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________________ ११६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, ७१. परिसादणकदीए एवं चेव वत्तव्वं । णवरि एइंदिएसु जहण्णं दादव्वं । एवं सामित्तपरूवणा गदा। __ अप्पाबहुगं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवा' ओरालियसरीरस्स जहणिया संघादणकदी, सुहुमेइंदियजहण्णुववादजोगेणाहारिदओरालियपोग्गलक्खंधपमाणत्तादो। संघादणपरिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा, एइंदियसुहुमस्स बिदियसमयतब्भवत्थस्स जहण्णएगंताणुववड्डीए गहिदएगसमयपबद्धेण सह तत्कालियजहण्णुववाददव्वस्स पढमणिसेगेणूणस्स गहणादो । परिसादणकदी जहणिया असंखेज्जगुणा, बादरवाउजीवस्स पज्जत्तयस्स सव्वलहुमुत्तरसरीरमुट्ठाविदस्स दीहाए विउव्वणद्धाए चरिमसमए वट्टमाणस्स एइंदियपरिणामजोगेणाहारिदओरालियपोग्गलक्खंधग्गहणादो। विउव्वमाणकालभतरे संचएण विणा परिसदिदओरालियसरीरस्स उदयगदपोग्गलक्खंधा कधमेगसमयपबद्धादो असंखेज्जगुणा होंति ? ण, --- ------- कहना चाहिये । विशेष इतना है कि एकेन्द्रियों में जघन्य देना चाहिये; अर्थात् कार्मण शरीरकी जघन्य संघातन-परिशातनकृति एकेन्द्रियोंके होती है, ऐसा कहना चाहिये, इस प्रकार स्वामित्वप्ररुपणा समाप्त हुई । अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार है-औदारिक शरीरकी जघन्य संघातनकृति सबसे स्तोक है, क्योंकि, वह सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य उपपादयोगसे ग्रहण किये गये औदारिक पुद्गलस्कन्धोंके बराबर है। उससे जघन्य संघातन-परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें एकेन्द्रिय सूक्ष्मके उस भवमें स्थित होनेके द्वितीय समयमें जघन्य एकान्तानुवृद्धिसे ग्रहण किये गये एक समयप्रबद्ध के साथ प्रथम निषेकको छोड़ तात्कालिक जघन्य उपपाद द्रव्यका ग्रहण किया गया है। उससे जघन्य परिशातनकृति असंख्यातगुणी है, क्योंकि, इसमें पर्याप्त, सर्वलघु कालमें उत्तर शरीरको उत्पन्न करनेवाले और दीर्घ विक्रिया कालके अन्तिम समयमें रहनेवाले बादर वायुकायिक जीवके एकेन्द्रिय सम्बन्धी परिणामयोगसे ग्रहण किये गये औदारिक पुद्गलस्कन्धोंका ग्रहण किया है। · शंका-विक्रियाकालके भीतर संचयके विना पृथक् होनेवाले औदारिक शरीरके उद्यको प्राप्त हुए पुद्गलस्कन्ध एक समयप्रबद्धसे असंख्यातगुणे कैसे हैं ? १ प्रतिषु 'सबद्धावा ' इति पाठः। २ प्रतिषु · दीसाए ' इति पाठः। ३ अ-आप्रत्योः 'हारिसदंतओरालिय', काप्रतौ ' -हारिदसतओरालिय', 'मप्रतौ ' हारिदतओरालिय' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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