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________________ १, १, २२.] कदिअणियोगहारे उग्गतवरिद्विपरूषणा [८७ दूण लक्खणं वत्तव्वं । जिणाणमिदि अणुवट्टदे, अण्णहा दिह्रिविसाणं सप्पाणं पि णमोक्कारप्पसंगादो । एदेसिं सुहासुहलद्धिजुत्ताणं तोस-रोसुम्मुक्काणं छविहाणं पि दिट्ठिविसाणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि। (णमो उग्गतवाणं ॥ २२ ॥ उग्गतवा दुविहा उग्गुग्गतवा अवविदुग्गतवा चेदि । तत्थ जो एक्कोववासं काऊण पारिय दो उववासे करेदि, पुणरवि पारिय तिण्णि उववासे करेदि । एवमेगुत्तरवड्डीए जाव जीविदंतं तिगुत्तिगुत्तो होदूण उववासे करेंतो' उग्गुग्गतवो' णाम । एदस्सुववास-पारणाणयणे सुत्तं ___ उत्तरगुणिते तु धने पुनरप्यष्ठापितेऽत्र गुणमादिम् । उत्तरविशेषतं वगितं च योज्यानयेन्मूलम् ॥ २३ ॥) इसी प्रकार दृष्टि-अमृतोंका भी लक्षण जानकर कहना चाहिये । 'जिनोंको' इसकी अनुवृत्ति आती है, क्योंकि, इसके विना दृष्टिविष सोको भी नमस्कार करनेका प्रसंग आता है । इन शुभ व अशुभ लब्धिसे युक्त तथा हर्ष व क्रोधसे रहित छह प्रकारके ही दृष्टिविष जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अर्थ है। उग्रतप जिनोंको नमस्कार हो ॥ २२ ॥ उग्रतप ऋद्धि धारक दो प्रकार हैं-- उग्रंाग्रतप ऋद्धि धारक और अवस्थित उग्रतप ऋद्धि धारक । उनमें जो एक उपवासको करके पारणा कर दो उपवास करता है, पश्चात् फिर पारणा कर तीन उपवास करता है। इस प्रकार एक अधिक वृद्धिके साथ जीवन पर्यन्त तीन गुप्तियोंसे रक्षित होकर उपवास करनेवाला उग्रोग्रतप ऋद्धिका धारक है । इसके उपवास और पारणाओंको लानेके लिये सूत्र विशेषार्थ-इन तीन करणसूत्रोंका पाठ कुछ अशुद्ध प्रतीत होता है जिससे उनका ठीक अर्थ नहीं बैठाया जा सका । किन्तु उनमें जिस गणितकी विवक्षा है वह स्पष्ट १ प्रतिषु ' करेंतवो' इति पाठः । २ उग्गतवा दो भेदा उग्गोग्ग-अवविदुग्गतवणामा ॥ दिक्खोववासमादि कादणं एक्काहिएक्कपचएणं । आमरणंत जवणं सा होदि उग्गोग्गतवरिती ॥ ति. प. १०५०-१०५१. ३ प्रतिषु 'पारणाणयणा' इति पाठः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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