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________________ ४, १, २.] कदिअणियोगद्दारे देसोहिणाणपरूवणा पुरिसस्स असित्तमिव ओहिसहचरियस्स णाणस्स ओहित्ताविरोहादो। अथवा अवाग्धानादवधिरिति व्युत्पतेर्ज्ञानस्य अवधित्वं घटते। एदेण वक्खाणेण मदि-सुदणाणाणमोहित्तमोसारिदं । पुग्विल्लवक्खाणेण मदि-सुद-मणपज्जवणाणाणमोहिसहचरिदाणमोहिववएसो किण्ण पसज्जदे ? ण, तेसु तहाविहरूढीर णिमित्ताभावादो। ओहिणाणे ओहिववहारो किण्णिमित्तो ? ओहिणाणादो हेट्ठिमसव्वणाणाणि सावहियाणि, उवरिमकेवलणाणं णिरवहियमिदि जाणावणट्ठमोहि असि कहने में कोई विरोध नहीं है, उसी प्रकार अवधिसे सहचरित ज्ञानको अवधि कहनेमें भी कोई विरोध नहीं आता। ___ अथवा, 'अवाग्धानात् अवधिः ' अर्थात् जो अधोगत पुद्गलको अधिकतासे ग्रहण करे वह अवधि है, इस व्युत्पत्तिसे ज्ञानको अवधिपना घटित होता है । इस व्याख्यानसे मति और श्रुत ज्ञानको अवधित्वका निराकरण किया गया है। शंका-पूर्वोक्त व्याख्यानसे मति, श्रुत और मनःपर्यय ज्ञानको अवधिसे सहचरित होने के कारण अवधि संज्ञाका प्रसंग क्यों न आवेगा? समाधान नहीं आवेगा, क्योंकि, उन ज्ञानोंमें उस प्रकार रूढ़िका कोई निमित्त नहीं है। शंका-अवधि शानमें · अवधि' शब्दके व्यवहारका क्या निमित्त है ? समाधान – अवधिज्ञानसे नीचेके सब ज्ञान अवधि सहित और उपरिम केवलज्ञान अवधिसे रहित है, यह बतलानेके लिये ' अवधि' शब्दका व्यवहार किया गया है । विशेषार्थ-यहां शंका उत्पन्न होती है कि मनःपर्यय ज्ञान भी तो सावधि है। परन्तु वह अवधिज्ञानसे नीचेका ज्ञान नहीं है, किन्तु उससे ऊपरका है । अतः “ अवधिज्ञानसे नीचेके सब ज्ञान अवधि सहित और उपरिम केवलज्ञान अवधिसे रहित है, यह बतलानेके लिये अवधि शब्दका व्यवहार किया गया है।" यह समाधान ठीक नहीं मालूम होता? इस शंकाका समाधान यह है कि मनःपर्ययज्ञानका विषय चूंकि अवधिज्ञानकी अपेक्षा कम है अतः वह भी विषयकी अपेक्षा अवधिज्ञानसे नीचेका हो ज्ञान है । इसलिये उपर्युक्त समाधान संगत ही है। 'मति-श्रुतावधि-मनःपर्यय-केवलानि ज्ञानम् ' इस प्रकार तत्वार्थसूत्रादिमें जो मनःपर्ययज्ञानका अवधिशानसे ऊपर निर्देश किया गया है उसका कारण संयमका सहचारित्व है। (देखो कसायपाहुड भा. १ पृ. १७) १ अवाग्धानादवच्छिन्नविषयाद्वा अवधिः। स. सि. १, ९. अवधिशब्दोऽधःपर्यायवचनः, यथाध:क्षेपणमवक्षेपणम्, इत्यधोगतभूयोद्रव्यविषयो अवधिः । त. रा. वा. १, ९, ३. अधस्तादबहुतरविषयग्रहणादवधिरुच्यते। देवाः खलु अवधिज्ञानेन सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति, उपरि स्तोकं पश्यन्ति निजविमानध्वजदण्डपर्यन्त. मित्यर्थः । श्रुतसागरी १, ९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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