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________________ १, १, ४४.] कदिअणियोगद्दारे वड्डमाणस्स सव्वण्हुत्तं [११३ पंचसेलउरणेरइदिसाविसयअइविउलविउलगिरिमत्थयत्थए, गंगोहोव्व चउहि सुरविरइयवारेहि पविसमाणदेव-विज्जाहर-मणुवजणाण मोहए समवसरणमंडले जिणवइतणुमऊहखीरोवहिणिव्वुडासेसदेहम्मि जक्खिदकरणियरेहि विज्जिज्जमाणाणेयचामरच्छण्णढदिसाविसयम्मि दिव्वामोयगंधसुरसाराणेयमणिणिवहघडिययम्मि गंधउडिपासायम्मि ट्ठियसीहासणारूढेण वड्डमाणभडारएण तित्थमुप्पाइदं ।) __ खेत्तपरूवणा कधं तित्थस्स पमाणत्तं जाणावेदि ? वड्डमाणभयवंतसव्वण्हुत्तलिंगत्तादो । कधं सव्वण्हू वड्डमाणभयवंतो ? चोदसविज्जाठाणबलेण दिट्ठासेसभुवणेण ओहिणाणेण पच्चक्खीकयसगोहिखेत्तभंतरट्ठियसयलजीवकम्मक्खंधेण घाइचउक्कविणासेणुप्पण्णणवकेवललद्धीओ अघाइकम्मसंबंधेण पत्तमुत्तभावजिणट्ठियाओ पेच्छंतएण सोहम्मिदेण तस्स कय. पूजण्णहाणुववत्तीदो । ण च विज्जावाइपूजाए वियहिचारो, अप्पिड्डि-णाण-तरकयाए महिड्डि सुशोभित है; पंचशैलपुर अर्थात् राजगृह नगरके नैऋत्य दिशाभागमें अत्यन्त विस्तृत विपुलाचलके मस्तकपर स्थित है; तथा जो देवों द्वारा रचे गये चार द्वारोंसे गंगाके प्रवाहके समान प्रवेश करनेवाले देव, विद्याधर एवं मनुष्य जनोंको मोहित करनेवाला है, ऐसे समवसरणमण्डल में जिनेद्र देवके शरीरकी किरणों रूप क्षीरसमुद्र में डूबी हुई समस्त देहसे संयुक्त, यक्षेन्द्रोंके हाथोंके समूहोंसे ढोरे गये चामरोंसे आच्छादित आठ दिशाओंको विषय करनेवाले और दिव्य आमोद-सुगन्ध युक्त एवं देवों के श्रेष्ठ अनेक मणियोंके समूहसे रचे गये गन्धकुटी रूप प्रासादमें स्थित सिंहासनपर आरूढ़ वर्धमान भट्टारकने तीर्थ उत्पन्न किया। शंका-क्षेत्रप्ररूपणा तीर्थकी प्रमाणताकी शापक कैसे है ? समाधान-क्योंकि, वह वर्धमान भगवान्की सर्वज्ञताका चिह्न है। शंका-भगवान् वर्धमान सर्वज्ञ थे, यह कैसे सिद्ध होता है ? समाधान-चौदह विद्यास्थानोंके बलसे समस्त भुवनको देखनेवाले, अवाधिज्ञानसे अपने अवधिक्षेत्रके भीतर स्थित सम्पूर्ण जावोंके कर्मस्कन्धोंको प्रत्यक्ष करनेवाले, तथा चार घातिया कर्मोंके नष्ट होनेसे उत्पन्न और अधातिया कर्मोंके सम्बन्धसे मूर्तभावको प्राप्त ऐसी जिन भगवान्में स्थित नौ केवललब्धियोंको देखनेवाले सौधर्मेन्द्र द्वारा की गई उनकी पूजा चूंकि विना सर्वज्ञताके बनती नहीं है. अतः सिद्ध है कि वर्धमान भगवान्द सर्वज्ञ थे। यह हेतु विद्यावादियोंकी पूजासे व्यभिचरित नहीं होता, क्योंकि, अल्प ऋद्धि व ज्ञान युक्त व्यन्तर देवों द्वारा की गई पूजाका महा ऋद्धि व शानसे संयुक्त देवेन्द्रों द्वारा की क. क. १५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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