसरूवेण परिणामाभावादो । खइयसम्मादिट्ठि-केवलणाणि-केवलदंसणिणेवभवसिद्धि-णेवअभवसिद्धि-णेवसण्णि-णेवअसण्णीणं पढमापढमभंगो अस्थि । कारणं सुगमं । एवं पढमाणुगमो समत्तो। चरिमाणुगमं वत्तइस्सामो- चरिमाणुगमो अचरिमाणुगमेण सह वत्तव्यो, दोण्णमण्णोण्णाविणाभावादो । णेरड्या चरिमसमए सिया कदी, तिप्पहुडिसखेज्जासंखेज्जाणं णारगचरिमसमए कदाचिदुवलंभादो । सिया णोकदी, चरिमसमए वट्टमाणणारयस्स कदाचि एक्क. स्सेव दंसणादो। सिया अवत्तव्वं, कदाचि तत्थ दोण चेवुवलंभादो । णेरड्या अचरिमा णियमा कदी, तत्थ सुद्धेग-दोजीवाणमभावादो । एवं जधा पढमाणुगमा परूविदो तथा परूवेदव्यो । णवरि भवसिद्धिया अचक्खुदंसणी च चरिमसमए सिया, कदी सिया णोकदी, सिया अवत्तव्वं । कुदो ? एदेसिं चरिमस्स सांतरत्तुवलभादो । अचरिमसमए णियमा कदी। खइय. सम्माइटि-केवलणाणि-णेवभवसिद्धि-णेवअभवसिद्धि-णेवसण्णि-णेवअसण्णीणं चरिमाचरिमविसेसणं णस्थि, सिद्धाणमसिद्धत्तपरिणामाभावादो । एवं चरिमाणुगमो समत्तो । _संचयाणुगमं वत्तइस्सामो- एत्थ संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो परिणमन नहीं होता। क्षायिकसम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक तथा न संझी न असंशी जीवोंके प्रथमाप्रथम भंग है। कारण सुगम है । इस प्रकार प्रथमानुगम समाप्त हुआ। चरमानुगमको कहते हैं- चरमानुगमको अचरमानुगमके साथ कहना चाहिये, क्योंकि, दोनोंके परस्पर अविनाभाव है। नारकी जीव चरम समयमें कथंचित् कृति हैं, क्योंकि, तीनको आदि लेकर संख्यात व असंख्यात नारकी अन्तिम समयमें कदाचित् पाये जाते हैं । कथंचित् नोकृति हैं, क्योंकि, कदाचित् चरम समयमें वर्तमान नारकी एक ही देखा जाता है । कथंचित् अवक्तव्य हैं, क्योंकि, कदाचित् वहां दो ही नारकी पाये जाते हैं। ___ अचरम समयवर्ती नारकी नियमसे कृति हैं, क्योंकि, अचरम समयमें शुद्ध एक दो जीयोंका अभाव है। इस प्रकार जैसे प्रथमानुगमकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि भव्यसिद्धिक और अचक्षुदर्शनी चरम समयमें कथंचित् कृति, कथंचित् नोकृति और कथंचित् अवक्तव्य है; क्योंकि, इनके चरम समयके सान्तरता पायी जाती है । अचरम समयमें नियमसे कृति है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक और न संझी न असंज्ञी जीवोंके चरमाचरम विशेषण नहीं है, क्योंकि, सिद्ध जीवोंके असिद्धत्ता रूप परिणमन करने का अभाव है। इस प्रकार चरमानुगम समाप्त हुआ। संचयानुगमको कहते हैं- इस संचयानुगमकी प्ररूपणामें सत्प्ररूपणा, द्रव्य Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.] कदिअणियोगद्दारे दवपरूवणाणुगमो [२८१ पोसणाणुगमो कालाणुगमा अंतराणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि अट्ठ अणिओगद्दाराणि हवंति । तत्थ संतपरूवणदाए अस्थि णिरयगदीए णेरइया कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वदेव-मणुसअपज्जत्तवदिरित्तसव्वमणुस-एइंदियसव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइय-वादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-सव्वतस-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगिवेउव्वियकायजोगि-तिण्णिवेद-अवगदवेद-अकसाय-अट्ठणाण-सुहुमसांपराइयवदिरित्तसव्वसंजमचक्खुदंसणि-ओहिदंसणि-केवलदंसणि-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सा-सम्मादिहि-खइयसम्मादिहि-वेदगसम्मादिट्ठि-मिच्छादिहि-सण्णि-असण्णीणं वत्तव्वं, एदेसु सांतरुवक्कमणदंसणादो। आहारदुग-वेउब्वियमिस्स-सुहुमसांपराइय-उवसमसम्मत्त-मणुसअपज्जत्त-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठी कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा सिया अस्थि सिया णत्थि । अवसेसासु मग्गणासु अस्थि कदिसंचिदा, णोकदि-अवत्तव्वेहि एदेसु पवेसाभावादो' । एवं संतपरूवणा समत्ता । दव्वपरूवणाणुगमं वत्तइस्सामो-णिरयगदीए णेरइया कदिसंचिदा दव्वपमाणेण प्रमाणानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शानुगम, कालानुगम, अन्तरानुगम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुगम, ये आठ अनुयोगद्वार हैं। उनमें सत्प्ररूपणाकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकी जीव कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यंच, सब देव, मनुष्य अपर्याप्तोंको छोड़कर शेष सब मनुष्य, एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचे. न्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब प्रस, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीन वेद, अपगतवेद, अकषाय, आठ ज्ञान, सूक्ष्म साम्परायिकको छोड़ सब संयम, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, केवलदर्शनी, तेज, पद्म व शुक्ल लेश्या, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संझी और असंही जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इनमें सान्तर उपक्रमण देखा जाता है। आहारद्विक, वैक्रियिकमिश्र, सूक्ष्मसाम्परायिक, उपशमसम्यक्त्व, मनुष्य अपर्याप्त, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कथंचित् हैं और कथंचित् नहीं हैं। शेष मार्गणाओंमें कृतिसंचित हैं,क्योंकि, इनमें नोकृतिसंचित और अवक्तव्यसंचितोंके प्रवेशका अभाव है । इस प्रकार सत्प्ररूपणा समाप्त हुई। द्रव्यप्रमाणानुगमको कहते हैं- नरकगतिमें नारकी जीव द्रव्यप्रमाणसे कृति १ प्रतिषु ' पदेसाभावादो' इति पाठः । ..क. ३६. Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. केवडिया ? असंखेज्जा पदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ सेडीओ । णोकदि-अवत्तवसंचिदा केवडिया ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। तं कधं ? वुच्चदे-संखेज्जावलियाओ अंतरिदूण एगो वा दो वा तिण्णि वा जा उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो वा णिरंतरुवक्कमणकालो लब्भदि त्ति कटु णिरयाउवपढमसमयप्पहुडि संखेज्जावलियमेत्तमुवक्कमणंतरं ठाइदूण तस्सुवरि आवलियाए असंखेज्जदिमागमेत्तणिरंतरउवक्कमणकालरयणा कायव्वा । एवं पुणो पुणो कायव्वो जाव अप्पिदाउअसंवुत्तमिदि । संपदि एदेसिमंतराणं विच्चालेसु ट्ठिदउवक्कमणकालाणमाणयणं वुच्चदे -- सगुवक्कमणकालसहिदं संखेज्जावलियमेततरम्हि जदि आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्क्रमणकालो लब्भदि तो अप्पिदाउअम्मि मिस्सीभूद उवक्कमणाणुवक्कमणकालम्मि केत्तियमुवक्कमणकालं लभामो त्ति आवलियाए असंखेज्जदिभागगुणिदसंखेज्जपलिदोवमेसु संखेज्जावलियमेत्तेणोवट्टिदेसु सव्वोवक्कमणकालो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो आगच्छदि । एसो कदि-णोकदि-अवत्तव्वाणं तिण्णं पि कालो। एत्थ सव्वत्थोवो अवत्तव्वुवक्कमणकालो । णोकदिउवक्कमणकालो विसेसाहिओ। कदिउवक्कमणकालो असंखेज्जगुणो। पुणो णोकदिकालमेगरूवेण गुणिदे संचित कितने हैं ? असंख्यात हैं जो कि जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात जगश्रेणी रूप हैं। नोक़तिसंचित और अवक्तव्यकृतिसंचित नारकी कितने हैं ? पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शंका-पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण कैसे हैं ? समाधान-इस शंकाके उत्तर में कहते हैं कि संख्यात आवलियोंका अन्तर करके एक दो तीन [ समय ] अथवा उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र निरन्तर उपक्रमण काल प्राप्त होता है, ऐसा जानकर नारकायुके प्रथम समयको लेकर संख्यात आवली मात्र उपक्रमणके अन्तरको स्थापित कर उसके ऊपर आवलीके असंख्यातवें भागमात्र निरन्तर उपक्रमणकालकी रचना करना चाहिये । इस प्रकार विवक्षित आयुके समाप्त होने तक वार वार करना चाहिये। अब इन अन्तरालोके बीच में स्थित उपक्रमणकालोके लानेके विधानको कहते हैं- यदि अपने उपक्रमणकाल सहित संख्यात आवली मात्र अन्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र उपक्रमण काल प्राप्त होता है तो विवक्षित आयुमें मिले हुए उपक्रमण और अनुपक्रमण कालमें कितना उपक्रमणकाल प्राप्त होगा, इस प्रकार त्रैराशिक विधानसे आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित संख्यात पल्योपोंमें संख्यात आवली मात्रका भाग देनेपर सर्व उपक्रमणकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र आता है । यह कृति, नोकृति और अवक्तव्यकृति तीनोंका ही काल है। इसमें सबसे स्तोक अवक्तव्य उपक्रमणकाल है। नोकृति उपक्रमणकाल इससे विशेष अधिक है । इससे कृति उपक्रमणकाल असंख्यातगुणा है । पुनः नोकृतिकालको एक रूपसे गुणित १ प्रतिषु 'मिस्सिभूद-' इति पाठः । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगद्दारे पमाणाणुगमो ૨૮૨ णोकदिसंचिदजीवपमाणं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं होदि । अवत्तव्वकालं दोहि रूहि गुणदे अवत्तव्वसंचयपमाणं होदि । कदिसंचयकालं तप्पा ओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे कदिसंचिदपमाणं होदि । एवं सत्तसु पुढवीसु वत्तव्वं । तिरिक्खगदी तिरिक्खेसु कदि - णोकदि - अवत्तव्वसंचिदा केवडिया ? अनंता । एत्थ णोकदि - अवत्तव्वाणमसंखेज्जपोग्गल परियहेर्हितो उवक्कमणकाले पुव्वं व जीवसंचए आणिदे अंता जोकदि - अवत्तव्वसंचिदा जीवा होंति । सामण्णुवक्कमणकालेण संचिदजीवेर्हितो णोकदि - अवत्तव्वसंचिदजीवेसु अवणिदेसु सेसा तिरिक्खा कदिसंचिदा होंति । ण णिच्चनिगोदाणमेत्थ गहणं, कदि - णोकदि - अवत्तव्वसरूवेण असंचिदत्तादो । पंचिंदियतिरिक्खच उक्कम्मि कदि णोकदि - अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया ? असंखेज्जा । पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तादीण संखेज्जासंखेज्जवासाउआण अपज्जत्ताणं च अंतोमुहुत्तआउआणं णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा आवलियाए असंखेज्जदिभागो, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तफलगुणिदसंखेज्जवासेसु अंत मुहुत्तन्भंतरसंखेज्जावलियासु च संखेज्जावलियाहि ओट्टिदेसु आवलियाए असंखेज्जदिभागुवक्कमणकालुवलंभादो | णोकदि - अवत्तव्वसंचिदजीवेर्हितो' वदि करनेपर नोकृतिसंचित जीवोंका प्रमाण पत्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र अवक्तव्यकालको दो रूपोंसे गुणित करनेपर अवक्तव्य संचित जीवोंका प्रमाण कृतिसंचयकालको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर कृतिसंचित प्रमाण होता है । इस प्रकार सात पृथिवियों में कहना चाहिये । तिर्यचगतिमें तिर्यचोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। यहां नोकृति और अवक्तव्योंके असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंमेंसे उपक्रमणकालमें पूर्वके समान जीवसंचयके निकालनेपर नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीव अनन्त होते हैं । सामान्य उपक्रमणकाल से संचित जीवोंमेंसे नोकृति और अवक्तव्यकृति संचित जीवोंके कम कर देनेपर शेष तिर्येच कृतिसंचित होते हैं। यहां नित्यनिगोद जीवोंका ग्रहण नहीं है, क्योंकि, वे कृति, नोकृति और अवक्तव्य स्वरूपसे संचित नहीं है । होता है । होता है । जीवोंका पंचेन्द्रिय तिर्यच आदिक चारमें कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने हैं ? असंख्यात हैं । संख्यात व असंख्यात वर्ष की आयुवाले पंचेन्द्रिय तिर्यत्र पर्याप्त आदिक तथा अन्तर्मुहूर्त आयुवाले अपर्याप्तों में नोकृति और अवक्तव्य संचित आवलीके असंख्यातवें भाग हैं, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र फल राशिसे गुणित संख्यात वर्षो और अन्तर्मुहूर्त के भीतर संख्यात आवलियोंको संख्यात आवलियोंसे अपवर्तित करनेपर भावली असंख्यातवें भाग उपक्रमणकाल प्राप्त होता है । नोकृति और अवक्तव्य संचित १ प्रतिषु ' जीवेहि तैसि ' इति पाठः । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४1 - छक्खंडागमै वैयणाखंड [., १,६६. रित्तो कदिसंचिदरासी होदि । एसो तेरासियकमेण णाणेदव्यो । एत्थ णोकदि-अवत्तव्वसंचिदरासी असंखेज्जवासाउएसु घेत्तव्वो, तत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवाणमुवलंभादो । कदिसंचिदा पुण संखेज्जवासाउएसु घेत्तव्यो । कारणं सुगमं । मणुस-मणुसअपज्जत्तएसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया १ असंखेज्जा। तत्थ संचयाणयणविहाणं जाणिय वत्तव्वं । एवं देव-भवणवासियप्पहुडि जाव अवराइददेव सबविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्त-तसतिण्णि-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-वेउब्वियदुगित्थि-पुरिसवेद-विहंगणाणिआमिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणि-संजदासंजद चक्खुदंसण-ओहिदंसण-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिय-- सम्मादिहि-खइयसम्मादिहि-वेदगसम्मादिहि-उवसमसम्मादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छा- दिहि-सण्णीणं वत्तव्वं, भेदाभावादो । मणुसपज्जत्त-मणुसिणी-सब्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेव-आहारदुग-अवगदवेद-अकसायसंजद-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदेसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया ? संखेज्जा । कुदो ? संखेज्ज जीवोंसे भिन्न कृतिसंचित राशि है। इसे त्रैराशिक क्रमसे नहीं लाया जा सकता। यहां नोकृति और अवक्तव्यसाचत राशिका असख्यात वष आयुवालामे ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, उनमें पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र जीव पाये जाते है। परन्तु कृतिसंचित राशिका संख्यात वर्ष आयुवालोंमें ग्रहण करना चाहिये । कारण सुगम है। मनुष्य च मनुष्य अपर्याप्तोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीव कितने है? असंख्यात हैं । वहांपर संचय लानेके विधानको जानकर कहना चाहिये। इसी प्रकार देव व भवनवासियोंको आदि लेकर अपराजित विमानवासी देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त, त्रस तीन, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, वैक्रियिकद्विक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिशानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, उनके कोई विशेषता नहीं है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, सर्वार्थसिद्धि विमानवासी देव, आहारद्विक, अपगतघेदी, अकषायी, संयत, सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्म साम्परायिकशुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंमें कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने हैं ? संख्यात हैं, क्योंकि, ये राशियां संख्यात हैं। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .., १, ६६.] कदिअणियोगदारे खेत्ताणुगमो (२८५ रासित्तादो । एइंदिय-कायजोगि-णqसयवेद-मदि-सुदअण्णाणि-असंजद-मिच्छाइट्ठि-असण्णीत कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केत्तिया ? अणता । कारणं सुगमं । बादरेइंदिय-सुहुमेइंदियतप्पज्जत्तापज्जत्त-सव्ववणप्फदि-णिगोदजीव-सुहुमणिगोद-ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकाय-जोगि-कम्मइयकायजोगि-चत्तारिकसाय-किण्ण-णील-काउलेस्सिय-आहारि-अणाहारीसु कदि. संचिदा केत्तिया ? अणंता, अंतरेण विणा गंगापवाहो व्व अणंतजीवप्पवेसादो । पुढविकाइयआउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइया तेसिं बादरा तेसिं चेव अपज्जत्ता तेसिं सुहुमा पज्जत्ता अपज्जत्ता कदिसंचिदा केवडिया ? असंखेज्जा, असंखेज्जलोगरासित्तादो। एवं दव्वाणुगमो समत्तो। खेत्ताणुगमेण गदियाणुवादेण पिरयगदीए मेरइएसु कदि-गोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सवणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वदेवमणुसअपज्जत्ता सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-बादरपुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-तसअपज्जत्त-पंचमणजोगि-पंचवचिोगि-वेउवियदुग-आहारदुग-इत्थि-पुरिसवेद-विभंगणाणि-आभिणियोहियणाणि-सुदणाणि-ओहिणाणि-मणपज्जवणाणि-सामाइयछेदोवट्ठा एकेन्द्रिय, काययोगी, नपुंसकवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुताशानी, असंयत, मिथ्याष्टि और असंशी जीवों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने हैं ? अनन्त हैं। इसका कारण सुगम है। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, सब वनस्पति, निगोद जीव, सूक्ष्म निगोद जीव, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, चार कषाय, कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले, आहारी तथा अनाहारी जीवों में कृतिसंचित जीव कितने हैं ? अनन्त हैं, क्योंकि, इनमें अन्तरके विना गंगाप्रबाहके समान अनन्त जीवोंका प्रवेश है । पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, उनके बादर, उनके ही अपर्याप्त, उनके सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्त जीव कृतिसंचित कितने हैं ? असंख्यात हैं, क्योंकि, ये असंख्यात लोक प्रमाण राशियां हैं। इस प्रकार द्रव्यानुगम समाप्त हुआ। क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यच, सब देव, मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त,प्रस अपर्याप्त, पांच मनोयोगी,पांच वचनयोगी, वैक्रियिकद्विक, आहारदिक, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, विभंगशानी, आभिनिबोधिकंज्ञानी, श्रुतक्षानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यय ........................... १ प्रतिषु मादरेइंदिए ' इति पाठः । .. २.प्रतिषु । -गृहम० ' इति पाठः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ ' छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५. वणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-संजदासजद-चक्खुदंसण-ओहिंदसणतेउ-पम्मलेस्सिय-वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-सण्णीणं वत्तव्वं, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण भेदाभावादो । तिरिक्खगदीए तिरिक्खा कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेते ? सव्वलोगे । कुदो ? आणतियादो । एवं सव्वेइंदिय-कायजोगि-णवंसयवेद-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-मिच्छाइट्ठि-असण्णीणं वत्तव्वमाणतियं पडि भेदाभावादो । मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु कदिणोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सञ्चलोगे वा । एवं पंचिंदिय-तसाण तेसिं पज्जत्ताणं अवगदवेद-अकसाय-केवलणाणि-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद-केवलदसण-सुक्कलेस्सिय-सम्मादिहि-खइयसम्मादिट्ठीणं वत्तव्वं, केवलिपदस्स सव्वत्थुवलंभादो। बादरेइंदिय-सुहुमेइंदिया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता पुढविकाइयआउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइया' तेसिमपज्जत्ता वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा तेसिं पज्जत्तापज्जत्ता कदिसंचिदा केवडि ............................ शानी, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, तेज व पद्म लेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संशी जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, लोकके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा इनमें नारकियोंसे कोई भेद नहीं है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंच जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, काययोगी, नपुंसकवेद, मतिअशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, अनन्तताकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं है। मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातये भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सब लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, त्रस, उनके पर्याप्त, अपगतवेदी, अकषाय, केवलज्ञानी, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, केवलदर्शन, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इन सबमें केवली पद पाया जाता है। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, व कायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीव कृति १ भ आप्रयोः ‘तेउकास्य-वाउकाइया ' इति पाठः । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.] कदिअणियोगदारे फोसणाणुगमो [२८७ खेत्ते १ सव्वलोए । कारणं सुगमं । एवमोरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि-कम्मइयकायजोगि-चत्तारिकसाय किण्ण-णील-काउलेस्सिय-आहार-अणाहाराणं वत्तव्यं, भेदाभावादो । बादरवाउकाइयपज्जत्ता कदिसंचिदा केवडिखेत्ते ? लोगस संखेज्जदिभागे । णोकदिअवत्तव्यसंचिदा लोगस्स संखेज्जदिभांग, बादरवाउपज्जत्तहिदीए संखेज्जवाससहस्सपमाणाए णोकदि-अवत्तव्वेहि संचिदजीवाणमावलियाए असंखेज्जदिभागपमाणाणुवलंभादो । एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। पोसणाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोद्दसभागा वा देसूणा । पढमाए पुढवीए खेत्तभंगो। बिदियादि जाव सत्तमि त्ति णेरइएसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिद ? लोगस्त असंखेज्जदिभागो एक्क-बे-तिण्णि-चत्तारि-पंच-छचोदसभागा वा देसूणा । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत फोसिहं ? सव्वलोगो । एवमेइंदिय-कायजोगि-णqसयवेद-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-मिच्छाइटिअसण्णीण पि वत्तत्वमविसेसादो। पंचिंदियतिरिक्खचउक्कम्मि कदि-णोकदि-अवत्तव्य संचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। कारण सुगम है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, चार कषाय, कृष्ण, नील, व कापोत लेश्यायाले, आहारक व अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है । बादर वायुकायिक पर्याप्त कृतिसंचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं। नोकृति व अवक्तव्य संचित वे लोकके संख्यातवें भागमें पा जाते हैं, क्योंकि, संख्यात हजार वर्ष प्रमाण बादर वायुकायिक पर्याप्तोंकी स्थितिमें नोकृति और अवक्तव्यसे संचित जीव आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण पाये जाते हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। स्पर्शानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । प्रथम पृथिवीमें स्पर्शनको प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । द्वितीयसे लेकर सप्तम पृथिवी तक नारकियों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा क्रमसे कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पांच और छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? सर्व लोक स्पृष्ट है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, काययोगी, नपुंसकवेद, मातिअज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है। पंचेन्द्रिय तिर्वच आदिक चारमें कृति, नोकृति और Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ ] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ६६. संचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । एवं मणुस - अपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्जत्त- बादरपुढविकाइय - आउकाइय-ते उकाइय- पत्तेय - सरीरपज्जत्त-तस अपज्जत्तकदि - णोकदि-अवत्तव्वसंचिदाणं वत्तव्वमविसेसादो । माणुस दीए मणुस - मणुसपज्जत्त - मणुसिणीसु कदि - णोकदि - अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । एवमवगदवेदअकसाय-संजद - जहा क्वादविहार सुद्धिसंजद - केवलणाणि - केवलदंसणीणं वत्तव्वं । देवगदी देवसु कद- णोकदि - अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-णवचेोद्दस भागा वा देसूणा । भवणवासिय वाणवेंतर- जो दिसिय देवे हि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो फोसिदो अछुट्ट-अट्ठ-णवचोहसभागा वा देसूणा | सोहम्मीसाणे देवोघभंगो | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारदेवेसु कदि णोकदिअवत्तम्व संचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठभागा वा देसूणा । अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सब लोक स्पृष्ट है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्त, कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है। मनुषगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में कृति, नोकृति एवं अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, संयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । देवगति देव कृति, नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ व नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम साढ़े तीन, आठ व नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । सौधर्म व ईशान कल्पमें देवोघ के समान प्ररूपणा है । सनत्कुमार कल्पको आदि लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बढे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.] कदिअणियोगहारे फोसणाणुगमो [२८९ आणदादि जाव अच्चुदा त्ति तिपदसंचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोद्दसभागा वा देसूणा । णवगेवज्जादि जाव सवढे त्ति खेत्तभंगो । ___ एवमाहारदुग-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-मणपज्जवणाणीणं पि वत्तव्यमविसेसादो। बादरेइंदिय-सुहुमेइंदियाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं च खेत्तभंगो । पंचिंदियदुगेण केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोद्दसभागा सव्वलोगो केवलिभंगो वा । ___ कायाणुवादण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइयाणं तेसिं चेव बादराणं [तेसिं] चेव अपज्जत्ताणं सव्वसुहुम-तप्पजत्तापज्जत्ताणं वणप्फदि-णिगोद-बादरवणप्फदि-बादरणिगोदाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणं तेसिमपज्जत्ताणं च कदिसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो [वा] । बादरवाउपज्जत्तएहि कदिसंचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स संखेज्जदिभागो सबलोगो वा । णोकदिअवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । तस आनत आदिसे लेकर अच्युत कल्प तक उक्त तीन पदोंमें संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । नौ ग्रेवयकोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक क्षेत्रके समान प्ररूपणा है । इसी प्रकार आहारद्विक, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत और मनःपर्ययशानी जीवोंके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनमें षता नहीं है। बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उनके पयोप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्तों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग, आठ बटे चौदह भाग या सर्व लोक स्पृष्ट है; अथवा इनकी प्ररूपणा केवली जीवोंके समान है। कायमार्गणानुसार पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और उनके ही बादर व उनके ही अपर्याप्त, सब सूक्ष्म व उनके पर्याप्त अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, उनके पर्याप्त अपर्याप्त तथा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर व उनके अपर्याप्तोंके कृतिसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पष्ट है। कृतिसंचित बादर वायुकायिक पर्याप्तों द्वारा कितना क्षेत्र स्पष्ट है ? लोकका संख्यातवां भाग अथवा सब लोक स्पृष्ट है । नोकृति और अवक्तव्य संचित बादर वायुकायिक पर्याप्तों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है। प्रस घप्रस छ. क३७. Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ६६. दुगस्स पंचिंदियभंगो । पंचमणजोगि पंचवचिजोगीसु तिण्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोहसभागा देसूणा सव्वलोगो वा । कुदो ? मुक्कमारणंतियस्स वि मण - वचिजोगसंभवादो । ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगि कम्मइय कायजोगीणं खेत्तभंगो । वेउव्वियकायजोगीसु तिष्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-तेरह चोद्दसभागा वा देसूणा । वे उव्वियमिस्सकायजोगीणं खेत्तभंगो । इत्थ- पुरिसवेदाणं मण जोगिभंगो। चत्तारिकसायाणं कदिसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । विभंगणाणि - तिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-तेरह चोद सभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । आभिणि बोहिय सुद - ओहिणाणिसु तिण्णिपदेहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदभागा वा देसूणा । संजदासंजद तिण्णिपदेहि' लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोदसभागा [वा]देसूणा । चक्खुदंसणीणं मणपञ्जवभंगो । ओहिदंसणीणं ओहिणाणिभंगो । किण्ण-नील-कालेस्सियाणं ओरालियकायजोगिभंगो | तेउलेस्सियाणं सोहम्मभंगो । पम्मलेस्सियाणं सणक्कुमारभंगो। सुक्काए छचोद्दसभागा केवलिभंगो वा । भवसिद्धियाणं ओघभंगो । एवमभवसिद्धियाणं । पर्याप्तों की प्ररूपणा पंचेन्द्रियोंके समान है । पांच मनोयोगी व पांच वचनयोगियोंमें उक्त तीन पदों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पष्ट है । इसका कारण मुक्तमारणन्तिकके भी मनोयोग व वचनयोगकी सम्भावना है । औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी और कार्मणकाययोगी जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । वैक्रियिककाययोगियों में उक्त तीन पदों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ व तेरह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों की प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । स्त्रीवेदी व पुरुषवेदियों की प्ररूपणा मनोयोगियोंके समान है । चार कषायवालों में कृतिसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पष्ट है ? सर्व लोक स्पृष्ट है । विभंगज्ञानियोंमें तीन पदों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ व तेरह बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें उक्त तीन पदों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं। संयतासंयत तीन पदों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । चक्षुदर्शनियोंकी प्ररूपणा मन:पर्ययज्ञानियोंके समान है । अवधिदर्शनियोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है । कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावालोंकी प्ररूपणा औदारिककाययोगियोंके समान है । तेजलेश्यावालोंकी प्ररूपणा सौधर्म कल्पके समान है । पद्मलेश्यावालोंकी प्ररूपणा सनत्कुमार कल्पके समान है । शुक्ललेश्यावालोंमें उक्त तीन पदों द्वारा छह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं, अथवा उनकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है । भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । इसी प्रकार अभव्यसिद्धिक जीवोंकी भी प्ररूपणा है । विशेषता केवल इतनी है कि उनके केवलि १ अप्रतौ संजदासंजदा तिष्णिपदाणि ', आप्रतौ ' संजदासंजदा तिष्णिप० ', काप्रतौ ' संजदासंजद‍ तिष्णि पलिदो ० ' इति पाठः । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.] कदिअणियोगदारे कालाणुगमो. [२९. णवरि केवलिभंगो णस्थि । सम्मादिट्ठि-खइयसम्मादिट्ठीसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदेहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्टचोदसभागा केवलिभंगो वा । वेदगसम्मादिट्ठि-उवसमसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोद्दसभागा वा [देसूणा] । सासणसम्मादिट्ठीहि [लोगस्स असंखेज्जदिभागो ] अट्ठ-बारहचोद्दसभागा वा देसूणा । सण्णीणं पुरिसवेदभंगो । आहारि-अणाहारीण खेत्तभंगो । एवं फोसणाणुगमो समत्तो। कालाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइया कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए [ पुढवीए ] । णवरि एगजीवं पडुच्च उक्कस्सेण सागरोवमं । विदियादि जाव सत्तमि ति णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडच्च जहण्णेणेक्क-तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-बावीससागरोवमाणि समयाहियाणि, उक्कस्सेण तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-बावीस-तेत्तीससागरोवमाणि संपुण्णाणि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खा तिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुन्च भंग नहीं है । सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं; अथवा इनकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टियोंमें उक्त तीन पदों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा [कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों द्वारा [लोकका असंख्यातवां भाग] अथवा कुछ कम आठ व बारह बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । संशी जीवोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है। आहारी व अनाहारी जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। कालानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकी कृति, नोकृति व अवक्तव्यसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा वे सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीमें कहना चाहिये विशेष इतना है कि वहां एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे एक सागरोपम काल तक रहते हैं। द्वितीयसे लेकर सप्तम पृथिवी तक नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः एक समय अधिक एक, तीन, सात, दश, सत्तरह और बाईस सागरोपम, तथा उत्कर्षसे सम्पूर्ण तीन, सात, दश, सत्सरह, बाईस और तेतीस सागरोपम काल तक रहते है । तिर्यंचगतिम कृतिसंचितं आदि तीन पंदवाले तिर्यंच कितने कालं तक रहते Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. सम्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्खतिग-तिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।। ___मणुस्सतियतिणिपदाणं पंचिंदियतिरिक्खतिगभंगो। मणुसअपज्जत्ता तिष्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवगदीए देवेसु तिण्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुज्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि', उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि । भवणवासिय-वाणवतर-जोदिसिया तिषिणपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड्डच्च जहण्णेण ............... है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभव. ग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन रूप अनन्त काल तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुदभवत्रहण प्रमाण अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम प्रमाण काल तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा वे जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अन्तमुहूर्त काल तक रहते हैं। मनुष्य,मनुष्य पर्याप्त और मनुष्पनियों में तीनों पदोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यच आदि तीन तिर्यंचोंके समान है। मनुष्य अपर्याप्त तीन पदराले नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यात्तवें भाग तक रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। देवगतिमें देवोंमें तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देव तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः दश हजार १ काप्रतावतोऽमे ' पलिदोवमस्स अट्ठमभागो' इत्यधिकः पाठः समुपलभ्यते । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगद्दारे कालानुगमो [ २९३ दसवाससहस्साणि [दसवास सहस्साणि] पलिदोवमस्स अट्ठमभागो, उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं पलिदोवमं सादिरेयं' । सोहम्मीसाण पहुडि जाव सहस्सारे त्ति तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण [पलिदोवमं बे-सत्त-दस-चोद्दससोलससागरोवमाणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण बे-सत्त- दस - चोद्दस - सोलस - अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । आणद-पाणद पहुडि जाव णवगेवज्जविमाणवासिय त्ति तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? पाणाजीनं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण ] अट्ठारस-बीस - बावीस-तेवीस-चउवीस-पणुवीस-छवीस- सत्तावीस अट्ठावीस - एगूणतीस-तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण बीस-बावीस तेवीस - चउवीस - पणुवीस - छवीस- सत्तावीस - अट्ठावीस - एगुणत्तीसतीस-एक्कत्तीससागरोवमाणि । अणुद्दिसादि जाव अवराजिद त्ति तिणिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुञ्च सवद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एक्कत्तीस-बत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि, उक्कस्पेण बत्तीस तेत्तीस सागरोवमाणि । सव्वसिद्धिविमाणवासियतिष्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जणुक्कस्से तेत्तीस सागरोवमाणि । आनत प्राणत वर्ष, [ दश हजार वर्ष ] और पल्योपमके आठवें भाग प्रमाण काल तक; तथा उत्कर्षसे कुछ अधिक सागरोपम, पल्योपम और पल्योपम प्रमाण काल तक रहते हैं । सौधर्म व ईशान कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक तीनों पदवाले देव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे [ साधिक पल्योपम व साधिक दो, सात, दश, चौदह और सोलह सागरोपम प्रमाण काल तक; तथा उत्कर्ष से दो, सात, दश, चौदह, सोलह और अठारह सागरोपम प्रमाण काल तक रहते हैं । कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयकों तक तीनों पदवाले देव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे ] साधिक अठारह, वीस, वाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस और तीस सागरोपम काल तक; तथा उत्कर्ष से बीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अट्ठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम काल तक रहते हैं । अनुदिशोंसे लेकर अपराजित विमान तक तीनों पदवाले देव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे कुछ अधिक इकतीस और बत्तीस सागरोपम काल तक तथा उत्कर्ष से बत्तीस और तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं । सर्वार्थसिद्धि विमानवासी तीनों पदवाले देव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल तक रहते हैं । १ आंप्रती ' सागरोवमं पलिदोत्रमं सादिरेयं ' इति पाठः । Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९ । छक्खंडागमे वेयणाख एइंदियाणं तिरिक्खभंगो। बादरेइंदिया कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। बादरेइंदियपज्जत्ता कदिसंचिदा केवचिरं कालादो हॉति १ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । तेसिं चेव अपज्जत्ता केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सण अंतोमुहुत्तं । सुहुमेइंदिया णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। तेसिं चेव पज्जत्ता केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । तेसिं चेव अपज्जत्ता णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । बेइंदिया तेइंदिया चउरिदिया तेसिं चेव पज्जत्ता तिण्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वस्स सहस्साणि । तेसिं चेव अपज्जत्ता तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणा तिर्यंच जीवोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं । नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी प्रमाण रहते हैं। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष तक रहते हैं। उनके ही अपर्याप्त कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल तक रहते हैं। उनके ही पर्याप्त जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं। उनके ही अपर्याप्त नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुदभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं। दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय व उनके ही पर्याप्त जीव तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण मात्र अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष तक रहते हैं। उनके ही अपर्याप्त तीनों पदवाले कितने Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १६.] कदिअणियोगहारे कालाणुगमो [२५५ पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । पंचिंदियदुगस्स तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधतेणव्वहियं सागरोवमसदपुधत्तं । सोधम्मे माहिंदे पढमपुढवीए होदि चदुगुणिदं । बम्हादि आरणच्चुद पुढवीणं होदि पचगुणं ॥ १२२ ॥ एसा गाहा पंचिंदियट्ठिदि परुवेदि । सोधम्म-माहिंद-पढमपुढवीसु चदुक्खुत्तमुप्पण्णस्स बिदियादिछपुढवीसु बम्हलोगादिआरणच्चुददेवेसु च पंचवारमुप्पणस्स पंचिंदियट्टिदी सागरोवमसहस्समेत्ता १.१०००। पुव्वकोडिपुधत्तेणवहिया |९६ ।। पंचिंदियट्ठिदिं भमंतस्स एसा दिसा परूविदा, ण पुण एसो णियमो, अण्णेण वि पयारेण पंचिंदियट्ठिदी हिंडणं पडि संभवदंसणादो। काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे शुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा वे क्रमशः जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागरोपम व सागरोपमशतपृथक्त्व काल तक रहते हैं। सौधर्म, माहेन्द्र और प्रथम पृथिवीमें चार वार और प्रह्म कल्पसे लेकर भारणअच्युत कल्पों तथा द्वितीयादि पृथिवियोंमें पांच वार उत्पन्न होनेपर उक्त पंचेन्द्रिय काल पूर्ण होता है ॥ १२२॥ __ यह गाथा पंचेन्द्रिय कालकी प्ररूपणा करती है- सौधर्म, माहेन्द्र और प्रथम पृथिवीमें चार चार वार उत्पन्न हुए तथा द्वितीयादिक छह पृथिवियों व ब्रह्मलोकको आदि लेकर आरण-अच्युत कल्प तकके देवों में पांच वार उत्पन्न हुए जीवका पंचेन्द्रियकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व (९६) से अधिक एक हजार (सात पृथिवियों में- + १५+ ३५+ ५० + ८५ + ११० + १६५ = ४६४, सौधादि कल्पोंमें-८+ २८+ ५० + ७० + ८० +९० १००+११० = ५३६. ५३६+४६४ = १००० ) सागरोपम मात्र होता है। पंचेन्द्रियस्थितिको लेकर भ्रमण करनेवाले जीवके यह एक रीति बतलायी है, किन्तु सर्वथा ऐसा नियम नहीं हैं। क्योंकि, अन्य प्रकारसे भी पंचेन्द्रियस्थिति तक भ्रमण करना सम्भव है। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड पदमपुढवीए' चदुरो पण [ पण ] सेसासु होंति पुढवीसु । चदुदु देवे भवा बावीसं तिं सदपुधत्तं ॥ १२३ ॥ पढमढवीए चत्तारिवारमुप्पज्जिय सेसासु पुढवीसु पंच- पंचवारसुप्पज्जिय सोहम्मादि जाव आरणच्चुददेवेसु चत्तारि - चत्तारिवारमुप्पण्स्स सागरोवमसदपुधत्तं पंचिंदियपज्जत्तडिदी होदि । ९०० । । पुढविकाइ आउकाइय तेउकाइय-वाउकाइया कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? जाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं [ पडुच्च ] जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । तेसिं चेव बादरा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण कम्मट्टिदी | एवं बादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणं च वत्तव्वं । एदेसिं चैव पज्जत्ताणं तिणिपद केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो || [ ४, १, ६६. प्रथम पृथिवीमें चार भव और शेष पृथिवियों में पांच पांच भव होते हैं । बाईस सागरोपम स्थिति तकके देवों में चार भव होते हैं । इस प्रकार पंचेन्द्रिय पर्याप्त काल सागरोपमशतपृथक्त्व प्रमाण होता है ॥ १२३ ॥ प्रथम पृथिवी चार वार उत्पन्न होकर और शेष पृथिवियों में पांच पांच बार उत्पन्न होकर सौधर्म कल्पको आदि लेकर आरण अच्युत कल्प तकके देवोंमें चार चार वार उत्पन्न हुए जीवके सागरोपमशतपृथकत्व प्रमाण पंचेन्द्रिय पर्याप्त स्थिति पूर्ण होती है | ( सात पृथिवियोंमें ४६४, सौधर्मादि कल्पोंमें ४३६, ४३६+४६४ = ९०० सागरोपम ) । पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक और वायुकायिक, कृतिसंचित जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल तक रहते हैं ! उनके ही बादर कृतिसंचित जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से कर्म स्थिति प्रमाण काल तक रहते हैं। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवांके भी कहना चाहिये | इनके ही पर्याप्त तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यात हजार वर्ष तक रहते हैं । उनके ही अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय १ प्रतिषु ' पुढवीस ' इति पाठः । Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगद्दारे कालानुगमो [ २९७ सव्वसुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो । वणष्फदिकाइया कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ता पोग्गलपरियट्टा । तेसिं चेव बादरपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । णिगोदजीवा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टा । तेसिं चेव बादराणं कदिसंचिदा बादरपुढविभंगो । तेसिं चेव पज्जत्ताणं बादरपुढविपज्जत्तभंगो । तेसिं चेव अपज्जत्ताणं बादरपुढविअपज्जत्तभंगो | तसदुगस्स तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुत्रको डिपुधत्तेण अव्वहियाणि, बेसागरोवमसहस्साणि । अपर्याप्तोंके समान है । सब सूक्ष्म जीवोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान । वनस्पतिकायिक कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक रहते हैं । उनके ही बादर, पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । निगोद जीव कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अढ़ाई पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक रहते हैं । उनके ही बादर कृतिसंचितोंकी प्ररूपणा बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । उनके ही पर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंके समान है। उनके ही अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तोंके समान है । स व त्रस पर्याप्त तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम एवं केवल दो हजार सागरोपम प्रमाण काल तक रहते हैं । छ. क ३८. Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८३ छक्खंडागमे वेयणाखरं [., १, ११. सोहम्मे माहिदे पढमपुढवीसु होदि चदुगुणिदं । बम्हादिआरणच्चुद पुढवीणं अट्ठगुणं ॥ १२ ॥ गेवजेसु च बिगुणं उवरिमगेवग्जएगवाजेसु । दोणि सहस्साणि भवे कोडिपुधत्तेण अहियाणि ॥ १२५ ॥ एदाहि दोहि गाहाहि तसहिदी उप्पादेदव्वा । तिस्से पमाणमेदं |२००० ।।९ध एवं पुष्यकोडिपुधत्तं । तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तमंगो। जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंजवचिजोगितिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीव षडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । कावजोगीसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियकायजोगीसु कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवस्ससहस्साणि देसूणाणि । ओरालियमिस्सकायजोगीसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं सौधर्म, माहेन्द्र और प्रथम पृथिवीमें चार बार उत्पन्न होता है। ब्रह्म कल्पसे आरण-अच्युत कल्पों और द्वितीयादि शेष पृथिवियोंमें आठ वार उत्पन्न होता है। एक उपरिम प्रैवेयकको छोड़कर सब ग्रैवेयकोंमें दो वार उत्पन्न होता है। इस प्रकार प्रस पर्यायका काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागरोपम प्रमाण होता है ॥ १२४-१२५॥ इन दो गाथाओंसे त्रस पर्यायकी स्थितिको उत्पन्न कराना चाहिये । उसका प्रमाण यह है। (कल्पोंमें ८३६, प्रथमादिक आठ ग्रैवेयकोंमें ४२४, सात पृथिवियोंमें ७४०, ८३६ + ४२४ + ७४० = २००० सागरोपम) यह (९६) पूर्वकोटिपृथक्त्व है। त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। .योगमार्गणानुसार पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी तीन पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसेएकसमय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं । काययोगियोंमें कृति,नोकृति और अवक्तव्य संचित जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक रहते हैं । औदारिककाययोगियों में कृतिसंचित कितने काल सकारहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष तक रहते हैं। औदारिकमिश्रकायपोगियों में कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित जीव कितने काल तक रहते हैं ? नाना Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगदारे कालाणुगमों पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वेउब्वियकायजोगीणं मणजोगिभंगो। वेउब्वियमिस्सकायजोगीसु तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागो एगमंतोमुहुत्तं; पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागमेत्तवक्कमणवारसलागाहि पदुप्पण्णे समुप्पत्तीदो। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारकायजोगीसु तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणेगजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारमिस्सकायजोगीसु तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणेगजीव पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । कम्मइयकायजोगीसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुन्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णिसमया । इत्थि-पुरिस-णवंसयवेदेसु तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पहुन्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, अंतोमुहुत्तं, एगसमओ; उक्कस्सेण पलिदोवम. सदपुधत्तं, सागरोवमसदपुधत्तं, अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल रहते हैं। वैक्रियिककाययोगियोंकी प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में तीन पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र एक अन्तर्मुहर्त काल तक रहते हैं। क्योंकि, पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र उपक्रमणवारशलाकाओंसे उत्पन्न होनेपर यह काल प्राप्त होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त तक रहते हैं। आहारकाययोगियों में तीनों पदवाले कितने काल सक रहते हैं ? नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं । आहारमिश्रकाययोगियोंमें तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं? नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल तक रहते हैं। कार्मणकाययोगियों में कृति, नोकृति ब अवक्तव्य संचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय तक रहते हैं। स्त्री, पुरुष व नपुंसक वेदियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः एक समय, अन्तर्मुहूर्त व एक समय तथा उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व, सागरोपमशतपथावर मसंण्यात पुद्गलपरिवर्तन मात्र अनन्त काल तक रहते हैं। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०० ] छक्खंडागमे वैrणाखंड सोहम्मे सत्तगुणं तिगुणं जाव दु सुसुक्ककप्पोति । सेसेसु भवे त्रिगुणं जाव दु आरणच्चुदो कप्पो ॥ १२६ ॥ पणगादी दोहि जुदा सत्तावीसा त्ति पल्ल देवीणं । तत्तो सत्तत्तरियं जावदु आरणच्चुओ' कप्पो' ॥ १२७ ॥ एदमाउअं ठवेदूण सोहम्माउअं सत्तगुणं, ईसाणादि जाव महासुक्के त्तितिगुणं, तत्तो जाव आरणच्चुदे त्ति बिगुणं काऊण मेलिदे त्थिवेदुक्कस्सट्ठिदी पलिदोवमसदपुधत्तमेत्ता होदि । तिस्से पमाणमेदं | ९०० | | पुरिसेषु सदधतं असुरकुमारेसु होदि तिगुणेण । तिगुणे णववज्जे सग्गठिदी छग्गुणं होदि ॥ १२८ ॥ [ ४, १, ६६. स्त्रीवेदी सौधर्म कल्पमें सात वार, ईशानसे लेकर महाशुक्र कल्प तक तीन वार, और आरण- अच्युत कल्प तक शेष कल्पों में दो वार उत्पन्न होता है ॥ १२६ ॥ देवियोंकी आयु सत्ताईस पल्य तक दोसे युक्त पांच आदि पल्य प्रमाण अर्थात् सौधर्म स्वर्ग में पांच, ईशान में सात, सनत्कुमार में नौ, माहेन्द्र में ग्यारह, इस प्रकार दो पल्यकी उत्तरोत्तर वृद्धि होकर सहस्रार कल्पमें सत्ताईस पल्य प्रमाण है । इसके आगे आरणअच्युत कल्प तक उत्तरोत्तर सात पल्य अधिक होते गये हैं ॥ १२७ ॥ इस आयुको स्थापित कर सौधर्म कल्पकी आयुको सातगुणी, ईशान कल्पको आदि लेकर महाशुक्र तक तिगुणी और इससे आगे आरण अच्युत कल्प तक दुगुणी करके मिलानेपर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपमशतपृथक्त्व मात्र होती है । उसका प्रमाण यह है - ३५ + २१ + २७ + ३३ + ३९ + ४५ + ५१ + ५७ + ६३ + ६९ + ५० + ५४ + ६८ + ८२ + ९६ + ११० = ९०० पल्योपम । पुरुषवेदियों में रहनेका काल शतपृथक्त्व [ सागरोपम ] प्रमाण है । असुरकुमारोंमें तीन वार उत्पन्न होता है । नौ ग्रैवेयकों में तीन बार उत्पन्न होता है । स्वर्गी स्थिति छहगुणी होती है ॥ १२८ ॥ १ प्रतिषु ' अरसप्पओ ' इति पाठः । २ जे सोलस कप्पाणिं केई इच्छंति ताण उवएसे । अट्ठसु आउपमाण देवीण दक्खिणिदेसुं ॥ पलिदोवमाणि पण गव तेरस सतरस एक्कवीसं च । पणवीसं चउतीसं अट्ठत्तालं कमेणेव || पल्ला सत्तेक्कारस पण्णर सेक्कोणवीस-तेवीसं । सगवीसमेक्कतालं पंणवण्णं उत्तरिंददेवीणं ॥ ति. प. ८, १२७-२९. साहियपल्लं अवरं कप्पदुत्थिी पणग पढमवरं । एक्कारसे चउक्के कप्पे दो सत्तपरिवड्डी ॥ त्रि. सा. ५४२. ३ भप्रतौ ' - गेवज्जेसु सगट्ठिदि ', आ-काप्रत्योः ' गेवज्जे सगहिदीं ' इति पाठः । Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६.1 कदिअणियोगहारे कालाणुगमौ । ३०१ कप्पेसु एदेसिं पमाणमेदं ।९०० । एगं पोग्गलपरियटिं ठविय आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिदे णqसयवेदुक्कस्सद्विदी होदि । अवगदवेदा तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । चत्तारिकसायाण मणजोगिभंगो'। अकसायाणमवगदवेदभंगो । मदि-सुदअण्णाणितिण्णिपदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । विभंगणाणितिण्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । आभिणिवोहिय-सुद-ओहिणाणितिण्णिपदा णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणपज्जवणाणीसु तिण्णि कल्पों में इनका प्रमाण यह है --- असुर. १४३= ३, स्वर्ग २४६= १२, ७ ४६= ४२, १० x ६ = ६०, १४ x ६ = ८४, १६ x ६ = ९६, १८४६= १०८, २०४६% १२०, २२ x ६ = १३२, अ.म. ]. २४ x ३ = ७२, म. म. .... २७४३८१, उ.म.]. ३०४३,९०, ३+१२ + ४२ + ६० + ८४ +९६ + १०८ + १२० + १३२ + ७२ + ८२ + ९० = ९०० सागरोपम । एक पुद्गलपरिवर्तनको स्थापित करके आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करनेपर नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। अपगतवेदी तीन पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा वे सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक रहते हैं। चार कषायवाले जीवोंकी प्ररूपणा मनोयोगियोंके समान है। अकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियों के समान है। __ मति अज्ञानी व श्रुताज्ञानी तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक रहते हैं । विभंगज्ञानी तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम ततीस सागरोपम काल तक रहते है। आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी और अवधि. झानी तीनों पदवाले नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे छयासठ सागरोपमसे कुछ अधिक काल तक रहते हैं। १ अप्रतौ ' मणपज्जवभंगो' इति पाठः। