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________________ २८८ ] खंडागमे वेयणाखंड [ ४, १, ६६. संचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो सव्वलोगो वा । एवं मणुस - अपज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्जत्त- बादरपुढविकाइय - आउकाइय-ते उकाइय- पत्तेय - सरीरपज्जत्त-तस अपज्जत्तकदि - णोकदि-अवत्तव्वसंचिदाणं वत्तव्वमविसेसादो । माणुस दीए मणुस - मणुसपज्जत्त - मणुसिणीसु कदि - णोकदि - अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जा भागा सव्वलोगो वा । एवमवगदवेदअकसाय-संजद - जहा क्वादविहार सुद्धिसंजद - केवलणाणि - केवलदंसणीणं वत्तव्वं । देवगदी देवसु कद- णोकदि - अवत्तव्वसंचिदेहि केवडियं खेत फोसिदं लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठ-णवचेोद्दस भागा वा देसूणा । भवणवासिय वाणवेंतर- जो दिसिय देवे हि केवडियं खेत फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो फोसिदो अछुट्ट-अट्ठ-णवचोहसभागा वा देसूणा | सोहम्मीसाणे देवोघभंगो | सणक्कुमारादि जाव सहस्सारदेवेसु कदि णोकदिअवत्तम्व संचिदेहि केवडियं खेत्तं फोसिदं ? लोगस्स असंखेज्जदिभागो अट्ठभागा वा देसूणा । अवक्तव्य संचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा सब लोक स्पृष्ट है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक व प्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्त, कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इनके कोई विशेषता नहीं है। मनुषगतिमें मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में कृति, नोकृति एवं अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग, असंख्यात बहुभाग, अथवा सर्व लोक स्पृष्ट है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, संयत, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, केवलज्ञानी और केवलदर्शनी जीवोंके कहना चाहिये । देवगति देव कृति, नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ व नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । भवनवासी, वानव्यन्तर और ज्योतिषी देवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम साढ़े तीन, आठ व नौ बटे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । सौधर्म व ईशान कल्पमें देवोघ के समान प्ररूपणा है । सनत्कुमार कल्पको आदि लेकर सहस्त्रार कल्प तकके देवोंमें कृति, नोकृति और अवक्तव्यसंचित जीवों द्वारा कितना क्षेत्र स्पृष्ट है ? लोकका असंख्यातवां भाग अथवा कुछ कम आठ बढे चौदह भाग स्पृष्ट हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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