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४, १, ६६. ]
कदिअणियोगद्दारे गणणक दिपढमाणुगमो
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कथमेइंदियाणं कायजोगीणं च णोकदि - अवत्तव्वकदीओ होंति ? ण, तसेहि पंचमण-वचिजोगेहि य सांतरमेइंदिय-काय जोगे सुष्पज्जंताणं तदुवलंभाद। । मणुसापज्जत्त-वे उब्विय मिस्साहार - दुग-सुहुमसांपराइय- उवसमसम्माइडि-सासणसम्माइट्ठि सम्मामिच्छाइट्ठी पढमापढमसमएस सिया कदी सिया णोकदी सिया अवत्तत्व्वा । कुदो ? सांतररासित्तादो | सव्वबादरेइंदिय- सव्वसुहुमेइंदिय - पुढविकाइय- आउकाइय ते उकाइय-वाउकाइय-वणफदिकाइय- णिगोदजीव-सव्वसुहुमबादरपुढविकाइय- बादरआउकाइय- बादरते उकाइय- बादरवा उकाइय- बादरवणप्फदिकाइय- बादरणिगोदजीव-पत्तेयसरीरा तेर्सि सव्वेसिमपज्जत्ता ओरालियकायजोगि-ओरालियमिस्स कायजोगि कम्मइयकाय जे गि- चत्तारिकसाय- किण्ण-णील- काउलेस्सिय- आहार- अणाहारा पढमा पढमसमएस णियमा कदी, एदेसु एग-दोजीवाणं' केवलाणं सव्वकालं पवेसाभावाद | अचक्खुदंसणीसु पढमाढमवियप्पो णत्थि, केवलदंसणीणमचक्खुदंसणीसरूवेण परिणामाभावादो । भवाभवसिद्धियाणं पिढमाढमभंगो णत्थि, सिद्धाणं भवसिद्धियसरूवेण परिणामाभावादो, भवसिद्धियाणमभव
शंका - एकेन्द्रियों और काययोगियोंके नोकृति और अवक्तव्यकृति कैसे सम्भव है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, क्रमसे त्रसों और पांच मनोयोगी एवं पांच वचनयोगियोंसे अन्तर सहित एकेन्द्रियों और काययोगियों में उत्पन्न होनेवाले जीवोंके नोकृति और अवक्तव्यकृति पायी जाती है ।
मनुष्य अपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्र, आहारकद्विक, सुक्ष्मसाम्परायिक, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि प्रथम और अप्रथम समयोंमें कथंचित् कृति, कथंचित् नोकृति और कथंचित् अवक्तव्यकृति हैं, क्योंकि, ये सान्तर राशियां हैं। सब बादर एकेन्द्रिय, सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, सब सूक्ष्म और बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, वादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद जीव और प्रत्येकशरीर तथा उन सबके अपर्याप्त, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, चार कपाय, कृष्ण, नील व कापोत लेश्यावाले, आहारक और अनाहारक, ये प्रथम व अप्रथम समय में नियमसे कृति हैं, क्योंकि, इनमें सर्व काल केवल एक दो जीवोंके प्रवेशका अभाव है । अचक्षुदर्शनियों में प्रथम व अप्रथम विकल्प नहीं है, क्योंकि, केवलदर्शनी जीव अचक्षुदर्शनी रूपसे परिणमन नहीं करते । भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंके भी प्रथम व अप्रथम विकल्प नहीं है, क्योंकि, सिद्ध जीवोंका भव्यसिद्धिक रूपसे परिणमन नहीं होता, तथा भव्यसिद्धिकोंका अभव्यसिद्धिक रूपसे
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१ प्रतिषु एदे गदो जीवाणं ' इति पाठः ।
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