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १६. पदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । एवं केवलणाणि-संजद-सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-जहाक्खादाणं पि वत्तव्वं । णवरि सामाइयच्छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदजहाक्खादविहारसुद्धिसंजदाणं जहण्णेण एगसमओ। सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदा णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । संजदासजदाणं मणपज्जवमंगो । असंजदाणं मदिअण्णाणिभंगो। चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगा। अचक्खुदंसणीणं णस्थि कालणिदेसो । अधवा अणादिअपज्जवसिदो अणादिसपज्जवसिदो । ओघिदंसणी ओहिणाणीणं भंगो । केवलदसणी केवलणाणीणं भंगो । किण्ण-णील-काउलेस्सिया कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिया तिण्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बे-अट्ठारस-तेत्तीस मनापर्ययज्ञानियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक रहते हैं । इसी प्रकार केवलज्ञानी, संयत, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत और यथाख्यातसंयतोंके भी कहना चाहिये । विशेष केवल इतना है कि सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत और यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंका जघन्यसे एक समय काल है। सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । संयतासंयतोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। असंयत जीवोंकी प्ररूपणा मतिअज्ञानियोंके समान है । चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा त्रसपर्याप्तोंके समान है। अचक्षुदर्शनी जीवोंके कालका निर्देश नहीं है। अथवा अचक्षुदर्शनी जीवोंका काल अनादि-अंपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित है। अवधिदर्शनियोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है । केवलदर्शनियोंकी प्ररूपणा केवलशानियोंके समान है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं। नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे तेतीस, सत्तरह और सात सागरोपमसे कुछ अधिक काल तक रहते हैं ? तेज, पद्म व शुक्ल लेश्या युक्त तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तमर्त और उत्कर्षसे दो. भठारह एवं Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,६६. सागरोवमाणि सादिरेयाणि । भवसिद्धियाण अभवसिद्धियाणं च णत्थि कालणिद्देसो, भवसिद्धियाणमभवसिद्धियसरूवेण, अभवसिद्धियाणं पि भवसिद्धियभावेण परिणामाभावादो । अधवा अभवसिद्धियाणमणादिओ अपज्जवसिदो । एवं भवसिद्धियाणं पि वत्तव्वं । णवरि अणादिसपज्जवसिदभंगो वि अस्थि, णिव्वुदाणं भव्वत्ताभावादो । सम्माइट्ठीणमाभिणिबोहियभंगो । खइयसम्माइट्ठीसु तिणिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेदगसम्मादिट्ठीसु तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि । उवसमसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणं वेउव्वियमिस्सभंगो | सास सम्मादिट्ठी तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्से छावलियाओ । मिच्छादिट्ठीणमसंजदभंगो | कदिअणियोगहारे कालाणुगमो तेतीस सागरोपमसे कुछ अधिक काल तक रहते हैं । भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंके कालका निर्देश नहीं है, क्योंकि भव्य सिद्धिक अभव्यसिद्धिक रूपसे और अभव्यसिद्धिक भी भव्यसिद्धिक रूपसे परिणमन नहीं करते । अथवा अभव्यसिद्धिकोंका काल अनादि-अपर्यवसित है । इसी प्रकार भव्यसिद्धिकोंके भी कहना चाहिये। विशेष इतना है कि उनके अनादि सपर्यवसित भंग भी है, क्योंकि, मुक्त होनेपर उनके भव्यत्वका अभाव हो जाता है । [ ३०३ 1 सम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । क्षायिकसम्यदृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपमसे कुछ अधिक रहते हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना traint अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छयासठ सागरोपम काल तक रहते हैं । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा वैक्रियिकमिश्रकाय योगी जीवोंके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे - पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल तक रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवली तक रहते हैं। मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. सण्णीणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असण्णीणमेइंदियभंगो । आहारा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । अणाहारा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सबद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं कालाणुगमो समत्तो। ____ अंतराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सव्वासु मग्गणासु कदि-णोकदिअवत्तव्वसंचिदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । णवरि मणुसअपज्जत्त-वेउव्वियमिस्सआहारदुग--सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-उवसमसम्मादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठी वज्जिदूण' । पढमादि जाव सत्तमपुढवि त्ति णिरयोघभंगो। तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिग-पंचिं संशी जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। असंज्ञी जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। आहारक जीव कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम ग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अव. सर्पिणी काल तक रहते हैं। अनाहाराक कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। __ अन्तरानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक होता है। सब मार्गणाओंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। विशेष इतना है कि मनुष्य अपर्याप्त; वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक व आहारकमिश्र काययोगी, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंको छोड़कर, अर्थात् इनको छोढ़कर शेष सब मार्गणाओंमें नाना जीाकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । प्रथम पृथिवीसे लेकर सप्तम पृथिवी तक अन्तरकी प्ररूपणा सामान्य नारकियोंके समान है। तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त तीनों पद १ प्रतिषु ‘वविदूण' इति पाठः । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.] कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमो [३०५ दियतिरिक्खअपज्जत्ताणं तिण्णिपदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । होदु एदमंतरं पंचिंदियतिरिक्खाणं, ण तिरिक्खाणं; सेसतिगहिदीए आणंतियाभावादो? ण, अप्पिदपदजीवं सेसतिगदीसु हिंडाविय अणप्पिदपदेण तिरिक्खेसु पवेसिय तत्थ अणंतकालमच्छिय णिप्पिदिदूण पुणो अप्पिदपदेण तिरिक्खेसुवक्कंतस्स अणतंतरुवलंभादो । एवं मणुसतिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदियाणं च वत्तव्वमविसेसादो । मणुसअपज्जत्तेसु तिण्णिपदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अणंतकालमसखेज्जपोग्गलपरियढें । देवगदीए देवाणं भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवाणं सोहम्मीसाणाणं च णारगभंगो । एवं सणक्कुमार-माहिंददेवाणं पि अंतरं परूवेदव्वं । णवरि मुहुत्तपुधत्तमेत्तमेत्थ वालोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक होता है। शंका-यह अन्तर पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका भले ही हो, किन्तु यह सामान्य तिर्यंचोंका नहीं हो सकता; क्योंकि, शेष तीन गतियोंका काल अनन्त नहीं है? समाधान-ऐसा नहीं है, क्योंकि, विवक्षित पद (कृतिसंचित आदि) वाले जीवको शेष तीन गतियोंमें घुमाकर अविवक्षित पदसे तिर्यंचों में प्रवेश कराकर वहां अनन्त काल रह कर और फिर निकल कर विवक्षित पदसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेपर अनन्त काल अन्तर पाया जाता है। इसी प्रकार मनुष्य आदि तीन, सब विकलेन्द्रिय और सब पंचेन्द्रियोंके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके उनसे कोई विशेषता नहीं हैं। मनुष्य अपर्याप्तों में तीनों पदवालोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग अन्तर होता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल अन्तर होता है। देवगतिमें देवों, भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिषी देवों और सौधर्म-ईशान कल्पके देवोंकी अन्तरप्ररूपणा नारकियोंके समान है। इसी प्रकार सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पके देवोंके भी अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि इनमें जघन्य अन्तर ..क. ३९. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ६६. जहणंतरं होदि । कुदो ? सणक्कुमार-माहिंददेवेहिंतो तिरिक्ख-मणुस्सेसु गन्भोवतिएसु उपज्जिय मुहुत्तपुधत्तमच्छिय आउअं बंधिय सणक्कुमार - माहिंददेवेसु पुणो उप्पण्णस्स मुहुत्तपुघत्तमेत्तंतरुवलंभादो । एदम्हादो थोवमंतरं किण्ण लब्भदे ? ण, सणक्कुमार-माहिंददेवाणं तिरिक्ख-मणुसग भोवक्कंतिएसु आउअं बंधताणं मुहुत्तपुधत्तादो हेट्ठा बंधाभावादो । भुंजमाणाउअं' घादिय मुहुत्तपुधत्तादो हेट्ठा काढूण घादियसेसं जीविय सणक्कुमार- माहिंदेसु उप्पण्णस्स जहणंतरं किण्ण कीरदे ? ण, देवेहि बद्धाउअस्स घादाभावादो । एस अत्थो उवरि सम्वत्थ वत्तव्वो । बम्हबम्होत्तर- लंतवकाविट्ठदेवेसु जहण्णाउअबंधो दिवसपुधत्तं । सुक्क महासुक्क - सदर-सहस्सारकप्पेसु पक्खपुधत्तं । आणद- पाणद - आरणच्चुदकप्पेसु मासपुघत्तं । णवगेवज्जविमाणवासियदेवेसु वासपुधत्तं । अणुदिसादि जाव अवराइदे त्ति वासपुधत्तं । दाणि जहण्णायुगाणि बंधिय तिरिक्ख- मणुस्से सुप्पज्जिय अप्पिददेवेसु उप्पण्णाणं जहणमंतरं मुहूर्त पृथक्त्व मात्र होता है, क्योंकि, सनत्कुमार- माहेन्द्र देवोंमेंसे गर्भोपकान्तिक तिर्यच व मनुष्योंमें उत्पन्न होकर मुहूर्तपृथक्त्व काल रहकर आयुको बांधकर पुनः सनत्कुमारमाहेन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके मुहूर्त पृथक्त्व मात्र अन्तर पाया जाता है । शंका- इससे स्तोक अन्तर क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, तिर्येच व मनुष्य गर्भोपक्रान्तिकोंमें आयुको बांधनेवाले सनत्कुमार- माहेन्द्र देवोंके मुहूर्तपृथक्त्वसे नीचे आयुका बन्ध नहीं होता । शंका - भुज्यमान आयुका घात करके मुहूर्त पृथक्त्व से नीचे कर घातनेसे शेष रही आयुके प्रमाण जीवित रहकर सनत्कुमार- माहेन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके जघन्य अन्तर क्यों नहीं किया जाता ? समाधान -- नहीं, क्योंकि, देवों द्वारा बांधी गई आयुका घात नहीं होता । यह अर्थ आगे सब जगह कहना चाहिये । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर और लान्तव कापिष्ठ देवोंमें जघन्य आयुका बन्ध दिवस पृथक्त्व मात्र होता है। शुक्र महाशुक्र और शतार- सहस्रार कल्पोंमें जघन्य आयुका बन्ध पक्षपृथक्त्व मात्र होता । आनत-प्राणत और आरण- अच्युत कल्पोंमें जघन्य आयुका बन्ध मासपृथक्त्व मात्र होता है। नौ ग्रैवेयक विमानवासी देवोंमें जघन्य आयुका बन्ध वर्षपृथक्त्व मात्र होता है । अनुदिशों से लेकर अपराजित विमानवासी देवोंमें जघन्य आयुका बन्ध वर्षपृथक्त्व मात्र होता है। इन जघन्य आयुओंको बांधकर तिर्यच व मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पुनः विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंके जघन्य अन्तर होता है । विशेषता इतनी है कि १ प्रतिषु 'मंजमाणाउअं ' इति पाठः । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६५.] कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमा (૨૦૭ होदि । णवरि आणद - पाणद - आरणच्चुददेवाणं जहणणंतरे भण्णमाणे मणुस्सेसु मासपुधत्तअंबंधिय मणुसे सुप्पज्जिय तत्थ मासपुधत्तं जीविय पुणेो सम्मुच्छिमम्मि उप्पज्जिय अतो मुहुत्ते संजमा संजम घेत्तूण कालं करिय आणद - पाणद - आरणच्चददेवेसु उप्पण्णस्स जहणंतरं वत्तव्वं । कुदो ? संजमासंजमेण संजमेण वा विणा तत्थ उववादाभावादो | सम्मत्तं चैव गेहाविय किण्ण उप्पादिदो ? ण, मणुस्सेसु वासपुधत्तेण विणा मासपुधत्त मंतरे सम्मत्तसंजम - संजमा संजमाणं गहणाभावादो । सम्मुच्छिमेसु सम्मत्तं चैव गेण्हाविय किण्ण देवेसु उप्पादेो ? होदु णामेदं, संजमासंजमेण त्रिणा तिरिक्खअसंजदसम्मादिट्ठीणमाणदादिसु उपपत्तिदंसणा दो । एदं कुदो णव्वदे ? तिरिक्खासंजदसम्मादिट्ठीणं मारणंतियस्स छोइसभागमेत्तपोसणपरूवणादो | दव्वलिंगी मिच्छाइट्ठी किण्ण उप्पादिदो ? ण, वासपुधत्तेण विणा आनत-प्राणत और आरण-अच्युत देवोंके जघन्य अन्तरकी प्ररूपणा करते समय मनुष्यों में मासपृथक्त्व मात्र आयुको बांधकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर और वहां मासपृथक्त्व काल जीवित रहकर पुनः सम्मूच्छिममें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्तसे संयमासंयमको प्रहण करके मृत्युको प्राप्त हो आनत-प्राणत और आरण- अच्युत देवोंमें उत्पन्न हुए जीवके जघन्य अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि, संयमासंयम अथवा संयमके विना उन देवोंमें उत्पत्ति सम्भव नहीं है । शंका सम्यक्त्वको ही ग्रहण कराकर क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान- नहीं कराया, क्योंकि, मनुष्यों में वर्षपृथक्त्वके विना मासपृथक्त्वके भीतर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमके ग्रहणका अभाव है । शंका- सम्मूच्छिमों में सम्यक्त्वको ही ग्रहण कराकर देवोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान - यह भी सम्भव है, क्योंकि, संयमासंयम के विना तिर्यच असंयतसम्यग्टष्टियोंकी आनतादिकों में उत्पत्ति देखी जाती है । शंका- यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-यह तिर्यच असंयत सम्यग्दृष्टियोंके मारणान्तिकसमुद्घातकी अपेक्षा छह बटे चौदह भाग मात्र स्पर्शनकी प्ररूपणा करनेसे जाना जाता है । शंका - द्रव्यलिंगी मिध्यादृष्टिको क्यों नहीं वहां उत्पन्न कराया ? समाधान नहीं कराया, क्योंकि, वर्षपृथक्त्वके बिना मासपृथक्त्वके भीतर द्रव्य Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] छक्खंडागमे यणाखंड [१, १,११. मासपुधत्तम्भंतरे दव्वलिंगग्गहणाभावादो। सम्माइली आणदादिदेवेहिंतो मणुस्सेसु किण्ण भोदारिदो ? ण', वासपुधत्तादो हेट्टा सम्माइट्ठीणमाउअबंधाभावादो। एवं सव्वेसिं देवाणं जहणंतरपरूवणा कदा । . उवरिमगेवज्जादिहेट्ठिमदेवाणमुक्कस्संतरमणतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । अणुदिस-अणुत्तरदेवेसु बेसागरोवमाणि सादिरेयाणि उक्कस्संतरं, अप्पिददेवेहितो मणुस्सेसुप्पज्जिय पुवकोर्डि जीविदूण सोहम्मीसाणदेवेसु बेसागरोवमाउएसु उप्पज्जिय पुणो वि पुवकोडाउओ मणुसो होदूण कालं कादूण अप्पिददेवेसुप्पणे दोपुवकोडीहि सादिरेयाणि बेसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । अणुहिसदेवेसु समयाहियएक्कत्तीससागरोवमाउएसु उप्पज्जिय तत्तो भविय मणुस्सेसुप्पज्जिय पुणो भुत्त- जमाणे-मुंजिस्समाणेहि य चदुहि मणुस्साउएहि ऊणचत्तारि लिंगका ग्रहण करना सम्भव नहीं है । शंका-आनतादि देवों से सम्यग्दृष्टियोंको मनुष्योंमें अवतार लिवाकर जघन्य भन्तर क्यों नहीं बतलाया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वर्षपृथक्त्वके नीचे सम्यग्दृष्टियोंके आयुका बन्ध नहीं होता; अतः उनके उक्त प्रकारसे अन्तर बन नहीं सकता था। इस प्रकार सब देवोंके जघन्य अन्तरकी प्ररूपणा की गई है। उपरिम अवेयको आदि लेकर अधस्तन देवोंके उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुदगलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल होता है। अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी देवोंमें उत्कृष्ट अन्तर दो सागरोपमोसे कुछ अधिक होता है, क्योंकि, विवक्षित देवों से मनुष्यों में उत्पन्न होकर पूर्वकोटि काल जीवित रहकर दो सागरोपम आयुवाले सौधर्म-ईशान कल्पके देवों में उत्पन्न होकर फिर भी पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला मनुष्य होकर मरकर विवक्षित देवों में उत्पन्न होनेपर दो पूर्वकोटियोंसे अधिक दो सागरोपम प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। शंका-एक समय अधिक इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले अनुदिश देवों में उत्पन्न होकर वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर पुनः भुक्त, भुजमान और भविष्यमें भोगी जानेवाली चार मनुष्यायुओंसे कम चार सागरोपम प्रमाण आयुवाले ....................... १ प्रतिषु · किण्ण ओदारिदूण' इति पाठः। २ प्रतिषु · भंजमाणं- ' इति पारः । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमो [ ३०९ सागरोवमाउएसु सणक्कुमारदेवे सुप्पज्जिय पुणो मणुसगइमागंतूण समयाहियएक्कत्तीस सागरोमाउसु अणुद्दिसदेवसुप्पण्णे अंतरकालो चत्तारिसागरोवममेत्तो देसूणो लम्भदि । वेदगसम्मत्तकालो विछावसिागरोवममेत्तो संपुण्णो होदि । तदो एसो उक्कस्तरकालो घेत्तव्वो त्ति ? ण, एत्थ वेदगसम्मत्तेण एक्केण चैव होदव्वमिदि नियमाभावादो । नियमे वा सादिरेयबेसागरोवममेत्तो अणुत्तरदेवाणमंतरकालो विरुज्झदे वेदगसम्मत्तस्स सादिरेयछावट्टिसागरोवमकालप्पसंगादो' च । तदो तिण्णि वि सम्मत्ताणि एत्थ ण विरुज्यंति त्ति घेत्तव्वं । जदि एवं घेपदि तो समय हियएक्कत्तीस सागरोवमाणि आउवदेवं मणुस्सेसुष्पाइय पुणे एक्कत्तीस - सागरोवमाउएसु उवरिमगेवज्जदेवेसु उपपाइय मणुसगइमाणेण दंसणमोहणीयं खविय खइयसम्मत्तेण अणुद्दिसदेवेसु उप्पाइदे सादिरेय एक्कत्तीस सागरोवममेत्तंतर कालो लग्भदे ? ण, अणु१ द्दिसाणुत्तरदेवाणं तत्तो भविय पुणेो तत्थेव उप्पज्जमाणांणं सादिरेय बेसागरोवमे मोत्तूण अहियं सनत्कुमार देवोंमें उत्पन्न होकर पुनः मनुष्यगतिको प्राप्त होकर एक समय अधिक इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले अनुदिश देवोंमें उत्पन्न होनेपर अन्तरकाल कुछ कम चार सागरोपम प्रमाण प्राप्त होता है । और इस प्रकार वेदकसम्यक्त्वका काल भी छ्यासठ सागरोपम मात्र सम्पूर्ण होता है । अत एव इस उत्कृष्ट अन्तरकालको ग्रहण करना चाहिये ? समाधान - नहीं, क्योंकि, यहां एक वेदकसम्यक्त्व ही होना चाहिये, ऐसा नियम नहीं है | अथवा ऐसा नियम माननेपर अनुत्तरविमानवासी देवका कुछ अधिक दो सागरोपम मात्र अन्तरकाल विरोधको प्राप्त होगा, तथा वेदकसम्यक्त्वके कुछ अधिक छयासठ सागरोपम प्रमाण कालका प्रसंग भी आवेगा । इस कारण तीनों ही सम्यक्त्व यहां विरोधको प्राप्त नहीं होते, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । शंका -- यदि इस प्रकार ग्रहण करते हैं तो एक समय अधिक इकतीस सागरोपम प्रमाण आयुवाले देवको मनुष्यों में उत्पन्न कराकर पुनः इकतीस सागरोपम आयुवाले उपरिम ग्रैवेयकविमानवासी देवों में उत्पन्न कराकर मनुष्यगतिमें लाकर दर्शनमोहनीयका क्षयकर क्षायिक सम्यक्त्वके साथ अनुदिशविमानवासी देवोंमें उत्पन्न करानेपर कुछ अधिक इकतीस सागरोपम मात्र अन्तरकाल पाया जाता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनुदिश व अनुत्तर विमानवासी देवोंके वहांसे व्युत होकर फिर से वहां पर ही उत्पन्न होनेपर कुछ अधिक दो सागरोपमोंको छोड़कर अधिक १ - भाप्रमोः ' कालप्पसंगो च ' इति पाठः । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१.] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,६१. तरकालावलंभादो । एदं कुदो णव्वदे ? 'अणुदिसाणुत्तरदेवाणमुक्कस्संतरं बेसागरोबमाणि सादिरेयाणि' त्ति खुद्दाबंधसुत्तादो णव्वदे। ण जुत्तीए सुत्तविरुद्धाए बहुवमंतरं वोतुं सक्किज्जदे, अणवत्थापसंगादो। कधमणवत्था ? अणुदिसाणुत्तरदेवस्स मणुस्सेसुप्पज्जिय मिच्छत्तं गदस्स अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तरप्पसंगादों । तत्तो चुदा मिच्छत्तं ण गच्छंति त्ति उवलपोग्गलपरियट्टमेत्ततरं ण लब्भदि त्ति जदि उच्चदि तो अणुद्दिसाणुत्तरेहितो भविय पुणो तत्थुप्पज्जमाणाणं सादिरेयबेसागरोवमे मोत्तण अहिओ अंतरकालो ण लब्भदि ति सुत्तबलेण किण्ण इच्छिज्जदे । सवठ्ठसिद्धिम्हि जहण्णुक्कस्संतरं णत्थि, तत्तो च्चुदाणं पुणो तत्थुववादाभावादो। भन्तरकाल नहीं पाया जाता। . शंका-यह कहांसे जाना जाता है ? समाधान-अनुदिश व अनुत्तर विमानवासी देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक दो सागरोपम प्रमाण है, इस क्षुद्रकबन्धके सूत्र(देखिये पु. ७, पृ. १९६) से जाना जाता है। सूत्रविरुद्ध युक्तिसे बहुत अन्तर कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, ऐसा होनेसे अनवस्थाका प्रसंग आता है। शंका-अनवस्था कैसे आती है ? समाधान-अनुदिश व अनुत्तर विमानवासी देवके मनुष्यों में उत्पन्न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र अन्तरका प्रसंग आनेसे अनवस्था आती है। शंका-अनुद्दिश व अनुत्तर विमानोंसे च्युत हुए देव चूंकि मिथ्यात्वको प्राप्त होते नहीं हैं अतः उनके उपार्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र अन्तर नहीं प्राप्त हो सकता? समाधान-यदि ऐसा कहते हो तो अनुहिश व अनुत्तर विमानोंसे ध्युत होकर फिरसे वहां उत्पन्न होनेपर कुछ अधिक दो सागरोपोंको छोड़कर अधिक अन्तरकाल नहीं पाया जाता, ऐसा सूत्रबलसे क्यों नहीं स्वीकार करते; यह भी उत्तर दिया जा सकता है। सर्वार्थसिद्धि विमानमें जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर नहीं है, क्योंकि, वहांसे व्युत जीवोंकी फिरसे वहां उत्पत्ति सम्भव नहीं है। १ अप्रतौ — उच्चुदाणं ' इति पाठः। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारे अंतराणुगमो [ ३११ एइंदिय-वि-ति-चदु-पंचिंदिएसु' तिरिक्खभंग । बादरेइंदियाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । सुहुमाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाओ ओसप्पिणी - उस्सप्पिणीओ । , १,६६. ] चचारिकायाणं तेसिं चैव बादराणं तेसिमपज्जत्ताणं तेसिं सुहुमाणं तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं कदिसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवगहणं, उक्कस्सेण अनंतकालम संखेज्जपोग्गलपरियट्टा । बादरपुढविकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय- बादरवा उकाइय- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्ताणं तसकाइयपज्जत्तापज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। बादरवणफदिकाइयपत्तेयसरीराणं तेसिमपज्जत्ताणं च एगजीवं पडुच्च जद्दण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टा । वणप्फदिकाइयणिगोदजीवाणं बादर-सुहुमाणं च तेर्सि चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं च कदिसेचिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियोंमें कृतिसंचित जीवोंकी प्ररूपणा तिर्येचोंके समान है । बादर एकेन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल उक्त जीवोंका अन्तर होता है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? उक्त जीवोका अन्तर जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल होता है । चार काय अर्थात् पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व वायुकायिक और उनके ही बादर व उनके अपर्याप्त, उनके सूक्ष्म व उनके ही पर्याप्त अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवप्रहण व उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण काल तक होता है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, वादर वायुकायिक व बाद वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त तथा त्रसकायिक पर्याप्त व अपर्याप्तोकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर व उनके अपर्याप्तोका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अढ़ाई पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । वनस्पतिकायिक निगोद जीव उनके बादर व सूक्ष्म तथा उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? उक्त जीवोंका १ अ - आलो : ' एईदिए एइंदिएस', काप्रतौ ' एइंदिय एइंदिए ' इति पाठः । Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२) छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा । पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणं णेरइयभंगो । कायजोगीणमेइंदियभंगो । णवरि जहण्णमंतरं एगसमओ । ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्सकायजोगीणं कदिसंचिदाणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेउव्वियकायजोगीणं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियट्टा । वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बारस मुहुत्ताणि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि सादिरेयाणि, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । आहारकायजोगि-आहारमिस्सकायजोगीणं तिण्णिपदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियÉ देसूणं । कम्मइयकायजोगीणं कदिसंचिदाणं अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहण तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणीउस्सप्पिणीओ। अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुदभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल तक होता है। पांच मनोयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है। काययोगियोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है। विशेषता इतनी है कि इनका जघन्य अन्तर एक समय होता है। औदारिककाययोगी और औदारिकमिश्रकाययोगी कृतिसंचित जीवोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपमोसे कुछ अधिक है। वैक्रियिककाययोगियोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे बारह मुहूर्त प्रमाण अन्तर होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दश हजार वर्षांस कुछ अधिक और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक होता है । आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगी तीनों पदवालोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व प्रमाण उक्त जीवोंका अन्तर होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। कार्मणकाययोगी कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी. अवसर्पिणी काल तक Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १६.] कदिअणियोगदारे अंतराणुगमो इत्थि-पुरिस-णqसयवेदाणं तिण्णिपदाणं अंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, एगसमओ, अंतोमुहुत्तं; उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, [सागरोवमसदपुधत्तं] । अवगदवेदतिण्णं पदाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण । ___चत्तारिकसायकदिसंचिदाणं अंतरं एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अकसायाणं अवगदवेदभंगो। णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणि-आभिणिवोहिय-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणितिण्णिपदाणमंतर' केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियई देसूर्ण । विभंगणाणीणं णारगभंगो, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोग्गलपरियहतरेण सामण्णादो । केवलणाणीणं णाणेगजीव पडुच्च णत्थि अंतरं । सव्वसंजदाणं संजदासंजदाणमसंजदाणं च मदिणाणिभंगो । णवरि सुहुमसांपराइएसु स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेदी तीनों पदवालोंका अन्तर कितने काल तक होता है? उक्त तीनों वेदवालोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः क्षुद्रभवग्रहण, एक समय और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे स्त्री व पुरुषवेदियोंका असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल [ तथा नपुंसकवेदियोंका सागरोपमशतपृथक्त्व काल ] होता है। अपगतवेदी तीन पदोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक अन्तर होता है। चार कषायवाले कृतिसंचितोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त होता है। अकषायी जीवोंकी अन्तरप्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। ज्ञानमार्गणानुसार मातअज्ञानी. श्रुताशानी, आभिनिबोधिकहानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानियों में तीन पदोंका अन्तर कितने काल तक होता है? जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल उक्त जीवोंका अन्तर होता है। विभंगशानियोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है, क्योंकि, आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अन्तरसे इनकी नारकियोंके साथ समानता है। केवलशानियोका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। सब संयत, संयतासंयत और असंयत जीवोंकी प्ररूपणा मतिज्ञानियोंके समान है । विशेषता इतनी है कि सूक्ष्मसाम्परायिकसंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक १ प्रतिषु ' गाणीपदाणमन्तरं ' इति पाठः। १ था-कापलोः 'देपूर्ण ' पदं नोपलभ्यते । Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ] छक्खंडागमे वेयणाखं गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटै । चक्खुदंसणीणं णारगभंगो। अचक्खुदंसणीणं णत्थि अंतरं, केवलदसणीणं पुणो अचक्खुदंसणपरिणामाभावादो । ओहिदसणीणं ओहिणाणिभंगो। केवलदसणाणं केवलणाणिभंगो। किण्ण-णील-काउलेस्सियाणं कदिसंचिदाणं अंतर केवचिरं कालादो होदि ? एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्करसेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सियाणं णारगभंगो । भवसिद्धियाणं णस्थि अंतरं, सिद्धाणं भवियपरिणामाभावादो। अभवसिद्धियाणं णत्थि अंतरं । कारणं सुगम । सम्मादिहि-वेदगसम्मादिट्ठि-मिच्छादिट्ठीणमाभिणिबोहियभंगो। खइयसम्मादिट्ठीणं णस्थि अंतरं, सम्मत्ततरगमणाभावादो । उवसमसम्मादिट्ठीणं तिण्ण पदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सत्तरादिदियाणि । एगजीवं पडुच्च सम्मादिभिंगो। सम्मामिच्छाइट्ठीणं तिण्णिपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स समय और उत्कर्षसे छह मास तक अन्तर होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तमुहर्त और उत्कर्षसे अर्ध पुद्गलपरिवर्तन काल तक अन्तर होता है। चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा नारकियों के समान है । अचक्षुदर्शनी जीपोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, केवलदर्शनी जीव पुनः अचक्षुदर्शनी रूपसे परिणमन नहीं करते। अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिशानियोंके समान है। केवलदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंके समान है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले कृतिसंचितोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपमोंसे कुछ अधिक अन्तर होता है। तेज, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है। भव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, सिद्ध जीवोंका पुनः भव्य स्वरूपसे परिणमन नहीं होता। अभव्यसिद्धिक जीवोंका अन्तर नहीं होता। इसका कारण सुगम है। सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकशानियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि, क्षायिका सम्यक्स्व अन्य सम्यक्त्व स्वरूप परिणत नहीं होता। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके तीन पदोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सात रात्रि दिन होता है । एक जीवकी अपेक्षा उनकी प्ररूपणा सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है। सम्यग्मिथ्या. हटियोंके तीन-पदोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक: समय और उत्कर्षसे Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७, १,६६. कदिअणियोगद्दारे भावाणुगमो [ ३१५ असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च आभिणिबोहियभंगों । सासणसम्मादिट्ठीणं जाणाजीवं पडुच्च सम्मामिच्छत्तभंगो । एगजीवं पडुच्च जहणणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, उक्कस्सेण अद्धप।ग्गलपरियहं देसूणं । सण्णि-असण्णीणमेइंदियभंगो । आहारएसु तिष्णिपदाणं जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णिसमया । अणाहारएसु जहणणेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी - उस्सप्पिणीओ । एवमंतराणुगमो समत्तो । भावानुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइयाणं कदि - णोकदि अवत्तव्वसंचिदाणं को भावो ? ओदइओ भावा । अगेसु भावेसु संतेसु कधमोदइयत्तं चेव जुज्जदे ? ण, रइयभावप्पणादो; इदरेहि भावेहिंतो णेरइयभावाणुष्पत्ती दो । एवं सव्वगदीणं वत्तव्वं । इंदियमग्गणाए वि ओदइओ भावो, एग-बि-ति-चदु-पंचिंदियजादिकम्मेहिंतो तस्सुप्पत्ती दो । एवं कायमग्गणाए पल्योपमके असंख्यातवें भाग होता है । एक जीवकी अपेक्षा उनकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । सासादनसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा वह जवन्यसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । संक्षी और असंक्षी जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवोंके समान है । आहारक जीवोंमें तीनों पदोंका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षले तीन समय तक होता है । अनाहारकोंमें वह अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अंगुल असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी अवसर्पिणी प्रमाण है। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ । भावानुगमकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगति में नारकी कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंके कौनसा भाव होता है ? उक्त जीवोंके औदायिक भाव होता है । शंका- उनके अनेक भावोंके होते हुए केवल एक औदायिक भाव कहना कैसे उचित है ? समाधान - नहीं, क्योंकि यहां नारक भाव ( पर्याय ) की विवक्षा है और यह मारक पर्याय अन्य भावोंसे उत्पन्न होती नहीं है । इसी प्रकार सब गतियोंके औदायिक भाव कहना चाहिये । इन्द्रियमार्गणा में भी औदयिक भाव है, क्योंकि, वह एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जाति नामकमके उदयसे होती है । इसी प्रकार कायमार्गणा में भी औदयिक भाव कहना Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ छक्खंडागमे वेयणाखंड [., १,६६. वि वत्तव्वं, पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-वणप्फदिकाइय-तसकाइयणामकम्मेहिंतो तदुप्पत्तीदो। जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो। एवं वेद-कसायमग्गणाओ वि वत्तव्वाओ, वेद-कसायाणमुदएण तदुप्पत्तीदो। णाणमग्गणा सिया खइया, णाणावरणक्खएण केवलणाणुप्पत्तीदो। सिया खओवसमिया, मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणावरणक्खओवसमेण मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवणाणुप्पत्तीदो। संजममग्गणा सिया ओदइया, चारित्तावरणोदएण असंजमुप्पत्तीदो। सिया खओवसमिया, चारित्तावरणक्खओवसमेण संजमासंजम-सामाइयच्छेदोवट्ठावण-परिहारसुद्धिसंजमाणमुप्पत्तिदसणादो। सिया खइया, चारित्तावरणक्खएण जहाक्खादसंजमुप्पत्तीदो । सिया उवसमिया, चारित्तमोहोवसमेण उवसंतकसाय-उवसामएस संजमुवलंभादो । दसणमग्गणा सिया खइया, दंसणावरणक्खएण केवलदसणुप्पत्तीदो । सिया खओवसमिया, चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणावरणक्खओवसमेण चक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणाणुप्पत्तिदसणादो। चाहिये, क्योंकि, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और प्रसकायिक नामकर्मोंके उदयसे उन उन भावोंकी उत्पत्ति होती है। __योगमार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि, वह नामकर्मकी उदीरणा व उदयसे उत्पन्न होती है। इसी प्रकार वेद व कषाय मार्गणाओंको भी कहना चाहिये, क्योंकि, उनकी उत्पत्ति वेद व कषायके उदयसे होती है। ज्ञानमार्गणा कथंचित् क्षायिक है, क्योंकि, शानावरणके क्षयसे केवलज्ञानकी उत्पत्ति होती है। कथंचित् वह क्षायोपशमिक है, क्योंकि, मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय शानावरणके क्षयोपशमसे क्रमशः मति, श्रुत, अवधि भौर मनःपर्यय शानोंकी उत्पत्ति होती है। संयममार्गणा कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, चारित्रावरणके उदयसे असंयम भाव उत्पन्न होता है। कथंचित् वह क्षायोपशमिक है,क्योंकि, चारित्रावरणके क्षयोपशमसे संयमासंयम, सामायिक-छेदोपस्थापना और परिहारशुद्धिसंयमकी उत्पत्ति देखी जाती है। कथंचित् वह क्षायिक है, क्योंकि, चारित्रावरणके क्षयसे यथाख्यात संयम उत्पन्न होता है । कथंचित् वह औपशमिक है, क्योंकि, उपशान्तकषाय व उपशामकोंमें चारित्रमोहनीयके उपशमसे संयम भाव पाया जाता है। दर्शनमार्गणा कथंचित् क्षायिक है, क्योंकि, दर्शनावरणके क्षयसे केवलदर्शनकी उत्पत्ति होती है। कथंचित् क्षायोपशामिक है, क्योंकि, चक्षु, अचक्षु और अवधि दर्शनाबरणके क्षयोपशमसे क्रमशः चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शनकी उत्पत्ति देखी जाती है। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६६. ] कदिअणियोगहारे भावानुगमो ૨૭ लेस्सामग्गणा ओदइया, कसायाणुविद्धजोगं मोत्तूण लेस्साभावादा | भवियमग्गणा पारिणामि, कम्माणमुदयक्खय खओवस मुवसमेहि भव्वाभव्वत्ताण मणुप्पत्तदो । सम्मत्तमग्गणा सिया ओदइया, दंसणमोहोदएण मिच्छत्तुप्पत्तीदो । सिया उवसमिया, तस्सेव उवसमेण उवसमसम्मत्तप्पत्तिदंसणादो । सिया खओवसमिया' सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं खओवसमेण वेदग- सम्मामिच्छत्ताणमुप्पत्तीए । सिया खइया, दंसणमोहक्खएण खइयसम्मत्तस्सुप्पत्तिदंसणादो । सिया पारिणामिया, दंसणमोहणीयस्स उदय उवसमक्खय - खओवसमेहि विणा साससम्म पत्तदो । सणिमग्गणा सिया खओवसमिया, पोइंदियावरणक्खओवसमेण सण्णित्तप्पत्तीदो । सिया ओदइया, गोइंदियावरणदिएण असण्णित्तुवलंभादो । आहारमग्गणा ओदइया, ओरालियवेव्विय- आहारसरीराणमुदएण आहारित्तस्सुप्पत्तीदो कम्भइयसरीरमेत्तोदएण अणाहारितुप्पत्तीदो च । एवं भावानुगमो समत्तो । लेइया मार्गणा औदयिक है, क्योंकि, कषायानुविद्ध योगको छोड़कर लेश्याका अभाव है, अर्थात् कषायानुरंजित योगप्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । अत एव वह औदयिक है । भव्य मार्गणा पारिणामिक है, क्योंकि, कर्मोंके उदय, क्षय, क्षयोपशम और उपशमसे भव्यत्व व अभव्यत्वकी उत्पत्ति नहीं होती । सम्यक्त्व मार्गणा कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदयसे मिध्यात्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् वह औपशमिक है, क्योंकि, उसीके उपशमसे उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् क्षायोपशमिक है, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के क्षयोपशमसे वेदकसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् वह क्षायिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयसे क्षायिक सम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है । कथंचित् पारिणामिक है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशमके विना सासादनसम्यक्त्वकी उत्पत्ति होती है । संज्ञी मार्गणा कथंचित् क्षायोपशमिक है, क्योंकि, नोइन्द्रियावरण के क्षयोपशमसे संशित्वकी उत्पत्ति होती है । कथंचित् औदयिक है, क्योंकि, नोइन्द्रियावरणके उदयसे असंशित्व पाया जाता है। आहार मार्गणा औदयिक है, क्योंकि, औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर के उदयसे आहारित्वकी उत्पत्ति होती है और कार्मण शरीर मात्रके उदयसे अनाहारित्वकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ । १ प्रतिषु ' ओवसमियाओ ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' आहारेत्तस्सुप्पत्ती दो ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' आहारदुग्गणा 'इति पाठः । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ छक्खंडागमे यणाख . अप्पापहुगाणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु सव्वत्थोवा णोकदिसंचिदा। अवत्तव्वसंचिदा विससाहिया । कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ सेडीओ। एवं पढमादि जाव सत्तमपुढवी त्ति पत्तेग पत्ते णोकदिअवत्तव्य-कदिसंचिदाणं सत्थाणप्पाबहुगं वत्तव्यं । एवं चेव असंखेज्जाणंतरासीणं पि वत्तव्वं । णवरि सिद्धेसु सव्वत्थोवा कदिसंचिदा, तिप्पहुडीणं जीवाणं सिझंताणं पाएण अभावादो । अवत्तव्वसंचिदा संखेज्जगुणा, दोण दोणं जीवाणं पाएण णिव्वुइगमणुवलंभादो । णोकदिसंचिदा संखेज्जगुणा, एक्केक्कजीवाणं पाएण सिद्धिसंभवादो । एदमप्पाबहुगं सोलसवदियअप्पाबहुएण सह विरुज्झदे, सिद्धकालादो सिद्धाणं संखेज्जगुणत्तं फिट्टिदूण विसेसाहियत्तप्पसंगादो । तेणेत्य उवएस लहिय एगदरणिण्णओ कायव्यो । संतकम्मप्पयडिपाहुडं मोतूण सोलसवदियअप्पाबहुअदंडए पहाणे कदे मणुसपज्जत्त-मणुसिणीणं एत्तो संचयं पडिवज्जमाणसिद्धाणं आणदादिदेवरासीणं च अप्पाबहुए भण्णमाणे सव्वत्थावा णोकदिसंचिदा, अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया, कदिसंचिदा संखेज्जगुणा तिवत्तव्वं । मणुसिणीसु सव्वत्थोवा कदिसंचिदा, अल्पबहुत्वानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियों में नोकृतिसंचित जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवक्तव्यसंचित जीव विशेष अधिक हैं। उनसे कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं । गुणकार यहां क्या है ? जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात जगणी गुणकार है। इसी प्रकार प्रथम पृथिवीसे लेकर सप्तम पृथिवी तक प्रत्येक प्रत्येक नोकृति, अवक्तव्य और कृति संचित जीवोंके स्वस्थान अल्पबहुत्व कहना चाहिये। इसी प्रकार ही असंख्यात और अनन्त राशियों के भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सिद्धों में कृतिसंचित सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, तीन आदि सिद्ध होनेवाले जीवोंका प्रायः अभाव है। उनसे अवक्तव्यसंचित असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, दो दो जीवोंका प्रायः मुक्तिगमन पाया जाता है। उनसे नोकृतिसंचित संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, एक एक जीवोंके सिद्ध होनेकी अधिक सम्भावना है। यह अलपबहुत्व बोडशपदिक अल्पबहुत्व के साथ विरोधको प्राप्त होता है, क्योंकि, सिद्धकालकी अपेक्षा सिद्धोंके संख्यातगुणत्व नष्ट होकर विशेषाधिकपनेका प्रसंग भाता है। इस कारण यहां उपदेश प्राप्तकर दोमेंसे किसी एकका निर्णय करना चाहिये। सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतको छोड़कर षोडशपदिक अल्पबहुत्वदण्डकको प्रधान करनेपर मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, इनसे संचयको प्राप्त होनेवाले सिद्ध और आनतादिक देवराशियोंके अस्पषटुत्वको कहनेपर-नोकृतिसंचित सबमें स्तोक है, इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष हैं, इनसे कृतिसंचित संख्यातगुणे हैं, ऐसा कहना चाहिये। मनुष्यनियों में कृतिसंचित १ प्रतिषु 'पलिय'ति पाठः Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६६.) कदिअणियोगदारे अप्पाबहुमाणुगमो बहूणं जीवाणमक्कमेण मणुसिणीसु पविठ्ठवाराणमइत्थोवत्तादो । अवत्तव्यसंचिदा संखेज्जगुणा, मणुसिणीसु दोण्णं दोण्णं जीवाणं पाएणुप्पत्तिदंसणादो । णोकदिसंचिदा संखेज्जगुणा, एकेकजीवपवेसस्स पउरमुवलंभादो। एवं मणुसपज्जत्त-मणपज्जवणाणि-खइयसम्माइष्टि-संजदसामाइयछेदोवट्ठावण-परिहार-सुहुम-जहाक्खादसंजद-आणदादिमणुसोववादियदेवाणण्णेसिं च संखेज्जरासीणं वत्तव्वं । एवं सत्थाणप्पाबहुगं सम्मत्तं । परत्थाणे सव्वत्थोवा सत्तमाए पुढवीए णोकदिसंचिदा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया। छट्ठीए णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । पंचमीए णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । चउत्थीए णोकदिसंचिदा असंखेजगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । तदियाए णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया। विदियाए णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । पढमाए णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । सत्तमाए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । छट्ठीए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । पंचमीए कदिसंचिदा सबमें स्तोक हैं, क्योंकि, बहुत जीवोंके एक साथ मनुष्यनियों में प्रविष्ट होनेके वार अत्यन्त स्तोक हैं। अवत्तव्यसंचित संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, मनुष्यनियोंमें दो दो जीवोंकी प्रायः करके उत्पत्ति देखी जाती है। नोकृतिसंचित संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, एक एक जीयका प्रवेश उनमें अधिकतासे पाया जाता है । . इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त, मनःपर्ययज्ञानी, क्षायिकसम्यग्दृहि, संयत, सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, आनतादि विमानोंसे मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले देव तथा अन्य भी संख्यात राशियोंके कहना चाहिये । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परस्थान अल्पबहुत्वमें सातवीं पृथिवीके नोकृतिसंचित जीव सबमें स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे छट्ठी पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे पांचवी पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक है। चतुर्थ पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक है। इनसे तृतीय पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे द्वितीय पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे प्रथम पृथिवीके नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे सातवीं पृथिवीके कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे छठी पृथिवीके कृतिसंचित अखंण्यातगुणे हैं। इनसे पांचवीं पृथिवीके कृतिसंचित असंण्यालगुणे। मले चतुर्थ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. छक्खंडागमे वेयणाख 1१, १, ११. असंखेज्जगुणा । चउत्थीए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । तदियाए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । बिदियाए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । पढमाए कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । एवं परत्थाणप्पाबहुगं जाणिदूण सव्वमग्गणासु णेयव्वं । सव्वपरत्थाणे सव्वत्थोवाओ मणुसिणीओ कदिसंचिदाओ । अवत्तव्वसंचिदाओ संखेज्जगुणाओ । णोकदिसंचिदाओ संखेज्जगुणाओ । मणुसा णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । तिरिक्खजोणिणीओ णोकदिसंचिदाओ असंखेज्जगुणाओ । अवत्तव्वसंचिदाओ विसेसाहियाओ । णेरइया णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । देवा णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । अवतव्वसंचिदा विसेसाहिया । देवीओ णोकदिसंचिदाओ संखेज्जगुणाओ । अवत्तव्वसंचिदाओ विसेसाहियाओ । मणुसा कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा। णेरइया कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । तिरिक्खजोणिणीओ कदिसंचिदाओ असंखेज्जगुणाओ । देवा कदिसंचिदा संखेज्जगुणा । देवीओ कदिसंचिदाओ संखेज्जगुणाओ। तिरिक्खणोकदिसंचिदा अणतगुणा । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । कदिसंचिदा असंखेज्ज. गुणा । कुदो ? असंखेज्जपोग्गलपरियट्टकालभंतरसंचिदरासिग्गहणादो । सिद्धा कदिसंचिदा अणंतगुणा । अवत्तवसंचिदा संखेज्जगुणा । णोकदिसंचिदा संखेज्जगुणा त्ति। ............................ पृथिवीके कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे तृतीय पृथिवीके कृतिसंचित असंख्यात. गुणे हैं। इनसे द्वितीय पृथिवीके कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे प्रथम पृथिवीके कृतिसंचित असंख्यातगणे हैं। इस प्रकार परस्थान अल्प न अल्पबहुत्वको जानकर सब मार्गणाओंमें ले जाना चाहिये। सर्व परस्थान अल्पबहुत्वमें- मनुष्यनियां कृतिसंचित सबसे स्तोक हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित संख्यातगुणी हैं। इनसे नोकृतिसंचित संख्यातगुणी हैं। इनसे मनुष्य नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे तिर्येच योनिमती नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे नारकी नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे है । इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे देव नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे देवियां नोकृतिसंचित संख्यातगुणी हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे मनुष्य कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे नारकी कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इनसे तिर्यच योनिमती कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं । इनसे देव कृतिसंचित संख्यातगुणे हैं । इनसे देवियां कृतिसंचित संख्यातगुणी हैं। इनसे तिर्यंच नोकृतिसंचित अनन्तगुणे हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, यहां असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन कालके भीतर संचित राशिका ग्रहण है। इससे सिद्ध कृतिसंचित अनन्तगुणे हैं। इमसे अवतव्यसंचित संख्यातगुणे हैं। इनसे नोति. खंत्रित संख्यातगुणे हैं। Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ६७.] कदिअणियोगदारे गंथकदिपरूवणा [३२१ संपहि इंदियमग्गणाए वुच्चदे । तं जहा- सव्वत्थोवा चउरिंदिया णोकदिसंचिदा। अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । तेइंदिया णोकदिसंचिदा विसेसाहिया । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । बेइंदिया णोकदिसंचिदा विसेसाहिया । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । पंचिंदिया णोकदिसंचिदा असंखेज्जगुणा, असंखेज्जवाससंचिदत्तादो । अवत्तव्वसंचिदा विसेसाहिया । कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । चउरिदिया कदिसंचिदा विसेसाहिया । तेइंदिया कदिसंचिदा विसेसाहिया । बेइंदिया कदिसचिदा विसेसाहिया । एइंदिया णोकदिसंचिदा अणतगुणा । अवत्तब्वसंचिदा विसेसाहिया । कदिसंचिदा असंखेज्जगुणा । एवं जे जहा भवंति ते तहा णेदव्वा । एवं गणणकदी समत्ता । + जा सा गंथकदी णाम सा लोए वेदे समए सद्दपबंधणा अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरचणा कीरदे सा सव्वा गंथकदी णाम ॥६७॥ ........................................... अब इन्द्रिय मार्गणामें अल्पबहुत्व कहते हैं। वह इस प्रकार है-चतुरिन्द्रिय नोकृतिसंचित सबसे स्तोक हैं । इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे त्रीन्द्रिय नोकृतिसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे द्वीन्द्रिय नोकृतिसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे अबक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे पंचेन्द्रिय नोकृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे असंख्यात वर्षों में संचित हैं । इनसे अव. क्तव्यसंचित पंचेन्द्रिय विशेष अधिक हैं । इनसे कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं । इनसे चतुरिन्द्रिय कृतिसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे त्रीन्द्रिय कृतिसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे द्वीन्द्रिय कृतिसंचित विशेष अधिक हैं। इनसे एकेन्द्रिय नोकृतिसंचित अनन्तगुणे हैं । इनसे अवक्तव्यसंचित विशेष अधिक हैं । इनसे कृतिसंचित असंख्यातगुणे हैं। इस प्रकार जो जिस प्रकार होते हैं उन्हें उसी प्रकार ले जाना चाहिये । इस प्रकार गणनकृति समाप्त हुई। जो वह ग्रन्थकृति है वह लोकमें, वेदमें व समयमें शब्दसन्दर्भ रूप अक्षरात्मक काव्यादिकोंके द्वारा जो ग्रन्थरचना की जाती है वह सब ग्रन्थकृति कहलाती है ॥ ६७ ॥ १ अप्रतौ । चउरिदिया कदि. पंचिंदिया विसेसाहिया', आप्रती'चउरिदिया कदि. संचिंदिया विसेसाहिया ' इति पाठः। ७.क.४१. Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२] छक्खंडागमे वेयणाखंडं '[४, १, ६७. .. गंथकदी चउव्विहा णाम-ट्ठवणा-दव्व-भावगंथकदिभेएण। णाम-ट्ठवणाओ सुगमाओ। दव्वगंथकदी दुविहा आगम-णोआगमभेएण । आगमदव्वगंथकदी णोआगमजाणुगसरीरभवियगंथकदीओ च सुगमाओ, बहुसो उत्तत्तादो। जा सा तव्वदिरित्तदव्वगंथकदी सा गंथिम-वाइम-वेदिम-पूरिमादिभेएण अणेयविहा । कधदेसिं गंथसण्णा ? ण, एदे जीवो बुद्धीए अप्पाणम्मि गुंथदि' त्ति तेसिं गंथत्तसिद्धीदो । जा सा भावगंथकदी सा दुविहा आगमणोआगमभावगंथकइभेएण । गंथकइपाहुडजाणओ उवजुत्तो आगमभावगंथकई णाम । णोआगमभावगंथकई दुविहा सुद-णोसुदभावगंथकइभेएण। तत्थ सुदं तिविहं -लोइयं वेदिमं सामाइयं चेदि । तत्थ एक्केक्कं दुविहं दव्व-भावसुदभेएण । तत्थ व्वसुदस्स सद्दप्पयस्स तव्वदिदिरित्तणोआगमदव्वगंथकदीए परूवणा कायव्वा, भावाहियारे दव्वेण पओजणाभावादो । (इस्त्यश्व-तंत्र-कौटिल्य-वात्स्यायनादिबोधो लौकिकभावश्रुतग्रन्थः । द्वादशांगादिबोधो वैदिक नाम, स्थापना, द्रव्य और भावके भेदसे ग्रन्थकृति चार प्रकारकी है। इनमेंसे नाम व स्थापना ग्रन्थकृतियां सुगम हैं। द्रव्यग्रन्थकृति आगम और नोआगमके भेदसे दो प्रकारकी है। आगमद्रव्यग्रन्थकृति, नोआगम-शायकशरीर-द्रव्यग्रन्थकृति और नोआगमभावि द्रव्यग्रन्थकृति सुगम हैं, क्योंकि, उनका अर्थ बहुत वार कहा जा चुका है। जो तद्व्यतिरिक्त द्रव्यग्रन्थकृति है वह गूंथना, बुनना, वेष्टित करना और पूरना आर्दके भेदसे अनेक प्रकार की है। शंका - इनकी ग्रन्थ संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, जीव इन्हें बुद्धिसे आत्मामें गूथता है अतः उनके प्रन्थपना सिद्ध है। भावग्रन्थकृति आगम और नोआगम भावग्रन्धकृतिके भेदसे दो प्रकारकी है। ग्रन्थकृतिप्राभृतका जानकार उपयुक्त जीव आगमभावग्रन्थकृति कहलाता है। नोआगमभावप्रन्थकृति श्रुत और नोश्रुत भावग्रन्थकृतिके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे श्रुत तीन प्रकारका है-लौकिक, वैदिक और सामायिक । इनमेंसे प्रत्येक द्रव्य और भाव श्रुतके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमेंसे शब्दात्मक द्रव्यश्रुतकी तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यनन्थकृतिमें प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, भावके अधिकारमें द्रव्यसे कोई प्रयोजन नहीं है। हाथी, अश्व, तन्त्र, कौटिल्य अर्थशास्त्र और वात्स्यायन कामशास्त्र आदि विषयक ज्ञान लौकिक भावभुत ग्रन्थकृति है। द्वादशांगादि विषयक बोध वैदिक भावश्रुत ग्रन्थकृति १काप्रती गंथदि ' इति पाठः। २ प्रतिषु ' -प्पयस्स करणं तव्वादि-' इति पाठः । . Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७, १, ६७. ] कदिअणियोगद्दारे गंधक दिपरूवणा [ ३२३ भावश्रुतग्रन्थः । नैयायिक-वैशेषिक लोकायत-सांख्य-मीमांसक बौद्धादिदर्शनविषयबोधः सामोयिकभावश्रुतग्रन्थः । एदेसिं सदपबंधणा' अक्खरकव्वादीणं जा च गंथरयणा अक्षरकाव्यै - र्ग्रन्थरचना प्रतिपाद्यविषया सा सुदगंथकदी णाम ।) जा सा णोदगंथकदी सा दुविहा अभंतरिया बाहिरा चेदि । तत्थ अब्भंतरिया मिच्छत्त-तिवेद-हस्स-रदि - अरदि-सोग-भयदुर्गुछा - कोह- माण- माया - लोहभेएण चोद्दसविहा । बाहिरिया खेत्त-वत्धु-घणघण्ण-दुवय-चउप्पय- जाण-सयणासण- कुम्प - भंडभेएण दसविहा' । कथं खेत्तादीणं भावगंथसण्णा ? कारणे कज्जोवारादो । ववहारणयं पटुच्च खेत्तादी गंथो, अब्भंतरगंथकारणत्तादो । एदस्स परिहरणं णिग्गंथत्तं । णिच्छयणयं पडुच्च मिच्छत्तादी गंथो, कम्मबंधकारणत्तादो । तेसिं परिच्चागो 1 है। तथा नैयायिक, वैशेषिक, लोकायत, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध, इत्यादि दर्शनोंको विषय करनेवाला बोध सामायिक भावश्रुत ग्रन्थकृति है । इनकी शब्दसन्दर्भ रूप अक्षरकाव्यों द्वारा प्रतिपाद्य अर्थको विषय करनेवाली जो ग्रन्थरचना की जाती है वह श्रुतग्रन्थकृति कही जाती है । नोतग्रन्थकृति दो प्रकारकी है। आभ्यन्तर और बाह्य । उनमेंसे आभ्यन्तर नोतग्रन्थकृति मिथ्यात्व, तीन वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से चौदह प्रकारकी है । बाह्य नोश्रुतग्रन्थकृति क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद, यान, शयन, आसन, कुप्य और भाण्डके भेदसे दस प्रकारकी है । शंका- क्षेत्रादिकोंकी भावग्रन्थ संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान --- कारण में कार्यका उपचार करनेसे क्षेत्रादिकों की भावग्रन्थ संज्ञा बन जाती है |व्यवहारनयकी अपेक्षा क्षेत्रादिक ग्रन्थ हैं, क्योंकि, वे अभ्यन्तर ग्रन्थके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । निश्चय नयकी अपेक्षा मिथ्यात्वादिक ग्रन्य हैं, क्योंकि, वे कर्मबन्धके कारण हैं और इनका त्याग करना निर्ग्रन्थता है । नैगम नयकी १ प्रतिषु ' सत्यपबंधणा ग्रन्थरचना अक्खर ' इति पाठः । २ मिळत वेदरांगा व हस्सादिया य दोसा । चचारि तह कसाया चोदस अद्भुतरा गंथ ॥ खेते वत्थु धणं-धंण्णंगदं दुपद-चंप्पदगदं च । जान-संयणासगाणि यं कुप्पे भंडेल दस होति । मूला. ५, २१०-११. