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________________ १२८ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ४४. सव्वोसहिलद्धिगुणेण सव्वोसहसरूवो अणंतबलादो करंगुलियाए' तिहुवणचालणक्खमो आमियासवीलद्धिबलेण' अंजलिपुडणिवदिदसयलाहारे अमियत्तणेण परिणमणक्खमो महातवगुणेण कप्परुक्खोवमो महाणसक्खीणलद्धिबलेण सगहत्थणिवदिदाहाराणमक्खयभावुप्पायओ अघोरतवमाहप्पण जीवाणं मण-वयण-कायगयासेसदुत्थियत्तणिवारओ सयलविज्जाहि सेवियपादमूलो आयासचारणगुणेण रक्खियासेसजीवणिवहो वायाए मणेण य सयलत्थसंपादणक्खमो अणिमादिअट्ठगुणेहि जियासेसदेवणिवहो तिहुवणनणजेट्टओ परोवदेसेण विणा अक्खराणक्खरसरूवासेसभासंतरकुसलो समवसरणजणमत्तस्वधारित्तणेण अम्हम्हाणं भासाहि अम्हम्हाणं चेव कहदि त्ति सव्वेसिं पच्चउप्पायओ समवसरणजणसोदिदिएसु सगमुहविणिग्गयाणयभासाण संकरेण पवेसस्स विणिवारओ गणहरदेवो गंथकत्तारो, अण्णहा गंथस्स पमाणत्तविरोहादो धम्मरसायणेण समोसरणजणपोसणाणुववत्तीदो । एत्थुववज्जती गाहा--- बुद्धि-तव-विउवणोसह-रस-बल-अक्खीण-सुस्सरत्तादी । ओहि-मणपज्जवेहि य हवंति गणवालया सहिया ॥ ३८ ॥) समस्त औषधियों स्वरूप, अनन्त बल युक्त होनेसे हाथकी कनिष्ठ अंगुलि द्वारा तीनों लोकोंको घलायमान करने में समर्थ, अमृतास्रव आदि ऋद्धियोंके बलसे हस्तपुटमें गिरे हुए सब आहारोंको अमृत स्वरूपसे परिणमाने में समर्थ, महातप गुणसे कल्पवृक्षके समान, अक्षीण महानस लब्धिके बलसे अपने हाथोंमें गिरे हुए आहारोंकी अक्षयताके उत्पादक, अघोरतप ऋाद्धक माहात्म्यस जीवोक मन, वचन एवं काय गत समस्त कष्टोको दूर करनेवाल, सम्पूर्ण विद्याओंके द्वारा सेवित चरणमूलसे संयुक्त, आकाशचारण गुणसे सब जीवसमूहोंकी रक्षा करनेवाले, वचन एवं मनसे समस्त पदार्थोके सम्पादन करने में समर्थ, आणिमादिक आठ गुणोंके द्वारा सब देवसमूहोंको जीतनेवाले, तीनों लोकोंके जनोंमें श्रेष्ठ, परोपदेशके विना अक्षर व अनक्षर रूप सब भाषाओं में कुशल, समवसरणमें स्थित जन मात्रके रूपके धारी होनेसे 'हमारी हमारी भाषाओंसे हम हमको ही कहते हैं ' इस प्रकार सबको विश्वास करानेवाले, तथा समवसरणस्थ जनाके कणे इन्द्रियोम अपने मुहसे निकली हुई अनेक भाषाओंके सम्मिश्रित प्रवेशके निवारकऐसे गणधर देव ग्रन्थकर्ता हैं, क्योंकि, ऐसे स्वरूपके विना ग्रन्थकी प्रमाणताका विरोध होनेसे धर्म-रसायन द्वारा समवसरणके जनोंका पोषण बन नहीं सकता। यहां उपयुक्त गाथा गणधर देव बुद्धि, तप, विक्रिया, औषध, रस, बल, अक्षीण, सुस्वरत्वादि ऋद्धियों तथा अवधि एवं मनःपर्यय ज्ञानसे सहित होते हैं ॥ ३८ ॥ १ प्रतिषु ' कालंगुलियार' इति पाठः। २ प्रतिषु ' अमयादिलद्धिबलेण', मप्रतौ ' अमियादिसादिलद्धिबलेण ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' महाणसक्कीण- ' इति पाठः। ४ अ-काप्रत्योः '-विउलवण्णोवारस-', आप्रतौ -विउवणोसवारस-', मप्रतौ -विउवणोसावारस-' इति पार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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