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________________ ३०१] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ६६. सण्णीणं पंचिंदियपज्जत्तभंगो । असण्णीणमेइंदियभंगो । आहारा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्कस्सेण अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । अणाहारा कदिसंचिदा केवचिरं कालादो होति ? णाणाजीवं पडुच्च सबद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं कालाणुगमो समत्तो। ____ अंतराणुगमेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए णेरइएसु कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अणतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सव्वासु मग्गणासु कदि-णोकदिअवत्तव्वसंचिदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं । णवरि मणुसअपज्जत्त-वेउव्वियमिस्सआहारदुग--सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-उवसमसम्मादिहि-सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठी वज्जिदूण' । पढमादि जाव सत्तमपुढवि त्ति णिरयोघभंगो। तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिग-पंचिं संशी जीवोंकी प्ररूपणा पंचेन्द्रिय पर्याप्तोंके समान है। असंज्ञी जीवोंकी प्ररूपणा एकेन्द्रिय जीवोंके समान है। आहारक जीव कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे तीन समय कम ग्रहण और उत्कर्षसे अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात उत्सर्पिणी-अव. सर्पिणी काल तक रहते हैं। अनाहाराक कृतिसंचित कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे अन्तर्मुहूर्त तक रहते हैं । इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। __ अन्तरानुगमसे गतिमार्गणानुसार नरकगतिमें नारकियोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंका अन्तर कितने काल तक होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण अनन्त काल तक होता है। सब मार्गणाओंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। विशेष इतना है कि मनुष्य अपर्याप्त; वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक व आहारकमिश्र काययोगी, सूक्ष्मसाम्परायशुद्धिसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंको छोड़कर, अर्थात् इनको छोढ़कर शेष सब मार्गणाओंमें नाना जीाकी अपेक्षा अन्तर नहीं होता । प्रथम पृथिवीसे लेकर सप्तम पृथिवी तक अन्तरकी प्ररूपणा सामान्य नारकियोंके समान है। तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच आदि तीन और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त तीनों पद १ प्रतिषु ‘वविदूण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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