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ खंड बेयणाखंड [ ४, १, ६८. णिग्गंथतं । णइगमणएण तिरयेणाणुवजोगी बज्झभंतरपरिग्गहपरिच्चाओ णिग्गथतं । एवं गंधकदी समत्ता | जा सा करणकदी णाम सा दुविहा मूलकरणकदी चेव उत्तरकरणकदी चैव । जा सा मूलकरणकदी णाम सा पंचविहा- ओरालियसरीरमूलकरणकदी उव्वियसरीरमूलकरणकदी आहारसरीरमूलकरणकदी तेयासरीर मूलकरणकदी कम्मइयसरीरमूलकरणकदी चेदि ॥ ६८ ॥ 6 जा सा करणकदी णाम ' इति पुव्वुद्दिट्ठअहियार संभालगडं भणिदं । सा दुविहा, अपेक्षा तो रत्नत्रयमें उपयोगी पड़नेवाला जो भी बाह्य व अभ्यन्तर परिग्रहका परित्याग है उसे निर्ग्रन्थता समझना चाहिये । - विशेषार्थ – यहां नामादि निक्षेपों द्वारा ग्रन्थकृतिका विचार करते हुए मुख्यतया तद्व्यतिरिक्त द्रव्यग्रन्थकृति और भावग्रन्थकृति के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है । जैसा कि ग्रन्थकृतिका निर्देश करते हुए सूत्रमें उसे लौकिक, वैदिक और सामायिक भेदसे तीन प्रकारका बतलाया है। तदनुसार जिन निमित्तोंके आधार से इन ग्रन्थोंकी रचना होती है वे सब तद्द्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यग्रन्थकृति कहलाते हैं । प्रकृतमें टीकाकारने गूंथना, नना आदि द्वारा लौकिक ग्रन्थकृतिके निमित्तोंका निर्देश किया है । इसी प्रकार अन्य ग्रन्थकृतियोंकी रचना के निमित्त जानने चाहिये । भावग्रन्थकृतिका निर्देश करते हुए नोआगमभावग्रन्थकृति श्रुत और नोश्रुत भेदसे दो प्रकार की बतलाई है। श्रुतमें लौकिक, वैदिक और सामायिक सब प्रकारके श्रुतका ज्ञान लिया गया है और नोश्रुतमें बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह लिया गया है । अभ्यन्तर परिग्रह तो आत्माके परिणाम है, इसलिये इनका भाव निक्षेपमें अन्तर्भाव हो जाता है इसमें सन्देह नहीं; किन्तु बाह्य परिग्रहका भावनिक्षेपमें अर्न्तभाव नहीं होता । फिर भी यहां कारणमें कार्यका उपचार करके भावनिक्षेपके प्रकरण में बाह्य परिग्रहका भी ग्रहण किया है, ऐसा यहां समझना चाहिये । इस प्रकार ग्रन्थकृति समाप्त हुई । करणकृति दो प्रकारकी है - मूलकरणकृति और उत्तरकरणकृति । मूलकरण कृति पांच प्रकारकी है - औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति, आहारकशरीरमूलकरणकृति, तैजसशरीरमूलकरणकृति और कार्मणशरीरमूलकरणकृति ॥ ६८ ॥ ' जो वह करणकृति ' यह वचन पूर्वमें उद्दिष्ट अधिकारका स्मरण करानेके लिये १ नापतौ ' तिरिय ' इति पाठः । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १,६८.1 कदिअणियोगदारे करणकदिपावणा मूलुत्तरकरणेहिंतो वदिरित्तकरणाभावादो । तं जहा- करणेसु जं पढमं करणं पंचसरीरप्पयं तं मूलकरण । कथं सरीरस्स मूलत्तं ? ण, सेसकरणाणमेदम्हादो पउत्तीए सरीरस्स मूलत्तं पति विरोहाभावादो । जीवादो कत्तारादो अभिण्णत्तणेण कत्तारत्तमुपगयस्स कथं करणत्तं १ णा, जीवादो सरीरस्स कथंचि भेदुवलंभादो। अभेदे वा चेयणत्त-णिच्चत्तादिजीवगुणा सरीरे वि होति । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। तदो सरीरस्स करणतं ण विरुज्झदे । सेसकारयमावे सरीरम्मि संते सरीरं करणमेवेत्ति किमिदि उच्चदे ? ण एस दोसो, सुत्ते करणमेवे ति अवहारणाभावादो। सा च मूलकरणकदी ओरालिय-वेउब्बिय-आहार-तेया-कम्मइयसरीरभेएण पंचविहा कहा है। वह दो प्रकारकी है, क्योंकि, मूल और उत्तर करणको छोड़कर अन्य करणोंका अभाव है । यथा- करणों में जो पांच शरीर रूप प्रथम करण है वह मूल करण है। शंका-शरीरके मूलपना कैसे सम्भव है ? समाधान- चूंकि शेष करणोंकी प्रवृति इस शरीरसे होती है अतः शरीरको मुल करण माननेमें कोई विरोध नहीं आता। शंका-कर्ता रूप जीवसे शरीर अभिन्न है, अतः कर्तापनेको प्राप्त हुए शरीरके करणपना कैसे सम्भव है ? समाधान-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, जीवसे शरीरका कथंचित् भेद पाया जाता है । यदि जीवसे शरीरको सर्वथा अभिन्न स्वीकार किया जाये तो चेतनता और निस्यत्व आदि जीवके गुण शरीरमें भी होने चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, शरीरमें इन गुणोंकी उपलब्धि नहीं होती। इस कारण शरीरके करणपना विरुद्ध नहीं है। शंका-शरीरमें शेष कारक भी सम्भव हैं । ऐसी अवस्थामें शरीर करण ही है, ऐसा क्यों कहा जाता है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, सूत्रमें 'शरीर करण ही है' ऐसा नियत नहीं किया गया है। वह मूलकरणकृति औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर १प्रतिषु : सेसकारियभावे ' इति पाठः। Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ ] graat arraडे चेव, छट्ठादिसरीराभावादो । एदेसिं मूलकरणाणं कदी कज्जं संघादणादी तं मूलकरणकदी णाम, क्रियते कृतिरिति व्युत्पत्तेः; अधवा मूलकरणमेव कृतिः; क्रियते अनया इति व्युत्पत्तेः । कथं संघादणादणं सरीरतं एस दोसो, तेर्सि तत्तो भेदाभावादो । एवं मूलकरणकदीए सरूवत्तं भेदं च परूविय तत्थ एक्केक्किस्से भेदपरूवणट्ठमुत्तरसुतं भणदि f जा सा ओरालिय- वे उव्विय-आहारसरीरमूलकरणकदी णाम सा तिविहा- संघादणकदी परिसादणकदी संघादण-परिसा दणकदी चेदि । सा सव्वा ओरालिय- वे उच्चिय- आहारसरीरमूलकरणकदी नाम ॥६९॥ तत्थ अप्पिदसरीरपरमाणूण णिज्जराए विणा जो संचओ सा संघादणकदी णाम । ४, १,६९. भेद से पांच प्रकारकी ही है, क्योंकि, छठे आदि शरीर नहीं पाये जाते है । इन मूले करणोंकी कृति अर्थात् संघातनादि कार्य मूलकरणकृति कही जाती है, क्योंकि, जो किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्द की व्युत्पत्ति है; अथवा मूलकरण ही कृति है, क्योंकि, जिसके द्वारा किया जाता है वह कृति है, ऐसी कृति शब्द की व्युत्पत्ति है । शंका -- संघातन आदिके शरीरपना कैसे सम्भव है ? समाधान- -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वे शरीर से अभिन्न हैं । विशेषार्थ — कृतिका अर्थ कार्य है। पांच शरीर संघातन आदि कार्योंके प्रति अत्यन्त साधक होते हैं, इसलिये इन्हें करण कहा है। और ये शेष कार्यों की प्रवृत्तिके मूल हैं इसलिये इन्हें मूलकरण कहा है। इनसे संघातन आदि कार्य होते हैं, इसलिये ये मूलकरणकृति कहलाते हैं । संघातन आदि कार्योंको पांचों शरीरोंसे पृथक् मान कर यह अर्थ किया गया है । यदि संघातन आदि कार्योंको पांचों शरीरोंसे अभिन्न माना जाता है तो स्वयं पांच शरीर मूलकरणकृति ठहरते हैं । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । - इस प्रकार मूलकरणकृतिके स्वरूप और भेदकी प्ररूपणा करके उनमें एक एकके भेद बतलाने के लिये उत्तर सूत्र कहते हैं औदारिकशरीरमूलकरणकृति, वैक्रियिकशरीरमूलकरणकृति और आहारकशरीरमूलकरणकृति तीन तीन प्रकारकी है- संघातनकृति, परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति । वह सब औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरमूलकरणकृति है ॥ ६९ ॥ उनमें से विवक्षित शरीर के परमाणुओंका निर्जराके विना जो संचय होता है उसे Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ६९. ] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ ३२७ तेसिं चेव अप्पिदसरीरपोग्गलक्खंधाणं संचएण विणा जा णिज्जरा सा परिसादणकदी णाम । अप्पिदसरीरस्स पोग्गलक्खंधाणमागम- णिज्जराओ संवादण - परिसादणकदी णाम । तत्थ तिरिक्ख-मणुस्से सुप्पण्णपढमसमए ओरालियसरीरस्स संघादणकदी चेव, तत्थ तक्खंधाणं णिज्जराभावादो । बिदियसमय पहुडि संघादण - परिसादणकदी होदि, बिदियादिसमएसु अभवसिद्धिएहि अनंत गुणाणं सिद्धेहिंतो अनंतगुणहीणाणं ओरालियसरीरक्खं घाणमागमणणिज्जराणमुवलंभादो । तिरिक्ख - मणुस्सेहि उत्तरसरीरे उट्ठाविदे ओरालियपरिसादणकदी होदि, तत्थोरालियसरी रक्खंधाणमागमाभावादो । देव- रइएसुप्पण्णपढमसमए वेउब्वियरीरस्स संघादणकदी, तत्थ तक्खंधाणं णिज्जराभावादो । बिदियादिसमएस संवादण - परिसादणकदी, तत्थ तक्खंधाणमागमण- णिज्जराणं दंसणादो । उत्तरसरीरमुडाविय मूलसरीरं पविट्ठस्स परिसादणकदी, तत्थ तक्खंधाणमागमाभावाद | Fi तिरिक्ख मणुस्से विविहगुणिद्धिविरहिदसरीरेसु वेउब्वियसरीरसंभवो ? णत्थि संघातनकृति कहते हैं। उन्हीं विवक्षित शरीर के पुद्गलस्कन्धोंकी संचयके बिना जो निर्जरा होती है वह परिशातन कृति कहलाती है । तथा विवक्षित शरीरके पुद्गलस्कन्धोंका आगमन और निर्जराका एक साथ होना संघातन परिशातनकृति कही जाती है । उनमें से तिर्यच और मनुष्योंके उत्पन्न होने के प्रथम समय में औदारिक शरीरकी संघातनकृति ही होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीर के स्कन्धोंकी निर्जरा नहीं पायी जाती । द्वितीय समय से लेकर आगे के समयोंमें औदारिक शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है, क्योंकि, द्वितीयादिक समयों में अभव्यसिद्धिकोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंसे अनन्तगुणे हीन औदारिक शरीर के स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं । तथा तिर्यच और मनुष्यों द्वारा उत्तर शरीर के उत्पन्न करनेपर औदारिक शरीरकी परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय औदारिक शरीरके स्कन्धोंका आगमन नहीं होता । देव व नारकियोंके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय वैक्कियिक शरीरके स्कन्धौकी निर्जरा नहीं होती । द्वितीयादिक समय में उसकी संघातन परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों एक साथ देखे जाते हैं। तथा उत्तर शरीरका उत्पादन कर मूल शरीर में प्रविष्ट हुए देव व नारकी के मूलशरीर की परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीर के स्कन्धौका आगमन नहीं होता । शंका - विविध प्रकार के गुण व ऋद्धिसे रहित शरीरवाले तिर्यच व मनुष्यों के वैकिशरीर कैसे सम्भव है ? Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७०. तिरिक्ख-मणुस्सेसु वेउव्वियसरीरं, एदेसु वेउव्वियसरीरणामकम्मोदयाभावाद।। किंतु दुविहमोरालियसरीरं विउव्वणप्पयमविउव्वणप्पयमिदि । तत्थ विउव्वण्णप्पयं जमोरालियसरीरं तं वेउव्वियमिदि एत्थ घेत्तव्वं । आहारसरीरमुट्ठाविदपढमसमए आहारसरीरसंघादणकदी, तत्थ तक्खंधाणं परिसदणाभावादो । तत्तो उवरि संघादण-परिसादणकदी होदि, आगम-णिज्जराणं तत्थुवलंभादो । मूलसरीरं पविढे परिसादणकदी, तत्थागमाभावादो । एवं तिण्णं सरीराणं तिण्णि तिण्णि कदीओ परूविदाओ । एदाओ सव्वाओ ओरालिय-वेउव्विय-आहारसरीरमूलकरणकदीओ त्ति भणत्ति । जा सा तेजा-कम्मइयसरीरमूलकरणकदी णाम सा दुविहापरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी चेदि । सा सव्वा तेजा-कम्मइयसरीरमूलकरणकदी णाम ॥ ७० ॥ अजोगिम्मि जोगाभावण बंधाभावादो एदासिं दोणं सरीराणं परिसादणकदी होदि । अण्णत्थ सव्वत्थ वि तदुभयकदी चेव संसारे सव्वत्थ एदासिं आगम-णिज्जरुवलंभादो । .................... समाधान-तिर्यंच व मनुष्योंके वैक्रियिकशरीर सम्भव नहीं है, क्योंकि, इनके वैक्रियिकशरीरनामकर्मका उदय नहीं पाया जाता। किन्तु औदारिकशरीर विक्रियात्मक और अविक्रियात्मकके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें जो विक्रियात्मक औदारिकशरीर है उसे यहां वैक्रियिक रूपसे ग्रहण करना चाहिये। आहारकशरीरको उत्पन्न करने के प्रथम समयमें आहारकशरीरकी संघातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके परिशातनका अभाव है। इससे कारके समयों में संघातन-परिशातनकृति होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरके स्कन्धोंका आगमन और निर्जरा दोनों पाये जाते हैं। मलशरीरमें प्रविष्ट होनेपर आहारकशरीरकी परिशातनात होती है, क्योंकि, उस समय उक्त शरीरस्कन्धोंका आगमन नहीं होता। इस प्रकार तीन शरीरोंके तीन तीन कृतियां कही गई हैं। ये सब औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीर मूलकरणकृतियां कही जाती हैं। तैजसशरीर और कार्मणशरीर मूलकरणकृति दो प्रकारकी है- परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति । यह सब तैजसशरीर और कार्मणशरीर मूलकरणकृति है ॥ ७० ॥ अयोगकेवलीके योगका अभाव हो जानेके कारण बन्ध नहीं होता, इसलिये इनके इन दो शरीरोंकी परिशातनकृति होती है। तथा अन्य सब जगह उक्त दोनों शरीरोंकी संघातन-परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि, संसारमें सर्वत्र उनका आगमन और निर्जरा Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा [ ३२९ एदासिं संघादणकदी णत्थि, बंध-संतोदयविहिदसिद्धाणं बंधकारणाभावादो । एदाओ सव्वाओ तेजा-कम्मइयसरीरमूलकरणकदीओ त्ति भणंति । एदेहि सुत्तेहि तेरसण्हं मूलकरणकदीणं संतपरूवणा कदा ॥७१॥ पुणो एदेण देसामासियसुत्तेण सूइदअहियाराणं परूवणा कीरदे । तं जहापदमीमांसा-सामित्तमप्पाबहुअं चेदि तिण्णि अहियारा होंति, एदेहि विणा संताणुववत्तीदो । तत्थ पदमीमांसा उच्चदे। तं जहा- ओरालियसरीरस्स संघादणकदी अस्थि उक्कस्सा अणुक्कस्सा जहण्णा अजहण्णा च । एवं परिसादण-तदुभयकदीयो उक्कस्साओ अणुक्कस्साओ जहण्णाओ अजहण्णाओ च अस्थि । एवं सेससरीराणं पि वत्तव्वं । पदमीमांसा गदा । सामित्तं उच्चदे- ओरालियसरीरस्स उक्कस्ससंघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुसणीए वा तिरिक्खस्स तिरिक्खजोणिणीए वा पंचिंदियस्स पज्जत्तस्स सण्णिस्स दोनों पाये जाते हैं। इन दोनों शरीरोंकी संघातनकृति नहीं होती, क्योंकि बन्ध, सत्त्व और उदयसे रहित सिद्ध जीवोंके बन्धके कारणोंका अभाव है । अतः उनके इन शरीरोंका नवीन बन्ध सम्भव नहीं है। ये सब तैजसशरीर और कार्मणशरीर मूलकरणकृतियां हैं, ऐसा जानना चाहिये। इन सूत्रों द्वारा तेरह मूल करणकृतियोंकी सत्प्ररूपणा की गई है ॥ ७१ ॥ अब इस देशामर्शक सूत्र द्वारा सूचित होनेवाले अधिकारोंकी प्ररूपणा की जाती है । यथा-पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व, ये तीन अधिकार और हैं, क्योंकि, इनके बिना सत्प्ररूपणा नहीं बनती। उनमेंसे सर्व प्रथम पदमीमांसा अधिकारका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है- औदारिकशरीरकी संघातनाति उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकारकी होती है। इसी प्रकार परिशातन और तदुभय कृतियां उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे चार प्रकारकी होती हैं। इसी प्रकार शेष शरीरोंकी पदमीमांसाका भी कथन करना चाहिये । पदमीमांसा समाप्त हुई। विशेषार्थ-पदमीमांसा प्रकरणमें उत्कृष्ट आदि पदोंका विचार किया जाता है। पहले औदारिकशरीर संघातनकृति आदि जिन तेरह कृतियोंका निर्देश कर आये हैं उनमें से प्रत्येकके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य, ये चारों पद सम्भव हैं; ऐसा यहां जानना चाहिये। अब स्वामित्व अधिकारका कथन करते हैं- ओदारिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति किसके होती है ? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा तिर्यंच या तिर्यंचयोनिनी छ, ४२. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. संखेज्जवासाउअस्स तिसमयतब्भवत्थस्स पढमसमयआहारयस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया संघादणकदी। तव्वदिरित्तस्स अणुक्कस्सा । एत्थ पंचिंदियणिद्देसो विगलिंदियपडिसेहफलो। अपज्जत्तजोगपडिसेहढें पज्जत्तगहणं । असण्णिजोगपडिसेहट्ठो सणिणिदेसो । णेरइएहितो आगंतूण तिरिक्ख-मणुस्सेसु उप्पण्णस्स उक्करससामित्तं होदि त्ति जाणावणटुं संखेजवासाउअस्से ति उत्तं । तदियसमयउक्कस्सएगताणुवड्विजोगग्गहणटुं तिसमयतब्भवत्थादिवयणं । उक्कस्सिया संघादणकदी केत्तिया ? एगसमयपबद्धमत्ता । ओरालियसरीरस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुसिणीए वा पंचिंदियतिरिक्खस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीए वा सणिस्स पज्जत्तयस्स पुव्वकोडिआउअरस कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा । जेण पढमसमयतब्भवत्थप्पहुडि उक्करसेण जोगेण आहारिदं, उवकस्सियाए वड्डीए वड्डिदं, जो उक्करसाई जोगट्ठाणाई बहुसो पहुसो गच्छदि, जहण्णाई ण गच्छदि; तप्पाओग्गउक्कस्सजोगी बहुसो बहुसो होदि, पंचेन्द्रिय है, पर्याप्त है, संशी है, संख्यात वर्षकी आयुवाला है, तीसरे समयमें तद्भवस्थ हुआ है, तद्भवस्थ होने के प्रथम समयवती आहारक है एवं उत्कृष्ट योगवाला है, उसके उत्कृष्ट संघात नकृति होती है। इससे भिन्न जीवके अनुत्कृष्ट संघातनकृति होती है। यहां पंचेन्द्रिय पदका निर्देश विकलेन्द्रिय जीवोंका प्रतिषेध करनेके लिये किया है। अपर्याप्त योगका प्रतिषेध करनेके लिये पर्याप्त पदका ग्रहण किया है। असंशियोगका प्रतिषेध करनेके लिये संशी पदका निर्देश किया है। नारकियोंमेंसे आकर तिर्यंच व मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ जीव उत्कृष्ट स्वामी होता है, इस बातके बतलाने के लिये 'संख्यातवर्षायुष्कके' ऐसा कहा है । तृतीय समयवर्ती जीवके होनेवाले उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धियोगका ग्रहण करनेके लिये 'तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ' आदि पदका ग्रहण किया है । उत्कृष्ट संघातनकृति कितनी होती है ? एक समयप्रबद्ध प्रमाण होती है। औदारिक शरीर की उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा पंचन्द्रिय तिवंच या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी संज्ञी है, पर्याप्त है, पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला है, कर्मभूमिज है अथवा कर्मभूमिप्रतिभागमें उत्पन्न हुआ है। जिसने विवक्षित भवमें स्थित होने के प्रथम समयसे लंकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो उत्कृष्ट योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त होता है, जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त नहीं होता; जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट १ अ-आप्रत्योः । तच्चवत्थादि', काप्रतौ तव्ववत्थादि' इति पाठः। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३३१ तपाओग्गजहण्णजोगी बहुसे। बहुसो ण होदि; जस्स हेडिल्लीणं हिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, उवरिल्लीण हिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदं, अंतरे ण विउव्विदो, अंतरे छविच्छेदो' ण उप्पाइदो, अप्पाओ' भासद्धाओ, अप्पाओ मणअद्धाओ, रहस्साओ भासद्धाओ, रहस्साओ मणअद्धाओ, अंतोमुहुत्ते जीविदावसेसे जोगट्ठाणाणमुवरिल्ले अद्ध अंतोमुहुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिट्ठाणतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमाच्छिदो', तिचरिम दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो, चरिमसमए उत्तरसरीरं विउव्विदो, तस्स पढमसमयउत्तरविउव्विदस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । तिण्णिपलिदोवमाउअं मोत्तूग किमट्ठ पुवकोडिआउएसु सामित्तं दिणं ? ण एस दोसो, णेरइएहितो आगदस्स भोगभूमिसु उप्पत्तीए अमावादो । ण च णिरयभवपञ्चयदं मोत्तूण अण्णत्थ ओरालियसरीरस्स उक्कस्ससंचओ होदि, अण्णत्थ सुहेण जीविदस्स तिरिक्ख योगी बहुत बहुत बार होता है, तत्प्रायोग्य जघन्ययोगी बहुत बहुत बार नहीं होता; जिसके अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पद होता है और उपरिम स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद होता है, जो मध्य कालमें विक्रियाको प्राप्त नहीं होता, जिसने मध्य कालमें शरीरका छेद नहीं किया है, जिसका भाषाकाल स्तोक है, मनोयोगकाल स्तोक है, भाषाकाल ह्रस्व है, मनोयोगकाल ह्रस्व है, जो जीवितके अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रहने पर योगस्थानोंके उपरिम भागमें अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित है, जो अन्तिम जीवगुणहानिस्थानके मध्यमें आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक स्थित है, त्रिचरम और द्विचरम समयमें जो उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है तथा जो अन्तिम समयमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है; उसके उत्तर शरीरकी विक्रिया करने के प्रयम समयमें उत्कृष्ट योगयुक्त होनेपर उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। उससे भिन्न अनुत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। शंका-तीन पल्योपम प्रमाण आयुवाले तिर्यंच व मनुष्यको छोड़कर पूर्वकोटि मात्र आयुवालों में स्वामित्व किस लिये दिया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, नारकियोमैसे आये हुए जीवकी भोगभूमियों में उत्पत्ति नहीं होती है। यदि कहा जाय कि नारक भवनिभितक पर्यायके सिवा अन्यत्र औदारिक शरीरका उत्कृष्ट संचय हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि, अन्यत्र सुखपूर्वक जीवन विताकर जो जीव तिर्यच व मनुष्योंमें उत्पन्न होता है उसके १वी सरीर, तस्स ...किरियाविससहि खंडणं छेदो णाम | धवला पत्र १०४० सरसावा. २ प्रतिषु उप्पाइदी अप्पाबहुसद्धाओ अप्पाओ' इति पाठः।। ३ प्रतिषु ' जोगद्धाणाण- ' इति पाठः। ४ प्रतिषु भागमुरिल्ले अद्धे अच्छिदो' इति पाठः । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ छक्खंडागमे वैयणाखंड 10, १,७१. मणुस्सेसुप्पज्जिय अणुप्पण्णसंतोसस्स बहुओरालियपदेसग्गहणाभावादो । अवसेस सुत्तटुं वग्गणाए परुवइस्सामो । एत्थ परिसदमाणउक्कस्सदव्वं दिवड्डसमयपबद्धमत्तं होदि, समयपबद्धस्स बिदियणिसेयप्पहुडि सव्वणिसेयाणं तत्थुवलंभादो । ओरालियसरीरस्स उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी कस्स ? एदस्स एसो चेव भालावो वत्तव्यो। तस्स चरिमसमयतब्भवत्थस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया । तव्व. दिरित्ता अणुक्कस्सा। सुगमं । एत्थ संचओ दिवड्डसमयपत्रद्धमेत्तो असंखेजसमयपबद्धमेत्तो वा ओरालियसरीरस्स जहणिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स सुहुमस्स अपज्जत्तस्स पत्तेयसरीरस्स अणादियलंभे पदिदस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमयआहारयस्स सव्वजहण्णजोगस्स ओरालियसरीरस्स जहणिया संघादणकदी । तवदिरित्ता अजहण्णा । अणा असंतोष उत्पन्न न होनेसे बहुत औदारिक प्रदेशोंका ग्रहण नहीं होता। शेष सूत्रार्थ वर्गणा खण्डमें कहेंगे । यहां निर्जराको प्राप्त होनेवाला उत्कृष्ट द्रव्य डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र होता है, क्योंकि, समयप्रबद्धके द्वितीय निषेकसे लेकर सब निषेक वहां पाये जाते हैं। औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट संघातन परिशातनकृति किसके होती है ? इसके यही आलाप कहना चाहिये । यह जीव जब विवक्षित भवके अन्तिम समय में स्थित होता है और उत्कृष्ट योगवाला होता है तब उसके औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति होती है । इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातन परिशातनकृति होती है। यह कथन सुगम है। यहां संचय डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र अथवा असंख्यात समयप्रबद्ध मात्र होता है। __ औदारिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति किसके होती है ? जो कोई जीव सूक्ष्म है, अपर्याप्त है, प्रत्येकशरीरी है, अनादिलम्भमें पतित है, अर्थात् जिसने अनेक वार इस पर्यायको ग्रहण किया है, प्रथम समयमै तद्भवस्थ हुआ है, प्रथम समयसे आहारक है और सबसे जघन्य योगवाला है। उसके औदारिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य संघातनकृति होती है। १ अप्रतौ · संतो परस', आरतौ 'संतापस्स', कापतो ' संतापस्स', 'मप्रतौ तु स्वीकृतपाठः। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१. दिणियोगदारे करणकदिपावणी (२१॥ दियलंभे पदिदस्से त्ति किमर्से उच्चदे' १ ण, पढमलंभे सव्वजहण्णुववादजोगाणुवलंभादो । पत्तेयसरीरस्से ति संतकम्मपयडिपाहुडवयणं पुचकोडायुगचरिमसमए उक्कस्ससामित्तणिद्देसो च सुत्तविरुद्धो त्ति' णाणायरो कायव्वो, दोण सुत्ताणं विरोहे संते त्थप्पावलंबणस्स णाइयत्तादो । सेस सुगमं । ओरालियसरीरस्स जहणिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स बादरवाउजीवस्स, जेण पढमसमयतब्भवत्थप्पहुडि जहण्णएण जोगेण आहारिदं, जहणियाए वड्डीए वविदं, जहण्णाई जोगट्ठाणाई बहुसो बहुसे। जो गच्छदि', उक्कस्साई ण गच्छदि तप्पाओग्गजहण्णजोगी बहुसो बहुसो होदि, तप्पाओग्गउक्कस्सजोगी बहुसो वहुसो ण होदि; हेडिल्लीणं हिदीणं जिसेगस्स उक्कस्सपदं, उवरिल्लीण हिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, जो सव्वलहुं पञ्जत्तिं गदो, सव्वलहुं उत्तरं विउव्विदो, सबचिरेण कालेण जीवपदेसे णिछुहदि, सव्वचिरेण शंका - 'अनादिलम्भमें पतित' यह किसलिये कहा जाता है ? समाधान - यह ठीक नहीं है, चूंकि प्रथम लम्भमें सर्व जघन्य उपपादयोग नहीं पाया जाता अतः 'अनादिलम्भमें पतित' ऐसा कहा गया है। 'प्रत्येकशरीरके' यह सत्कर्मप्रकृतिप्राभृतका वचन और पूर्वकोटि प्रमाण आयुके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट स्वामित्वका निर्देश, ये दोनों वचन चूंकि सूत्रविरुद्ध है; इसलिये इनका अनादर नहीं करना चाहिये, क्योंकि, दो सूत्रोंके मध्यमें विरोध होनेपर चुप्पीका अवलम्बन करना ही न्याय्य है। शेष प्ररूपणा सुगम है। औदारिक शरीरकी जघन्य परिशातनकृति किसके होती है ? जिस बादर बायुः कायिक जीवने उस भवमें स्थित होने के प्रथम समयसे लेकर जघन्य योगके द्वारा आहार प्रहण किया है, जो जघन्य वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो जघन्य योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त होता है, उत्कृष्ट योगस्थानोंको नहीं प्राप्त होता; उसके योग्य जघन्ययोगी बहुत बहुत बार होता है, उसके योग्य उत्कृष्टयोगी बहुत बहुत बार नहीं होता; अधस्तन स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, उपरितन स्थितियोंके निषकके जघन्य पदको करता है, जो सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त होता है, सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रियाको समाप्त कर लेता है, सर्वचिर कालसे जीवप्रदेशोंका निक्षेपण करता है, सर्व १ अप्रतौ ' -उच्चदै णांपढम' इति पाठः । २ प्रतिषु । -णिद्देसा च सुत्तविरोधा क्ति' इति पाठः । ३ काप्रती · जो गच्छदि ' इत्येतस्य स्थाने 'आगच्छदि ' इति पाठ । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ७१. कोलण उत्तरसरीरं विउव्विदो, तस्स चरिमसमयअणियट्टिस्स ओरालियस्स जहणिया परिसादणकदी। तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगममेदं । जहणिया संघादण-परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स सुहुमरस अपज्जत्तस्स पत्तेयसरीरस्स अणादिगलंभे पदिदस्स दुसमयतब्भवत्थस्स दुसमयआहारयस्स तप्पाओग्गजहण्णजोगिस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगमं । वेउब्वियसरीरस्स उक्कस्सिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स वेमाणियदेवस्स सव्वमहंतमसंबद्धरूवं' विउव्वमाणस्स तस्स पढमसगयउत्तरविउव्विदस्स उक्कस्सजोगिस्स वेउब्वियस्स उक्कस्ससंघादणकदी । तविवरीदा अणुक्कस्सा । मूलसरीरादो पुधभूदसरीरविउविदे वि मूलसरीरस्स उत्तरसरीरस्सेव वेउब्धियणामकम्मोदएण आगच्छंता पोग्गलखंधा -................................. चिर कालसे उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त होता है, उस अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्ति किसी भी बादर वायुकायिक जीवके औदारिक शरीरकी जघन्य परिशातनकृति होती है । इससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति होती है । यह कथन सुगम है। औदारिक शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति किसके होती है ? जो कोई सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येकशरीरी जीव अनादिलम्भमें पतित है, दूसरे समयमें तद्भवस्थ हुआ है, आहारक होनेके दूसरे समयमें स्थित है और उसके योग्य जघन्य योगसे युक्त है, उसके औदारिक शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति होती है। उससे भिन्न अजघन्य संधातन-परिशातनकृति है। यह कथन सुगम है। क्रियिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति किसके होती है ? जो कोई वैमानिक देव सबसे बड़े असंबद्ध रूपकी विक्रिया करनेवाला है, उस उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेके प्रथम समयमें स्थित रहनेवाले और उत्कृष्ट योगवाले जीवके वैक्रियिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति होती है । इससे विपरीत अनुत्कृष्ट संघातनकृति है। शंका-मूल शरीरसे पृथग्भूत शरीरकी विक्रिया करनेपर भी उत्तर शरीरके समान मूल शरीरके लिये भी वैक्रियिक नामकर्मके उदयसे पुद्गलस्कन्ध आते हैं और ............... Lim.... ............. १ प्रतिष -मसंबंधरुवं इति पाठः। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [३३५ अस्थि, परिसदंता वि अस्थि; उभयत्थ जीवपदेससंभवादो। तदो एत्थ संघादणकदी ण जुज्जद, किंतु संघादण-परिसादणकदी चेव एत्थ होदि; दोणं पि उवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, मूलसरीरादो पुधभूद सरीरम्मि विउव्वमाणम्मि परिसादणकदीए विणा संघादणकदी चेव त्ति कष्ट संघादणत्तब्भुवगमादो । सेस सुगमं । वेउव्वियसरीरस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स मणुसस्स मणुस्सिणीए वा पंचिंदियतिरिक्खस्स पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीए वा सण्णिस्स पज्जत्तयस्स पुव्वकोडाउअस्स कम्मभूमियस्स वा कम्मभूमिपडिभागस्स वा । जेण पढमसमयउत्तरविउविदप्पहुडि उक्कस्सेण जोगेण आहारिदं, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिवं, हेडिल्लीणं हिदी] णिसेयस्स जहण्णपदमुवरिल्लीणं द्विदीण णिसेयस्स उक्कस्सपदं, अंतोमुहुत्तजीविदावसेसे जोगट्ठाणाणमुवरिल्ले अद्ध अंतोमुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो, चरिमे समए उत्तरं विउव्विदों, सव्वलहुं जीवपदेसे णिच्छुभदि, सव्वचिरं उत्तरं विउव्विदो; तस्स पढमसमयणियत्तस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । उनकी निर्जरा भी होती है, क्योंकि, दोनों शरीरों में जीवप्रदेशोंकी सम्भावना है । इस कारण वैक्रियिक शरीरकी संघातनकृति नहीं बनती। किन्तु इसकी संघातन-परिशातनकृति ही होती है, क्योंकि, दोनों ही एक साथ पायी जाती है। समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मूल शरीरसे पृथग्भूत शरीरकी विक्रिया करनेपर परिशातनकृतिके विना संघातनकृति ही होती है, ऐसा मानकर संघा. तनता स्वीकार की गई है । शेष प्ररूपणा सुगम है। वैक्रियिक शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? जो कोई मनुष्य या मनुष्यनी अथवा पंचेन्द्रिय तिर्यंच या पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिनी संज्ञी है, पर्याप्त है, पूर्वकोटि प्रमाण आयुसे संयुक्त है, कर्मभूमिज है अथवा कर्मभूमिके प्रतिभागमें रहनेवाला है। जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया करने के प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, उत्कृष्ट वृद्धिसे जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो अधस्तन स्थितियोंके निषेकका जघन्य पद करता है, उपरिम स्थितियोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, अन्त. मुहूर्त मात्र जीवितके शेष रहनेपर योगस्थानोंके उपरिम भागमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानके मध्य में आवलोके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है, द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त होता है, चरम समयमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है, सर्वलघु काल में जीवप्रदेशोंका निक्षेपण करता है, तथा जो सर्वीचर कालमें उत्तर शरीरकी विक्रिया करता है; उस प्रथम समय निवृत्त उत्कृष्ट योगीके उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। इससे विपरीत अनुत्कृष्ट परिशातनकृति है।। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६] छखंडागमे वेयणाखंड सुगमं । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स आरणच्चददेवस्स बावीससागरोवमाउअस्स । जेण पढमसमयतन्भवत्थप्पडुडि उक्कस्सएण जोगेण आहारिदं, उक्कस्सि याए वड्डीए वड्डिद, हेडिट्ठल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, उवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्स पदमप्पाओ भासद्धाओ, अप्पाओ मणजोगद्धाओ, रहस्साओ भासद्धाओ, रहस्साओ मणजोद्धाओ, अंत मुहुत्ते जीविदावसेसे ण विउव्विदो, अंत मुहुत्ते जीविदा बसेसे जो गट्ठाणा - मुवरिल्ले अद्धे अंत मुहुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिट्ठागंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, चरिम दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो, तस्स चरिमसमए तन्भवत्थस्स उक्कस्सा तदुभयकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा 1 सुगमं । [ ४, १, ७१. वेव्वियस्स जहणिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स णेरइयस्स असणपच्छायदस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमय आहारयस्स तप्पा ओग्गजहणजेोगस्स जहणिया यह कथन सुगम 1 वैक्रियिकशरीरकी उत्कृष्ट संघातन परिशातनकृति किसके होती है ? जो कोई आरणअच्युत कल्पवासी देव बाईस सागरोपम आयुवाला है । जिसने उस भवमें स्थित होने के प्रथम समय से लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है, अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पर करता है, उपरिम स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, जिसका भाषाकाल अल है, मनोयोग काल अल्प है, भाषाकाल ह्रस्व है, मनोयोगकाल ह्रस्व है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवितके शेष रहने पर जो विक्रियाको नहीं प्राप्त हुआ है, अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवितके शेष होनेपर जो योगस्थानों के उपरम भाग में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, चरम जीवगुणहानिस्थानके मध्य में आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है, तथा जो चरम व द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगको प्राप्त है, उस भवमें स्थित उसके चरम समय में उत्कृष्ट तदुभय कृति होती है । इससे विपरीत अनुत्कृष्ट कृति होती है । यह कथन सुगम है । वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातन कृति जीव असंशी पर्यायसे वापिस आकर नारकी हुआ है, प्रथम समय में आहारक हुआ है, तथा उसके योग्य जघन्य योगसे संयुक्त है; उसके किसके होती है ? जो कोई नारकी प्रथम समय में तद्भवस्थ हुआ है, Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणक दिपवणा [ ११० उब्वियसंघादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । असण्णिपच्छायदग्गहणं किम ? देवइस असण्णपच्छायद पाओग्गजहण्णुववाद जोगग्गहण | सेस सुगमं । विस जहणिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स बादरवाउजीवस्स । जो ' सम्वलहुं पज्जतिं गदो, सम्बलहुमुत्तरसरीरं विउव्विदो, पढमसमय उत्तरविउव्विदप्पहुडिं जहणएण जोगेण आहारिदो, जहण्णियाए वड्डीए वड्ढिदो, जहण्णाई जोगाणाई बहुसो बहुसो गदा, उक्कस्साणि ण गदो; तप्पा ओग्गजहण्णजोगो त्ति देट्ठिल्लीणं ट्ठिदीणं णिसेयस्स उक्कस्स पदमुवरिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं, सव्वत्थोवं कालमुत्तरं विउव्विदो, सव्र्व्वचिरेण कालेण जीवपदे से णिच्छुहृदि, तस्स चरिमसमयअणिल्लेविदस्स जहण्णिया वेउव्वियपरिसादणकदी | तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगमं । जघन्य वैकिंथिक शरीरकी संघातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य संघातनकृति होती है । शंका- यहां ' अशी पर्यायसे वापिस आया हुआ ' इस पदका ग्रहण किसलिये किया है ? समाधान - जो असंज्ञी पर्यायसे वापिस आकर देव और नारकियोंमें उत्पन्न होता है उसके योग्य जघन्य उपपाद योगका ग्रहण करनेके लिये उक्त पदका ग्रहण किया है । शेष प्ररूपणा सुगम है । वैक्रियिक शरीरकी जघन्य परिशातनकृति किसके होती है ? जिस किसी बादर वायुकायिक जीवने सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त किया है, सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रिया की है, उत्तर शरीरकी विक्रियाके प्रथम समय से लेकर जघन्य योगसे आहार ग्रहण किया है, जघन्य वृद्धिले जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो जघन्य योगस्थानों को बहुत बहुत बार प्राप्त कर चुका है, उत्कृष्ट योगस्थानों को बहुत बहुत बार नहीं प्राप्त हुआ है, उसके योग्य जघन्य योग होनेसे जो अधस्तन स्थितियोंके निषेकक उत्कृष्ट पदको और उपरिम स्थितियोंके निषेकके जघन्य पदको करता है, अति स्वल्प काल तक जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया की है तथा जो सर्वचिर कालसे जीवप्रदेशों का निक्षेपण करता है, उस चरम समय अनिर्लेपितके वैक्रियिकशरीरकी जघन्य परिशातन कृति होती है। उससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति है । यह कथन सुगम है । छ. क ४३. १ अप्रतौ ' -जीवस्स वा जो ' इति पाठः । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. वेव्वियस्स जहणिया संघादण - परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स बादरवाउजीवस्स । जो सव्वलहुँ पज्जत्तिं गदो, सव्वलहुमुत्तरं विविदो, जेण पढमसमयउत्तरं विउव्विदप्हुडि जहण्णएण जोगेण आहारिदं, जहण्णियाए वड्डीए वड्डिदं, हेट्ठिल्लीण ट्ठिदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदं, उवरिल्लीणं द्विदीणं [ णिसेयस्स ] जहण्णपदं, तस्स दुसमयविउव्विदस्स जद्द - ण्णिया वेउव्वियसंघादण - परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगमं । आहारसरीरस्स उक्कस्सिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स संजदस्स आहारयसरीरस्स पढमसमय आहारयस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सा आहारसरीरस्स संघादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । सुगमं । तस्सेव उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स संजदस्स आहारसरीरस्स । जेण पढमसमयआहारय पहुडि उक्कस्सेण जोगेण आहारिदं, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्डिद, उक्कस्साई वैक्रियिकशरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति किसके होती है ? अन्यतर बादर वायुकायिक जीवके । जो सर्वलघु कालमें पर्याप्तिको प्राप्त हुआ है, जिसने सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रिया की है, जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया करनेके प्रथम समयसे लेकर जघन्य योगसे आहारको ग्रहण किया है, जो जघन्य वृद्धि से वृद्धिको प्राप्त हुआ है, तथा जो अधस्तन स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको और उपरिम स्थितियोंके निषेकके जघन्य पदको करता है, उस किसी एक बादर वायुकायिक जीवके विक्रिया करनेके दूसरे समय में जघन्य वैक्रियिक शरीरकी संघातन-परिशातन कृति होती है । इससे भिन्न अजघन्य संघातन-परिशातन कृति है । यह कथन सुगम है । आहारकशरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति किसके होती है ? आहारकशरीरवाले अन्यतर संयतके आहारक होनेके प्रथम समयमै उत्कृष्ट योगले संयुक्त होनेपर उत्कृष्ट आहारकशरीरकी संघातनकृति होती है । इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातनकृति है । यह कथन सुगम है । आहारकशरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? अन्यतर आहारकशरीरी संयतके | जिसने आहारकशरीर युक्त होनेके प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो उत्कृष्ट योग १ प्रतिषु विउव्विदो अच्छिदो सन्त्र ' इति पाठः । " २ प्रतिषु ' दीणं जह ' इति पाठः । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूषणा जोगट्ठाणाई बहुसो बहुसो जो गदो, जहण्णाई जोगट्ठाणाई ण गदो; होहल्लीणं दिट्ठीण णिसेयस्स जहण्णपदं, उवरिल्लीण द्विदीर्ण णिसेयस्स उक्कस्सपदं; अंतोमुहुत्ते जीवियावसेसे जोगट्ठाणाणमुवरिल्ले अद्ध अंतोमुहुत्तमच्छिदो, चरिमे जीवगुणहाणिहाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, दुचरिमसमए उक्कस्सजोग गदो, सव्वलहुं जीवपदेसे णिच्छुहदि, सव्वचिरमुत्तरं विउव्विदो, तस्स पढमसमयणियत्तस्स उक्कस्सिया आहारयस्स परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । सुगमं । संघादण-परिसादणकदीए एसेव आलावो । णवरि चरिमसमयअणियट्टिस्स उक्कस्सजोगिस्स उक्कस्सा । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । सुगमं । आहारयस्स जहणिया संघादणकदी कस्स ? अण्णदरस्स संजदस्स आहारसरीरस्स पढमसमयआहारयस्स जहण्णजोगिस्स जहण्णिया आहारसंघादणकदी। तव्वदिरित्ता अजहण्णा । इदरासिं दोण्हं जहण्णकदीणं जहा वेउब्वियस्स दोण्णं जहण्णकदीणं परवणा कदा तहा कायव्वा । स्थानोंको बहुत बहुत वार प्राप्त हुआ है, जघन्य योगस्थानोंको नहीं प्राप्त हुआ है,अधस्तन स्थितियोंके निषेकके जघन्य पदको और उपरिम स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, जो आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर योगस्थानोंके उपरिम भागमें अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानके मध्यमें आवलोके असंख्यातवें भाग तक स्थित रहा है, द्विचरम समय में जो उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है. सर्वलघ कालमें जो जीवप्रदेशोंका निक्षेपण करता है, तथा सर्वचिर कालमें जिसने उत्तर शरीरकी विक्रिया की है, उस प्रथम समयवर्ती निवृत्तके आहारक शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातनकृति है। यह कथन सुगम है। ___ संघातन-परिशातनकृतिका यही आलाप है। केवल इतनी विशेषता है कि चरमसमयवर्ती अनिवृत्ति उत्कृष्ट योगीके उत्कृष्ट आहारक शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है । इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति है । यह कथन सुगम है। आहारक शरीरकी जघन्य संघातनकृतिकिसके होती है ? आहारकशरीरी अन्यतर संयतके आहारशरीर होनेके प्रथम समयमें जघन्य योग युक्त होनेपर आहारक शरीरकी जघन्य संघातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य संघातनकृति होती है। अन्य दो जघन्य कृतियोंकी प्ररूपणा, जैसे वैक्रियिक शरीरकी दो जघन्य कृतियोंकी प्ररूपणा की है, वैसे करना चाहिये। - Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. तेजइयस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी कस्स ? जो जीवा अंत मुहुत्तंतरिदाई चैव इयभवग्गणाई पकरेदि तेत्तीससागरोवमट्ठिदियाई, तम्हि तम्हि पढमसमयतन्भवत्थ पहुडि उक्कस्सएण जोगेण आहारिदो, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिदो, उक्कस्साई जोगट्ठाणाई बहुसो बहुसो गदो, जहण्णाई ण गदो; हेट्ठिल्लट्ठिदिट्ठाणेहि णिसेयस्स जहण्णपदं, उवरिल्लद्विदिट्ठाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, अंतोमुहुत्ते जीविदावसेसे जोगट्ठाणाणमुवरिल्ले अद्धे अंतमुत्तमच्छिदो, चरिमगुणहाणिट्ठाणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागमच्छिदो, दुरिमचरिमेसु समएस उक्कस्सजोगं गदो, चरिमसमए तदो उव्वट्टिदो जल-थलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिएसु उववण्णो, तम्हि पढमसमयप्पहुडि सो चेव आलाओ, पुणेो णिरयगर्दि गंतून उब्वट्टिदो, जल - थलचरपंचिदिएसु उववण्णो, तम्हि अंते।मुहुत्तं जीविदूण मदो, गन्भोवक्कंतिए मणुस्से सु उववण्णो, सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणेजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्ठवस्सियो संजम पडिवण्णो, सव्वलहुं णाणमुप्पादेदि, सव्वलहुं सेलेसि पडिवण्णो, तस्स पढमसमयअजोगिस्स उक्कस्सिया तेजइयस्स परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा | १००1 तेजस शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव मध्यमें अन्तमुहूर्त कालका अन्तर देकर ही तेतीस सागरोपम स्थितिवाले नारक भवको प्राप्त करता है, ऐसा करते हुए जिसने उस उस भवमें तद्भवस्थ होने के प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगके द्वारा आहारको ग्रहण किया है, जो उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ है, उत्कृष्ट योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त हुआ है, जघन्य योगस्थानोंको बहुत बहुत बार नहीं प्राप्त हुआ है; अधस्तन स्थितिस्थानोंके निषेकके जघन्य पदको और उपरिम स्थितिस्थानोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर योगस्थानोंके उपरिम भागमें स्थित रहा है, अन्तिम गुणहानिस्थानके मध्य में आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक स्थित रहा है, द्विचरम व चरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है, अन्तिम समयमें उक्त पर्यायसे निकलकर जलचर व थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में उत्पन्न हुआ है, उस भवमें प्रथम समयसे लेकर वही आलाप कहना चाहिये, तत्पश्चात् फिरसे नरकगतिको प्राप्त हो व वहांसे निकलकर जलचर व थलचर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है, फिर उस भवमें अन्तर्मुहूर्त काल तक जीवित रहकर मरणको प्राप्त हो गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, उसमें भी जो सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हुआ है, सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हो सर्वलघु कालमें केवल कानको उत्पन्न करता है, तथा सर्वलघु कालमें जो शैलेशी अवस्थाको प्राप्त हुआ है, उस प्रथम समयवर्ती अयोगकेवलीके तेजल शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है । इससे भिन्न अनुत्कष्ट परिशातनकृति होती है । १ मतौ ' उवकस्सुक्कस्सएण ' इति पाठः । २ अ-आप्रत्योः ' जोणिणिक्खवण ' इति पाठः । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५१. कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा ___ अनुवस्सादो हेट्ठा चेव सम्मत्तं पडिवज्जदि त्ति जाणावणटं सव्वलहुं सम्मतं पडिवण्णा त्ति उत्तं । संजमं पुण अट्ठवस्सेहिंतो हेट्ठा ण होदि त्ति जाणावणमट्ठवस्सीओ संजम पडिवण्णो त्ति भणिदं । जेण तेजइयसरीरणोकम्महिदी छासहिसागरोवममेत्ता तेण बिदियं णेरइयभवम्गहणमंतोमुहुत्तूणतेत्तीससागरहिदीयमिदि वत्तव्वं । सेस सुगम । तेजइयसंघादण-परिसादणकदी उक्कस्सिया कस्स ? बिदियणेरइयभवग्गहणे चरिमसमयतब्भवत्थस्स उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी। तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । सुगमं । तेजइयस्स जहण्णा परिसादणकदी कस्स ? जो जीवो छावट्टिसागरावमाणि सुहमेसु अच्छिदो, तम्हि पज्जत्तापज्जत्ताणं भवग्गहणाणि करेदि, बहुवाइमपज्जत्तयाई, थोवाई पज्जत्तयाई, दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पज्जत्तद्धाओ, जहण्णएण जोगेण आहारिदो, जहणियाए वड्डीए वड्डिदो, जहण्णाई जोगट्ठाणाई बहुसो बहुसो गदो, उक्कस्साई ण गदो; हेहिल्लट्टिदि आठ वर्षसे पहिले ही सम्यक्त्वको प्राप्त करता है, इस बातको जतलानेके लिये 'सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है ' ऐसा कहा है। परन्तु संयम आठ वर्षके नीचे नहीं होता, इस बातेको जतलाने के लिये 'आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हुआ है' ऐसा कहा है। चूंकि तैजस शरीर नोकर्मकी स्थिति छयासठ सागरोपम प्रमाण है अतः दूसरी बार नारक पर्यायका ग्रहण अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर स्थिति प्रमाण होता है, ऐसा कहना चाहिये । शेष प्ररूपणा सुगम है। तैजस शरीरकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति किसके हेाती है ? दूसरी बार नारक भवके ग्रहण करनेपर उस भवमें स्थित रहने के अन्तिम समयको प्राप्त हुए जीवके तेजस शरीरकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति होती है । इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातकपरिशातनकृति है। यह कथन सुगम है। तैजस शरीरकी जघन्य परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव व्यासठ सागरोपम काल तक सूक्ष्म जीवों में रहा है और वहां रहते हुए जो पर्याप्त व अपर्याप्त भवोंको ग्रहण करता है, इनमें जिसके अपर्याप्त भव बहुत हुए हैं और पर्याप्त भव थोड़े हुए हैं, अपर्याप्त काल दीर्घ रहा है और पर्याप्त काल थोड़ा रहा है, जिसने जघन्य योगसे आहार ग्रहण किया है, जघन्य वृद्धिसे जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो जघन्य योगस्थानोको बहुत बहुत बार प्राप्त हुआ है, उत्कृष्ट योगस्थानोंको बहुत बहुत बार प्राप्त नहीं हुआ है, १ प्रतिषु 'बासाह-' इति पाठः। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, १, १. हाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, उवरिल्लहिदिवाणेहि णिसेयस्स जहण्णपदं, तदो उव्वाट्टदो तिरिक्खेसुववण्णो, अंतोमुहुत्तं जीविदूण उव्वट्टिदो पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुववण्णो, सबलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्ठवस्साउओ संजमं पडिवण्णो, सव्वलहुं केवल] णाणमुप्पादेदि, उप्पण्णणाण-दसणहरो जिणो केवली देसूणं पुव्वकोडिं विहरिदो, अंतोमुहुत्ते जीवियावससे सेलेर्सि पडिवण्णा, तरू चरिमसमयभवसिद्धियस्स खविदकम्मंसियस्स जहणिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । सुगमं । - तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी कस्स? [ जो ] जीवो छावहिसागरोवमाणि सुहुमेसु अच्छिदो । एवं णीदं जाव' उवरिल्लट्ठिदिवाणेहि णिसयस्स जहण्णपदं त्ति । तदो सुहुमेहि पज्जत्तएहि उववण्णो, तस्स तम्हि पज्जत्तीहि.पज्जत्तापज्जत्तीहि एयंतवड्डमाणस्स अभिक्खवड्डीए अपज्जत्तयस्स जम्हि समए बहुओ बंधो णिज्जरा च ण तम्हि समयम्हि ट्ठिदो, तस्स तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । एयंताणुवड्डीए जो अधस्तन स्थितिस्थानोंके निषेकका उत्कृष्ट पद करता है और उपरिम स्थितिस्थानोंके निषेकका जघन्य पद करता है, पश्चात् सूक्ष्म पर्यायसे निकलकर जो तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मत काल तक जीवित रहकर वहांसे निकल पूर्वकोटि प्रमाण आयवाले मनुष्योंमें आकर अति शीघ्र योनिमिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हुआ है, जिसने आत शीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त किया है, जो आठ वर्षका होकर संयमको प्राप्त हो अति शीघ्र केवल. सानको उत्पन्न करता है, फिर उत्पन्न हुए केवलज्ञान व केवलदर्शनसे साहित होकर केवली जिन होता हुआ कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करता है, तथा ' अन्तमुहूर्त मात्र आयुके शेष रहनेपर शैलेशी भावको प्राप्त होता है, ऐसे उस चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक और क्षपितकौशिक जीवके जघन्य -परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति है । यह कथन सुगम है। तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव छयासठ सागरोपम काल तक सूक्ष्म जीवोंमें रहा है । इस प्रकार उपरिम स्थितिस्थानोंके निषेकके जघन्य पदके प्राप्त होने तक आलाप ले जाना चाहिये । पश्चात् जो सूक्ष्म पर्याप्तकोसे उत्पन्न हुआ है उसके उस भवमें पर्याप्तियों पर्याप्ति-अपर्याप्तियोंसे भाभीण्य वृद्धि द्वारा एकान्तवृद्धिसे बढ़ते हुए अपर्याप्तक जीवके जिस समयमें बन्ध बहुत होता है, पर निर्जरा नहीं देखी जाती है, उस समयमें जो स्थित है, उसके तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य संघातन-परिशांतनकृति होती है। १ प्रविच्छिदो एदेणेदं जान' इति पाठः। २ प्रतिबु 'दिशा' इति पाउः। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१. ] कदिअणियोगद्दारे करणक दिपरूवणा सामित्तं किमहं दिण्णं ? परिणामजोगेहि संचिदपोग्गलक्खंघग्गलणङ्कं । कम्मइयस्स उक्कस्स परिसादणकदी कस्स ? जो जीवो तीससागरोवमकोडाकोडीओ बेहि सागरोवमसहस्सेहि य ऊणियाओ बादरेसु अच्छिदो, तम्हि पज्जत्तापज्जत्तयाई भवगहणाई करेदि, तत्थ बहुआई पज्जत्तयाई, [ थोवाई अपज्जत्तयाई ], दीहाओ पज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओ, उक्कस्सेण जोगेण आहारिदो, उक्कस्सियाए वड्डीए वड्ढिदो, बहुसो बहुसो उक्कस्साई जोगट्ठाणाई गदो, जहण्णाई ण गदो; संकिलेस बहुसो जाओ, बहुसो तप्पाओग्गउक्कस्स संकिलेसो, विसुज्झतो, तप्पा ओग्गजहण्ण विसोहिसहियो, हेट्ठिल्लडिदिट्ठाणेहि णिसेयस्स जहण्णपदमुवरिल्लद्विदिट्ठाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, तदो उव्वट्टिदो बादरतसेसु उववण्णो । तसेसु किं सुहुमा संति ? ण, तम्हि पज्जत्तापज्जत्ता इदि भेदोवलंभादो बादरवयणेण तसपज्जत्ताणं गहणं । तत्थ वि उवरिल्ले हेट्ठिल्लट्ठदिट्ठाणेहि णिसेयस्स उक्कस्सपदं, सम्मत्तं शंका - एकान्तानुवृद्धिसे स्वामित्व किसलिये दिया है ? समाधान - परिणामयोगोंसे संचित पुद्गलस्कन्धोंके गलानेके लिये एकान्तानुवृद्धिसे स्वामित्व कहा है । कार्मण शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव दो हजार सागरोपमोंसे हीन तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम काल तक बादर जीवोंमें रहा है, वहां रहते हुए जो पर्याप्त व अपर्याप्त भवग्रहणोंको करता है, वहां पर्याप्त भव अधिक और अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं, पर्याप्त भवका काल दीर्घ और अपर्याप्त भवोंका काल हस्व होता है, जो उत्कृष्ट योगसे आहारको ग्रहण करता है, उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होता है, जो बहुत बहुत बार उत्कृष्ट योगस्थानोंको प्राप्त होता है, जघन्य योगस्थानोंको बहुत बहुत बार नहीं प्राप्त होता है, संक्लेशको बहुत बार प्राप्त होता है, इस प्रकार बहुत बार उसके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशसे युक्त होकर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ उसके योग्य जघन्य विशुद्धि से सहित होता है; अधस्तन स्थितिस्थानोंके निषेकका जघन्य पद व उपरिम स्थितिस्थानों के निषेकका उत्कृष्ट पद करता है, पश्चात् उस पर्यायसे निकलकर बादर सोंमें उत्पन्न होता है । शंका- क्या सोंमें सूक्ष्म होते हैं ? [ १४१ समाधान- नहीं होते। हां उनमें पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद अवश्य होते हैं। इसलिये यहां ' बादर ' इस वचनसे त्रस पर्याप्तोंका ग्रहण करना चाहिये । वहां भी जो ऊपरके स्थितिस्थानमें अधस्तन स्थितिस्थानोंकी अपेक्षा निषेकका १ प्रतिषु ' संते ' इति पाठः । -- Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] छक्खंडागमे यणाखंड [१, १, ७१. संजमं वा ण किं चि गुण पाडेवज्जदि, तदा पच्छिमसु भवग्गहणेसु तेत्तीसं सागरोवमिएसु मेरइएसु उववण्णो । उवारे जघा तेजइयस्स उकस्साए परिसादणकदीए परूविदं तथा परूवेदव्वं । णवरि बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसं गदो त्ति वत्तव्वं । दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेस गदो, चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदो त्ति वत्तव्वं । एवं विधाणेणागदपढमसमयअजोगिस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी । तव्वदिरिता अणुक्कस्सा । सुगमं । संघादणपरिसादणकदीए उक्कस्सियाए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि सत्तमपुढवीणेरइयचरिमसमए उक्कस्सा । तव्वदिरित्ता अणुक्कस्सा । सुगमं । कम्मइयस्स जहणिया परिसादणकदी कस्स ? जो जीवो तीस सागरोवमाण कोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेण ऊणाओ सुहुमेसु अच्छिदो, तत्थ थोवा पज्जत्तभवा बहुवा अपजत्तभवा, दीहाओ अपज्जत्तद्धाओ, रहस्साओ पन्जत्तद्धाओ, पढमसमयतब्भवत्थप्पहुडि जहण्णजोगेण आहारिदो, जहणियाए वड्डीए वढिदो, बहुसो बहुसो मंदसंकिलेसं गदो, एवं तत्थ परियट्टिदूण उव्वट्टिदो बादरेसुववण्णो, अंतोमुहुत्त जीविदूण उव्वट्टिदो पुवकोडाउएसु उत्कृष्ट पद करता है, सम्यक्त्व या संयम किसी भी गुणको नहीं प्राप्त होता है, पश्चात् जो अन्तिम भवत्रहों में तेतीस सागरोपम स्थिति युक्त नारकियों में उत्पन्न हुआ है, इसके आगे जैसे तैजस शरीरकी उत्कृष्ट परिशातनकृतिमें प्ररूपणा की है वैसे ही प्ररूपणा करनी चाहिये। विशेष इतना है कि यहां बहुत संक्लेशको बहुत बहुत बार प्राप्त हुआ,ऐसा कहना चाहिये। तथा द्विचरम पत्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ और चरम व द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ, ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार इस विधानसे आये हुए प्रथम समयवर्ती अयोगिजिनके उत्कृष्ट परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न मनुकृष्ट परिशातनकृति है। यह सब कथन सुगम है। इसी प्रकार उत्कृष्ट संघातनपरिशातनकृतिके भी कहना चाहिये। विशेष इतना है कि सप्तम पृथिवीके नारकीके मन्तिम समयमें उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अनुत्कृष्ट संघातनपरिशातनकृति है। यह कथन सुगम है। कार्मण शरीरकी जघन्य परिशातनकृति किसके होती है ? जो जीव पल्योपमके मसंख्यातवें भागसे हीन तीस कोडाकोडी सागरोपम काल तक सूक्ष्म जीवोंमें रहा है, वहां रहते हुए जिसने पर्याप्त भव थोड़े व अपर्याप्त भव बहुत ग्रहण किये है, अपर्याप्त भवोंका काल दीर्घ और पर्याप्त काल ह्रस्व रहा है, जिनसे उस भवमें स्थित होनेके प्रथम समयसे लेकर जघन्य योगके द्वारा आहार ग्रहण किया है, जघन्य वृद्धिसे जो वृद्धिको प्राप्त हुआ है, जो बहुत बहुत बार मन्द संक्लेशको प्राप्त हुआ है, इस प्रकार भ्रमण करके यहांसे निकला और बादर जीवों में उत्पन्न हुआ, अन्तर्मुहूर्त जीवित रहकर वहांसे निकला Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ०१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३४५ मणुसेसु उववण्णो, सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्टवस्सादीदो संजमं पडिवण्णो, दो वारे कसाए उवसामेदि, अंतोमुहुत्ते जीविदसेसे मिच्छत्तं गदो, तदो दसवाससहस्सद्विदिएसु देवेसुववण्णो, सम्मत्तं पडिवण्णो, अणताणुबंधी विसंजोएदि, दसवाससहस्साणि सम्मत्तमणुपालेदि, तदो मिच्छत्तं गंतूण बादरेसु उववण्णो, तत्थ अंतोमुहुत्तं जीविदूण सुहुमेसु साहारणकाइएसु उववण्णो, तत्थ खविदकम्मंसियलक्खणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालमच्छिय उव्वट्टिदो बादरेसुप्पज्जिय अंतोमुत्तमच्छिय पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववट्टिय दो वारे कसाए उक्सामिय दसवाससहस्सिएसु देवेसु उववज्जिय पुणो थावरेसु' उप्पज्जिय सुहुमेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिय बादरेसु अंतोमुहुत्तं पुणरवि पुव्व कोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो, सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्ठवस्सादीदो संजमं पडिवण्णा, सव्वलहुं णाणमुप्पादेदि, उप्पण्णणाण-दसणहरो देसूणपुव्वकोडिं विहरदि, अंतोमुहुत्तं जीविदावसेसे सेलेसिं पडिवण्णो, तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स खविदकम्मंसियस्स जहणिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । संघादण और पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ, सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हो सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, आठ वर्ष विताकर संयमको प्राप्त हो दो बार कषायोंको उपशमाता है, पुनः अन्तर्मुहूर्त जीवितके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् दश हजार वर्ष आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करता है और दश हजार वर्ष तक सम्यक्त्वका पालन करता है, पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त हो बादर जीवों में उत्पन्न हुआ, वहां अन्तर्मुहूर्त जीवित रहकर सूक्ष्म साधारणकायिकोंमें उत्पन्न हुआ, वहां क्षपितकोशिक स्वरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहकर निकला व बादर जीवों में उत्पन्न हुआ, पुनः वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हो दो बार कषायोंको उपशमाकर दश हजार वर्ष आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ, पुनः स्थावरोंमें उत्पन्न होकर सूक्ष्मों में पल्योपमके असंख्यातवें भाग व बादरोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हुआ, वहां सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर आठ वर्ष वीतनेपर संयमको प्राप्त होता हुआ सर्वलघु कालमें केवलज्ञानको उत्पन्न करता है, पुनः उत्पन्न हुए केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण कर कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करता है, पश्चात् आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर शैलेश्य भावको प्राप्त करता है; उस चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक क्षपितकर्माशिक जीवके कार्मण शरीरकी जघन्य परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति होती है। संघातन-परिशातनकृतिक विषयमें इसी प्रकार ही १ प्रतिषु 'बादरेसु' इति पाठः । ७. क. ४४. