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सिरि-भगवंत पुष्पदंत भूदयलि-पणीदो
छक्खंडागमो
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सिरि-वीर सेणाइरिय- विरइय-धवला टीका-समणिदो
तस्स चउत्थे खंडे वेयणाए
कदिअणियोगद्दारं
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सिद्धा मला विसुद्धबुद्धी य लद्धसव्वत्था । तिहुवणसिरसेहरया पसियंतु भडारया सव्वे ॥ तिहुवणभवणप्पसरियपच्चक्खव बोह किरणपरिवेढो । ओ व अत्थवणो अरहंत-दिवायरो जयऊ ॥ २ ॥
आठ कर्मरूपी मलको जला देनेवाले, विशुद्ध बुद्धिसे संयुक्त, समस्त पदार्थोंको जाननेवाले, तथा तीन लोकके शिखरपर स्थित ऐसे सब सिद्ध भट्टारक प्रसन्न होवें ॥ १॥
जिसका प्रत्यक्ष ज्ञानरूपी किरणोंका मण्डल त्रिभुवनरूप भवन में फैला हुआ है, तथा जो उदित होता हुआ भी अस्त होनेसे रहित है, ऐसा अरहन्तरूपी सूर्य जयवन्त होवे ॥ २ ॥
. क. १.
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