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________________ ४] छक्खंडागमे वयणाखंड [४, १, ११. दट्टण भाविकज्जावगमो सुमिणं णाम महाणिमित्तं । तत्थ वसह-मायंग-सीह-सायर-चंदाइच्चजलकलियकलस-पउमाहिसेय-जलण-पउमायर-भवणविमाण-रयणरासि-सीहासण-कीडंतमच्छपफुल्लदामजुवलाणं अण्णोण्णसंबंधविरहियाणं सुत्ततित्थयरमादूर्ण सोलसण्णं दंसणं छिण्णसुमिणो णाम । पुवावरेण घडताणं भावाणं सुमिणतरेण दंसणं मालासुमिणओ णाम । चंदाइच्च-गहाणमुदयत्थवण-जय-पराजय-गहघट्टण-विज्जुचडक-किंदाउह-चंदाइच-परिवेसुवरागबिंबभेयादि दट्टण सुहासुहावगमो अंतरिक्खं णाम महाणिमित्तं । एदेसु अटुंगमहाणिमित्तेसु कुसलाणं जिणाणं णमो इदि उत्तं होदि) जिणसद्दाणुबुत्तीदो णासंजद-संजदासजदाणं गहणं । णाणेण विसेसिदजिणाणं पुनमेव णमोक्कारो किमढे कदो ? चारित्तदो णाणस्स पहाणत्तपदु स्वरूपको देखकर भावी कार्यको जानना स्वप्न नामक महानिमित्त है। उनमें वृषभ, हाथी, सिंह, समुद्र, चन्द्र, सूर्य, जलसे परिपूर्ण कलश, लक्ष्मीका अभिषेक, अग्नि, तालाब, भवनविमान, रत्नराशि, सिंहासन, क्रीड़ा करती मछलियोंका युगल और पुष्पमालाओंका युगल, इन परस्परके सम्बन्धसे रहित सोलह स्वप्नोंका सोती हुई जिनजननीको जो दर्शन होता है वह छिन्न स्वप्न है। पूर्वापरसे सम्बन्ध रखनेवाले भावोंका स्वप्नान्तरसे देखना माला स्वप्न है। चन्द्र, सूर्य एवं ग्रहके उदय व अस्तमन तथा जय-पराजय, ग्रहघर्षण, विजलीकी ध्वनि, कर्कंधायुध, चन्द्र व सूर्यके परिवेष, उपराग एवं बिम्बभेदादिको देखकर शुभाशुभका जानना अन्तरिक्ष नामक महानिमित्त है। इन अष्टांगमहानिमित्तोंमें कुशल जिनोंको नमस्कार हो, यह सूत्रका अभिप्राय है। जिन शब्दकी अनुवृत्ति होनेसे असंयत और संयतासंयतोंका ग्रहण नहीं है। शंका-ज्ञानसे विशिष्ट जिनोंको पहिले ही नमस्कार किसलिये किया ? समाधान-चारित्रकी अपेक्षा ज्ञानकी प्रधानता बतलानेके लिये ज्ञानविशिष्ट - १ वातादिदोसचत्तो पच्छिमरते मुयंक-रविपहुदि । णियमुहकमलपविलु देक्खिय सउणम्मि सुहसउणं ॥ घडतेलभंगादि रासह-करभादिएसु आरुहणं । परदेसगमण सबं जं देक्खइ असुहसउणं तं ।। जं भासइ दुक्ख सुहप्पमुहं कालत्तए वि संजादं । तं चिय सउणणिमित्तं चिण्हो मालो त्ति दोभेदं ॥ करि-केसरिपहुदीणं दंसणमेत्तादि चिण्हसउणं तं । पुबावरसंबंधं स उणं तं. मालसउणो ति ।। ति. प. ४,१०१३-१०१६. वात-पित्त-श्लेष्मदोषोदयरहितस्य पश्चिमरात्रिविभागे चन्द्र-सूर्यधरादिसमुद्रमुखप्रवेशनसकलमहीमण्डलोपगृहनादिशुभ-घृत-तैलाक्तात्मीयदेहखर-करमारूढावदिग्गमनाघशुभस्वप्नदर्शनादागामिजीवित-मरण-सुख-दुःखाद्याविर्भावकः स्वप्नः । त. रा. ३, ३६, २. २ रवि-ससि-गहपहुदीणं उदयत्थमणादिआई द?णं । खीणत्तं दुक्ख-सुहं जं जाणइ तं हि णहणिमित्तं ।। ति. प. ४-१००३. तत्र रवि-शशि-ग्रह-नक्षत्र-भगणोदयास्तमयादिभिरतीतानागतफलपविभागदर्शनमंतरिक्षम् ।। त. रा. ३, ३६, २. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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