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________________ ४, १, ४५.] कदिअणियोगदौर सुत्तावयरण (२२१ मकुशलं भुक्ते इति भोक्ता' । पूरण-गलनात्पुद्गलः । सुखमसुखं वेदयतीति वेदः । स्वशरीराशेषावयवान्वेवेष्टीति विष्णुः । स्वयमेव भूतवानिति स्वयम्भूः । शरीरमस्यास्तीति शरीरी । मना भवः मानवः । स्वजन-सम्बन्धि-मित्रवर्गादिषु सजतीति सक्ता । चतुर्गतिसंसारे आत्मानं जनयति जायत इति वा जन्तुः । माया अस्यास्तीति मायी "। मानोऽस्यास्तीति मानी। योगोऽस्यास्तीति योगी । संहरधर्मत्वात्संकटः । विसर्पणधर्मत्वादसंकटः । षड्द्रव्याणि क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन् तत्क्षेत्रम् , षड्व्व्यस्वरूपमित्यर्थः; तज्जानातीति क्षेत्रज्ञः । अथवा, अतः भोक्ता है। चूंकि वह कर्म रूप पुद्गलको पूरा करता और गलाता है अतः पुद्गल है। सुख और दुखका चूंकि वेदन करता है अतः वेद है। चूंकि अपने शरीरके समस्त अवयवोंको पुनः पुनः वेष्टित करता है अतः वह विष्णु है। स्वयं ही उत्पन्न होनेके कारण स्वयम्भू है। शरीर होनेके कारण शरीरी है। मनु अर्थात् ज्ञानमें उत्पन्न होनेसे मानव है । चूंकि अपने कुटुम्बी जन, सम्बन्धी एवं मित्रवर्गादिकोंमें आसक्त रहता है अतः सक्ता कहा जाता है । चतुर्गति रूप संसारमें चूंकि अपनेको उत्पन्न कराता है या उत्पन्न होता है अतः जन्तु है। माया युक्त होनेसे मायी है। मान युक्त होनेसे मानी है। योग युक्त हो योगी है । संकोच रूप स्वभावके कारण संकट है । फैलने रूप धर्मसे संयुक्त होनेके कारण असंकट कहलाता है । छह द्रव्य जिसमें रहते हैं अर्थात् वास करते हैं वह क्षेत्र कहलाता है, अर्थात् जो छह द्रव्य स्वरूप है उसका नाम क्षेत्र है; और उसको जो जानता है वह १ कम्म फलं सस्सरुवं च भुजदि इदि भोत्ता । अ. प. २, ८६, ८७. २ कम्म-पोग्गलं पूरेदि गालेदि य पोग्गलो, णिच्छयदो अपोग्गलो। अं. प. ८६, ८७. ३ सव्वं वेइ इदि वेदो। अं. प. २, ८६-८७. ४ प्रतिषु ' सशरीर ' इति पाठः । वावणसीलो विण्ढू । अं. प. २, ८६-८७. ५ सयंभुवणसीलो सयंभू । अं. प. २, ८६-८७. ६ सरीरमस्सत्थि त्ति सरीरी, णिच्छयदो असरीरी । अं. प. २, ८६-८७. ७ माणकादिपज्जयजुत्तो माणवो, णिच्छएण अमाणवो । अं. प. २, ८६-८७. ८ परिग्गहेसु सजदि त्ति सत्ता, णिच्छयदो असत्ता । अं. प. २, ८६-८७. ९ णाणाजोणिसु जायइ ति जंतू , णिच्छएण अजंतू । अं. २, ८६-८७. १० मायारसत्थि ति मायी, णिच्छयदो अमायी । अं. प. २, ८६-८७. ११ माणो अहंकारो अस्सस्थि त्ति माणी, णिच्छयदो अमाणी। अं. प. २, ८६-८७. १२ जोगो मण-वयण-कायलक्खणो अस्सत्थि त्ति जोगी, णिच्छयदो अजोगी । अं. प. २, ८६-८७. १३ जहण्णेण संकुइदपदेसो संकुडो। अं. प. २, ८६-८७. १४ समुग्धादे लोय वाप्पड ति असंकुडो । अं. प. २, ८६-८७. १५ खेत्तं लोयालोयं सस्सरूवं च जाणदि त्ति खेत्तण्हू । अं. प. २, ८६-८५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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