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१२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, १, ३. णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, देसोहीदो चेव परमोहिसरूवावगमो, ण अण्णहा त्ति जाणावणटुं देसोहीए पुव्वं णमोक्कारकरणादो, परमोहिसरूवावगमणिमित्तत्तणेण परमोहिं पेक्खिय महल्लसादो वा । कथं देसोहीदो परमोहिसरूवमवगम्मदे ? उच्चदे एत्थ सुत्तगाहा
परमोहि असंखेज्जाणि लोगमेत्ताणि समयकालो दु ।
वगद लहइ दव्वं खेत्तोवमअगणिजीवेहि ॥ १६ ॥ एदीए गाहाए परमोहिदव्व-खेत्त-काल-भावाणं परूवणा कदा । तं जहा- परमावधिरसंख्येयानि लोकमात्राणि लोकप्रमाणानि लभते जानातीत्यर्थः । एदेण खेत्तपमाण परूविदं । नमस्कार क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, देशावधिसे ही परमावधिके स्वरूपका ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं होता; इस बातके ज्ञापनार्थ देशावधिको पूर्वमें नमस्कार किया है । अथवा परमावधिके स्वरूपके जाननेका निमित्त होनेसे परमावधिकी अपेक्षा चूंकि देशावधि महान् है, अतः उसे पहिले नमस्कार किया है।
शंका-देशावधिसे परमावधिके स्वरूपका शान कैसे होता है ? समाधान-यहां सूत्र गाथा कहते हैं
परमावधि उत्कर्षसे क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यात लोकमात्रों और कालकी अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र समय रूप कालको जानता है। वही [ शलाकाभूत ] क्षेत्रोपम अग्निकायिक जीवोंसे परिच्छिन्न रूपगत द्रव्यको उत्कर्षसे विषय करता है ॥ १६ ॥
विशेषार्थ-परमावधिका विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र असंख्यात लोक प्रमाण है और उत्कृष्ट काल भी असंख्यात लोक मात्र ही है। उसीके विषयभूत उत्कृष्ट द्रव्यको जाननेके लिये निम्न प्रक्रिया है-तेजकायिक जीवकी जघन्य अवगाहनाको उसकी ही उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे घटाकर शेषमें एक रूप मिला देनेपर जो प्राप्त हो उसे तेजकायिक राशिसे गुणा करनेपर शलाका राशि उत्पन्न होती है। अब देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्यमें मनोवर्गणाके अनन्तवें भाग रूप ध्रुवहारका वार वार भाग देकर शलाका राशिमेंसे एक एक कम करते जाना चाहिये । इस प्रकार शलाका राशिके समाप्त होनेपर अन्तमें जो द्रव्यविकल्प प्राप्त होता है वह रूपगत है, और वही परमावधिका उत्कृष्ट विषय है। यही शलाका राशि परमावधिके विषयभूत क्षेत्र, काल एवं भावके विकल्पोंके जानने में भी निमित्त है।
इस गाथा द्वारा परमावधिके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी प्ररूपणा की गई है। वह इस प्रकारसे- परमावधि असंख्यात लोक मात्र अर्थात् लोक प्रमाणोंको प्राप्त करता है, जानता है। इससे क्षेत्रप्रमाणकी प्ररूपणा की है। समय ऐसा जो काल वह समय
१ महाबंध १, पृ. २२. परमोहि असंखेज्जा लोगमित्ता समा असंखिज्जा। रूवगयं लहइ सव्वं खेचोवमियं बगनिजीवा ॥ विशे. मा. ६८८ (नि. ४५).
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