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________________ १, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे गंथकत्तारपरूवणा [ १२० ति गंथकत्तारपरूवणा ण कायव्वा इदि ? ण एस दोसो, संखित्तसद्दरयणमणंतत्थावगमहेदुभूदाणेगलिंगसंगयं बीजपदं णाम । तेसिमणयाणं बीजपदाणं दुवालसंगप्पयाणमट्ठारस-सत्तसयभास-कुभाससरूवाणं परूवओ अत्थकत्तारो णाम, बीजपदणिलीणत्थपरूवयाणं दुवालसंगाण कारओ गणहरभडारओ गंथकत्तारओ त्ति अब्भुवगमादो। बीजपदाणं वक्खाणओ त्ति वुतं होदि । किमढें तस्स परूवणा कीरदे ? गंथस्स पमाणत्तपदुप्पायणटुं । ण च राग-दोसमोहोवहओ जहुत्तत्थपरूवओ, तत्थ सच्चवयणणियमाभावादो । तम्हा तप्परूवणा कीरदे । तं जहा- पंचमहव्वयधारओ तिगुत्तिगुत्तो पंचसमिदो णट्ठमदो मुक्कसत्तभओ बीज-कोट्ठपदाणुसारि-सभिण्णसोदारत्तुवलक्खिओ उक्कट्ठोहिणाणेण असंखेज्जलोगमेत्तकालम्मि तीदाणा- . गद-वट्टमाणासेसपरमाणुपेरंतमुत्तिदव्वपज्जायाणं च पच्चक्खण जाणंतओ तत्ततवलद्धीदो णीहारविवज्जिओ दित्ततवलद्धिगुणेण सव्वकालोववासो वि संतो सरीरतेजुज्जोइयदसदिसो प्ररूपणा नहीं करणा चाहिये? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्षिप्त शब्दरचनासे सहित व अनन्त अर्थोके ज्ञानके हेतुभूत अनेक चिह्नोंसे संयुक्त बीजपद कहलाता है । अठारह भाषा व सात सौ कुभाषा स्वरूप द्वादशांगात्मक उन अनेक बीजपदोंका प्ररूपक अर्थकर्ता है, तथा बीजपदोंमें लीन अर्थके प्ररूपक बारह अंगोंके कर्ता गणधर भट्टारक ग्रन्थकर्ता हैं, ऐसा स्वीकार किया गया है । अभिप्राय यह कि बीजपदोंका जो व्याख्याता है वह ग्रन्थकर्ता कहलाता है। शंका-उक्त कर्ताको प्ररूपणा किसलिये की जाती है ? समाधान-ग्रन्थकी प्रमाणताको बतलानेके लिये कर्ताकी प्ररूपणा की जाती है। राग, द्वेष व मोहसे युक्त जीव यथोक्त अर्थोका प्ररूपक नहीं हो सकता, क्योंकि, उसमें सत्य वचनके नियमका अभाव है। इसी कारण उसकी प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है पांच महाव्रतोंके धारक, तीन गुप्तियोंसे रक्षित, पांच समितियोंसे युक्त, आठ मदोंसे रहित, सात भयोंसे मुक्त; बीज, कोष्ठ, पदानुसारी व सम्भिन्नश्रोतृत्व बुद्धियोंसे उपलक्षित; प्रत्यक्षभूत उत्कृष्ट अवधिज्ञानसे असंख्यात लोक मात्र कालमें अतीत, अनागत एवं वर्तमान परमाणु पर्यन्त समस्त मूर्त द्रव्य व उनकी पर्यायोंको जाननेवाले, तप्ततप लब्धिके प्रभावसे मल-मूत्र रहित, दीप्ततप लब्धिके बलसे सर्व काल उपवास युक्त होकर भी शरीरके तेजसे दशों दिशाओंको प्रकाशित करनेवाले, सर्वौषधि लब्धिके निमित्तसे १ प्रतिषु पन्वाण-' इति पाठः २ प्रतिषु तीदाणागदाणं वट्टमाणा- 'इति पाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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