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________________ १, १, ०१.] कदिअणियोगद्दारे करणकदिपरूवणा [३४५ मणुसेसु उववण्णो, सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्टवस्सादीदो संजमं पडिवण्णो, दो वारे कसाए उवसामेदि, अंतोमुहुत्ते जीविदसेसे मिच्छत्तं गदो, तदो दसवाससहस्सद्विदिएसु देवेसुववण्णो, सम्मत्तं पडिवण्णो, अणताणुबंधी विसंजोएदि, दसवाससहस्साणि सम्मत्तमणुपालेदि, तदो मिच्छत्तं गंतूण बादरेसु उववण्णो, तत्थ अंतोमुहुत्तं जीविदूण सुहुमेसु साहारणकाइएसु उववण्णो, तत्थ खविदकम्मंसियलक्खणेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तं कालमच्छिय उव्वट्टिदो बादरेसुप्पज्जिय अंतोमुत्तमच्छिय पुवकोडाउएसु मणुसेसु उववट्टिय दो वारे कसाए उक्सामिय दसवाससहस्सिएसु देवेसु उववज्जिय पुणो थावरेसु' उप्पज्जिय सुहुमेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमच्छिय बादरेसु अंतोमुहुत्तं पुणरवि पुव्व कोडाउएसु मणुस्सेसु उववण्णो, सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो, सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो, अट्ठवस्सादीदो संजमं पडिवण्णा, सव्वलहुं णाणमुप्पादेदि, उप्पण्णणाण-दसणहरो देसूणपुव्वकोडिं विहरदि, अंतोमुहुत्तं जीविदावसेसे सेलेसिं पडिवण्णो, तस्स चरिमसमयभवसिद्धियस्स खविदकम्मंसियस्स जहणिया परिसादणकदी । तव्वदिरित्ता अजहण्णा । संघादण और पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ, सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हो सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, आठ वर्ष विताकर संयमको प्राप्त हो दो बार कषायोंको उपशमाता है, पुनः अन्तर्मुहूर्त जीवितके शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ, पश्चात् दश हजार वर्ष आयुवाले देवों में उत्पन्न होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धिचतुष्टयका विसंयोजन करता है और दश हजार वर्ष तक सम्यक्त्वका पालन करता है, पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त हो बादर जीवों में उत्पन्न हुआ, वहां अन्तर्मुहूर्त जीवित रहकर सूक्ष्म साधारणकायिकोंमें उत्पन्न हुआ, वहां क्षपितकोशिक स्वरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र काल तक रहकर निकला व बादर जीवों में उत्पन्न हुआ, पुनः वहां अन्तर्मुहूर्त रहकर पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हो दो बार कषायोंको उपशमाकर दश हजार वर्ष आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ, पुनः स्थावरोंमें उत्पन्न होकर सूक्ष्मों में पल्योपमके असंख्यातवें भाग व बादरोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हो सर्वलघु कालमें योनिनिष्क्रमण रूप जन्मसे उत्पन्न हुआ, वहां सर्वलघु कालमें सम्यक्त्वको प्राप्त कर आठ वर्ष वीतनेपर संयमको प्राप्त होता हुआ सर्वलघु कालमें केवलज्ञानको उत्पन्न करता है, पुनः उत्पन्न हुए केवलज्ञान व केवलदर्शनको धारण कर कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार करता है, पश्चात् आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर शैलेश्य भावको प्राप्त करता है; उस चरम समयवर्ती भव्यसिद्धिक क्षपितकर्माशिक जीवके कार्मण शरीरकी जघन्य परिशातनकृति होती है। इससे भिन्न अजघन्य परिशातनकृति होती है। संघातन-परिशातनकृतिक विषयमें इसी प्रकार ही १ प्रतिषु 'बादरेसु' इति पाठः । ७. क. ४४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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