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________________ छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, १, ३. समयकालो' ति सुत्तादो लब्भदे । खेत्तोवमअगणिजीवेहि, क्षेत्रोपमाश्च ते अग्निजीवाश्च क्षेत्रोपमाग्निजीवाः, तेहि खेत्तोवमागणिजीवेहि सलागभूदेहि जं सिद्धं पोग्गलदव्वं तं लहदि जाणदि । रूवयद-विसेसणं किमढे ? अरूविदव्वपडिसेहटुं। जदि रूविदव्वस्सेव एदेण परिच्छेदो कीरदि तो ण तीदाणागय-वट्टमाणपज्जायाणमेदेण परिच्छेदो कीरदे, तेसिं रूवित्ताभाबादो । तदभावो वि दव्वत्ताभावादो त्ति ? ण एस दोसो, तेसिं पोग्गलपज्जायाणं कथंचि रूविदव्वत्तसिद्धीदो। एसो रूवयदसद्द। मज्झदीवओ त्ति हेट्ठोवरिमे।हिणाणेसु सव्वत्थ जोजेंयत्वो । एदेण दव्वपरूवणा कदा । संपहि एदीए गाहाए सूचिदत्थस्स णिण्णयट्ठमिमा परवणा कीरदे । तं जहा-- सुहुमतेउकाइयअपज्जतयस्स जहण्णोगाहणा अंगुलस्स असंखेज्जदिभागो। तं बादरतेउक्काइयपज्जत्तयस्स उक्कस्सोगाहाणाए तत्तो असंखेज्जगुणाए सोहिय सुद्धसेसम्मि जहण्णोगाहणवियप्पागमणटुं रूवं पक्खिविय सामण्णतेउक्काइयरासिम्मि गुणिदे खेत्तावमअगणिजीव जाता है। क्षेत्रोपम अग्नि जीव-क्षेत्रोपम ऐसे वे आग्न जीव क्षेत्रोपम अग्नि जीव हैं । उन शलाकाभूत क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंसे जो पुद्गल द्रव्य सिद्ध है उसे परमावधि प्राप्त करता है अर्थात् जानता है। शंका-रूपगत विशेषण किस लिये दिया है ? समाधान-अरूपी द्रव्यका प्रतिषेध करनेके लिये रूपगत विशेषण दिया है । शंका-यदि इसके द्वारा केवल रूपी द्रव्यका ही ग्रहण किया जाता है तो फिर इससे अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायोंका ग्रहण नहीं किया जा सकेगा, क्योंकि, वे रूपी नहीं हैं । रूपीपनेका अभाव भी उनमें द्रव्यत्वके अभावसे है ? . समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, उन पुद्गलपर्यायोंके कथंचित् रूपी द्रव्यत्व सिद्ध है। यह रूपगत शब्द चूंकि मध्यदीपक है, अतएव इसे अधस्तन और उपरिम अवधिसानोंमें सर्वत्र जोड़ लेना चाहिये । इस व्याख्यान द्वारा द्रव्यप्ररूपणा की गई है। अब इस गाथा द्वारा सूचित अर्थके निर्णयार्थ यह प्ररूपणा की जाती है। वह इस प्रकार है- सूक्ष्म तेजकायिक अपर्याप्तकी जघन्य अवगाहना अंगुलके असंख्यातवें भाग है। उसे उससे असंख्यातगुणी बादर तेजकायिक पर्याप्तकी उत्कृष्ट अवगाहनामेंसे कम करके शेषमें जघन्य अवगाहनाके विकल्पोंको लानेके लिये एक रूपका प्रक्षेप करके सामान्य तेजकायिक राशिको गुणित करनेपर क्षेत्रोपम अग्नि जीवोंका प्रमाण होता है। यह परमावधिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001403
Book TitleShatkhandagama Pustak 09
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1949
Total Pages498
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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