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________________ ८६ ] . छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, २१. विलयं पडुच्च णिप्पडिदं संतं तं तं कज्जं करेदि ते वि आसीविसा' त्ति उत्तं होदि । तवाबलेण एवंविहसत्तिसंजुत्तवयणा होदूण जे जीवाणं णिग्गहाणुग्गहं ण कुणंति, ते आसीविसा त्ति घेत्तव्वा । कुदो ? जिणाणुउत्तदो । ण च णिग्गहाणुग्गहेहि संदरिसिद रोस - तोसाणं जिणत्तमत्थि, विरोहादो । एदेसिं सुहानुहलद्धिसहियाणमासीविसाणं जिणाणं णिसुढिय महिवीढेणिवदिदो किदियकम्मं करेमि त्ति उत्तं होदि । णमो दिट्टिविसाणं ॥ २१ ॥ दृष्टिरिति चक्षुर्मनसोर्ग्रहणं, तत्रोभयत्र दृष्टिशब्दप्रवृत्तिदर्शनात् । तत्साहचर्यात्कर्मणोऽपि । रुट्ठा जदि जोएदि चिंतेदि किरियं करेदि वा ' मारेमि 'त्ति तो मारेदि, अण्णंपि असुहकम्मं संरंभपुव्वावलोयणेण कुणमाणो दिट्ठिविस णाम । एवं दिट्ठिअमियाणं पि जाणि जिलाता है, व्याधिवेदना और दारिद्र्य आदिके विनाश हेतु निकला हुआ जिनका वचन उस उस कार्यको करता है, वे भी आशीर्विष हैं, यह सूत्रका अभिप्राय है। तपके प्रभावसे जो इस प्रकारकी शक्ति युक्त वचनोंसे संयुक्त हो करके जीवोंके निग्रह व अनुग्रहको नहीं करते हैं वे आशीर्विष हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्ति है । और निग्रह व अनुग्रह द्वारा क्रमशः क्रोध व हर्षको दिखलानेवालोंके जिनत्व सम्भव नहीं है, क्योंकि, विरोध है । इन शुभ व अशुभ लब्धि सहित आशीर्विष जिनोंको नत होता हुआ पृथिवीतलपर गिरकर वन्दना करता हूं, यह कहनेका तात्पर्य है । दृष्टिविष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २१ ॥ दृष्टि शब्द से यहां चक्षु और मनका ग्रहण है, क्योंकि, उन दोनोंमें दृष्टि शब्दकी प्रवृत्ति देखी जाती है । उसकी सहचरतासे क्रियाका भी ग्रहण है । रुष्ट होकर वह यदि ' मारता हूं ' इस प्रकार देखता है, सोचता है व क्रिया करता है तो मारता है, तथा क्रोधपूर्वक अवलोकनसे अन्य भी अशुभ कार्यको करनेवाला दृष्टिविष कहलाता है । १ तिचादिविविह्मणं विसजुतं जीए वयणमेतेणं । पावेदि णिन्त्रिसचं सा रिद्धी वयणणिव्विसा णामा ॥ अहवा बहुवाहीहिं परिभूदा झत्ति होंति णीरोगा । सोदुं वयणं जीए सा रिद्धी वयणणिव्वा णामा ॥ ति.प. ४-१०७४-१०७५. उग्रविषसंपृक्तोऽप्याहारो येषामास्यगतो निर्विषीभवति यदीयास्यविनिर्गतवचः श्रवणाद्धा महाविषपरीता अपि निर्विषीभवंति ते आस्याविषाः । त. रा. ३, ३६, २. २ प्रतिषु ' महीविद -' इति पाठः । ३ जीए जीओ दिट्ठो महासिणा रोसभरिदहिदएण । अहिदट्ठे व मरिज्जदि दिडिविसा णाम सा रिद्धी ॥ ति. पं. २०१०७९. उत्कृष्टतपसो यतयः क्रुद्धा यमीक्षन्ते स तदैवोप्रविषपरीतो म्रियते ते दृष्टिविष । । त. रा. ३, ३६, २. ४ रोग-विसेहि पहदा दिट्ठीए जीए झति पार्वति । नीरोग - गिव्विसतं सा भणिदा दिट्ठिनिव्विसा रिद्धी ॥ ति. व. ४- १०७६. येषामालोकनमात्रादेवातितीव्र विषदूषिता अपि संतः विगतविषा भवति ते दृष्टिविषाः । ब्र.रा. ३, ३६, २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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