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________________ ६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ११. ( णमो विउलमदीणं ॥ ११ ॥ परकीयमतिगतोऽर्थों मतिः। विपुला विस्तीर्णा । कुतो वैपुल्यम् ? यथार्थं मनोगमनात् अयथार्थ मनोगमनात् उभयथापि तदवगमनात् , यथार्थं वचोगमनात् अयथार्थ वचोगमनात् उभयथापि तत्र गमनात् , यथार्थ कायगमनात् अयथार्थ कायगमनात् ताभ्यां तत्र गमनाच्च वैपुल्यम् । विपुला मतिर्यस्य सः विपुलमतिः । तद्योगाज्जिनोऽपि विपुलमतिः। उज्जुवाणुज्जुवमण-वचि-कायगय तेहि दोहि वि पयारेहि तेसिमगयमद्धगयं च वत्थु जाणतस्स विउलमदिस्स जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तदव्व-खेत्त-काल-भावाणं परूवणा कीरदे-दव्वदो जहण्णेण एगसमयमिंदियणिज्जरं जाणदि। उज्जुमदिउक्कस्सदव्वमेव कधं विउलमदिस्स तत्तो बहुवयरस्स विसओ होदि ? ण, चक्खिदियस्स णिज्जराए अजहण्णुक्कस्साए अणंतवियप्पाए उजुमदि विपुलमति जिनोंको नमस्कार हो ॥ ११ ॥ दूसरेकी मतिमें स्थित पदार्थ मति कहा जाता है । विपुलका अर्थ विस्तीर्ण है। शंका-विपुलता किस कारणसे है ? समाधान - यथार्थ मनको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ मनको प्राप्त होनेसे और दोनों प्रकारसे भी मनको प्राप्त होनेसे; यथार्थ वचनको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ वचनको प्राप्त होनेसे और उभय प्रकारसे मी उसमें प्राप्त होने से; यथार्थ कायको प्राप्त होनेसे, अयथार्थ कायको प्राप्त होनेसे तथा उन दोनों प्रकारोंसे भी वहां प्राप्त होनेसे विपुलता है। विपुल है मति जिसकी वह विपुलमति कहा जाता है। विपुल मतिके सम्बन्धसे जिन भी विपुलमति कहलाते हैं। ऋजु या अन्जु मन, वचन व कायमें स्थित उन दोनों ही प्रकारोंसे उनको अप्राप्त और अर्धप्राप्त वस्तुको जाननेवाले विपुलमतिके जघन्य, उत्कृष्ट और तव्यतिरिक्त द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावकी प्ररूपणा करते हैं-द्रव्यकी अपेक्षा वह जघन्यसे एक समय रूप इन्द्रियनिर्जराको जानता है। शंका-ऋजुमतिका उत्कृष्ट द्रव्य ही उससे बहुत श्रेष्ठ विपुलमतिका विषय कैसे हो सकता है ? . समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्त विकल्प रूप चक्षुरिन्द्रियकी अजघन्यानुत्तष्ट १ विउलं वत्थुविसेषण नाणं तग्गाहिणी मई विउला । चिंतियमणुसरइ घडं पसंगओ पज्जवसएहिं ॥ प्रवचनसारोद्धार १५००. २ मणदव्यवग्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्करसं । खंडिदमे होदि हु विउलमदिस्सावरं दध्वं ॥ गो. जी. ४५२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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