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________________ ४, १, १. ] कदिअणियो गद्दारे मंगलायरणं [ ९ णमोक्कारो वि पावपणासओ त्ति किण्ण इच्छिज्जदि, विसेसाभावाद । णाम दव्व णोआगमउवत्तभावजिणाणं णमोक्कारो किण्ण कीरदे ? ण, तेसिं जिणत्त - जिणट्ठवणत्ताभावादो । कुदो ? ण तात्र जिणत्तं, अनंतणाणादिजिणेणिबन्धणगुणविरहियाणं जिणत्तविरोहादो | ण तेर्सि ठवणभाववि, तत्थ जिणत्तारोवाभावादो । भावे वा ण ते णामादओ, ठवणाए तेसिमंत - भावाद । ण चोभयवज्जिएसु णमोक्कारो पावपणासओ, अइप्पसंगादो । जदि एवं तो तिकालविसेसियमुणि-जिणसरी रुज्जंत-चंपा - पावाणयरादिणमोक्कारो णिष्फलो होदि ति ण संकणिज्जं, तेर्सि सब्भावासम्भावद्ववर्णतन्भूदाणं णमोक्कारस्स णिष्फलत्तविरोहादो । सन्भावासब्भाव वणण मोक्कारे फलवंते संते सव्वेसिं जिणट्ठवणत्तमावण्णाणं णमोक्कारो फलवंतो जायदे | उत्तं च जिनेन्द्र नमस्कार के समान जिनस्थापना नमस्कार भी पापका विनाशक है, ऐसा क्यों नहीं स्वीकार करते, क्योंकि, दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । - शंका- - नाम जिन, द्रव्य जिन और नोआगमउपयुक्तभाव जिनको नमस्कार क्यों नहीं करते ? समाधान - नहीं करते, क्योंकि, उनमें जिनत्व और जिनस्थापनात्वका अभाव है । कारण कि उन तीनों जिनोंके जिनत्व तो बनता नहीं है, क्योंकि, जिनत्वके कारणभूत अनन्त ज्ञानादि गुणोंसे रहित होनेसे उनके जिनत्वका विरोध है । स्थापनापना भी उनके नहीं है, क्योंकि, उनमें जिनत्वके आरोपका अभाव है । और यदि आरोप है तो वे नामादिक जिन नहीं हो सकते, क्योंकि, ऐसी अवस्थामें उनका स्थापनामै अन्तर्भाव होता है । और जिनत्व व जिनस्थापनासे रहित अन्य जिनोंमें किया गया नमस्कार पापप्रणाशक नहीं हो सकता, क्योंकि, ऐसा होने में अतिप्रसंग दोष आता है । शंका- यदि ऐसा है तो तीन कालोंसे विशेषित मुनि व जिनका शरीर, एवं ऊर्जयन्त, चम्पापुर और पावानगर आदिको किया जानेवाला नमस्कार निष्फल होगा ? समाधान - ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि, उनके सद्भावस्थापना या असद्भावस्थापनाके अन्तर्भूत होने से नमस्कारकी निष्फलताका विरोध है । सद्भावस्थापना नमस्कार और असद्भावस्थापनानमस्कार के फलवान् होनेपर जिनस्थापनात्वको प्राप्त सबको किया गया नमस्कार फलवान् होता है । कहा भी है १ प्रतिषु ' जिणत्तमर्णतणाणा जिण' ' इति पाठः । छ. क. २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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