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________________ ४, १, १.] कदिअणियोगद्दारे सव्वौहिणाणपरूवणा [ ४७ करिय दिणे चरिम-[दव्व-] वियप्पो होदि । दुचरिमभावं तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे परमोहीए चरिमभावो होदि। परमोहीए असंखेज्जलोगमेत्तदुचरिमअणवहिदगुणगारमण्णेण आवलियाए असंखेज्जदिभागेण गुणिय तेण गुणिदरासिणा दुचरिमखेत्त-काले गुणिदे परमोहीए उक्कस्सखेत्तं उक्कस्सकालो च होदि । सलागासु एगरूवमवणिदे सव्वसलागाओ एत्थ णिहिदाओ । खेत्तोवमअगणिजीवेहि देसोहिउक्कस्सदव्व-खेत्त-काल-भावाणं खंडण-गुणणवारसलागाहि सोहिददव्व-खेत्त-काल-भावे उक्कस्सपरमाही जाणदि त्ति सिद्धं । तेण देसोहीए पुव्वं णमोक्कारो कदो, पच्छा परमोहीए । (णमो सव्वोहिजिणाणं ॥४॥ सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स बोधः सर्वावधिः। एत्थ सव्वसद्दो सयलदव्ववाचओ ण घेत्तव्यो, परदो अविज्जमाणदव्वस्स ओहित्ताणुववत्तीदो । किंतु सव्वसद्दो सब्वेगदेसम्हि रूवयदे वट्टमाणो घेत्तव्यो । तेण सव्वरूवयदं ओही जिस्से त्ति संबंधो कायव्वो । अधवा, सरति गच्छति आकुंचन-विसर्पणादीनीति पुद्गलद्रव्यं सर्च, तमोही जिस्से' सा सव्वोही । असेससंसारि विरलनासे समखण्ड करके देनेपर अन्तिम द्रव्यविकल्प होता है । द्विचरम भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर परमावधिका अन्तिम भाव होता है। परमावधिके असंख्यात लोक मात्र द्विचरम अनवस्थित गुणकारको अन्य आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणित करके उस गुणित राशिसे द्विचरम क्षेत्र और कालको गुणित करनेपर परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट काल होता है । शलाकाओंमेंसे एक रूप कम करनेपर सब शलाकायें यहां समाप्त हो जाती हैं। क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंसे देशावधिके उत्कृष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी खण्डन और गुणन रूप वारशलाकाओंसे शोधित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावको उत्कृष्ट परमावधि जानता है, यह सिद्ध हुआ। इसीलिये देशावधिको पूर्वमें नमस्कार किया है. पश्चात परमावधिको। सर्वावधि जिनोंको नमस्कार हो ॥ ४ ॥ विश्व और कृत्स्न ये सर्व शब्दके समानार्थक शब्द हैं । सर्व है मर्यादा जिस ज्ञानकी वह सर्वावधि है। यहां सर्व शब्द समस्त द्रव्यका वाचक नहीं ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किन्तु सर्व शब्द सबके एक देश रूप रूपी द्रव्यमें वर्तमान ग्रहण करना चाहिये । इसलिये सर्व रूपगत अवधि जिसकी, इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये । अथवा, जो आकुंचन और विसर्पणादिकोंको प्राप्त हो वह पुद्गल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह सर्घावधि है। -............................. १ प्रतिषु जिणस्से' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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