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________________ १०] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, १, १. आलंबणेहि भरिओ लोगो झाइ दुमणस्स खवयस्स । जं जं मणसा पस्सइ तं तं आलंबणं होई ॥ ३ ॥ बुद्धीए जले थले आयासे वा संकप्पिओ जिणो चउबिहेसुणिक्खेवेसु कत्थ णिवददे ? णोआगमभावणिक्खेवे, उवजुत्तसरूवादो। ण च एसा ठवणा होदि, अण्णम्हि दवे जिणगुणारोवाभावादो । तम्हा एदस्स वि णमोकारो फलवंतो त्ति सिद्धं । एदेण पंचगुरूणं तवणाणं च णमोक्कारो कदो, सव्वेसिमेत्थ संभवादो । तं जहा - जिणा दुविहा सयल-देसजिणभेएण । खवियघाइकम्मा सयलजिणा । के ते ? अरहंत-सिद्धा । अवरे आइरिय-उवझाय-साहू देसजिणा . ध्यानमें मन लगानेवाले क्षपकके लिये यह लोक ध्यानके आलम्बनोंसे परिपूर्ण है। ध्यानमें ध्याता जो जो मनसे देखता है वह वह आलम्बन हो जाता है ॥ ३॥ शंका-बुद्धिसे जलमें, स्थलमें अथवा आकाशमें संकल्पित जिन चार प्रकार निक्षेपोंमेंसे किसमें अन्तर्भूत है ? समाधान-नोआगमभावनिक्षेपमें, क्योंकि, वह उपयुक्त स्वरूप है । यह स्थापना नहीं है, क्योंकि, अन्य द्रव्यमें जिनगुणोंके आरोपणका अभाव है। इस कारण इसको भी किया गया नमस्कार सफल है, यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-काष्ठ व वस्त्रादि रूप तदाकार या अतदाकार वस्तुमें जो किसी अन्य पदार्थकी कल्पना की जाती है वह स्थापना निक्षेप कहा जाता है। इस प्रकार स्थापनामें दो पदार्थोका होना आवश्यक है। परन्तु यहां चूंकि बुद्धिसे जल-थलादिमें की जानेवाली जिनकी कल्पनामें दो पदार्थोंका अस्तित्व है नहीं, अतः वह स्थापना नहीं कहला सकती। किन्तु जिनस्वरूपको ग्रहण करनेवाले ज्ञानसे परिणत होनेके कारण उसे उपयुक्त नोआगमभाव जिन कहना ही उचित है । (देखो पीछे पृ. ८)। ___ इस सूत्रके द्वारा पांच गुरुओं व उनकी स्थापनाओंको भी नमस्कार किया गया है, क्योंकि, यहां सबोंकी सम्भावना है । वह इस प्रकारसेसकल जिन और देश जिनके भेदसे जिन दो प्रकार हैं। जो घातिया कर्मोका क्षय कर चुके हैं, वे सकल जिन हैं। वे कौन हैं ? अरहन्त और सिद्ध । इतर आचार्य, उपाध्याय और २ काप्रतीचउविहो एसु' इति पाठः। १ भ. आ. १८७६. ३ अ-काप्रयोः । एसो' इति पाठः। Jain Education International .For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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