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. परिसादणकदीए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि एइंदिएसु जहण्णं दादव्वं । एवं सामित्तपरूवणा गदा। __ अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवा' ओरालियसरीरस्स जहणिया संघादणकदी, सुहुमेइंदियजहण्णुववादजोगेणाहारिदओरालियपोग्गलक्खंधपमाणत्तादो। संघादणपरिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा, एइंदियसुहुमस्स बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णएगंताणुववड्डीए गहिदएगसमयपबद्धेण सह तत्कालियजहण्णुववाददव्वस्स पढमणिसेगेणूणस्स गहणादो । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा, बादरवाउजीवस्स पज्जत्तयस्स सव्वलहुमुत्तरसरीरमुट्ठाविदस्स दीहाए विउव्वणद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स एइंदियपरिणामजोगेणाहारिदओरालियपोग्गलक्खंधग्गहणादो। विउव्वमाणकालभतरे संचएण विणा परिसदिदओरालियसरीरस्स उदयगदपोग्गलक्खंधा कधमेगसमयपबद्धादो असंखेज्जगुणा होंति ? ण, --- ------- कहना चाहिये । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियों में जघन्य देना चाहिये; अर्थात् कार्मण शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति एकेन्द्रियोंके होती है, ऐसा कहना चाहिये, इस प्रकार स्वामित्वप्ररुपणा समाप्त हुई । अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है-औदारिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति सबसे स्तोक है, क्योंकि, वह सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य उपपादयोगसे ग्रहण किये गये औदारिक पुद्गलस्कन्धोंके बराबर है। उससे जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें एकेन्द्रिय सूक्ष्मके उस भवमें स्थित होनेके द्वितीय समयमें जघन्य एकान्तानुवृद्धिसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्ध के साथ प्रथम निषेकको छोड़ तात्कालिक जघन्य उपपाद द्रव्यका ग्रहण किया गया है। उससे जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें पर्याप्त, सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरको उत्पन्न करनेवाले और दीर्घ विक्रिया कालके अन्तिम समयमें रहनेवाले बादर वायुकायिक जीवके एकेन्द्रिय सम्बन्धी परिणामयोगसे ग्रहण किये गये औदारिक पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण किया है। · शंका-विक्रियाकालके भीतर संचयके विना पृथक् होनेवाले औदारिक शरीरके उद्यको प्राप्त हुए पुद्गलस्कन्ध एक समयप्रबद्धसे असंख्यातगुणे कैसे हैं ? १ प्रतिषु 'सबद्धावा ' इति पाठः। २ प्रतिषु · दीसाए ' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'हारिसदंतओरालिय', काप्रतौ ' -हारिदसतओरालिय', 'मप्रतौ ' हारिदतओरालिय' इति पाठः। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, .१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणी [३४७ संखेज्जगुणहाणीसु गलिदासु वि दिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणं संखेज्जदिभागस्स एगताणुवड्डिजोगेगसमयपबद्धादो असंखेज्जगुणत्तदंसणादो । ओरालियस्स उपकस्सिया संघादणकदी असंखेजगुणा, सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसपज्जत्तस्स णिरयभवपच्छायदस्स संखेजवासाउअस्स तिसमयतब्भवत्थस्स पढमसमयआहारयस्स तदित्थउक्कस्सएगताणुवड्विजोगस्स एगसमयपबद्धम्गहणादो । एइंदियपरिणामजोगेण पबद्धपरिसादणदव्वादो कधं पंचिंदियस्स एयंताणुवतिजोगेण बद्धेगसमयपबद्धस्स असंखेज्जगुणत्तं ? ण, एइंदियउक्कस्सपरिणामजोगादो वि पंचिंदियजहण्णेगंताणुवड्डिजोगस्स वि असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो। उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, पंचिंदियपज्जत्तमणुस्सस्स सण्णिपंचिंदियपज्जत्ततिरिक्खस्स वा पुवकोडिआउअस्स उक्कस्सजोगस्स अप्पभासा-मणद्धस्स तिचरिम-दुचरिमसमएहि उक्कस्सजोगं गदस्स सगाउद्विदिचरिमसमए उत्तरसरीरं विउव्विदस्स चरिमसमए परिसदमाणणोकम्मपोग्गलक्खंधाणं समाधान नहीं, क्योंकि, संख्यात गुणहानियोंके गलित हो जानेपर भी डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्धोंका संख्यातवां भाग एकान्तानुवृद्धियोग सम्बन्धी एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा असंख्यातगुणा देखा जाता है। ___ उससे औदारिक शरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, यहां जो नारक पर्यायसे पीछे आया है, संख्यात वर्षकी आयुवाला है, तीसरे समयमें तद्भवस्थ हुआ है, आहारक होनेके प्रथम समयमें स्थित है और वहांके उत्कृष्ट एकान्तानुवृद्धि योगसे संयुक्त है ऐसे संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच व मनुष्य पर्याप्तके एक समयप्रबद्धका ग्रहण किया है। शंका-एकेन्द्रियके परिणामयोगसे बांधे गये परिशातनद्रव्यकी अपेक्षा पंचे. न्द्रियके पकान्तानुवृद्धियोगसे बांधा गया एक समयप्रबद्ध असंख्यातगुणा कैसे हो सकता है? समाधान नहीं, क्योंकि, एकेन्द्रियके उत्कृष्ट परिणामयोगकी अपेक्षा भी पंचेन्द्रियका जघन्य एकान्तानुवृद्धियोग भी असंख्यातगुणा पाया जाता है। उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, जो पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य या संक्षी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच पूर्वकोटिकी आयुवाला है, उत्कृष्ट योगवाला है, भाषा व मनके अल्प कालसे युक्त है, त्रिचरम या द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है, और जिसने अपनी आयुके अन्तिम समयमें उत्तर शरीरकी विक्रिया की है सके उस समय जो नोकर्मपुद्गलस्कन्ध निर्जीर्ण होते हैं पचेन्द्रियके परिणामयोगके १ प्रतिषु ' मणलस्स ' इति पाठः । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] ‘छक्खंडागमे वेयंणाखंड [१, १,७९. पंचिंदियपरिणामजोगागददिवड्डसमयपबद्धमेत्तत्तादो । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । दोण पि एक्कम्हि चेव ढाणे सामित्तं जादं, तदो ण विसेसाहियत्तं ? ण एस दोसो, चरिमहिदीए समऊणपुवकोडिसंचयं होदूण गवंतदव्वं परिसादणकदी णाम । तिस्से चव चारमविदीए पुवकोडिसंचिदणिसेगा संघादण-परिसादणकदी णाम । समऊणपुव्वकोडिसंचयं पेक्खिऊण संपुण्णपुवकोडिसंचओ जेण एगसमयपबद्धमेतेण अहिओ तेण विसेसाहियत्तं ण विरुज्झदे । सव्वत्थोवा वेउब्वियसरीरस्स जहणिया संघादणकदी, देवस्स णेरइयस्स वा असण्णिपच्छायदस्स पढमसमयतब्भवत्थस्स पढमसमयआहारयस्स जहण्णजोगिस्स उववादजोगेगसमयपबद्धग्गहणादो । एइंदिएसु जहण्णा वे उव्वियसंघादणकदी किण्ण गहिदा ? ण, एसो पंचिंदियजहण्णउववादजोगो एइंदियपरिणामजोगादो असंखेज्जगुणहीणो ति तदग्गहणादो । द्वारा प्राप्त हुए उनका परिमाण डेढ़गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध प्रमाण है । उससे उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। शंका-चूंकि इन दोनों कृतियोंका एक ही स्थानमें स्वामित्व होता है, अतः संघातन-परिशातनकृति विशेषाधिक नहीं हो सकती ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अन्तिम स्थितिमें एक समय कम पर्वकोटि काल तक संचय होकर गलनेवाला द्रव्य परिशातनकृति कहलाता है। और उसी अन्तिम स्थितिमें पूर्वकोटि काल तक संचित निषेक संघातन-परिशातनकृति कह लाते हैं। अतएव एक समय कम पूर्वकोटि कालके संचयकी अपेक्षा सम्पूर्ण पूर्वकोट कालका संचय चूंकि एक समयप्रबद्ध मात्रसे अधिक है इसलिये उसके विशेष अधिक होनेमें कोई विरोध नहीं है। वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति सबसे स्तोक है, क्योंकि, इसमें असंशियोमेंसे पीछे आये हुए, प्रथम समयमें तद्भवस्थ हुए, प्रथम समयवर्ती आहारक और योगसे संयुक्त ऐसे देव अथवा नारकीके उपपादयोगसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्धका ग्रहण किया गया है। . शंका - एकेन्द्रियोंमें वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातनकृतिका ग्रहण क्यों नहीं किया? समाधान नहीं, क्योंकि, यह पंचेन्द्रियका जघन्य उपपादयोग एकेन्द्रियके परिनामयोगसे असंख्यातगुणा हीन है, अतः वहां उसका ग्रहण नहीं किया। Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा जहणिया संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, बादरवाउपज्जत्तस्स सव्वलहुमुत्तरसरीरं विउन्विदस्स जहण्णजोगिस्स विउव्वणद्धाए बिदियसमए वट्टमाणस्स देसूणदोसमयपबद्धग्गहणादो । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा । कुदो ? बादरवाउकाइयपज्जत्तयस्स जहण्णजोगेण उत्तरसरीरं विउव्विदस्स मूलसरीरं पविसिय दीहेण कालेण णिल्लेवयंतस्स अणिल्लेविदचरिमसमए एगचरिमणिसेगस्स गहणादो । ण च असंखेज्जगुणत्तमसिद्धं, चरिमणिसगागमणणिमित्तसंखेज्जावलियाहि जोगगुणगोरे ओवट्टिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जमागुवलंभादो। उक्कस्सिया संघादणकदी असंखेजगुणा । कुदो १ वेमाणियदेवस्स पुधत्तत्तेण सव्वमहंतरूवं विउव्वमाणस्स पढमसमयपंचिंदियउक्कस्सपरिणामजोगेगसमयपत्रद्धग्गहणादो । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, मणुस्सस्स पज्जत्तयस्स सण्णिपंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तस्स वा पुवकोडाउअस्स पढमसमयविउवियप्पहुडि उक्कस्सजोगिस्स पुन्बुक्कस्सविउव्वणद्धस्स मूलसरीरपवेसपढमसमयादवड्डमेत्तसमयपबद्धग्गहणादो। पुधत्तेण विउब्विय मूलसरीरं पविट्ठपढमसमए हिददेवस्स उक्कस्सिया परिसादणकदी .................. वैक्रियिक शरीरकी जधन्य संघातनकृतिसे उसकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त हुए, जघन्य योगसे संयुक्त, तथा विक्रियाकालके द्वितीय समयमें वर्तमान ऐसे बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवके कुछ कम दो समयप्रबद्धोंका ग्रहण किया है। उससे जघन्य परिशासन कृति असंख्यातनगुणी है, क्योंकि, इसमें जघन्य योगसे उत्तर शरीरकी विक्रियाको प्राप्त हुए तथा मूल शरीरमें प्रवेश करके दीर्घ काल तक निर्जरा करनेवाले ऐसे बादर वायकायिक पर्याप्त जीवके अनिलेपित चरम समयमें एक अन्तिम निषेकका ग्रहण किया है। यदि कहा जाय कि यह कृति वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृतिसे असंख्यातगुणी है. यह बात असिद्ध है; सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, अन्तिम निषेकके आनेमें निमित्तभूत संख्यात आवलियोंसे योगगुणकारको अपवर्तित करनेपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग उपलब्ध होता है। उससे उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें सबसे महान् रूपकी पृथक् विक्रिया करनेवाले वैमानिक देवके प्रथम समय में पंचेन्द्रियके उत्कृष्ट परिणामयोगसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्धका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, पूर्वकोटि आयुवाले, विक्रिया करनेके प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट योगसे संयुक्त और पहलेसे उत्कृष्ट विक्रियाकालसे सहित ऐसे मनुष्य पर्याप्तके अथवा संशी पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तके मूल शरीर में प्रवेश करमेके प्रथम समयमें डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रन्थका ग्रहण किया है। शंका-पृथक् विक्रिया करके मूल शरीर में प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें स्थित Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.] . . छक्खंजगमे यणाखंड [१,१,७१. किग्ण होदि १ ण, तत्थ मूलसरीरं पविढे वि संघडंत-गलंतपरमाणू पेक्खिदण संपादण-परिसादणं मोत्तूण परिसादणाभावादो । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाकिया । कुदो १ आरणच्चुददेवस्स बावीससागरोवमियस्स अप्पभासा-मणद्धस्स अप्पविउव्वयस्स चरिम-दुचरिमसमए उक्कस्सजोगं गदस्स चरिमसमयभवत्थस्स चरिमसंचयग्गहणादो। णवगेवजप्पहुडि उवरिमदेवेसु उक्कस्सं किण्ण घेप्पदे १ ण, तत्थ पाएणुक्कडणाभावादो णिसेममस्सिदण असंखेज्जलोगेण खंडिदएगखंडेण अहियत्तुवलंभादो । * आहास्यस्स जहण्णिया संघादणकदी थोवा, उववादजोगेगसमयपबद्धमेत्तत्तादो । जहणिया संपादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । कुदो ? एगंताणुवड्डिजोगेगसमयपबद्धस्स पाहाणियादो । उक्कस्सिया संघादणकदी असंखेज्जगुणा । कुदो १ जहण्णएगंताणुवटिजोगादो माहारसरीरमुट्ठावेंतस्स उक्कस्सुववादजोगस्स असंखेज्जगुणत्तादो। जहणिया परिसादणकदी हुए देवके उत्कृष्ट परिशातनकृति क्यों नहीं होती ? समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेपर भी आनेवाले व गलनेवाले परमाणुओंकी अपेक्षा संघातन-परिशातनको छोड़कर केवल परिशातनका प्रभाव है। उससे उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष आधिक है, क्योंकि, इसमें जिसकी बाईस सागरकी आयु है, जिसका वचनयोग और मनोयोगमें थोड़ा काल गया है, जिसने इस कालके भीतर विक्रिया अल्प की है, जो चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ है और जो भवके अन्तिम समयमें स्थित है उस आरण और अच्युत कल्पवासी देवके अन्त में प्राप्त होनेवाले संचयका ग्रहण किया है। शंका-नवप्रैवेयकसे लेकर आगेके देवों में उत्कृष्ट संचयका ग्रहण क्यों नहीं करते? समाधान-नहीं, क्योंकि, वहां प्रायः करके उत्कर्षणका अभाव है, इसलिये निषेककी अपेक्षा उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त होता है उतनी अधिकता पायी जाती है, अतः वहां उत्कृष्ट संचयका ग्रहण नहीं किया। ___आहारक शरीरकी जघन्य संघातनकृति स्तोक है, क्योंकि, वह उपपादयोगसे प्रहण किये गये एक समयप्रबद्ध प्रमाण है । उससे जघन्य संघातन-परिशासनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, यहां एकान्तानुवृद्धियोगसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्धकी प्रधानता है। उससे उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, आहारक शरीरको रसन करनेवाले जीवका उत्कृष्ट उपपादयोग जघन्य एकान्तानुवृद्धियोगसे असंख्यात. ....., १ प्रतिषु 'संगलंत ' इति पारः। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ., १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणा [ २५१ भसंखेज्जमुणा, आहारसरीरमुट्ठाविय सव्वजहण्णकालेण मूलसरीरं पविसिय सम्वचिरेण काढण आहारसरीरं णिल्लेवंतस्स चरिमसमयअणिल्लेविदस्स परिणामजोगागदएगसमयपबद्धणिसेगग्गहणादो । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । कुदो ? गुणिदकमेण आहारदव्वसंचयं काऊण मूलसरीरं पविठ्ठपढमसमए वट्टमाणस्स उक्कस्सपरिणामजोगागददिवड्डमेत्तसमयपबद्ध. ग्गहणादो । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । कुदो ? मूलसरीरं पविट्ठपढमसमए गलिददव्वस्स आहारसरीरमुट्ठावेंतस्ल चरिमसमए उवलंभादो । तेजइयम्स जहणिया संपादण-परिसादणकदी थोवा, छावट्ठिसागरोवमाणि सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेणच्छिदस्स पुणो एयंताणुवड्डीए बंधादो णिज्जराए अहिययरप्पदेसे दिवड्डमेत्तसमयपबद्धग्गहणादो । जहणिया परिसादणकदी विसेसाहिया । केचियमेत्तेण ? सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण छावहिसागरोवमाणि परिममिय जहण्ण. दव्वं काऊण ततो उव्वट्टिय मणुस्सेसुप्पज्जिय अहवस्सेसु कयसंचयमेत्तेण । केवली होदण गुणा है। उससे जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें आहार शरीरको उत्पन्न कराकर और सर्वजघन्य काल द्वारा मूल शरीरमें प्रवेश करके जो सर्वचिर काल द्वारा आहारक शरीरको निलेपित करते हुए चरम समयमें अनिलेपित रहता है उस जीवके परिणामयोगसे आये हुए एक समयप्रबद्धके निषेकका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें गुणित क्रमसे आहार द्रव्यका संचय करके मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें वर्तमान प्रमत्तसंयत जीवके उत्कृष्ट परिणामयोगसे आये हुए डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्यका ग्रहण किया है। उससे उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है, क्योंकि, मूल शरीरमें प्रविष्ट होनेके प्रथम समयमें जो द्रव्य जीर्ण होता है वह आहारकशरीरको उत्पन्न करनेवालेके अन्तिम समयमें पाया जाता है। तैजसशरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति स्तोक है, क्योंकि जो छयासठ सागरोपम काल तक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे रहा है उस जविके एकान्तानुवृद्धिसे हुए बन्धकी अपेक्षा निर्जराके अधिकतर प्रदेशमें डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र लिये गये हैं। उससे जघन्य परिशातनकृति विशेष अधिक है। कितने मात्रसे अधिक है? सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे छयासठ सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके और इस द्वारा द्रव्यको जघन्य करके वहांसे निकलकर मनुष्यों में उत्पन्न होकर आठ वर्षों में जितना संचय होगा उतने प्रमाणसे अधिक है। शंका-केवली होकर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक विहार करनेवाले जीवके १प्रविष-पडे मिग-'पति पाठः।... Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. देसूणपुव्वकोडिं विहरमाणस्स अट्ठवस्ससंचिदस्स णिम्मूलक्खओ किण्ण जायदे १ ण, णोकम्मस्स गुणसेडीए णिज्जराभावादो । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, गुणिदकम्मसियलक्खणेण छावहिसागरोवमाणि परिभमिय मणुस्सेसुप्पज्जिय अट्ठवस्साणमुवरि संजम घेत्तूण अंतोमुहत्तेण अजोगिगुणट्ठाणपढमसमए ट्ठिदस्स उक्कस्सपरिणामजोगेण बद्धदिवड्डमेत्तपंचिंदियसमयपबडुवलंभादो। उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? मणुस्सेसु णिज्जरिददव्वमेत्तेण । ___.कम्मइयस्स जहणिया परिसादणकदी थोवा, अजोगिचरिमसमयदेसूणदिवड्डमेत्तेइंदियसमयपबद्धग्गहणादो। जहणिया संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा, चदुअघादिकम्मपोग्गलक्खंधादो सुहुमेइंदियअपज्जत्तअट्ठकम्मक्खंधस्स सादिरेयदुगुणत्तदंसणादो। उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, गुणिदकम्मंसियलक्खणेण कम्मदिदि भमिय सत्तमपुढवीणेरइएसु उक्कस्सं करिय तत्तो उव्वट्टिय अंतोमुहुत्ताहियअट्ठवस्सेहि अजोगिपढमसमए द्विदस्स दिवड्डमेत्तपंचिंदियसमयपबढुवलंभादो। उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी सादि आठ वर्ष में संचित हुए द्रव्यका निर्मूल क्षय क्यों नहीं होता है ? समाधान - नहीं, क्योंकि, नोकर्मकी गुणश्रेणि रूपसे निर्जरा नहीं होती। जघन्य परिशातनकृतिसे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, गुणितकर्मोशिक स्वरूपसे छयासठ सागरोपम काल तक परिभ्रमण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हो आठ वर्ष के बाद संयमको ग्रहणकर अन्तमुहूर्त काल द्वारा अयोगी गुणस्थानको प्राप्त हो उसके प्रथम समयमें स्थित जीवके उत्कृष्ट परिणामयोगसे बद्ध पंचेन्द्रिय सम्बन्धी डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्य पाया जाता है। उससे उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। कितने मात्रसे विशेष अधिक है ? मनुष्यों में जितना द्रव्य निजीर्ण हुआ है उतने मात्रसे अधिक है। कार्मणशरीरकी जघन्य परिशातनकृति स्तोक है, क्योंकि, इसमें अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें एकेन्द्रिय सम्बन्धी कुछ कम डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्यका प्रहण किया है । उससे जघन्य संघातन-परिशातनकृति संख्यातगुणी है, क्योंकि, चार अघातिया कर्म-पुद्गलस्कन्धोंकी अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके आठ कौके स्कन्ध दुगुणसे कुछ अधिक देखे जाते हैं । उससे उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, गुणितकर्माशिक स्वरूपसे कर्मस्थिति काल तक भ्रमणकर सप्तम पृथिवीके नारकियोंमें गया और वहां इस द्रव्यको उत्कृष्ट करके वहांसे निकलकर अन्तमुहूर्त अधिक आठ वर्ष काल द्वारा अयोगी गुणस्थानको प्राप्त हो इसके प्रथम समयमें स्थित जीवके पंचेन्द्रिय सम्बन्धी डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध मात्र द्रव्य पाया जाता है। उत्कृष्ट . Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा [ ३५१ रेयदुगुणा, चदुअघादिकम्मपोग्गलखंधादो सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमयअट्ठकम्मक्खंधस्स सादिरेयदुगुणत्तदंसणादो । सत्थाणप्पाबहुगं गदं । परत्थाणे पयदं । सव्वत्थोवा ओरालियस्स जहणिया संघादणकदी। संघादणपरिसादणकदी जहण्णिया असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा । ओरालियस्स उक्कस्सिया संघादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । वेउव्वियस्स जहणिया संघादणकदी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो। जहणिया तस्सव संघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। आहारयस्स जहणिया संघादणकदी असंखेज्जगुणा । को गुणगारो ? सेडीए असंखेज्जदिभागो । जहणिया संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया' संघादणकदी असंखेज्जगुणा। जहणिया परिसादण संघातन-परिशातनकृति साधिक दूनी है, क्योंकि, चार अघातिया कर्मपुद्गलस्कन्धोंसे सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समयमें प्राप्त आठ कर्मोंके स्कन्ध साधिक दूने देखे जाते हैं। इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। परस्थानमें अल्प-बहुत्वका प्रकरण है- औदारिकशरीरकी जघन्य संघातनकृति सबमें स्तोक है। इससे इसीकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे औदारिकशरीरकी उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे वैक्रियिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति असंख्यातगुणी है । गुणकार क्या है ? जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इससे वैक्रियिकशरीरकी ही संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे आहारकशरीरकी जघन्य संघातनवांत असख्यातगुणी है। गुणकार क्या है? जगश्रेणीका असंख्यातवां भाग गुणकार है। इससे इसीकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी जघन्य १ अप्रतौ । -कदी विसेसाहिया तेजइयरस उक्कस्सिया' इति पाठः । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. कदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजइयस्स जहणिया संघादण-परिसादणकदी अणतगुणा । तस्सेव जहणिया परिसादणकदी विसेसाहिया । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादण परिसादणकदी विसेसाहिया । कम्मइयस्स जहपिणया परिसादणकदी अणंतगुणा । तस्सेव जहणिया संघादण-परिसदणकदी दुगुणा विसेसाहिया । उक्कस्सिया परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । उक्कस्सिया संघादणकदी सादिरेय. दुगुणा । एवं अप्पाबहुगं समत्तं । संपधि एत्थ अणियोगद्दाराणि देसामासियसुत्तसूइदाणि भणिस्सामो- तत्थ संतपरूवणदाए दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसण य । ओघेण ओरालिय वेउविय-आहारसरीराणमत्थि संघादणकदी परिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च [ ३ ३ ३ ] । तेजा-कम्मइयसरीराणमत्थि परिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च ३३ । णिरयगदीए परिशातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे तैजस शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति अनन्तगुणी है। इससे उसकी ही जघन्य परिशातनकृति विशेष अधिक है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशांतनकृति असंख्यातगुणी है। इससे इसीकी उत्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति विशेष अधिक है। इससे कार्मणशरीरकी जघन्य परिशातनकृति अनन्तगुणी है । इससे उसकी ही जघन्य संघातन परिशातनकृति दुगुणी विशेष अधिक है । इससे इसीकी उत्कृष्ट परिशातनकृति असंख्यातगुणी है । इससे इसीकी उस्कृष्ट संघातन-परिशातनकृति कुछ अधिक दुगुणी है। इस प्रकार अल्प-बहुत्व समाप्त हुआ। ____ अब यहां देशामर्शक सूत्रके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारोंको कहते हैं - उनमें सत्प्ररूपणाके आश्रित निर्देश ओघ और आदेश रूपसे दो प्रकारका है । ओघकी अपेक्षा औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरोंके संघातनकृति, परिशातनकृति और संघातनपरिशातनकृति होती है । तैजल व कार्मण शरीरोंके परिशातनकृति और संघातन परिशातनकृति होती है। विशेषार्थ-यहां ऐसा जान पड़ता है कि औदारिक आदि तीन शरीरोंकी तीन तीन कृतियां होती हैं, इसलिये इसका १ १ १ ऐसा चिन्ह रहा है । और शेष दो शरीरोंकी दो दो कृतियां होती हैं, इसलिये इसके लिये ११ ऐसा चिन्ह रहा है । मूलमें जो चिन्ह है वह १ अ-आप्रत्योः ००.०० एवंविधा, काप्रतौ तु .... एवंविधा संदृष्टिरत्र । ++ + ++ ++++ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ ३५५ णेरइएसु अत्थि वेउव्वियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी च [:], तेजा-कम्मइयाणं संघादण-परिसादणकदी च' । णेरइएसु वेउब्बियपरिसादणकदी पत्थि, पुर्धविउव्वणाभावादो। एवं सत्तसु पुढवीसु । सव्वदेवाणं एवं चेव । देवेसु पुधविउव्वणसंभवादो वेउब्धियपरिसादणकदी किण्ण भण्णदे ? ण, मूलसरीरमछंडिय विउव्वमाणाणं देवाणं सुद्धपरिसादणाणुवलंभादो। तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणं पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स य अस्थि ओरालिय-वेउब्धियतिण्णि-तिण्णिपदा तेजा कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी च १३ । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु अस्थि ओरालियसंघादणकही संघादण परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंधादणपरिसादणकदी च। -४४४ अशुद्ध प्रतीत होता है । आगे गति मार्गणामें ऊपरका अंक गतिसूचक, मध्यका अंक शरीर. सूचक और नीचे का अंक कृतियाका सूचक रहा होगा। नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति और संघातन परिशातनकृति होती है। तैजस और कार्मण शरीरोंके संघातन-परिशातनकृति होती है । नारकियों में क्रियिकशरिकी परिशातनकृति नहीं होती, क्योंकि, उनके पृथक् विक्रियाका अभाव है । इस प्रकार सात पृथिवियों में कहना चाहिये। सब देवोंके भी इसी प्रकार ही कहना चाहिये। शंका --देवोंमें पृथक् विक्रिया सम्भव होनेसे चक्रियिकशरीर की परिशांतनकृति क्यों नहीं कही जाती? समाधान नहीं कही जाती, क्योंकि, भूल शरीरको न छोड़कर विकिया करनेवाले देवोंके शुद्ध परिशातनकृति नहीं पायी जाती। तिर्यग्गति तिर्यंचोंके और तीनों पंचेन्द्रिय तिर्यचौके औदारिक व वैक्रियिक शरीरके तीनों तीनों पद है और तैजस व कार्मण शरीरके संघातन-परिशातनकृति है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंमें औदारिक शरीर की संघातनकृति व संघातन परिशातन कृति होती है और तैजस वकार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति होती है। + + + 1 अप्रतौ . १ . एवविधा संदृचिरत्र, आ-को पस्योस्त्वा न काचित्संधिः । २ प्रतिषु — पुढ- ' इति पाठः । ३ प्रतिप्वत्र : एवंविधा, मप्रतौ तु ... एवविधा संधिः । + + + +++ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, १,७१. मणुसगदीए मणुसतियस्स ओघभंगो । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णत्थि । मणुसभपज्जत्ताणं तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एइंदियाणं बादराणं तेसिं चेव पज्जत्ताणं च तिरिक्खभंगो। बादरेइंदियअपज्जत्ताणं सुहुमाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं सबविगलिंदियाणं पंचिंदिय-तसअपज्जत्ताणं च तिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदियदोण्णिपदाणं' ओघभंगो । एवं , तसदुवस्स । सव्वपुढवीकाइय-सव्वआउकाइय-सव्ववणप्फदिकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत्ताणं सुहुमतेउकाइय-सुहुमवाउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्ताणं च पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जताणं च एइंदियभंगो । पंचमणजोगीसु पंचवचिजोगीसु अत्थि ओरालिय-वेउब्धिय-आहारपरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी [च । संघादणकदी ] किण्ण उत्ता १ ण, संघादणकदीए कायजोगं मोत्तूण अण्णजोगाभावादो । तेजा-कम्मइयाणं संघादण-परिसादणकदी अस्थि । कायजोगीण मनुष्यगतिमें मनुष्यत्रिकके ओघके समान प्ररूपणा है। विशेष इतना है कि मनुष्यनियों में आहारपद नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तकोंकी तिथंच अपर्याप्तकोंके समान प्ररूपणा है । एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय बादर और उनके ही पर्याप्तोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म व उनके ही पर्याप्त-अपर्याप्त, सब विकले. न्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और अस अपर्याप्त, इन सबकी प्ररूपणा तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है । पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। इसी प्रकार प्रस व प्रस पर्याप्तोंकी भी प्ररूपणा ओघके समान है। सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब वनस्पतिकायिक, बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तेजकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके ही पर्याप्त व अपर्याप्त, इनकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । तेजकायिक, वायुकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक और उनके ही पर्याप्तोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। पांच मनोयोगियों और पांच वचनयोगियोंमें औदारिक, वैक्रियिक और आहारक शरीरकी परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति होती है । शंका- इनके उक्त शरीरोंकी संघातनकृति क्यों नहीं कही? समाधान- नहीं कही, क्योंकि, संघातनकृतिमें काययोगको छोड़कर दूसरा योग नहीं होता। पांच मनोयोगी और पांच घचनयोगियोंमें तैजस और कार्मण शरीरकी संघातनपरिशातनकृति होती है। - १ अ-आपत्योः 'पंचिं० दोणि ', काप्रती · पंचिंवियदोणि ' इति पाठः । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ५१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपावणा मोघभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणं णत्थि, अजोगिं मोत्तूण अण्णस्य तस्साभावादो । ओरालियकायजोगीसु अत्थि ओरालियसरीरपरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी वेउन्वियतिण्णिपदा आहारपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी च । ओरालियमिस्सकायजोगीण तसअपज्जत्तभंगो । वे उब्वियकायजोगीसु अत्थि वेउव्विय-तेजा-कम्मइय-संघादण-परिसादणकदी । वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु अत्थि वेउव्वियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी च । आहारकायजोगीसु अस्थि ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंवादण-परिसादणकदी च । एवं आहारमिस्सकायजोगीसु । णवरि आहारसंघादणं पि अस्थि । कम्मइयकायजोगीसु अस्थि ओरालियपरिसादणकदी, लोगमावूरिदकेवलीसु तदुवलंभादो । तेजा-कम्मइयसंवादण-परिसादणकदी च अत्थि । इत्थि-णqसयवेदाणं तिरिक्खोघभंगो । पुरिसवेदाणमोधभंगो। णवरि तेजा-कम्मइय ...................................... काययोगियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती, क्योंकि, अयोगकेवलीको छोड़कर अन्य मार्गणाओं में इस कृतिका अभाव है। औदारिककाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति व संघातन-परिशातनकृति, वैक्रियिकशरीरके तीनों पद, आहारकशरीरकी परिशातनकात, तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा त्रस अपर्याप्तोंके समान है। ___ वैक्रियिककाययोगियों में वैक्रियिकशरीरकी तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघ्रातनकृति व संघातन परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है। आहारकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशासनकृति तथा आहारक, सैजसच कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति होती है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगियों में समझना चाहिये । विशेष केवल इतना है कि इनमें आहारकशरीरकी संघातनकृति भी होती। कार्मणकाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति होती है, क्योंकि लोकपूरणसमुद्घातको प्राप्त हुए केवलियों में उक्त कृति पायी जाती है। उनमें तैजसव कार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति भी होती है। स्त्री और नपुंसक बेदियोंकी प्ररूपणा तिर्यंच ओघके समान है। पुरुषवेदियोकी प्ररूपणा ओधके समान है। विशेष इतना है कि इनके तैजस वकार्मण शरीरकी परिशासन १ अप्रतौ 'आहारसंगादाण ', काप्रतौ · आहारमिरससंघादणं' इति पार। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ Srasta dantas [ ४, १, ७१. परिसादणं णत्थि । अवगदवेदाणमत्थि ओरालिय-तेजा- कम्मइयपरिसादणकदी संघादण-परि'सादणकदी च । एवमकसाइ- केवलणाणि केवलदंसणि- जहाक्खादाणं वत्तत्रं । चदुकसाईणमोघं । वरि तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खोवं । एवं विभंग-मणपज्जवणाणीणं । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीणं कायजोगिभंगो । संजदाणमोघं । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । एवं सामाइय-छेदोवडावणसुद्धिसंजाणं । वरि तेजा - कम्मइयपरिसादणं णत्थि । परिहारसुद्धिसंजद- सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदे अस्थि ओरालिय- तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी | संजदासंजदाणं मणपज्जवभंगो । असंजदाणं तिरिक्खभंगो । चक्खु दंसणि अचक्खुदंसणि ओहिदंसणीणं आभिणिबोहियभंगो । किण्ण-णील-काउलेस्सियाणं असंजदभंगो | तेउ पम्म - सुक्कलेस्सियाणं आभिणिबोहियभंगो । भवसिद्धिएस ओ | अभवसिद्धियाण असंजदभंगो । सम्माइडी खइयसम्मा कृति नहीं होती | अपगतवेदियों के औदारिक, तेजल व कार्मण शरीरकी परिशात कृति और संघातन परिशातनकृति भी होती है । इसी प्रकार अकषायी, केवलज्ञानी, केवल. दर्शनी और यथाख्यातसंयमी जीवोंके कहना चाहिये । चार कषायवाले जीवों की प्ररूपणा ओके समान है । विशेष इतना है कि उनके तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातन कृति नहीं होती । मति व श्रुत अज्ञानियोंकी प्ररूपणा तिर्यच ओघके समान है । इसी प्रकार विभंगज्ञानी व मनः पर्ययज्ञानियोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनके औदारिक'शरीरकी संघातनकृति नहीं होती । आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। संयत जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेषता इतनी है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती । इसी प्रकार सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों के कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । परिहारशुद्धिसंगत और सूक्ष्मसाम्पराकिशुद्धिसंयतों में औदारिक, तैजस व कार्मण शरीरकी संवातन परिशातनकृति होती है । संयतासंयत जीवों की प्ररूपणा मनः पर्ययज्ञानियोंके समान है । असंगत जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । चदर्शनी, अवदर्शनी और अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियों के समान है । कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले जीवोकी प्ररूपणा असंयत जीयोंके समान है । - तेजलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्यावाले जीवों की प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियाँक समान है । भव्यसिद्धिकीकी प्ररूपणा ओघके समान है । अभव्यसिद्धिकोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है । सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों की प्ररूपणा ओघके समान है I Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३५९ इट्ठी ओघं । वेदगसम्मादिट्ठीणं चक्खुदंसणिभंगो । उवसमसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठीण विभंगणाणिभंग।। सासणसम्माइट्टि-मिच्छाइट्ठीणं असंजदभंगो । एवमसण्णीण । सण्णीणं पुरिसवेदभंगो। आहारएसु चक्खुदंसणिभंगो। अणाहारएसु अत्थि ओरालियपरिसादणकदी तेजाकम्मइयपरिसादणकदी संघादण-परिसादणकदी च । एवं संताणुगमो समत्तो । दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओषेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी दव्वपमाणेण केवडिया ? अणता । ओरालियपरिसादणकदी वेउब्वियतिण्णिपदा केत्तिया ? असंखेज्जा पदरस्स असंखेज्जदिभागो। आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी केत्तिया? संखेज्जा। कधं कदिसद्दो जीवाणं वाचओ ? क्रियन्ते अस्यां पुद्गलपरिसादनादय इति कृतिशब्दनिष्पत्तिः, करणाणं मूलं कारणमिदि जीवा मूलकरणं । गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनी जीवोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा विभंगशानियों के समान है। सासादनसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है। इसी प्रकार असंशी जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। संशियोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है। आहारक जीवोंकी प्ररूपणा चक्षुदर्शनियोंके समान है। अनाहारक जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति और संघातन-परिशातनकृति भी होती है। इस प्रकार सत्प्ररूपणानुगम समाप्त हुआ। द्रव्यप्रमाणानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकार निर्देश है। उनमें ओघकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी संघातनकृति, संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव द्रव्य प्रमाणसे कितने हैं ? उक्त जीव अनन्त हैं । औदारिकशरीरकी परिशांतनकृति और वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीव, कितने हैं ? जगप्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात हैं । आहारकशरीरके तीनों पद युक्त तथा तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकति युक्त जीव कितने हैं? संख्यात हैं। शंका-कृति शब्द जीवोंका वाचक कैसे हो सकता है ? समाधान-एक तो जिस में पुद्गलोंके परिशातनादिक किये जाते हैं वह कृति है, ऐसी कृति शब्दकी व्युत्पत्ति है इसलिये कृति शब्दसे जीव लिये गये हैं। दूसरे करणोंका मूल अर्थात् कारण होनेसे जीव मूलकरण हैं इसलिये भी कृतिशब्दका उपयोग जीवोंके । लिये किया गया है। गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति, Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा। एवं सत्तसु पुढवीसु । एवं देव-भवणवासियप्पहुडि जाव सहस्सारे ति । तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमोरालिय-वेउब्धियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स ओरालिय-वेउब्बियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं मणुसअपज्जत्त-पंचिंदिय-तसअपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-सव्वपुढविकाइय-सव्वआउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत्ताणं तेसिं चेव सुहुमाणं तप्पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं च । मणुसगदीए मणुसेसु ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वपदा संखेजा । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णत्थि । संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इस प्रकार सातों पृथिवियों में कहना चाहिये। इसी प्रकार देव और भवनवासी आदि सहस्रार कल्प तक देवोंमें कहना चाहिये। तिर्यग्गतिमें तिर्यों में औदारिक और वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। पंचेन्द्रिय आदि तीन तिर्यंचोंके औदारिक व वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय व प्रस अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त तथा उनके ही सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त एवं बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त व अपर्याप्तोंके कहना चाहिये। मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात है। मनुष्योंमें शेष पद युक्त जीव संख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब पद युक्त जीव संख्यात हैं । विशेष इतना है कि मनुष्यनियोंमें आहारक पर नहीं होता। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१. } कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३६१ आणदादि जाव अवराइदा त्ति वेउब्वियसंघादणकदी केत्तिया १ संखेज्जा । कुदो ? मणुसपज्जत्तपडिभागेण तत्थुप्पत्तीए । सेसदोपदा असंखेज्जा । सव्व? तिण्णिपदा संखेज्जा । एइंदियाणं बादराणं तेसिं पज्जत्ताणं च तिरिक्खभंगो । बादरेइंदियअपज्जत्ताणं सुहुमेइंदियाणं तस्सेव पज्जत्तापज्जत्ताणं ओरालियसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया १ अणता । पंचिंदियदुगस्स ओरालिय-वेउन्वियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा। तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयाणं तेसिं चेव पज्जताणमोरालियवेउव्वियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । वणप्फदिणिगोद-बादर-सुहुमपज्जत्तापज्जत्ताणमेइंदियअपज्जत्तभंगो । तसद्गस्स पंचिंदियदुगभंगो । पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणं ओरालिय-वेउवियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? असंखेज्जा । आहारदोपदा संखेज्जा । काय .................. आनतसे लेकर अपराजित विमान तक वैक्रियिक शरीरकी संघातनकृति युक्त जीय कितने हैं ? संख्यात हैं, क्योंकि, वहां मनुष्य पर्याप्तोंके प्रतिभागसे उत्पत्ति है । शेष दो पद युक्त जीव असंख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धि विमानमें तीनों पद युक्त जीव संख्यात हैं। एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय व उसके ही पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव अनन्त हैं । पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंमें औदारिक और वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात हैं। इनमें शेष पद युक्त जीव संख्यात हैं। तेजकायिक, वायुकायिक, बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक तथा उनके ही पर्याप्तोंमें औदारिक व वैक्रियिक शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? उक्त जीव असंख्यात हैं। वनस्पतिकायिक निगोद बादर सूक्ष्म पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । त्रस व त्रस पर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान है। पांच मनयोगी और पांच वचनयोगियों में औदारिक व वैक्रियिक शरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातलकति युक्त जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । उक्त जीवों में आहारशरीरके दो पद अर्थात् परि७. क. ४६. Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] छक्खंडागमे वेयणाखरं [१, १,७१. जोगी ओघ । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणं णत्थि । [ओरालियकायजोगीसु] भोरालियसंघादण-[संपादण] परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? अणंता । ओरालियपरिसादणकदी वेउव्वियतिण्णिपदा असंखेज्जा । आहारपरिसादणकदी संखेज्जा । ओरालियमिस्सकायजोगीणं सुहुमेइंदियभंगो । वेउन्वियकायजोगीसु दोण्णिपदा असंखेज्जा । एवं वेउब्धियमिस्सकायजोगीणं । णवरि संघादणकदी अस्थि । आहारकायजेगि-आहारमिस्सकायजोगीणं तिण्णि-चत्तारिपदा संखेज्जा । कम्मइयकायजोगीणं तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केत्तिया ? अणता । ओरालियपरिसादणकदी संखेज्जा। इथिवेदाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं पुरिसवेदाणं । णवरि आहारतिण्णिपदा संखेज्जा । णवंसयवेदाणं तिरिक्खभंगो। अवगदवेदेसु चत्तारिपदा संखेज्जा । एवमकसाइकेवलणाणि-केवलदंसणि-जहाक्खादसुद्धिसंजदाणं वत्तव्वं । चत्तारिकसायाणं कायजोगिभंगो । शातन व संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात हैं। काययोगियोंकी प्ररूपणा मोधके समान है । विशेष इतना है कि इनमें तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति महीं होती। [औदारिककाययोगियोंमें ] औदारिकशरीरकी [संघातन व] संघातनपरिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं? अनन्त हैं। इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति व वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीव असंख्यात हैं । आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। वैक्रियिककाययोगियों में दोनों पद यक्त जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके कहना चाहिये । विशेषता इतनी है कि इनके संघातनकृति होती है। आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगियों में तीन व चार पद युक्त जीव संख्यात हैं। कार्मणकाययोगियों में तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात हैं। स्लोवेदियोंके द्रव्यप्रमाणकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदियोंकी प्ररूपणा है। विशेषता इतनी है कि आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीव संख्यात हैं । नपुंसकवेदियोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। अपगतवेदियों में चार पद युक्त जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अकषायी, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी और यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये। चार कषाय युक्त जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। मति और Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिवणियोगदारे करणकदिपवणा (१९१ मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खभंगो । विभंगणाणीणं पंचिंदियतिरिक्खमंगो। णवरि ओरालियसंघादणकदी णस्थि । आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु ओरालियसंघादणकदी आहारतिष्णिपदा संखेज्जा । सेसपदा असंखेज्जा । मणपज्जवणाणीसु अप्पप्पणो पदा संखेज्जा। संजदेसु ओरालियसंघादणकदी पत्थि । सेसपदा संखेज्जा । परिहारसुद्धिसंजद. सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु दोपदा संखेज्जा । संजदासजदाणं विभंगभंगो । असंजदाणं तिरिक्खभंगो । चक्खुदंसणीणं पुरिसवेदभंगो । अचक्खुदंसणीणं कोधभंगो। आधिदसणीणं ओहिणाणिभंगो । किण्ण-णील-काउलेस्तियाण तिरिक्खभंगो । तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सियाणं ओहिणाणिभंगो । भवसिद्धियाणं ओघ । अभवसिद्धियाणं असंजदभंगा। सम्मादिट्टि-खइयसम्मादिट्ठीण ओहिणाणिभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी अस्थि । वेदगसम्मादिट्ठीणं मोहिमंगो। उवसमसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीणं विभंगणाणिभंगो । सासणसम्मादिट्ठीणं ................ श्रुत अज्ञानियोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है । विभंगशानियोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । विशेष इतना है कि उनके औदारिका शरीरकी संघातनकृति नहीं होती । आभिनिबोधिकशानी, श्रुतवानी मौर अवधिज्ञानियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति और आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीव संख्यात हैं। शेष पद युक्त जीव असंख्यात हैं। मनःपर्ययशानियोंमें अपने अपने पद युक्त जीव संख्यात हैं। संयत जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती। शेष पद युक्त जीव संख्यात हैं। परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवों में दो पद युक्त जीव संख्यात हैं । संयतासंयतोंकी प्ररूपणा विभंगज्ञानियोंके समान है। असंयतोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है । चक्षुदर्शनियोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । अचा. दर्शनियोंकी प्ररूपणा क्रोधकषायी जीवोंके समान है। अवधिदर्शनियोंकी प्ररूपणा अवधिशानियों के समान है। कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। तेज, पद्म व शुक्ल लेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है। भव्यसिद्धिक जीयोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। अभव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा अवधिशानियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके तैजस और कार्मण शरीरकी परिशातनकृति होती है। घेदक. सम्यग्दपियोंकी प्ररूपणा अवधिशानियोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याराष्टि जीवोंकी प्ररूपणा विभंगशानियोंके समान है । सासादनसम्यगपरियोकी १ प्रतिषु संखेम्नां ' इति पाठः । Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६. छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,७१. पंचिदियतिरिक्खभंगो। मिच्छाइट्ठीण असंजदभंगो । सण्णीणं पुरिसवेदभंगो । असण्णीणं तिरिक्खभंगो। आहारएसु ओवं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णस्थि । अणाहारएसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी संखेज्जा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी अणंता । एवं दव्वपमाणाणुगमो समत्तो । खेत्ताणुगमेण दुविहो णिदेसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसंघादण. संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेते ? सव्वलोए । ओरालियपरिसादणकदी केवडिखेते? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु भागेसु सबलोगे वा । वेउव्विय-आहारतिण्णिपदा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवं तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी । णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादण-संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइय प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है। संझी जीर्वोकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है। असंज्ञी जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। आहारक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनके तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। अनाहारक जीवोंमें औदारिक, तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यात हैं । तैजस और कार्मण शरीरकी संघातन-परिशानकृति युक्त जीव अनन्त हैं। इस प्रकार द्रव्यप्रमाणानुगम समाप्त हुआ। क्षेत्रानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है। उनमें ओघकी अपेक्षा औदारिकेशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव सब लोकमें रहते हैं । औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवे भागमे, असंख्यात बहुभागामे अथवा सर्व लोकमे रहते है। वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इसी प्रकार तैजसशरीर और कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिवाले जीवोंका कथन करना चाहिये। नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति और संघातन-परि ............. १ काप्रतौ ' परिहार० ' इति पाठः । Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५, १, ७१.] कदिणियोगद्दारे करणकदिपस्यणा संघादण-परिसादणकदी केवडिखेते ? लोगस्स असंखेज्जदिमागे । एवं सत्तसु पुढवीसु सबदेवेसु च । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओरालियसंधादण-संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? सवलोगे । ओरालियपरिसादणकदी वेउव्वियतिण्णिपदा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स ओरालिय-वेउब्वियतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु ओरालियसंघादणकदी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे। मणुसतिगेसु ओरालियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघो । सेसपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णस्थि । