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________________ ५४ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, १, ६. मसंखं संखं च धारणा ' त्ति सुत्तुवलंभादो । कुदो एदं होदि ? धारणा वरणीयस्स कम्मस्स तिव्वखओवसमादो । बुद्धिमंताणं पि कोट्ठबुद्धी सण्णा, गुण-गुणीणं भेदाभावादो । जिणसद्दो उवरि सव्वत्थ पवाहसरूवेण अणुवट्टावेदव्वा, अण्णा सुत्तट्टाणुववत्तदो । जदि जिणसद्दो णुवट्टदे' तो देस-परम-सव्वाणतो हिकिदियकम्मसत्तेसु किमहं जिणसह । उच्चदे ? ण, तदणुव्युत्तिरपदंसणङ्कं तत्थ तदुत्तदो । तदो णमो कोट्ठबुद्धीणं जिणाणमिदि सिद्धं ! धारणामदिणाणजिणाणं णमोक्कारो किण्ण कदो ? ण, कोट्ठबुद्धीए अवगाहिदासे संधारणाणाणवियप्पाए णमोक्कारे कदे सव्वधारणाणं णमोक्कारसिद्धीदो । मदिणाणादो ओहि केवलगाणाणं विसयविसेसावगमादो तदुष्पत्तिकारणादो च पुव्वमेव मदिणाणीणं णमोक्कारो किण्ण करेदि ? संख्यात काल तक धारणा रहती है ' ऐसा सूत्र पाया जाता है । शंका- यह कहांसे होता है ? समाधान -धारणावरणीय कर्मके तीव्र क्षयोपशमसे होता है । उक्त बुद्धिके धारकों की भी कोष्ठबुद्धि संज्ञा है, क्योंकि, गुण और गुणीके कोई भेद नहीं है । जिन शब्दकी ऊपर सर्वत्र प्रवाह रूपसे अनुवृत्ति लेना चाहिये, क्योंकि, उसके विना सूत्रोंका अर्थ नहीं बनता । "शंका - यदि जिन शब्दकी अनुवृत्ति लेते हैं तो फिर देशावधि, परमावधि, सर्वाधि और अनन्तावधि धारकोंके नमस्कार सूत्रोंमें जिन शब्दका उच्चारण किसलिये किया है ? - समाधान- नहीं, क्योंकि, जिन शब्दकी अनुवृत्तिको दिखलानेके लिये वहां जिन शब्द कहा है । इसलिये ' कोष्ठबुद्धि धारक जिनोंको नमस्कार हो' ऐसा सिद्ध हुआ । शंका - धारणामतिज्ञानी जिनोंको नमस्कार क्यों नहीं किया ? समाधान — नहीं किया, क्योंकि, समस्त धारणाज्ञानके विकल्पोंका अवगाहन करनेवाली कोष्ठबुद्धिको नमस्कार करनेपर सब धारणाज्ञानियों को नमस्कार सिद्ध है । शंका - मतिज्ञानसे अवधि और केवल ज्ञान के विषय की विशेषताका ज्ञान होने से तथा उनकी उत्पत्तिका कारण होने से पहिले ही मतिज्ञानियोंको नमस्कार क्यों नहीं करते ? १ अ आप्रत्योः णुववहृदे ' इति पाठः । २ अप्रतौ तदणुववत्ति', आप्रतौ ' तदणुव्वति ' इति पाठः । ३ प्रतिषु ' णमोक्कार बुद्धीणं ' इति पाठः । Jain Education International . ४ प्रतिपु ' अवगाहदासेस ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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