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________________ ३४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, २. समओ वड्ढदि त्ति ण वत्तव्वं, हेट्ठिमखेत्त-कालाणमभावप्पसंगादो । तेण घणंगुलस्स असंखेज्जदिमागे कत्थ वि घणंगुलस्स संखेज्जदिभागे कत्थ वि घणंगुले कत्थ वि घणंगुलवग्गे एवं गंतूण कत्थ वि सेडीए कत्थ वि जगपदरे कत्थ वि असंखेज्जेसु जगपदरेसु अदिक्कतेसु एगो समओ वड्ढदि त्ति वत्तव्वं । तेणुक्कस्सखेत्त-कालाणमुप्पत्ती ण विरुज्झदि त्ति सिद्धं । संपदि एवं ताव णेदव्वं जाव दव-खेत्त-काल-भावाणं दुचरिमसमाणवडि' त्ति । दुचरिभसमाणवड्डी णाम का ? जम्हि ठाणे चदुण्णमक्कमेण वुड्डी होदि तिस्से समाणवड्डि त्ति सण्णा । तत्थ चरिमसमाणवड्डिं मोत्तूण हेट्ठिमा दुचरिमसमाण उड्डी णाम । तेत्तियमद्धाणे गंतूण तत्थ को वि भेदो अत्थि तं भणिस्सामो- तत्थ दुचरिमसमाणवड्डीदो उवरि केत्तिया कालवियप्पा ? एक्को समओ। खेत्तवियप्पा पुण असंखेज्जसेडीमेत्ता वा संखेज्जसेडीमेत्ता वा जगसेडीमेत्ता वा सेढीपढमवग्गमूलमेत्ता वा बिदियवग्गमूलसेत्ता वा घणंगुलमत्ता वा घणंगुलस्स [संखेज्जदिभागमेत्ता वा घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता वा किं भवंति आहो ण भवंति त्ति है, ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, इस प्रकार अधस्तन क्षेत्र और कालके अभावका प्रसंग आवेगा। इसलिये घनांगुलके असंख्यातवें भाग, कहींपर घनांगुलके संख्यातवें भाग, कहीं घनांगुल, कहीं घनांगुलके वर्ग, इस प्रकार जाकर कहींपर जगश्रेणी, कहीं जगप्रतर और कहींपर असंख्यात जगप्रतरोंके वीतनेपर एक समय बढ़ता है। ऐसा कहना चाहिये। इसलिये उत्कृष्ट क्षेत्र और कालकी उत्पत्तिमें कोई विरोध नहीं है, यह सिद्ध हुआ। अब इस प्रकार तब तक ले जाना चाहिये जब तक द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी द्विचरम समान वृद्धि नहीं प्राप्त होती। शंका-द्विचरम समानवृद्धि किसे कहते हैं ? समाधान-जिस स्थानमें चारोंकी युगपत् वृद्धि होती है उसकी समानवृद्धि ऐसी संशा है। उसमें चरम समान वृद्धिको छोड़कर उससे नीचेकी वृद्धि द्विचरम समानवृद्धि है। __उतना अध्वान जाकर वहां जो कुछ भी भेद है उसे कहते हैं-वहां द्विचरम समानवृद्धिसे ऊपर कितने कालविकल्प हैं ? एक समय रूप एक विकल्प। किन्तु क्षेत्रविकल्प असं. ख्यात श्रेणी मात्र, अथवा संख्यात श्रेणी मात्र, अथवा जगश्रेणी मात्र, अथवा श्रेणीके प्रथम वर्गमूल मात्र, अथवा द्वितीय वर्गमूल मात्र, अथवा घनांगुल मात्र, अथवा घनांगुलके [संख्यातवें भाग मात्र, अथवा घनांगुलके ] असंख्यातवें भाग मात्र क्या होते हैं या नहीं १ अंगुलअसंखभाग संखं वा अंगुलं च तस्सेव । संखमसंखं एवं सेढी-पदरस्स अद्धवगे ॥ गो. जी. ४०९. २ प्रतिषु — समऊणवति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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