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________________ ४८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४. जीव-पोग्गलदव्वपरिच्छेदकारित्तादो परमोहिजिणेहिंतो महल्लाणं सव्वोहिजिणाणं किमिदि पुव्वमेव णमोक्कारो ण कदो ? ण, सम्वोहिमहल्लत्तावगमणगुणेण सव्वाहीदो परमोहीए महल्लत्तं पेक्खिय तिस्से पुव्वं णमोक्कारविहाणादो। कथं परमोहीदो सवोहिमहल्लत्तमवगम्मदे ? उच्चदे- परमोहिउक्कस्सदव्वमवट्ठिदविरलणाए समखंड करिय दिगे रूवं पडि एगेगो परमाणू पावदि, सो सव्वोहीए विसओ । एत्थ जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तवियप्पा णत्थि, सव्वोहीए एयवियप्पादो' । परमोहिउक्कस्सभावं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे सव्वोहीए उक्कस्सभावो होदि । परमोहिउक्कस्सखेत्तं तप्पाओग्गअसंखेज्जलोगेहि गुणिदे सव्वोहीए उक्कस्सखेत्तं होदि । सोहिउक्कस्सखेत्तुप्पायणटुं परमोहिउक्कस्सखेत्तं तिस्से चेव चरिमअणवद्विदगुणगारेण आवलियाए असंखेज्जदिभागपदुप्पणेण गुणिज्जदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परियम्म वुत्तओहिणिबद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो। तं जहा- परमोहिखेत्तपरूवणा ताव ___ शंका-चूंकि सर्वावधि जिन समस्त संसारी जीव और पुद्गल द्रव्यको जानते हैं, अतः परमावधिजिनोंकी अपेक्षा महान् होनेसे उन्हें ही पूर्वमें नमस्कार क्यों नहीं किया? समाधान नहीं किया, क्योंकि, सर्वावधिके महत्त्वका ज्ञान कराने रूप गुणसे सर्वावधिकी अपेक्षा परमावधिके महत्वको देखकर उसे पहिले नमस्कार किया है । शंका-परमावधिकी अपेक्षा सर्वावधिकी महत्ता कैसे जानी जाती है ? समाधान-इस शंकाका उत्तर देते हैं- परमावधिके उत्कृष्ट द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति जो एक एक परमाणु प्राप्त होता है, वह सर्वावधिका विषय है। यहां जघन्य, उत्कृष्ट और तव्यतिरिक्त विकल्प नहीं हैं, क्योंकि, सर्वावधि एक विकल्प रूप है। परमावधिके उत्कृष्ट भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर सर्वावधिका उत्कृष्ट भाव होता है। परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको उसके योग्य असंख्यात लोकोसे गणित करनेपर सर्वावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। सर्वावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको उत्पन्न करानेके लिये परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलोके असंख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुणकारसे गुणा किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर परिकर्ममें कहे हुए अवधिसे निबद्ध क्षेत्र नहीं बनते। वह इस प्रकारसे-पहिले परमावधिके क्षेत्रकी प्ररूपणा करते हैं । तेजकायिक जीवोंके अव १ सव्वावहिस्स एक्को परमाणू होदि णिव्वियप्पो सो । गो. जी. ४१५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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