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________________ २८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ६६. सिद्धियसरूवेण परिणामाभावादो । खइयसम्मादिट्ठि-केवलणाणि-केवलदंसणिणेवभवसिद्धि-णेवअभवसिद्धि-णेवसण्णि-णेवअसण्णीणं पढमापढमभंगो अस्थि । कारणं सुगमं । एवं पढमाणुगमो समत्तो। चरिमाणुगमं वत्तइस्सामो- चरिमाणुगमो अचरिमाणुगमेण सह वत्तव्यो, दोण्णमण्णोण्णाविणाभावादो । णेरड्या चरिमसमए सिया कदी, तिप्पहुडिसखेज्जासंखेज्जाणं णारगचरिमसमए कदाचिदुवलंभादो । सिया णोकदी, चरिमसमए वट्टमाणणारयस्स कदाचि एक्क. स्सेव दंसणादो। सिया अवत्तव्वं, कदाचि तत्थ दोण चेवुवलंभादो । णेरड्या अचरिमा णियमा कदी, तत्थ सुद्धेग-दोजीवाणमभावादो । एवं जधा पढमाणुगमा परूविदो तथा परूवेदव्यो । णवरि भवसिद्धिया अचक्खुदंसणी च चरिमसमए सिया, कदी सिया णोकदी, सिया अवत्तव्वं । कुदो ? एदेसिं चरिमस्स सांतरत्तुवलभादो । अचरिमसमए णियमा कदी। खइय. सम्माइटि-केवलणाणि-णेवभवसिद्धि-णेवअभवसिद्धि-णेवसण्णि-णेवअसण्णीणं चरिमाचरिमविसेसणं णस्थि, सिद्धाणमसिद्धत्तपरिणामाभावादो । एवं चरिमाणुगमो समत्तो । _संचयाणुगमं वत्तइस्सामो- एत्थ संतपरूवणा दव्वपमाणाणुगमो खेत्ताणुगमो परिणमन नहीं होता। क्षायिकसम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक तथा न संझी न असंशी जीवोंके प्रथमाप्रथम भंग है। कारण सुगम है । इस प्रकार प्रथमानुगम समाप्त हुआ। चरमानुगमको कहते हैं- चरमानुगमको अचरमानुगमके साथ कहना चाहिये, क्योंकि, दोनोंके परस्पर अविनाभाव है। नारकी जीव चरम समयमें कथंचित् कृति हैं, क्योंकि, तीनको आदि लेकर संख्यात व असंख्यात नारकी अन्तिम समयमें कदाचित् पाये जाते हैं । कथंचित् नोकृति हैं, क्योंकि, कदाचित् चरम समयमें वर्तमान नारकी एक ही देखा जाता है । कथंचित् अवक्तव्य हैं, क्योंकि, कदाचित् वहां दो ही नारकी पाये जाते हैं। ___ अचरम समयवर्ती नारकी नियमसे कृति हैं, क्योंकि, अचरम समयमें शुद्ध एक दो जीयोंका अभाव है। इस प्रकार जैसे प्रथमानुगमकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार प्ररूपणा करना चाहिये । विशेषता इतनी है कि भव्यसिद्धिक और अचक्षुदर्शनी चरम समयमें कथंचित् कृति, कथंचित् नोकृति और कथंचित् अवक्तव्य है; क्योंकि, इनके चरम समयके सान्तरता पायी जाती है । अचरम समयमें नियमसे कृति है । क्षायिकसम्यग्दृष्टि, केवलज्ञानी, न भव्यसिद्धिक न अभव्यसिद्धिक और न संझी न असंज्ञी जीवोंके चरमाचरम विशेषण नहीं है, क्योंकि, सिद्ध जीवोंके असिद्धत्ता रूप परिणमन करने का अभाव है। इस प्रकार चरमानुगम समाप्त हुआ। संचयानुगमको कहते हैं- इस संचयानुगमकी प्ररूपणामें सत्प्ररूपणा, द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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