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________________ ४, १, २. ] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा [ ३३ वड्डिदेसु कालम्मि वि तस्स चेव खेत्तस्स हेट्ठिमसमओ ऐगेगो वड्डावेयव्वो । अह उड्डी अणवट्ठिदा तो वि पढमवियप्पप्पहुडि' अंगुलस्स असंखेज्जदिभागवुड्डीए असंखेज्जा वियप्पा यव्वा, पढमंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्तेसु खेत्तवियपेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वहृदि ति गुरुवदेसादो । पुणो उवरिमंगुलस्स असंखेज्जदिभागेसु वा तस्सेव संखेज्जदिभागेसु वा खेत्तवियष्पेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वढदि त्ति वत्तव्वं, दोहि वि पयारेहि उड्डी विरोहाभावादो । जहण्णकालं किंचूणावलियाए सोहिय सेस विरलिय जहण्णखेत्तूणघणंगुलं समखंड करिय समयं पडि दादूण अवट्ठिदाणवदिवड्डिवियप्पेसु अंगुलस्स असंखेज्जदिभाग-संखेज्जदिभागमेत्तखेत्तवियपेसु गदेसु कालम्मि एगो समओ वड्डदि त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं । एवं गंतूण अणुत्तरविमाणवासियदेवा कालदो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं खेत्तदो सव्वलोगणालिं जाणंति त्ति जहण्णकालूणपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागं विरलिय जहण्णखेत्तूणजहण्णादिअद्धाणं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि लोगस्स असंखेज्जदिभागो असंखेज्जजगपदरमेत्तो पावेदि । एत्थ एगरूवधरिदमेत्तखेत्तवियप्पेसु गदेसु कालम्मि एगो है तो एक एक रूपधरित क्षेत्रोंके बढ़नेपर कालमें भी उस ही क्षेत्रका अधस्तन समय एक एक बढ़ाना चाहिये । अथवा, यदि अनवस्थित वृद्धि है तो भी प्रथम विकल्पसे लेकर अंगुलके असंख्यातवें भाग वृद्धिके असंख्यात विकल्प ले जाना चाहिये, क्योंकि, प्रथम अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। पुनः उपरिम अंगुलके असंख्यातवें भाग अथवा उसके ही संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र विकल्पोंके वीतनेपर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि, दोनों ही प्रकारोंसे वृद्धि होने का कोई विरोध नहीं है । जघन्य कालको कुछ कम आवलीमेंसे कम करके शेषका विरलन कर जघन्य क्षेत्र से हीन घनांगुलको समखण्ड करके प्रत्येक समयके ऊपर देकर अवस्थित व अनवस्थित वृद्धि के विकल्पोंमें अंगुलके असंख्यातवें भाग व संख्यातवें भाग मात्र क्षे त्रविकल्पोंके वीतने पर कालमें एक समय बढ़ता है, ऐसी पूर्वके समान प्ररूपणा करना चाहिये । इस प्रकार जाकर अनुत्तर विमानवासी देव कालकी अपेक्षा पल्योपमके असंख्यातवें भाग और क्षेत्रकी अपेक्षा समस्त लोकनालीको जानते हैं, अतएव जघन्य कालसे रहित पल्योपमके असंख्यातवें भागका विरलन कर जघन्य क्षेत्रसे हीन जघन्य आदि अध्यानको समखण्ड करके देने पर प्रत्येक रूपके प्रति असंख्यात जगप्रतर मात्र लोकका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है । यहां एक रूपधरित मात्र क्षेत्रविकल्पोंके वीत जानेपर कालमें एक समय बढ़ता इ. क. ५. Jain Education International १ अ-काप्रत्योः ' प्पभुडि ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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