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________________ २५८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,१,६६. अपढमाणुगमो वि कायव्यो । कुदो ? पढमापढमाणमण्णोण्णाविणाभावादो । णेरइया पढमसमए सिया कदी। कुदो ? णेरइयाणमुवक्कमणंतरं जहण्णण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेज्जावलियाओ, एदेणंतरेणुप्पज्जमाणणेरइयाणं तिप्पहुडिसंखेज्जाणमप्पणो आउपढमसमए उवलभादो । सिया जोकदी, एदेणेवंतरेणुप्पण्णपढमसमए कदाचि एक्कस्सेव जीवस्सुवलंमादो । सियावत्तव्वकदी, कदाचि णेरइयपढमसमए दोणं जीवाणं उवलंभादो। अपढमा कदी चेव, सगाउअविदियसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति एसो अपढमकालो; एत्थ ट्ठिदजीवाणं णियमेण सव्वकालमसंखेज्जतवलंभादो । एवं सवणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वदेव-मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणी-एइंदिय व्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि-बादरआउ-बादरतेउ-बादरवाउ-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्त-तस-तसपज्जत्तापज्जत्त-पंचमणजोगि-पंचवचिजोगिकायजोगि-वेउव्वियकायजोगि-इत्थि-पुरिस-णqसयावगदवेद-अकसाय-सव्वणाण-सामाइयच्छेदोवट्ठावण-परिहार-जहाक्खाद-संजमासंजम-संजम-चक्खुदंसणी-तेउ-पम्म-सुक्कलेस्सिय-सम्माइट्ठिखइय-वेदगसम्माइटि-मिच्छाइटि-सण्णि-असण्णीणं पि वत्तव्यमेदेसिमुवक्कमणतरदसणादो । यहां अप्रथमानुगम भी करना चाहिये, क्योंकि, प्रथम और अप्रथमके परस्पर अविनाभाव है। नारकी जीव प्रथम समयमें कथचित् कृति हैं, क्योंकि, नारकियोंके उपक्रमका अन्तर जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे संख्यात आवलियां है; इस अन्तरसे उत्पन्न होनेवाले नारकी अपनी आयुके प्रथम समयमें तीनको आदि लेकर संख्यात पाये जाते हैं। कथंचित् वे नोकृति है, क्योंकि, इसी अन्तरसे उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें कभी एक ही जीव पाया जाता है। कथंचित् वे अवक्तव्यकृति हैं, क्योंकि, कदाचित् नारकी होनेके प्रथम समयमें दो जीव पाये जाते हैं । अप्रथमसमयवर्ती नारकी कृति ही है, क्योंकि, अपनी आयुके द्वितीय समयसे लेकर अन्तिम समय तक यह अप्रथम काल है, इस कालमें स्थित जीव नियमसे सर्व काल असंख्यात पाये जाते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यंच, सब देव, मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, प्रस, प्रस पर्याप्त, बस अपर्याप्त, पांच मनोयोगी, पांच वचनयोगी, काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, अपगतवेद, अकषाय, सर्व शान, सामायिकछेदोपस्थापनासंयम, परिहारशुद्धिसंयम, यथाख्यातसंयम, संयमासंयम, संयम, चक्षुदर्शनी, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्हाधि, मिथ्यादृष्टि, संक्षी और असंशी, इनके भी कहना चाहिये, क्योंकि, इनके उपक्रमणका भन्तर देखा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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