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________________ १, १, ४५.! कदिअणियोगदारे णयपरूवणा [१६३ अभिप्राय इत्यस्य कोऽर्थः: ? प्रमाणपरिग्रहीताथै कदेशवस्त्वध्यवसायः अभिप्रायः । युक्तितः प्रमाणात् अ द्रव्य-पर्याययोरन्यतरस्य अर्थ इति परिग्रहो वा नयः । प्रमाणेन परिछिन्नस्य वस्तुनः द्रव्ये पर्याये वा वस्त्वध्यवसायो नय इति यावत् । प्रमाणमेव नयः इति केचिदाचक्षते, तन्न घटते; नयानामभावप्रसंगात् । अस्तु चेन्न, नयाभावे एकान्तव्यवहारस्य दृश्यमानस्याभावप्रसंगात् । किं च न प्रमाणं नयः, तस्यानेकान्तविषयत्वात् । न नयः प्रमाणम् , तस्यैकान्तविषयत्वात् । न च ज्ञानमेकान्तविषयमस्ति, एकान्तस्यनीरूपत्वतोऽवस्तुनः कर्मरूपत्वाभावात् । न चानेकान्तविषयो नयोऽस्ति, अवस्तुनि वस्त्वर्पणाभावात् । किं च, न प्रमाणेन विधिमात्रमेवपरिच्छिद्यते, परव्यावृत्तिमनादधानस्य तस्य प्रवृत्तेः सांकर्यप्रसंगादप्रतिपत्तिसमानताप्रसंगो वा । न प्रतिषेधमात्रम् , विधिमपरिछिंदानस्य इदमस्माद् शंका-'अभिप्राय' इसका क्या अर्थ है ? समाधान-प्रमाणसे गृहीत वस्तुके एक देशमें वस्तुका निश्चय ही अभिप्राय है। युक्ति अर्थात् प्रमाणसे अर्थके ग्रहण करने अथवा द्रव्य और पर्यायमेंसे किसी एकको अर्थ रूपसे ग्रहण करनेका नाम नय है । प्रमाणसे जानी हुई वस्तुके द्रव्य अथवा पर्यायमें वस्तुके निश्चय करनेको नय कहते हैं, यह इसका अभिप्राय है। प्रमाण ही नय है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर नयोंके अभावका प्रसंग आता है। यदि कहा जाय कि नयोंका अभाव हो जाय, सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि, ऐसा होनेपर देखे जानेवाले एकान्त व्यवहारके लोप होनेका प्रसंग आवेगा। दूसरे, प्रमाण नय नहीं हो सकता, क्योंकि, उसका विषय अनेक धर्मात्मक वस्तु है। न नय प्रमाण हो सकता है, क्योंकि, उसका एकान्त विषय है । और ज्ञान एकान्तको विषय करनेवाला है नहीं, क्योंकि, एकान्त नीरूप होनेसे अवस्तु स्वरूप है, अतः वह कर्म नहीं हो सकता। तथा नय अनेकान्तको विषय करनेवाला नहीं है, क्योंकि, अवस्तुमें वस्तुका आरोप नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त, प्रमाण केवल विधिको ही नहीं जानता, क्योंकि, दूसरे पदार्थोंसे भेदको न ग्रहण करनेपर उसकी प्रवृत्तिके संकरताका प्रसंग अथवा समान रूपसे अज्ञानका प्रसंग आवेगा । वह प्रमाण प्रतिषेध मात्रको ग्रहण नहीं करता, क्योंकि, विधिको न जाननेपर वह ' यह इससे भिन्न है' ऐसा ग्रहण करनेके १ जयध. १, पृ. १९९६ २ किच, न नयः प्रमाणम् प्रमाणव्यपाश्रयस्य वस्त्वध्यवसायस्य तद्विरोधात् । 'सकलादेशः प्रमाणाधीनः, विकलादेशो नयाधीनः' इति भिन्न कार्यदृष्ट्वा न नयः प्रमाणम् । जयध. १, पृ. २००. किन्च, न नयः प्रमाणम, एकान्तरूपत्वात , प्रमाणे चानेकान्तरूपसन्दशेनात् । जयध. १,पृ.२०७, Jain Education International For Plate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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