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________________ १, १, १५.] कदिअणियोगदारे सुत्तावयरण वियप्पुवलंभादो । वत्तव्वं स-परसमया' अत्थाहियारो बारसविहो । तद्यथा- आचारः सूत्रकृतं स्थानं समवायो व्याख्याप्रज्ञप्तिः ज्ञातृधर्मकथा उपासकाध्ययनं अन्तकृद्दशा अनुत्तरोपुपादिकदशा प्रश्नव्याकरणं विपाकसूत्रं दृष्टिवाद इति । तत्र आचारे अष्टादशपदसहस्रे । १८००० । चर्याविधान शुद्धयष्टकं पंचसमिति-त्रिगुप्तिविकल्पं कथ्यते'-- कंधं चरे कधं चिढे कधमासे कधं सए । कधं भुजेज्ज भासेज्ज कधं पावं ण बज्झदि ॥ ७० ॥ जदं चरे जदं चिढे जदमासे जदं सए । जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झदि ॥ ७१ ॥ सूत्रकृते षट्त्रिंशत्पदसहस्रे । ३६००० । ज्ञानविनय-प्रज्ञापना-कल्प्याकल्प्य-छेदोप अंगथुतके विकल्पोंके पाये जानेसे वह अनन्त है। वक्तव्य स्वसमय और परसमय है। अर्थाधिकार बारह प्रकार है। वह इस प्रकारसे- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्तिअंग, शातृधर्मकथांग, उपासकाध्ययनांग, अन्तकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग। उनमेंसे आचारांगमें अठारह हजार पद हैं १८००० । इसमें चर्याविधि, आठ शुद्धियों, पांच समितियों और तीन गुप्तियोंके भेदोंकी प्ररूपणा की जाती है । किस प्रकार चलना चाहिये या आचरण करना चाहिये, किस प्रकार ठहरना चाहिये, कैसे बैठना चाहिये, किस प्रकार सोना चाहिये, कैसे भोजन करना चाहिये और . किस प्रकार भाषण करना चाहिये, जिससे कि पापका बन्ध न हो ? ॥ ७० ॥ यत्नपूर्वक चलना चाहिये, यत्नपूर्वक ठहरना चाहिये, यत्नपूर्वक बैठना चाहिये, यत्नपूर्वक सोना चाहिये, यत्नपूर्वक भोजन करना चाहिये और यत्नपूर्वक भाषण करना चाहिये, इस प्रकार पापका बन्ध नहीं होता ॥ ७१ ॥ छत्तीस हजार ३६००० पद प्रमाण सूत्रकृतांगमें शानविनय, प्रशापना, करण्या १ प्रतिषु ‘स-परसमत्थ' इति पाठः ।। २ष.ख. पु. १, पृ. ९९. आचारे चर्याविधानं शुद्धयष्टक-पंचसमिति-गुप्तिविकल्पं कथ्यते । त. रा. १,२०, १२, तत्थ आचारंग ‘जदं चरे जदं चिढे...' इच्चाइय साहूणमायारं वण्णेदि । जयध. १, पृ. १२२. आचरन्ति समन्ततोऽनुतिष्ठन्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आचारः। तस्मिन् आचारांगे 'जदं चरे जदं चिहे...' इत्याद्युत्तरवाक्यप्रतिपादिदमुनिजनसमस्ताचरणं वर्ण्यते। गो. जी. जी. प्र. ३५६. आयारं पढमंग तत्थहारससहस्सपयमत्तं । यत्थायरति भव्वा मोक्खपहं तेण तं णाम। अं. प. १, १५. ३ कह चरे कह तिढे कहमासे कह सये। कहं भासे कहें भुंजे कहं पार्वण बंधा॥ जदंबरे जद ति? जदमासे जदं सये। जदं भासे जदं भुंजे एवं पावं ण बंधइ ॥अं. प. १, १६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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