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________________ ४, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे समवसरणपरूवणा [१११ गुणहहियसयएहि मल्लंबरद्ध-बरहिण-गरुड-गय-केसरि-वसह-हंस-चक्कद्धयणिवएहि परिवेढियए', तत्तो परमवरेण अट्ठ तरसयट्ठमंगल-णवणिहिहरचउगोउरमंडिएण' विविहमणि-रयणविचित्तियंगेण आहरणतोरणसयसहियवारेण सुवण्णपायारेण जुत्तए, तस्संतो पुव्वं व दो-दो-डज्झंतसुवंधदव्वगभिणधूवघडमुरव-महुर-रवविराइयतिहूमिधवलहरसमुत्तुंगए, तत्थेव चदुसु रत्यंतरेसु संकप्पियणाणाविहफलदाणसमत्थएहि रुंटतमहुअर-कलगलकलयंठीकुलसंकुलएहि सगकिरणणिवहच्छाइयंबरेहि विविहपुर-गिरि-सरि-सरवर-हिंदोल-लयाहरएहि चउगोउरसंबद्धसुवण्णवणवेश्यामज्जाएहि सिद्धट्ठियबुद्धिद्धसिद्धत्थपायवपवित्तीकयकप्परुक्खवणेहि विहूसियए, तत्तो परं पउमरायमणिमयदेहाहि सगंगणिग्गयतेएण तंबीकयंबराहि सगसव्वंगेहि संधारियजिणिंदयंदाहि मणितोरणंतरियाहि चदुसु रत्यंतरेसु ट्ठियधवलामलपासायविहूसियाहि रत्थामज्झट्ठियणव-णवत्थूहाहि अंचियए, तदो गयणप्फलिहमणिघडिएण अट्टत्तरसयट्टमंगल-णवाणिहिसणाहपउमरायमणिविणिम्मियगोउरेण पायारेण अहिणंदियए, पीढस्स पढममेहलाए फलिह [१०८x२०=१०८०], ऐसी माला-अम्बराध्व अर्थात् सूर्य और चन्द्र-अब्ज-मयूर-गरुड-गज-सिंहवृषभ-हंस और चक्रके चिह्नसे यक्त ध्वजाओंके समहसे घिरा हआ है। इसके आगे एक सौ आठ मंगल द्रव्य व नौ निधियोको धारण करनेवाले चार गोपुरोंसे मण्डित, अनेक प्रकारके मणि व रत्नोंसे विचित्र देहवाले तथा सैकड़ों आभरण व तोरणोंसे सहित द्वारोंसे संयुक्त ऐसे सुवर्णप्राकारसे युक्त है। उसके भीतर पूर्वके समान जलते हुए सुगन्ध द्रव्योंको मध्यमें धारण करनेवाले दो दो धूपघटोंसे युक्त और मृदंगके मधुर शब्दसे विराजित तीन भूमियोंवाले धवल घरोंसे उन्नत है; वहांपर ही चार वीथियोंके अन्तरालोंमें संकल्पित नाना प्रकार फलोंके देनेमें समर्थ, गुंजार करनेवाले भ्रमर व सुन्दर गलेवाली कोयलोंके समूहसे व्याप्त, अपने किरणसम्हसे आकाशको आच्छादित करनेवाले, अनेक पुर-पर्वत-नदी-सरोवर-हिंडोलों एवं लताग्रहोंसे सुंयुक्त, चार गोपुरोसे सम्बद्ध सुवर्णमय वनवेदिका रूप मर्यादावाले, तथा सिद्धप्रतिमाओंसे दीप्त सिद्धार्थ वृक्षोंसे पवित्र किये गये ऐसे कल्पवृक्षवनोंसे विभूषित है; इसके आगे पद्मरागमणिमय देहसे संयुक्त, अपने अंगसे निकलनेवाले तेजसे आकाशको ताम्रवर्ण करनेवाले, अपने सब अंगोंसे जिनेन्द्र-चन्द्रोंको धारण करनेवाले, मणिमय तोरणोंसे अन्तरित, चार वीधियोंके अन्तरालोंमें स्थित धवल व निर्मल प्रासादोंसे विभूषित, ऐसे वीथियोंके मध्यमें स्थित नौ नौ स्तूपोंसे व्याप्त है। इसके आगे आकाश-स्फटिकमणिसे निर्मित तथा एक सौ आठ अष्ट मंगल-द्रव्यों एवं नौ निधियोंसे सनाथ व पद्मरागमणिसे निर्मित गोपुरोंवाले प्राकारसे अभिनन्दित है; पीठकी १ प्रतिषु 'परिठेहियए' इति पाठः। ति. प. ४, ८१८-८१९. ह. पु. ५७-४४. २ प्रतिषु • मंदिएण' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'पावय' इति पाठः। ४ ति. प. ४, ८३३-८३५. ह. पु. ५७-५३. ५ ति. प. ४, ८४४-८४७. ह. पु. ५७-५४. ६ ति. प.४-८४८. ह. पु. ५७-५६. Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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