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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, १. तिरयण-खग्गणिहाएणुत्तारियमोहसेण्णसिरणिवहो । आइरियराउ पसियउ परिवालियभवियजियलोओ ॥ ३ ॥ अण्णाण-यधयारे अणोरपार भमंतभवियाणं । उज्जोओ जेहि कओ पसियंतु सया उवज्झाया ॥४॥ दुह-तिव्वतिसा-विणडिय-तिहुवणभवियाण सुट्ठराएण । परिठविया धम्म-पवा सुअ-जलवाण-प्पयाणेण ॥ ५ ॥ संधारियसीलहरा उत्तारियचिरपमाददुस्सीलभरा । साहू जयंतु सव्वे सिव-सुह-पह-संठिया हु णिग्गलियभया ॥६॥ । णमो जिणाणं ॥१॥ किमट्ठमिदं वुच्चदे ? मगलहूं । किं मंगलं ? पुव्वसंचियकम्मविणासो । जदि एवं तो रत्नत्रयरूप खड्गके आघातसे मोहकी सैन्यके शिरसमूहको उतारकर भव्य जीवलोकका पालन करनेवाला आचार्यरूपी राजा प्रसन्न होवे ॥३॥ वे उपाध्याय परमेष्ठी सदा प्रसन्न होवें जिन्होंने आर-पार रहित अज्ञानरूप अन्धकारमें भटकनेवाले भव्य-जीवोंको प्रकाश दिया है, तथा जिन्होंने दुखरूपी तीव्र तृषासे व्याकुल हुए तीन लोकके भव्य जीवोंको थुतरूपी जलपान प्रदान करनेके हेतुसे अतिशय राग अर्थात् अनुकम्पासे धर्मरूपी प्याऊको स्थापित किया है ॥ ४-५॥ जिन्होंने चिरकालीन प्रमादरूपी कुशीलके भारको उतारकर शीलके भारको धारण किया है, जो शिवसुखके मार्गमें स्थित हैं, एवं भयसे रहित हैं ऐसे सर्व साधु जयवन्त होवे ॥ ६॥ जिनोंको नमस्कार हो ॥१॥ शंका-यह सूत्र किस लिये कहा जाता है ? समाधान-यह मंगलके लिये कहा जाता है। शंका-मंगल किसे कहते हैं ? समाधान-पूर्व संचित कर्मोंके विनाशको मंगल कहते हैं। शंका-यदि ऐसा है तो 'जिन सूत्रोंका अर्थ जिन भगवान्के मुखसे निकला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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