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ............................. शातनकृतिवाले जीव तथा तैजस और कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंमें और सब देवोंमें जानना चाहिये। तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति और संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव तथा तैजसशरीरकी और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिवाले और वैक्रियिकशरीरके तीन पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीनके औदारिक और वैक्रियिक शरीरके तीन पद तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं। उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में औदारिकशरीरकी परिशासनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। शेष पद युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। विशेष इतना है कि मनुष्यनियोंमें आहारक पद नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंके समान है। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्वंडागमे वेयणाखेर [१, १, १. एइंदियाणं तिरिक्खभंगो । बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणमोरालियसंघादणकदी लोगस्स संखेज्जदिभागे । सेसपदाणं तिरिक्खभंगो । एवं बादरेइंदियअपज्जत्ताणं । णवरि वेउव्वियपदं णत्थि । सुहुमेइंदियाणं तेसिं पज्जत्तापज्त्ताणं च ओरालियसंघादणकदी ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते? सव्वलोगे। सबविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदियदुगस्स मणुसभंगो । पुढवीकाइय-आउकाइय-सुहुमपुढवीकाइय-सुहुमआउकाय-सुहुमते उकाइय-सुहुमवाउकाइय-वणप्फदि-णिगोद-सुहुमवणप्फदि-सुहुमणिगोदाणं तेसिं पज्जत्तापजत्ताणं सुहुमेहंदियभंगो। पादरपुढवीकाइय-बादरआउकाइयाणं तेसिमपञ्जत्ताणं बादरतेउकाइयअपज्जत्ताणं बादरवणप्फदिपादरणिगोदाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं पत्तेयसरीर-तदपज्जत्ताणं च ओरालियसंघादणकदी केवडिखेत्ते? लोगस्स असंखेज्जदिमागे। सेसपदा सव्वलोगे। बादरपुढवीकाइय-बादरआउकाइय-बादरवणफदिपत्तेगसरीरपज्जत्त-तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । तेउ-वाउकाइयाणं तिरिक्खभंगो। बादरतेउकाइएसु ओरालियसंघादणकदी परिसादणकदी वेउब्वियतिण्णिपदा एकेन्द्रिय जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं। शेष पदोंकी प्ररूपणा तिर्योंके समान है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनके वैक्रियिक पद नहीं होता। सूक्ष्म एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त-अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति और औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। सब विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तोंके समान है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंकी प्ररूपणा मनुष्यों के समान है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म तेजकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोद जीव तथा उनके पर्याप्त-अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक व उनके अपर्याप्त, बादर तेजकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद व उनके पर्याप्त अपर्याप्त तथा प्रत्येकशरीर व उनके अपर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। शेष पदोंसे युक्त ये सब जीव सब लोकमें रहते हैं। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर वन. स्पतिकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त तथा प्रसकायिक अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है। तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यचौके समान है।बादर तेजकायिक जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति व परिशातनकृति तथा Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १,१, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [१६७ केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सेसपदा सव्वलोगे । पादरतेउकाइयपज्जत्ता पंचिंदियतिरिक्खभंगो । बादरवाउकाइया बादरेइंदियभंगो । बादरवाउकाइयपज्जत्ताणमारालियंसंघादणकदी संघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी लोगस्स संखेज्जदिभागे । सेसपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे। बादरवाउकाइयअपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो । तसदुगस्स पंचिंदियभंगो । पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु ओरालिय-वेउव्विय-आहारपरिसादणकदी ओरालियवेउव्विय-आहार-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते १ लोगस्स असंखेज्जदिभागे। कायजोगीसु ओघो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी पत्थि । ओरालियकायजोगीसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी केवडिखेत्ते ? सव्वलोगे । वेउब्वियतिण्णिपदा ओरालिय-आहारपरिसादणकदी केवडिखेत्त ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे । ओरालियमिस्सकायजोगीणं सुहुमेइंदियभंगो । वेउब्वियकायजोगीसु अप्पणो दोपदा वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। शेष पद युक्त ये जीव सब लोकमें रहते हैं । बादर तेजकायिक पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है। बादर वायुकायिक जीवोंकी प्ररूपणा बाद एकेन्द्रियोंके समान है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं । शेष पदोंसे युक्त वे ही जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। बादर वायुकायिक अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । त्रस व त्रस पर्याप्तौकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय जीवोंके समान है। ___ पांच मनयोगी और पांच वचनयोगी जीवोंमें औदारिक, वैक्रियिक व आहारकशरीरकी परिशातनकृति तथा औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। काययोगी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। औदारिककाययोगी जीवोंमें औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव सब लोकमें रहते हैं । औदारिककाययोगिोंमें वैक्रियिकशरीरके तीनों पद तथा औदारिक व आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? उक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। वैक्रियिककाययोगियों में अपने दो पद युक्त जीव लोकके Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] छक्खंडागमे येयणाखंड [१, १, ७१. लोगस्स असंखेज्जदिभागे । वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं देवभंगो । आहार-आहारमिस्सति-चत्तारिपंदा लोगस्स असंखेजदिभागे । कम्मइयकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी केवलिभंगो । तेजा-कम्मइय-संघादणपरिसादणकदी सव्वलेोगे। इत्थिवेदस्स पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं पुरिसवेदस्स । णवरि अस्थि आहारतिण्णिपदा । णउसयवेदस्स तिरिक्खभंगो । अवगदवेदेसु ओरालियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी लोगस्स असंखेज्जदिमागे असंखेजेसु वा भागेसु सव्वलोगे वा । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी लोगस्स असंखेज्जदिभागे । एवमकसायकेवलणाण-केवलदंसण-जहाक्खादाणं । चदुकसायाणं कायजोगिभंगो। णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे। मदि-सुदअण्णाणीणं तिरिक्खभंगो । एवमसंजद-किण-णील-काउलेस्सिय-अभवसिद्धिय .......................................... असंख्यातवें भागमें रहते हैं। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा देवोंके समान है। आहारकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और आहारक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति, इस प्रकार तीन पद; तथा आहारकमिश्रकाययोगियों में इन तीन पदोंके साथ आहारकशरीरकी संघातनकति, इस प्रकार चार पद युक्त जी असंख्यातवें भागमें रहते हैं। कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवली जीवोंके समान है । इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव सब लोकमें रहते हैं। स्त्रीवेदियोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदियोंके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनके आहारकशरीरके तीनों पद होते हैं । नपुंसकवेदियोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है । अपगतवेदियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें, असंख्यात बहुभागोंमें अथवा सर्व लोकमें रहते हैं। उक्त जीवों में औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। इसी प्रकार अकषायी, केवलशानी, केवलदर्शनी और यथाख्यातशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये। चार कषाय युक्त जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। मति और श्रुत अज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार असंयत, कृष्ण, नील व कापोतलेश्यावाले, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि और असंही .......................... १ अप्रतौ ' आहारमि० चिचचत्तारि ' इति पाठः । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करण कदिपरूवणा [ ३६९ मिच्छाइट्टि असण्णीणं वत्तव्वं । विभंगणाणीणमित्थिवेदभंगो । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । एवं मणपज्जवणाणि संजदासंजदाणं । आभिणिबोहिय - सुद-ओहिणाणीण पुरिसवेदभंगा । संजदाणं मणुभंगो | णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । सामाइय-छेदोवडावणसुद्धिसंजदाणं पुरिसवेदभंगे। । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । परिहार - सुहुमसां पराइयसुद्धिसंजदेसु अप्पप्पणो दोपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागे । चक्खुदंसणीणं आभिणिबोहियभंगो । एवं ते उ-पम्मलेस्सिय-वेदगसम्मादिट्ठि-सण्णीणं वत्तव्वं । एवं ओहिदंसणीणं । अचक्खुदंसणीणं कायजोगिभंगा । णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे । सुक्कलेस्सिएस मणुसभंगो | णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणं णत्थि । भवसिद्धियाणं ओघो । सम्मादिट्ठि - खइयसम्मादिट्ठीणं मणुसभंगो । उवसमसम्भादिट्ठि- सम्मामिच्छादिट्ठीणं विभंगभंगो । सासणसम्मादिद्वीणं पंचिंदियतिरिक्खभंग । आहारसु कायजोगिभंगो। णवरि ओरालियपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे । अणा जीवोंके कहना चाहिये । विभंगज्ञानियोंकी प्ररूपणा स्त्रीवेदियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती। इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी और संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये । आभिनिबोधिक श्रुत और अवधिज्ञानियोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । संयत जीवोंकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती । सामायिक व छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतों की प्ररूपणा पुरुषवेदियों के समान है । विशेष इतना है कि उनके औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती । परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें अपने अपने दो पद युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । चक्षुदंर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । इसी प्रकार तेज व पद्म लेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि और संज्ञी जीवके कहना चाहिये । इसी प्रकार अवधिदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । विशेष इतना है कि उनके तेजस और कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों की प्ररूपणा मनुष्योंके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंको प्ररूपणा विभंगज्ञानियोंके समान है । सासादनसम्यदृष्टियों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है । आहारक जीवोंकी प्ररूपणा काय - योगियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं । अनाहारक जीवोंमें औदारिकशरीरकी क. क. ४७. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १. 'हाराण ओरालियपरिसादणकदीए केवलिभंगो। तेजा-कम्मइयपरिसादणं लोगस्स असंखेज्जदिभागे । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी सव्वलोगे । एवं खेत्ताणुगमो समत्तो । पोसणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसंघादण. संघादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगो । ओरालियपरिसादणकदीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीहि केवडियं खेतं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सबलोगो वा। वेउब्वियसंघादणपरिसादणकदीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-चोद्दसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा। आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीहि केवडियं खेत्तं फोसिद ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। आदेसण णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादणकदीए खेत्तभंगो। वेउब्वियन्तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो छचोदसभागा वा देसूणा । परिशातनकृति युक्त जीर्वोकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। इनमें तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव लोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशानकृति युक्त जीव सर्व लोकमें रहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। स्पर्शनानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकार निर्देश है। उनमें ओघसे मौदारिकशरीरकी संघातनकृति व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है? उक्तं जीवों द्वारा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग, अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है।आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीवों द्वारा तथा तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श । किया गया है। आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियों में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रमरूपणाके समान है। वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संवातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.) कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा पढमपुढवीए खेत्तमंगो। बिदियादि जाव सत्तमाए पुढवीए वेउब्वियसंघादणकदीए खत्तभंगा। वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो एक्क-बे-तिण्णि-चत्तारि-पंच-छ-चोद्दसभागा वा देसूणा । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओरालियसंधादणकदीए ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए खेत्तभंगो। ओरालियपरिसादणकदी वेउव्वियतिण्णिपदा लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । पंचिंदियतिरिक्खएसु ओरालियसंघादणकदीहि लोगस्स असंखेज्जदिभागो । सेसपदेहि लोगस्स असंखेज्जदिमागो सव्वलोगो वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तजोणिणीणं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ताणं एवं चेव । णवरि वेउवियतिण्णिपदा ओरालियपरिसादणं च णत्थि । मणुसतियस्स ओरालियसंघादणकदीए आहारतिण्णिपदेहि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीए च केवडियं खेतं फोसिद ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो। ओरालियपरिसादणकदीए तेजा चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। प्रथम पृथिवीमें स्पर्शनकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है । द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। उक्त पृथिवियोंमें वैक्रियिक, तैजस व कार्मण शरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पांच और छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। तिर्यंचगतिमें तिर्यों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रके समान है। तिर्यंचों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवोंने लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया है। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में औदा. रिकारीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंने लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया है। शेष क्त जीवोने लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सवे लोक स्पशे किया है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और योनिमत् तिर्यंचोंके कहना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा भी इसी प्रकार ही है। विशेषता केवल इतनी है कि उनके वैक्रियिकशरीरके तीनों पद और औदारिकशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। . मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति, भाहारकशरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकात युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श किया गया है। इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघा Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ 1 छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ७१. कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा वा भागा सव्वलोगो वा । ओरालियसंघादण - परिसादणकदीए वेउब्वियतिण्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिद ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । णवरि मणुसिणीसु आहारपदं णत्थि । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । देवगदी देवे उव्वियसंघादणकदीए णारगभंगो । संघादण-परिसादणक दीए तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-णवचोद्द सभागा वा देसूणा । भवणवासिय-वाणवेंतर- जोदिसियाणं वेउच्त्रियसंघादणकदीए देवभंगो । वेउव्त्रिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अद्धट्ट-अट्ठणवचोइसभागा वा देसूणा | सोहम्मीसाणदेवाणं देवभंगो | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारदेवाणं वेउव्वियसंघादणकदीए देवभंगो । वेउब्विय - तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोद सभागा वा देसूणा | आणदादि जाव अच्चुदा त्ति वेउब्वियसंघादणकदीए देवभंगो । वेउव्विय तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसारणकदीए लोगस्स असंखे तन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। विशेष इतना है कि मनुष्यनियों में आहार पद नहीं होता । मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तोंके समान है । देवगतिमें देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है । देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति तथा तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ और नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा देवोंके समान है । इनमें वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया है ? उक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । सौधर्म व ईशान कल्पके देवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है । सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त देवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है । इनमें वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त देवोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है । इनमें वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिज्ञातन कृति युक्त जीवों द्वारा Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणदिपरवेणी ज्जदिभागो छचोद्दसभागा वा देसूणा । णवगेवज्जादि सव्वट्ठा त्ति खेत्तभंगा। एइंदियाणं तिरिक्खमंगो। बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं ओरालियसंघादणकदीए लोगस्स संखेज्जदिभागो। सेसपदाणं तिरिक्खभंगो। बादरेइंदियअपज्जत्ताणं. सव्वसुहमाण खेत्तभंगो । सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिंदियदुगस्स ओरालियसंघादणकदी आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी खेत्तभंगो । ओरालियपरिसादणकदीए केवलिभंगो । ओरालियसंघादणपरिसादणकदी वेब्वियसंघादणकदी परिसादणकदी लोगस्स असंखेन्जदिभागो सव्वलोगो वा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्टचोदसभागा [वा देसूणा] सव्वलोगो वा। तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा [वा देसूणा] असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा। पुढवीकाइय-आउकाइय [ सब्बसुहुम-] पुढवीकाइय-सव्वसुहुमआउकाय-सब्बसुहुम लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। नौ प्रैवेयकोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तकके देवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। एकेन्द्रिय जीवोंकी स्पर्शनप्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंने लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया है। शेष पद युक्त जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त और सब सूक्ष्म जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। सब विकलेन्द्रिय : तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीवोंके समान है। पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति, आहारशरीरके तीनों पद युक्त जीव तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है । तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग, [ कुछ कम ] आठ बटे चौदह भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। पृथिवीकायिक, जलकायिक, [सर्व सूक्ष्म] पृथिवीकायिक, सर्व सूक्ष्म जलकायिक, Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संडागमै पैयणाखंड t, t, ot. तेउकाइय-सव्वसुहुमवाउकाइय-सव्वसुहुमवणफदिकाइय-णिगोद-सुहुमवणप्फदि-सुहमणिगीदाणं तेसिं पज्जत्तापजत्ताणं बादरपुढवीकाइय-बादरआउकाइयाणं तेसिमपञ्जताणं बादरवणप्फदि-बादरणिगोदाणं तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरवणप्फदिपत्तेयसरीराणं तेसिमपज्जताणं खेतमंगो। बादरपुढवीकाइय-बादरआउकाइय-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्ताणं पंचिंदियअपजैत्तमंगो। तेउकाइय-वाकाइयाणं एइंदियभंगा। बादरतेउकाइयाणं ओरालियसंघादणकदीए खेतमंगो। सेसपदाणं तिरिक्खमंगो । बादरतेउकाइयपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । पादरवाउकाइयाणं बादरएइंदियभंगो । बादरवाउकाइयपज्जताणं ओरालियसंघादणकदीए लोथस्स संखेज्जदिभागो। ओरालियपरिसादणकदीए वेउब्बियतिण्णिपदाणं तिरिक्खभंगो । भोरालियसंपादण-परिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो संबलोगो वा । बादरवाउकाइयअपज्जत्ताणं वादरेइंदियअपज्जत्तमंगो। तसकाइय. तिण्णिपदाणं पंचिंदियतिगमंगो। पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीणं ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखे सर सूक्ष्म तेजकायिक, सर्व सूक्ष्म वायुकायिक, सर्व सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म मिगोद जीव, उनके पर्याप्त-अपर्याप्त, पादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, उनके अपर्याप्त, बादर वनस्पति, बादर निगोद, उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकभारीर तथा उनके अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। बादर पृथिवीकापिक, बादर जलकायिक व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंकी प्रकपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिपोंके समान है। बादर तेजकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संधातनकृति युक्त जीबोकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। शेष पदोंकी प्ररूपणा तिर्योंके समान है। बादर तेजकायिक पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। बादर वायुकायिक जीवोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवों में मौदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका संख्यातवां भाग स्पर्श किया गया है । औदारिकशरीरकी परिशासनकृति तथा बैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवोंकी प्ररूपण तिर्यचोंके समान है। औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति तथा तेजल व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्याता भाष अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है। तीन त्रसकायिक जीवों में तीनों पदोंकी प्ररूपणा तीनों पंचन्द्रियोंके समान है। पांच मैनयोनी और पांच क्चनयोगी जीवोमै औदारिकशरीरकी संघातन Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा १०५ ज्जदिभागो सव्वलोगो वा । एवं वेउब्धियपरिसादणकदीए वि। उब्बिय-तेजा-कम्मइया संघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठचोदसभागा देसूणा सव्कलोगो का। आहारदोण्णिपदाणं खेत्तभंगो। कायजोगीणमोघो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणं णस्थि । ओरालियकायजोगीसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए सबलोगो । ओरालिय परिसादणकदीए वेउव्वियतिण्णिपदाणं लिरिक्खमंगो। आहारपरिसादणकदीए खेत्तभंगो। मोरालियमिस्सकायजोगीसु अप्पणो तिण्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सबलोगो । वेउम्बियकायजोगीसु अप्पणी पदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? अट्ठ-तेरह-चौदसभागा वा देसूणा । वेउब्वियमिस्सकायजोगीणं खेत्तभंगा। आहारदुगस्स खेत्तभंगो । कम्मइयकायजोगीण ओरालियपरिसादणकदीए केवलिभंगो। तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए केवडियं खेत्तं फोसिदं ? सव्वलोगा। इस्थिवेदस्स ओरालियसंघादणकदीए खेत्तभंगा। परिसादण संघादणपरिसादणकदीहि परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। वैक्रियिक तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशासनकृति यत जीवो हारा लोकका असंख्यातवां भाग, कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। आहारकशरीरके दो पद युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। काययोगियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि इनके तैजस र कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । औदारिककाययोगियों में औदारिक, तैजस क कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। भौदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त. जीवों की प्ररूपशा क्षेत्र प्ररूपणाके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियों में अपने तीनों पद युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। वैक्रियिककाययोगियों में अपने पदों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गयाहै? उक्त जीयो द्वारा कुछ कम आठव तेरह बटे चौदहभागस्पर्श किये गये हैं। चौक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। आहारक और आहारमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनाति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। इनमें तैजस घ कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? उक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। स्त्रीवेदियोंमें औदारिकशरीरकी संघासनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपमा क्षेत्रमरूपणाके समान है। उक्त जीवों में औदारिकशारीरकी परिशातमकृति र संघातमा Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड (., १, ७१. वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए लोगस्स असंखेजदिभागो सव्वलोगो वा । वेउविय-तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्टचादसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । एवं पुरिसवेदस्स । णवरि आहारतिष्णिपदा अस्थि । णqसयवेदस्स तिरिक्खभंगो । अवगदवेदा ओरालियपरिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए केवलिभंगो । ओरालियसंघादण परिसादणकदीए तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीए खेत्तमंगो । एवमकसाय-केवलणाणि-जहाक्खादसुद्धिसंजदकेवलदंसणि त्ति वत्तव्वं । चत्तारिकसायाणं कायजोगिभंगो। णवरि केवलिभंगो णस्थि । - मदि-सुदअण्णाणीणमप्पप्पणो पदाणमोघो । णवरि ओसलियपरिसादणकदीए,तिरिक्खभंगो। विभंगणाणीसु ओरालियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं वेउवियपरिसादणकदीए पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वेउविय तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्ठचोदसभागा देसूणा सव्वलोगो वा। आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु ओरालियसंघादण-आहारतिण्णिपदाणं खेत्तं । ओरालियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीहि वेउब्वियसंघादणकदि-परिसादण परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनके आहारकशरीरके तीन पद होते हैं। नपुंसकवेदी जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। अपगतवेदी जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। इनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मेण शरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। इसी प्रकार अकषाय, केवलज्ञानी, यथाख्यातशुद्धिसंयत और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये। चार कषाय युक्त जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनके केवलिभंग नहीं होता। . मति और श्रुत अज्ञानी जीवोंके अपने अपने पदोंको प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि इनके औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। विभंगशानियों में औदारिकशरीरकी परिशातन व संघातन परिशातन कृति तथा वैक्रियिकशरीरकी परिशतनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। क्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग अथवा सर्व लोक स्पर्श किया गया है । आभिनिबोधिक, थुत व अवधिज्ञानी जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीवों की प्ररूपणा क्षेत्र प्ररूपणाके समान है। इनमें औदारिकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३७७ १, १,७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा कदीहि छचोद्दसभागा देसूणा । वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्टचोद्दसभागा वा देसूणा । मणपज्जवणाणीसु अप्पणो सवपदाणं खेत्तं । संजदेसु ओरालियपरिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए केवलिभंगो । सेसपदा खेत्तं । सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु अप्पप्पणो पदा खेतं । संजदासजदा अप्पप्पणो पदाणं मणपजवभंगो । असंजदाणं मदि-अण्णाणिभंगो । चक्खुदंसणीणं पुरिसवेदभंगो । अचखुदंसणीणं कोहभंगो । ओहिदसणीणं ओहिणाणिभंगो। किण्ण-णील-काउलेस्सिएसु ओरालियसंघादण-संघादणपरिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए सव्वलोगो । ओरालियपरिसादणकदीए वेउब्वियतिण्णिपदाणं तिरिक्खभंगो। तेउलेस्सिएसु ओरालियसंघादणकदी आहारतिण्णिपदा खेत्तं । ओरालियपरिसादण-संघादण कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । मनःपर्ययज्ञानियोंमें अपने सब पदोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। सयत जीवों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरको संघादन-परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। शेष पदोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें अपने अपने पदोकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। संयतासंयत जीवों में अपने अपने पदोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है । असंयत जीवोंकी प्ररूपणा मतिअज्ञानियों के समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा क्रोधकषायी जीवोंके समान है । अवघिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानी जीवोंके समान है। कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपीरशातनकृति युक्त जीवों द्वारा सर्व लोक स्पर्श किया गया है। इनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति व वैक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवोंकी परूपणा तिर्यंचोंके समान है। तेज लेश्यावाले जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। औदारिकशरीरकी परिशातन व संघातन परिशातनकृति युक्त जीवों १ प्रतिषु ' मणभंगो' इति पाठः। २ अप्रतौ ‘तिरि० वेउत्रिय. ', आप्रती · तिरि० वेउ०', कापतौ । तिरिक्ख० वेउविय.' इति पाठः । छ. क. ४८. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. परिसादणकदीहि वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीहि केवडियं खेत फोसिदं ? दिवडचोदसमांगा देसूणा । वेउव्वियसंघादणपरिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्ट-णवचोद्दसभागा देसूणा । पम्मलेस्मए ओरालियसंघादणकदी आहारतिग खंत । ओरालियदोपद-वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? पंचचोहसभागा देसूणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्ठचोद्दसभागा देसूणा। सुक्कलेस्साए ओरालियसंघादणकदी आहारतिगं खेत्तं । ओरालियपरिसादणकदी ओघो। ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए वेउव्वियतिण्णिपदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? छचोदसभागा देसूणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए छचोद्दसभागा देसूणा केवलिभंगो वा । भवसिद्धिया ओघ । अभवसिद्धियाणमसंजदभंगो । सम्मादिट्ठीसु ओरालियसंघादण द्वारा तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है ? कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भाग स्पर्श किया गया है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ व कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श किया गया है। पद्मलेझ्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है । इनमें औदारिकशरीरके दो पद व वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है? कुछ कम पांच बडे चौदह भाग स्पर्श किया गया है । वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकात युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति तथा आहारकशरीरके तीनों पद युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा वक्रियिकशरीरके तीनों पद युक्त जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पर्श किया गया है? उक्त जीवों द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । अथवा इनकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। अभव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है। सम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति, आहारक १ प्रतिषु तेउ० ' इति पाठः । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा कदी आहारतिष्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी खेत्तर्भगों । औरालियपरिसादणकदी बोषो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीण छचोदसभागा देसूणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए अट्ठचोदसभागा देसूणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए अट्ठचोदसभागा देसूणा केवलिभंगो वा । खइयसम्मादिट्ठीसु ओरालियसंपादणसंघादणपरिसादणकदी' वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदि-आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीण खत्तभंगो । ओरालियपरिसादणकदी ओघो । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीए अट्ठचौदसभागा देसूणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए अट्ठचोद्दसभागा देसूणा केवलिभंगो वा । वेदगसम्मादिट्ठीणं ओहिभंगो। उवसमसम्मादिहि-सम्मामिच्छादिट्ठीसु ओरालियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीण खेतं । वेउब्विय-तेजा शरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। औदारिकशरिकी संघातन-परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरको संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह भाग क्षेत्र स्पर्श किया गया है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। अथवा इनकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में औदारिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशासनकाति, वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति, आहारकशरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणाके समान है। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम । माठ बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । अथवा इनकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याडष्टि जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातन व संघातन-परि -परिशानतकृति बैकियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृतिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। १ -जापत्योः ओरालिय० संघा० संधादणकदी परि० ', कापतौ · ओरालिय० संघादण. परि० । पति पाठः । Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीहि अट्ठचोहसभागा देसूणा । सासणसम्मादिट्ठीसु ओरालियसंघादकदी खेत्तं । ओरालियदोण्णिपद - वेउब्विय संघादण-परिसादणकंदीहि सत्तचोद्द सभागा देसूणा । वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीहि अट्ठ-बारहचोदसभागा देसूणा । मिच्छाइट्ठीणं असंजदभंगो | असण्णीणं तिरिक्खभंगो । आहारा अचक्खुभगो । अणाहाराण ओरालियपरिसादणकदीए केवलिभंगो | तेजा - कम्मइयद पदाणमोवो | एवं पोसणाणुगमो समत्तो । ३८०] कालानुगमेण दुविहो णिसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसरीर-संपादणकदी केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्ण एगसमओ । ओरालिय- वेउन्त्रियपरिसादणकदी केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण अंतेोमुहुत्तं । ओरालियसंघादण - परिसादणकदी केवचिरं कालादो होदि ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि समऊणाणि । वेउव्वियसंघा वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिवाले जीवों द्वारा कुछ कम आठ बढे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । सासादनसभ्यदृष्टि जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा क्षेत्रप्ररूपणा के समान है । औदारिकशरीर के दो पद तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये 1 वैक्रियिक, तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीवों द्वारा कुछ कम आठ व कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पर्श किये गये हैं । मिध्यादृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है । असंशी जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । आहारक जीवोंकी प्ररूपणा अचक्षुदर्शनी जीवोंके समान है । अनाहारक जीवों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंकी प्ररूपणा केवलियोंके समान है । तैजस और कार्मणशरीर के दोनों पदोंकी प्ररूपणा ओघ के समान है । इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ । कालानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है । उनमें से ओघकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका कितना काल है ? नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से एक समय काल है । औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातन कृतिका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहुर्त काल है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम तीन पल्योपम काल है । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगदौरे करणकदिपरूवणा (३८५ दणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बेसमया । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड्डच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि समऊणाणि । आहारसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सण अंतोमुहुत्तं । संघादण-परिसादणकदी गाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोगुहुत्तं । तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा एगजीवं पडुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो।। आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिमागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दो समय काल है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिक जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस सागरोपम काल है । . आहारकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है। आहारकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। आहारकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी पंरिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । इनकी संघातन-पंरिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित काल है। आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके भसंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है। चैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '५८२) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १.१. 'पहुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि तिसमऊणाणि, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पड्डच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण दसवाससहस्साणि, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि । पढमाए पुढवीए वेउव्वियसंघादणकदी णारगभंगो। एवं सव्वपुढवीसु । वेउब्वियसंघादणं-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण दसवाससहस्साणि तिसमऊणाणि, उक्कस्सेण “सागरोवमं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण णारगभंगो । उक्कस्सेण सागरोवमं । बिदियादि जाव सत्तमि त्ति वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पड्डुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग-तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-बावीससागरोवमाणि दुसमऊणाणि । उक्कस्सेण तिण्णि-सत्त-दस-सत्तारस-बावीस-तेत्तीससागरोवमाणि समऊणाणि । तेजा ............ है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस सागरोपम काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम काल है। प्रथम पृथिवीमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी कालप्ररूपणा सामान्य नारकियोंके समान है। इसी प्रकार सर्व पृथिवियों में समझना चाहिये । वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम दश हजार वर्ष और उत्कर्षसे एक समय कम एक सागरोपम काल है। तैजस और कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य कालकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है। उत्कृष्ट काल एक सागरोपम है। द्वितीय पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः दो समय कम एक सागर, दो समय कम तीन सागर, दो समय कम सात सागर, दो समय कम दस सागर, दो समय कम सत्तरह सागर और दो समय कम बाईस सागर काल है। उत्कर्षसे एक समय कम तीन सागर, एक समय कम सात सागर, एक समय कम दस सागर, एक समय कम सत्तरह सागर, एक समय कम बाईस सागर और एक समय कम तेतीस सागर काल है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातन । प्रतिषु · वेउव्वियसंघादणं संपादण- ' इति पाठः । - Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ ३८३ कम्मइय-संघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एकतिण्णि- सत्त- दस- सत्तारस-बावीससागरोवमाणि समयाहियाणि । उक्कस्सेण तिण्णि-सत्त- दससत्तारस-बावीस - तेत्तीससागरोवमाणि । तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु ओरालियसंघादण संघादणपरिसादणकदी ओरालिय-वेउव्वियपरिसादणकदी ओघो । वेउव्वियसंघादणकदी णारगभंगो । संघादण - परिसा दणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तेजा - कम्मइय संघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जद्दण्णेण खुद्दाभवग्गणं, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्खति गम्मि ओरालिय-वेउव्वियसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । ओरालियपरिसादणकदी वेउव्वियसंघादण - परिसादणकदी तिरिक्खभंगो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी ओघ । तेजा -कम्मइय संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एजजीवं पडुच्च जह कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः एक समय अधिक एक सागर, एक समय अधिक तीन सागर, एक समय अधिक सात सागर, एक समय अधिक दस सागर, एक समय अधिक सत्तरह सागर और एक समय अधिक बाईस सागर काल है । उत्कर्षसे तीन, सात, दश, सत्तरह, बाईस और तेतीस सागरोपमः काल है । तिर्यंचगतिमें तिर्यचों में औदारिकशरीर की संघातनकृति व संघातन-परिशातन कृति तथा औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिकी कालप्ररूपणा ओघके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनपरिशातन कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवको अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल है । तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल है । पंचेन्द्रिय तिर्यच आदिक तीन में औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है । औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और वैकियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । तैजस व कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा F Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४] छक्खंडागमे वेयणाखं [.४, १, ७१. णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुत्तेणव्वहियाणि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तसु ओरालियसंघादणकदी पंचिंदियतिरिक्खभंगो । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीव पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । मणुसगदीए मणुसेसु ओरालियतिण्णिपदा वेउब्वियपरिसादण-संवादणपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वेउब्विय-आहारसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। आहार-तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी आहारसंघादण-परिसादणकदी ओघो। मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु ओरालिय-वेउव्विय-आहारसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जा समया। एगजीव पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । सेसपदाणं मणुसभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी जहण्णेण अंतो - - जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण व अन्तर्मुहूर्त काल है, तथा उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य प्रमाण __ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण काल तथा उत्कर्षसे एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल है। तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । मनुष्यगतिमें मनुष्यों में औदारिकशरीरके तीनों पद, वैक्रियिकशरीरकी परिशातन । संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी कालप्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। वैक्रियिक व आहारकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है। आहारक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति तथा आहारकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। मनुष्य पर्याप्त व मनुष्यनियोंमें औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात समय काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है। शेष पदोंकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है। विशेष इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परि Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [३८५ मुहत्तं । मणुसिणीसु आहारपदं णस्थि । मणुसअपजत्तेसु ओरालियसंघादणकदी पंचिंदियतिरिक्खभंगो। संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊण, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजी पडुश्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । देवगदीए देवा णारगभंगो। भवणवासिय-वाणवेंतर-जोदिसियदेवेसु वेउब्वियसंघा. दणकदीए देवभंगो। संघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दसवाससहस्साणि दसवाससहस्साणि तिसमऊणाणि पलिदोवमट्ठमभागो तिसमऊणो । उक्कस्सेण सागरोवमं पलिदोवमं पलिदोवमं सादिरेयं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परि• सादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सग-सगजहण्णुक्कस्सहिदीओ। सोहम्मीसाणादि जाव सहस्सार त्ति वेउब्वियसंघादणं देवभंगो । वेउब्वियसंघादण अन्तम तनकृतिका जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल है। मनुष्यनियोंमें आहारक पद नहीं होता। मनुष्य अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी कालप्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्योंके समान है। संघातन परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे एक समय कम काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। देवगतिमें देवोंकी कालप्ररूपणा नारकियोंके समान है। भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके कालकी प्ररूपणा देवोंके समान है । संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्रमशः तीन समय कम दस हजार वर्ष, तीन समय कम दस हजार वर्ष और तीन समय कम पल्योपमका आठवां भाग काल है; तथा उत्कर्षसे साधिक एक सागरोपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा अपनी अपनी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण काल है। सौधर्म व ईशान कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तक वैक्रियिकशरीरकी संधातनकृतिको कालप्ररूपणा देवोंके समान है। वैक्रियिकशरीरकीसंघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी छ. क. ४९. Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६) छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवम-बे-सत्तदस-चौदस-सोलससागरोवमाणि सादिरेयाणि । उक्कस्सेणं बे-सत्त-दस-चोद्दस-सोलस-अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सग-सगजहण्णुक्कस्सहिदीओ। आणदादि जाव णवगेवज्जे त्ति वेउब्वियसंघादणकदी मणुसपज्जत्तभंगो । संघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि, वीस-बावीस-तेवीस-चदुवीस-पणुवीस-छब्बीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगुणतीस-तीससांगरोवमाणि बिसमऊणाणि। उक्कस्सेण वीस-बावीस-तेवीस-चदुवीस-पणुवीस-छब्बीस-सत्तावीस-अट्ठावीस-एगुणतीस-तीस-एक्कत्तीससागरोवमाणि समऊणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सग-सगजहण्णुक्कस्सद्विदीओ वत्तव्वाओ। अणुदिसादि जाव अवराइद त्ति वेउव्वियसंघादणकदी मणुसभंगो। संघादण-परि अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यले एक पल्योपम तथा दो, सात, दस, चौदह और सोलह सागरोपमसे कुछ अधिक काल है । उत्कर्षसे दो, सात, दस,चौदह, सोलह और अठारह सागरोपमसे कुछ अधिक काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा अपने अपने कल्पकी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण काल है। आनत कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका काल मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। इसी शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे आनत-प्राणत कल्पमें अठारह सागरोपमसे कुछ अधिक तथा इसके आगे क्रमशः दो समय कम वीस, दो समय कम बाईस, दो समय कम तेईस, दो समय कम चौबीस, दो समय कम पच्चीस, दो समय कम छव्वीस, दो समय कम सत्ताईस, दो समय कम अट्ठाईस, दो समय कम उनतीस और दो समय कम तीस सागरोपम काल है । उत्कर्षसे क्रमशः एक समय कम बीस, एक समम कम र्वाइस, एक समय कम तेईस, एक समय कम चौबीस, एक समय कम पच्चीस, एक समय कम छब्बीस, एक समय कम सत्ताईस, एक समय कम अट्ठाईस, एक समय कम उनतीस, एक समय कम तीस और एक समय कम इकतीस सागरोपम काल है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा उसका काल अपनी अपनी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये । _अनुदिशोंसे लेकर अपराजित विमान तक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकातिके कालकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा सादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीव पडुच्च जहण्णेण एक्कत्तीस-बत्तीससागरोवमाणि बिसमऊणाणि । उक्कस्सेण बत्तीस-तेत्तीससारोवमाणि समऊणाणि । तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सग-संगजहण्णुक्कस्सहिदीओ। सवढे वेउब्वियसंपादणकदी मणुसपज्जत्तमंगो। संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण तेत्तीसं सागरोवमाणि तिसमऊणाणि । उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समऊणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण परिसादणकदी णाणाजीव पड्डुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च सगढिदी । एइंदियाणं तिरिक्खभंगो। णवरि ओरालियसंघादण-परिसादणकदी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवस्ससहस्साणि समऊगाणि । बादरेइंदियाणं एइंदियभंगो। णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेजाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ। एवं बादरेइंदियपज्जत्ताणं । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दो समय कम इकतीस व दो समय कम बत्तीस सागरोपम काल है । उत्कर्षसे एक समय कम बत्तीस और एक समय कम तेतीस सागरोपम काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य व उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। सर्वार्थसिद्धि विमानमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी कालप्ररूपणा मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम तेतीस सागरोपम तथा उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस सागरोपम काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है और एक जीवकी अपेक्षा अपनी स्थिति प्रमाण काल है। एकेन्द्रिय जीवोंमें औदारकादि शरीरोंकी कृतियोंके कालकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है । विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक कम बाईस हजार वर्ष काल है। बादर एकेन्द्रिय जीवोंमें कालकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है। विशेषता केवल इतनी है कि इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र काल है, जो काल असंख्पात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल प्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि तैजस व कार्मण Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] छक्खंडागमे बेयणाखंड [१, १, ७१. परिसादणकदी जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियअपज्जताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । णवरि ओरालियसंघादणकदी ओघो। सुहुमेइंदिएसु भोरालियसंघादणकदी तिरिक्खभंगो । संघादण-परिसादणकदी केवचिरं कालादो होदि ? गाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी गाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। सुहुमेइंदियपज्जत्तेसु ओरालियसंघादणकदीए तिरिक्खभंगो । संघादण-परिसादपकदी पाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीव पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं चदुसमऊग, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । सुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो । णवरि भोरालियसंघादण-परिसादणकदी जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं । बेइंदिय-तेइंदिय-चउरिदियाणं तेसिं पजत्ताणं ओरालियसंघादणकदीए पंचिंदियतिरिक्ख शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका जयन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष काल है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें कालप्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकि समान है। विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके कालकी प्ररूपणा भोघके समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके कालकी प्ररूपणा तिर्यचौके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण तथा उत्कर्षसे एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल है। तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे असंख्यात लोक प्रमाण काल है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यचौके समान है। संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेशा काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तौकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। विशेष इतना है कि औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका जघन्य काल चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्त जीवोंकी औदारिकशरीर सम्बन्धी संघातनकृतिकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। संघातन-परिशातन Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहीरे करणकदिपावणा १३४९ मंगो । