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________________ ४, १, २०. ] कदिअणियोगद्दारे आसक्सि रिद्धिपरूवणा ( ८५ आगासचारणो' । आगासगमणमेत्तजुत्ता आगासगामी । आगासगामित्तादो जीवबधपरिहरणकुसलत्तणेण विसेसिदआगासगामित्तस्स विसेसुवलंभादो अस्थि विसेसो । एदेसिं तवोयलेण आगास गामीण जिणाणं णमो त्ति उत्तं होदि । णमो आसीविसाणं ॥ २० ॥ अविद्यमानस्यार्थस्य आशंसनमाशीः, आशीर्विषं एषां ते आशीर्विषाः । जेसिं जं पडि मरिहि त्ति वयणं णिष्पडिदं तं मारेदि, भिक्खं भमेत्ति वयणं भिक्खं भमावेदि, सीसं छिज्जउ त्ति वयणं सीसं छिंददि, ते आसीविसा' णाम समणा । कथं वयणस्स विससण्णा ? विसमिव विसमिदि उवयारादो । आसी अविसममियं जेसिं ते आसीविसा । जेसिं वयणं थावर-जंगमविसपूरिदजीवे पडुच्च ' णिव्विसा होंतु ' ति णिस्सरिदं ते जीवावेदि, वाहिवेयण-दालिद्दादि हैं वह आकाशचारण है । आकाशमें गमन करने मात्रसे संयुक्त आकाशगामी कहलाता है । सामान्य आकाशगामित्वकी अपेक्षा जीवोंके वधपरिहारकी कुशलतासे विशेषित आकाशगामित्वके विशेषता पायी जानेसे दोनों में भेद है । तपके बलसे आकाश में गमन करनेवाले इन जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है । आशीर्विष जिनोंको नमस्कार हो ॥ २० ॥ अविद्यमान अर्थकी इच्छाका नाम आशिष् है, आशिष् है विष जिनका वे आशीविष कहे जाते हैं । 'सर जाओ ' इस प्रकार जिसके प्रति निकला हुआ जिनका वचन उसे मारता है, 'भिक्षा के लिये भ्रमण करो' ऐसा वचन भिक्षार्थ भ्रमण कराता है, 'शिरका छेद हो' ऐसा वचन शिरको छेदता है, वे आशीर्विष नामक साधु हैं । शंका- वचनके विष संज्ञा कैसे सम्भव है ? समाधान - विषके समान विष है, इस प्रकार उपचारसे वचनको विष संज्ञा प्राप्त है। आशिष् है अविष अर्थात् अमृत जिनका वे आशीर्विष हैं। स्थावर अथवा जंगम विषसे पूर्ण जीवोंके प्रति ' निर्विष हो ' इस प्रकार निकला हुआ जिनका वचन उन्हें १ प्रतिषु ' आगासचारिणी' इति पाठः । २ मर इदि भणिदे जीओ मरेह सहस चि जीए सत्तीए । दुक्खरतवजुदमुणिण आसीदिसणामरिद्धी सा ॥ ति. पं. ४ -१०७८. प्रकृष्टतपोबला यतयो यं ब्रुवते म्रियस्वेति स तत्क्षण एव महाविषपरीतो म्रियते ते आस्यविषाः । त. रा. ३, ३६, २. आसी दादा तग्गय महाविसाssसीविसा दुविहभेया । ते कम्म- जाइभेएण गहा चउब्बिहविकप्पा ॥ प्रवचनसारोद्धार १५०१. विशे. भा. ७९४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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