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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १,७. घेत्तव्वं । वीजमिव बीजं । जहा बीजं मूलंकुर-पत्त-पोर-क्खंद'-पसव-तुस-कुसुम-खीरतंदुलादीणमाहारं तहा दुवालसंगत्थाहारं जं पदं तं बीजतुल्लत्तादो बीजं । बीजपदविसयमदिणाणं पि बीजं, कज्जे कारणोवयारादो । संखेज्जसद्दअणंतत्थपडिबद्धअणतलिंगेहि सह बीजपदं जाणंती बीजबुद्धि त्ति भणिदं होदि। ण चीजबुद्धी अणंतत्थपडिबद्धअणंतलिंगबीजपदमवगच्छदि, खोवसमियत्तादो त्ति ? ण', खओवसमिएण परोक्खण सुदणाणेण केवलणाणविसईकयाणंतस्थाण जहा परिच्छेदो कीरदे परोक्खसरूवेण, तहा मदिणाणेण वि अणंतत्थपरिच्छेदो सामण्णसरुवण कीरदे; विरोहाभावादो। जदि सुदणाणिस्स विसओ अणंतसंखा होदि तो जमुक्कस्ससंखेज्जं विसओ चोद्दसपुनिस्से त्ति परिमम्मे उत्तं तं कधं घडदे ? ण एस दोसो, उक्कस्स ---rrrrri कहा जाता है। जिस प्रकार बीज मूल, अंकुर, पत्र, पोर, स्कन्ध, प्रसव, तुष, कुसुम, क्षीर और तंदुल आदिकोंका आधार है उसी प्रकार बारह अंगोंके अर्थका आधारभूत जो पद है वह बीज तुल्य होनेसे बीज है। बीज पद विषयक मतिज्ञान भी कार्यमें कारणके उपचारसे बीज है । संख्यात शब्दोंके अनन्त अर्थोसे सम्बद्ध अनन्त लिगोंके साथ बीज पदको जाननेवाली बीजबुद्धि है, यह तात्पर्य है। शंका-बीजबुद्धि अनन्त अर्थोंसे सम्बद्ध अनन्त लिंग रूप बीजपदको नहीं जानती, क्योंकि, वह क्षायोपशमिक है ? समाधान नहीं, क्योंकि, जिस प्रकार क्षयोपशम जन्य परोक्ष श्रुतज्ञानके द्वारा केवलहानसे विषय किये गये अनन्त अर्थोका परोक्ष रूपसे ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार मतिशामके द्वारा भी सामान्य रूपसे अनन्त अाँको ग्रहण किया जाता है, क्योकि, इसमें कोई विरोध नहीं है। शंका-यदि श्रुतज्ञानका विषय अनन्त संख्या है तो 'चौदहपूर्वीका विषय उत्कृष्ट संख्यात है' ऐसा जो परिकर्ममें कहा है वह कैसे घटित होगा? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उत्कृष्ट संख्यातको ही जानता है, .......................................... १ प्रतिषु 'पोरकंद ' इति पाठः । २ प्रतिषु ' जाणंति' इति पाठः । ३ गोइंदियसुदणाणावरणाणं वीरअंतरायाए । तिविहाणं पगदीणं उक्कस्सखउवसमविसुद्धस्स ॥ संखेज्जसरूपाणं सदाणं तत्थ लिंगसंजुत्तं । एक् चिय बीजपद लडूण परोपदेसेणं || तम्मि पदे आधारे सयलसुदं चिंतिऊण गणेवि । कस्स नि मदेसिणो जा बुद्धीमा जीजबुद्धि ति॥ ति. प. ४, ९७५-९७७. सुकृष्टसुमथान्विते (सुमथिते) क्षेत्रे सारवति कालादिसहायापेक्षं बीजमेकमुप्तं यथानेकबीजकोटिप्रदं भवति तथा नोइन्द्रियावरण श्रुतावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमप्रकर्षे सति एकबीजपदग्रहणादनेकपदार्थप्रतिपत्ति/जबुद्धिः। त.रा.३,३६,२.जो अत्थपएणऽत्थं भशुसरह स बीयवुद्धी ओ (उ)| प्रवचनसारोद्धार १५०३. ४ अप्रतौण' इति पदं नोपलभ्यते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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