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________________ ४६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ३. परमोहिजहण्णकाले गुणिदे कालस्स बिदियवियप्पो होदि । सलागासु एगरूवमवणेदव्वं । पुणो बिदियवियप्पजहण्णदव्वमवहिदविरलणाए समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं तदियवियप्पदव्वं होदि । बिदियवियप्पभावे तप्पाओग्गअसंखेज्जरूवेहि गुणिदे तदियवियप्पभावो होदि । अवट्ठिदगुणगारगुणिदबिदियवियप्पगुणगारेण बिदियवियप्पखेत्त-काले गुणिदे तदियवियप्पखेत्त-काला होति । सलागासु अण्णेगरूवमवणेदव्वं । चउत्थ-पंचम-छट्ठ-सत्तमादिवियप्पाणमेवं चेव णेदव्वं । णत्थि एत्थ कोच्छि विसेसो । एवं गच्छमाणे अणवट्ठिदगुणगारो कम्हि उद्देसे घणलोगमेत्तो होदि त्ति वुत्ते वुच्चदे- आवलियाए असंखेज्जदिभागस्स छेदणएहि लोगछेदणए ओवट्टिय लद्धमेत्तमद्धाणे गदे अणवट्ठिदगुणगारो लोगमेत्तो होदि, विरलणरासिमेत्तअवट्ठिदगुणगाराणमण्णोण्णब्भत्थरासिस्स तत्थुवलंभादो। तदो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ अणवद्विदगुणगारो असंखेज्जलोगमेत्तो होदि, वियप्पं पडि अवट्ठिदगुणगारेण गुणिजमाणत्तादो । एवं णेदव्वं जाव परमोहीए दुचरिमवियप्पो त्ति । ... संपधि चरिमवियप्पो उच्चदे- परमोहीए दुचरिमदव्वमवद्विदविरलणाए समखंडं कालका द्वितीय विकल्प होता है। शलाकाओंमेंसे एक रूप कम करना चाहिये । पुनः द्वितीय विकल्प रूप जयन्य द्रव्यको अवस्थित विरलनासे समखण्ड करके देनेपर उनमें एक खण्ड तृतीय विकल्प रूप द्रव्य होता है। द्वितीय विकल्प रूप भावको उसके योग्य असंख्यात रूपोंसे गुणित करनेपर तृतीय विकल्प रूप भाव होता है । अवस्थित गुणकारसे गुणित द्वितीय विकल्पके गुणकारसे द्वितीय विकल्पभूत क्षेत्र व कालको गुणित करनेपर तृतीय विकल्प रूप क्षेत्र व काल होते हैं । शलाकाओंमेंसे अन्य एक रूप कम करना चाहिये। चतुर्थ, पंचम, छठे और सातवें आदि विकल्पोंको इसी प्रकार ही ले जाना चाहिये, क्योंकि, यहां कोई भी विशेषता नहीं है। __ शंका - इस प्रकार जानेपर अनवस्थित गुणकार किस स्थानमें घनलोक मात्र होता है ? समाधान -इस प्रकार पूछनेपर उत्तर कहते हैं- आवलीके असंख्यातवें भागके अर्धच्छेदोंसे लोकके अर्धच्छेदोंको अपवर्तित करके लब्ध मात्र अध्वान जानेपर अनवस्थित गुणकार लोक मात्र होता है, क्योंकि, विरलन राशि मात्र अवस्थित गुणकारोंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि वहां पायी जाती है । वहांसे लेकर ऊपर सर्वत्र अनवस्थित गुणकार असंख्यात लोक मात्र होता है, क्योंकि, प्रत्येक विकल्पके प्रति वह अवस्थित गुणकारसे गुणिज्यमान है। इस प्रकार परमावधिके द्विचरम विकल्प तक ले जाना चाहिये। भव अन्तिम विकल्पको कहते हैं- परमावधिके द्विचरम द्रव्यको अवस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaihelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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