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________________ १८६ ' छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, १, १५. वणसुद्धिसंजद-परिहारसुद्धिसंजद सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजद-संजदासजद-चक्खुदंसण-ओहिंदसणतेउ-पम्मलेस्सिय-वेदगसम्माइट्ठि-उवसमसम्माइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-सम्मामिच्छाइट्ठि-सण्णीणं वत्तव्वं, लोगस्स असंखेज्जदिभागत्तणेण भेदाभावादो । तिरिक्खगदीए तिरिक्खा कदि-णोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेते ? सव्वलोगे । कुदो ? आणतियादो । एवं सव्वेइंदिय-कायजोगि-णवंसयवेद-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-मिच्छाइट्ठि-असण्णीणं वत्तव्वमाणतियं पडि भेदाभावादो । मणुस-मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु कदिणोकदि-अवत्तव्वसंचिदा केवडिखेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभागे असंखेज्जेसु वा भागेसु सञ्चलोगे वा । एवं पंचिंदिय-तसाण तेसिं पज्जत्ताणं अवगदवेद-अकसाय-केवलणाणि-जहाक्खादविहारसुद्धिसंजद-केवलदसण-सुक्कलेस्सिय-सम्मादिहि-खइयसम्मादिट्ठीणं वत्तव्वं, केवलिपदस्स सव्वत्थुवलंभादो। बादरेइंदिय-सुहुमेइंदिया तेसिं पज्जत्ता अपज्जत्ता पुढविकाइयआउकाइय-तेउकाइय-वाउकाइय-बादरपुढविकाइय-बादरआउकाइय बादरतेउकाइय-बादरवाउकाइया' तेसिमपज्जत्ता वणप्फदिकाइय-णिगोदजीवा तेसिं पज्जत्तापज्जत्ता कदिसंचिदा केवडि ............................ शानी, सामायिकछेदोपस्थापनाशुद्धिसंयत, परिहारशुद्धिसंयत, सूक्ष्म साम्परायशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, तेज व पद्म लेश्यावाले, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संशी जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, लोकके असंख्यातवें भागकी अपेक्षा इनमें नारकियोंसे कोई भेद नहीं है। तिर्यंचगतिमें तिर्यंच जीव कृति, नोकृति व अवक्तव्य संचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं, क्योंकि, वे अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, काययोगी, नपुंसकवेद, मतिअशानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, मिथ्यादृष्टि और असंही जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, अनन्तताकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं है। मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में कृति, नोकृति और अवक्तव्य संचित कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातये भागमें, अथवा असंख्यात बहुभागोंमें, अथवा सब लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, त्रस, उनके पर्याप्त, अपगतवेदी, अकषाय, केवलज्ञानी, यथाख्यातविहारशुद्धिसंयत, केवलदर्शन, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये, क्योंकि, इन सबमें केवली पद पाया जाता है। बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, उनके पर्याप्त व अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, व कायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजकायिक, बादर वायुकायिक, उनके अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव और उनके पर्याप्त अपर्याप्त जीव कृति १ भ आप्रयोः ‘तेउकास्य-वाउकाइया ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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