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________________ ४, १,६६. सागरोवमाणि सादिरेयाणि । भवसिद्धियाण अभवसिद्धियाणं च णत्थि कालणिद्देसो, भवसिद्धियाणमभवसिद्धियसरूवेण, अभवसिद्धियाणं पि भवसिद्धियभावेण परिणामाभावादो । अधवा अभवसिद्धियाणमणादिओ अपज्जवसिदो । एवं भवसिद्धियाणं पि वत्तव्वं । णवरि अणादिसपज्जवसिदभंगो वि अस्थि, णिव्वुदाणं भव्वत्ताभावादो । सम्माइट्ठीणमाभिणिबोहियभंगो । खइयसम्माइट्ठीसु तिणिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण तेत्तीससागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेदगसम्मादिट्ठीसु तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा । एगजीवं पडुच्च जहणणेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण छावट्टिसागरोवमाणि । उवसमसम्मादिट्ठि सम्मामिच्छादिट्ठीणं वेउव्वियमिस्सभंगो | सास सम्मादिट्ठी तिष्णिपदा केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्से छावलियाओ । मिच्छादिट्ठीणमसंजदभंगो | कदिअणियोगहारे कालाणुगमो तेतीस सागरोपमसे कुछ अधिक काल तक रहते हैं । भव्यसिद्धिक और अभव्यसिद्धिक जीवोंके कालका निर्देश नहीं है, क्योंकि भव्य सिद्धिक अभव्यसिद्धिक रूपसे और अभव्यसिद्धिक भी भव्यसिद्धिक रूपसे परिणमन नहीं करते । अथवा अभव्यसिद्धिकोंका काल अनादि-अपर्यवसित है । इसी प्रकार भव्यसिद्धिकोंके भी कहना चाहिये। विशेष इतना है कि उनके अनादि सपर्यवसित भंग भी है, क्योंकि, मुक्त होनेपर उनके भव्यत्वका अभाव हो जाता है । Jain Education International [ ३०३ 1 सम्यग्दृष्टियोंकी प्ररूपणा आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । क्षायिकसम्यदृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपमसे कुछ अधिक रहते हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना traint अपेक्षा सर्व काल रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से छयासठ सागरोपम काल तक रहते हैं । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंकी प्ररूपणा वैक्रियिकमिश्रकाय योगी जीवोंके समान है। सासादनसम्यग्दृष्टियों में तीनों पदवाले कितने काल तक रहते हैं ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे - पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल तक रहते हैं। एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे छह आवली तक रहते हैं। मिथ्यादृष्टियों की प्ररूपणा असंयत जीवोंके समान है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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