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं, उक्कस्सेण बारसवासाणि एगुणवण्णरादिदियाणि छम्मासा समऊणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । तेसिमपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदियदुगोरालियसंघादणकदीए पंचिंदियतिरिक्खभंगो । सेसपदाणमोघो । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सगढ़िदी । पंचिंदियअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पुढवीकाइय-आउकाइएसु ओरालियसंघादणकदीए तिरिक्खभंगो। ओरालियसंपादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण बावीससहस्साणि सत्तवाससहस्साणि समऊणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं, उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण मात्र व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे क्रमशः एक समय कम बारह वर्ष, एक समय कम उमंचास रात्रिदिन और एक समय कम छह मास काल है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण मात्र व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष काल है । उक्त अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। शेष पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण मात्र व अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अपनी स्थिति प्रमाण काल है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें औदारिकशरीर सम्बन्धी संघातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे क्रमशः एक समय कम बाईस हजार और एक समय कम सात हजार वर्ष काल है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नामा जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे भसंख्यात लोक प्रमाण काल है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वैयणाखंड [ १, १, ७१. बादरपुढवीकाइय- बादरआउकाइय- बादरवणफदिपत्तेयसरीरेसु ओरालियसंघादणकदीए बादरइदियभंग | संघादण परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्बद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण बावीस - सत्त - दसवास सहस्त्राणि समऊणाणि । तेजा - कम्मइय संघादण - परिसादणकदीए बादरइंदियपज्जत्तभंगो । 1 1 बादरपुढवीकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय- बादरवाउकाइय- बादरवणप्फदि'काइय-बादरणिगोद-बादरवणफदिपत्तेगसरीरअपज्जत्ताणं बादरइंदियअपज्जत्तभंगो | उकाइयवाउकाइएस ओरालिय संघादण - परिसादणकदीए वेडाव्वयतिष्णिपदाणं तिरिक्खभंगो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीव पडुच्च जहणेण एमसमओ, उक्कस्सेण तिणि रार्दिदियाणि तिण्णि वाससहस्साणि समऊगाणि । तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए हुमेइंदियभंगो । एवं बादरतेउ - वाऊणं । णवरि तेजा -कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुदाभवग्गहणं, उक्कस्सेण कम्मट्ठदी । एवं तेसिं पज्जत्ताणं । णवरि ओरा बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक व बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जी में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय जीवोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक tant अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से एक समय कम बाईस हजार वर्ष, एक समय सात हजार वर्ष और एक समय कम दस हजार वर्ष काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तों के समान है । बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद और बांदर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से क्रमशः एक समय कम तीन रात्रि-दिन व एक समय कम तीन हजार वर्ष काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है 1 इसी प्रकार बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंके कहना चाहिये । विशेष 'इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातन कृतिका एक जीवको अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे कर्मस्थिति प्रमाण काल है । इसी प्रकार उनके पर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परि Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ ३९१ लियसंघादण-परिसाद्णकदीए वेउन्नियतिण्णिपदाणं एइंदियभंगो । ओरालियसंघादण-परि-, सादणकदीए जहण्णुक्कस्सेण तेउ-वाऊणं भंगो | तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरवणफदिकाइयाण बादरवणप्फदिपत्तेगभंगो । णवरि तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए बादरेइंदियभंगो | तस्सेव पज्जत्तेसु ओरालियसंघादणकदीए तिरिक्खभंगो | संघाद- परसादकदीए पत्तेगसरीरपज्जत्तभंगो। एवं तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदी । णिगोदजीवेसु ओरालियो पदाणं सुहुमेईदियभंगो | तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं, उक्कस्सेण अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टा । बादरणिगोदजीवेसु ओरालियदोपदाणं' बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो | तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए बादरपुढविकाइयभंगो । बादरणिगोदपज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्त शातनकृति और वैक्रियिकशरीर के तीनों पदोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके जघन्य व उत्कृष्ट कालकी प्ररूपणा तेज व वायुकायिक जीवोंके समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे संख्यात हजार वर्ष प्रमाण काल है । बादर वनस्पतिकायिक जीवोंकी प्ररूपणा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके समान है । विशेष इतना है कि उनमें तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रियोंके समान है । बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तोंमें औदारिकशरीर सम्बन्धी संघातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा प्रत्येकशरीर पर्याप्तोंके समान है । इसी प्रकार तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके कालकी प्ररूपणा करना चाहिये । निगोद जीवों में औदारिकशरीर के दो पदोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे अढ़ाई पुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल है । बादर निगोद व बादर निगोद अपर्याप्त जीवोंमें औदारिकशरीरके दो पदों की प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है । तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति की प्ररूपणा बादर पृथिवीकायिक जीवोंके समान है । बादर निगोद पर्याप्तों की १ अप्रतौ ' ओरालिय० ण पदाणं', काप्रतौ ' ओरालिय० पदाणं ' इति पाठः । 3 Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. भंगो । णवरि ओरालियसंघादण-परिसादणकदी उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । सव्वसुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो। तसद्गस्स पंचिंदियदुगभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुन्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि, बेसागरोवमसहस्साणि । तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु ओरालिय-वेउवियपरिसादणकदी ओरालिय-वेउब्वियतेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्त । आहारदोपदाणमोघो । कायजोगीसु ओरालियसंवादण-परिसादणकदीए वेउब्वियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं तिरिक्खभंगो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवाससहस्साणि समऊणाणि । वेउव्वियसंघादणकदी ओघो । आहारसंघादणकदी ओपो । सेसदोपदाणं मणजोगिभंगो। तेजा-कम्मइय प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है । विशेष इतना है कि औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका उत्कर्षसे एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल है। सब सूक्ष्म जीवोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। प्रस व प्रस पर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। विशेष इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे क्षुद्रभवग्रहण मात्र व अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कर्षसे क्रमशः पूर्वकोटिपृथक्त्वसे भधिक दो हजार सागरोपम व केवल दो हजार सागरोपम काल है। प्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। पांच मनयोगी और पांच वचनयोगी जीवों में औदारिक, व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा औदारिक, वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । आहारकशरीरके दो पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। काययोगियों में औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृतियोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। इनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जमन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम बाईस हजार वर्ष काल है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। आहारकशरीरकी संघातनकृतिको प्ररूपणा ओघके समान है। इसके शेष दो पदोंकी प्ररूपणा मनयोगियोंके समान है। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१. कदिअणियोगद्दारे करण कदिपरूवणा [ १९१ संघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुरी, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियका यजोगीसु ओरालियसंघादण - परिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बावीसवास सहस्साणि देसूणाणि । वेउव्वियसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पहुंच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । वे उब्विय परिसादण-संघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पहुच जहणेण एगसमओ, उक्करसेण अंतेोमुहुत्तं । आहारपरिसादणकदीए मणजोगिभंगो । ओरालियमिस्सकायजोगीसु ओरालियसंघादणकदी ओघो । ओरालियमेघादण-परिसादकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सम्वद्धा । एगजीवं पहुच्च जहणेण एगसमओ । उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । तेजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण अनन्त काल है । औदारिककाययोगियों में औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम बाईस हजार वर्ष काल है । वैक्रियिकशरीरकी संघातन कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष आला असंख्यातवां भाग काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्ष से एक समय काल है। वैक्रियिकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृतिका नामा जीवों की अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल है । आहारकशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा मनयोगियोंके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओधके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से एक समय कम अन्तमुहूर्त काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । J. 5. 40. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] छक्खंडागमे वेयणाखं [१, १,७१. वेउव्वियकायजोगीसु वेउविय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए मणजोगिभंगो । वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु वेउब्वियसंघादणकदीए देवभंगो । वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुतं । . आहारकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च एगजीवं पडुच्च जाणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारमिस्सकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी आहार-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीणाणाजीवं पडुच्च एगजीवं' पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारसंघादणकदी ओघो। - कम्मइयकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्गेण तिण्णि समया, उक्कस्सेण संखेज्जा समया । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण तिण्णि समया । तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एग वैक्रियिककाययोगियों में वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीर सम्बन्धी संथातनपरिशातनकृतिकी प्ररूपणा मनयोगियोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा देवोंके समान है । वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । आहारककाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा आहारक, तेजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा और एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा आहारक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। आहारकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। कार्मणकाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय और उत्कर्षसे संख्यात समय काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे तीन समय काल है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और १ प्रतिषु · पडुच्च सयद्धा । एगजीवं ' इति पाठः । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणां समओ, उक्कस्सेण तिणि समया । वेदाणुवादेण इस्थिवेदेसु ओरालियतिण्णिपदा वेउब्बियपरिसादणकदी पंचिंदियतिरिक्खभंगो । वेउब्वियसंघादणकदीए ओघो । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पड्डच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पणवण्णपलिदोवमाणि समऊणाणि । तेजाकम्मइय-संघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिसवेदेसु ओरालियसंघादणकदीए इथिवेदभंगो। ओरालियदोण्णिपदा वेउब्वियआहारतिण्णिपदा ओघ । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । णउसयवेदेसु ओरालियसंघादण-परिसादणकदी वेउव्वियतिण्णिपदा ओघ । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उत्कर्षसे तीन समय काल है। वेदमार्गणानुसार स्त्रीवदियों में औदारिकशरीरके तीनों पद तथा वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम पचवन पल्योपम प्रमाण काल है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व काल है। पुरुषवेदियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा स्त्रीवेदियोंके समान है। औदारिकशरीरके शेष दो पद तथा वैक्रियिक व आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल है। नपुंसकवेदियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति और परिशातनकृति तथा शिकारके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। औदारिकशरीरकी संघात परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक १ काप्रती पुरिस० ' इति पाठः । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९] Bista बेयणाखंड [ ४, १, ७१. उक्कस्सेण पुव्वकोडी समऊणा । तेजा कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा 1 एमजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोंग्गलपरियट्टा । अवगतदेसु ओलियपरिसादणकदी णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णेण तिण्णि समया, उक्करण अंतोगुहुत्तं । भोरालिय- तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सन्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण अतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण' पुव्वकोडी देसूणा । परसादणकदी ओघं । चत्तारिकसायाणं ओरालिय- वेउव्विय- आहारसंघादणकदी ओघ । सेसपदाणं मणजोगिमंगो | अकसायाणं अवगदवेदभंगो । एवं केवलणाणि केवलदंसणीणं वत्तन्वं । मदि-सुदअण्णाणीसु ओरालिय- वे उब्वियतिपदा ओघ । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं समय और उत्कर्ष से एक समय कम पूर्वकोटि काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघासन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन काल प्रमाण है । अपगतवेदियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल है । औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त काल व उत्कर्ष से कुछ कम पूर्वकोटि काल है । तैजस च कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । क्रोधादि बार कषाय युक्त जीवों में औदारिक, वैक्रियिक व आहरकशरीरकी संघा'तनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । शेष पदोंकी प्ररूपणा मनयोगियोंके समान है । कपाय रहित जीवों की प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है । इसी प्रकार केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । मतिव मज्ञानियोंमें आदारिक और वैक्रियिकशरीरके तीनों पदकी प्ररूपणा ओघ के समान है । वैजस और कार्मणशरीर की संघातन परिशात नक्कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल १ अ-भागत्योः ' बद्द० उक्क०, कारतो ' जणुक्क' इति पाठः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १,७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा पहुच्च अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो सादिओ सपज्जवसिदो । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो सो जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियह देसूर्ण । विभंगणाणीसु ओरालिय-वेउव्वियपरिसादणकदीए वेउब्वियसंघादणकदीए तिरिक्खमंगो। ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पहुन्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वेउविय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि देसूणाणि । __ आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु ओरालिय-आहारतिण्णिपदाणं मणुसपज्जत्तभंगा। वेउब्धियतिण्णिपदा ओघं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । मणपज्जवणाणीसु ओरालियपरिमादणकदीए वेउब्वियतिग्निपदाण मणुसभंगो। ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पटुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, ................. .......... है। एक जीपकी अपेक्षा अनादि-अपर्यवासित, अनादि-सपर्यवसित और सादि सपर्यवसित काल है। इनमें जो सादि-सपर्यवसित काल है वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्ध पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। विभंगशानियोंमें औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। औदारिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृतिका नाना जीवोकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त काल है । वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृतिका नाना जीवों की अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जधन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम तेतीस सागरोपम काल है । आमिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंमें औदारिक और आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा . ओघके समान है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक च्यासठ सागरोपम प्रमाण काल है । ___ मनःपर्ययज्ञानियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा मनुष्यों के समान है। इनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पहुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा ।। संजदाणं मणपज्जवभंगो । णवरि आहारतिण्णिपदा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी मोघ । एवं सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदाणं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णस्थि । संघादणपरिसादणकदी जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तं चेव । परिहारसुद्धिसंजदेसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सण पुव्वकोडी देसूणा । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु ओरालियतेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । जहाक्खादविहारसुद्धिसंजदाणं केवलणाणिभंगो । णवरि ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीणं जहण्णेण एगसमओ । संजदासंजदेसु ओरालियपरिसादणकदीए ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए मणपज्जवभंगो । वेउव्वियतिण्णिपदाण उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल है। संयस जीवोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियों के समान है। विशेष इतना है कि उनमें भाहारकशरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा भोधके समान है। इसी प्रकार सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि उनमें तैजस व कार्मण शरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । तैजस व कार्मण शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका जघन्यसे एक समय काल है भौर उत्कर्षसे भी वही पूर्वोक्त आलाप जानना चाहिये । - परिहारशुद्धिसंयतोंमें औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल है। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतों में औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपरिशासनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहुर्त काल है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतोंकी प्ररूपणा केवल शानियोंके समान है। विशेष इतना है कि इनमें औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतियोंका काल जघन्यसे एक समय है। संयतासंयत जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा औदारिक, तैजस व कार्मणशरीर सम्बन्धी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा मनःपर्ययशानियों के समान है। इनमें वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। असंयत जीवों में अपने Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१. ] तिरिक्खमंगो | असंजदेसु अप्पप्पणो पदा ओघं । चक्खुदंसणीसु ओरालियसंघादणकदीए पुरिसवेदभंगो । सेसपदा ओघं । नवरि तेजाकम्मइयपरिसा दणकदी णत्थि । संघादण - परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि । अचक्खुदंसणी ओघ । वरि तेजा कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । ओहिदंसणीणं ओहिणाणिभंगो । कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा तिण्णिलेस्साणं ओरालियसंघादणकदी ओघं । ओरालिय- वे उब्वियपरिसादणकदी ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वेउव्वियसंघादणकदी ओघ । संघादण - परिसादणकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीस - सत्तारस- सत्तसागरोवमाणि समऊणाणि । तेजा कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीस सत्तारस-सत्तसागरीवमाणि सादिरेयाणि | ( १९९ अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंमें औदारिकशरीर सम्बन्धी संघातनकृति की प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । शेष पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तेजस व कार्मणशरीर की परिशातनकृति नहीं होती । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से दो हजार सागरोपम काल है । अचदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि उनमें तैजस व कार्मणशरीर की परिशातनकृति नहीं होती । अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है । 1 प्रथम तीन लेश्या युक्त जीवों में औदारिकशरीर सम्बन्धी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओके समान है । औदारिक व वैक्रियिकशरीर सम्बन्धी परिशातनकृति तथा औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा इनका काल जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त मात्र है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघ के समान है । संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से क्रमशः एक समय कम तेतीस, एक समय क्रम सत्तरह और एक समय कम सात सागरोपम काल है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी स काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से क्रमशः कुछ अधिक तेतीस कुछ अधिक सत्तरह व कुछ अधिक सात सागरोपम काल है । . Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०.] छक्खंडागमे वेषणाखंड [१, १, ५१. तेउ-पम्मलेस्सिएसु ओरालिय-आहारसंघादणकदीए ओहिभंगो। ओरालिय-वेउन्वियपरिसादणकदीए ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए किण्णभंगो । वेउब्वियसंघादणकदी ओघ । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बे-अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । आहारपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं मणजोगिभंगो। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बे-अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्कलेस्सिएसु ओरालिय-आहारसंघादणकदीए ओहिभंगो । ओरालिय-वेउव्वियपरिसादणकदी ओघं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । वेउब्वियसंघादणकदी ओघं । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहपणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि समऊणाणि । आहारपरिसादण-संपादण तेज व पद्म लेश्यावालोंमें औदारिक और आहारकशरीर सम्बन्धी संघातनकृतिकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है। औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा औदारिक शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा कृष्णलेश्यावाले जीवोंके मान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यले एक समय और उत्कर्षले क्रमशः कुछ अधिक दो और कुछ अधिक अठारह सागरोपम काल है । आहारकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा मनयोगियोंके समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक दो और कुछ अधिक अठारह सागरोपम प्रमाण है। शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें औदारिक और आहारकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है। औदारिक और वैक्रियिकशरीरको परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । औदारिकशरीरको संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा अघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटि काल है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय कम तेतीस सागरोपम काल है। आहारकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा मनयोगियों के Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.j कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [४०१ परिसादणकदीणं मणजोगिभंगो । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीव पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ___ भवसिद्धियाणं ओघं । अभवसिद्धियाणं असंजदभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी अणादि-अपज्जवसिदा । सम्माइट्ठीणमोहिभंगो। णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी ओपं । एवं खइयसम्माइट्ठीणं । णवरि तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेदगसम्माइट्ठीणं ओहिभंगो। णवरि ओरालियसंघादण-परिसादणकदी तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी छावहिसागरोवमाणि । उवसमसम्माइट्ठीसु ओरालिय-वेउब्बियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदी णाणाजीवं पड्डुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । वेउब्वियसंघादणकदीए विभंगणाणिभंगो । णवरि समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक तेतीस सागरोपम काल है। भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । अभव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा समान है । विशेष इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति अनादि-अपर्यवसित है । सम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी कहना चाहिये। विशेष इतना है कि इनमें तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका कुछ अधिक तेतीस सागरोपम काल है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है । विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका कुछ कम तीन पल्योपम काल है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका छयासठ सागरोपम काल है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातन व संघातनपरिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिकी प्ररूपणा विभंगज्ञानियोंके समान १ प्रतिषु ' तेउ० ' इति पाठः । क. क. ५१. Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. एगजीवस्स उक्कस्सेण बेसमया। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीव पदुग्ध जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सम्मामिच्छाइट्ठीणं । णवरि वेउब्वियसंघादणस्स एगजीवं पहुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। सासणसम्माइट्ठीसु ओरालियसंघादणकदीए पंचिंदियभंगो । ओरालिय-वेउन्धियपरिसादणकदीए उवसमसम्माइट्ठिभंगो । ओरालिय-वेउव्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छावलियाओ। मिच्छाइट्ठीणमसंजदभंगो। सण्णीणं पुरिसवेदभंगो । असण्णीसु ओरालियपरिसादणकदी वेउब्धियतिण्णिपदा तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए तिरिक्खभंगो। आहाराणुवादेण आहारी ओघ । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणं णत्थि । संपादण है। विशेष इतना है कि एक जीवको अपेक्षा उसका उत्कृष्ट काल दो समय है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय काल है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिको प्ररूपणा पंचेन्द्रियोंके समान है। औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके समान है। औदारिक, वैक्रियिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवलि काल है। मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा असंयतोंके समान है। संक्षी जीवोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है। असंही जीवों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति, वैक्रियिकशरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। आहारमार्गणानुसार आहारी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस व कार्मणशरीरकी परिशासनकृति नहीं होती। इन दोनों शरीरोंकी Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदि अणियोगदारे करणकदि परूवणा [ ४०१ परिसादणकदी णाणाजीव पहुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ । अणाहारीसु ओरालियपरिसादणकदीए अवगदवेदभंगो | तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी ओघं । तेजा - कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी केवचिरं कालादो होदि १ णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीव पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया । एवं कालाणुगमा समत्तो । अंतरागमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण ओरालियसरीरसंघादकदी अंतरं केवचिरं कालादो होदि १ णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियपुष्कोडी सादिरेयाणि । ओरालिय- वेउब्वियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं वेव्वियसंघादणपरिसाइणकदीए । णवरि जहण्णेण एगसमओ । ओरालिय संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल है । अनाहारी जीवोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा अपगतवेदियों के समान है । तैजल व कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघ के समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातम परिशातनकृतिका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय काल है । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ । अन्तरानुगमसे ओघ और आदेशकी अपेक्षा दो प्रकारका निर्देश है। उनमें से ओघकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्ष से एक समय अधिक पूर्वकोटिसे संयुक्त तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिक व वैयिकशरीरकी परिशातन कृतिका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता, निरन्तर है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्त काल प्रमाण होता है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उसका अन्तर जघन्य से एक समय है। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छपखंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. संघादण-परिसादणकहीए णाणाजीवं पडुच्च णधि अंतरं । एगजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि तिसमयाहियअंतोमुहुत्ताहियाणि । वेउब्वियसंघादण - कदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतीमुहुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सण अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । आहारतिण्णिपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियटै देसूर्ण । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणेगजीव पडुच्च पत्थि अंतरं णिरंतरं । परिसादणकदीए माणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आदेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु वेउब्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमुहुत्ता। एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेउब्विय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । पढमादि औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय व अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अनन्त काल प्रमाण होता है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। आहारकशरीरके तीनों पदोका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल प्रमाण होता है । तेजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता, वह निरन्तर है। परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। . आदेशकी अपेक्षा गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चौबीस मुहूर्त प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । वैक्रियिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना व एक जीवकी अपेक्षा नहीं होता। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ११.] कदिओणयोगद्दारे तुगकदिपरूवणा जाव सतमि ति पब्वियसंघादणकदीए णाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अब्दालीसरा पक्खो मासो बेमासा चत्तारिमासा छम्मासा बारहमासा। एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । सेसपदाणं णस्थि अंतरं । तिरिक्खेसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुब्ध जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी समयाहिया । ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदीए वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेजपोग्गलपरियट्टा । एवं वेउब्बियसंघादणकदीए । णवरि णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं, तिसमयाहियं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णारगभंगो। पंचिंदियतिरिक्खतिगम्मि ओरालियसंघादणकदीए जाणाजीव पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं, चदुवीसमुहुत्ता । एगजीव पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं प्रथम पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक चैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे क्रमशः अड़तालीस मुहूर्त, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास, छह मास और बारह मास होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । शेष पदोंका अन्तर नहीं होता। तिर्यंचोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुदभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय अधिक पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है । औदारिक व वैक्रियिक शरीरकी परिशातनकृतिका तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अनन्त काल होता है जिसका प्रमाण असंख्यात पदगलपरिवर्तन है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर कहना चाहिये । विशेष इतना है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्पसे अन्तर्मुहूर्त व चौबीस मुहूर्त होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण व तीन समय कम अम्तमार्त Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.१] छक्खंडागमे यणाखंड [.,,.. भंतोमुहुत्तं तिसमऊणं, उक्कस्सेण तिरिक्खभंगो। ओरालिय-वेउब्धियपरिसादणकदीए वेउब्धियसंघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्ण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । एवं वेउन्वियसंघादणकदीए । णवरि णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ। उक्कस्सेण अंतोमुहत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए तिरिक्खभंगो । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णस्थि अंतरं । - पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समयाहियं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्लेण तिण्णि समया। तेजा-कम्मइयसंपादण-परिसादणकदीए तिरिक्खोघं । ___ मणुसतिगस्स पंचिंदियतिरिक्खतिगभंगो । णवरि आहारतिष्णिपदाणं णाणाजीवं है, और उत्कर्षसे उसकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है। औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिसातनकृति तथा क्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीयोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। इसी प्रकार वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा करना चाहिये । विशेष इतना है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा उसका भन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। औदारिक शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका अन्तर नहीं होता। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों में औदारिकशरीरकी संघातमकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहर्त काल प्रमाण होता है। एक जीक्की अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुदभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशासनकृतिका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे दीन समय होता है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघासन-परिशातन्कृतिके अन्तरकी प्ररूपमा सामान्य तिर्यों के समान है। ममुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्वच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्येच योनिमतियोंके समान है। विशेष इतना है कि Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] . कदिअणियोगदारे करणकदिपरूषणा पदुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं, उक्कस्सेण पुवकोडिपुधत्तं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए ओघ । णपरि तेजाकम्मइयपरिसादणकदीए मणुसिणीसु उक्कस्सेण वासपुधत्तं ।। मणुसअपज्जत्ताणं ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीव पडुच्च जहण्णेण खुदाभवम्पहणं तिसमऊण, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समयाहियं । संघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि समया। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पहच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं। देवाणं गारगभंगो। भवणवासियप्पहुडि जाव सव्वट्ठ ति वेउब्वियसंवादणकदीए आहारकशरीरके तीनों पदोका अन्तर नानाजीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर मनुष्यनियोंमें उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। मनुष्य अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर माना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्व काल प्रमाण होता है। औदारिकशरीरकी संघातम-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका अन्तर माना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवे भाग प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। देवोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है । भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विमान तक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा अवन्यसे १ अ-अपलोः 'उक्कसम' लेतत्पदं नास्ति । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] छरखंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. 'पाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण भवणवासिय वाणवेंतर-जोदिसियाणं पादेक्कं अडदालीस मुहुत्ता । सोहम्मीसाणे पक्खो । सणक्कुमार-माहिंदे मासो । बम्हबम्होत्तरलांतवकाविढे बेमासा । सुक्कमहासुक्क-सदारसहस्सारम्मि चत्तारि मासा । आणदपाणद-आरणअच्चुदेसु छम्मासा । णवगेवज्जेसु बारसमासा । अणुदिसादि जाव अवराइद त्ति वासपुधत्तं । सबढे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । सेसपदाणं देवभंगो । एइंदिएसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्करसेण बावीसवाससहस्साणि समयाहियाणि । ओरालिय-वेउवियपरिसादणकदीए वे उव्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पहुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए तिरिक्खभंगो । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च तिरिक्खभंगो । एगजीवं पहुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । एक समय है । उत्कर्षसे भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषियोंमें पृथक् पृथक् अड़. तालीस मुहूर्त, सौधर्म ईशान कल्पमें एक पक्ष, सनत्कुमार-माहेन्द्र कल्पमें एक मास, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर व लांतव-कापिष्ठ कल्पोंमें दो मास, शुक्र-महाशुक्र व शतार-सहस्रार कल्पोंमें चार मास, आनत-प्राणत व आरण-अच्युत कल्पोंमें छह मास, नौ ग्रैवेयकोंमें बारह मास, अनुदिशोंसे लेकर अपराजित विमान तक वर्षपृथक्व और सर्वार्थसिद्धि विमानमें पल्यो. पमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है। शेष पदोंकी प्ररूपणा सामान्य देवोंके समान है। .. . एकेन्द्रियों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष प्रमाण होता है। औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नामा जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा तिर्यंचोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] . कदिक्षणियोगदारे करणकदिपरूवणा [१०९ एवं बादरेइंदियाणं । णवरि ओरालियसंघादणकदीए जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । एवं बादरेइंदियपज्जत्ताणं । णवरि ओरालियसंघादणकदीए जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । एवं सेसपदाणं । णवरि जम्हि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तम्हि संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियअपज्जत्तेसु ओरालियसंधादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । सेसस्स पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। सुहुमेइंदिएसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं दुसमयाहियं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णस्थि अंतरं । एवं पज्जत्तापज्जत्ताणं । णवरि पजत्तएसु ओरालियसंघादणकदीए एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं चदुसमऊणं । बेइंदिय तेइंदिय-चदुरिंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं च ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं ......................... इसी प्रकार बादर एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंके कहना चाहिये। विशेष इतना है कि इनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर जघन्यसे तनि समय कम अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। इसी प्रकार शेष पदोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि जहांपर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कहा गया है वहांपर संख्यात हजार वर्ष कहना चाहिये। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। शेष पदोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे दो समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय होता है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नहीं होता। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त व अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा करना चाहिये । बिशेष इतना है कि पर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उनके पर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी ..क. ५२. Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] - छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १. पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं चदुवीसमुहुत्ता । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं बिसमऊणं, उक्कस्सेण बारसवासाणि एगूणवण्णरादिदियाणि छम्मासा समयाहियाणि । ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदीए पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । बेइंदिय-तेइंदिय-चदुरिंदियअपजत्ताणं तिरिक्खअपज्जत्तभंगो। एवं पंचिंदियअपजत्ताणं । पंचिंदियदुगोरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं चउवीसमुहुत्ता। एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । उक्कस्सेण ओघ । ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पड्डच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणबहियसागरोवमसदपुधत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए ओघ । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पटुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । संघादण संधातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहूर्त व चौबीस मुहूर्त काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे दो समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और दो समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण तथा उत्कर्षसे क्रमशः एक समय अधिक बारह वर्ष, एक समय अधिक उनचास रात्रि-दिवस व एक समय अधिक छह मास होता है। औदारिक, तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त और चतुरिन्द्रिय अपर्याप्तोंके अन्तरकी प्ररूपणा तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय व पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त ब चौबीस मुहूर्त होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण मात्र व तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है । उत्कर्षसे उसकी प्ररूपणा ओघके समान है । औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे एक हजार सागरोपम प्रमाण और पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तेतीस सागरोपम व पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिक शरीरकी संघातन Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणा परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं । एंगजीवं पडुच्च जैहण्गेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुत्तेणव्वहियाणि । आहारतिगस्स णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसहस्सं पुवकोडिपुधत्तेणवहियं सागरोवमसदपुधत्तं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । पुढवीकाइय-आउकाइएसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्महणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण बावीस-सत्तवाससहस्साणि समयाहियाणि । संघादण-परिसादणकदीए सुहुमेइंदियभंगो। तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघ । तेसिं बादराणमोरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण बावीस-सत्तवाससहस्साणि समयाहियाणि । संघादण-परिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए बेइंदियभंगो। एवं तेसिं पजत्ताणं पि । णवरि ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णण एगसमओ, परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जधन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। आहारकशरीरके तीनों पदोंकी अन्तरप्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे एक हजार सागरोपम व पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। प्रथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण तथा उत्कर्षसे एक समय अधिक बाईस हजार व एक समय अधिक सात हजार वर्ष प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियों के समान है। तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओधके समान है। बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय अधिक बाईस हजार ब एक समय अधिक सात हजार वर्ष प्रमाण होता है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा द्वीन्द्रिय जीवोंके समान है । इसी प्रकार उनके पर्याप्तोंकी भी प्ररूपणा करना चाहिये। विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. 1 उक्करण अंतमुत्तं । -एमजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । एवं बादरवणप्फदिपत्तेगाणं । णवरि ओरालियसंघादणकदीए [ एगजीवं पडुच्च उक्कस्सेण ] दसवास सहस्साणि समयाहियाणि । उकाइ वा उकाइउस ओरालियसंघादणकदीए पुढवीभंगो । णवरि उक्कस्सेण तिण्णि रार्दिदियाणि तिष्णि वाससहस्साणि समयाहियाणि । ओरालिय- वेउब्वियपरिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण-संघादणपरिसादणकदीणं एइंदियभंगो । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंत मुहुतं तिसमयाहियं । तेजा - कम्मइय संघादण-परिसादणकदीए णत्थि अंतरं । एवं बादरते उकाइय - बादरवाउकाइयाणं । णवरि ओरालियसंघादणकदीए एगजीवं पहुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । तेसिं पज्जत्ताणमोरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्पेण चदुवीसमुहुत्ता | एंगेजीवं पडुच्च जहण्णेण अतो मुहुत्त तिसमऊणं । उक्कस्सेण बादर और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा वह जघन्यसे तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। इसी प्रकार बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर [एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे] एक समय अधिक दस हजार वर्ष प्रमाण होता है । तेजकायिक और वायुकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा पृथिवीकायिकोंके समान है। विशेष इतना है कि एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्षसे क्रमशः एक समय अधिक तीन रात्रि-दिन व एक समय अधिक तीन हजार वर्ष प्रमाण होता है । औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन य संघातन परिशातनकृति के अन्तरकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से तीन समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नहीं होता । इसी प्रकार बादर तेजकायिक और बादर वायुकायिक जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण काल प्रमाण होता है । उनके पर्याप्तों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय व उत्कर्ष से चौबीस मुहूर्त होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य से तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । उत्कृष्ट अन्तर की प्ररूपणा बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिकोंके 9 १ अ-आप्रत्योः '-मुहुत्ता । तेउवाऊणमंतोमुहुत्तं एग', काप्रतौ ' मुहुत्ता । तेऊणं वाऊणमंतोमुहुचं एगइति पाठः । w Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा ४, १, ७१. ] उकाइय-वाउकाइयभंगो । ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी इंद्रियभंग | ओरालियसंघादण परिसादणकदीए तिरिक्खभंगो । वेउव्वियसंघादणकदीए एइंदियपज्जत्तभंगो | तेजा - कम्मइयसंघादणकदी ओघं । [ ४१३ 1 बादरपुढवीकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय - बादरवा उकाइय- बादरवणप्फदिकाइय- बादरणिगोदजीव- बादरवणफदिपत्तेगसरीरअपज्जत्ताणं बादरइंदियअपज्जत्तभंगो । वणफदिकाइएसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण ख़ुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण दसवाससहस्साणि समयाहियाणि । ओरालियसंघादण - परिसादकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चत्तारि समया । तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । बादरवणफदिकाइयाणं बादरवणप्फदिपत्तेगसरीरभंगो । णिगोदजीवाणं वणप्फदिभंगो । वरि ओरालियसंघादणकदीए उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समयाहियं । एवं बादरणिगोदाणं । समान है । औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिके अन्तरकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिज्ञातनकृतिका अन्तर तिर्यचोंके समान है । वैौक्रेयिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर एकेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातन कृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर तेजकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद जीव अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके समान है । वनस्पतिकायिक जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय अधिक दस हजार वर्ष प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे चार समय प्रमाण होता है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिकी प्ररूपणा ओघके समान है । बादर वनस्पतिकायिकोंकी प्ररूपणा बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर जीवोंके समान है । निगोद जीयोंकी प्ररूपणा वनस्पतिकायिकोंके समान है । विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर उत्कर्षसे एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । इसी प्रकार बादर निगोद जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. णवरि जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । एवं पज्जत्ताणं । णवरि ओरालियसंघादणकदीए जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । सव्वसुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो। तसदोण्णि पंचिंदियदुगभंगो। णवरि ओरालियपरिसादणकदीए वेउब्वियपरिसादणकदीए आहारतिण्णिपदाणमेगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण बेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि बेसागरोवमसहस्साणि देसूणाणि । तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । __ पंचमणजेोगि-पंचवचिजोगीसु ओरालिय-वेउब्वियपरिसादण-संघादणपरिसादणकदीणं तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आहारपरिसादणसंघादणपरिसादणकदीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । कायजोगीसु ओरालिय-वेउव्वियतिण्णिपदाणं एइंदियभंगो । णवरि वेउब्वियसंघादणसंघादणपरिसादणकदीणं जहण्णेण एगसमओ। आहारतिगस्स णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण काल प्रमाण होता है । इसी प्रकार बादर निगोद पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा है । विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर जघन्यसे तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है ? सब सूक्ष्म जीवोंकी प्ररूपणा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है । त्रस और प्रस पर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। विशेष इतना है कि औदारिकशरीरकी परिशातनकृति, वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा आहारकशरीरके तीनों पदोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण तथा उत्कर्षसे क्रमशः पूर्वकोटिपृथत्क्वसे अधिक दो हजार सागरोपम व दो हजार सागरोपमसे कुछ कम है । त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। पांच मनयोगी और पांच वचनयोगी जीवों में औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातन व संघातन-परिशातनकति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन कृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। आहारकशरीरकी परिशातन और संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। काययोगियों में औदारिक और वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रियोंके समान है। विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर जघन्यसे एक समय होता है । आहारकशरीरके तीनों पदों की प्ररूपणा नाना Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [४१५ पडुच्च णत्थि अंतरं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णत्थि अंतरं । - ओरालियकायजोगीसु ओरालियपरिसादणकदीए वेउव्वियतिण्णिपदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सण तिण्णिवाससहस्साणि देसूणाणि । णवरि वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारपरिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । तेजा-कम्मइयएगपदमोघं । ओरालियमिस्सकायजोगीसु ओरालियसंघादणकदी णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं समऊणं । