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________________ १४२ छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १,४५. विपर्ययानध्यवसायबोधविशिष्टस्यात्मनः न प्रामाण्यं, संशय-विपर्ययोस्सबाधयोर्निर्बाधविशेषणस्य असत्वात् । अनध्यवसायस्स चार्थानुगमस्याभावात् । ज्ञानस्यैव प्रामाण्यं किमिति नेष्यते ? न, जानाति परिछिनत्ति जीवादिपदार्थानिति ज्ञानमात्मा, तस्यैव प्रामाण्याभ्युपगमात् । न ज्ञानपर्यायस्य स्थितिरहितस्य उत्पाद-विनाशलक्षणस्य प्रामाण्यम् , तत्र त्रिलक्षणाभावतः अवस्तुनि परिच्छेदलक्षणार्थक्रियाभावात् , स्मृति-प्रत्यभिज्ञानुसंधानप्रत्ययादीनामभावप्रसंगाच्च । - तच्च प्रमाणं द्विविधम् , प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणभेदात् । तत्र प्रत्यक्षं द्विविधं, सकलबिकलप्रत्यक्षभेदात् । सकलप्रत्यक्षं केवलज्ञानम् , विषयीकृतत्रिकालगोचराशेषार्थत्वात् अतीन्द्रियत्वात् अक्रमवृत्तित्वात् निर्व्यवधानात् आत्मार्थसन्निधानमात्रप्रवर्तनात् । उक्तं च क्षायिकमेकमनंतं त्रिकालसर्वार्थयुगपद्विभासम् । निरतिशयमत्ययच्युतमव्यवधानं जिनज्ञानम् ॥ ४६॥ इति संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय ज्ञानसे विशिष्ट आत्माके प्रमाणता नहीं हो सकती, क्योंकि, संशय और विपर्ययके बाधायुक्त होनेसे उनमें निर्वाध विशेषणका अभाव है, तथा अनध्यवसायके अर्थबोधका अभाव है। शंका-शानको ही प्रमाण स्वीकार क्यों नहीं करते? समाधान नहीं, क्योंकि 'जानातीति ज्ञानम् ' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवादि पदार्थोंको जानता है वह शान अर्थात् आत्मा है, उसीको प्रमाण स्वीकार किया गया है । उत्पाद व व्यय स्वरूप किन्तु स्थितिसे रहित ज्ञानपर्यायके प्रमाणता स्वीकार नहीं की गई, क्योंकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप लक्षणत्रयका अभाव होनेके कारण अवस्तुस्वरूप उसमें परिच्छित्ति रूप अर्थक्रियाका अभाव है, तथा स्थिति रहित ज्ञानपर्यायको प्रमाणता स्वीकार करनेपर स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व अनुसंधान प्रत्ययोके अभावका भी प्रसंग आता है। वह प्रमाण प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणके भेदसे दो प्रकार है। उनमें प्रत्यक्ष सकल प्रत्यक्ष और विकल प्रत्यक्षके भेदसे दो प्रकार है। केवल ज्ञान सकल प्रत्यक्ष है, क्योंकि, वह त्रिकालविषयक समस्त पदार्थोको विषय करनेवाला, अतीन्द्रिय, अक्रमवृत्ति, व्यवधानसे रहित और आत्मा एवं पदार्थकी समीपता मात्रसे प्रवृत्त होनेवाला है। कहा जिन भगवान्का ज्ञान क्षायिक, एक अर्थात् असहाय, अनन्त, तीनों कालोंके सब पदार्थीको एक साथ प्रकाशित करनेवाला, निरतिशय, विनाशसे रहित और व्यवधानसे विमुक्त है ॥४६॥ १ प्रतिषु । -मवधानं ' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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