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विषय-परिचय ।
षट्खण्डागमके चतुर्थ खण्डका नाम वेदना है। इस खण्डकी उत्पत्तिका कुछ परिचय पुस्तक १ की प्रस्तावनाके पृ. ६५ व ७२ पर कराया जा चुका है व इसकी खण्डव्यवस्थाके सम्बन्धमें जो शंकायें उत्पन्न हुई थीं उनका निराकरण पुस्तक २ की प्रस्तावना पृ. १५ आदि पर किया जा चुका है । इस खण्डमें अग्रायणीय पूर्वकी पांचवीं वस्तु चयनलब्धिके चतुर्थ प्राभृत कर्मप्रकृतिके चौबीस अनुयोगद्वारोंमेंसे प्रथम दो अर्थात् कृति और वेदना अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा की गई है, एवं वेदना अधिकारका अधिक विस्तार होनेके कारण सम्पूर्ण खण्डका नाम ही वेदना रखा गया है।
प्रस्तुत पुस्तकमें कृतिअनुयोगद्वारकी प्ररूपणा है। इसके प्रारम्भमें सूत्रकार भगवन्त भूतबलि द्वारा ' णमो जिणाणं, णमो ओहिजिणाणं' इत्यादि ४४ सूत्रोंसे मंगल किया गया है। ठीक यही मंगल · योनिप्राभृत ' ग्रन्थमें गणधरवलय मंत्रके रूपमें पाया जाता है । यह प्रन्थ धरसेनाचार्य द्वारा उनके शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलिके निमित्त रचा गया माना जाता है । इसका विशेष परिचय प्रथम पुस्तककी प्रस्तावनाके पृ. २९ आदि पर कराया गया है । ( देखिये Comparative and Critical Study of Mantrashastra by M. B. Jhaveri Appendix A.) । इन मंगलसूत्रोंकी टीकामें आचार्य वीरसेन स्वामीने देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, ऋजुमति व विपुलमति मनःपर्यय, केवलज्ञान एवं मतिज्ञानके अन्तर्गत कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, पदानुसारिणी और संमिन्नश्रोतबुद्धिकी विशद प्ररूपणा की है। उक्त बुद्धि ऋद्धिके साथ ही यहां अन्य सभी ऋद्धियोंका मननीय विवेचन किया गया है । इन मंगलसूत्रोंमें अन्तिम सूत्र ' णमो वद्धमाणबुद्धरिसिस्स ' है। इसकी टीकामें धवळाकारने विस्तारसे विवेचन करके उक्त मंगलको अनिबद्ध मंगल सिद्ध किया है, क्योंकि, वह प्रस्तुत ग्रन्थकारकी रचना न होकर गौतम स्वामी द्वारा रचित है । धवलाकार जीवस्थान खण्डके आदिमें किये गये पंचणमोकार मंत्र रूप मंगलको निबद्ध मंगल कह आये हैं । इस भेदके आधारसे धवलाकारका यह स्पष्ट अभिप्राय जाना जाता है कि वे भगवान् पुष्पदन्ताचार्यको ही गमोकारमंत्रके आदिकर्ता स्वीकार करते हैं। इसका सविस्तर विवेचन पुस्तक २ की प्रस्तावनाके पृ. ३३ आदि पर किया जा चुका है। उस समय पत्र-पत्रिकाओंमें इस विषयकी चर्चा भी चली और णमोकारमंत्रके अनादित्वपर जोर दिया गया। किन्तु विद्वानोंने धवलाकारके अभिप्रायको समझने व उसपर गम्भीरतासे विचार करनेका प्रयत्न नहीं किया ।
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