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी ओघ । वेउव्वियकायजोगीसु सगपदाणं णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेउब्वियमिस्स जीवोंकी अपेक्षा ओबके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नहीं होता। ___ औदारिककाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम तीन हजार वर्ष प्रमाण होता है । विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। आहारकशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। तैजस व कार्मणशरीरके एक पद अर्थात् संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर ओघके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे चार समय क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कर्षसे एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षसे एक समय है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिककाययोगियों में अपने पदोंका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. कायजोगीसु सगपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण बारसमुहुत्ता । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । आहारकायजोगि आहार मिस्सकाय जोगीसु सगपदाणं' णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । कम्मइयाजोगी ओरालियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । तेजा-कम्मइयएगपदस्स णत्थि अंतरं । इत्थवेदे ओरालयसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च पंचिदियपज्जत्तभंगो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं, उक्कस्सेण पणवण्णपलिदोवमाणि पुव्वकोडीए समएण च अहियाणि । ओरालिय- वेउब्विय परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंत मुहुत्तं, उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं । ओरालियसंघादण - परिसादणकदीए गाणाजीव पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्करसेण पणवण्णपलिदोवाणि अंतोमुहुत्ते तिसमयाहिएण अव्वहियाणि । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीव पहुच्च होता । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में अपने पदोंका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से बारह मुहूर्त प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । आहारकाययोगी और आहारमिश्रकाययोगियों में अपने अपने पदोंका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । कार्मणकाययोगियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथत्क्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । तैजस व कार्मणशरीर के एक पदका अन्तर नहीं होता । स्त्रीवेदी जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे एक समय और पूर्वकोटिसे अधिक पचवन पल्य प्रमाण होता है। औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवों की अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण और उत्कर्ष से पल्योपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से तीन समय और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पचवन पल्य प्रमाण होता वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा अघन्य से एक समय और 1 १ मप्रतिपाठोऽयम्, प्रतिष्वत्र ' अप्पप्पणी पदाणं ' इति पाठः । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [ ११० जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोगुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अट्ठावण्णपलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेणव्वहियाणि । तेजा-कम्मइयएगपदमोघं। - पुरिसवेदाणमोरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च इत्थिवेदभंगो । एगजीवं पडुच्च ओघ । णवरि जहण्णेण अंतोमुहुत्तं तिसमऊणं । ओरालिय वेउब्वियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्त, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए ओघ । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पड्डुच्च ओघं । एगजीवं पड्डुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियपुव्वकोडीए अहियाणि । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण उक्कस्सेण इथिवेदभंगो । आहारतिण्णिपदा ओघ । णवरि एगजीवं उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक अट्ठावन पल्योपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिक. शरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नांना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरके एक पदकी प्ररूपणा ओघके समान है। पुरुषवेदियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा स्त्रीवेदियोंके समान है। एक जीवकी अपेक्षा ओघके समान है। विशेष इतना है कि जघन्य अन्तर तीन समय कम अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा वह जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर ओघके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय व पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे व उत्कर्षसे स्त्रीवेदियोंके समान है। आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे १ प्रतिषु ' पढमोघं ' इति पाठः। छ. क. ५३. Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. पच्च जद्दण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण सागरोवमसदपुधत्तं । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादण की थि अंतरं । वेदामपणा पदा ओघं । अवगदवेदेसु ओरालियपरिसाद णकदीए णाणाजीवं पहुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्सेण अंतामुहुतं । संघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्से तिणिसमया । तेजा - कम्मइयदोपदा ओघं । कोधादिचदुक्कस्स ओरालियसंघादणकदीए ओरालिय- वेउब्विय परिसादणकदीए तेजाकम्यसंघादणपरिसा दणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालियसंघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एयजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अतोमुहुतं । उव्वियसंघादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोसुहुतं । संघादण परिसा दणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्से अंतोमुहुत्तं । आहारतिष्णिपदाणं मणजोगिभंगो | अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे सागरोपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीर की संघातन परिशातनकृतिका अन्तर नहीं होता । नपुंसकवेदियों में अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । अपगतवेदियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्य व उत्कर्षले अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्थ व उत्कर्षसे तीन समय प्रमाण होता हैं । तैजस और कार्मणशरीर के दो पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । क्रोधादि चार कषाय युक्त जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति, औदारिक व वैकिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृतिके अन्तर की प्ररूपणा माना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । आहारकशरीर के तीनों पदोंकी अन्तरप्ररूपणा मनयोगियोंके समान है । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, १.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपावणा । १२९ अकसाईणमवगदवेदभंगो । मंदि-सुदअण्णाणीसु सगपदा ओघ । विभंगणाणीसु सनपदाणं णत्थि अंतरं । णवरि वेउब्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयो, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीव पड्डुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण मासपुधत्तं । ओहिणाणीसु वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमं सादिरेयं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि समयाहियपुवकोडीए सादिरेयाणि । ओरालिय-वेउव्वियपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावद्विसागरोवमाणि सादिरेयाणि । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि तिसमयाहियअंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । वेउब्वियसंघादणकदीए णमणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियपुव्वकोडीए सादिरेयाणि । संघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुग्च ओघं । भकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। मत्यज्ञानी व अताशानियों में अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विभंगशानियों में अपने पदमा अन्तर नहीं होता । विशेष इतना है कि वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे प्रारम्भके दो शानों में मासपृथक्त्व काल प्रमाण तथा अवधिज्ञानियों में वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे कुछ अधिक एक पल्योपम तथा उत्कर्षसे एक समय और पूर्वकोरिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाणं होता है। औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा घन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक छयासठ सागरोपम काल प्रमाण होता है। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय व अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तस्की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय व पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। क्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा १ मतिषु 'सगपदा' इति पाठः। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] छक्खंडागमे बेयणाखंड [ ४, १, ७१. एगजीव पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागेण देसुणेण सादिरेयाणि । आहारतिगं णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेजा कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणेगजीव पडुच्च जहण्णेण उक्कस्सेण णत्थि अंतरं । मणपज्जवणाणीसु ओरालिय- वे उव्वियपरिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीव पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पटुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा | ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अंत। मुहुत्तं । वेउब्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहणणेण एगसमओ, उक्करसेण अंत।मुहुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । केवलणाणीणमवगदवेदभंगो | एवं जहाक्खादसंजदाणं पि वत्तव्वं । संजदाणं मणपज्जवभंगो | णवरि ओरालिय ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम एक पूर्वकोटिके तृतीय भागसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है । आहारकशरीर के तीनों पदों की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक छयासठ सागरोपम काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर नहीं होता । मन:पर्ययज्ञानियों में औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातन कृतिका तथा वैकिविकशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम एक पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ कम एक पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशांत कृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । केवलज्ञानियोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियों के समान है । 1 इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये । संयत जीवोंकी प्ररूपणा मन:पर्ययज्ञानियोंके समान है। विशेष इतना है कि औदारिकशरीरकी संघातन परिशातन १ प्रतिषु ' जद्दाक्खादिसंघादाणं पिवत्तन्वं । संघादाणं ' इति पाठः । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूषणा (४२१ संघादण-परिसादणकदीए एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण पुवकोडी देसूणा । [ आहारतिण्णिपदाणं ओघ । णवरि एगजीवं पडुच्च उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणा । ] तेजा-कम्मइयदोण्णिपदा ओघ ।। सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदाण मणपज्जवभंगो। णवरि आहारतिगस्स संजदमंगो । परिहारसुद्धिसंजदेसु सव्वपदाणं णत्थि अंतरं । सुहुमसांपराइयाणं सगपदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । संजदासजदाणं मणपज्जवभंगो । असंजदाणमोरालिय-वेउब्वियतिण्णिपदाणं तेजा-कम्मइयएगपदमोघं । चक्खुदंसणीण तसपजत्तभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णस्थि । अचक्खुदंसणीसु ओघं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो । केवलदसणी केवलणाणिभंगो। किण्ण-णील-काउलेस्सिएसु ओरालियसंघादणकदीए ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीव पहुच्च कृतिका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है । [ आहारकशरीरके तीनों पदोंका अन्तर ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है।] तैजस और कार्मणशरीरके दोनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है । विशेष इतना है कि आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा संयतोंके समान है। ___ परिहारशुद्धिसंयतोंमें सब पदोंका अन्तर नहीं होता। सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें अपने पदोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह मास प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर नहीं होता। संयतासंयतोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। असंयत जीवों में औदारिक और वैक्रियिकशरीरके तीनों पद तथा तैजस व कार्मणशरीरके एक पदकी प्ररूपणा ओघके समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा त्रस पर्याप्तोंके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है। केवलदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा केवलज्ञानियोंके समान है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका तथा औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DRR] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ७१. श्रीधं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीस - सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि अंतोमुहुत्तं-तिसमयाहियाणि । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । संघादण - परिसारणकंदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं तिसमयाहियं । तेउ-पम्मलेस्सासु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कण मासपुत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालिय- वेउब्विय परिसादणकदी ए तेजा-कम्मइयसंघादण - परिसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालियसंघादण - परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण दिवडपलिदोवमं सादिरेयबेसागरोवमाणि, उक्कस्सेण बे-अट्ठारससागरोवमाणि सादिरेयाणि अद्धसागरोवमेण तिसमयाहियअंतोमुहुत्तेण च । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । संघादण परिसादिणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जीवों की अपेक्षा ओघ के समान है । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय व अन्तर्मुहूर्त से अधिक क्रमशः तेतीस, सत्तरह और सात सागरो म काल प्रमाण है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना व एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण है । तेज व पद्म लेश्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे मासपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर नहीं होता। औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिका नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवों की अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे क्रमशः डेढ़ पल्योपम व कुछ अधिक दो सागरोपम तथा उत्कर्ष से अर्ध सागरोपम व तीन समय सहित अन्तर्मुहूर्तसे अधिक दो और अठारह सागरोपम काल प्रमाण होता है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना व एक जीव की अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे १. प्रतिषु ' अंतोमुडुतं ' इति पाठः । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूषणा जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । आहारतिगस्स गाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं ।। सुक्कलेस्सिएसु ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण तिण्णि समया, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि तिसमयाहियअंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालिय-वेउब्धियपरिसादणकदीए तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए तेउभंगो । वेउब्वियसंघादण-संघादणपरिसादणकदीए काउलेस्सियभंगो । आहारतिण्णिपदाणं मणजोगिभंगो । भवसिद्धिएसु ओघं । अभवसिद्धिएसु सगपदा ओघं । सम्मादिट्ठीणमाभिणिबोहियभंगो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी ओघं । खइयसम्मादिट्ठीसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । आहारकशरीरके तीनों पदोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। शुक्ललेश्यावाले जीवों में औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे तीन समय और उत्कर्षसे तीन समय और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर नहीं होता। औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा तेजलेश्यावाले जीवोंके समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातन कृतिके अन्तरकी प्ररूपणा कापोतलेश्यावाले जीवोंके समान है । आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा मनयोगियों के समान है। भब्यसिद्धिक जीवोंमें अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। अभव्यसिद्धिक जीवों में अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। सम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। विशेष इतना है कि तैजस व कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे वर्षपृथक्त्व काल प्रमाण होता है। एक जीषकी Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ j छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. वासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमं सादिरेयं, उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुत्तं । ओरालिय- वे उव्वियपरिसादणकदीए आहारतिगस्स णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । ओरालियसंघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहणेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तूणपुव्वकोडीए सादिरेयाणि । [ वेउव्विय- ] संघादण-परसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागेण सादिरेयाणि । तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदी ओघं । वेद सम्मादिट्ठीसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ । उक्कस्सेण मासपुधत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमं सादिरेयं', उक्कस्सेण ओघं । दोणं परसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतेोमुहुत्तं । उक्कस्सेण अपेक्षा उसका अन्तर जघन्य से कुछ अधिक पल्योपम और उत्कर्षसे पल्योपमशतपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा आहारकशरीर के तीनों पदोंके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि से अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । [ वैक्रियिकशरीर की ] संघातन-परिशातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटि के तृतीय भागसे अधिक तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है । तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृतिके अन्तर की प्ररूपणा ओघ के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से मासपृथक्त्व काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे कुछ अधिक पल्योपम काल प्रमाण होता है । उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा ओघके समान है । दोनों शरीरोंकी परिशातनकृतिके अन्तर की प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त १ प्रतिषु ' पलिदो० सादिरेयाणि ' इति पाठः । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [ १२५ छावट्ठिसागरोवमाणि देसूणाणि । एवं आहारतिगस्स वि । णवरि णाणाजीवं पडुच्च ओघ । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं। [एगजीवं पडुच्च] जहण्णेण एगसमओ,उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि तिसमयाहियअंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । वेउव्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्करसेण तेत्तीससागरोवमाणि समयाहियपुवकोडीए सादिरेयाणि । संघादण-परिसादणकदी णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणेगजीवं पडुच्च पत्थि अंतरं ।। उवसमसम्मादिट्ठीसु ओरालिय-वेउव्वियपरिसादणकदीए ओरालिय-तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ', उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । वेउब्वियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सत्त रादिदियाणि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण और उत्कर्षसे कुछ कम छयासठ सागरोपम काल प्रमाण होता है। इसी प्रकार आहारकशरीरके तीनों पदोंके भी अन्तरको कहना चाहिये । विशेष इतना है कि नाना जीवोंकी अपेक्षा उनका अन्तर ओघके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। [एक जीवको अपेक्षा] अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे तीन समय व अन्तर्मुहूर्तसे अधिकतेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे एक समय व पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिक अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे कुछ कम तीन पल्योपम काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। उपशमसम्यग्हाष्टियों में औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति तथा औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सात रात्रि-दिन प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे सात रात्रि-दिन प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है। १ अप्रतौ ' समओ एगो' इति पाठः । ७.क. ५४. Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. अंतमुतं । संघादण परिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण सत्त रार्दिदियाणि । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । अधवा, उक्कस्सेण एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । सम्मामिच्छादिट्ठी अप्पप्पणो पदाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्पेन पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । सास सम्मादिट्ठीसु ओरालियसंघादणकदीए दोण्हं परिसादणकदीए तेजा - कम्मइयसंघादण - परसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । ओरालियसंघादण-परिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण-संघादणपरिसादणकदीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तोमुहुत्तं । मिच्छादिट्ठीसु ओरालिय- वेउब्वियतिष्णिपदा तेजा - कम्मइयएगपदे। च ओघ । वैशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से सात रात्रि-दिन प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा उसका अन्तर जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । अथवा, एक जीवकी अपेक्षा उत्कर्ष से अन्तर नहीं होता । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में अपने अपने पदोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । सासादनसम्यग्दृष्टियों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति, दोनों अर्थात् औदारिक व वैक्रियिकशरीरोंकी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। औदारिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल प्रमाण होता है । एक जीवकी अपेक्षा उनका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण होता है । मिथ्यादृष्टियों में औदारिक और वैक्रियिकशरीरके तीनों पदों तथा तैजस व कार्मणशरीर के एक पदके अन्तरकी प्ररूपणा ओधके समान है । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०, १, ७१. ] कदिअणियोगक्षरे करणकदिपवणा [ ४२७ सणीसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण चउवीसमुहुत्ता । एगजीवं पहुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहण तिसमजणं, उक्कस्सेण तेत्तीस सागरोवमाणि समयाहियपुव्वकोडीए सादिरेयाणि । ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदीए पुरिसवेदभंगो । ओरालियसंघादण - परिसादणकदीए पुरिसवेदभंगा । वेउव्वयसंघादणकदीए तसकाइयभंगो | वेउब्वियसंघादणपरिसादणकदीए पुरिसवेदभंगो । आहारतिष्णिपदाणं पुरिसवेदभंग । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं । असण्णीसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहणेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण पुव्वकोडी चदुसमयाहिया । ओरालियवेउव्वियपरिसादणकदीए वेउव्वियसंघादण - संघादणपरिसादणकदीणं तिरिक्खभंगो । ओरालियसंघादण - परिसादणकदीए पंचिंदियतिरिक्खभंगो | तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी ओघं | आहाररसु ओरालियसंघादणकदीए णाणाजीव पडुच्च ओघं । एगजीवं पडुच्च नह संज्ञी जीवोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्ष से चौबीस मुहूर्त प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्षसे एक समय व पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति के अन्तर की प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति अन्तरकी प्ररूपणा त्रसकायिकोंके समान है । वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातन कृतिके अन्तरकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । आहारकशरीरके तीनों पदों की प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति की प्ररूपणा ओघके समान है । असंशी जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कर्ष से चार समय अधिक एक पूर्वकोटि काल प्रमाण होता है । औदारिक और वैकि· यिकशरीरकी परिशातनकृतिका तथा वैक्रियिकशरीरकी संघातन व संघातन-परिशातनकृति अन्तरकी प्ररूपणा तिर्येचोंके समान है । औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके समान है। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति की प्ररूपणा ओघके समान है । आहारकों में औदारिकशरीरकी संघातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे चार समय कम क्षुद्रभव Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ छक्खंडाग: वेयणाखंड [१, १,७१. प्रणेण खुद्दाभवग्गहणं चदुसमऊणं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि समऊणपुवकोडीए सादिरेयाणि । ओरालियपरिसादणकदी वेउवियतिण्णिपदा ओघ । णवरि जम्हि अणंतो कालो तम्हि अंगुलस्स असंखेजदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ। ओरालियसंघादणपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च ओघ । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । आहारतिगमोघं । णवरि उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणी-उस्सप्पिणीओ । तेजा-कम्मइयएगपदमोघं । अणाहारएसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयपरिसादणकदीए णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण छम्मासा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण उक्कस्सेण णस्थि अंतरं । तेजाकम्मइयसंघादण-परिसादणकदीए गाणेगजीवं णत्थि अंतरं । एवमंतराणुगमो समत्तो। भावाणुगमेण सव्वपदाणं सव्वमग्गणासु ओदइओ भावो । कुदो ? सरीरणामकम्मोदएण सव्वपदसमुप्पत्तीदो । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी खइया । कुदो ? अजोगिम्हि सरीरणामोदयक्खएण तेसिं परिसदणुवलंभादो । एवं भावाणुगमो समत्तो । ग्रहण और उत्कर्षसे एक समय कम पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । औदारिकशरीरकी परिशातनकृति और बैंक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि जहांपर अनन्त काल कहा है वहांपर अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण काल कहना चाहिये । भौदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृतिके अन्तरकी प्ररूपणा नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तमुहूर्तसे अधिक तेतीस सागरोपम काल प्रमाण होता है । आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि उनका अन्तर उत्कर्षसे अंगुलके असं. ख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल प्रमाण होता है। तैजस व कार्मणशरीरके एक पदकी प्ररूपणा ओघके समान है। अनाहारकोंमें औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृतिका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उकर्षसे छह मास प्रमाण होता है। एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्य व उत्कर्षले नहीं होता। तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन कृतिका नाना व एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता। इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा सब पदोंके सब मार्गणाओंमें औदयिक भाव होता है, ज्योकि सब पद शरीरनामकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं। विशेष इतना है कि तेजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति क्षायिक है, क्योंकि, अयोगकेवली जिनमें शरीरनामकमेके उदयश्रयसे उन दोनों शरीरोकी क्षीणता पायी जाती है। इस प्रकार भावानगम समाप्त हुआ। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.1 कदिअणियोगद्दारे करणकदिपवणा [ १२९ अप्पाबहुआणुगमो सत्थाण-परत्थाणप्पाबहुगभेदेण दुविहो । तत्थ सत्थाणप्पाबहुगाणुगमेण दुविह। णिद्देसा ओघेणादेसेण य । तत्थोघेण सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी । कुदो ? असंखेज्जसेडिमेत्तादो। संघादणकदी अणंतगुणा, सव्वजीवरासीए असंखेज्जदिभागत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, सव्वजीवरासीए असंखेज्जाभागत्तादो' । . सव्वत्थोवा वेउव्वियपरिसादणकदी, असंखेज्जघणंगुलमेत्तसेडिपरिमाणादो । संघादणकदी असंखेज्जगुणा, सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसेडिपमाणत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, सगुवक्कमणकालसंचिदासेसरासिग्गहणादो। सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी, एगसमयसंचिदत्तादो । परिसादणकदी संखेज्जगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया मूलसरीरमपविस्सिय कालं करेमाणजीवमेत्तेण । सब्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी, संखेज्जअजोगिजीवग्गहणादो । संघादण अल्पबहुत्वानुगम स्वस्थान और परस्थान अल्पबहुत्वके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से स्वस्थान अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । इनमें से ओघकी अपेक्षा औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे असंख्यात जगश्रेणी मात्र है । इनसे उक्त शरीरकी संघातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि, वे सब जीवराशिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । उनसे उक्त शरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे सब जीवराशिके असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। . वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे असंख्यात धनांगुल मात्र जगश्रेणियों के बराबर हैं। इनसे उक्त शरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे जगश्रेणीके असंख्यातवें भाग मात्र जगश्रेणियोंके बराबर हैं । इनसे उक्त शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, इनमें अपने उपक्रमणकालमें संचित समस्त राशिका ग्रहण है। __ आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे एक समयमें संचित हैं । इनसे उक्त शरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तमें संचित हैं। इनसे उक्त शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव मूलशरीरमें प्रवेश न कर मृत्युको प्राप्त होनेवाले जीवों मात्रसे विशेष अधिक हैं। तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, इनमें केवल संख्यात अयोगिकेवली जीवोंका ग्रहण है। इनसे उक्त दोनों शरीरोंकी संघातन १ प्रतिषु ' असंखेज्जभागत्तादो' इति पाठः । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० छक्खंडागमे वैयणाखंड [१, १, .. परिसादणकदी अणतगुणा, अणतरासिग्गहणादो । आदेसण णिरयगदीए गैरइएसु सव्वत्योवा वेउव्वियसंघादणकदी, गैरइयदव्वं सगुवक्कमणकालेणोवट्टिदेगखंडपमाणत्तादो। संपादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, णेरइयाणमसंखेज्जाभागपमाणत्तादो । तेजा-कम्मइयकदीए अप्पाबहुगं णस्थि, एगपदत्तादो । एवं सवगेरइय-सव्वदेवाणं च वत्तव्वं । णवरि सवढे सव्वत्थोवा वे उब्वियसंपादणकदी, संखेजजीवाणं चेव तत्थुवक्कम्मणुवलंभादो । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा, संखेज्जरासित्तादो । तिरिक्खेसु ओरालियतिण्णिपदा ओघ, समाणकालत्तादो। सव्वत्थोवा वेउन्चियसंघादणकदी, सगोधरासिमावलियाए असंखेज्जदिमागेण सगुवक्कमणकालेण खंडिदेगखंडपमाणत्तादो । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया मूलसरीरमपविस्सिय कयकालजीवेहि । तेजा-कम्मइयकदीए' णत्थि अप्पाबहुगं, एगपदत्तादो। परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि, इनमें अनन्त राशिका ग्रहण है। आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे नारक द्रव्यको अपने उपक्रमणकालसे अपवर्तित करने पर प्राप्त हुए एक खण्डके बराबर हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव मसंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे नारकियोंके असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। तैजस व कार्मणशरीरकी अपेक्षा अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनका यहां संघातनपरिशातनकृति रूप एक ही पद है। इसी प्रकार सब नारकी और सब देवों के भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धि विमानमें सबसे स्तोक वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव हैं, क्योंकि, यहां संख्यात जीवोंकी ही उत्पत्ति पायी जाती है। उनसे उक्त शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे संख्यात राशि स्वरूप हैं। तिर्यंचोंमें औदारिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है, क्योंकि, उनका काल समान है। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे अपनी ओघराशिको आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र अपने उपक्रमणकालसे त करनेपर प्राप्त हुए एक भाग प्रमाण है। इनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तमें संचित हुए हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है, क्योंकि, मूल शरीरमें प्रवेश न कर मरणको प्राप्त हुए जीवोंकी अपेक्षा यह संख्या विशेष अधिक ही प्राप्त होती है। तैजस और कार्मणशरीरके आश्रित अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, यहां उनका संघातन-परिशातनकृति रूप एक ही पद है। १ प्रतिषु · तेजा-कम्मइय० ' इति पाठः। Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणा [ ४३१ पंचिंदियतिरिक्खतिगम्मि सव्वत्योवा ओरालियपरिसादणकदी, असंखेज्जघणंगुलमेत्तसेडिपमाणत्तादो । संघादणकदी असंखेज्जगुणा, सग-सगुवक्कमणकालोवट्टिदसग-सगोधरासिग्गहणादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, सगरासिस्स असंखेज्जाणं भागाणं गहणादो । वेउब्वियतिगं तिरिक्खोघ, तत्थ पंचिंदियरासिस्स पाधणियादो। • पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु सव्वत्थोवा ओरालियसंघादणकदी । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । कारणं सुगमं । मणुस्सेसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी, संखेज्जत्तादो । संघादणकदी असंखेजगुणा, अपजत्तेसु उप्पज्जमाणासंखेज्जजीवग्गहणादो। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, सयलमणुस्सजीवग्गहणादो। सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघादणकदी, संखेज्जत्तादो । परिसादणकदी संखेज्जगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदत्तादो । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया मूलसरीरमपविस्सिय मदजीवेहि । सव्वत्थोवा आहारयसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण .................. पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदिक तीनमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे असंख्यात धनांगुल मात्र जगणियोंके बराबर हैं । इनसे उसकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, अपने अपने उपक्रमणकालसे अपवर्तित अपनी अपनी ओघराशिका यहां ग्रहण है। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, यहां अपनी राशिके असंख्यात बहुभागोंका ग्रहण है। वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यंच ओघके समान है। क्योंकि, उनमें पंचेन्द्रिय राशिकी प्रधानता है। ___पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । इसका कारण सुगम है। ___ मनुष्यों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे संख्यात हैं । इनसे उसकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, अपर्याप्तों में उत्पन्न होनेवाले असंख्यात जीवोंका यहां ग्रहण है । इनसे उसकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, इनमें समस्त मनुष्योंका ग्रहण है। ___ वैक्रियिकशरीरकी संघातनकति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे संख्यात हैं। इनसे उसकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्तमें संचित हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव मूल शरीरमें प्रवेश न कर मृत्युप्राप्त जीवोंसे विशेष अधिक हैं। आहारकशरीरकी संघातनकति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उनकी परि शासन कृति युक्त जीय संख्यातगुणे हैं । इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] . छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. परिसादणकदी विसेसाहिया । कारणं सुगमं । सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी, संखेज्जत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, अपज्जत्तजीवाणं पाधणियादो। मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी, विउव्वमाणजीवाण बहुआणमसंभवाद।। संघादणकदी संखेज्जगुणा, मणुसपज्जत्तएसु उप्पज्जमाणजीवाणं बहुत्तुवलंभादो । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । सुगमं । वेउव्विय-आहारतिण्णिपदाणं मणुसभंगो। सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । सुगमं । मणुसणीसु आहारतिग णत्थि, अच्चंताभावादो । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एइंदिय-बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं च तिरिक्खभंगो। बादरेइंदियअपज्जत्त-सव्वसुहुमेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-सव्वपुढवीकाइय-सव्वआउकाइय-बादरतेउ विशेष अधिक है। कारण इसका सुगम है। तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे संख्यात हैं । इनसे संघातन परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, इनमें अपर्याप्त जीवोंकी प्रधानता है। मनुष्य पर्याप्तों और मनुष्यनियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, इनमें विक्रिया करनेवाले बहुत जीवोंकी सम्भावना नहीं है । इनसे उसकी संधातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं, क्योंकि, मनुष्य पर्याप्तोमें उत्पन्न होनेवाले जीव बहुत पाये हैं। इनसे उसकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। [ कारण ] सुगम है। __वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीन पदोंकी प्ररूपणा सामान्य मनुष्योंके समान है। तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुण हैं । कारण सुगम है । मनुष्यनियोंमें आहारकशरीरके तीनों पद नहीं होते, क्योंकि, इनमें उनका अत्यन्ताभाव है। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है । एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय,सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक अपर्याप्त, सब सूक्ष्म तेजकायिक, Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [१३१ काइयअपज्जत्त-सव्वसुहुमतेउकाइय-वाउकाइय-सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोद-सव्ववादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। ___पंचिंदियद्गम्मि सव्वत्थोवा ओरालिय-वेउन्वियपरिसादणकदी, तिरिक्खेसु विउव्वमाणाणं मूलसरीरं पविस्समाणाणं च गहणादो । संघादणकदी असंखेज्जगुणा, तिरिक्खदेवेसुप्पज्जमाणजीवग्गहणादो। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । सुगमं । आहारतिगमोघं । तेजा-कम्मइयदोपदाणं मणुसभंगो । तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयाणं तेसिं पज्जत्ताणं च पंचिंदियतिरिक्खभंगो । तसदुगस्स पंचिंदियदुगभंगो।। पंचमणजोगि-पंचवचिजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालिय-वेउब्वियपरिसादणकदी। संघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा, देवाणं संखेज्जभागत्तादो । सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । सुगमं । कायजोगीसु ओरालिय-वेउब्विय-आहारतिण्णिपदा ओघं । ओरालियकायजोगीसु ................... वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, सब बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और उस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंमें औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, तिर्यंचों में विक्रिया करनेवालों और मूल शरीरमें प्रवेश करनेवालोंका ग्रहण है। इनसे उक्त दोनों शरीरोकी संघातनकृति यक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, यहां तिर्यंचों व देवोंमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंका प्रहण है। इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। कारण सुगम है। आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। तैजस और कार्मणशरीरके दो पदोकी प्ररूपणा मनुष्योंके समान है। तेजकायिक, वायुकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक तथा उनके पर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। त्रस और उस पर्याप्तोंकी प्ररूपणा क्रमशः पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। पांच मनयोगी और पांच वचनयोगियोंमें औदारिक और वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे देवोंके संख्यातवें भाग हैं । आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । कारण सुगम है। काययोगियोंमें औदारिक, वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । औदारिककाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 919] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ७१. सम्वस्थोवा ओरालिय परिसादणकदी | संघादण परिसादणकदी अनंतगुणा । वेउब्वियतिण्णिपदाणं तिरिक्खमंगो | आहारम्मि णत्थि अप्पा बहुगमेगपदत्तादो । ओरालियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालिय संघादणकदी, अपज्जत्तएसु एगसमयसंचिदत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जनुणा, संघादणजीववदिरित्तअसे सापज्जत्तजीव गहणादो' । वेव्विय - आहार कायजोगीसु णत्थि अप्पाचहुगं, एगपदत्तादो । वेउव्वियमिस्सकायजोगीसु सव्वत्थोवा वेउव्वियसंघादणकदी । [ संघादण- ] परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । सुगमं । आारमिस्स कायजोगीसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी | संघादण - परिसादणकदी संखेज्जगुणा । सेसपदाणं णत्थि अप्पा बहुगं, एगत्तादो । कम्मइयकायजोगीसु णत्थि अप्पा बहुगं, एगपदत्तादो इत्थेि - पुरिसवेदाणं अप्पप्पणी पदाणं तसभंगो । णउंसयवेदेसु सगपदा तिरिक्खोघं । भवगदवेदेषु सव्वत्थोवा ओरालिय- तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी | संघादण-परिसादणकदी सबसे स्तोक हैं । इनसे उसकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं । वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है । आहारकशरीर के आश्रित अल्पबहुत्व नहीं हैं, क्योंकि, उसका यहां एक ही पद है । औदारिक मिश्रकाययोगियों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, वे अपर्याप्तों में एक समय मात्रमें संचित हैं । इनसे उसकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, इनमें संघातनकृति युक्त जीवोंको छोड़कर शेष समस्त अपर्याप्त जीवोंका ग्रहण है । वैक्रियिक और आहारक काययोगियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, वे एक एक पद से सहित हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। यह सुगम है । आहारकमिश्र काययोगियोंमें आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। शेष पदोंके अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, वे एक एक पद हैं। कार्मणकाययोगियों में अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनमें एक ही पद है । त्रवेदी और पुरुषवेदी जीवोंमें अपने अपने पदोंकी प्ररूपणा त्रस जीवोंके समान है । नपुंसकवेदियोंमें अपने पदोंकी प्ररूपणा तिर्यच ओघ के समान है । अपगतवेदियों में औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे १ प्रतिषु ' गहणा ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' णत्थि ' इति पाठः । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.) कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा संखेज्जगुणा । सुगमं । ___ कोधादिचदुक्कम्मि सगपदा ओघं । अकसाईणमवगदवेदभंगो । एवं केवलणाणिकेवलदंसणि-जहाक्खादसंजदाणं । मदि-सुदअण्णाणीसु सगपदा ओघं । एवमसंजद-अभवसिद्धि-मिच्छाइटि-असण्णीणं च वत्तव्वं । विभंगणाणीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, असंखेज्जघणंगुलमेत्तसेडीए पमाणत्तादो । सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघादणकदी, देवेसु अपज्जत्तकाले विभंगणाणाभावेण विभंगणाणेण सह विउव्वमाणतिरिक्ख-मणुस्सग्गहणादो । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, अंतोमुहत्तसंचिदत्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, पहाणीकयदेवरासित्तादो । आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु सव्वत्थोवा ओरालियसंघादणकदी, संखेज्जत्तादो । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा, सम्मादिट्ठीसु असंखेज्जाणं तिरिक्खेसु विउव्वमाणाणमुवलंभादो। उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । यह कथन सुगम है। शोधादि चार कषाय युक्त जीवों में अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। अकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। इसी प्रकार केवलज्ञानी, केवलवर्शनी और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये। मति व श्रुत अज्ञानियों में अपने पद ओघके समान हैं । इसी प्रकार असयंत, अभव्यसिद्धिक, मिथ्यादृष्टि और असंझी जीवोंके भी कहना चाहिये। विभंगशानियों में औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृात युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे असंख्यात घनांगुल मात्र जगश्रेणियोंके बराबर हैं। वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं, क्योंकि, देवों में अपर्याप्तकालमें विभंगज्ञानका अभाव होनेसे विभंगज्ञानके साथ विक्रिया करनेवाले तिर्यंच और मनुष्योंका यहां ग्रहण है । इनसे उसकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्त कालमें संचित हैं । इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंक, इनमें देवराशिकी प्रधानता है। आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक है, क्योंकि, वे संख्यात हैं। इनसे उसकी परिशातनकृति युक्त जीव असंस्थातगुणे हैं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों में असंख्यात जीव तिर्यचोंमें विक्रिया करने १ प्रतिषु · विउम्बणाण-' इति पाठः । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९९) छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, १, ४१. संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । सुगमं । वेउब्विय-आहारतिगमोघं । मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । वेउव्वियतिगस्स मणुसपज्जत्तभंगो । संजदेसु ओरालिय-तेजा-कम्मइयसरीराणं सव्वत्थोवा परिसादणकदी । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा। वेउध्विय-आहारतिगस्स मणुसपज्जत्तभंगो । एवं सामाइयछेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदाणं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु णत्थि अप्पाबहुगं, तत्थ वेउब्विय-आहारतिगाभावेण एगपदत्तादो। संजदासंजदेसु ओरालियदोण्णं पदाण विभंगभंगो । वेउब्वियतिण्णिपदाणं तिरिक्खमंगो। चक्खुदंसणीण तसपज्जत्तभंगो। अचक्खुदंसणी ओघ । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णस्थि । ओहिदसणी ओहिणाणिभंगो। किण्ण-णील-काउलेस्सिएसु ओरालियतिण्णमोघं । वाले पाये जाते हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । इसका कारण सुगम है। वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। वैफियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। संयतोंमें औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। इसी प्रकार सामायिक-छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनमें वैक्रियिक और आहारकशरीरके तीनों पदोंका अभाव होनेसे औदारिक,तैजस और कार्मणशरीरका संघातन-परिशातन रूप केवल एक पद होता है । संयतासंयतोंमें औदारिकशरीरके दो पदोंकी प्ररूपणा विभंगशानियों के समान है। वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यंचोंके समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा त्रस पर्याप्तोंके समान है। अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकात नहीं होती। अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिशानियोंके समान है। कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें औदारिकशरीरके तीनों पदोंकी Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपवणा वेउब्वियसरीरस्स सव्वत्थोवा परिसादणकदी। संघादणकदी असंखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेउलेस्सिएसु ओरालियतिण्णिपदाणमाहारतिण्णिपदाणं च आभिणिबोहियभंगो । वेउव्वियतिण्णिपदाणं विभंगभंगो । एवं पम्मलेस्साणं । णवरि' वेउव्वियतिण्णिपदाणं तिरिक्खभंगो, सणक्कुमार-माहिंददेवेहितो तिरिक्खपम्मलेस्सियजीवाणं पदरस्स असंखेज्जदिभागाणं पाहणियादो । सुक्काए सगसव्वपदाणं तेउलेस्सियभंगो । भवसिद्धियाणं ओघभंगो । सम्माइट्ठीणमाभिणिबोहियमंगो। णवरि तेजा-कम्मइयसरीराणं तसभंगो। वेदगसम्मादिट्ठीणं आभिणिबोहियभंगो । खइयसम्मादिट्ठीसु सव्वत्थोवा ओरालिय-वेउव्वियसंघादणकदी, संखेज्जत्तादो एगसमयसंचिदत्तादो। परिसादणकदी असंखेजगुणा, अंतोमुहुत्तसंचिदासंखेज्जरासि त्तादो । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । सुगमं । आहार-तेजा-कम्मइयपदाणं सम्माइट्टिभंगो। प्ररूपणा ओघके समान है। वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। इनसे उसकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। तेजलेश्यावाले जीवों में औदारिकशरीरके तीनों पद तथा आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा विभंगशानियोंके समान है। इसी प्रकार पद्मलेश्यावाले जीवोंके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि उनमें वैक्रियिकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा तिर्यचोंके समान है, क्योंकि, सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्पके देवोंकी अपेक्षा यहां जगप्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र तिर्यंच पदमलेश्यावाले जीवोंकी प्रधातना है। शुक्ललेश्यामें अपने सब पदोंकी प्ररूपणा तेजलेश्यावाले जीवोंके समान है। भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। सम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरके दोनों पदोंकी प्ररूपणा प्रस जीवोंके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकशानियोंके समान है। ___ क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिक व वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक है, क्योंकि, वे संख्यात व एक समय संचित हैं। इनसे उनकी परिशातन कृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि, वे अन्तर्मुहूर्त संचित असंख्यात राशि रूप हैं। इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । कारण इसका सुगम है । आहारक, तैजस और कार्मणशरीरके पदोंकी प्ररूपणा सम्यग्दृष्टियोंके समानहै। १ प्रतिषु एवं पमाणेण वरि' इति पाठः । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ७१. उक्समसम्माइट्ठीसु ओरालियदोपदाणं संजदासंजदभंगो । वेउब्वियतिष्णिपदाणं खइयसम्माइट्ठिभंगो । एवं सम्मामिच्छाइट्ठीणं । सासणे सव्वत्थोवा ओरालिय- वेउब्वियपरिसादकदी | संघादणकदी असंखेज्जगुणा | संघादण - परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । 