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________________ १८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ११. के वि भणंति । तण्ण घडदे, देव-मणुस्सविज्जाहराइसु तस्स णाणस्स अप्पउत्तिप्पसंगादो । 'माणुसुत्तरसेलस्स अभंतरदो चेव जाणदि णो बहिद्धा' ति वग्गणसुत्तेण णिदितृत्तादो माणुसखेत्तअभंतरविदसव्वमुत्तिदव्वाणि जाणदि णो बाहिराणि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, माणुसुत्तरसेलसमीवे ठाइदूण बाहिरदिसाए कओवयोगस्स णाणाणुप्पत्तिप्पसंगादो । होदु चे ण, तदणुप्पत्तीए कारणाभावादो। ण ताव खओवसमाभावादो, अभंतरदिसाविसयणाणुप्पत्तीए अण्णहाणुववत्तीदो खओवसमस्स अत्थित्तसिद्धीए । ण माणुसुत्तरसेलेण अंतरिदत्तादो परभागठ्ठिदत्थेसु णाणाणुप्पत्ती, अणिंदियस्स पच्चक्खस्स तीदाणागयपज्जाएसु वि असंखेज्जेसु वावरंतस्स अभंतरदिसाए पव्वदादीहि अंतरिदत्थे वि जाणंतस्स मणपज्जवणाणिस्स माणुसुत्तरसेलेण पडिघाडाणुववत्तीदो। तदो माणुसुत्तरसेलभंतरवयणं ण खेत्तणियामयं, किंतु माणुसुत्तरसेलभंतरपणदालीसजोयणलक्खणियामयं, विउलमदिमणपज्जवणाणुज्जोयसहिदखेत्तं घणागारेण ठइदे पणदालीसलक्खमेत्तं चेव होदि त्ति । अधवा उवदेसं लद्धण वत्तव्वं । कालदो जहण्णं सत्तट्ठभवग्गहणाणि, उक्कस्सेण असंखेज्जाणि भवग्गहणाणि नहीं होता, क्योंकि, ऐसा मानने पर देव, मनुष्य एवं विद्याधरादिकोंमें विपुलमति मनःपर्ययशानकी प्रवृत्ति न हो सकनेका प्रसंग आवेगा । 'मानुषोत्तर शैलके भीतर ही स्थित पदार्थको जानता है, उसके बाहिर नहीं' ऐसा वर्गणासूत्र द्वारा निर्दिष्ट होनेसे मानुषक्षेत्रके भीतर स्थित सब मूर्त द्रव्योंको जानता है, उससे बाह्य क्षेत्रमें नहीं; ऐसा कोई आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेपर मानुषोत्तर पर्वतके समीपमें स्थित होकर बाह्य दिशामें उपयोग करनेवालेके ज्ञानकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसंग होगा। यदि कहा जाय कि उक्त प्रसंग आता है तो आने दीजिये,सो ऐसा भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि, उसके उत्पन्न न हो सकनेका कोई कारण नहीं है। क्षयोपशमका अभाव होनेसे उसकी उत्पत्ति न हो सो तो है नहीं, क्योंकि, उसके विना मानुषोत्तर पर्वतके अभ्यन्तर दिशाविषयक ज्ञानकी उत्पत्ति भी घटित नहीं होती। अतः क्षयोपशमका अस्तित्व सिद्ध है । मानुषोत्तर पर्वतसे व्यवहित होनेके कारण परभागमें स्थित पदार्थों में शानकी उत्पत्ति न हो, यह भी नहीं हो सकता; क्योंकि, असंख्यात अतीत व अनागत पर्यायों में व्यापार करनेवाले तथा अभ्यन्तर दिशामें पर्वतादिकोसे व्यवहित पदार्थोंको भी जाननेवाले मनःपर्ययज्ञानीके अनिन्द्रिय प्रत्यक्षका मानुषोत्तर पर्वतसे प्रतिघात हो नहीं सकता। अत एव 'मानुषोत्तर पर्वतके भीतर' यह वचन क्षेत्रका नियामक नहीं है, किन्तु मानुषोत्तर पर्वतके भीतर पैतालीस लाख योजनोंका नियामक है, क्योंकि, विपुलमति मनःपर्ययज्ञानके उद्योत सहित क्षेत्रको घनाकारसे स्थापित करनेपर पैंतालीस लाख योजन मात्र ही होता है। अथवा उपदेश प्राप्त कर इस विषयका व्याख्यान करना चाहिये। कालकी अपेक्षा वह जघन्यसे सात-आठ भवग्रहणोंको और उत्कर्षसे असंख्यात १ प्रतिषु ' वादरंतस्स ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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