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________________ १, १,५२.] कदिअणियोगद्दारे ठवणकदिपरूवणा [२४९ तदो सेसदोपरूवणापडिसेहकरणादो ण णिप्फला हवणकदिसंभालणा। तत्थ ताव सन्भावढवणाहारदेसामासो कीरदे-सा सब्भावठ्ठवणकदी कट्टकम्मेसु वा त्ति वुत्ते काष्ठे क्रियन्त इति निष्पत्तेः देव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं णच्चण-हसण-गायण-तूर-वीणादिवायणकिरियावावदाणं कठ्ठघडिदपडिमाओ कट्ठकम्मे त्ति भणंति । पड-कुड्ड-फलहियादीसु णच्चणादिकिरियावावददेव-णेरइय-तिरिक्ख-मणुस्साणं पडिमाओ चित्तकम्म, चित्रेण क्रियन्त इति व्युत्पत्तेः । पोत्तं वस्त्रम् , तेण कदाओ पडिमाओ पोत्तकम्मं । कड-सक्खर-मट्टियादीणं लेवो लेप्पं, तेण घडिदपडिमाओ लेप्पकम्मं (लेणं पव्वओ, तम्हि घडिदपडिमाओ लेणकम्मं ।। सेलो पत्थरो, तम्हि घडिदपडिमाओ सेलकम्मं । गिहाणि जिणघरादीणि, तेसु कदपडिमाओ गिहकम्मं, हय-हत्थि (द्रव्य व भाव) प्ररूपणाओंमें वह नहीं है; अत एव शेष दो प्ररूपणाओंका प्रतिषेध करनेसे स्थापनाकृतिका स्मरण कराना निष्फल नहीं है। उसमें पहिले सद्भावस्थापनाके आधारभूत देशामर्शको करते हैं अर्थात् कुछ दृष्टान्त देते हैं-'वह स्थापनाकृति काष्ठकलॊमें है ऐसा कहनेपर 'काष्ठमें जो किये जाते हैं वे काष्ठकर्म हैं ' इस निरुक्तिके अनुसार नाचना, हँसना, गाना तथा तुरई एवं वीणा आदि वाद्योंके वजाने रूप क्रियाओंमें प्रवृत्त हुए देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंकी काष्ट से निर्मित प्रतिमाओंको काष्ठकर्म कहते हैं। पट, कुड्य (भित्ति), एवं फलहिका ( काष्ट आदिका तख्ता) आदिमें नाचने आदि क्रियामें प्रवृत्त देव, नारकी, तिर्यंच और मनुष्योंकी प्रतिमाओंको चित्रकर्म कहते हैं, क्योंकि, 'चित्रसे जो किये जाते हैं वे चित्रकर्म हैं' ऐसी व्युत्पत्ति है। पोत्तका अर्थ वस्त्र है, उससे की गई प्रतिमाओंका नाम पोतकर्म है । कट (तृण ), शर्करा (वालु) व मृत्तिका आदिके लेपका नाम लेप्य है। उससे निर्मित प्रतिमायें लेप्यकर्म कही जाती हैं। लयनका अर्थ पर्वत है, उसमें निर्मित प्रतिमाओंका नाम लयनकर्म है। शैलका अर्थ पत्थर है, उसमें निर्मित प्रतिमाओंका नाम शैलकर्म है । गृहोंसे अभिप्राय जिनगृहादिकोंका है, उनमें की गई प्रतिमाओंका नाम गृहकर्म है; घोड़ा, १तत्र क्रियत इति कर्म, काष्ठे कर्म काष्ठकर्म । काष्ठनिकुट्टितं रूपकमित्यर्थः । अनु. टीका सू. १०. २ चित्रकर्म चित्रलिखितं रूपकम् । अनु. टीका सू. १०. ३ 'पोत्थकम्मे व ' ति अत्र पोत्थं पोतं वस्त्रमित्यर्थः । तत्र कर्म तत्पल्लवनिष्पन्नं धीउल्लिकारूपकमित्यर्थः । अथवा पोत्थं पुस्तकम्, तच्चेह संपुटकरूपं ग्रह्यते। तत्र कर्म तन्मध्ये वर्तिकालिखितं रूपकमित्यर्थः। अथवा पोत्थं ताडपत्रादि । तत्र कर्म तच्छेदनिष्पन्न रूपकम् । अनु. टीका सू. १०. ४ लेण्यकर्म लेप्यरूपकम् । अनु. टीका. सू. १०. 5. क. ३२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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