9*4 j सण्णीण पुरिसभंगो । आहारएसु ओघं । णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । अणाहारसु सव्वत्थोवा तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी | संघादण-परिसादणकदी अनंतगुणा । एवं सत्यागप्पा बहुगं समत्तं । परत्थापयदं । सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी । परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा-कम्मइयपरिसा दणकदी संखेज्जगुणा । वेउब्वियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । वेउच्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणकदी उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें औदारिकशरीर के दो पदोंकी प्ररूपणा संयतासंयतोंके समान है । वैक्रियिकशरीर के तीनों पदकी प्ररूपणा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके समान है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । सासादनसम्यग्दाष्टयों में औदारिक और वैक्रियिकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उनकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे उनकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । संज्ञी जीवोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । आहारक जीवों में अपने पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । अनाहारक जीवोंमें तैजस और कार्मणशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । इनसे उनकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे । इस प्रकार स्वस्थान अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । परस्थान अल्पबहुत्व प्रकृत है । आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं | उनसे इसकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे इसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष भधिक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिक Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिआणियोगदारे करणकदिपरूषणा । १३९ अणतगुणा । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विससाहिया । केत्तियमेत्तो विसेसो १ वेउव्विय आहारतिण्णिपदसहिदओरालियसंघादणओरालिय-तेजा-कम्मइयपरिसादणमेत्तो। आदेसण णेरइएसु सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघादणकदी । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । एवं सव्वणेरइय-सव्वदेवेसु । णवरि सवढे संखेज्जगुणं कायव्वं ।। तिरिक्खेसु सव्वत्थोवा वेउव्वियसंघादणकदी । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? वेउब्वियसंघादण-परिसादणमत्तेण । संघादणकदी अणंतगुणा । संघादण-परिसादणकदी असंखेजशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। शंका-वह विशेष कितना है ? समाधान-वह विशेष वैक्रियिक व आहारकशरीरके तीनों पदोंसे सहित औदा. रिकशरीरकी संघातन तथा औदारिक, तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंके बराबर है। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे इसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकियों और सब देवोंमें कहना चाहिये। विशेष इतना है कि सर्वार्थसिद्धि विमानमें संख्यातगुणा करना चाहिये। तिर्यंचोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है । उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। शंका-कितने मात्र विशेषसे अधिक हैं ? समाधान-वैक्रियिकशरीरकी संघातन और परिशातनकृति युक्त जीवों मात्र विशेषसे वे अधिक हैं। औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीवोंसे उसकी संघातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं । उनसे इसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। १ प्रतिषु ' -सहिदओरालियसंघादणकम्मइयमेत्तो' इति पाठः। २ अप्रतौ । संघादण. मेत्तेण', आ-काप्रयोः संघादणमत्तेण 'इति पाठः। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० ] छक्खंडागमे बेयणाखंड [ ४, १, ७१. गुणा । तेजा-कम्मइययसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिगस्स । णवरि जहि अणतगुणं तहि असंखेज्जगुणमिदि वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तेसु सव्वत्थोवा ओरालियसंघादणकदी | संघादण - परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा - कम्मइयसंघादणपरसादणकदी विसेसाहिया | मणुसे सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी । परिसादणकदी संखेज्जगुणा । [ संघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी संखेज्जगुणा ।] वेउव्वियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । परिसादणकदी संखेज्जगुणा | संघादण - परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया | संघादणकदी असंखेज्जगुणा | संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा - कम्मइयसंघादण - परिसादणकदी विसेसाहिया । एवं मणुसपज्जत्तस्स वि । णवरि जहि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कादव्वं । मणुसिणीसु सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी । वेउव्वियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । परिसादणकदी उनसे तेजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्येच आदि तीनके कहना चाहिये । विशेष इतना है कि जहां पर अनन्तगुणा कहा है वहांपर असंख्यातगुणा ऐसा कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तों में औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसकी संघातन-परिशातन कृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीर की संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । मनुष्यों में आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । [ उनसे उसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । ] उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उसीकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्तकके भी कहना चाहिये । विशेष इतना है कि जहां असंख्यातगुणा है वहां संख्यातगुणा करना चाहिये । मनुष्यनियोंमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं | उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगदारे करणकदिपरूवणा [४४१ संखेज्जगुणा । संघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । संघादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । मणुसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । एइंदिय-बादरेइंदियाणं तेसिं पज्जत्ताणं च तिरिक्खोघ । बादरेइंदियअपजत्त-सव्वसुहुमसव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जत्त-सव्वपुढवीकाइय-सव्वआउकाइय- बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयअपज्जत-सव्वसुहुमतेउकाइय-वाउकाइय-सव्ववणप्फदि-सव्वणिगोद-सव्ववणप्फदिपत्तेयसरीर-तसअपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो । पंचिंदियाणं' ओघ । णवरि जम्हि अणतगुणं तम्हि असंखज्जगुणं कायव्वं । अधवा, वेउव्वियसंघादणादो ओरालियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । पंचिंदियपज्जत्तएसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । . उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे उसीकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। मनुष्य अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्तोंकी प्ररूपणा तिर्यंच ओघके समान है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक अपर्याप्त,सब सूक्ष्म तेजकायिक, सब सूक्ष्म वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, सब वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा त्रस अपर्याप्तोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तोंके समान है। पंचेन्द्रियोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि जहांपर अनन्तगुणा है वहांपर असंख्यातगुणा करना चाहिये । अथवा, उनमें बैंक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीवोंसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में आहारकशरीरकी संधातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृतियुक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परि १ प्रतिषु · मणुसअसणि पंचिंदिय- ' इति पाठः। २ प्रतिषु · वाउ० अप्प. ' इति पाठः । ३ अ-आप्रत्योः · पंचिं० ', काप्रती · पंचिंदिय० ' इति पाठः। अ.क. ५६. Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । वेउव्वियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । वेउव्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । वेउब्विय-संघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । तेउकाइय-वाउकाइय-बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइयपज्जत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खमंगो । तसदुगस्स पंचिंदियदुगभंगो। पंचमणजोगि-तिण्णिवचिजोगीसु सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । वेउब्वियंपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया। ओरालियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । शातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकात युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यात. गुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । तेजकायिक, वायुकायिक, बादर तेजकायिक और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। त्रस और त्रस पर्याप्तोंकी प्ररूपणा क्रमशः पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। - पांच मनयोगी और तीन वचनयोगी जीवों में आहारकशरीरकी परिशासनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। १ प्रतिष्ठ ' तेउ.' इति पाठः। Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारे करणक दिपरूवणा (જી वचिजोगि-असच्चमोसवचिजोगीसु सव्वत्थोवा आहारपरिसादणकदी | संघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । वेउव्वियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । १, १, ७१. 1 कायजोगी ओघ । णवरि तेजा - कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । ओरालियकाय जोगी सु सव्वत्थे वा आहारपरिसादणकदी । वेउव्वियसंघादणमसंखेज्जगुणं । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादण - परिसादणकदी अणतगुणा । तेजा - कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालिय मिस्स काय जोगीसु पंचिंदियअपज्जत्तभंगो । वेउब्वियकायजोगीसु णत्थि अप्पाबहुगं, तिष्णिपदाणं सारिच्छियादो । वेउव्वियमिस्सकायजोगीणं णारगभंगो । आहारकायजोगी णत्थि अप्पाबहुगं, चदुण्हं पदाणं सारिच्छियादो । आहारमिस्सकाय जोगी सम्वत्थोवा आहारसंघादणकदी | संघादण - परिसादणकदी संखेज्जगुणा । ओरा - वचनयोगी और असत्य- मृषावचनयोगी जीवोंमें आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे इसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीर की परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन - परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । काय योगी जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है । विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती । औदारिककाययोगियोंमें आहारकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें अपने पदोंके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तोंके समान है। वैक्रियिककाययोगियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि, उनमें तीनों पद सदृश हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंकी प्ररूपणा नारकियोंके समान है । 1 आहारककाययोगियों में अल्पबहुख नहीं हैं, क्योंकि, उनमें चारों पद समान माहारमिश्रकाययोगियोंमें आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीर की Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,७१. लियपरिसादणकदी तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी तिण्णि वि सरिसा विसेसाहिया । कम्मइयकायजोगीसु सव्वत्थोवा ओरालियपरिसादणकदी। तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी अणंतगुणा । ___ इत्थिवेदेसु सव्वत्थोवा वेउब्वियपरिसादणकदी। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । पुरिसवेदेसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । वेउव्वियपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । सेसस्स इत्थिवेदभंगो । णउंसयवेदा तिरिक्खोघं। अवगदवेदेसु सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी । ओरालियपरिसादणकदी परिशातनकृति तथा तैजस व कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति, इन तीनों पदोंसे युक्त जीव सदृश विशेष अधिक है। - कार्मणकाययोगियोंमें औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं । ___ स्त्रीवेदियों में वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकात युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगणे है। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे है। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। पुरुषवेदियों में आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । शेष पदोंकी प्ररूपणा स्त्रीवेदियोंके समान है। नपुंसकवेदियोंकी प्ररूपणा सामान्य तिर्यंचोंके समान है। ___ अपगतवेदियों में तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [१५ विसेसाहिया । संघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । चदुण्हं कसायाणं कायजोगिभंगो । अकसाईणमवगदेवेदमंगो। मदि-सुदअण्णाणीसु सव्वत्थोवा वेउव्वियपरिसादणकदी। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । सेसपदा ओघ । विभंगणाणीसु सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघादणकदी । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । संघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्यियसंघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । आभिणिबोहिय-सुद-ओहिणाणीसु सवत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी [संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी ] विसेसाहिया । ओरालियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । वेउब्वियपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । उसीकी संघासन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। चार कषाय युक्त जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है । अकषायी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। ‘मति व श्रुत अज्ञानी जीवोंमें वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । शेष पोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। विभंगशानियोंमें वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। आभिनिबोधिक, श्रुत और अवधिज्ञानी जीवोंमें आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे इसीकी परिशातनकृति युक्त जीव [संख्यातगुणे हैं। उनसे इसकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव] विशेष अधिक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी परिशतनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड ४, १, ७१. वेउब्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया। मणपज्जवणाणीसु सव्वत्थोवा वेउब्वियसंघादणकदी । परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । संघादणपरिसादणकदी संखेजगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादणपरिसादणकदी विसेसाहिया । केवलणाणीणमवगदवेदभंगो । एवं केवलदंसणि-जहाक्खादसंजदाणं । संजदाणं मणुसपज्जत्तभंगो । णवरि ओरालियसंघादणं णत्थि । एवं सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदाणं । णवरि तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी णत्थि । परिहारसुद्धिसंजद-सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु तिण्णि वि पदा सरिसा । संजदासजदाण मणपज्जवभंगो। णवरि विसेसो जम्हि संखेज अधिक हैं । उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मण. शरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । मनःपर्ययज्ञानियों में वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे उसीकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। केवलज्ञानी जीवोंकी प्ररूपणा अपगतवेदियोंके समान है। इसी प्रकार केवल. दर्शनी और यथाख्यातसंयत जीवोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। संयत जीवोंकी प्ररूपणा मनुष्य पर्याप्तोंके समान है। विशेष इतना है कि उनमें औदारिकशरीरकी संघातनकृति नहीं होती। इसी प्रकार सामायिक छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत जीवोंके कहना चाहिये। विशेष इतना है कि उनमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति नहीं होती। परिहारशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयत जीवोंमें तीनों ही पद सदृश हैं। संयता. संयत जीवोंकी प्ररूपणा मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है। विशेष इतना है कि जहां संख्यात. १ इतः प्रारम्य विसेसाहिया-पर्यन्तोऽयमधस्तनः प्रबन्धः काप्रतौ नोपलभ्यते । २ प्रतिषु 'दंसपीओ' इति पाठः । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगहारे करणकदिपरूवणा [४४७ गुणं तम्हि असंखेज्जगुणं कायव्वं । असंजदाणं मदिअण्णाणिभंगो । चक्खुदंसणीणं तसपज्जत्तभंगो । अचक्खुदंसणीणं कोधभंगो । ओहिदसणाण ओहिणाणिभंगो। किण्ण-णील-काउलेस्सियाणं असंजदभंगो। तेउलेस्सिएसुसव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी । परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादणकदी संखेजगुणा । वेउब्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी संखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । पम्मलेस्सिएसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा। संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादण ...................................... गुणा कहा गया है वहां असंख्यातगुणा करना चाहिये। असंयत जीवोंकी प्ररूपणा मति. अनानियों के समान है। चक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा त्रस पर्याप्तोंके समान है। अचक्षुदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा क्रोधकषायी जीवोंके समान है। अवधिदर्शनी जीवोंकी प्ररूपणा अवधिज्ञानियोंके समान है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंकी प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है। तेजलेश्यावालोंमें आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी परिशातनकति युक्त जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन परिशातनकृति युक्त जीव विशेष आधिक हैं। पद्मलेश्यावाले जीवों में आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे उसीकी संघातनपरिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे वैफियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। १ प्रतिषु बेउ० ' इति पाठः। २ प्रतिषु — पम्मलेस्सीस ' इति पाठः । Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ७१. कदी असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । ___ सुक्कलेस्सिएसुआहारतिगमोघं । तदो ओरालियसंघादणकदी संखेज्जगुणा। वेउब्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्धियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । भवसिद्धिया ओघ । अभवसिद्धियाणं मदिअण्णाणिभंगो । सम्मत्ताणुवादेण सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । ओरालिय उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं । शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें आहारकशरीरके तीनों पदोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजल और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। भव्यसिद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। अभव्यासद्धिक जीवोंकी प्ररूपणा मतिअज्ञानियोंके समान है। सम्यक्त्वमार्गणानुसार आहारकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं । उनसे उसीकी संघातनपरिशातनकात युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यात. १ प्रतिषु सुक्कलेस्सीसु' इति पाठः । २ अप्रतौ' भवसिद्धियाणं ' इति पाठः, आ-काप्रत्योस्तु नोपलभ्यते पदामिदम् । Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा संघादणकदी संखेज्जगुणा । सेसस्स आभिणियोहियभंगो । ____ खइयसम्माइट्ठीसु सव्वत्थोवा आहारसंघादणकदी। परिसादणकदी संखेज्जगुणा । संघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी संखेज्जगुणा । ओरालियसंघादणकदी संखेज्जगुणा । वेउन्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया। संघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । उवसमसम्माइट्ठीणं विभंगभंगो । सासणे सव्वत्थोवा वेउब्वियपरिसादणकदी । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउब्वियसंघादणपरिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया। मिच्छादिट्ठीणं मदिअण्णाणिभंगो । वेदगसम्मादिट्ठीणमोहिभंगो। सम्मामिच्छाइट्ठीसु गुणे हैं। शेष पदोंकी प्ररूपणा आभिनियोधिकहानियों के समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में आहारकशरीरंकी संघातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशासनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे उसीकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। ___ उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा विभंगशानियोंके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टियों में वैक्रियिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं । उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातनकृति युक्त जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। मिथ्याष्टि जीवोंकी प्ररूपणा मतिअज्ञानियोंके समान है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंकी प्ररूपणा अवधिशानियों के समान है। सम्यग्मिध्याहष्टि जीवों में वैक्रियिकशरीरकी संघातन Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० छक्खंडागमे वयणाखंड [४, १, ७२. सव्वत्थोवा वेउव्वियसंघादणकदी । परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । ओरालियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । वेउव्वियसंघादण-परिसादणकदी असंखेज्जगुणा । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी विसेसाहिया । सण्णीसु पुरिसभंगो। असण्णी तिरिक्खोघं । आहारीणं कायजोगिभंगो । अणाहारएसु सव्वत्थोवा तेजा-कम्मइयपरिसादणकदी। ओरालियपरिसादणकदी विसेसाहिया । तेजा-कम्मइयसंघादण-परिसादणकदी अणतगुणा । एवं परत्थाणप्पाबहुगं समत्तं । इदि मूलकरणकदी परूवणा कदा। (जा सा उत्तरकरणकदी णाम सा अणेयविहा । तं जहा-असिवासि-परसु-कुडारि-चक्क-दंड-वेम-णालिया-सलाग-मट्टियसुत्तोदयादीणमुवसंपदसण्णिज्झे ॥ ७२ ॥) कधं मट्टियादीणमुत्तरकरणत्तं १ पंचसरीराणं जीवादो अपुधब्भूदत्तेण सकलकरणकारणकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे उसीकी परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वैक्रियिकशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक है। ___ संज्ञी जीवोंकी प्ररूपणा पुरुषवेदियोंके समान है । असंही जीवोंकी प्ररूपणा तिर्यंच ओघके समान है। आहारक जीवोंकी प्ररूपणा काययोगियोंके समान है। अनाहारक जीवोंमें तैजस और कार्मणशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे औदारिकशरीरकी परिशातनकृति युक्त जीव विशेष अधिक हैं। उनसे तैजस और कार्मणशरीरकी संघातन-परिशातनकृति युक्त जीव अनन्तगुणे हैं । इस प्रकार परस्थानअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। इस प्रकार मूलकरणकृतिकी प्ररूपणा की गई है। जो वह उत्तरकरणकृति है वह अनेक प्रकारकी है। यथा- असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड, वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र और उदकादिकका सामीप्य कार्यों होता है ॥७२॥ शंका - मृत्तिका आदि उत्तरकरण किस प्रकार हैं ? समाधान-जीवसे अपृथक् होनेके कारण अथवा समस्त करणोंके कारण होनेसे १ प्रतिषु मट्टिवजसुचो-' इति पाठः। Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १, १, ७४.] कदिअणियोगद्दारे भावकदिपरूवणा [४५१ भावेण वा उवलद्धमूलकरणववएसाणं करणत्तादो । उत्तरकरणकदी अणेयविहा त्ति पइज्जा । असि-वासियादीणमुवसंपदसणिज्झे इदि साहणमेयमण्णहाणुववत्तिगन्भत्तादो । द्रव्यमुपसंपद्यते आश्रीयते एभिरिति उपसंपदानि कार्याणि, तेषां सान्निध्य उपसंपदसान्निध्यम् । तस्मादसि-वासिपरशु-कुडारि-चक्र-दण्ड-वेम-नालिका-शलाका-मृत्तिका-सूत्रोदकादीनामुपसंपदसान्निध्यादुत्तरकरणकृतिरनेकविधा । न कार्यसान्निध्यं करणभेदस्यागमकम् , तद्विशेषाश्रयणे तदेकत्वानुपपत्तेः । जे चामण्णे एवमादिया सा सव्वा उत्तरकरणकदी णाम ॥७३॥ 'जे च अमी अण्णे ' एदेण करणाणमियत्तावहारणप्पडिसेहो कदो। सा सव्वा उत्तरकरणकदी णाम । जा सा भावकदी णाम सा उवजुत्तो पाहुडजाणगो ॥७४॥ एत्थ पाहुडसहो कदीए विसेसिदव्वा, पाहुडसामण्णण अहियाराभावादो। तदो कदिपाहुडजाणओ उवजुत्तो भावकदि त्ति सिद्धं । णोआगमभावकदी किण्ण परूविदा ? ण, मूलकरण संशाको प्राप्त हुए पांच शरीरोंके चूंकि वे मृत्तिका आदि करण हैं, अतः वे उत्तर करण कहे जाते हैं। 'उत्तरकरणकृति अनेक प्रकारकी है ' यह प्रतिज्ञा है । ' असि, वासि आदिकोंकी कार्यों में समीपता होनेपर', यह साधन है; क्योंकि, उसके गर्भमें अन्यथानुपपत्ति निहित है अर्थात् उक्त साधनोंके विना कार्यकी सिद्धि नहीं हो सकती। जो द्रव्यका आश्रय करते हैं वे उपसंपद अर्थात् कार्य कहलाते हैं, उनकी समीपता उपसंपदसानिध्य है । इसलिये असि, वासि, परशु, कुदारी, चक्र, दण्ड,वेम, नालिका, शलाका, मृत्तिका, सूत्र और उदक आदि कार्योकी समीपतासे उत्तरकरणकृति कहलाते हैं। यह उत्तरकरणकृति अनेक प्रकारकी है। कार्यसान्निध्य करणभेदका अगमक नहीं है, अर्थात् गमक ही है। क्योंकि, करणभेदका आश्रय करनेपर उसका एकत्व नहीं बन सकता। इसी प्रकार और भी जो ये अन्य करण हैं वे सब उत्तरकरणकृति कहलाते हैं ॥७३॥ ‘और जो ये अन्य हैं ' इससे करणों की संख्याके निश्चयका निषेध किया गया है। वह सब उत्तरकरणकृति है । प्राभृतका जानकर जो उपयोग युक्त जीव है वह सब भावकरणकृति है ॥ ७४ ॥ यहां सूत्रमें आये हुए प्राभृत पदको कृति विशेषणसे विशेषित करना चाहिये; क्यॉकि, यहां प्राभृत सामान्यका अधिकार नहीं है। इस कारण कृतिप्राभृतका जानकार उपयोग सहित जीव भावकृति है, यह सिद्ध हुआ। शंका-यहां नोआगमभावकृतिकी प्ररूपणा क्यों नहीं की? १ प्रतिषु — भाषकरणकदी' इति पाठः । Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ छक्खंडागमे वेयणाखरं [१, १, ७५. ओदइयादिपंचभाउवलक्खियणोआगमदव्वाणं सेसकदीसु अंतब्भावादो । सा सव्वा भावकदी णाम ॥ ७५ ॥ कधमेक्किस्से भावकदीए बहुत्तसंभवो ? ण, कदिपाहुडजाणएसु तत्थुवजुत्तजीवाणं बहुत्तदंसणादो। एदासिं कदीणं काए कदीए पयदं ? गणणकदीए पयदं ॥७६॥ गणणपरूवणा किमट्ठमेत्थ कीरदे ? गणणाए विणा सेसाणियोगद्दारपरूवणाणुवत्तीदो। उत्तं च (जह चिय मोराण सिहा णायाणं लंछणं व सत्थाणं । मुक्खारूढं गणियं तत्थव्भासं तदो कुज्जा ॥ १३३ ॥ एवं कदी त्ति सत्तममणियोगद्दारं । प्रसिद्धसिद्धान्तगभस्तिमाली समस्तवैयाकरणाधिराजः । गुणाकरस्तार्किकचक्रवर्ती प्रवादिसिंहो वरवीरसेनः ॥ समाधान नहीं की गई, क्योंकि, औदयिक आदि पांच भावोंसे उपलक्षित नोआगमद्रव्योंका शेष कृतियों में अन्तर्भाव हो जाता है। वह सब भावकृति है ॥ ७५ ॥ शंका-एक भावकृतिमें बहुत्व कैसे सम्भव है ? समाधान नहीं, क्योंकि, कृतिप्राभृतके जानकारों से उसमें उपयोग युक्त जीक बहुत देखे जाते हैं। इन कृतियोंमें कौनसी कृति प्रकृत है ? गणनकृति प्रकृत है ॥ ७६ ॥ शंका- यहां गणनाकी प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान- चूंकि गणनाके विना शेष अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा नहीं बन सकती है, अतः उसकी प्ररूपणा की जाती है। कहा भी है जिस प्रकार मयूरोंकी शिख' उनका मुख्यतासे रूढ लक्षण है, उसी प्रकार न्याय शास्त्रोंका मुख्य लक्षण गणित है । अत एवं इसका अभ्यास करना चाहिये ॥ १३३ ॥ इस प्रकार कृतिअनुयोगद्वार समाप्त हुआ। १ प्रतिषु 'पद्धारूट' इति पाठः। Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदिअणियोगद्दारसुत्ताणि । सूत्र संख्या १ णमो जिणाणं । २ णमो ओद्दिजिणाणं । ३ णमो परमोहिजिणाणं । ४ णमो सभ्वोद्दिजिणाणं । ५ णमो अणतोहि जिणाणं । ६ णमो कोट्टबुद्धीणं । ७ णमो बीजबुद्धीणं । ८ णमो पदाणुसारीणं । ९ णमो संभिण्णसोदाराणं । १० णमो उजुमदीणं । ११ णमो विउलमदीणं । १२ णमो दसपुविवयाणं । १३ णमो चोइसपुविवयाणं । १४ णमो अटुंगमहाणिमित्तकुसलाणं । २ १२ ४१ ४७ ५१ ५३ ५५ ५९ ६१ ६२ ६६ ६९ ७० 7 ७२ १५ णमो विउव्वणपत्ताणं । १६ णमो विज्जाहराणं ।' ७५ ७७ ७८ वत्थुस्स चउत्थो पाहुडेो कम्म ८१ १७ णमो चारणाणं । १८ णमो पण्णसमणाणं । १९ णमो आगासंगामीणं । २० णमो आसीविसाणं । २१ णमो दिट्टिविसाणं । २२ णमो उग्गतवाणं । २३ णमो दिप्त्ततवाणं । ८७ ९० ९१ २४ णमो तत्ततवाणं । २५ णमो महातवाणं । २६ णमो घोरतवाणं । २७ णमो घौरपर कमाणं । सूत्र २८ णमो घोरगुणाणं । २९ णमो घोरगुणबंभचारीणं । पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ३० णमो आमोसहिपत्ताणं । ३१ णमो खेलोसहिपत्ताणं । ३२ णमो जल्लोसहिपत्ताणं । ३३ णमो विट्ठोसहिपत्ताणं । ३४ णमो सव्वोसहिपत्ताणं । ३५ णमो मणबलीणं । ३६ णमो वचिबलीणं । ३७ णमो कायनलीणं । ३८ णमो खीरसवीणं । ३९ णमो सप्पिसवीणं । ४० णमो महुसवीणं । ४१ णमो अमडसवीणं । ४२ णमो अक्खीणमहाणसाणं । "" ४३ णमो लोए सव्वसिद्धायदणाणं । १०२ १०३ * * पयडी णाम । तत्थ इमाणि चउ८४ वीस अणिओगद्दाराणि णाद८५ व्वाणि भवंति - कदि वेदणाए पहले कम्मे पयडीसु बंधणे णिबंधणे पक्कमे उवक्कमे उदय मोक्खे पुण संकमे लेस्सा-लेस्सायम्मे लेस्सापरिणामे तत्थेव सादमसादे दीहेरहस्से भव ९२ धारणीए तत्थ पोग्गलत्ता णिध ९३ णिकाचिदमणि तमणिधत्तं काचिदं कम्मट्ठदिपच्छिमक्खंधे अप्पा बहुगं च सब्वस्थ । 33 ९४ ४४ णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स । ४५ अग्गेणियस्स पुव्वस्स पंचमस्स पृष्ठ ९५ ९६ 33 ९७ ९८ 23 ९९ 99 १०० " १०१ १३४ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २५१ (२) परिशिष्ट सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या सूत्र ४६ कदि त्ति सत्तविहा कदी-णाम ट्ठिदं जिद परिजिदं वायणोपगदं कदी ठवणकदी दव्वकदी गणण सुत्तसमं अत्थसमं गंथसमं णामकदी गंधकदी करणकदी भाव. समं घोससमं । कदी चेति। २३७ / ५५ जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा ४७ कविणयविभासणदाए को गओ पडिच्छणा वा परियणा वा ___ काओ कदीओ इच्छदि ? २३८ । अणुपेक्खणा वा थय थुदि-धम्म४८ णइगम-ववहार-संगहा सम्बाओ । २४० कहा वा जे चामण्णे एवमादिया। २६२ ४९ उजुसुदो ट्ठवणकर्दि णेच्छदि । २४३ ५६ णेगम-यवहाराणमेगोअणुवजुत्तो ५० सद्दादओ णामकादिं भावकदिं च आगमदो दवकदी अणेया वा इच्छति । २४५ अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी। २६४ ५१ जा सा णामकदी णाम सा ५७ संगहणयस्स एयो वा अणेया वा जीवस्स वा, अजीवस्स वा, अणुवजुत्तो आगमदो दव्वकदी। २६५ जीवाणं वा,अजीवाणं वा,जीवस्स ५८ उजुसुदस्स एओ अणुवजुत्तो च अजीवस्स च, जीवस्स च आगमदो दव्यादी । अजीवाणं च, जीवाणं च ५९ सद्दणयस्स अवत्तव्वं । अजीवस्स [च], जीवाणं च अजीवाणं च जस्स णाम कीरदि ६० सा सव्वा आगमदो व्यकदी णाम। कदि त्ति सा सत्रा णामकदी णाम । २४६ / ६१ जा सा णोआगमदो दव्वकदी ५२ जा साठवणकदी णाम सा कट्ट. णाम सातिविहा-जाणुगसरीरकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्त नकदी भवियदव्वकदी जाणुग सरीर-भवियवदिरित्तदव्वकदी कम्मेसु वा लेप्पकम्मेसु वा चेदि। २६७ लेण्णकम्मेसु वा सेलकम्मेसु वा गिहकग्मेसु वा भित्तिकम्मेसु वा ६२ जा सा जाणुगसरीरदव्यकदी दंतकम्मेसु वा भेडकम्मेसु वा णाम तिस्से इमे अत्थाहियारा अक्खो वा वराडओ वा जे भवंति-ट्ठिदं जिद परिजिदं चामण्णे एवमादिया ठवणाए वायणोवगदं सुत्तसमं अत्थसमं ठविज्जति कदि त्ति सा सव्वा - गथसमं घोससमं णामसमं । २६८ ठवणकदी णाम। ६३ तस्स कदिपाहुडजाणयस्स चुद५३ जा सा दव्वकदी णाम सा चइद-चत्तदेहस्स इमै सरीरदुविहा आगमदो दव्वकदी चेव मिदि सा सव्वा जाणुगसरीरणोआगमदो दव्धकदी चेय। २५० दम्यकदी णाम। ५४ जा सा आगमदो वकदी णाम ६४ जा सा भवियदव्वकदीणाम-जे तिस्से इमे अट्ठाहियाराभवंति इमे कदि त्ति अणिओगहारा Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) सूत्र कदिअणियोगदारसुत्ताणि सूत्र संख्या सूत्र पृष्ठ सूत्र संख्या पृष्ठ भविओवकरणदार जो टिदो सरीरमूलकरणकदी कम्मश्यजीवोण ताव तं करेदि सा सव्वा सरीरमूलकरणकदी चेदि। ३२४ भवियदव्वकदी णाम। जा सा ओरालिय-वेउब्धिय६५ जा सा जाणुगसरीर-भवियवदि आहारसरीरमूलकरणकदी णाम रित्तदव्वकदी णाम सा अणेय सा तिविहा- संघादणकदी विहा । तं जहा-गंथिम-वाइम परिसादणकदी संघादण-परिवेदिम-पूरिम-संघादिम-अहोदिम सादणकदी चेदि । सा सव्वा णिक्खोदिम-ओवेल्लिम-उव्वेल्लिम ओरालिय वेउब्विय-आहारसरीरवण्ण-चुण्ण-गंध-विलेवणादीणि मूलकरणकदी णाम । ३२६ जे चामण्णे एवमादिया सा ७० जा सा तेजा-कम्मइयसरीरमूलसवा जाणुगसरीर-भवियवदि करणकदी णाम सा दुयिहारित्तदव्बकदी णाम । २७२ परिसादणकदी संघादण-परि६६ जा सा गणणगदी णाम सा सादणकदी चेदि। सा सव्वा अणेयविहा । तं जहा- एओ तेजा--कम्मइयसरीरमूलकरण-- णोकदी, दुवे अवत्तव्वा कदि त्ति कदी णाम। ३२८ वा णोकदि त्ति वा, तिप्पहुडि ७१ एदेहि सुत्तेहि तेरसण्हं मूलजाव संखेज्जा वा असंखेजा करणकदीणं संतपरूवणा कदा। ३२९ वा अणंता वा कदी, सा सव्वा गणणकदी णाम। २७४ ७२ जा सा उत्तरकरणकदी णाम सा अणेयविहा। तं जहा- असि६७ जा सा गंथकदी णाम सा लोए वेदे समए सहपबंधणा अक्खर वासि-परसु-कुडारि-चक्क-दंड वेम-णालिया-सलाग-मट्टिय-. कव्वादणं जा च गंथरचणा कीरदे सा सव्वा गंथकदी णाम। ३२१ सुत्तोदयादीणमुवसंपदसणिज्झे । ४५० ७३ जे चामण्णे एवमादिया सा ६८ जा सा करणकदी णाम सा __सव्वा उत्तरकरणकदी णाम। ४५१ दुविहा मूलकरणकदी चेव उत्तरकरणकदी चेव | जा सा मूल ७४ जा सा भावकदी णाम सा करणकदी णाम सा पंच. उवजुत्तो पाहुडजाणगो। " विहा-ओरालियसरीरमूलकरण. ७५ सा सब्बा भावकदी णाम ४५२ कदी वेउव्वियसरीरमूलकरणकदी ७६ एदास काए कदीए पयदं ? आहारसरीरमूलकरणकदी तेया गणणकदीए पयदं। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रम संख्या पृष्ठ १०६ अग्नि-जल- रुधिर दीपे २५६ ३३ अच्छित्ता वमासे १२२ गाथा ५१ भवायावयवोत्पत्तिः १४७ १११ अष्टम्यामध्ययनं ९ असुराणामसंखेज १९ अंगं सरो वंजणअंगुलमावलियाए ५५ अट्टेव धणुसहस्सा १५८ १२२ अणियोगो य णियोगो २६० आ. नि. १२८ ११४ अतितीव्र दुःखितानां २५८ १२१ अल्पाक्षरमसंदिग्धं २५९ क. पा. १, पृ. १५४ १५ अंगुलमावलियाए ११ आणद-पाणदवासी २ अवतरण - गाथा-सूची । २४ आदि त्रिगुणं मूला२ आदी मंगलकरणं ३ आलंबणेहि भरिओ ६ मावलियपुधतं पुण अन्यत्र कहीं क्रम संख्या २५७ क. पा. १, पृ. ७८ २५ म. बं. १, पृ. २२. मूला. १२, ११०. गो. जी. ४२७ ७२ २४४ म. बं. १, पृ. २१, गो. जी. ४०४. नं. सू. गा. ५०. वि. भा. ६११ ४० 22 33 २६ म. बं. १, पृ. २३, गो. जी. ४३१ ૮૮ ४ ष. खं. पु. १, पृ. ४० १०भ. आ. १८७६ २५ म. बं. १, पृ. २१, गो. जी. ४०५ गाथा पृष्ठ ३५ आहिणि बोहियबुद्धो १२३ २९ इमिस्से वसप्पिणी १२० अन्यत्र कहाँ क. पा. १, पृ. ७८ पा. १, पृ. ७४ -३७ उजुकूलनदीतीरे १२४ क. पा. १, पृ. ८० ८७ उस्सासाउअपाणा ९० एक्क्क्कम्हि य वत्थू ८० एक्केकं तिण्णि जणा ७६ एकको चैव महप्पो ८९ पदेसिं पुवाणं ६७ पयदवियम्मि जे १२५ एयादीया गणणा ११८ एवं क्रमप्रवृद्धया - १ एसो पंचणमोक्कारो ४ ओगाहणा जहण्ण क. "" ८७ ५३ उणतीस जोयणसया १५८ ५४ उणसट्टिजोयणसया २३ उत्तरगुणिते तु धने ९१ उदप संकम-उदय २३६ गो. क. ४४० ९४ उप्पज्जति वियति य २४४ स. सू. १, ११ ..२८ उप्पण्णम्मि अणते ११९ क. पा. १, पृ. ६८ २२४ २२९ २०८ १९८ पंचा ७१ २२७ १८३ स. त. १, ३३ २७६ त्रि. सा. १६ २५८ ४ मूला. ७, १३ १६ म. बं. १, पु. २१ ७४ कधं चरे कधं चिट्ठे १९७ मूला. १०. १२१. द. वै. ४, ७. १३ कालो चउण्ण चड्डी २९ म. बं. १, पृ. २२. नं. सू. गा. ५४ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा. १, पृ.७९ अवतरण-गाथा सूची (५) क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहाँ ३२ कुंडपुर-पुरवरिस्सर १२२ क. पा. १, ९७ तिलपलल-पृथुक- २५५ पृ.७८. ७३ तिविहं तु पदं भाणिदं १९६ क. पा. १, ११२ कृष्णचतुर्दश्यां २५७ ७१ कोटीशतं द्वादश. १९५ ४८ तिविहाय आणुपुन्धी १४० प.सं. पु. १, ५० क्षायिकमेकमनन्तं १४२ पृ. ७२ १०७ क्षेत्रं संशोध्य पुनः २५६ १४ तेया-कम्म-शरीरं ३८ म. पं. १, २७ खीणे दंसणमोहे ११९ क. पा. १, पृ. २२. ११९ दव्यादिवदिक्कमणं २५९ मूला.४,१७१ ३६ गमय छदुमत्थतं १२४ क. ८८ दस चोइस अट्ठा. २२७। ७८ दंसण-बद-सामाइय २०१चा. पा. २२. ४६ गुत्ति-पयत्थ भयाई १३२ गो.जी.४७६, १२९ गेवजेसु य विगुणं २९८ ५२ चत्तारि घणुसयाई १५८ अं. प. १,४६ ८३ चारणवंसो तह २०९ ष.ख. पु. १, । ७० दुओणदं जहाजावं १८९ मूला. १०४. समवायांग १२ ६८ धर्मेधर्मेऽन्य एवार्थो १८३ आ. मी. २२ ७७ छक्कापक्कमजुत्तो १९८ पंचा. ७२. ४९ जत्थ बहुं जाणेजो १४१ ६६नयोपनयैकान्तानां, आ.मी.१०७ ७५ जदं चरे जदं चिट्टे १९७ मूला. १०, १९ नवनागसहस्राणि ६१ १२२. द. चै. ४० पच्छा पावाणयरे १२५ क. पा. १. पृ. ८१ २१ जल-जंघ-तंतु-फल- ७९ | १२७ पढमपुढवीए चदुरो २९६ १३३ जह चिय मोराण ४५४ ७९ पढमो अबंधयाणं २०८ ६१ जातिरेव हिभावानां १७५ क. पा. १. ८२ पढमो अरहंताणं २०९ष.खं. प.१. पृ. २२७ २० जादीसु होइ विज्जा ७७ १३१ पणगादी दोहि जुदा ३०० मूला.१२,७९ । ६२ जावदिया वयणवहा १८१ स. त. १,४७ पणुवीस जोयणाणि २५ म. बं. १, ..८५ जीवो कत्ता.य वत्ता २२० अं.प.२,८६ पृ.२२. मूला. २६ होझये कथमनः स्या- ११८ क. पा. १, १२, १०९ पृ. ६६.१७ पण्णवणिज्जा भावा ५७ गो.जी.३३४. ११७ ज्येष्ठामूलात्परतो. २५८ - वि. भा. १५१ ८४ णवमो अदक्खुवाण २०९ ष. खं. पु. १, १६ परमोहि असंखेजाणि ४२ म. बं. १, पृ. ११२. . पृ. २२. आव. ९३ णाम-ट्ठवणा-दविय २४२ स. स. १, ६. L.६९ णामं ठवणा दवियं १८५ , , ! ४१ परिणिव्वुदे जिणिंदे १२५ १०१ तपसि द्वादशसंख्ये २५७ ११० पर्वसु नन्दीश्वरवर २५७ १०१ तावन्माने स्थावर २५५ । ४५ पंच य मासा पंच य १३२ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. परिशिष्ट । क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां क्रम संख्या गाथा पृष्ठ अन्यत्र कहां ४३ पंचेव अस्थिकाया १२९ । ९८ योजनमंडलमात्रे २५५ ५६ पासे रसे य गंधे १५८ १२४ लिंगत्तियं वयणसमं २६१ ५८ पुढे सुणेइ सई १५९ स.सि.१,१९. ४५ वासस्स पढममासे १३० ति.प.१,६९ नं. सू. ७८, ३९ वासाणूणत्तीसं १२५ क. पा. १, आ. नि. ५ पृ.८१ १३२ पुरिसेसु सदयुधत्तं ३०० १०२ विगतार्थागमने वा २५६ ९५ पूर्वापरविरुद्धादे- २५१ | १२० विणपण सुद्रमधीतं २५९ मूला. ५, ८९ ११५ प्रतिपद्येकः पादो २५८ २२ विणएण सुदमधीदं ८२ , १.३ प्रमितिररत्नशतं २५६ १०५ व्यन्तरमेरीताडण २५६ .१००-प्राणिनि च तीव. २५५ ७२ षोडशशतं चतुस्लिं- १९५ - ३८.बरसाहजोण्णपक्खे १२४ क. पा. १, १० सक्कीसाणा प्रढम... २६ म. बं. १, पृ. २२, मूला. ८१ बारसविहं पुराणं २०९ ष. खं. पु. १, १२, १०७. पृ. ११२ आव. सू. ४८ परबाहत्तरिवासाणि ११२ क. पा. १ ४७ सत्तसहस्साणवसद १३३ पृ.७७ ८-सत्ता जंतू य माई य २२० अं.प. २, ८७ ४२ बुद्धि-तव विउव्वणो- १२८ १८ बुद्धि तवो वि य लद्धी ५८ ६० सत्ता सव्वपयत्था .. २७१ पंचा. ८. भरहम्मि अद्धमासो २५ म. बं. १, पृ. ५७ सत्तेतालसहस्सा १५८ २१. गो. जी. ९९ सप्तदिनान्यध्ययनं २५५ ४०६ नं. सू. १५ सव्वं च लोयणालि....२६ म. यं १, पृ. गा. ५. आव. २३, गो. जी. सू. ३४ ४३२ ३४ मणुवत्तणसुहमउलं १२३ क. पा. १, ३० सुरमहिदो च्चुद- १२२ क. पा. १, पृ. ७८ ११३ मध्याह्ने जिनरूपं २५७ १२३ सूई मुद्दा पडियो २६० ष. खं. पु. १, १०४ मानुषशरीरलेशा २५६ पृ. १५४. ६५ मिथ्यासमूहो मिथ्या १८२ आ. मी. १०८ | ११६ सैवापराह्नकाले' २५८ ।। २५ मिश्रधने अष्टगुणो ८८ १२६ सोहम्मे माहिदे २९५ ६४ य एव नित्य-क्षणिका-१८२ बृ. स्व. ६१. १२८ , १९८ ६३ यथैककं कारकमर्थ , वृ. स्व. ६२. १३० सोहम्मे सत्तगुणं ३०० ९६ यमपटहरवश्रवणे २५५ ५९ स्याद्वादप्रविभक्तार्थ १६७ आ. मी. ५५ १०८ युक्त्या समधीयानो २५७ | ९२ हेतावेवंप्रकारादौ २३७ अने. ना. ३९ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ न्यायोक्तियां २३७ क्रम संख्या न्याय १ अप्पिदपजायपढमसमयप्पहुडि आचरिमसमयादो एसो वट्टमाणकालोत्ति णायादो। २४३ २ अर्थाभिधान-प्रत्ययास्तुल्यनामधेया इति न्यायात्तस्य ग्रहणं सिद्धम्।। ३ जहा उद्देसो तहा णिद्देसो त्ति णायादो ठवणकदिपरूवणा चेव... । २४८ ४ न एकगमो नैगम इति न्यायात्... । ५ यदस्ति न तद्वयमतिलंध्य वर्तत इति संग्रह-व्यवहारयोः परस्परविभिन्नोभयविषयावलम्बनो नैगमनयः । १८१ ४ ग्रन्थोल्लेख ३१० १ खुद्दाबंध १ अणुद्दिसाणुत्तरदेवाणमुक्कस्संतरं बेसागरोवमाणि सादिरेयाणि त्ति खुद्दाबंधसुत्तादो णव्वदे। २ खेत्ताणिओगद्दार . १ खेत्ताणिओगद्दारे बादरेइंदियपज्जत्तपस्स... । २१ ३ गाथासूत्र १ जद्देही सुहमणिगोदस्स जहण्णोगाहणा तद्देहिं चेव जहण्णोहिखेत्तमिदि भणंतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। २२ २ जद्देहं सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणा तद्देहं जहण्णोहिक्खेत्तमिदि भणंतेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ૨૪ ४ तत्त्वार्थसूत्र १ प्रमाण-नयैर्वस्त्वधिगम इत्यनेन सूत्रेणापि नेदं व्याख्यानं विघटते । १६४ ५ परिकर्म १ तण्ण घडदे, परियम्मे वुत्तओहिणिबद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो। २ जदि सुदणाणिस्स विसओ अणंतसंखा होदि तो जमुक्कस्ससंखेज्जं विसओ चोद्दसपुव्विस्से त्ति परियम्मे उत्तं तं कधं घडदे ? ६ महाकम्मपयडिपाहुड १ महाकम्मपयडिपाहुडमुवसंहरिऊण छखंडाणि कयाणि । ५६ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७ वर्गणसूत्र १ ओगाहणा जहण्णा... त्ति वग्गणासुत्तादो णव्वदे | २ ओहिणाणावरणस्स असंखेज्जलोगमेत्तीओ चेव पयडीओ त्ति वग्गणासुत्तादो । ३ ' कालो चउण्ण वड्डी...' एदम्हादो वग्गणासुत्तादो णवदे । ४ एयंतेणेवमिच्छिज्जमाणे वग्गणाए गाहासुत्त उत्तखेत्ताणमणुप्पत्तिप्प संगादो । ५ सव्वत्थोवो ओरालियसरीरस्स विस्सासोवचओ ... त्ति वग्गणाए सुत्तम्मि अनंतगुणत्त सिद्धीदोति । ( ८ ) ६ माणुसुत्तरसेलस्स अब्भंतरदो चेव जाणदि णो बहिद्धा त्ति वग्गणसुत्तेण णिद्दित्तादो... | ८ वेदना १ वेयणाए उवरिमभण्णमाणओगाहणप्पा बहुगादो णव्वंदे | ९ व्याकरण सूत्र १ आई - मज्झतवण्ण-सरलोवो ति लक्खणादो । २ एए छच्च समाणा त्ति लक्खणादो । १० सन्मतिसूत्र १ ण च सम्म सुत्तेण सह विरोहो...। २ इच्चेपण सम्मइसुत्तेण सह विरोहो होदि ति उत्ते ण होदि... । ११ संतकम्मपयडिपाहुड १. संतकम्मपय डिपाहुडं मोत्तूण सोलसवदियअप्पा बहुअदंडप पहाणे कदे ... । १२ सारसंग्रह १ तथा सारसंग्रहेऽप्युक्तं पूज्यपादैः १३ सूत्र १ कालमसंखं संखं च धारणा ( आ. नि. ४ ) त्ति सुत्तुवलंभादो । १४ सूत्रगाथा १ तेया कम्मसरीरं... । इच्चेदीप सुप्तगाहाए सह विरोहादो । १५ अनिर्दिष्टनाम १ 'सकलादेश प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः' इति प्रतिपादयता नानेनापीदं व्याख्यानं विघटते । २ स एस याथात्म्योपलब्धिनिमित्तत्वाद् भावानां श्रेयोऽपदेशः । १६ २८ २९ ३१ ३७ ६८ १७ ९५ 33 २४३ २४४ ३१८ १६७ ५३ ३८ १६५ १६६ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ऐतिहासिक नाम-सूची। शब्द पृष्ठ 98 शब्द पृष्ठ जय मतंग अपराजित अभय अयस्थूण अश्वलायन अष्टपुत्र इन्द्रभूति उलूक ऋषिदास पलाचार्य पलापुत्र ऐतिकायन ऐन्द्रदत्त औपमन्यव कण्व कापल कंस काणविद्धि कार्तिक किष्कविल कुथुम कौत्कल २०१ 30 १३० जम्बू भट्टारक १३० । भद्रबाहु १३० २०२ भूतबाल १०३, १३३ २०३ जयपाल २०१ जैमिनी २०३ मरीचिकुमार २०३ २०१ त्रिशला महावीर १२० १२९ धन्य २०२ माठर २०३ २०३ धरसेन भट्टारक १३३ माध्यंदिन २०२ धरसेनाचार्य १०३ मांथपिक १२६ धर्मसेन १३१ मुण्ड २०३ धृतिषण मोद ध्रुवसेन मौद्गल्यायन नक्षत्राचार्य यमलीक यशोबाहु नन्दन यशोभद्र नन्दि-आचार्य १३० रामपुत्र नमि २०१ रोमश २०३ २०३ नाग १३१ रोमहर्षणि नारायण २०३ लोहाचार्य १३१, १३३ २०१ पाण्डु लोहार्य आचार्य १३० २०३ पाराशर वर्धमान १०३ पालम्ब २०१ वलीक २०१ पिप्पलाद २०३ वशिष्ठ २०३ पुष्पदन्त १३३ पूज्यपाद १६५, १६७ वाद्वलि २०३ प्रभाचन्द्र भट्टारक १६६ वारिषेण २०२ १३० प्रोष्ठिल वाल्मीकि २०३ १२, ५३, १०३ बल्कलि २०३ विजय २०२ बादरायण विशाखाचार्य २०३ । बुद्धिल्ल १३१ | विष्णु आचार्य १३० ० २०२ ० ० ५ कौशिक वसु क्षत्रिय गंगदेव गार्य गोवर्धन गौतम चिलातपुत्र जतुकर्ण Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) परिशिष्ट शब्द शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ वृषभसेन व्याघ्रभूति व्यास शक नरेन्द्र शाकल्य शालिभद्र ३, ८३ | सत्यदत्त समन्तभद्र सात्यमुनि १३२, १३३ सिद्धार्थ २०३ सुदर्शन २०२ | सुनक्षत्र २०३ | सुभद्राचार्य १६७ सोमिल २०३ स्विष्टिकृत् १२१, १३१ २०१ हरिश्मश्रु २०१ २०३ २०२ | हारित ६ भौगोलिक शब्द-सूची। शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ ऊर्जयन्त ऋजुकूला नदी कुण्डलपुर गिरिनगर ९,१०२ चन्द्रगुफा १२४ चम्पा १२१ | चम्पानगर १३३ । जूंभिका ग्राम १३३ | पंचशैल ९,१०२ पावानगर १०२ भरतक्षेत्र १२४ मानुषोत्तर ११३ ९, १०२ ११९, १३० ६७ ७ पारिभाषिक शब्द-सूची। शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ ६२ अ अद्वैत १७० अनुक्तप्रत्यय १५४ अक्षिप्र १५२ अध्रुव प्रत्यय १५४ अनुगम १४१, १६२ अक्षीणमहानस अनङ्गश्रुत १८८ अनुत्तरविमानवासी ३३ अक्षीणावास १०२ अनन्तज्ञान अनुत्तरोपपादिकअक्षौहिणी अनन्तबल ११८ दशांग २०२ अग्रायणी पूर्व १३४, २१२ | अनन्तावधि ५२ अनुप्रेक्षणा २६३ अघातायुष्क अनन्तावधिजिन अनुमान ११४ । अघोरगुणब्रह्मचारी ९ अनवस्था २६२ । अनुसारी ५७, ६० अज्ञानिकदृष्टि २०३ | अनस्तिकाय १६८ अनेकान्त १५९ अणिमा | अनादिकसिद्धान्तपद १३८ । अन्तकृत् अतिप्रसंग ६,५९,९३, । अनिःसृत १५२ | अन्तकृद्दशांग Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द शब्द पृष्ठ ६२ १८१ १९७ एकविध १५२ १ १४० ह अन्तरिक्ष अंग ७२ उपासकाध्ययन २०० भप्रतिपाती अंगश्रुत उभयसारी अप्राप्तार्थग्रहण आ ऋ अभिन्नदशपूर्वी आकाशगता ऋजुमति अमृतम्रवी १०१ आकाशगामी ८०,८४ २७२,५४४ अर्थकर्ता ૧૨૭ आकाशचारण ८०,८४ अर्थक्रिया १४२ आक्षेपिणी एकप्रत्यय अर्थनय आचारांग १९७ एकविध १५२ अर्थपद १९६ आत्मप्रवाद एवम्भूतनय अर्थपर्याय १४२, १७२ आदानपद १३५, १३६ अर्थसम २५९, २६१,२६८ आनुपूर्वी १३४ ओवेल्लिम अर्थाधिकार २७२, २७३ आमाँषधिप्राप्त ९५ अर्थापत्ति २४३ आशीविष ८५, ८६ अर्थावग्रह १५६ त्पत्तिकी अवक्तव्यकृति २७४ औदयिक इतरेतराश्रय ११५ अवगाहना अवग्रह १४४ कपाट २३६ अवग्रहजिन ईशित्व करणकृति ३२४ अवधिजिन १२, ४० १४४, १४६ कर्ता १०७ अवधिज्ञान ईहाजिन कर्म अनुयोगद्वार २३२ अवयव कर्मजा प्रक्षा अवसर्पिणी उक्त प्रत्यय १५४ कर्मप्रवाद २२२ अवस्थितगुणकार ४५ उग्रतप कर्मस्थितिअनुयोग- २३६ अवस्थितोपतप ८७, ८९ उग्रोग्रतप कलासवर्ण २७६ अवाय १४४ उत्तरोत्तरतंत्रकर्ता १३० कल्प्यव्यवहार १९० अवायजिन उत्पादपूर्व २१२ कल्प्याकल्प्य भविभागप्रतिच्छेद १६९ उत्सर्पिणी कल्याणनामधेय ૨૨૨ सर अशुद्ध ऋजुसूत्र २४४ उत्सेधांगुल १६ कामरूपित्व अष्ट महामंगल १०९ उदयअनुयोगद्वार २३४ कायबली अष्टांगमहानिमित्त ७२ उद्वेल्लिम २७२, २७३ कार्मणवर्गणा असंख्यातगुणश्रेणि ३,६ उपक्रम १३४ काललब्धि असंयम उपक्रमअनुयोगद्वार २३३, कालसंयोग स्तिकाय १६८ उपनय १८२ काष्ठकर्म २४९ अस्तिनास्तिप्रवाद २१३ उपलक्षण १८४ कुट्टिकार २७६ महोदिम २७२, २७३ । उपादानकारण ११५ | कुलविद्या ६२ ६२ १३७ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) शब्द पृष्ठ कृति १३४, २३२, २३७, २७४, ३२६, ३५९ कृतिकर्म ६१, ८६, १८९. ५४ कृतिकर्मसूत्र केवलकाल केवलज्ञानी केवलदर्शनी केवललब्धि कोष्ठबुद्धि क्रियावाददृष्टि क्रियाविशाल क्षणिकान्त क्षपक क्षपित क्षायिक क्षिप्र क्षीरस्रवी क्षेत्रकाल गुणकार क्षेत्रसंयोग खेौषधि क्षपितकर्माशिक ३४२, ३४५ गणधर गणनकृति गतिनिवृत्ति गारव गुण गुणित गृहकर्म गृहछली गौण्य गौण्यपद ग्रन्थकर्ता ग्रन्थकृति ख १२० ११८ ग 33 ११३ ५३, ५४ शब्द ग्रन्थसम ग्रन्थिम वातायुष्क घोर गुण घोरतप १२७, १२८ घोरपराक्रम घोषसम २०३ च २२४ | चतुरमल बुद्धि २४७ चतुर्दश पूर्वी १० चतुर्विंशतिस्तव १५ | चन्द्रप्रशति चयनलब्धि ४२८ चारण १५२ ९९ चूर्ण परिशिष्ट चित्रकर्म ४५ चूलिका १३७ | चैत्यवृक्ष च्यावितदेह ९६ च्युतदेह घ छ छद्मस्थकाल छिन्न छिन्नस्वप्न ३, ५८ २७४ २७६ કર્ १३७ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति १५ जलगता १५० जलचारण १०७, १०८ जल्लोषधिप्राप्त १३५, १३६ | जहत्स्वार्थवृत्ति १३८ जंघाचारण जातिविद्या ३२१ जित ज पृष्ठ २६०, २६८ | जिन २७२ ज्ञातृधर्मकथा ८८ ९. ३ ९२ ९३ तन्तुचारण २६१, २६९ |तपविद्या २२७ ७८ २४९ २७३ शब्द २०९ ११० २६९ 33 तप्ततप तीर्थ ५८ तीर्थकर ७० १८८ | त्यक्तदेह -२०६ त्रिकोटिपरिणाम १२० ७२, ७३ EL ज्ञान ज्ञानप्रवाद ज्ञानावरण पृष्ठ १० २०० ८४, १४२, १८६ २१६ १०८ त्रिरत्न दण्ड दन्तकर्म दर्शनावरण ९६ | दृष्टिविष १६० | देशजिन ७०. देशसिद्ध देशावधि ७७ २५२, २६८ | द्रव्यकृति त दुःषमकाल २०६ दुःषमसुषम २०९ दृष्टिअमृत ७९ | दृष्टिप्रवाद २, ७९ ७७ ९१ १०९, ११९ १६२, २२८, २४७ R द ५७, ५८ २६९ दशपूर्वी दशवैकालिक दिव्यध्वान दीप्ततप ९० दीर्घ ह्रस्वअनुयोगद्वार २३५ दुर्णय १८३ १६६ २३६ २५० १०८ ६९ १९० १२० ११९ ८६, ९४ २०३ ८६, ९४ १० १०२ १४ २५० Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शब्द-सूची शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द २६८ ३२७ द्रव्यजिन नैयायिक ३२३ | प्रतरांगुल द्रव्यसंयोग १३७ नोकृति प्रतिक्रमण द्रव्यसंयोगपद नोगौण्य प्रतिगुणकार . ४५ द्रव्यसूत्र प्रतिपक्षपद १३६ द्रव्यार्थिक १६७, १७० प्रतिसारी द्वादशांग ५६, ५८ पदमीमांसा १४२ प्रतीच्छना २६२ द्विचरमसमानवृद्धि ३४ पदानुसारी ५९,६० प्रत्यक्ष ५५, १४२ द्वीप-सागरप्रज्ञप्ति २०६ । परमावधि १४, ४१ प्रत्यभिज्ञान परस्थान-अल्पबहुत्व प्रत्याख्यान २२२ धर्मकथा ४२९, ४३८ प्रथमानुयोग २०८ २६३ पराक्रम प्रमाण धारणा १३८,१६३ ९३ १४४ धारणाजिन प्रमाणपद ६०,१३६, १९६ परिचित ६२ परिजित प्रश्नव्याकरण १५४ २०२ ध्रुव प्रत्यय परिवर्तना २६२ प्राकाम्य ७६,७९ परिशातनकृति प्राणावाय २२४ नय १६२, १६६ परोक्ष प्राधान्यपद नवनिधि १०९, ११० पर्यायार्थिक प्राप्तार्थग्रहण १५७, १५९ नामकृति २४६ पश्चादानुपूर्वी १३५ प्राप्ति नामजिन पंचमुष्टि १२९ प्राभृत १३४ नामपद पारिणामिकी १८२ प्रामाण्य १४२ नामसम २६०,२६९ पुण्डरीक नामोपक्रम १३५ पुद्गलात्त फलचारण ७९ निकाचित-अनिकाचित२३५ पुष्पचारण ७९ निक्खोदिम २७२, २७३ पुष्पोत्तर विमान निक्षेप ६,१४० पूरिम २७२, २७३ बन्धानुयोगद्वार २३३ नित्यैकान्त २४७ पूर्वकृत् २०९ । बहु निधत्त अनिधत्त २३५ पूर्वानुपूर्वी १३५ - बहुविध १५१ निबन्धन अनुयोगद्वार २३३ पृच्छना २६२ बीजचारण निरुपक्रमायु पेज्जदोस १३३ बीजपद ५६, ५७,५९, निर्ग्रन्थ ३२३, ३२४ पोत्तकर्म ૨૪૨ ६०, १२७ निर्जरा प्रकृतिअनुयोगद्वार २३२ बीजबुद्धि निर्वेदिनी २०२ प्रक्रमअनुयोगद्वार २३३ बौद्ध ३२३ निषिद्धिका प्रज्ञा ८२, ८३, ८४ निःसृत १५३ प्रज्ञाश्रवण ८१, ८३ भवधारणीय २३५ १७१,१८१ । प्रतर २३६। भाव १३७, १३८ ७५ ३ नेगम Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४) परिशिष्ट शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ शब्द पृष्ठ २४९ भौम ४१ भावजिन विपाकसूत्र २०३ भावसंयोग १३७, १३८ लक्षण विपुलमति ७२, ७३ भित्तिकर्म २५० विलेपन २७३ लधिमा ७५ भिन्नदशपूर्वी विष्ठौषधिप्राप्त लयनकर्म भेंडकर्म २५० लेप्यकर्म विनसोपचय १४, ६७ ७२,७३ वीतराग लेश्याअनुयोगद्वार २३४ वीर्यप्रवाद लेश्याकर्मअनुयोगद्वार , वेदना २३२ मधुम्रवी १०० लेश्यापरिणाम वेदनाखण्ड मध्यदीपक ४४ लोकपूरण २३६ वेदिम २७२, २७३ मध्यम पद ६०, १९५ लोकबिंदुसार २२४ वैदिकभावश्रुतग्रन्थ ३२२ मनोद्रव्यवर्गणा २८, ६७ लोकायत ३२३ वैनयिक १८९ मनोबली लौकिक भावश्रुत ३२२ वैनयिकदृष्टि २०३ महाकल्प्य वैनयिकी महातप वैशेषिक ३२३ वक्तव्यता महापुण्डरीक वचनबली व्यञ्जन ७२,७३ महाबन्ध वज्रर्षभनाराचसंहनन १०७ व्यञ्जन पर्याय १७२, २४३ महावत वन्दना १८८ व्यञ्जनावग्रह महिमा व्यतिकर २४० वर्गणा मंगल २,१०३ २७३ वर्ण व्यभिचार १०७. मंगलदण्डक १०६ वर्धमान ११९,१२६ व्यवहारनय मायागता २१० वशित्व व्याख्याप्रज्ञति २००, २०७. मालास्वप्न ७४ मिथ्यात्व वस्तु १३४ वाइम २७२ शककाल मिथ्यादृष्टि १८२ शब्द नय वाक्प्रयोग १७६,१८१ मीमांसक ३२३ वाग्गुप्ति २१६ शुद्ध ऋजुसूत्र २४४ मोक्ष वाचना २५२,२६२ शैलकर्म २३४ मोक्ष अनुयोगद्वार वाचनोपगत ૨૬૮ शैलेश्य ३४५ विकलप्रत्यक्ष १४३ श्रुत ३२२ यथा-तथानुपूर्वी १३५ विकलादेश १६५ श्रुतकेवली यावद्रव्यभावी ११६, ११७ विक्रियाप्राप्त श्रुतज्ञान १६० विक्षेपिणी २०२ श्रेणिचारण विद्याधर रूपगता __२१० |विद्यानुवाद ७१, २२३ षट्खण्ड .१३३ रोहिणी ६९ | विद्यावादी १०८, ११३ 'षष्ठोपवास १२४ ११७ ७५ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिभाषिक शन्द्-सूची शब्द शब्द पृष्ठ शब्द लोपक्रमायु स्तव स्तुति " | संकर २४० २०७, २५९ सकलजिन १० संक्रमअनुयोगद्वार २३४ सूत्रकृतांग सकलप्रत्यक्ष संग्रह नय १७० सूत्रसम २५९,२६१,२६८ सकलश्रुतधारक १३० | संघातनकृति ३२६ सूर्यप्राप्ति २०६ सकलादेश संघातन-परिशातन ३२ सत्यप्रवाद २१६ संघातिम २७२, २७३ सौधर्मइन्द्र १९३, १२९ सप्तभंगी संभिन्नश्रोता ५९, ६१, ६२ २६३ समचतुरस्रसंस्थान १०७ संयम समभिरूढ नय ११७ स्थलगता समवसरण ११३, १२८ संयोग १३७ स्थान समवायांग संवेदिनी २०२ स्थानांग समानवृद्धि ३४ सातासात २३५ स्थापनाकृति ૮ सम्यक्त्व सामायिक १८८ स्थापनाजिन सम्यग्दृष्टि स्थित २५२, २६८ सामायिकभावश्रुत ३२३ सर्पिस्रवी स्पर्श अनुयोगद्वार २३३ सर्वज्ञ सांख्य स्मृति १४२ सर्वसिद्ध सिद्ध स्याद्वाद सर्वार्थसिदि सिखायतन स्वप्न ७२,७४ सर्वावधि १५,४७ सुनयवाक्य ૨૮૩ स्वर ર सर्वावधिजिन सुषमसुषमा स्वसंवेदन सर्वोपधिमाप्त सूज्यंगुल स्वस्थानभरपवस्व ५२९ ११९ - Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य उद्धारक फंड तथा कारंजा जैन ग्रंथमालाओंमें प्रो. हीरालाल जैन द्वारा आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित होकर प्रकाशित जैन साहित्यके अनुपम ग्रंथ प्रत्येक ग्रंथ सुविस्तृत भूमिका, पाठभेद, टिप्पण व अनुक्रमणिकाओं आदिसे खूब सुगम और उपयोगी बनाया गया है। १षट्खंडागम-[धवलसिद्धान्त ] हिन्दी अनुवाद सहित पुस्त: 1, जीवस्थान-सत्प्ररूपणा, पुस्तकाकार व शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 2, " पुस्तकाकार 10), शास्त्राकार (अप्राप्य ) पुस्तक 3-8 (प्रत्येक भाग) , 10, 12) पुस्तक 9, कृति-अनुयोगद्वार , 10, , 12) यह भगवान् महावीर स्वामीकी द्वादशांग वाणीसे सीधा संबन्ध रखनेवाला, अत्यन्त प्राचीन, जैन सिद्धान्तका खूब गहन और विस्तृत विवेचन करनेवाला सर्वोपरि प्रमाण ग्रंथ है। श्रुतपंचमीकी पूजा इसी ग्रंथकी रचनाके उपलक्ष्यमें प्रचलित हुई / 2 यशोधरचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... / इसमें यशोधर महाराजका अत्यंत रोचक वर्णन सुन्दर काव्यके रूपमें किया गया है / इसका सम्पादन डा. पी. एल. वैद्य द्वारा हुआ है। 3 नागकुमारचरित-पुष्पदंतकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... ) इसमें नागकुमारके सुन्दर और शिक्षापूर्ण जीवनचरित्र द्वारा श्रुतपंचमी विधानकी महिमा चतलाई गई है / यह काव्य अत्यन्त उत्कृष्ट और रोचक है / 4 करकंडुचरित-मुनि कनकामरकृत अपभ्रंश काव्य... ... ... ... ... ) इसमें करकंडु महाराजका चरित्र वर्णन किया गया है, जिससे जिनपूजाका माहात्म्य प्रगट होता है। इससे धाराशिवकी जैन गुफाओं तथा दक्षिणके शिलाहार राज वंशके इतिहास पर भी अच्छा प्रकाश पड़ता है। 5 श्रावकधर्मदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... ... ... ... 3 इसमें श्रावकोंके व्रतों व शीलोंका बड़ा ही सुन्दर उपदेश पाया जाता है। इसकी रचना दोहा छंदमें हुई है। प्रत्येक दोहा काव्यकलापूर्ण और मनन करने योग्य है। 6 पाहुडदोहा-हिन्दी अनुवाद सहित... ... 30) इसमें दोहा छंदोंद्वारा अध्यात्मरसकी अनुपम गंगा बहाई गई है जो अवगाहन करने योग्य है। प्रकाशक-श्रीमन्त सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द, मुद्रक-टी. एम्. पाटील, मॅनेजर, Jan Education internजैन साहित्य उदारक फंड, जची-बजाजी, अमरावती-TUESDAR सरस्वती प्रेस, अमरावती.