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________________ १९. 1 - छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४५. दसवेयालियं दव्व-खेत्त-काल-भावे अस्सिदूण आयार-गोयरविहिं' वण्णेदि । उत्तरज्झयणं उग्गमुप्पायणेसणदोसगयपायच्छित्तविहाणं कालादिविसेसिदं परूवेदि। कप्पववहारो साहूण जे जम्हि काले कप्पदि पिच्छ-कमंडलु-कवली-पोत्थयादि परूवेदि, अकप्पसेवणाए कप्पस्स असेवयणाए च पायच्छित्तं परूवेदि । कप्पाकप्पियं साहूणं जं कप्पदि नाम अवनति है। यह अवनति एक पंचनमस्कारके आदिमें और एक चतुर्विंशतिस्तवके आदिमें, इस प्रकार प्रकार दो वार की जाती है । मन, वचन व कायके संयमन रूप शुभ योगोंके वर्तनेका नाम आवर्त ( दोनों हाथ जोड़कर उनको अग्रिम भागकी ओरसे चक्राकार घुमाना) है। पंचनमस्कारमंत्रोच्चारण के आदि व अन्तमें तीन-तीन तथा चतुर्विंशतिस्तवके आदि व अन्तमें तीन-तीन, इस प्रकार बारह आवर्त किये जाते हैं। अथवा, चारों दिशाओंमें घूमते समय प्रत्येक दिशामें एक-एक प्रगाम किया जाता है । इस प्रकार तीन वार घूमनेपर वे बारह होते हैं। दोनों हाथ जोड़कर शिरके नमानेका नाम शिरोनति है । यह क्रिया पंचनमस्कार और चतुर्विंशतिस्तवके आदि व अन्तमें एक एक वार करनेसे चार वार की जाती है। यह कृतिकर्म जन्मजात बालकके समान निर्विकार होकर मन-वचन-कायकी शुद्धिपूर्वक किया जाना चाहिये । दशवैकालिक अनंगभुत द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावका आश्रयकर आचारविषयक विधि व भिक्षाटनविधिकी प्ररूपणा करता है । उत्तराध्ययन अनंगश्रुत उद्गमदोष, उत्पादनदोष और एषणदोष सम्बन्धी प्रायश्चितकी विधिको कालादिसे विशेषित प्ररूपणा करता है। कल्प्यव्यवहार श्रुत साधुओंको पीछी, कमण्डलु, कवली (ज्ञानोपकरणविशेष) और पुस्तकादि जो जिस काल में योग्य हो उसकी प्ररूपणा करता है, तथा अयोग्य सेवन और योग्य सेवन न करनेके प्रायश्चित्तकी प्ररूपणा भी करता है। कल्पयाकल्प्य श्रुत साधुओंको जो योग्य है [ और जो योग्य नहीं है ] उन १ प्रतिषु · गोयारविहिं ' इति पाठः । २. खे.पु. १, पृ. ९७. साहूणमायार-गोयरविहिं दसवेयालीय वण्णेदि। जयध. १, पृ. १२०. जदिगोचारस्स विहिँ पिंडवितुद्धिं च ज परूवेदि। दसवेयालियतुते दह काला जत्थ संवा ॥ अं. प. ३, २४, ३ मप्रतौ । विससिदव्व ' इति पाठः । ४ ष. खं. पु. १, पृ. ९७. चउबिहोवसग्गाणं बावीसपरिस्सहाणं च सहणविहाणं सहणफलमेदम्हादो एदमुत्तरमिदि च उत्तरज्झेणं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२०. अं. प. ३, २५-२६. ५१. खं. पु. १, पृ. ९७. रिसीणं जो कप्पइ ववहारो तम्हि खलिदे जं पायच्छित्तं तं च भणइ कप्पबवहारो। जयध. १, पृ. १२०. कप्पव्ववहारो जहिं ववहिज्जइ जोग कप्पमाजोगा। सत्थं अवि इसिजोगं भायरण कहदि सव्वत्थ । अं. प. ३, २७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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