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________________ ११२] छक्खडागर्म वयणाखड [४, १, ४१. पायारे च विलग्गियाहि फलिहमणिघडियंगियाहि सोलहभित्तीहि कयबारहकोट्ठएहि मणित्थंभुद्धरियएगागासफलिहघडियमंडवच्छाइयएहि सुरलोयसारसुअंधगंधगभिणएहि - चउव्विहसंघ-कप्पवासिय-मणुव-जोइसिय-वाणवेंतर-भवणवासियजुअईहि भवणवासिय-वाणवेंतरजोइसिय-कप्पवासिय-मणुव-तिरिक्खेहि य अणुक्कमेण अहि उत्तएहि विराइए, तिमेहलापीढेण मत्थएण उड्डवड्डमाणदिवायरेण बिदियमेहलाए धरियट्टमहाधय-मंगलेण मत्थयत्थधम्मचक्कविराइयजक्खकाएण मणिमएण समुत्तुंगवड्माणजिणप्पहामंडलते एण णटुंधारए,णिवदंतसुरकुसुमवरिसेण गिरंतरकयमंगलोवहारए, बहुकोडाकोडेमहुरसुरतूररवेण बहिरियतिहुवण-भवणए, मरगयमणिघडियखंधोवक्खंधेण पउमरायमणिमयपवालंकुरेण णाणाविह. फलकलिएण भमर-परहुअ-महुवर-महुरसरविराइएण जिणसासणासोगचिंधेण असोगपायवेण णिण्णासियसयलजणसोगसंघए, सिसिरयरकरधवलेण जोयणंतरवित्थारएण सच्छधवलथूलमुत्ताहलदामकलावसोहमाणपेरंतएण गयणट्ठियछत्तत्तरण वड्डमाणतिहुवणाहिवइत्तचिंधएण सुसोहियए, प्रथम कटनी व स्फटिक-प्राकारसे लगी हुई और स्फटिकमणिसे निर्मित देहवाली सोलह भित्तियोंसे विभक्त किये गये, मणिमय स्तम्भोंसे उद्धृत व एक आकाश स्फटिकसे निर्मित मण्डपसे आच्छादित, स्वर्गलोकके श्रेष्ठ सुगन्ध गन्धद्रव्यको धारण करनेवाले, चतुर्विध मुनिसंघ्र, कल्पवासिनी, मनुष्यनी, ज्योतिष्कदेवी, व्यन्तरदेवी भवनवासि. देवी, भवनवासीदेव, वानव्यन्तरदेव, ज्योतिषीदेव, कल्पवासीदेव, मनुष्य व तिर्यंचोंसे क्रमशः संयुक्त, ऐसे बारह कोठोंसे विराजित है: जिसके मस्तकके ऊपर वर्धमान भगवान् रूपी सूर्य स्थित है, जिसकी द्वितीय कटिनीपर आठ ध्वजाएं व मंगलद्रव्य रखे हुए हैं, जो [प्रथम कटिनीपर ] मस्तकपर स्थित धर्मचक्रसे विराजित यक्षोके शरीरसे संयुक्त है, मणियोंसे निर्मित है, तथा उन्नत वर्धमान जिनके प्रभामण्डल युक्त तेजसे सहित है, ऐसे तीन कटिनी युक्त पीठसे अन्धकारको नष्ट करनेवाला है; गिरती हुई पुष्पवृष्टिसे निरन्तर किये गये मंगल उपहारसे युक्त है; अनेक कोड़ाकोड़ी मधुर स्वरवाले वादित्रोंके शब्दसे त्रिभुवन रूपी भवनको बहरा करनेवाला है; मरकतमणिसे निर्मित स्कन्ध व उपस्कन्धसे सहित, पदमरागमणिमय प्रवालांकरों (पत्तों) से प्रकारके फलोंसे युक्त, भ्रमर कोयल व मधुकरके मधुर स्वरोंसो वराजित तथा जिनशासनके अशोक अर्थात् आत्मसुखके चिह्वस्वरूप अशोक वृक्षसे समस्त जीवोंके शोकसमूहको नष्ट करनेवाला है; चन्द्रकिरणोंके समान धवल, कुछ कम एक योजन विस्तारवाले, स्वच्छ धवल एवं स्थूल मोतियोंकी मालाओंके समूहसे शोभायमान पर्यन्त भागसे संयुक्त तथा वर्धमान भगवान्के तीनों लोकोंके अधिपतित्वके चिह्न रूप ऐसे गगनस्थित तीन छत्रोंसे १ प्रतिबु ' मंदव' इति पाठः। २ ति. प. ४, ८५६-८६३. ह. पु. ५७, १४८-१६.. ३ प्रतिषु ' मुत्थएण ' इति पाठः। ४ ति. प. ४, ८८०-८८१. ह. पु. ५७-१४१. ५ ति.प. ४, ८७०. ह. पु. ५७-१४०. ६ प्रतिषु ' विधेण ' इति पाठः। ७ति.प. ४,९१८-९२७. ह. पु. ५७, १६२-१६६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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