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१, १, १७.] कदिअणियोगदारे णयविभासणदा
[२३९ णामादिववहाराणं दुविहणयावलंषणतजाणावणं किंफलं । एदेसि ववहाराणं सच्चत्तपण्णवणफलं'। ण च दुविहणयणिबंधणो संववहारो चप्पलओ, अणुवलंभादो। ण च दुग्णयाणं सच्चत्तमस्थि, णिसिद्धपडिवक्खविसयाणं सगविसयाभावादो सच्चत्ताभावादो। तदो ण दुण्णया संववहारकारणं । सुणया कधं सविसया ? एयंतेण पडिवक्खणिसहाकारणादो गुण-पहाणभावेण ओसारिदपमाणबाहादो । एयतो अवत्थू कधं ववहारकारण ? एयतो अक्त्थू ण संववहारकारणं किंतु तक्कारणमणेयंतो पमाणविसईकओ, वत्थुत्तादो । कथं पुण णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि १ वुच्चदे- को एवं भणदि णओ सव्वसंववहाराणं कारणमिदि । पमाणं पमाणविसई
__ शंका-ये नामादिक व्यवहार दो प्रकारके नयोंके आश्रित हैं, यह बतलानेका क्या प्रयोजन है?
समाधान-इसका प्रयोजन नामादिक व्यवहारोंकी सत्यता प्रगट करना है।
यदि कहा जाय कि दोनों प्रकारके नयोंके निमित्तसे होनेवाला संव्यवहार मिथ्या है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा पाया नहीं जाता। और दुर्नयोंके सत्यता हो नहीं सकती, क्योंकि, वे प्रतिपक्षभूत विषयोंका सर्वथा निषेध करते हैं। इसीलिये स्वविषयोंका भी अभाव होनेसे उनके सत्यता रह नहीं सकती। इसी कारण दुर्नय संव्यवहारके कारण नहीं है।
शंका-सुनयोंके अपने विषयों की व्यवस्था कैसे सम्भव है ?
समाधान- चूंकि सुनय सर्वथा प्रतिपक्षभूत विषयोंका निषेध नहीं करते, भतः उनके गौणता और प्रधानताकी अपेक्षा प्रमाणबाधाके दूर कर देनेसे उक्त विषयव्यवस्था भले प्रकार सम्भव है।
शंका-जब कि एकान्त अवस्तु स्वरूप है तब वह व्यवहारका कारण कैसे हो सकता है?
समाधान-अवस्तु स्वरूप एकान्त संव्यवहारका कारण नहीं है, किन्तु उसका कारण प्रमाणसे विषय किया गया अनेकान्त है; क्योंकि वह वस्तु स्वरूप है।
शंका-यदि ऐसा है तो फिर सब संव्यवहारोंका कारण नय कैसे हो सकता है ! समाधान-इसका उत्तर कहते हैं, कौन ऐसा कहता है कि नय सब संन्यवहारोंका
१ प्रतिषु ' -पण्णवण्यफलं 'इति पाठः ।
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